तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, मार्च 23, 2014

जसवंत सिंह को थूक कर चाटा, फिर थूक दिया

राजनीति वाकई अजीब चीज है। इसमें कुछ भी संभव है। कैसा भी उतार और कैसा भी चढ़ाव। हाल ही बाड़मेर से भाजपा के टिकट से वंचित दिग्गज नेता जसवंत सिंह पर तो यह पूरी तरह से फिट है। ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। ज्ञातव्य है कि खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने जब जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगाया तो उसकी इस राजनीति मजबूरी को थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी।
असल में लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपनी हिंदूवादी पहचान को बरकरार रखने की खातिर अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने के लिए पार्टी को एक ऐसा कदम उठाना पड़ा, जिसे थूक कर चाटना ही नहीं अपितु निगलने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तब पार्टी को तकलीफ तो बहुत थी, लेकिन कोई चारा ही नहीं था। एक वजह ये भी थी कि दूसरी पंक्ति के नेता पुरानी पीढ़ी को धकेलने को आतुर थे ताकि उनकी जगह आरक्षित हो जाए। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा और उन्हें उपराष्ट्रपति पद तक का उम्मीदवार तक बनाना पड़ा। ज्ञातव्य है कि मतों की संख्या लिहाज से भाजपा नीत एनडीए कांग्रेस को वाक ओवर न देने के नाम पर उपराष्ट्रपति पद का चुनाव भी हारने के लिए ही लड़ी। तब सवाल ये उठा था कि आखिर क्या वजह रही कि खुद जसवंत सिंह शहीद होने को तैयार गए? सवाल यह भी कि जिन जसवंत सिंह को वोटों की राजनीति के चलते मजबूरी में निगलने की जलालत झेलनी पड़ी, उन्हें शहीद करवा कर राजनीति की मुख्य धारा से दूर करने का निर्णय क्यों करना पड़ा?
जहां तक भाजपा की थूक कर निगलने की प्रवृति का सवाल है, यह अकेला उदाहरण नहीं।
ताजा उदाहरण कर्नाटक के विवादित हिंदूवादी नेता प्रमोद मुतालिक का है, जिन्हें  पार्टी में शामिल करने के चंद घंटे बाद ही निकालना पड़ गया।  मोदी के 272 के आंकड़े की झोंक में मुतालिक को पार्टी तो ज्वाइन करवा दी गई, मगर जबरदस्त छीछालेदर हुई तो निगले को उगलना पड़ा। और केंद्रीय नेतृत्व को चेहरा बचाने के लिए यह मासूम बहाना बनाना पड़ा कि राज्य बीजेपी ने बिना उसे बताए यह फैसला ले लिया था।
थूक कर चाटने की आदत में वसुंधरा का मामला भी शामिल है। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के बाद भारी दबाव के चलते पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को फिर से विपक्ष का नेता बनाना पड़ा था। वरिष्ठ वकील व भाजपा सांसद राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही रहा। इसी प्रकार पार्टी के शीर्ष नेता आडवाणी को पितातुल्य बता चुकी मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को उनके बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करने और बाद में पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज कर फिर पार्टी में लेने और उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना भी थूक कर चाटना माना गया था।
बहरहाल, अब यह पहला मौका है, जबकि टिकट न दे कर जसवंत को फिर थूकने जैसा कदम उठाया गया है। समझा जा सकता है कि यह संघ के इशारे पर हुआ है, जिसके दबाव में उन्हें पूर्व में पार्टी से बाहर किया गया था।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
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शनिवार, मार्च 08, 2014

मौका देख कर भाजपा के गुर्जर नेताओं ने बोला सचिन पर हमला

एक ओर नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट आगामी 10 मार्च को कांग्रेस की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की देवली में होने वाली सभा की तैयारियों में जुटे हुए हैं, ऐसे में प्रदेश के कुछ भाजपाई गुर्जर नेताओं ने उन पर हमला बोल दिया है। उन्होंने साफ चेताया है कि गल चुकी डूबती कांग्रेस की नैया में नहीं बैठेंगे गुर्जर। वे नेता हैं सरकारी मुख्य सचेतक कालूलाल गुर्जर, भाजपा के पूर्व सांसद एवं पूर्व मंत्री नाथूसिंह गुर्जर, मंत्री हेमसिंह भड़ाना, विधायक अनिता गुर्जर, विधायक अलका सिंह गुर्जर तथा विधायक राजेन्द्र गुर्जर। दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने जो संयुक्त बयान जारी किया है, वह प्रदेश भाजपा के लेटरहैड पर है, जबकि उसमें लिखा है कि उन्होंने ये बयान अजमेर से जारी किया है।
बयान में कहा है कि गुर्जर समाज किसी भी स्थिति में कांग्रेस की गल चुकी उस डूबती नाव में नहीं बैठेगा, जिसका खवैया सचिन पायलट जैसा कमजोर व्यक्ति हो। इन नेताओं ने सचिन को सलाह भी दी है कि वे व्यर्थ मेहनत न करें क्योंकि कांग्रेस ने तो उन्हें शहीद करने के लिए ही प्रदेशाध्यक्ष बनाया है। बयान में लिखा है कि देवली में 10 मार्च को होने वाली राहुल गांधी की रैली में गुर्जरों की भीड़ जुटाने के लिए कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट एड़ी से चोटी का जोर लगा रहे हैं, पर उन्हें इसमें सफलता नहीं मिलेगी, क्योंकि गुर्जर समाज जानता है कि न तो राहुल गांधी ने आरक्षण के मामले में गुर्जरों का साथ दिया और न ही पायलट ने कभी गुर्जरों के आरक्षण को लेकर रुचि दिखाई। पायलट केन्द्र मंत्री हैं और राहुल गांधी यूपीए सरकार ने सर्वेसर्वा, इसके बावजूद ये गुर्जर आरक्षण की पैरवी नहीं कर सके। ये चाहते तो वसुंधरा सरकार ने गुर्जरों के लिए जो 5 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया था, उसे संविधान की नवीं अनुसूची में डलवा कर गुर्जरों को आरक्षण दिलवा सकते थे, क्योंकि राज्य और केन्द्र में इनके ही दल की सरकारें थीं। जब सचिन उनकी सरकार में ही गुर्जरों को आरक्षण नहीं दिलवा पाए, अब तो प्रदेश में जब भाजपा की सरकार बन गई और केन्द्र में भी भाजपा की सरकार बनने वाली है। ऐसे में पायलट उनके लिए क्या कर पायेंगे, ये गुर्जर समाज भलीभांति जानता है। इन सब नेताओं ने कहा कि कांग्रेस आरम्भ से ही गुर्जर समाज की विरोधी रही है। वसुंधरा सरकार के समय में गुर्जरों के उत्थान के लिए 283 करोड़ की देवनारायण योजना के बजट को कांग्रेस की गहलोत सरकार खर्च ही नहीं कर पाई थी और तो और कांग्रेस की गहलोत सरकार ने पूरे पांच साल निकाल दिए।
समझा जा सकता है कि इन गुर्जर नेताओं ने मौका देख कर ही सचिन पर हमला बोला है। उन्हें लगता है कि कहीं वे गुर्जरों को कांग्रेस के पक्ष में लामबंद नहीं कर लें, इस कारण उन्हें कमजोर बता रहे हैं। मगर सवाल ये उठता है कि यदि वे कमजोर हैं तो आखिर क्यों कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए हैं। सवाल ये भी है कि किसी गुर्जर नेता को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठाने के बावजूद गुर्जर समाज कांग्रेस से विमुख हो जाएगा? बयान से ये भी संदेह होता है कि कहीं इन गुर्जर नेताओं को ये डर तो नहीं सता रहा कि सचिन गुर्जरों को अपने पक्ष में करने में कामयाब न हो जाएं? जिस प्रकार संयुक्त बयान जारी किया गया है, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने भाजपा हाईकमान के इशारे पर ही ऐसा किया है, क्योंकि नमो नमो जप रहे भाजपाई नहीं चाहते कि राहुल की सभा कामयाब हो। तभी तो जयपुर में होते हुए भी अजमेर से बयान जारी किया गया है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, मार्च 01, 2014

भाजपा मोदी लहर पर ही सवार हो तोरण मारना चाहती है

विधानसभा चुनाव में प्रचंड और ऐतिहासिक बहुमत से बौराई भाजपा  की सरकार लोकसभा चुनाव के लिए जहां अब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी की लहर के भरोसे है, वहीं कांग्रेस के पास डेमेज कंट्रोल के लिए पर्याप्त वक्त ही नहीं है, सो वह लगभग भगवान भरोसे रहने को मजबूर है।
असल में विपक्ष में रही भाजपा को अपने संगठनात्मक हालात के चलते ये कल्पना भी नहीं थी कि उसे जनता बेशुमार वोटों से नवाज देगी। अलबत्ता उसे यह उम्मीद जरूर थी कि कुछ केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस नीत सरकार के प्रति महंगाई व भ्रष्टाचार के मुद्दे से उपजी नाराजगी और कुछ मोदी लहर के सहारे बहुमत लायक आंकड़ा तो हासिल हो ही जाएगा। ज्ञातव्य है कि पूरे चार साल तक श्रीमती वसुंधरा राजे के राजस्थान में कुछ खास रुचि नहीं लेने के कारण भाजपा की अंदरूनी हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी। पूरी भाजपा वसुंधरा समर्थकों व संघ लॉबी के बीच बंटी हुई थी। चुनाव के मद्देनजर हाईकमान के दबाव में सुलह हुई और वसुंधरा ने सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर अपनी चार साल की लापरवाही को धोने का प्रयास किया। भूूलने की बीमारी से ग्रसित जनता ने न केवल उन्हें माफ कर दिया, अपितु जनसभाओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर यह जता दिया कि वह उनके स्वागत को आतुर है। बावजूद इसके भाजपा को यह कल्पना तक नहीं थी उसे अपार जनसमर्थन हासिल हो जाएगा। इसके अपने कारण भी थे। एक तो अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार का परफोरमेंस बहुत खराब नहीं था। जनता को लुभाने वाली कुछ योजनाएं मध्यकाल में तो कुछ आखिरी दौर में शुरू किए जाने के कारण भाजपा को डर था कि कहीं इनसे प्रभावित हो कर जनता का रुख कांग्रेस की ओर न मुड़ जाए। कदाचित तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी आशा थी कि उनका जादू का पिटारा आखिरी वक्त में काम कर जाएगा। मगर हुआ एकदम उलटा। जनता ने जमानेभर के लाभ हासिल करने के बाद भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। कांग्रेस के लिए यह जबरदस्त झटका था तो भाजपा के लिए आश्चर्यजनक सुखद तोहफा। अच्छे अच्छे राजनीतिविद भी चकित थे कि ये क्या हुआ? कोई भी इसका ठीक से आकलन नहीं कर पा रहा था। कांग्रेस के चौखाने चित्त होने के बाद खुद जनता में भी यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या गहलोत सरकार इतनी भ्रष्ट, नकारा और बेकार थी कि उसे इतनी बुरी तरह से निपटा दिया। सच तो ये है कि निष्पक्ष राजनीतिज्ञों के लिए भी यह एक गुत्थी हो गया कि आखिर जनता आखिर क्या चाहती है? वह क्या सोच कर वोट करती है? उसे कैसे रिझाया जा सकता है? असल में यह वह गुस्सा था जो केन्द्र सरकार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन की वजह से उपजा था। वह एक बार जम कर फटना चाहता था। हालांकि भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को और मजबूत करने के लिए इसे मोदी लहर के रूप में प्रोजेक्ट किया, मगर वाकई ऐसा था नहीं। मोदी का असर था, मगर उसे लहर कहना अतिशयोक्तिपूर्ण ही होगा। सवाल ये उठता है कि अगर वह लहर थी तो दिल्ली में क्यों नहीं चली, वहां भी मोदी ने सभाएं कर पूरी ताकत झोंकी थी।
खैर, एक बार और भी नजर आई। वो यह कि जनता ने इसे लोकसभा चुनाव समझ कर वोट डाल दिया और गहलोत सरकार बुरी तरह से निपट गई। हालांकि सीधे तौर पर इसके लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराने का साहस किसी में नहीं था, मगर खुसरफुसर यही सुनाई दी कि कांग्रेस की हार की प्रमुख वजह केन्द्र के प्रति नाराजगी ही थी।
अब जब कि लोकसभा चुनाव नजदीक हैं, राजनीतिक पंडित इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि इस बार क्या होगा? स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के कुछ माह बाद ही होने जा रहे लोकसभा चुनाव में भाजपा का ग्राफ ऊंचा ही रहने वाला है। हांलाकि भाजपा मोदी के नाम पर राज्य की पूरी पच्चीस सीटें हासिल करने के लिए जोर लगा रही है, मगर अंदाजा उसे भी है कि आंकड़ा बीस तक ही रहेगा। कांग्रेस को भी यही अनुमान है कि वह पांच-सात सीटें हासिल कर ले तो बहुत बड़ी बात होगी। वजह साफ है कि बुरी तरह से निपट चुकी कांग्रेस का हौसला पस्त है। हालांकि फिजां बदलने के लिए कांग्रेस हाईकमान ने युवा और ऊर्जावान नेता सचिन पायलट को प्रदेश की कमान सौंपी है, मगर वह जानता है कि मात्र दो माह में वे कोई जादू करके नहीं दिखा सकते। हाल ही संसद में प्रस्तुत अंतरिम बजट के जरिए कुछ लोकलुभावन कदम उठाए गए हैं, मगर उससे कोई बहुत बड़ा चमत्कार होने की उम्मीद नहीं है। ऐसे में सचिन से ज्यादा आशा करना बेमानी ही होगा। चंद दिनों में वे जर्जर हो चुके संगठन न तो पूरी तरह से बदल सकते हैं और न ही जनता पर जादू की छड़ी घुमा सकते हैं। इस कारण वे संगठन के बड़ा फेरबदल करने की बजाय प्रत्याशियों के उचित चयन पर ध्यान दे रहे हैं, ताकि अधिक से अधिक सीटें हासिल कर सकें। बाकी भगवान भरोसे है।
जहां तक भाजपा का सवाल है, प्रचंड बहुमत के दंभ और नमो-नमो  का जाप करते हुए उसने राज्य की सभी 25 सीटें आराम से अपने कब्जे में ले लेने का मिथ पाल रखा है और और इसीलिए मंहगाई व भ्रष्टाचार से त्रस्त आम आदमी को राहत देने के लिए अब तक उसने कोई ठोस व कारगर कदम नहीं उठाया है, केवल बातें ही हो रही हैं। करने को बहुत कुछ है, मगर फिलहाल इसमें उसकी कोई खास रुचि नहीं है। उसे जरूरत ही महसूस नहीं हो रही। वरना बिजली की दरें भी यहां आधी हो सकती हैं, यदि विद्युत निगमों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर पूरी तरह अंकुश लग जाए। केवल सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लालबत्ती हटा देना या आम आदमी पार्टी की तर्ज पर सादगी का दिखावा कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। मगर चूंकि आम आदमी पार्टी का यहां कुछ खास असर नहीं इस कारण केवल मोदी की लहर पर ही सवार हो कर तोरण मारना चाहती है। ऐसे में अगर ये कहा जाए कि भाजपा को मोदी का भरोसा है तो कांग्रेस को भगवान का तो कोई अतिरंजना नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000