तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

मोदी के विकास को पटरी से नहीं उतार दें ये भाजपा नेता

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास के जिस वादे के साथ आंधी की तरह देश भर में छा गए, उसे देश की अब तक की राजनीति में आशावाद का अनूठा उदाहरण माना जा सकता है। और उससे भी बड़ी बात ये कि उनका सबका साथ सबका विकास नारा इतना लोकप्रिय हुआ है कि तटस्थ मुस्लिमों को भी मोदी भाने लगे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के कुछ बयानवीर मोदी के विकास को पटरी से उतारने को उतारु हैं। हालत ये है कि खुद मोदी को संसद में अपनी मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे बनाम हरामजादे वाले बयान पर खेद तक व्यक्त करके विपक्ष से अपील करनी पड़ी कि साध्वी के माफी मांग लेने के बाद मामला समाप्त मान लिया जाना चाहिए। मोदी जैसे प्रखर नेता के लिए ऐसी अपील करते हुए कितना कष्टप्रद रहा होगा, जब उन्हें यह दलील देनी पड़ी होगी कि साध्वी पहली बार मंत्री बनी हैं और उनकी पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह अकेला एक उदाहरण नहीं कि जिसमें मोदी को खुद के विकास के नारे से जागी आशा में खलल पड़ता दिखाई दिया होगा।
इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा या यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि देश में मोदी का राज लाने में हिंदूवादी संगठन आरएसएस की अहम भूमिका रही है, मगर आम जनता की ओर से जिस प्रकार झोलियां भर कर वोट डाले गए, उसमें मोदी के प्रति विकास की आशा भरी निगाहें टिकी हुई हैं। आम जन लगता है कि मोदी निश्चित ही देश की कायापलट कर देंगे। मगर दूसरी ओर कट्टर हिंदूवादी नेता इसे हिंदुत्व को स्थापित करने का स्वर्णिम मौका मान कर ऐसी ऐसी हरकतें कर रहे हैं, जो मोदी के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। एक ओर मोदी दुनिया भर में घूम कर अपनी छवि को मांजने में लगे हुए हैं तो दूसरी उन्हीं के साथी उनकी टांगे खींच कर सांप्रदायिकता के दलदल में घसीटने से बाज नहीं आ रहे।
देश के ताजा हालात पर जानीमानी पत्रकार तवलीन सिंह की एक टिप्पणी ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि खुद मोदी के ही साथी उनकी जमीन को खोखला कर रहे हैं। आपको बता दे कि यह तवलीन सिंह वही हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग एकपक्षीय पत्रकारिता की थी, लेकिन अब वे भी मानती हैं कि मोदी सरकार ने जब से सत्ता संभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है। ज्ञातव्य है कि उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे बनाम हरामजादे वाले बयान पर आई है। लेकिन अफसोस कि इससे कोई सबक लेने के बजाय यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब गीता के बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है।
मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने जैसे ही हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की, देश धर्मनिरपेक्ष तबका यह सोचने को मजबूर हो गया है कि आखिर भाजपा राजनीति की कौन सी दिशा तय करने की कोशिश कर रही है। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खट्टर का आया है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खट्टर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।
असल में ऐस प्रतीते होता है कि मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघ परिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, मानो इससे बेहतर मौका अपना एजेंडा लागू करने को नहीं मिलने वाला है। एक अर्थ में यह बात सही भी है। पिछली बार जब भाजपा को अन्य दलों के साथ सरकार बनाने का मौका मिला था तो उसे धारा 370, कॉमन सिविल कोड व राम मंदिर के अपने मौलिक एजेंडे को साइड में रखना पड़ा था, मगर अब जबकि भाजपा प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई है, संघनिष्ठों को लगने लगा है कि यदि अब भी वे अपने एजेंडे को लागू न करवा पाए तो फिर जाने ऐसा मौका मिलेगा या नहीं। उन्हें ये खयाल ही नहीं कि मोदी ने हिंदूवादी एजेंडे को गौण कर विकास का नारा देने पर ही उन्हें सफलता हाथ लगी है। ऐसे में यह खतरा उत्पन्न होता नजर आ रहा है कि कहीं संघ खेमे के कुछ नेता कहीं मोदी के विकास को पटरी न उतार दें। आज जब देश महंगाई, भ्रष्टाचार से मुक्ति पा कर विकास के नए आयाम छूने के सपने देख रहा है, इस प्रकार के हिंदूवादी वादी मुद्दे उसकी आशाओं पर पानी न फेर दें, इसकी आशंका उत्पन्न होने लगी है। देखना ये है कि मोदी किस प्रकार संतुलन बना कर देश को विकास की दिशा में ले जाने में कामयाब हो पाते हैं।

सोमवार, दिसंबर 08, 2014

पायलट की जंबो कार्यकारिणी से भी संतुष्ट नहीं हुए कांग्रेसी

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने सभी को खुश करने के लिए जंबो कार्यकारिणी बनाई, बावजूद इसके प्रदेश के कांग्रेसी कार्यकर्ता इससे संतुष्ट नहीं हैं। कार्यकारिणी की घोषणा के तुरंत बाद विरोध के स्वर उठने लगे हैं। जहां जातिगत उपेक्षा के आरोप लग रहे हैं, वहीं काम करने वालों को जगह नहीं दिए जाने पर नाराजगी जाहिर की जा रही है। श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व में चल रही पाटी भले ही महिलाओं को राजनीति में आगे लाने की पैरवी करती हो, मगर उनको भी उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाने का अफसोस है।
कुछ अति उत्साही कार्यकर्ता अपने विरोध को मुखर करने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक व वाट्स ऐप का उपयोग कर रहे हैं। देखिए एक बानगी-
कांग्रेस ने अपने सच्चे और सक्रिय कार्यकर्ता की अनदेखी कर सोशल मीडिया पर कांग्रेस से जुड़े तमाम युवाओं के जबे को ठेस पहुंचाई है। सोशल मीडिया पर पिछले पांच वर्ष से भी ज्यादा समय से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रदेश में नई पहचान देने वाले और प्रदेश के युवाओं की टीम बनाने वाले लोकेश शर्मा को हाशिये पर रखना अपनी ही पार्टी के लिए काम कर रही पूरी टीम के साथ अन्याय किया गया है। जब प्रदेश में कांग्रेस की सोशल मीडिया पर कोई पहचान नहीं थी, तब लोकेश भैया ने इस काम को एक मुहिम के रूप में शुरू किया और धीरे-धीरे हम जैसे अनेक युवा उनके काम से प्रभावित होकर होकर उनसे जुड़ते चले गए। सरकार की योजनाएं हो, जनकल्याणकारी कार्य हो, कोई भी उपलब्धि हो या विपक्ष को मुंहतोड़ जवाब देना हो, इस सबकी शानदार शुरुआत करके एक आंदोलन सोशल मीडिया पर उनके नेतृत्व में उनकी पूरी टीम चला रही है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों के कैम्पेन में पार्टी का पक्ष रखने में कोई कमी नहीं छोड़ी और उसके बाद भी लगातार उसी ऊर्जा के साथ हरेक सदस्य को जोश से लबरेज होकर काम करने को प्रेरित करते रहे। आज प्रदेश स्तर के उसी नेतृत्व की अनदेखी होते देख कर किसी भी सदस्य को समझ नहीं आ रहा कि पार्टी को क्या चाहिए, क्या काम करने वाले लोगों को मौके नहीं देने से पार्टी को सफलता हाथ लगेगी, क्या प्रदेश में मौजूद मजबूत टीम को दरकिनार कर राजस्थान कांग्रेस नए जुडऩे वाले लोगों को कोई सन्देश देने में सफल रहेगी?
वैसे बताया जाता है कि वे पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत लॉबी के हैं।
इसी प्रकार अखिल भारतीय रैगर महासभा (प्रगतिशील) के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी.एम. जलुथरिया ने रैगर समाज की उपेक्षा का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा है कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक भी पद पर रैगर समाज को जगह नहीं दी गई है। महासभा ने कांग्रेस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर कहा है कि समाज की प्रदेश में 35 लाख जनसंख्या है और करीब 25 लाख वोटर, लेकिन कांग्रेस को समाज के वोटरों को बंधुआ मान रखा है। पहले लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय के चुनावों में रैगरों को टिकट नहीं दिए, अब संगठन में भी उपेक्षा की गई हैैैै।
राजस्थान राज्य विमुक्त, घुमंतू, अर्द्ध घुमंतु कल्याण बोर्ड के अध्यक्ष, गोपाल केसावत, जो कि कांगे्रस नेता ने भी कहा है कि परंपरागत वोट बैंक घुमंतू समाज की उपेक्षा की गई है। उनका सवाल है कि पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने घुमंतू बोर्ड का गठन किया व पूर्व प्रदेशाध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने संगठन में प्रकोष्ठ बनाया, मगर सचिन पायलट इस परंपरा को तोड़ रहे हैं।
कार्यकारिणी के प्रति महिलाओं में असंतोष देखा जा रहा है। इसकी वजह ये कि प्रदेश उपाध्यक्ष की 15 और महासचिव की 26 की सूची में केवल एक-एक महिला को शामिल किया गया है। सचिव की 43 नामों की सूची में 8 नाम हैं, मगर 14 कार्यकारिणी सदस्यों में केवल 2 को जगह मिल पाई है। इसी प्रकार स्थाई और विशेष आमंत्रित सदस्यों में 5 पदाधिकारी महिलाएं हैं। अर्थात कुल 131 की लंबी सूची में केवल 17 महिलाएं हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि तनिक असंतोष की खबरों के बाद स्वयं पायलट ने यह कहा कि वे जरूरत होने पर कुछ और पात्र नेताओं को स्थान दिया जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, नवंबर 18, 2014

वसुंधरा का तख्ता पलट टला, मगर खतरा बरकरार

हालांकि लंबे इंतजार व जद्दोजहद के बाद राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अपने मंत्रीमंडल का विस्तार तो कर पाईं और इसके साथ ही उनके तख्तापटल की आशंकाएं टल गईं, मगर राजनीतिक हलकों में अब भी यही राय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री बने नहीं रहने देंगे। पिं्रट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर हालांकि बहुत कुछ खुल कर सामने नहीं आ पाया, मगर इन दिनों सर्वाधिक सक्रिय सोशल मीडिया पर तो साफ तौर पर ये खबरें चल रही थीं कि जल्द ही पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर राज्य के मुख्यमंत्री बना दिए जाएंगे।
असल में जिस प्रकार राज्य मंत्रीमंडल के विस्तार में बाधाएं आईं, जिसकी वजह से भाजपा को उपचुनाव में झटका भी झेलना पड़ा, उसी से लग गया था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व वसुंधरा राजे के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं है। मंत्रीमंडल विस्तार के लिए वसुंधरा राजे को कई बार दिल्ली जाना पड़ा, मगर तकरीबन दस माह बाद जा कर उन्हें सफलता हासिल हो पाई। हालांकि मंत्रीमंडल को संतुलित किया गया है, मगर अब भी माना जाता है कि संघ लॉबी के घनश्याम तिवाड़ी व नरपत सिंह राजवी सरीखे कुछ प्रमुख नेता समायोजित नहीं हो पाए हैं, इस कारण मनमुटाव की फांस बरकरार है। यह तब और अधिक दुखदायी हो गई, जब पिछले दिनों वसुंधरा ने यह कह दिया कि इतना प्रचंड बहुमत किसी एक व्यक्ति का कमाल नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं की मेहनत व जनता का आशीर्वाद है। इसको लेकर खूब खबरबाजी हुई। बताया जाता है कि इसको लेकर मोदी की नाराजगी और बढ़ गई है। वसुंधरा के इस बयान को सीधे तौर पर मोदी पर निशाना करने के रूप में देखा गया। जाहिर तौर पर वसुंधरा विरोधी लॉबी ने इसका फायदा उठाने की कोशिश की होगी। ऐसे में माना यही जा रहा है कि वसुंधरा राजे सुरक्षित तो कत्तई नहीं है। आम धारणा यही बनती जा रही है कि मोदी को जैसे ही मौका मिलेगा, वे वसुंधरा को निपटा देंगे। कुछ लोग मानते हैं कि ऐसा वे दो-तीन माह में कर लेंगे, जबकि कुछ का मानना है कि स्थानीय निकाय चुनाव में उनको परफोरमेंस दिखाने के लिए कम से कम एक साल और मौका दिया जाएगा। बताया जाता है कि ओम प्रकाश माथुर को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने के बाद वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। वैसे भी ये माना जा रहा था कि माथुर को भले ही ऊपर से थोपने की कोशिश की जाए, मगर विधायकों की आमराय उनके पक्ष में बनाना कठिन होगा। माना जाता है कि वे एक अच्छे रणनीतिकार व संगठनकर्ता तो हैं, प्रशासनिक तौर पर उतने कुशल नहीं, जितना एक मुख्यमंत्री को होना चाहिए। इसी वजह से बीच में गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया का भी नाम सामने आया था।
कुल मिला कर माना यही जा रहा है कि वसुंधरा विरोधी लॉबी अभी तक सक्रिय है और वह घात लगा कर बैठी है कि कब उन्हें कमजोर साबित किया जाए। हाईकमान की भी उन पर पैनी नजर है। ऐसे में वसुंधरा को बहुत सुरक्षित नहीं माना जा सकता।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, नवंबर 13, 2014

क्या प्रो. जाट को मंत्री बनने के लिए पाला बदलना पड़ा?

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बीच के जगजाहिर संबंधों की ही वजह रही कि राजनीतिक विश्लेषक यह मान कर चल रहे थे कि अजमेर के सांसद प्रो. सांवरलाल जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल में स्थान नहीं मिल पाएगा और यह उनके साथ सबसे बड़ा धोखा होगा। राज्य में किसी केबीनेट मंत्री को लोकसभा चुनाव लड़ाया जाए तो इसका मतलब यही माना जाना चाहिए कि अगर वह जीता और पार्टी की सरकार बनी तो केन्द्रीय मंत्रीमंडल में उसका स्थान पक्का होगा, मगर प्रो. जाट के साथ ऐसा होता नजर नहीं आ रहा था। बेशक उनकी पैरवी मुख्यमंत्री वसुंधरा कर रही थीं, मगर चूंकि मोदी व उनके बीच ट्यूनिंग को ठीक माना जा रहा, इस कारण कम से कम राजनीति के जानकार तो यही मान कर चल रहे थे कि प्रो. जाट शायद ही मंत्री बन पाएं। कदाचित इसका अहसास खुद प्रो. जाट को भी रहा होगा। उनके लिए अफसोसनाक बात ये भी थी जो नसीराबाद सीट उन्होंने छोड़ी उसके लिए उनके पुत्र को पार्टी ने टिकट नहीं दिया। ऐसे में अगर उन्हें मंत्री नहीं बनाया जाता तो समझा जा सकता है कि जाती तौर पर उनके साथ क्या बीतती। सो बताते हैं कि उन्होंने अकेले वसुंधरा के भरोसे रहना उचित नहीं समझा। मोदी के करीबी भाजपा नेता ओम प्रकाश माथुर के लगातार संपर्क में रहे। यह बात राजनीति के जानकारों की जानकारी में भी थी। मगर इसका जिक्र मीडिया में कहीं नहीं आया। जैसे ही प्रो. जाट को मंत्री बनाया गया तो पत्रकारों ने खुलासा किया कि वे माथुर के संपर्क में भी थे।
बात अगर राजनीतिक समीकरणों की करें तो यह सब को पता है कि माथुर व वसुंधरा के बीच कैसे संबंध हैं। एक बारगी तो यह अफवाह तक फैल गई थी कि वसुंधरा को हटा कर माथुर को मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है। अब समझा सकता है कि प्रो. जाट ने वसुंधरा के खासमखास होने के बाद भी माथुर से करीबी क्यों बढ़ाई। संभव है उन्हें लग रहा हो कि अकेले वसुंधरा उन्हें मंत्री नहीं बनवा पाएंगी। ऐसे में केवल वसुंधरा के भरोसे रह कर भला अपना राजनीतिक कैरियर काहे को खराब करते। जो भी हो माथुर से नजदीकी और मंत्री बनने में माथुर का हाथ होने की कानाफूसी का कुछ लोग ये भी अर्थ लगा रहे हैं कि प्रो. जाट ने ऐन वक्त पर पाला बदल लिया। कुछ लोग इसका ये भी अर्थ लगा रहे हैं कि वसुंधरा ने यह जानते हुए कि अकेले उनके दम पर वे मंत्री नहीं बन पाएंगे, खुद ही जाट से कहा होगा कि वे दूसरे चैनल पर भी काम करें। हालांकि अभी ये पक्का नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने पाला बदल लिया है, मगर यदि उनको मंत्री बनवाने में माथुर का हाथ रहा है, तो समझा जा सकता है कि अब मोदी व वसुंधरा में से कौन उनके लिए अहम रहेगा। वैसे भी केन्द्र में काम करना है तो मोदी के प्रति स्वामी भक्ति उन्हें दिखानी ही होगी।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, अक्तूबर 25, 2014

सोशल मीडिया ने तो बना दिया ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री

एक ओर जहां राज्य मंत्रीमंडल के विस्तार की कवायद चल रही है, वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया ने भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बना दिया है और अब बस औपचारिक घोषणा का इंतजार है।
हालांकि ये बात सही है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच ट्यूनिंग नहीं बैठने और असंतुष्ठ लॉबी के सक्रिय होने के कारण यह लग रहा है कि वसुंधरा राजे अब मुख्यमंत्री पद पर ज्यादा दिन नहीं रह पाएंगी। गोपनीय स्तर पर मुख्यमंत्री को हटाए जाने की कवायद भी चल रही है, जिसे मोदी का संरक्षण हासिल बताया जाता है। इस सनसनीखेज साजिश का खुलासा अपुन पहले ही कर चुके हैं। तब तक यही माना जा रहा था कि मोदी के खासमखास ओम प्रकाश माथुर की ताजपोशी होगी, मगर जैसे ही महाराष्ट्र के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया यह कयास लगाया जाना लगा कि शायद उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का विचार त्याग दिया गया है, इसी कारण फिर नई जिम्मेदारी दे दी गई है। इसमें कुछ लोगों का तर्क ये है कि एक तो उन्हें प्रशासनिक तंत्र को हैंडल करने का अनुभव नहीं है, दूसरा विधायकों के बीच वे आसानी से स्वीकार्य नहीं हैं। ऐसे में अगर वसुंधरा को हटाया भी गया तो गुलाब चंद कटारिया का नंबर आ सकता है।
जहां तक सोशल मीडिया पर माथुर की खबर चलने का सवाल है, उसका मजमून कुछ इस प्रकार है:-
ब्रेकिंग न्यूज- ओमप्रकाश माथुर होंगे राजस्थान के नये मुख्यमंत्री
जल्द ही राजस्थान को तानाशाही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया से मुक्ति मिलने की सम्भावना है। सूत्र बताते हैं कि वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की अनदेखी, अपने विधायकों पर तानाशाही रवैया रखने, 10 महीने में कुछ भी काम न हो पाना तथा केंद्र की वित्तीय सुविधाओं का उपयोग न कर पाने के कारण केन्द्रीय नेतृत्व ने उनको बदलने का फैसला कर लिया है। ऐसे में ओमप्रकाश माथुर का नाम प्रबल दावेदारों में सबसे ऊपर है।
जाहिर तौर पर राजस्थान की राजनीति से गायब हो चुके ओम प्रकाश माथुर चर्चा में आए तो उनके व्यक्तित्व की भी चर्चा होने लगी है। इस बारे में सोशल मीडिया पर अजमेर के वरिष्ठ पत्रकार एस पी मित्तल की एक टिप्पणी भी चल रही है। वो इस प्रकार है:-
ओम प्रकाश माथुर ने अपनी लाइन बड़ी की
सब जानते हैं कि भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री ओम प्रकाश माथुर और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे में छत्तीस का आंकड़ा है। राजनीतिक विवाद के चलते ही माथुर ने राजस्थान की राजनीति को छोड़ दिया। यदि माथुर वसुंधरा राजे के साथ विवादों में ही उलझते रहते तो शायद आज  इतने बड़ मुकाम पर नहीं पहुंचते। माथुर ने वसुंधरा राजे की लाइन को छोटा करने के बजाए स्वयं की लाइन को बड़ा करने की रणनीति अपनाई। माथुर ने पहले गुजरात में और फिर महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया। यही वजह रही कि इस बार माथुर को देश में सबसे बड़े उत्तर प्रदेश राज्य का प्रभारी बनाया गया है। आज माथुर जिस मुकाम पर खड़े हैं, वह राजस्थान की राजनीति से बहुत बड़ा है। माथुर की कामयाबी से राजस्थान के भाजपा नेताओं को सबक लेना चाहिए।
खैर, जो कुछ भी हो यह कहना कत्तई गलत नहीं होगा इस बार प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाली वसुंधरा उम्मीद के विपरीत कमजोर साबित हुई हैं। उनके मोदी से संबंध न होने की बात को इस कारण भी बल मिला क्योंकि यह चर्चा जबरदस्त रही कि पिछले दिनों एक सभा में उन्होंने यहां तक कह दिया कि किसी एक व्यक्ति के दम पर चुनाव नहीं जीता जाता, जीत में सभी का सहयोग होता है। जाहिर है उनका ये बयान सुन कर मोदी की जुबान का स्वाद खराब हुआ ही होगा। ऐसे में अगर वे उन्हें निशाने पर लेते हैं, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अक्तूबर 24, 2014

राज्य मंत्रीमंडल का विस्तार हर हालत में 27 तक होगा

राज्य मंत्रीमंडल के लंबे समय से प्रतीक्षित विस्तार का आखिर समय आ ही गया। कई बार चर्चा हुई कि विस्तार अब होगा, अब होगा, मगर हर बार किसी न किसी वजह से वह टलता ही रहा, मगर अब स्थिति यहां तक आ गई है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को आगामी 27 अक्टूबर तक विस्तार करना ही होगा।
असल में यूं तो वसुंधरा राजे के पास आगामी 15 नवंबर तक का समय था। तब नसीराबाद से विधायक बनने के बाद इस्तीफा देकर सांसद बने प्रो. सांवरलाल जाट के बिना विधायक रहते मंत्री बने रहने को छह माह पूरे होने हैं। इस बात की कोई संभावना भी नहीं थी कि उन्हें फिर से विधानसभा का चुनाव लडय़ा जाए। अगर विधायक रखना ही था तो इस्तीफा ही क्यों दिलवाते। खैर, चूंकि 15 नवंबर तक जाट को इस्तीफा देना ही होगा और उनके इस्तीफा देते ही न्यूनमत 12 मंत्रियों की बाध्यता आ जाएगी, यानि कि तब तक उन्हें मंत्रीमंडल का विस्तार करना ही होगा। मगर इस बीच समस्या ये आ गई कि राज्य में कुछ स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए आचार संहिता 28 अक्टूबर को लागू हो जाएगी और तब वे मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पाएंगी, इस कारण अब यह लगभग पक्का ही है कि 27 अक्टूबर तक किसी भी सूरत में जाट का इस्तीफा और मंत्रीमंडल का विस्तार कर दिया जाएगा। इसमें भी एक पेच बताया जा रहा है। भाजपा हाईकमान की इच्छा है कि फिलहाल जाट के इस्तीफा देने के साथ सिर्फ एक-दो नए मंत्री बना दिए जाएं और पूरा विस्तार बाद में किया जाए, मगर जानकारी ये है कि वसुंधरा ठीक से विस्तार करना चाहती हैं। अब देखना ये है कि क्या हाईकमान वसुंधरा राजे को अपनी बात मानने में कामयाब हो जाता है या फिर वसुंधरा की इच्छा को पूरा किया जाता है।
कुल मिला कर मंत्रीमंडल विस्तार के लिए उलटी गिनती शुरू होने के साथ मंत्री बनने के इच्छुक विधायकों में हलचल तेज हो गई है। बनने में कौन कामयाब होगा, ये तो वक्त ही बताएगा।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, अगस्त 31, 2014

राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन की सुगबुगाहट

हालांकि राजस्थान में श्रीमती वसुंधरा राजे के नेतृत्व में प्रचंड बहुमत से भाजपा ने कामयाबी हासिल कर सत्ता हासिल की है और ऐसे में इसकी अस्थिरता की कल्पना करना भी नासमझी कहलाएगी, मगर राजनीति हल्कों में इस किस्म की चर्चा आम है कि भाजपा हाईकमान राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की संभावनाएं तलाश रहा है अथवा एक गुट विशेष वसुंधरा को अपदस्थ करने की फिराक में है।
बेशक ऐसी बात कपोल कल्पित ही लगती है, मगर जिस प्रकार आठ माह बीत जाने के बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल गठित नहीं हो पाया, उससे इसकी आशंका तो महसूस की ही जा रही है कि जरूर केन्द्र व राज्य में कहीं न कहीं कोई गतिरोध है। संभव है ऐसा मंत्री बनाने को लेकर पसंद-नापसंद को लेकर है। ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा हाईकमान विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी श्रीमती वसुंधरा को फ्रीहैंड देने के मूड में नहीं हैं। और इसी को लेकर खींचतान चल रही है। एक ओर जहां प्रचंड बहुमत से भाजपा को जिताने वाली वसुंधरा कम से कम राजस्थान में अपनी पसंद का ही मंत्रीमंडल बनाना चाहती हैं, वहीं केन्द्र में सत्तारूढ़ हो कर मजबूत हो चुकी भाजपा अपनी हिस्सेदारी, जिसे कि दखल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, रखना चाहती है। असल में वे दिन गए, जब केन्द्र में भाजपा विपक्ष में और कमजोर थी और वसुंधरा विधायकों के दम पर उस पर हावी थी, मगर अब हालात बदल गए हैं। केन्द्रीय नेता देश की सरकार चला रहे हैं। वे ज्यादा पावरफुल हो गए हैं। ऐसे में वे राजस्थान के मामले में टांड अड़ा रहे हैं। इसी अड़ाअड़ी के बीच ये चर्चा हो रही है कि मोदी राजस्थान में अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, जो उनके इशारे पर काम करे, वसुंधरा की तरह आंख में आंख मिला कर बात न करे। बताया जाता है कि मोदी की शह पर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि माथुर मोदी के कितने करीबी हैं। इस सिलसिले में तकरीबन सत्तर विधायकों की एक गुप्त बैठक भी हुई और जोड़तोड़ की कवायद चल रही है। मसले का एक पहलु ये भी है कि मोदी पूरे देश में अपने हिसाब से ही जाजम बिछाना चाहते हैं। केन्द्रीय मंत्रियों पर शिकंजे और अपने ही शागिर्द अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष बनवाने से यह साफ है कि वे इंदिरा गांधी वाली शैली में काम कर रहे हैं। आपको याद होगा कि इंदिरा गांधी के सामने जा कर बात करने के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री उनकी भृकुटी के अंदाज का पूरा ख्याल रखा करते थे।
खैर, मोदी की शह पर राज्य में अंडरग्राउंड चल रही हलचल कितनी कामयाब होगी, यह कहना मुश्किल है, मगर इससे कम से कम वसुंधरा जरूर अचंभित हैं। हालांकि वे इतनी चतुर राजनीतिज्ञ हैं कि एकाएक कोई बड़ा बदलाव नहीं होने देंगी, मगर इतना जरूर है कि पिछली बार की तरह वे शेरनी की शैली नहीं अपना पा रही हैं। दमदार नेतृत्व के बावजूद उनके ओज में आई कमी को साफ तौर पर देखा जा सकता है। असल में पहले जब सीमित विधायक थे, तब उनका उन पर एकछत्र राज था, मगर इस बार ढ़ेर सारे विधायकों को संभालना आसान नहीं रहा है। उसमें आरएसएस लॉबी के विधायक लामबंदी कर रहे हैं, जो कि वसुंधरा के लिए सिरदर्द है। जो कुछ भी हो, मगर आने वाले दिनों में कुछ ऐसा साफ झलकेगा कि केन्द्र वसुंधरा पर शिकंजा रखना चाहती है, ताकि वे एक क्षत्रप की तरह मनमानी न कर पाएं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, अगस्त 20, 2014

मगर आयोग की खत्म हुई साख का क्या होगा?

आरएएस के प्रश्रपत्र बिकने के लिए लीक होने, प्रश्र पत्रों में भारी गड़बडिय़ां पाए जाने जैसी गंभीर घटनाओं के सामने आने के बाद जिस प्रकार तेजी से जांच की जा रही है, उससे राजस्थान लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हबीब खान गोराण की कुर्सी छिनेगी या रहेगी, दोषियों को वाकई कड़ी से कड़ी सजा मिल पाएगी या नहीं, ये सवाल इन दिनों में चर्चा में हैं, मगर सवाल ये उठता है कि इतनी गंभीर धांधली के कारण आयोग की साख को जो बट्टा लगा है, उसका क्या होगा? इसमें कोई दोराय नहीं कि अगर किसी भी स्तर पर गोराण की गड़बडिय़ों में संलिप्ता पाई जाती है तो उन्हें हटाने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए, मगर साथ ही सवाल ये भी है कि क्या सरकार साख खो चुके आयोग की कार्यप्रणाली को सुधारने के प्रति वाकई गंभीर भी है या फिर मामला ठंडा होने के बाद वही घोड़े और वही मैदान की कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
दरअसल जैसे ही मामला उजागर हुआ, उससे बेरोजगार युवा वर्ग तो अपने अंधकारमय होते भविष्य के प्रति बेहद चिंतित हो उठा है, वहीं सरकार पर भी भारी दबाव है कि निष्पक्ष जांच करवा कर दोषियों को सजा के मुकाम पर पहुंचाए। जाहिर तौर पर जैसा अमूमन होता है, किसी भी संस्था में कोई गड़बड़ी पाई जाती है तो सबसे पहले उसके मुखिया पर इस्तीफे देने या उसे हटाने की मांग जोर पकड़ लेती है। इस प्रकरण में भी यही हो रहा है। मामले ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। नतीजतन गोरान के पुराने मामलों को खंगाला जा रहा है। दिन-ब-दिन उन पर शिकंजा कसता जा रहा है। चूंकि उनकी नियुक्ति कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुई, इस कारण वे भाजपा सरकार के निशाने पर हैं, मगर सवाल ये है कि क्या केवल गौराण को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने अथवा हटाने की प्रक्रिया शुरू किए जाने मात्र से समस्या का हल हो जाएगा? क्या केवल मुखिया को अपदस्त कर देने से ही आयोग की व्यवस्था सुधर जाएगी और प्रश्न पत्र लीक होना बंद हो जाएंगे।
वस्तुत: जब भी इस प्रकार के संगीन मामले सामने आते हैं, वे राजनीति के शिकंजे में आ ही जाते हैं। मामले की जांच का मुद्दा तो उठता ही है, मगर सारा ध्यान संस्था के मुखिया को हटाने पर केन्द्रित हो जाता है। अगर यह मांग मान ली जाती है तो मामला ठंडा हो जाता है और उसके बाद जांचों का क्या होता है, उनका हश्र क्या होता है, सब जानते हैं। यानि कि गुस्सा संस्था प्रधान को हटाने तक ही सीमित रहता है और बाद में स्थिति जस की तस हो जाती है। हद से पकड़े गए मामले में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही आरंभ हो जाती है, मगर शातिरों के इस प्रकार की गड़बड़ी करने की गुंजाइश ही न रहे, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
इसमें काई दो राय नहीं कि वर्तमान में आयोग के जो हालात हैं, उससे उसकी पूरी कार्यप्रणाली ही संदेह के घेरे में आ गई है और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। मगर सवाल ये है कि आज जो नेता गौरान अथवा आयोग की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा रहे हैं, वे आयोग में अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर नहीं किए जाने का सवाल क्यों नहीं उठाते। सच तो ये है कि गोराण हो या पूर्ववर्ती अध्यक्ष, सभी की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर ही की जाती रही है। राजनीतिक आधार पर ही नहीं, बल्कि जातीय तुष्टिकरण तक के लिए। नागौर के मौजूदा भाजपा सांसद सी. आर. चौधरी को भाजपा सरकार ने जाटों को खुश करने के लिए अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस ने मुस्लिमों की नाराजगी को कम करने के लिए गोराण की नियुक्ति करवा दी। चेयरमैन से लेकर सदस्य तक राजनीतिक दलों के वफादार हैं तो जाहिर है कि यहां प्राथमिकता प्रतिभा नहीं, बल्कि सियासी प्रतिबद्धता है। अगर हालत यह है तो आरपीएसी में गड़बडिय़ां और पेपर बिकना व लीक होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि आयोग के कामकाज में निष्पक्षता या पारदर्शिता और परीक्षा कार्य में गोपनीयता बनी रहेगी। यानि कि अगर आयोग के कामकाज में सुधार लाना है तो आयोग में नियुक्ति की प्रक्रिया में परिवर्तन लाना होगा। साथ ही परीक्षा की गोपनीयता के सारे उपाय करने होंगे। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो प्रतिभाएं निराश-हताश होती रहेंगी।
गोराण की नियुक्ति पर ही बड़ा सवाल
पर्चा लीक होने के साथ ही जिस प्रकार गोराण से जुड़े पुराने मामले उजागर हो रहे हैं, उससे यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि यदि उनका चरित्र संदिग्ध था तो सरकारी तंत्र में उनकी नियुक्ति की फाइल आगे सरकी ही है। स्वाभाविक रूप से जब उनको आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव तैयार किया होगा तो उसके साथ ही उनके अब तक के रिकार्ड से जुड़े कागजात भी नत्थी किए गए होंगे। या तो वे जानबूझ कर नीचे दबा दिए गए होंगे, या फिर राजनीतिक दबाव इतना अधिक बनाया गया कि वे नजरअंदाज कर दिए गए। यानि कि केवल मुस्लिमों को राजी करने के लिए जिस तरह उनकी नियुक्ति की गई, उसके लिए सीधे तौर पर पिछली अशोक गहलोत सरकार जिम्मेदार है।
एसपी मंथली प्रकरण में भी उठे थे गोराण पर सवाल
अजमेर के तत्कालीन एसपी राजेश मीणा के बंधी वसूली के प्रकरण के दौरान भी गोराण का नाम आया था। उनका जिक्र संबंधित एफआईआर में था। इस रूप में कि राजेश मीणा और एएसपी लोकेश मीणा के लिए थानों से बंधी जुटाने वाले रामदेव ठठेरा 2 जनवरी 2013 को कपड़े की थैली लेकर लोकेश मीणा के निवास से गौरान के बंगले में गया था। वह 40-50 मिनट तक बंगले में रहा और इसके बाद खाली हाथ लोकेश मीणा के निवास पर लौट आया। लेकिन आरोप पत्र में उनका नाम नहीं था। इस बारे में एसीबी ने उनको क्लीन चिट दे दी, मगर ये खुलासा नहीं किया कि ठठेरा उनके निवास पर क्यों गया था। उसने ये भी साफ नहीं किया कि अगर गौरान का बंधी मामले से कोई लेना देना नहीं था तो फिर उनका नाम एफआईआर में क्यों दर्ज किया गया। उस वक्त न तो सत्तारूढ़ कांग्रेस ने और न ही विपक्ष में बैठे भाजपा विधायकों ने इस मामले को उठाया। अब जबकि आरपीएससी अपने ही अंदरूनी मामले में फंस गई तो गोराण के उस प्रकरण को भी उठाया जा रहा है। खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल ने विधानसभा में आरोप लगाया कि जनवरी 2013 में बंधी मामले में गोराण की भूमिका की जांच क्यों नहीं हुई, जबकि एफआईआर में उनका नाम है। यानि कि उसी वक्त मामले की गहन जांच कर ली जाती तो इतने बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के मामले में दूध का दूध पानी का पानी हो जाता।
एसीबी की कार्यवाही भी संदेह के घेरे में
बेशक, इस पूरे प्रकरण में सचमुच क्या हुआ, इसके लिए एसीबी पर ही यकीन करना होगा क्योंकि जांच एजेंसी वही है, मगर एसीबी के कार्यवाहक महानिदेशक अजीत सिंह का मात्र इतनी सफाई देना ही पर्याप्त नहीं कि गोरान की इस मामले में संलिप्तता नहीं पाई गई और उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। कैसी विडंबना है कि पहले खुद ही गोरान का नाम एफआईआर में शामिल किया और फिर खुद की खंडन कर दिया कि उनके बारे में कोई सबूत नहीं मिला है। वो भी तब जब निलंबित एसपी मीणा ने अपनी जमानत अर्जी में सवाल उठाया था। वरना यह पता ही नहीं लगता कि एसीबी ने कहां चूक की है। जब अजीत सिंह ने यह कहा कि गोराण बिलकुल निर्दोष हैं तो उन्हें यह भी बताना होगा कि आखिर किस तरह? आयोग अध्यक्ष का पद संवैधानिक है और आयोग की बड़ी गरिमा है, उसके बारे में यदि कोई संशय पैदा होता है तो उस पर सफाई होना बेहद जरूरी है। वरना, यह शक करना वाजिब होगा कि राजनीतिक दबाव की वजह से एसीबी ने लीपापोती की।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, अगस्त 16, 2014

नटवर का सोनिया की निजी जानकारी सार्वजनिक करना कितना उचित?

खांटी कांग्रेसी नेता रहे नटवर सिंह ने अपनी किताब के जरिए जिस प्रकार सोनिया-राहुल की निजी जानकारियां सार्वजनिक की हैं, उससे यकायक यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या राजनीति में इस प्रकार विमुख होने के बाद किसी की निजी जिंदगी का खुलासा किया जाना उचित है, जिससे आपके अंतरंग संबंध रहे हों? क्या इसे सामान्य नैतिकता की सीमा लांघने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? जिस परिवार के रहमो-करम पर आप इतनी ऊंचाइयां छू पाए, उससे अलग होने के बाद सारी मर्यादाएं ताक पर रख देनी चाहिए?
हो सकता है कि नटवर सिंह को लग रहा हो कि उन्होंने कोई बड़ा मीर मार लिया है, मगर इससे राजनीतिक लोगों का चरित्र किस हद तक गिर सकता है, उसका तो अनुमान होता ही है। ऐसा करके वे भले ही कांग्रेस विरोधियों की नजर में चढ़ गए हों, और उसका ईनाम भी पा जाएं, मगर आमजन की नजर में वे उच्च राजनीतिक नेता होते हुए भी निम्न स्तरीय हरकत करने वाले माने जाएंगे। असल में नटवर सिंह ने कोई नई खोज नहीं की है, जिसके लिए खुद की पीठ थपथपाएं। यदि उन्हें सोनिया के बारे में इतनी अंतरंग जानकारी है तो वह इसीलिए ना कि वे उनके करीब थे, वरना उन्हें कैसे पता लगा कि राहुल ने सोनिया के प्रधानमंत्री बनने पर उनकी हत्या किए जाने की आशंका के चलते प्रधानमंत्री पद न ग्रहण करने की जिद की थी। स्वाभाविक रूप से घनिष्ठ संबंधों के चलते इस विषय पर सोनिया व राहुल ने उनके चर्चा की थी। उन्हें ये अनुमान थोड़े ही रहा होगा कि भविष्य में यदि संबंध खराब होंगे तो नटवर सिंह इस तरह से पीठ में छुरा घोंपने को आतुर हो जाएंगे। अंतरंग संबंधों का एक और उदाहरण भी हमारे सामने है। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के बारे में सब को पता है कि उनका परिवार नेहरू परिवार के कितना करीब था। वे स्वयं भी राजीव गांधी के करीबी रहे। बाकायदा कांग्रेस के टिकट पर सांसद भी बने। मगर जब संबंध टूटे तो उसके बाद शायद ही उन्होंने निजी जिंदगी का बहुत खुलासा किया हो। जाहिर सी बात है कि वे राजनीतिक शख्स नहीं हैं, इस कारण उनका दिमाग इस ओर नहीं चला। इससे यह स्थापित होता है कि राजनीति इतनी गंदी चीज हो चली है, जिसमें किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। नटवर सिंह के खुलासे से सोनिया-राहुल और कांग्रेस को क्या परेशानी आएगी, ये तो पता नहीं मगर फिलवक्त लोगों को चटकारे लेने का मौका तो मिल ही गया है।
सिक्के का दूसरा पहलु ये भी है कि जब भी कोई ऊंचाइयों पर पहुंचता है, और खास कर जब उसका जीवन सार्वजनिक रूप में महत्व रखता है तो उसकी हर बात में लोगों की रुचि होती ही है। नैतिक रूप से भले ही ये ठीक नहीं लगता, मगर ऊंचे लोगों की निजी बातें अमूमन जगजाहिर हो ही जाती है। और स्वाभाविक रूप से उसे उनके निजी लोग की जगजाहिर किया करते हैं।
असल में नटवर सिंह ने जानबूझ कर यह सब कुछ किया है। उनका मकसद है कि किसी भी रूप में कांग्रेस से निकाल जाने के बाद उसका बदला लिया जाए। राजनीति के जानकार इसे इस रूप में लेते हैं कि छाती पर शहीदी तमगा और विचार के तौर पर त्याग का मुकुट लगा कर ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस को खड़ा किया, सत्ता तक पहुंचाया लेकिन नटवर सिंह ने जिस तरह राजीव गांधी की हत्या के साथ श्रीलंका को लेकर राजीव गांधी की फेल डिप्लोमेसी और सोनिया गांधी के त्याग के पीछे बेटे राहुल गांधी को मां की मौत का खौफ के होने की बात कही है, उसने गांधी परिवार के उस प्रभाव को भी खत्म नहीं तो कम तो किया ही है। अब तक इसी प्रभाव के आसरे कांग्रेस खड़ी रही है। नटवर ने कांग्रेस की उस राजीनिति में भी सेंध लगा दी है, जो बीते दस बरस से तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं की तुलना में सोनिया गांधी को अलग खड़ा करती रही।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या नटवर के खुलासे के बाद सोनिया का आभा मंडल टूट जाएगा? क्या फिर उस पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा? यदि टूटा तो लौटेगा कैसे? क्या सोनिया के किताब लिखने से वह वापस जुड़ पाएगा? सवाल ये भी कि क्या सोनिया की राजनीतिक साख यहां खत्म होती है और अब कांग्रेस को तुरुप का पत्ता प्रियंका गांधी को चलने का वक्त आ गया है। या फिर राहुल गांधी को अब कहीं ज्यादा परिपक्व तरीके से सामने आकर उस राजनीतिक लकीर को आगे बढ़ाना होगा, जहां उनके कहने पर सोनिया गांधी पीएम नहीं बनी और राहुल के खौफ को अपनी आत्मा की आवाज के आसरे सोनिया गांधी ने त्याग की परिभाषा गढ़ी।
-तेजवानी गिरधर

तो सेलिब्रिटी को सांसद बनाते ही क्यों हैं?

जनता के बीच से चुने गए सांसदों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है
इन दिनों क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर और सुप्रसिद्ध अभिनेत्री रेखा के संसद में लगातार अनुपस्थित रहने को लेकर खासी गरमागरम बहस हो रही है। आप याद कीजिए कि जून 2012 में जब सचिन तेंदुलकर ने सांसद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, मैं संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहता हूं। जाहिर है ऐसा आज तक तो हुआ नहीं कि सचिन तेंदुललर कोई मुद्दा उठाये या रेखा ने कभी कुछ कहा भी हो। ऐसे में कोई सांसद कहता है कि ऐसे सेलिब्रिटी सदस्यों को हटा देना चाहिए तो कोई कहता है कि सांसदों की न्यूनतम उपस्थिति अनिवार्य की जानी चाहिए। बहस का एक बिंदु ये भी है कि आखिर ऐसी सेलिर्बिटी को संसद में भेजा ही क्यों जाता है, जिनके पास संसद में उपस्थित होने का समय और देश के ज्वलंत विषयों पर अपनी राय रखने की रुचि ही नहीं है।
असल में संविधान में विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों को राज्यसभा में मनोनीत करने की व्यवस्था की ही इस कारण गई कि वे गैर राजनीतिक होने के कारण चुनाव लड़ कर संसद में नहीं आ सकतीं, मगर सोसायटी के अन्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए, ताकि उनकी भी भागीदारी हो। मगर अमूमन पाया ये गया है कि ऐसी सेलिब्रिटी न तो संसद आना जरूरी समझती हैं और न ही देश के जरूरी विषयों पर अपनी कोई राय रखती हैं। उन्होंने इसे केवल स्टेटस सिंबल बना रखा है और उससे होने वाले लाभ उठाती रहती हैं। ऐसे में यह सवाल उचित ही है कि ऐसी हस्तियों को संसद में रखने से क्या फायदा, जिनकी संसद में कोई रुचि ही नहीं है। माना कि राष्ट्रपति ने सरकार की राय पर ऐसी हस्तियों को सम्मान देने की खातिर उनका मनोनयन किया है, मगर उन्हें भी तो संसद का सम्मान करना चाहिए।
सिक्के का एक पहुल ये भी हस्तियों की लोकप्रियता ही इतनी है कि उन्हें एक अदद सांसद बनने की जरूरत नहीं है। उनका क्रेज ही इतना अधिक है कि खुद सांसद व मंत्री भी उनकी एक झलक पाना चाहते हैं। याद कीजिये तो 2012 में संसद के भीतर रेखा और सचिन तेंदुलकर को लेकर संसद का कुछ ऐसा ही हाल था। कैमरे की चमक। सितारों की चकाचौंध। हर नजर रेखा और सचिन की तरफ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि संसद की चमक भी इनके सामने फीकी है। भला ऐसी हस्तियों को सांसद बनने की जरूरत ही क्या है? और अगर बन जाती हैं तो फिर संसद में अनुपस्थित न हो कर काहे को अपनी फजीहत करवाती हैं?
बहरहाल, चूंकि सांसदों की संसद में सक्रियता का मुद्दा इस बहाने उठ ही गया है तो बातें और भी उठने लगी हैं। वो ये कि जो सांसद सीधे जनता अथवा विधायकों के माध्मम चुन कर आते हैं, उनमें से भी कई कमोबेश ऐसा ही हाल है। सैकड़ों सांसद ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने चुना है, लेकिन वे न तो कोई सवाल पूछते हैं, न चर्चा में शामिल होते है। आडवाणी और करिया मुंडा समेत समेत बीजेपी के दर्जनभर से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी हाजिरी सौ फीसदी रही, लेकिन न तो चर्चा में हिस्सा लिया, न ही कोई सवाल खड़ा किया। पिछली लोकसभा में कांग्रेस के जाने-पहचाने चेहरे अजय माकन ने पांच साल के दौरान न कोई सवाल पूछा, न ही किसी चर्चा में शामिल हुये।  इसी कड़ी में हालांकि सोनिया व राहुल गांधी का नाम भी लिया जाता है, मगर उन पर इसलिए अंगुली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि वे ही तो कांग्रेस के रुख की नीति बनाते हैं। वे न भी बोले तो अन्य कांग्रेसी सांसदों का बोलना पर्याप्त है।
हाल ही यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर यूपी के सीएम की सांसद पत्नी डिंपल यादव संसद में बोल रही थी, लेकिन 15 लोकसभा में डिंपल यादव ने कुछ कहा ही नहीं। यही हाल कांग्रेस के सी पी जोशी और वीरभ्रद्र सिंह का भी रहा। हाजिरी 95 फीसदी, लेकिन कभी संसद में नहीं बोले।  औसत निकालेंगे तो हर सत्र में सौ से ज्यादा सांसद ऐसे होंगे, जो संसद में आते हैं और चले जाते हैं। ताजा आंकड़ों को देखें तो मौजूदा लोकसभा में अभी तक 72 सांसदों की कोई भागेदारी ही नहीं है। 101 सांसदों ने किसी चर्चा में हिस्सा ही नहीं लिया है। 198 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया है।
खैर, जो सवाल सबसे बड़ा उभरता है वो यह है कि जब चुने हुए जिम्मेदार सांसदों का ही ये हाल है तो केवल सचिन या रेखा से ही कोई उम्मीद क्यों की जाये? जब उनकी अदा ही हर दिन चलने वाले संसद के खर्च से ज्यादा कमाई हर दिन कर लेती हो, तो फिर संसद की साख पर सचिन की अदा तो भारी होगी ही। चलो, रेखा और सचिन तो फिर भी मनोनीत हैं, मगर सीधे जनता के वोटों से जीतने वाले फिल्मी सांसदों का भी यही हाल है। बालीवुड के सिने कलाकार धर्मेन्द्र बीकानेर से जीत कर गए, मगर पूरे कार्यकाल के दौरान कुछ नहीं बोले। बोलने की छोडिय़े, वे तो पूरे पांच साल बीकानेर ही नहीं गए।
कुल मिला कर निष्कर्ष यही है कि चाहे सीधे जनता के जरिए लोकसभा चुनाव जीते या फिर विधायकों के जरिए या मनोनयन के आधार पर राज्य सभा में पहुंचे सांसदों पर कुछ तो नियम लागू होने ही चाहिए। जब स्कूल में छात्रों की निर्धारित उपस्थिति जरूरी है तो जनता के प्रति जिम्मेदार सांसदों के लिए क्यों जरूरी नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं, हर सत्र या साल के बाद सांसदों की परफोरमेंस का रिकार्ड रख कर उन्हें निर्देशित किया जाना चाहिए कि वे जिस मकसद से संसद में हैं, उसका दायित्व निभाएं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अगस्त 01, 2014

क्या मोदी की लहर अब धीमी हो चली है?

तकरीबन सत्तर दिन पहले हुए जिस चुनाव में उतराखंड की पांचों सीटें मोदी लहर में बह गई थीं, विधान सभा उप चुनाव के नतीजों के साथ ही अब वह लहर थमती नजर आ रही है। जहां खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने धारचूला से जीत हासिल की, वहीं अन्य दोनों सीटों, डोइवाला और सोमेश्वर को कांग्रेस ने बीजेपी से छीन लिया। डोइवाला से पूर्व कैबिनेट मंत्री हीरासिंह बिष्ट ने जीत हासिल की, वहीं सोमेश्वर से ऐन चुनाव से पहले बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुई रेखा आर्य ने विजय पताका फहरायी। इस चुनाव परिणाम ने राजनीतिक हलकों में इस बहस को जन्म दिया है कि आखिर उस लहर का क्या हुआ, जिस पर सवार आकलनकर्ताओं को ये लग रहा था कि अब मोदी पांच साल नहीं बीस साल से ज्यादा के लिए आ गए हैं।
बेशक एक राज्य के विधानसभा चुनाव के परिणाम के आधार पर मोदी सरकार की लोकप्रियता को आंकना गलत है, मगर इतना जरूर लगता है कि मोदी के प्रति जो अत्यधिक आकर्षण दिखाई दे रहा था, वह तो कम हुआ ही है। और उसकी अपनी वजह है।
सबसे बड़ा सवाल महंगाई का है। मोदी ने चुनाव प्रचार ही इस प्रकार किया था कि जैसे ही वे सत्ता पर काबिज होंगे, महंगाई छूमंतर कर देंगे। मानो वे कोई जादूगर हों। कांग्रेस से तंग लोगों ने उन पर यकीन कर लिया। हालांकि यह बात सही है कि जिस माली हालत का भाजपा जिक्र कर रही थी, उसमें सुधार लाने में वक्त लगना था, मगर चूंकि वादे इस तरीके से किए गए थे कि उसके सत्ता में आते ही सारे समाधान हो जाएंगे, इस कारण जनता की अपेक्षाएं बढ़ गईं। दैनिक जरूरत के आलू-प्याज की कीमतें घटने की बजाय बढ़ गईं, तो त्राहि त्राहि मच गई। दोष भले ही मानसून का या काला बाजारियों का था, मगर चूंकि ये बहाना कांग्रेस भी बनाती थी, इस कारण जनता को ये बहाना मंजूर नहीं। खुद वित्त मंत्री जेटली कहते हैं कि निकट भविष्य में महंगाई घटने की कोई उम्मीद नहीं है। हद तो तब हो गई, जब खुद मोदी ने ही कड़वी दवा पीने को तैयार रहने को कह दिया। इसी प्रकार बहुत हुई महंगाई की मार, अब की बार मोदी सरकार के नारे पर झूमने वाले जमीन पर आ गिरे, जब रेल भाड़ा बजट से पहले ही बढ़ा दिया गया। जब ये कहा गया कि ये तो कांग्रेस के कार्यकाल में ही बढऩा प्रस्तावित था, उसे केवल लागू किया गया है, तो लोगों ने सवाल उठाया कि अब तो आपकी सरकार है, आप भी नहीं बढ़ाते। लोगों को तकलीफ इस वजह से हुई कि जिन सुविधाओं का सपना दिखा कर किराया बढ़ाया गया, वे देने से पहले ही किराया बढ़ा दिया गया। इस मुद्दे पर अब भाजपाई ये कह कर बगलें झांकने लगते हैं कि कांग्रेस के कर्मों को दुरुस्त करने में आखिर समय तो लगेगा।
जिन लोगों ने आंख मूंद कर मोदी को झोली भर वोट दिए, उन्हें तब और झटका लगा, जब मोदी सरकार के दोहरे पैमाने सामने आए। जब मोदी ने अपने पहले ही भाषण में राजनीति में अपराधीकरण बर्दाश्त न करने की बात कही, तो लोगों को बढ़ा सुखद लगा, मगर आरोप झेल रहे अपने खासमखास अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बना दिया, तो सवाल उठने ही थे। इसी प्रकार दुराचार के आरोपी निहालचंद को मंत्री पद से नहीं हटाने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
जिस काले धन को वापस लाने के वादे के साथ मोदी सरकार में आए, उस पर जब लोगों ने उनकी ही पार्टी के लोगों के बयान सुने तो वे सकते में आ गए। भाजपा सांसद रिशिकांत दुबे ने कहा कि काला धन इस जन्म में वापस लाना मुश्किल है। गौ हत्या का विरोध कर हिंदुओं का समर्थन लेने वाली भाजपा ने जब गौ-मांस पर टैक्स घटा दिया तो भी सवाल उठे कि वह तो गौ हत्या की बड़ी विरोधी थी। भाजपा के उस दोहरे मापदंड की भी आलोचना हो रही है, जिसमें कांग्रेस राज में वह एफडीआई का विरोध करती रही, मगर अब खुद एफडीआई को ला रही है।
लोगों को याद है वह दिन जब सुषमा स्वराज ने कहा था कि मनमोहन सरकार हाथ पर हाथ रख कर बैठी है, होना तो यह चाहिए कि हमारे एक जवान के बदले में दस पाकिस्तानियों के सिर काट कर लाएं। अब जब आए दिन सीमा पर जवान मर रहे हैं तो भाजपाई ये कह कर चुप हो जाते हैं कि हमारे सैनिक भी तो मार रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक जब पाकिस्तान में भारत के सबसे बड़े दुश्मन हाफिज सईद से मिल कर आए तो सरकार ने यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि उसकी जानकारी में नहीं है। इस पर कांग्रेसी ये कह कर हल्ला मचा रहे हैं कि अगर कांग्रेस राज में ऐसा होता तो भाजपा आसमान सिर पर उठा लेती। आपको याद होगा कि आम आदमी पार्टी के नेता वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने जब कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन किया तो एक हिंदूवादी ने उनको पीट दिया था, जबकि वेद प्रताप वैदिक ने यही बात कही तो उस पर सरकार और भाजपाई चुप हैं।
मोदी सरकार पर इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि कश्मीर में धारा 370 हटाने, राम मंदिर बनाने और कॉमन सिविल कोड पर सरकार चुप है, जबकि भाजपा का असल तीन सूत्री कार्यक्रम यही था, जिसकी बिना पर ही उसका वोटों का जनाधार बना हुआ है।
हाल ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान की भी खिल्ली उड़ाई जा रही है कि सीमा पर गलती से भी घुसपैठ हो जाती है। कहा जा रहा है कि देश नहीं झुकने दूंगा वाले चीनी घुसपेठियो को वापस क्यों जाने दे रहे हैं।
कुल मिला कर अब मोदी सरकार की हर हरकत पर मीडिया व कांग्रेस सहित जनता की पैनी नजर है और उसकी समीक्षा हुए बिना नहीं रहती।
-तेजवानी गिरधर

राजस्थान की शेरनी वसुंधरा बेबस क्यों?

सुराज संकल्प यात्रा के जरिए लोगों के विश्वास कायम करने वाली श्रीमती वसुंधरा राजे ने मोदी लहर के सहारे राजस्थान में प्रचंड बहुमत तो हासिल कर लिया, मगर सत्ता संभालने के आठ माह बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल का गठन न कर पाने को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं। यह पहला मौका है कि वसुंधरा इतनी ताकतवर होने के बाद भी कमजोर दिखाई दे रही हैं, वरना विपक्ष में रहते हुए तो उन्होंने हाईकमान को इतना नचाया था कि उन्हें भी मुलायम, ममता, मायावती, जयललिता की तरह खुद के दम पर राजनीति करने वाली क्षत्रप के गिना जाने लगा था।
आपको याद होगा कि पिछली बार जब उनके नेतृत्व में भाजपा हार गई थी तो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम माथुर के साथ उन्हें भी नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने को कहा गया था, प्रदेश अध्यक्ष माथुर ने तो तुरंत हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, मगर वसुंधरा अड़ गईं। विधायकों पर उनकी इतनी जबदस्त पकड़ थी कि उनके दम पर वे हाईकमान से भिड़ गईं। काफी दिन तक नाटक होता रहा और बमुश्किल उन्होंने पद छोड़ा। छोड़ा भी ऐसा कि उनके बाद किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। आखिरकार हाईकमान को झुकना पड़ा और देखा की वे बहुत ताकतवर हैं और संगठन बौना तथा उनकी उपेक्षा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता तो फिर नेता प्रतिपक्ष बनने का आग्रह किया। एकबारगी तो उन्होंने इंकार कर दिया, मगर पर्याप्त अधिकार देने और उनके मामले में हस्तक्षेप न करने के आश्वासन पर ही मानीं। चुनाव नजदीक आते देख जब लगा कि उनके मुकाबले को कोई भी नेता नहीं है जो भाजपा की वैतरणी पार लगा सके, तो प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया। वे पार्टी के भरोसे पर पूरी तरह से खरी उतरीं भी। न केवल विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलवाया, अपितु लोकसभा चुनाव में भी पच्चीसों सीटें जितवा कर दीं। यानि कि वे पहले के मुकाबले और अधिक ताकतवर हो गई हैं। मगर अब जब मंत्रीमंडल का विस्तार करने की जरूरत है तो ऊपर से हरी झंडी नहीं मिल पा रही। सत्ता संभालते ही उन्होंने न्यूनमत जरूरी 12 मंत्रियों का मंत्रीमंडल बनाया, मगर बाद में उसका विस्तार नहीं कर पाई हैं। यानि कि इन 12 मंत्रियों के सहारे ही सरकार के सारे मंत्रालयों का कामकाज किया जा रहा है, जबकि कुल 30 मंत्री बनाए जा सकते हैं। हालत ये है कि नसीराबाद के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट के अजमेर का सांसद बनने के बाद भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही हैं, जबकि वे विधायक पद से इस्तीफा दे चुके हैं। अभी वे बिना विधायकी के मंत्री हैं। इसको लेकर कांग्रेस ने हंगामा मचा रखा है कि सांसद रहते नियमानुसार उन्हें मंत्री नहीं माना जा सकता, मगर विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने कांग्रेस की आपत्ति को नजरअंदाज कर रखा है।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि मंत्रीमंडल के विस्तार की सख्त जरूरत है, विवाद से बचने के लिए और सरकार को ठीक से काम करने के लिए भी, मगर विस्तार नहीं हो पा रहा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो इस मुद्दे को लेकर हमला भी बोला है कि भारी बहुमत के बावजूद आठ माह से केबिनेट तक नहीं बना पा रही हैं। इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है। इसको लेकर लोगों में इस सरकार के प्रति निराशा उत्पन्न हो रही है। मगर वसुंधरा मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहीं तो शंका होती ही है कि आखिर बात क्या है? विस्तार लगातार टलता जा रहा है। समझा जाता है कि यह स्थिति केन्द्र से तालमेल के अभाव में उत्पन्न हुई है। उनकी पसंद के सांसद, विशेष रूप से अपने सांसद बेटे को मंत्री को मंत्री नहीं बनवा पायी हैं। पच्चीस सांसदों पर एक ही मंत्री निहाल चंद मेघवाल बनाए गए हैं, मगर वे भी उनकी पसंद के नहीं हैं। माना जाता है कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल के विस्तार की गुत्थी के साथ राजस्थान मंत्रीमंडल का विस्तार अटका हुआ है। यूं कहा तो ये जा रहा है कि लिस्ट फाइनल है, मगर उसे स्वीकृति नहीं मिल पा रही। पहले राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष रहते उसे अटकाया और अब नए अध्यक्ष अमित शाह पेच फंसाए हुए हैं। समझा जा सकता है कि अमित शाह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ की कठपुतली हैं और नरेन्द्र मोदी जब चाहेंगे, जैसा चाहेंगे, उसी के अनुरूप मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। खैर, राजस्थान की शेरनी वसुंधरा की मोदी के सामने जो हालत है, उसे देखते तो यही लगता है कि दोनों के बीच ट्यूनिंग कुछ गड़बड़ है। वैसे उम्मीद यही है कि अगस्त माह में मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। केन्द्र का भी और राज्य का भी। तभी पता लगेगा कि वसुंधरा में कितना दमखम है और उनकी पसंद कितनी चल पाई है। वैसे संभावना यही है कि उन्हें स्थानीय संघ लॉबी से मिल कर ही चलना होगा।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, जुलाई 31, 2014

राहुल ने ठीक ही मना किया था सोनिया को पीएम बनने से

भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी सही कह रहे हैं या पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह, कुछ पता नहीं लग रहा। स्वामी का कहना है कि राष्ट्रपति ने सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने में कानूनी अड़चन की बात कही थी और अगर वे बन भी जातीं तो मामला कोर्ट में ले जाया जा सकता था। इस कारण सोनिया को कदम पीछे खींचने पड़े। मगर नटवर सिंह ने अगले महीने आने वाली अपनी किताब वन लाइफ इज नॉट एनफ में जो कुछ अहम खुलासे किए हैं, उसमें कहा गया है कि 2004 में सोनिया गांधी के पीएम नहीं बनने की सबसे बड़ी वजह राहुल गांधी थे। राहुल गांधी को डर था अगर उनकी मां सोनिया, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी की तरह पीएम बनीं, तो उनकी भी हत्या कर दी जाएगी। यही वजह थी कि राहुल गांधी ने बेटा होने की दुहाई देते हुए सोनिया को पीएम नहीं बनने दिया। राहुल गांधी ने अपनी मां सोनिया गांधी को सोचने के लिए 24 घंटे का समय दिया था। हालांकि राहुल बेटे के तौर पर अपना निर्णय पहले ही सुना चुके थे। आखिरकार सोनिया गांधी को भी राहुल की यह अपील माननी पड़ी। इन खुलासों का जिक्र उन्होंने न्यूज चैनल हेडलाइंस टुडे को दिए इंटरव्यू में किया है।
संभव है स्वामी की बात सही हो, मगर आज तक उसका ठीक से खुलासा कानूनी नजरिये के पहलुओं से नहीं हो पाया है। ये आज भी बहस का विषय है। मगर नटवर सिंह की बात में दम नजर आता है। ये वही नटवर सिंह हैं जो कभी गांधी-नेहरू परिवार के बेहद करीबी थे और अब कांग्रेस से निष्कासित। कांग्रेस से अलग हुए नेता का ये कहना कुछ गले उतरता है। चाहते तो वे भी स्वामी की तरह का तर्क दे सकते थे क्योंकि सोनिया व राहुल से उनकी अब नाइत्तफाकी है। खुद नटवर सिंह का दावा है कि वह किसी पुरानी कटुता की वजह से किताब नहीं लिख रहे हैं, बल्कि उनकी किताब तथ्यों पर आधारित है।
नटवर सिंह की बातों को अगर उस वक्त के हालात की रोशनी से देखें तो यकीन होता है कि वे शायद सही ही कह रहे हैं। उस वक्त सत्ता से वंचित हो रही भाजपा के नेताओं को बड़ा मलाल था कि विदेश में जन्मी एक महिला उन पर कैसे राज कर सकती है। एक तो वे महिला हैं, दूसरा विदेशी। उस वक्त पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया गया था कि लोगों को सोनिया के प्रधानमंत्री बनने पर ऐतराज हो। उनके जज्बात जगाए गए कि तुम एक विदेशी महिला के राज को कैसे स्वीकार कर सकते हो। इसमें बाकायदा देशभक्ति का पुट भी डाला गया था। यहां तक कि भारतीय पुरुषों की मर्दानगी तब को चुनौती तक देकर दबाव बनाया जा रहा था कि सोनिया किसी भी सूरत प्रधानमंत्री नहीं बननी चाहिए। चंद शब्दों में कहा जाए तो सोनिया के प्रति नफरत का माहौल बनाने की भरपूर कोशिश की गई थी। माहौल बना भी था। ऐसे माहौल में मर्दानगी की चुनौती झेला हुआ कोई भी सिरफिरा सोनिया को मारने की साजिश रच सकता था। किसी भी भारतीय के प्रधानमंत्री होने पर उसकी सुरक्षा को लेकर जितनी सतर्कता नहीं चाहिए, उससे कहीं गुना अधिक एक विदेशी महिला के प्रधानमंत्री होने पर बरतने की नौबत आ सकती थी। यहां तक देशभर में हिंसा तक भड़कने का खतरा था। गृहयुद्ध भी हो सकता था। कदाचित उस आशंका की भयावहता का सोनिया और राहुल को आभास रहा होगा। राहुल के अपनी दादी व पिता की हत्या और सोनिया के अपनी सास व पति की हत्या देखने की वजह से ये ख्याल स्वाभाविक ही है। भले ही सोनिया प्रधानमंत्री बन जातीं, मगर यदि केवल उनके विदेशी होने के मुद्दे को लेकर देश में बवाल होता तो वह उनके लिए बेहद शर्मनाक होता। वह इतिहास का काला अध्याय बन जाता। यदि इस अर्थ में सोनिया का त्याग देखा जाए तो उसमें कुछ गलत भी नहीं है कि उनके त्याग से देश हिंसा से बच गया। हालांकि सोनिया के भविष्य में आने वाले उस मन्तव्य का इंतजार करना चाहिए, जो उन्होंने नटवर के बयान के बाद आया है कि वे एक किताब लिखेंगी, जिसमें सब कुछ सामने आ जाएगा।
संभव है कि तब सोनिया व राहुल ने सोचा होगा कि चाहे किसी को प्रधानमंत्री बना दिया जाए, सरकार की कमान तो उनके ही हाथों में रहने वाली है और उनके प्रधानमंत्री बनने न बनने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला था, सो पद त्यागने का विचार आया होगा। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि यह मुद्दा कई बार उठा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो कठपुतली मात्र हैं  और सरकार सोनिया के इशारे पर ही चलती है। सत्ता के दो केन्द्र थे, उसमें ज्यादा ताकतवर सोनिया का था। ज्ञातव्य है कि कभी मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहने वाले संजय बारू ने अपनी किताब द ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, द मेकिंग ऐंड अनमेंकिंग ऑफ मनमोहन सिंह में खुलासा किया था सोनिया ही असल में सरकार चला रही थीं। नटवर सिंह भी ये कह रहे हैं कि सोनिया गांधी की पहुंच सरकारी फाइलों तक थी।
बहरहाल, चाहे बेटे की जिद के कारण या हिंसा के डर से सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने का विचार त्यागा हो, मगर इस सिलसिले में एक बात कहने की इच्छा होती है कि भले ही भाजपा इत्यादि दलों को सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने पर सुकून मिला हो, मगर यह भी हकीकत है कि पूरे दस साल सोनिया ने ही सरकार चलाई, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से। नटवर सिंह ने तो इससे भी एक कदम आगे कह दिया कि जब वे पार्टी में थे तो सोनिया गांधी का कांग्रेस पर पूरा नियंत्रण था। सोनिया गांधी ने कभी इंटेलेक्चुअल होने का दावा नहीं किया, लेकिन उनके शब्द ही पार्टी के लिए कानून थे। नटवर सिंह ने कहा कि कई मायनों में कांग्रेस पर सोनिया का नियंत्रण इंदिरा गांधी से भी ज्यादा था और वह इंदिरा से भी ज्यादा ताकतवर नजर आती थीं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, जुलाई 25, 2014

इतना क्या जरूरी था वैदिक का हाफिज सईद से मिलना?

इन दिनों वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक के हाफिज सईद से मिलने का मुद्दा गरमाया हुआ है। चूंकि वे बाबा रामदेव से सीधे जुड़े हुए हैं और बाबा रामदेव तथा उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान भी मोदी व भाजपा को जितवाने के प्रयास किए, इस कारण भाजपा खेमे की सिट्टी पिट्टी गुम है। वे इसे पत्रकारिता का मुद्दा बता कर पल्लू झाड़ रहे हैं। उनके गुण-अवगुण को पत्रकार जगत पर छोड़े दे रहे हैं। जाहिर है वे उन्हें बचाना चाहते हैं। यहां तक कि बड़े-बड़े पत्रकार भी पत्रकारिता की खेमेबाजी के कारण उनकी तरफदारी कर रहे हैं। दूसरी ओर कांग्रेस ने इसे बड़ा मुद्दा बना कर आसमान सिर पर उठा रखा है कि वैदिक ने चूंकि देश के सबसे बड़े दुश्मन से मुलाकात की है, इस कारण उनके खिलाफ कार्यवाही होनी चाहिए।
सवाल ये उठता है कि आखिर माजरा क्या है? जैसा कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि बेशक वैदिक का सईद से मिलना कानूनी अपराध नहीं हो सकता है, विशेष रूप से पत्रकार होने के नाते, क्योंकि पत्रकारिता का कर्म ही ऐसा है कि पत्रकार को कई लोगों से मिलना होता है, मगर क्या वे केवल पत्रकार हैं? क्या उससे पहले भारत देश के नागरिक नहीं? क्या उनका पत्रकारिता का धर्म राष्ट्र भक्ति व देश के वफादारी से कहीं अधिक हो गया? और अफसोस तो तब होता है जबकि आप इस मुलाकात पर इठला रहे हैं कि आपने कोई बड़ा तीर मार लिया है। मुलाकात पर हंगामा होते ही उन्होंने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि करार दिया। यहां तक कहा कि कोई कांग्रेसी नेता होता तो उसका पायजामा गीला हो जाता। उनका जो दंभ सामने आया, उससे तो यही लगता है कि भले ही वे किसी मिशन के तहत सईद से नहीं मिले, मगर उससे मिलने पर क्या बवाल होना है, इससे अच्छी तरह से वाकिफ थे। वे ये भी जानते थे कि वे यह कह आसानी से बच जाएंगे कि वे तो पत्रकार हैं, इस कारण कई नेताओं से मिलते रहते हैं।
जो तथ्य हैं उससे साफ है वे मिले ही भले एक पत्रकार के नाते, मगर उन्होंने वहां पत्रकारिता जैसा कोई काम नहीं किया। बात रही उनके पत्रकार होने के नाते वरिष्ठ पत्रकारों के उनकी तरफदारी की तो वजह स्पष्ट है, अनेक उनके शिष्य रहे  हैं या फिर किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं, इस कारण व्यक्तिगत द्वेष से बचाना चाहते हैं। एक वर्ग इस मुद्दे को पत्रकारिता की स्वतंत्रता की वजह से चुप है।
तस्वीर का एक रुख ये भी है कि भले ही वैदिक को एक पत्रकार के रूप में देखा जा रहा हो, चूंकि उनका अधिकतर जीवन पत्रकारिता में ही बीता है, मगर सच ये भी है कि हाल ही के लोकसभा चुनाव में वे खुल कर भाजपा के पक्ष में लिखने लग गए थे। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने में उनकी भी भूमिका रही, जिसे वे स्वयं स्वीकार करते हैं। यहां तक कहते हैं कि मोदी का नाम उन्होंने ही प्रस्तावित किया था। ऐसे में क्या ये सवाल नहीं उठता कि पत्रकार कब से किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष के लिए काम करने लगे। उन्होंने भले ही भाजपा की सदस्यता नहीं ली, जिसका तर्क दे कर भाजपा उनसे पल्लू झाड़ रही है, मगर उनके सारे कृत्य तो भाजपा के ही पक्ष में थे। मोदी के लिए प्रचार करने वाले योग गुरू बाबा रामदेव के साथ उनकी कितनी घनिष्ठता है, ये किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अगर उन पर भाजपाई होने का आरोप लग रहा है तो उसमें गलत क्या है?
वास्तव में वैदिक को पहली बार में ही हाफिज से मिलने के लिए साफ  मना करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने राष्ट्र धर्म नहीं निभाया। और सबसे बड़ा सवाल ये कि वे ऐसी कौन सी पत्रकारिता करने का आतुर थे कि राष्ट्रधर्म निभाना ही भूल गए? सबसे बड़ा सवाल ये कि वैदिक को सईद से मिलने की इतनी जरूरत क्या आ पड़ी थी? बहरहाल अब मामला तूल पकड़ चुका है। उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया है। अब कोर्ट ही तय करेगा कि उनका कृत्य उचित था या अनुचित।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, जुलाई 03, 2014

साईं बाबा विवाद पर छिड़ी है वैचारिक जंग

शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद की ओर से साईं बाबा को भगवान न मानने के बयान के बाद देशभर में जबरदस्त बहस छिड़ गई है। टीवी चैनलों पर लगातार कई पैनल डिस्कशन हो रहे हैं। सांई बाबा के भक्त लामबंद हो कर शंकराचार्य का विरोध कर रहे हैं तो शंकराचार्य ने भी विभिन्न संतों की बैठक बुला कर अपने बयान पर बल देने का प्रयास किया है। केन्द्रीय मंत्री साध्वी उमा भारती के बयान के बाद तो इस विवाद ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। भाजपा से जुड़े राजनेता व संत यह कहने से नहीं चूक रहे कि शंकराचार्य कांग्रेस के नजदीकी हैं और उनका भाजपा में सत्ता में आने के बाद ऐसा बयान साजिश का इशारा करता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो पूरा हिंदू समाज इस मुद्दे पर दो फाड़ सा हो गया है। कुछ हिंदू वादी साईं बाबा तो मुस्लिम करार देने पर आमादा हैं तो साईं भक्त उन्हें भगवान मानने पर अडिग हैं।
इस मुद्दे पर सोशल मीडिया भी मुखर हो गया है। वाट्स एप पर दोनों की पक्षों की ओर से अपने तर्क दिए जा रहे हैं। आइये, जरा देखें कि उनकी बात में कितना-कितना दम है:-
शंकराचार्य के एक समर्थक की पोस्ट इस प्रकार है- 
कटु सत्य--क्या आप जानते हैं?
1-साईं का असली नाम चांद मियां था।
2-साईं ने कभी अपने जीवन में 2 गांव से बाहर कदम नहीं रखा।
3-साईं सत्चरित में 10 बार से अधिक अल्लाह मालिक शब्द आया है, परन्तु एक बार भी ओम् नहीं आया।
4-साईं के समय में उसके आसपास के राज्यों में भयंकर अकाल पड़ा, परन्तु साईं बाबा ने गरीबों की मदद करना जरूरी नहीं समझा।
5-साईं का जन्म 1834 में हुआ, पर उन्होंने आजादी की लड़ाई, जिसे धर्म युद्ध की संज्ञा दी जाती है, में भारतीयों की मदद करना जरूरी नहीं समझा। पता नहीं क्यों, अगर वे राम-कृष्ण के अवतार थे, तो उन्हें मदद करनी चाहिए थी क्योंकि कृष्ण का हीकहना है कि धर्म युद्ध में सभी को भाग लेना पड़ता है। स्वयं कृष्ण ने महाभारत में पांडवों का मार्ग दर्शन किया और वक्त आने पर शस्त्र भी उठाया। भगवान राम ने भी यही किया, पर पता नहीं साईं कहां थे।
6-साईं भोजन से पहले फातिहा पढ़ते थे, परन्तु कभी गीता और रामायण नहीं पढ़ी, न ही कोई वेद। वाह कमाल के भगवान थे।
7-साईं अपने भक्तों को प्रसाद के रूप में बिरयानी यानि मांस मिश्रित चावल देते थे। खास कर ब्राह्मण भक्तों को। ये तो संभव ही नहीं की कोई भगवान का रूप ऐसा करे।
8-साईं जात के यवनी यानि मुसलमान थे और मस्जिद में रहते थे, लेकिन आज कल उन्हें ब्राह्मण दिखाने का प्रयास चल रहा है। सवाल ये है कि क्या ब्राह्मण मस्जिदों में रहते हैं?
नोट-ये सारी बातें स्वयं साईं सत्चारित में देखें। यहां पर एक भी बात मनगढ़ंत नहीं है। ये हमारी एक कोशिश है अन्धे हिन्दुओं को जगाने की। लेकिन हो सकता है इसका असर नहीं पड़े क्योंकि भैंस के आगे बीन बजाने का कोई लाभ नहीं होता।

जरा अब दूसरा पक्ष भी देख लीजिए-
न्यूज 24 पर साईं विवाद पर चल रही बहस में एंकर एवं अन्य धर्मों मुस्लिम, ईसाई, सिख के प्रतिनिधि उदारवाद के साक्षात अवतार दिखाई देने की कोशिश कर रहे थे एवं शंकराचार्य के बयान की निन्दा कर रहे थे तथा बेचारे हिन्दू प्रतिनिधि स्वामी का बचाव की मुद्रा में थे। सब सबका मालिक एक वाला राग गाये जा रहे थे। इसी दौरान स्वामी मार्तण्ड मणि ने बहुत ही बेहतरीन सवाल किया कि क्या आप सब अपने धर्म स्थानों मस्जिद, चर्च व गुरुद्वारे में साईं बाबा की पूजा की अनुमति देंगे? अब सबके चेहरे देखने लायक थे, सब इधर-उधर की बातें करने लगे। एंकर ने जोर देकर सवाल दोहराया तो टालमटोल करते-करते बताने लगे।
मुस्लिम धर्मगुरू-इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की इबादत की मनाही है, तो मस्जिद में साईं की इबादत का प्रश्न ही नहीं उठता। बुतपरस्ती की तो सख्त-मनाही है, वगैरह- वगैरह।
पादरी जी-चर्च प्रभु यीशू के शरीर का स्वरूप है, कमाल है पादरी साहब ने आज ये नई बात बतायी, उसमें किसी और की पूजा नहीं हो सकती।
सिख प्रतिनिधि-गुरुद्वारा गुरू का स्थान है। हम केवल गुरू की वाणी में ही विश्वास करते हैं। वह सभी धर्मों का आदर करती है, उसमें सभी भक्तों की वाणियां हैं...वगैरह-वगैरह। दोबारा पूछे जाने पर ज्ञानी जी ने भी माना कि गुरुद्वारे में साईं की पूजा की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अब कहां गई वह उदारता एवं सबका मालिक एक की भावना।
तो भाई जब तुम लोग साईं को अपने धर्म स्थान में जगह नहीं दे सकते, उसको अपने भगवान अर्थात अल्लाह, यीशु, गुरू आदि का अवतार नहीं मान सकते तो जब शंकराचार्य ने यही बात हिन्दुओं की ओर से कही तो आलोचना क्यों कर रहे हो।
ये सन्देश सीधा अंतर्मन से आया है। जो भी इसको 11 लोगों को भेजेगा, वह सनातन धर्म सेवा से मिले आनंद का भागी होगा।  और जो पढ़ कर भी डिलीट करेगा या नजर अंदाज करेगा, वह 5 दिन तक इसी टेंशन में रहेगा की बात तो सही लिखी थी, पर मैंने धर्म रक्षा का अवसर खो दिया।

इस विवाद पर राजनीति का रंग लिए यह पोस्ट भी देखिए-
मित्रों, आजकल साईं बाबा की आलोचना हर तरफ हो रही है, लेकिन कभी सोचा ये सब अब क्यों हो रहा है और इतने दिन बाद क्यों हो रहा है? आइये हम आपको बताते क्या हंै मामला.....
आपको पता होगा की शंकराचार्य जी की ओर से उठाये हुए सवाल के कारण आज ये विवाद पैदा हुआ है।
1-हाल ही में मोदी सरकार को बड़ी सफलता मिली है और ये जीत हिंदुस्तान के लिए बड़े गर्व का बात है और कांग्रेस के लिए ये शर्मनाक हार थी, इसी के कारण चलते कांग्रेस की बड़ी साजिश तैयार हुई। शंकराचार्य द्वारा जो अब बड़ा सिरदर्द बनाया हुआ है, बीजेपी व हिंदुस्तान के लिये, क्यों कि आने वाले कुछ ही दिन में महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, झारखण्ड और बिहार में विधानसभा इलैक्शन के लिये वोटिंग होगी।
साईं बाबा के नाम पर होगा हिन्दुओं का बंटवारा और इसके चलते हिंदुस्तान में हिन्दू एक दूसरे से लड़ते रहेंगे, इसका फायदा कांग्रेस और बाकी मुसलमान को मिलेगा क्योंकि वक्फ बोर्ड की नजर साईं बाबा के संपत्ति पर हे, इसे हम अनदेखी नहीं कर सकते। साईं को मुसलमान साबित करके सूफी-संत बता दिया जायेगा और हड़प लेंगे साईं मंदिर की करोड़ों की संपति।
शंकराचार्य जी को कांग्रेस हमेशा सपोर्ट करता है, इसका उदाहरण मीडिया का रिपोर्टर का थप्पड़ कांड है। मोदी जी के बारे में पूछने पर शंकराचार्य ने थप्पड़ मारा था।
साईं बाबा हिन्दू या मुसलमान थे, ये किसी को पता नहीं, न ही कहीं लिखा है। इसलिये हमें सोचना चाहिये । अगर हिन्दुओं का इतना ख्याल है शंकराचार्य जी को तो कहां थे, जब तिरुपति में भगवान बालाजी मंदिर के पास मुसलमानों की यूनिवर्सिटी बन रही थी?
कहां थे जब हैदराबाद के लक्ष्मी मंदिर में घंटा बजने पर बैन हुआ था?
कहां थे जब ओवेसी हिंदुओं पर जहर उगल रहा था?
हिन्दुओं को आपस में लड़ा कर हिन्दू वोट को अलग करना शंकराचार्य जी का लक्ष्य है, जो हमको समझना चाहिए।
सबसे बडी बात है कि मोदी जी को बदनाम करके भारत के विकास को रोकने का काम करेंगे, जो कल तक कुछ एनजीओ करते थे। आईबी की रिपोर्ट आने के बाद एनजीओ का असली चेहरा सामने आया था। हमारा साहित्य, संस्कृति, कला, चाल-चलन और भविष्य हम बनायेंगे या फिर उन लोगों पर छोड़ देंगे जो दूसरे देश से पैसा लेकर हम को ये गलत उपदेश देंगे। और न मानने पर वो कोर्ट पहुंच जाते हैं, फिर रोक लेते हैं बने हुए काम। यही सत्य है। अगर आप इससे सहमत हैं तो शेयर करना न भूलें और देश में स्थिर बनाये रखें। पहले हम भी थे शंकराचार्य जी का साथ, लेकिन अब देश के हित के लिये हिन्दुस्तान के साथ।

सोमवार, जून 16, 2014

वन मैन शो की तरह काम करेंगे मोदी?

जैसी कि आशंका थी, वही होने जा रहा प्रतीत होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मंत्रियों को काम करने की सीमित छूट देंगे और सारे फैसलों पर खुद ही नजर रखेंगे, इसका आभास तब हुआ था, जब उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के कुछ दिन बाद ही सारे मंत्रालयों के सचिवों की संयुक्त बैठक बुला ली। बेशक उनके इस कदम को इस अर्थ में लिया गया कि वे स्वयं बहुत मेहनत कर रहे हैं, ताकि कहीं कोई गड़बड़ न हो, मगर दूसरी ओर इसे इस अर्थ में लिया गया कि क्या वे मंत्रियों को ठीक से काम करने भी देंगे या नहीं। उनका अब तक का ट्रेक रिकार्ड भी यही बताया जाता है कि गुजरात में भी उन्होंने सरकार को अपने में ही अंतर्निहित कर रखा था। सारे मंत्री को नाम मात्र के थे, बाकी सरकार तो वे खुद ही चला रहे थे। इस कारण उनके व्यक्तित्व में मौजूद डिक्टेटरशिप के तत्व को जानने वाले यही मान रहे थे कि वे केन्द्र में कुछ ऐसा ही करने वाले हैं।
मोदी की इस प्रवृत्ति की पुष्टि हाल ही तब हो गई, जब उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह सहित आठ मंत्रियों के निजी सचिवों की नियुक्ति पर कार्मिक मंत्रालय के एक सर्कूलर के माध्यम से अड़ंगा लगा दिया। इस सर्कूलर में कहा गया है कि मंत्रियों के निजी स्टाफ में नियुक्ति के लिए कैबिनेट की नियुक्ति समिति से मंजूरी जरूरी है। इसमें नियुक्ति में तय प्रक्रिया का सख्ती से पालन करने को कहा गया। ज्ञातव्य है कि राजनाथ सिंह के निजी सचिव के लिए 1995 बैच के आईपीएस अफसर आलोक सिंह का नाम भेजा गया है। इसी प्रकार गृह राज्यमंत्री किरेन रिजीजू के निजी सचिव अभिनव कुमार की नियुक्ति को भी हरी झंडी नहीं मिली। विदेश राज्य मंत्री वी के सिंह के निजी सचिव राजेश कुमार की नियुक्ति भी अटकी है। कुछ अन्य मंत्रियों के निजी स्टाफ की नियुक्ति भी रुकी हुई है। यानि कि उन्होंने अपने मंत्रियों के फैसलों पर भी लगाम लगा कर रखने की ठान रखी है। उनकी तानाशाही प्रवृत्ति की सीमा इस हद तक है कि खुद उनकी पार्टी के अध्यक्ष और केंद्र में नंबर दो की हैसियत रखने वाले राजनाथ सिंह को भी राहत नहीं दी गई।
गुड गवर्नेंस के लिहाज से मोदी की यह कार्यशैली बेहतर जरूर मानी जा सकती है, मगर समझा जाता है कि इससे कुछ दिन बाद मंत्रियों में असंतोष पनपेगा। जब वे कोई भी निर्णय करने के लिए स्वतंत्र नहीं होंगे और हर फैसले पर अंतिम मुहर के लिए पीएमओ का मुंह ताकेंगे तो उनके मंत्री होने - न होने के कोई मायने ही नहीं रह जाएंगे। असल में यह स्थिति इस कारण उत्पन्न हुई है क्योंकि इस बार भाजपा ने मोदी को बाकायदा प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया और उसमें सफलता भी हाथ लगी। यानि कि भाजपा को मिले बहुमत का सारा श्रेय मोदी के खाते में दर्ज है। ऐसे में अगर वे तानाशाह की तरह काम करते हैं तो उसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, जून 08, 2014

मोदी के ही कब्जे में ही रहेगा भाजपा संगठन भी

हालांकि जल्द ही भाजपा को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष मिल जाएगा, मगर पार्टी के अंदर चर्चा ही है कि उस पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हावी रहेंगे। इस बात की सुगबुगाहट पहले से ही है कि नए अध्यक्ष की नियुक्ति मोदी की सहमति से ही होगी। यानि अध्यक्ष कहने मात्र का होगा, जबकि सारे निर्णयों पर मोदी ही मुहर लगवानी होगी। इस मुद्दे पर राष्ट्रीय न्यूज चैनलों पर भी बहस छिड़ी हुई है।
असल में यह मुद्दा इस कारण उठा क्योंकि मोदी ने प्रधानमंत्री आवास में पार्टी महासचिवों की बैठक बुला ली। उन्होंने महासचिवों से विमर्श किया और उन्हें भी सांगठनिक निर्देश दिए। इसमें भी पेच ये रहा कि इसके बारे में अध्यक्ष राजनाथ सिंह को कोई सूचना नहीं थी। राजनाथ सिंह ने तो बाद में बैठक में मौजूद महासचिवों से फोन करके जानकारी ली। जाहिर तौर पर वे सकते में आ गए होंगे। हालांकि वे अब मंत्री बन चुके हैं, मगर जब तक नया अध्यक्ष मनोनीत नहीं हो जाता, तब तक वे ही अध्यक्ष हैं। इस घटना को इस रूप में लिया गया कि मोदी यह साफ कर देना चाहते थे कि उनके नाम से मिले जनसमर्थन को वे कमजोर नहीं होने देंगे। मोदी ने एक और हरकत भी की। वो यह कि पार्टी आफिस जाकर वहां काम करने वाले कर्मचारियों से मिले और उन्हें बोनस दिया।
ऐसे में सवाल उठने लगे कि क्या पार्टी का पृथक अध्यक्ष होने के बावजूद उनका इस प्रकार संगठन में दखल देना उचित है। इस बारे में कुछ का कहना रहा कि चूंकि संगठन को दिशा देने की जिम्मा अध्यक्ष का है, तो प्रधानमंत्री को संगठन के मामले में सीधे हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। कोई बात करनी भी तो पार्टी अध्यक्ष की जानकारी में ला कर संयुक्त बैठक करनी चाहिए। अगर इस प्रकार अध्यक्ष को जानकारी में लाए बिना पार्टी पदाधिकारियों की बैठक लेंगे तो अध्यक्ष का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा। उसकी सुनेगा भी कौन? या फिर असमंजस में पड़ेगा कि मोदी को राजी करे या अध्यक्ष को? किसकी मानें? यदि अध्यक्ष किसी मुद्दे पर पृथक राय रखता होगा तो टकराव होगा, जो कि संगठन के लिए ठीक नहीं होगा। इससे तो बेहतर है कि पार्टी और संघ बैठ कर तय कर लें कि पार्टी के एजेंडे को ठीक से लागू करने के लिए प्रधानमंत्री व अध्यक्ष दोनों ही पद मोदी के पास रहेंगे।
दूसरी ओर एक तबका ऐसा भी है जो कि यह मानता है कि मोदी को पार्टी पदाधिकारियों को दिशा निर्देश देने का पूरा अधिकार है क्योंकि उन्हीं के बलबूते पर ही पार्टी सरकार में आई है। अगर मोदी का चेहरा न होता तो भाजपा को कभी इतना प्रचंड बहुमत नहीं मिलता। पार्टी मोदी के नेतृत्व में ही तो इस मुकाम पर पहुंची है, इस कारण उन्हें पूरा अधिकार है कि वे सरकार चलाने के साथ-साथ संगठन को भी मजबूत करें। उनका तर्क ये है कि चूंकि देश में अच्छे दिन लाने के लिए मोदी के नाम पर भाजपा को सत्ता में आने का मौका मिला है, इस कारण जनता की अपेक्षाएं सीधे तौर पर मोदी से हैं। वे तभी अच्छी सरकार चला पाएंगे जबकि संगठन भी उनके कहे अनुसार चले। वैसे भी सरकार को बेहतर चलाने के लिए बेहतर ये है कि सत्ता के दो केन्द्र न हों।
वस्तुत: देश के राजनीतिक इतिहास में पहली बार पूर्ण बहुमत से सत्ता में पहुंची भारतीय जनता पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर हैं। मोदी के करिश्माई नाम पर भाजपा ने वह हासिल कर लिया है, जो इसके संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भी हासिल न हो सका था। पार्टी के दूसर शीर्ष पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी को भी रथयात्रा के जरिए सफलता मिली, मगर वे भाजपा को सत्ता के नजदीक भी नहीं ला सके। यहां तक कि आडवाणी को ही प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट करने पर भी सफलता हाथ नहीं आई। ऐसे में पूर्ण बहुमत दिलाने वाले मोदी की हैसियत पार्टी अध्यक्ष से भी ऊंची हो गई है।
हालांकि मोदी समर्थकों का कहना है कि मोदी का संगठन में सीधे दखल देना गलत अर्थों में नहीं लिया जाना चाहिए क्योंकि वे प्रधानमंत्री बनने के बाद भी पार्टी को मां के समान मानते हैं। उसे मजबूत बनाए रखना चाहते हैं। दूसरे पक्ष को इस पर संदेह है। वो यह कि कहीं मां की सेवा के बहाने कहीं ये पूरी पार्टी पर कब्जा करने की नियत तो नहीं है।
कुल मिला कर मोदी की वर्किंग स्टाइल और ताजा हालत से तो यही लगता है कि पार्टी अध्यक्ष नाम मात्र का होगा और वह मोदी के कहे अनुसार ही चलेगा। वजह साफ है। मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि अब उनक सामने खड़ा बराबर के दर्जे से कोई भी बात नहीं कर पाएगा। मोदी की हैसियत कितनी बड़ी हो गई है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि जिन नेताओं पर अध्यक्ष का भार था, वे ही अब मोदी के मंत्रीमंडल में शामिल हैं।
-तेजवानी गिरधर
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बुधवार, जून 04, 2014

मोदी व वसुंधरा के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं

इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकसभा चुनाव में मिशन 25 को पूरा करने के लिए राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने पार्टी की ओर से नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किए जाने के निर्णय को पूरा सम्मान दिया, अपितु अपनी ओर से भी एडी-चोटी का जोर लगा दिया। भाजपा की इस ऐतिहासिक जीत में जितनी भूमिका मोदी लहर की रही, उतनी ही वसुंधरा की रणनीति भी रही। चतुराई से टिकट वितरण के साथ ही कुछ कमजोर सीटों पर जिस प्रकार उन्होंने कांग्रेस की घेराबंदी की,  उसके अपेक्षित परिणाम भी आए। यानि कि मोदी-वसुंधरा के तालमेल ने चमत्कार कर दिखाया, मगर जैसे ही मोदी ने अपने मंत्रीमंडल का गठन किया तो इस बात का अनुमान साफ-साफ लगने लगा कि दोनों के बीच सबकुछ ठीकठाक नहीं है।
जानकार सूत्रों के अनुसार मंत्रीमंडल की सूची फाइनल होने के आखिरी क्षण तक राजस्थान के एक भी सांसद का नाम मंत्री के रूप में नहीं था। कुछ न्यूज चैनलों पर तो यह खबर ब्रेकिंग न्यूज की तरह चल भी गई। और ये भी कि वसुंधरा ने सभी सांसदों की बैठक में तसल्ली रखने को कहा। दूसरी ओर उन्होंने मोदी पर दबाव भी बनाया और उसी के बाद श्रीगंगानगर के सांसद निहाल चंद का नाम सूची में जोड़ा गया। बताया जाता है कि निहाल चंद का नाम वसुंधरा की पहली पसंद के रूप में नहीं था, यानि कि इसमें भी मोदी ने वसुंधरा को कोई खास भाव नहीं दिया। मतलब साफ है। मोदी व वसुंधरा के बीच ट्यूनिंग में कहीं न कहीं गड़बड़ है। इस बात की पुष्टि कुछ चर्चाओं से हो रही है।
आपको याद होगा कि वसुंधरा ने अपनी पंसद से कर्नल सोनाराम को कांग्रेस से ला कर भाजपा का टिकट दिलवाया और पूर्व केन्द्रीय विदेश मंत्री जसवंत नाराज हो बागी हो गए, तो उन्हें हराने के लिए पूरी ताकत झोंक दी, उन्हीं का आशीर्वाद लेने के लिए मोदी ने पत्र लिख दिया। मीडिया में चर्चा यहां तक है कि उन्हें तमिलनाडू का राज्यपाल बनाया जा सकता है। इसी प्रकार चर्चा है कि वसुंधरा राजे के धुर विरोधी घनश्याम तिवाड़ी को मोदी अहम जिम्मेदारी दिलवाना चाहते हैं। इसी प्रकार राजे दरबार से निकाले गए ओम प्रकाश माथुर की चर्चा तो भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने वाली सूची में है। अध्यक्ष वे बनवा पाएं, अथवा नहीं, मगर यह तय है कि उन्हें भी खास जिम्मेदारी दी जा सकती है। कुल मिला कर यह साफ है कि मोदी सोची समझी रणनीति के तहत वसुंधरा विरोधियों पर हाथ रखना चाहते हैं। ताकि... ताकि वसुंधरा अपने सूबे में स्वतंत्र क्षत्रप की तरह व्यवहार न करने लगें। रहा सवाल वसुंधरा के मिजाज का तो सब जानते हैं कि जब वे विपक्ष में थीं, तब भी भाजपा हाईकमान के नियंत्रण में नहीं आ रही थीं। अधिसंख्य विधायक उनके कब्जे में थे। हाईकमान का दबाव था कि वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष पद छोड़े, मगर उन्होंने साफ इंकार कर दिया। काफी जद्दोजहद के बाद तब जा कर पद छोड़ा, जब उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया। उस पर भी तुर्रा ये कि तकरीबन एक साल तक किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। अपने पक्ष में विधायकों के इस्तीफे का नाटक सबने देखा। आखिरकार हाईकमान को मजबूर हो कर उन्हें फिर से नेता प्रतिपक्ष बनाना पड़ा। इससे समझा जा सकता है कि उन्होंने हाईकमान व संघ को कितना गांठा। हाईकमान उनके सामने इतना बौना हो गया था कि उन्हें ही विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में प्रोजेक्ट करना पड़ा। उन्होंने पूरे प्रदेश में सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर भाजपा के पक्ष में अलख जगाई। हालांकि तब तक नरेन्द्र मोदी भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हो चुके थे, इस कारण उनकी भी हवा चली और भाजपा को प्रचंड बहुमत हासिल हो गया। लोकसभा चुनाव में भी उन्होंने मिशन पच्चीस पूरा कर दिया। भला ऐसे में वे कैसे हाईकमान से दबने वाली हैं। उनका मिजाज भी इसकी इजाजत नहीं देता। स्वाभाविक है कि वे राजस्थान में स्वतंत्र रूप से काम करना चाहती हैं, मगर कुछ घटनाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी की राजस्थान में टांग फंसा कर रखने की मंशा है। मोदी आज भाजपा की सुपर पावर हैं। यदि ये कहें कि वे पूरी भाजपा पर हावी हो गए हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वे वसुंधरा को पहले की तरह छुट्टा छोडऩे वाले नहीं हैं। ठीक उसी तरह जैसे पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों को कब्जे में रखती थीं। एक वरिष्ठ लेखक डॉ. जुगल किशोर गर्ग ने तो व्यक्तिगत चर्चा में उन्हें इंदिरा गांधी का भाजपाई संस्करण करार दिया है। उधर महारानी वसुंधरा भी कम नहीं हैं। ऐसे में टकराव अवश्यम्भावी नजर आता है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, मई 08, 2014

यकायक कहां खो गए दूसरे गांधी अन्ना हजारे?

देश की राजनीति व तंत्र के प्रति व्याप्त नैराशय के बीच नि:स्वार्थ जनआंदोलन के प्रणेता और प्रकाश पुंज अन्ना हजारे एक दूसरे गांधी के रूप में उभर कर आए थे और यही लग रहा था कि देश को दूसरी आजादी के सूत्रधार वे ही होंगे, मगर आज जब कि देश में परिवर्तन की चाह के बीच आम चुनाव हो रहे हैं तो वे यकायक राष्ट्रीय क्षितिज से गायब हो गए हैं। हर किसी को आश्चर्य है कि एक साल पहले तक जो शख्स सर्वाधिक प्रासंगिक था, वह आज अचानक अप्रासंगिक कैसे हो गया? इसमें दो ही कारण समझ में आते हैं। या तो आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने की सूझबूझ के अभाव या अपनी टीम को जोड़ कर रख पाने की अक्षमता ने उनका यह हश्र किया है  या फिर चुनावी धूमधड़ाके में चाहे-अनचाहे सांप्रदायिकता व जातिवाद ने मौलिक यक्ष प्रश्रों को पीछे छोड़ दिया है। हालांकि चाह तो अब भी परिवर्तन की ही है, मगर ये परिवर्तन सत्ता परिवर्तन के साथ व्यवस्था परिवर्तन का आगाज भी करेगा, इसमें तनिक संदेह है। वजह साफ है कि व्यवस्था परिवर्तन की चाह जगाने वाले अन्ना हजारे राष्ट्रीय पटल से गायब हैं। आज जबकि उनकी सर्वाधिक जरूरत है तो वे कहीं नजर नहीं आ रहे।
आपको याद होगा कि अन्ना के आंदोलन ने देश में निराशा के वातावरण में उम्मीद की किरण पैदा की थी। आजादी के बाद पहली बार किसी जनआंदोलन के चलते संसद और सरकार को घुटने टेकने पड़े थे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि क्योंकि इसके साथ वह युवा वर्ग शिद्दत के साथ शामिल हो गया था, जिसे खुद के साथ अपने देश की चिंता थी। उस युवा जोश ने साबित कर दिया था कि अगर सच्चा और विश्वास के योग्य नेतृत्व हो तो वह देश की कायापलट करने के लिए सबकुछ करने को तैयार है। मगर दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया। इसके दो प्रमुख कारण रहे। एक तो स्वयं अन्ना   का भोलापन, जिसे राजनीतिक चालों की अनुभवहीनता कहा जा सकता है, और दूसरा बार-बार यू टर्न लेने की मजबूरी।
शुरू में यह नजर आया कि एक दूसरे के पर्याय भ्रष्टाचार व काला धन के खिलाफ बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का जोड़ कामयाब होगा, मगर पर्दे के पीछे के भिन्न उद्देश्यों ने जल्द ही दोनों को अलग कर दिया। बाबा रामदेव अन्ना हजारे को आगे रख कर भी पूरे आंदोलन को हथिया लेना चाहते थे, मगर अन्ना आंदोलन के वास्तविक सूत्रधार अरविंद केजरीवाल को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। सरकार भी बड़े ही युक्तिपूर्ण तरीके से दोनों के आंदोलनों को कुचलने में कामयाब हो गई। जैसे ही केजरीवाल को ये लगा कि सारी मेहनत पर पानी फिरने जा रहा है या फिर उनका सुनियोजित प्लान चौपट होने को है, उन्होंने आखिरी विकल्प के रूप में खुद ही राजनीति में प्रवेश करने का ऐलान कर दिया। ऐसे में अन्ना हजारे ठगे से रह गए। वे समझ ही नहीं पा रहे  थे कि उन्हीं के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी को समर्थन दें या अलग-थलग हो कर बैठ जाएं। इस अनिश्चय की स्थिति में वे अपने मानस पुत्र को न खोने की चाह में कभी अरविंद को अशीर्वाद देते तो कभी उनसे कोई वास्ता न होने की बात कह कर अपने व्यक्तित्व को बचाए रखने की जुगत करते। अंतत: उन्हें यही लगा कि चतुराई की कमी के कारण उनका उपयोग कर लिया गया है और आगे भी होता रहेगा, तो उन्होंने हाशिये पर ही जाना उचित समझा। समझौतावादी मानसिकता में उन्होंने सरकार लोकपाल समर्थन कर दिया। जब केजरीवाल ने उनको उलाहना दिया कि इस सरकारी लोकपाल से चूहा भी नहीं पकड़ा जा सकेगा तो अन्ना ने दावा किया कि इससे शेर को भी पकड़ा जा सकता है। अन्ना के इस यूटर्न ने उनकी बनी बनाई छवि को खराब कर दिया। उन पर साफ तौर पर आरोप लगा कि वे यूपीए सरकार से मिल गये हैं। बदले हालत यहां तक पहुंच गए कि वे दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं गए। वे किरण बेदी व पूर्व सेनाध्यक्ष वी के सिंह के शिकंजे में आ चुके थे, मगर अन्ना के साथ अपना भविष्य न देख वे भी उनका साथ छोड़कर भाजपा में चले गये। आज हालत ये है कि करोड़ों दिलों में अपनी जगह बना चुके अन्ना मैदान में मैदान में अकेले ही खड़े हैं। इससे यह साफ तौर साबित होता है कि उनको जो भी मिला उनका उपयोग करने के लिए। यहां तक कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ भी उनका यही अनुभव रहा। यह स्पष्ट है कि ममता का आभा मंडल केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित है और अन्ना का साथ लेकर वे राष्ट्रीय पटल पर आना चाहती थीं। दूसरी ओर अन्ना कदाचित केजरीवाल को नीचा दिखाने की गरज से ममता के प्रस्ताव पर दिल्ली में साझा रैली करने को तैयार हो गए। मगर बाद में उन्हें अक्ल आई कि ममता का दिल्ली में कोई प्रभाव नहीं है और वे तो उपयोग मात्र करना चाहती हैं तो ऐन वक्त पर यू टर्न ले लिया। इससे उनकी रही सही साख भी चौपट हो गई। कहां तो अन्ना को ये गुमान था कि वे जिस भी प्रत्याशी के साथ खड़े होंगे, उसकी चुनावी वैतरणी पर हो जाएगी, कहां हालत ये है कि आज अन्ना का कोई नामलेवा नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम से यह निष्कर्ष निकलता है कि अनशन करके आंदोलन खड़ा करने और राजनीतिक सूझबूझ का इस्तेमाल करना अलग-अलग बातें हैं। निष्पत्ति ये है कि अन्ना ने भविष्य में किसी आंदोलन के लिए अपने आपको बचा रखा है, मगर लगता नहीं कि उनका जादू दुबारा चल पाएगा।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, मई 06, 2014

खुद को नीची जाति का बता कर नीच हरकत की मोदी ने

मोदी लहर के सूत्रधार को ही जरूरत पड़ गई खुद को नीच बता कर वोट मांगने की जरूरत
योजनाबद्ध रूप से देशभर में अपनी लहर चला कर तीन सौ से ज्यादा सीटें हासिल करने का दावा करने वाले भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण में खुद को नीच जाति का बता कर वोट मांगने की जरूरत पड़ गई। उन्होंने कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका वाड्रा की ओर से किए गए पलटवार को ही हथियार बना कर जिस प्रकार नीची जाति की हमदर्दी हासिल करने कोशिश की, उससे साफ झलक रहा था कि वे भले ही ऊंची राजनीति के प्रणेता कहलाने लगे हैं, मगर वोट की खातिर नीची हरकत कर बैठे।
ज्ञातव्य है कि मोदी ने अमेठी में अपने एक भाषण में गांधी परिवार पर हमला करते हुए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर कटाक्ष किया था कि उन्होंने आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री टी अंजैया को एयरपोर्ट पर सबके सामने अपमानित किया था। इस पर प्रियंका तिलमिला उठीं। उन्होंने पलटवार करते हुए कहा था कि मोदी ने अमेठी की धरती पर मेरे शहीद पिता का अपमान किया है, अमेठी की जनता इस हरकत को कभी माफ नहीं करेगी। इनकी नीच राजनीति का जवाब मेरे बूथ के कार्यकर्ता देंगे। अमेठी के एक-एक बूथ से जवाब आएगा। मोदी को जैसे ही लगा कि प्रियंका ने उनके एक बयान के प्रतिफल में लोगों की संवेदना हासिल करने की कोशिश की है, उन्होंने उससे भी बड़े पैमाने की संवेदना जुटाने का घटिया वार चल दिया। प्रियंका को बेटी जैसी होने का बता कर सदाशयता का परिचय देने वाले मोदी ने यह स्वीकार भी किया कि एक पुत्री को पिता के बारे में सुन का बुरा लगा होगा, तो सवाल ये उठता है कि अमेठी की धरती पर क्या ऐसा बयान देना जरूरी था?
नीची जाति का यह मुद्दा इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर पूरे दिन छाया रहा और सारे भाषाविद, चुनाव विश्लेषक और पत्रकारों ने साफ तौर पर कहा कि प्रियंका ने तो केवल नीची अर्थात घटिया राजनीति का आरोप लगाया था, मगर मोदी ने जानबूझ कर इसे अपनी नीची जाति से जोड़ कर हमदर्दी हासिल करने की कोशिश की है। यह सर्वविदित तथ्य है कि उन्हें आज तक किसी ने नीची जाति का कह कर संबोधित नहीं किया, बावजूद इसके उन्होंने खुद को नीची जाति का बता कर उसे भुनाने की कोशिश की है। पूर्वांचल के सिद्धार्थनगर, महराजगंज, बांसगांव और सलेमपुर में कथित नीची जातियों के वोट बटोरने के लिए उन्होंने यहां तक कहा कि मेरा चाहे जितना चाहे अपमान करो, लेकिन मेरे नीची जाति के भाइयों का अपमान मत करो। खुद को ही पत्थर मार के घायल करने के बाद लोगों की संवेदना हासिल करने की तर्ज पर उन्होंने यह तक कहा कि क्या नीची जाति में पैदा होना गुनाह है। ये जो महलों में रहते हैं, वे नीची जाति का मखौल उड़ाते हैं। उन्हें सुख-शांति इसीलिए मिल रही है क्योंकि सदियों से हम नीच जाति के लोगों ने, हमारे बाप-दादाओं ने अपना पसीना बहाया है ताकि उनकी चमक बरकरार रहे।
मोदी की इस हरकत पर सभी भौंचक्क थे कि चुनाव के आखिरी चरण में मोदी को ये क्या हो गया है? क्या उन्हें अपनी लहर, जिसे कि वे खुद सुनामी कहने लगे हैं, उस पर भरोसा नहीं रहा, जो इतने निचले स्तर पर उतर आए हैं? कहीं जरूरत से ज्यादा जाहिर किए गए आत्मविश्वास पर उन्हें संदेह तो नहीं हो रहा? जीत जाने के दंभ से भरे इस शख्स को यकायक अपनी नीची जाति कैसे याद आ गई? कहीं उन्हें खुद के नीची जाति में पैदा होने का मलाल तो नहीं साल रहा? कहीं वे इस बात से आत्मविमुग्ध तो नहीं कि वे नीची जाति का होने के बावजूद देश के सर्वाधिक ताकतवर पद पर पहुंचने जा रहे हैं? सवाल ये भी कि नीची जाति के प्रति उनकी इतनी ही हमदर्दी है तो जब बाबा रामदेव ने यह कह कर दलित महिलाओं का अपमान किया था कि राहुल गांधी उनके घरों में जा कर रातें बिताते हैं, तब वे चुप क्यों रह गए थे? अव्वल तो प्रियंका ने मोदी को नीची जाति का बताया ही नहीं, मगर यदि मोदी ने यह अर्थ निकाल भी लिया तो भी बाबा रामदेव का कृत्य तो उससे भी कई गुना अधिक घटिया था, तब क्यों नहीं उन्हें फटकारा कि इस प्रकार मेरी नीची जाति की महिलाओं को जलील न करें?
आश्चर्य तो तब हुआ, जब अरुण जेटली जैसे जाने-माने बुद्धिजीवी नेता ने खुदबखुद व्यथित हुए मोदी के सुर में सुर मिला कर कांग्रेस से माफी मांगने तक को कह डाला।
आपको याद होगा कि एक बार कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर की ओर से उन्हें बचपन में चाय बेचने वाला बताने को पकड़ कर जो रट चालू की है, वह अब तक जारी है। चाय बेचने वाले, ठेले व रेहड़ी लगाने वालों की संवेदना हासिल करने के लिए पूरी भाजपा ने देशभर में नमो चाय की नौटंकी की थी। अमेठी में भी इसी रट को जारी रखते हुए उन्होंने कहा कि हमें बार-बार चाय वाला कह कर गालियां दी गईं, जबकि सच्चाई ये है कि अय्यर के बाद कभी किसी ने इसका जिक्र नहीं किया, मगर मोदी सहित सभी भाजपा नेता बार-बार यह कह कर कि एक चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बनने जा रहा है तो यह कांग्रेस को बर्दाश्त नहीं है, चाय बेचने को भी महिमा मंडित कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, मई 05, 2014

गैर भाजपाइयों ने बनाया माहौल को मोदीमय

भले ही गैर भाजपाई दल ये कहें कि भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए पार्टी की नीतियों से कहीं अधिक व्यक्तिवाद का रुख अख्तियार कर लिया है, मगर सच ये है कि भाजपा ने तो एक आदर्श के रूप में नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे रखा, जिसे मीडिया ने सुनियोजित तरीके से प्रोजेक्ट किया, मगर उसे मोदीमय बनाने का श्रेय गैर भाजपाइयों को ही जाता है। इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा ने मोदी को प्रोजेक्ट करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया, मगर विरोधियों ने मोदी पर लगातार ताबड़तोड़ हमले कर उन्हें शीर्ष पर ला दिया है। चहुं ओर मोदी ही मोदी सुनाई दे रहा है। संभवत: यह पहला मौका है जबकि देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरह आम चुनाव हो रहा है, जिसमें जनता को व्यक्ति के नाम पर वोट डालना है। पूरा चुनाव व्यक्ति केन्द्रित हो चुका है। देश में हर जगह राजनीतिक रूप से मोदी की ही चर्चा है। मोदी के समर्थक यही कहते हैं की मोदी सत्ता मे आयेंगे और विरोधी दलों का सारा जोर इस बात पर है कि मोदी को कैसे रोका जाए। वे स्वयं सत्ता में आने के प्रयास तो कर नहीं रहे, कर भी नहीं सकते क्योंकि विखंडित हैं, इससे उलट उनकी मंशा भर है कि किसी भी सूरत में मोदी नहीं आने चाहिए। हालत ये हो गई कि अपनी नीतियों व योजनाओं की पर जोर देने की बजाय केवल मोदी की बुराई में जुट गए हैं। और ये एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि आप जिसका जितना विरोध करेंगे, उतना ही वह और उभर कर आएगा।
असल में भाजपा ने लोकसभा चुनाव की शुरुआत मोदी के गुजरात विकास मॉडल के साथ की थी। इसे किसी ने अन्य दल ने गंभीरता से नहीं लिया। इसका परिणाम ये रहा कि मोदी गुजरात मॉडल को स्थापित करने में कामयाब हो गए। यह बात दीगर है कि बहुत देर से ये तथ्य सामने आए कि धरातल पर गुजरात मॉडल कुछ भी नहीं है, मगर तब तक धारणा बनाई जा चुकी थी। कांग्रेस के पास विकास के नाम पर कहने को बहुत कुछ था, मगर महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे इतने हावी हो गए कि उसके सामने सारा विकास गौण हो गया। राहुल गांधी ने तो इसे स्वीकार भी किया कि उनका सारा ध्यान काम पर ही रहा, मोदी की तरह चुनाव मैनेजमेंट व प्रोजेक्शन नहीं कर पाए। कुल मिला कर भाजपा आक्रामक मुद्रा में है तो कांग्रेस रक्षात्मक मुद्रा में।
हालांकि यह सच है कि चार साल पहले तक जहां कांग्रेस की सरकार को विफल माना जा रहा था, वहीं भाजपा पर सशक्त विपक्ष की भूमिका न निभा पाने का आरोप था। कांग्रेस के प्रति नाराजगी तक को भुना पाने में वह सफल नहीं हो पा रही थी। इसका लाभ समाजसेवी अन्ना हजारे ने उठाया। उनके आंदोलन को पूरे देश का समर्थन हासिल हुआ। उन्होंने जो जलवा पैदा किया, उसको भुनाने के लिए उन्हीं कि शिष्य अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बना ली। उन्हें दिल्ली विधानसभा चुनाव में फायदा मिला भी, मगर वे कठिनाइयों का सामना करने की बजाय भाग लिए। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि दिल्ली की सरकार को छोड़ कर उनकी नजर देश की सरकार पर जा टिकी। पूरे देश के हिसाब से उनके पास सांगठनिक ढ़ांचा था नहीं, इस कारण दिल्ली जैसा जलजला बन ही नहीं पाया। बस इसी कारण कांग्रेस विरोधी माहौल का पूरा फायदा भाजपा की ओर शिफ्ट होता नजर आ रहा है। उसका गुजरात विकास मॉडल कितना कारगर है, इस पर जरूर बहस की जा सकती है, मगर फिलवक्त वही आखिरी विकल्प नजर आ रहा है। लोग भी सोच रहे हैं कि जो सामने है, उसे आजमाने में हर्ज ही क्या है, कांग्रेस को तो वे परख ही चुके। जैसे ही कांग्रेस व अन्य गैर भाजपा दलों को आभास हुआ कि मोदीमय हुई भाजपा सरकार पर काबिज होने के करीब पहुंचती जा रही है, उन्होंने सीधे मोदी पर ही हमले शुरू कर दिए। कोई उन्हें मौत का सौदागर तो कोई कसाई बता रहा है। कोई हिटलर जैसा तानाशाह  करार दे रहा है तो कोई राक्षस की उपमा दे रहा है। इसका नतीजा ये है कि पूरा चुनाव मोदी बनाम गैर मोदी के बीच बंट गया है। एक ओर प्रचंड मोदी लहर है तो दूसरी ओर उसे रोकने के जतन। तभी तो मोदी ने यह कहने का मौका मिल गया कि पहली बार सारे दल सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होने की बजाय विपक्ष में रही भाजपा को रोकने की कोशिश कर रहे हैं। इसका उल्लेख स्वयं मोदी भी करने लगे हैं। यानि कि अपने आप में यह चुनाव अनूठा है। प्रधानमंत्री की कुर्सी नजदीक देख मोदी के भाषणों में भी दंभ आ गया है। वे बाकायदा स्वयं को प्रधानमंत्री मान कर ललकार रहे हैं। इसका उल्लेख सोनिया ने भी किया है कि मोदी अभी से अपने आपको प्रधानमंत्री मान बैठे हैं। इसके जवाब में मोदी यह कह कर मजे ले रहे हैं कि सोनिया गांधी के मुंह में घी-शक्कर।
खैर, चुनाव के आखिरी दिनों में सभी गैर भाजपा दलों का मकसद मोदी को रोकना नजर आ रहा है, मगर दुर्भाग्य से वे एक नहीं हैं। उनके अपने-अपने हित हैं। उनके अपने-अपने वोट बैंक और अपने अपने राज्य हैं। ऐसा विखंडित विपक्ष अगर यह सोचता है कि वह मोदी को रोक पाएगा, तो यह सपना मात्र नजर आता है।
रहा सवाल दूसरी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का तो वह जानती थी कि अभी माहौल प्रतिकूल है, इस कारण वह रक्षात्मक मुद्रा में रही। अन्य गैर भाजपाई दल कांग्रेस के साथ अभी इस कारण नहीं आए क्योंकि वे अपने अपने क्षेत्रों में वोट लेते ही गैर कांग्रेस गैर भाजपा के नाम पर हैं। चुनाव बाद जरूर वे मोदी को रोकने के लिए कांग्रेस के साथ आ सकते हैं या फिर कांग्रेस की मदद ले सकते हैं। यदि मोदी को रोकने के लिये सभी गैर भाजपा दल एकजुटता दिखाते तो कदाचित तनिक कामयाबी मिलने की उम्मीद की जा सकती थी, मगर ऐसा हुआ नहीं। इस सिलसिले में आपको याद होगा कि 1977 के लोकसभा चुनाव के लिये जब अनेक दलों ने अपना अस्तित्व मिटा कर, अपने सभी राजनीतिक आग्रह मिटा कर, एक जुट होकर इंदिरा गांधी का मुकाबला किया तो कांग्रेस परास्त हो गई थी। यहां तक कि इंदिरा गांधी खुद भी हार गईं। सत्ता पर काबिज होने के बाद वे यदि इंदिरा गांधी का नाम नहीं रटते तो वे कभी दुबारा सत्ता में नहीं आतीं। आज भी ठीक वैसी ही स्थिति है। गैर भाजपाई मोदी का जितना विरोध कर रहे हैं, उतना ही वे मजबूत होते जा  रहे हैं। हालांकि चुनाव परिणाम किसके पक्ष में जाएगा, इस बारे में 16 मई से पहले भविष्यवाणी करना ठीक नहीं, मगर मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि मोदी ही अगले प्रधानमंत्री होंगे। यदि भाजपा अकेले दम पर अच्छी खासी सीटें नहीं ला पाई तो संभव है मोदी की जगह किसी और भाजपा नेता की किस्मत चेत जाए।
चुनाव के आखिरी दिनों में कांग्रेस ने अपनी स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी को उतार कर कुछ हद तक अपने आपको संभाला है, मगर अब देर हो चुकी है। हार सामने देख कर कांग्रेसी नेता यह कहने को मजबूर हैं कि मोदी को रोकने के लिए वह गैर भाजपाई दलों के तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाने की कोशिश करेगी। हालांकि इस सिलसिले में राहुल गांधी का बयान फिलवक्त काफी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस गठबंधन नहीं करेगी और हारने पर विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, मगर समझा जाता है कि यह बयान चुनाव के वक्त कांग्रेसियों का इकबाल बुलंद रखने मात्र के लिए दिया गया है। चुनाव के बाद इस बयान के कोई मायने नहीं रह जाएंगे और उस वक्त कांग्रेस वह सब कुछ करेगी, जिसकी मांग राजनीति करेगी। उसकी यह कोशिश कामयाब होगी या नहीं, इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा सकता।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, अप्रैल 21, 2014

मोदी को कट्टर ही बनाए रखना चाहते हैं मदनी

जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना मदनी के इस कथन ने एक नई बहस को जन्म दिया है कि मैं तिलक नहीं लगा सकता तो मोदी भी टोपी क्यों पहनें। उनकी बात बहुत ही तार्किक, सीधी-सीधी गले उतरने वाली और वाजिब लगती है। इसी से जुड़ी हुई ये बात भी सटीक महसूस होती है कि जब मुस्लिम इस्लाम के मुताबिक अपनी रवायत पर कायम रखता है और उसे बुरा नहीं माना जाता तो किसी हिंदू के अपने धर्म के मुताबिक चलते हुए मुस्लिम टोपी पहनने को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। कुछ ऐसा ही मसला दोनों धर्मों के धर्म स्थलों को लेकर है। मुस्लिम मंदिर नहीं जाता तो  इसे सहज में लिया जाता है, मगर कोई हिंदू मस्जिद अथवा दरगाह से परहेज रखता है तो उसे कट्टर क्यों माना जाना चाहिए। मगर सच ये है चंद हिंदुओं को छोड़ कर अधिसंख्य हिंदुओं को दरगाह, गिरिजाघर अथवा गुरुद्वारे में माथा टेकने में कोई ऐतराज नहीं होता।
अजमेर के संदर्भ में बात करें तो यह एक सच्चाई है कि देशभर से यहां आने वाले मुस्लिम जायरीन का एक प्रतिशत भी तीर्थराज पुष्कर नहीं जाता। जाता भी है तो महज तफरीह के लिए। दूसरी ओर देशभर से आने वाला अधिसंख्य हिंदू तीर्थयात्री दरगाह जरूर जाता है। अनेक स्थानीय हिंदू भी दरगाह में माथा टेकते देखे जा सकते हैं। तो आखिर इसकी वजह क्या है?
इसी सिलसिले में दरगाह में बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद के उस इकबालिया बयान पर गौर कीजिए कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। वजह साफ है। चाहे हिंदू भी ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। हिंदू संस्कृति स्वभावगत भी उदार प्रकृति की है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवी माता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। रहा सवाल मुस्लिमों का तो वह खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है।
बहरहाल, ताजा मामले में मौलाना मदनी ने नरेन्द्र मोदी को सुझाया है कि वे भी मुस्लिमों की तरह अपने धर्म के प्रति कट्टर बने रहें। उन्हें शायद इसका इल्म नहीं है कि मुसलमान भले ही बुत परस्ती के विरुद्ध होने के कारण तिलक नहीं लगाएगा, मगर सभी धर्मों को साथ ले कर चलने वाला हिंदू खुद के धर्म का पालन करते हुए अन्य धर्मों का भी आदर करता है। कदाचित इसी कारण हिंदूवादी संघ की विचारधारा से पोषित भाजपा के नेता भी दरगाह जियारत कर लेते हैं। पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो धर्मनिरपेक्षता के नाते बाकायदा मुस्लिम टोपी पहन कर दिखाई थी। इसे वोटों के गणित से भी जोड़ कर देखा जा सकता है। अलबत्ता संघ से सीधे जुड़े लोग परहेज करते हैं। मोदी भी उनमें से एक हैं, जिन्होंने एक बार टोपी पहनने से इंकार कर देश में एक बड़ी बहस को जन्म दिया है। स्वाभाविक बात है कि वोटों के ध्रुवीकरण की खातिर उन्होंने ऐसा किया। हालांकि बाद में जब बहुत आलोचना हुई तो यह कह कर आरोप से किनारा किया कि वे सभी धर्मों का सम्मान करते हैं, मगर पालन अपने धर्म का करते हैं, टोपी पहन कर नौटंकी नहीं कर सकते।
और ऐसा भी नहीं है कि पूरा मुसलमान कट्टर है। अजमेर के संदर्भ में बात करें तो पुष्कर की विधायक रहीं श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ तीर्थराज पुष्कर सरोवर को पूजा करती रही हैं, ब्रह्मा मंदिर के दर्शन करती रही हैं। भले ही इसे हिंदू वोटों की चाहत माना जाए, मगर धर्मनिरपेक्ष राजनीति ने मुस्लिम को भी कुछ लचीला तो किया ही है। इसके अतिरिक्त भारत में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान पर हिंदू संस्कृति का असर सूफी मत के रूप में साफ देखा जा सकता है। कट्टर मुस्लिम दरगाह में हाजिरी नहीं देते, जबकि अधिसंख्य मुस्लिम दरगाहों की जियारत करते हैं। इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान तक के कई मुस्लिम दरगाह जियारत करने आते हैं। सवाल ये उठता है कि मोदी के टोपी न पहनने का समर्थन करने वाले मौलाना मदनी मुस्लिमों को दरगाह जाने से रोक सकते हैं?
-तेजवानी गिरधर

रविवार, मार्च 23, 2014

जसवंत सिंह को थूक कर चाटा, फिर थूक दिया

राजनीति वाकई अजीब चीज है। इसमें कुछ भी संभव है। कैसा भी उतार और कैसा भी चढ़ाव। हाल ही बाड़मेर से भाजपा के टिकट से वंचित दिग्गज नेता जसवंत सिंह पर तो यह पूरी तरह से फिट है। ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। ज्ञातव्य है कि खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने जब जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगाया तो उसकी इस राजनीति मजबूरी को थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी।
असल में लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपनी हिंदूवादी पहचान को बरकरार रखने की खातिर अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने के लिए पार्टी को एक ऐसा कदम उठाना पड़ा, जिसे थूक कर चाटना ही नहीं अपितु निगलने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तब पार्टी को तकलीफ तो बहुत थी, लेकिन कोई चारा ही नहीं था। एक वजह ये भी थी कि दूसरी पंक्ति के नेता पुरानी पीढ़ी को धकेलने को आतुर थे ताकि उनकी जगह आरक्षित हो जाए। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा और उन्हें उपराष्ट्रपति पद तक का उम्मीदवार तक बनाना पड़ा। ज्ञातव्य है कि मतों की संख्या लिहाज से भाजपा नीत एनडीए कांग्रेस को वाक ओवर न देने के नाम पर उपराष्ट्रपति पद का चुनाव भी हारने के लिए ही लड़ी। तब सवाल ये उठा था कि आखिर क्या वजह रही कि खुद जसवंत सिंह शहीद होने को तैयार गए? सवाल यह भी कि जिन जसवंत सिंह को वोटों की राजनीति के चलते मजबूरी में निगलने की जलालत झेलनी पड़ी, उन्हें शहीद करवा कर राजनीति की मुख्य धारा से दूर करने का निर्णय क्यों करना पड़ा?
जहां तक भाजपा की थूक कर निगलने की प्रवृति का सवाल है, यह अकेला उदाहरण नहीं।
ताजा उदाहरण कर्नाटक के विवादित हिंदूवादी नेता प्रमोद मुतालिक का है, जिन्हें  पार्टी में शामिल करने के चंद घंटे बाद ही निकालना पड़ गया।  मोदी के 272 के आंकड़े की झोंक में मुतालिक को पार्टी तो ज्वाइन करवा दी गई, मगर जबरदस्त छीछालेदर हुई तो निगले को उगलना पड़ा। और केंद्रीय नेतृत्व को चेहरा बचाने के लिए यह मासूम बहाना बनाना पड़ा कि राज्य बीजेपी ने बिना उसे बताए यह फैसला ले लिया था।
थूक कर चाटने की आदत में वसुंधरा का मामला भी शामिल है। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के बाद भारी दबाव के चलते पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को फिर से विपक्ष का नेता बनाना पड़ा था। वरिष्ठ वकील व भाजपा सांसद राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही रहा। इसी प्रकार पार्टी के शीर्ष नेता आडवाणी को पितातुल्य बता चुकी मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को उनके बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करने और बाद में पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज कर फिर पार्टी में लेने और उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना भी थूक कर चाटना माना गया था।
बहरहाल, अब यह पहला मौका है, जबकि टिकट न दे कर जसवंत को फिर थूकने जैसा कदम उठाया गया है। समझा जा सकता है कि यह संघ के इशारे पर हुआ है, जिसके दबाव में उन्हें पूर्व में पार्टी से बाहर किया गया था।
-तेजवानी गिरधर
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