तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, अगस्त 01, 2014

क्या मोदी की लहर अब धीमी हो चली है?

तकरीबन सत्तर दिन पहले हुए जिस चुनाव में उतराखंड की पांचों सीटें मोदी लहर में बह गई थीं, विधान सभा उप चुनाव के नतीजों के साथ ही अब वह लहर थमती नजर आ रही है। जहां खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने धारचूला से जीत हासिल की, वहीं अन्य दोनों सीटों, डोइवाला और सोमेश्वर को कांग्रेस ने बीजेपी से छीन लिया। डोइवाला से पूर्व कैबिनेट मंत्री हीरासिंह बिष्ट ने जीत हासिल की, वहीं सोमेश्वर से ऐन चुनाव से पहले बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुई रेखा आर्य ने विजय पताका फहरायी। इस चुनाव परिणाम ने राजनीतिक हलकों में इस बहस को जन्म दिया है कि आखिर उस लहर का क्या हुआ, जिस पर सवार आकलनकर्ताओं को ये लग रहा था कि अब मोदी पांच साल नहीं बीस साल से ज्यादा के लिए आ गए हैं।
बेशक एक राज्य के विधानसभा चुनाव के परिणाम के आधार पर मोदी सरकार की लोकप्रियता को आंकना गलत है, मगर इतना जरूर लगता है कि मोदी के प्रति जो अत्यधिक आकर्षण दिखाई दे रहा था, वह तो कम हुआ ही है। और उसकी अपनी वजह है।
सबसे बड़ा सवाल महंगाई का है। मोदी ने चुनाव प्रचार ही इस प्रकार किया था कि जैसे ही वे सत्ता पर काबिज होंगे, महंगाई छूमंतर कर देंगे। मानो वे कोई जादूगर हों। कांग्रेस से तंग लोगों ने उन पर यकीन कर लिया। हालांकि यह बात सही है कि जिस माली हालत का भाजपा जिक्र कर रही थी, उसमें सुधार लाने में वक्त लगना था, मगर चूंकि वादे इस तरीके से किए गए थे कि उसके सत्ता में आते ही सारे समाधान हो जाएंगे, इस कारण जनता की अपेक्षाएं बढ़ गईं। दैनिक जरूरत के आलू-प्याज की कीमतें घटने की बजाय बढ़ गईं, तो त्राहि त्राहि मच गई। दोष भले ही मानसून का या काला बाजारियों का था, मगर चूंकि ये बहाना कांग्रेस भी बनाती थी, इस कारण जनता को ये बहाना मंजूर नहीं। खुद वित्त मंत्री जेटली कहते हैं कि निकट भविष्य में महंगाई घटने की कोई उम्मीद नहीं है। हद तो तब हो गई, जब खुद मोदी ने ही कड़वी दवा पीने को तैयार रहने को कह दिया। इसी प्रकार बहुत हुई महंगाई की मार, अब की बार मोदी सरकार के नारे पर झूमने वाले जमीन पर आ गिरे, जब रेल भाड़ा बजट से पहले ही बढ़ा दिया गया। जब ये कहा गया कि ये तो कांग्रेस के कार्यकाल में ही बढऩा प्रस्तावित था, उसे केवल लागू किया गया है, तो लोगों ने सवाल उठाया कि अब तो आपकी सरकार है, आप भी नहीं बढ़ाते। लोगों को तकलीफ इस वजह से हुई कि जिन सुविधाओं का सपना दिखा कर किराया बढ़ाया गया, वे देने से पहले ही किराया बढ़ा दिया गया। इस मुद्दे पर अब भाजपाई ये कह कर बगलें झांकने लगते हैं कि कांग्रेस के कर्मों को दुरुस्त करने में आखिर समय तो लगेगा।
जिन लोगों ने आंख मूंद कर मोदी को झोली भर वोट दिए, उन्हें तब और झटका लगा, जब मोदी सरकार के दोहरे पैमाने सामने आए। जब मोदी ने अपने पहले ही भाषण में राजनीति में अपराधीकरण बर्दाश्त न करने की बात कही, तो लोगों को बढ़ा सुखद लगा, मगर आरोप झेल रहे अपने खासमखास अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बना दिया, तो सवाल उठने ही थे। इसी प्रकार दुराचार के आरोपी निहालचंद को मंत्री पद से नहीं हटाने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
जिस काले धन को वापस लाने के वादे के साथ मोदी सरकार में आए, उस पर जब लोगों ने उनकी ही पार्टी के लोगों के बयान सुने तो वे सकते में आ गए। भाजपा सांसद रिशिकांत दुबे ने कहा कि काला धन इस जन्म में वापस लाना मुश्किल है। गौ हत्या का विरोध कर हिंदुओं का समर्थन लेने वाली भाजपा ने जब गौ-मांस पर टैक्स घटा दिया तो भी सवाल उठे कि वह तो गौ हत्या की बड़ी विरोधी थी। भाजपा के उस दोहरे मापदंड की भी आलोचना हो रही है, जिसमें कांग्रेस राज में वह एफडीआई का विरोध करती रही, मगर अब खुद एफडीआई को ला रही है।
लोगों को याद है वह दिन जब सुषमा स्वराज ने कहा था कि मनमोहन सरकार हाथ पर हाथ रख कर बैठी है, होना तो यह चाहिए कि हमारे एक जवान के बदले में दस पाकिस्तानियों के सिर काट कर लाएं। अब जब आए दिन सीमा पर जवान मर रहे हैं तो भाजपाई ये कह कर चुप हो जाते हैं कि हमारे सैनिक भी तो मार रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक जब पाकिस्तान में भारत के सबसे बड़े दुश्मन हाफिज सईद से मिल कर आए तो सरकार ने यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि उसकी जानकारी में नहीं है। इस पर कांग्रेसी ये कह कर हल्ला मचा रहे हैं कि अगर कांग्रेस राज में ऐसा होता तो भाजपा आसमान सिर पर उठा लेती। आपको याद होगा कि आम आदमी पार्टी के नेता वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने जब कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन किया तो एक हिंदूवादी ने उनको पीट दिया था, जबकि वेद प्रताप वैदिक ने यही बात कही तो उस पर सरकार और भाजपाई चुप हैं।
मोदी सरकार पर इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि कश्मीर में धारा 370 हटाने, राम मंदिर बनाने और कॉमन सिविल कोड पर सरकार चुप है, जबकि भाजपा का असल तीन सूत्री कार्यक्रम यही था, जिसकी बिना पर ही उसका वोटों का जनाधार बना हुआ है।
हाल ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान की भी खिल्ली उड़ाई जा रही है कि सीमा पर गलती से भी घुसपैठ हो जाती है। कहा जा रहा है कि देश नहीं झुकने दूंगा वाले चीनी घुसपेठियो को वापस क्यों जाने दे रहे हैं।
कुल मिला कर अब मोदी सरकार की हर हरकत पर मीडिया व कांग्रेस सहित जनता की पैनी नजर है और उसकी समीक्षा हुए बिना नहीं रहती।
-तेजवानी गिरधर

राजस्थान की शेरनी वसुंधरा बेबस क्यों?

सुराज संकल्प यात्रा के जरिए लोगों के विश्वास कायम करने वाली श्रीमती वसुंधरा राजे ने मोदी लहर के सहारे राजस्थान में प्रचंड बहुमत तो हासिल कर लिया, मगर सत्ता संभालने के आठ माह बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल का गठन न कर पाने को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं। यह पहला मौका है कि वसुंधरा इतनी ताकतवर होने के बाद भी कमजोर दिखाई दे रही हैं, वरना विपक्ष में रहते हुए तो उन्होंने हाईकमान को इतना नचाया था कि उन्हें भी मुलायम, ममता, मायावती, जयललिता की तरह खुद के दम पर राजनीति करने वाली क्षत्रप के गिना जाने लगा था।
आपको याद होगा कि पिछली बार जब उनके नेतृत्व में भाजपा हार गई थी तो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम माथुर के साथ उन्हें भी नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने को कहा गया था, प्रदेश अध्यक्ष माथुर ने तो तुरंत हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, मगर वसुंधरा अड़ गईं। विधायकों पर उनकी इतनी जबदस्त पकड़ थी कि उनके दम पर वे हाईकमान से भिड़ गईं। काफी दिन तक नाटक होता रहा और बमुश्किल उन्होंने पद छोड़ा। छोड़ा भी ऐसा कि उनके बाद किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। आखिरकार हाईकमान को झुकना पड़ा और देखा की वे बहुत ताकतवर हैं और संगठन बौना तथा उनकी उपेक्षा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता तो फिर नेता प्रतिपक्ष बनने का आग्रह किया। एकबारगी तो उन्होंने इंकार कर दिया, मगर पर्याप्त अधिकार देने और उनके मामले में हस्तक्षेप न करने के आश्वासन पर ही मानीं। चुनाव नजदीक आते देख जब लगा कि उनके मुकाबले को कोई भी नेता नहीं है जो भाजपा की वैतरणी पार लगा सके, तो प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया। वे पार्टी के भरोसे पर पूरी तरह से खरी उतरीं भी। न केवल विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलवाया, अपितु लोकसभा चुनाव में भी पच्चीसों सीटें जितवा कर दीं। यानि कि वे पहले के मुकाबले और अधिक ताकतवर हो गई हैं। मगर अब जब मंत्रीमंडल का विस्तार करने की जरूरत है तो ऊपर से हरी झंडी नहीं मिल पा रही। सत्ता संभालते ही उन्होंने न्यूनमत जरूरी 12 मंत्रियों का मंत्रीमंडल बनाया, मगर बाद में उसका विस्तार नहीं कर पाई हैं। यानि कि इन 12 मंत्रियों के सहारे ही सरकार के सारे मंत्रालयों का कामकाज किया जा रहा है, जबकि कुल 30 मंत्री बनाए जा सकते हैं। हालत ये है कि नसीराबाद के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट के अजमेर का सांसद बनने के बाद भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही हैं, जबकि वे विधायक पद से इस्तीफा दे चुके हैं। अभी वे बिना विधायकी के मंत्री हैं। इसको लेकर कांग्रेस ने हंगामा मचा रखा है कि सांसद रहते नियमानुसार उन्हें मंत्री नहीं माना जा सकता, मगर विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने कांग्रेस की आपत्ति को नजरअंदाज कर रखा है।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि मंत्रीमंडल के विस्तार की सख्त जरूरत है, विवाद से बचने के लिए और सरकार को ठीक से काम करने के लिए भी, मगर विस्तार नहीं हो पा रहा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो इस मुद्दे को लेकर हमला भी बोला है कि भारी बहुमत के बावजूद आठ माह से केबिनेट तक नहीं बना पा रही हैं। इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है। इसको लेकर लोगों में इस सरकार के प्रति निराशा उत्पन्न हो रही है। मगर वसुंधरा मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहीं तो शंका होती ही है कि आखिर बात क्या है? विस्तार लगातार टलता जा रहा है। समझा जाता है कि यह स्थिति केन्द्र से तालमेल के अभाव में उत्पन्न हुई है। उनकी पसंद के सांसद, विशेष रूप से अपने सांसद बेटे को मंत्री को मंत्री नहीं बनवा पायी हैं। पच्चीस सांसदों पर एक ही मंत्री निहाल चंद मेघवाल बनाए गए हैं, मगर वे भी उनकी पसंद के नहीं हैं। माना जाता है कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल के विस्तार की गुत्थी के साथ राजस्थान मंत्रीमंडल का विस्तार अटका हुआ है। यूं कहा तो ये जा रहा है कि लिस्ट फाइनल है, मगर उसे स्वीकृति नहीं मिल पा रही। पहले राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष रहते उसे अटकाया और अब नए अध्यक्ष अमित शाह पेच फंसाए हुए हैं। समझा जा सकता है कि अमित शाह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ की कठपुतली हैं और नरेन्द्र मोदी जब चाहेंगे, जैसा चाहेंगे, उसी के अनुरूप मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। खैर, राजस्थान की शेरनी वसुंधरा की मोदी के सामने जो हालत है, उसे देखते तो यही लगता है कि दोनों के बीच ट्यूनिंग कुछ गड़बड़ है। वैसे उम्मीद यही है कि अगस्त माह में मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। केन्द्र का भी और राज्य का भी। तभी पता लगेगा कि वसुंधरा में कितना दमखम है और उनकी पसंद कितनी चल पाई है। वैसे संभावना यही है कि उन्हें स्थानीय संघ लॉबी से मिल कर ही चलना होगा।
-तेजवानी गिरधर