तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, दिसंबर 27, 2011

वसुंधरा पर एकमत नहीं भाजपाई

प्रदेश में कांग्रेस सरकार की विफलता की दुहाई दे कर आने वाले चुनाव में सत्ता पर काबिज होने को आतुर भाजपा नेतृतव को लेकर अभी असमंजस में ही प्रतीत होती है। एक ओर जहां भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी बिलकुल खुले शब्दों में कह रहे हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगए, वहीं दूसरी ओर संघ लॉबी से जुड़े पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया इस बात को पूरी तरह से नकार रहे हैं। हाल ही उन्होंने एक सार्वजनिक बयान में कह दिया कि पार्टी ने अब तक यह तय नहीं किया है कि अगर भाजपा सत्ता में आई तो कौन मुख्यमंत्री होगा। उनका कहना था कि भाजपा विधायक दल ही तय करेगा कि किसे नेता के रूप में चुना जाए। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि भले ही गडकरी व आडवाणी किसी राष्ट्रीय समीकरण के तहत वसुंधरा के पक्ष में हैं, मगर राज्य स्तर पर अब भी वसुंधरा के प्रति एकराय नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि गडकरी व आडवाणी को भलीभांति पता है कि वसुंधरा को लेकर राज्य में पार्टी के नेता एकमत नहीं हैं, बावजूद इसके उन्होंने जानबूझकर वसुंधरा पर हाथ रख दिया, ताकि यह पता लग सके कि उनका विरोध कितना है? अव्वल तो उनके बयान का कोई खुले तौर पर विरोध करने की हिमाकत नहीं करेगा और यदि बवाल होता भी है तो वे यह कह कर पैंतरा बदलने की कोशिश करेंगे कि उनकी नजर में वसुंधरा की लोकप्रियता काफी है, इस कारण उन्होंने उनके बारे में निजी राय दी थी, वैसे पार्टी मंच पर ही तय होगा कि विधायक दल का नेता कौन होगा?
सच्चाई ये है कि भाजपा की भले ही पार्टी स्तर पर वसुंधरा को ही स्वीकार करने की कोई मजबूरी हो, मगर पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को वसुंधरा फूटी आंख नहीं सुहा रही। चूंकि संघ खुले में कोई बयान जारी नहीं करता, इस कारण उसने अपने एक सिपहसालार पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया के मुंह से यह कहलवा दिया ताकि यदि गडकरी या आडवाणी को कोई गलतफहमी हो तो वह दूर हो जाए। हालांकि इतना तय है कि दोनों नेताओं को कोई गलतफहमी नहीं होगी, और यह भी तय है कि संघ भी जानता है कि दोनों नेताओं ने गलतफहमी में ऐसा नहीं कहा है, जानबूझकर कहा है, मगर कटारिया के जरिए यह इशारा करवा दिया है कि वसुंधरा के बारे में इस प्रकार के बयान देने से गड़बड़ होगी।
असल में पिछले दिनों जब आडवाणी अजमेर में आम सभा में खुल कर बोल गए तो वसुंधरा विरोधी खेमे को बड़ी भारी तकलीफ हुई, मगर पार्टी अनुशासन के कारण कोई कुछ नहीं बोला। जब बात कुछ ठंडी पड़ी तो कटारिया ने बयान जारी कर वसुंधरा खेमे में खलबली मचा दी है। ऐसा नहीं कि वसुंधरा को इसका अनुमान नहीं कि एक खेमा उन पर सहमत नहीं है। वे जानती हैं। मगर साथ वे इस बात से भी आश्वस्त हैं कि उनके मुकाबले का दूसरा कोई नेता सामने आने वाला नहीं है। वस्तुत: पार्टी में है भी नहीं। पार्टी को उनका चेहरा सामने रख कर ही चुनाव लडऩा होगा। उधर संघ भी जनता है कि चेहरा तो वसुंधरा का ही होगा, मगर उन्हें पूरी स्वच्छंदता नहीं दी जा सकती। इसी कारण कटारिया के जरिये इशारा कर दिया ताकि वे दबाव में रहें और टिकट वितरण के समय संघ को उसका जायज कोटा देने पर आनाकानी न करें। साथ ही मुख्यमंत्री बनने पर संघ खेमे के विधायकों के साथ भेदभाव न बरतें। इसके पीछे सोच यही है कि वसुंधरा भले ही कितनी भी लोकप्रिय क्यों न हों, धरातल पर संघनिष्ठ कार्यकर्ताओं की मेहनत से ही पार्टी को वोट मिलते हैं। इसी के बिना पर अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता।
वैसे एक बात है, ताजा घटनाक्रम के चलते विशेष रूप से विधानसभा टिकट के वसुंधरा खेमे के दावेदारों का मनोबल ऊंचा हुआ है। उधर चतुर्वेदी खेमे के दावेदारों को लग रहा है कि चतुर्वेदी के साथ-साथ वसुंधरा का देवरा भी ढोकना पड़ेगा। खुद चतुर्वेदी लॉबी के नेता भी दावेदारों से कहने लगे हैं कि वसुंधरा से भी थोड़ा लाइजनिंग बना कर चलो।
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शुक्रवार, दिसंबर 16, 2011

अभिव्यक्ति के नाम पर भड़ास की छूट दे दी जाए?


इन दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर लगाम कसे जाने की खबर पर हंगामा मचा हुआ है। खासकर बुद्धिजीवियों में अंतहीन बहस छिड़ी हुई है। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की दुहाई देते हुए जहां कई लोग इसे संविधान की मूल भावना के विपरीत और तानाशाही की संज्ञा दे रहे हैं, वहीं कुछ लोग अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने चाहे जिस का चरित्र हनन करने और अश्लीलता की हदें पार किए जाने पर नियंत्रण पर जोर दे रहे हैं।
यह सर्वविदित ही है कि इन दिनों हमारे देश में इंटरनेट व सोशल नेटवर्किंग साइट्स का चलन बढ़ रहा है। आम तौर पर प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर जो सामग्री प्रतिबंधित है अथवा शिष्टाचार के नाते नहीं दिखाई जाती, वह इन साइट्स पर धड़ल्ले से उजागर हो रही है। किसी भी प्रकार का नियंत्रण न होने के कारण जायज-नाजायज आईडी के जरिए जिसके मन जो कुछ आता है, वह इन साइट्स पर जारी कर अपनी कुंठा शांत कर रहा है। अश्लील चित्र और वीडियो तो चलन में हैं ही, धार्मिक उन्माद फैलाने वाली सामग्री भी पसरती जा रही है। राजनीति और नेताओं के प्रति उपजती नफरत के चलते सोनिया गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सहित अनेक नेताओं के बारे में शिष्टाचार की सारी सीमाएं पार करने वाली टिप्पणियां और चित्र भी धड़ल्ले से डाले जा रहे हैं। प्रतिस्पद्र्धात्मक छींटाकशी का शौक इस कदर बढ़ गया है कि कुछ लोग अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के बारे में भी टिप्पणियां करने से नहीं चूक रहे। ऐसे में केन्द्रीय दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने जैसे ही यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रहा है तो बवाल हो गया। इसे तुरंत इसी अर्थ में लिया गया कि वे सोनिया व मनमोहन सिंह के बारे में आपत्तिजनक सामग्री हटाने के मकसद से ऐसा कर रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने तो बाकायदा न्यूज फ्लैश में इसे ही हाइलाइट करना शुरू कर दिया, हालांकि दो मिनट बाद ही उसने संशोधन किया कि सिब्बल ने दोनों का नाम लेकर आपत्तिजनक सामग्री हटाने की बात नहीं कही है।
बहरहाल, सिब्बल के इस कदम की देशभर में आलोचना शुरू हो गई। बुद्धिजीवी इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश के रूप में परिभाषित करने लगे, वहीं मौके का फायदा उठा कर विपक्ष ने इसे आपातकाल का आगाज बताना शुरू कर दिया। हालांकि सिब्बल ने स्पष्ट किया कि सरकार का मीडिया पर सेंसर लगाने का कोई इरादा नहीं है। सरकार ने ऐसी वेबसाइट्स से संबंधित सभी पक्षों से बातचीत की है और उनसे इस तरह की सामग्री पर काबू पाने के लिए अपने पर खुद निगरानी रखने का अनुरोध किया, लेकिन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स के संचालकों ने इस बारे में कोई ठोस जवाब नहीं दिया। उनका तर्क ये था कि साइट्स के यूजर्स के इतने अधिक हैं कि ऐसी सामग्री को हटाना बेहद मुश्किल काम है। अलबत्ता ये आश्वासन जरूर दिया कि जानकारी में आते ही आपत्तिजनक सामग्री को हटा दिया जाएगा।
जहां तक अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल है, मोटे तौर पर यह सही है कि ऐसे नियंत्रण से लोकतंत्र प्रभावित होगा। इसकी आड़ में सरकार अपने खिलाफ चला जा रहे अभियान को कुचलने की कोशिश कर सकती है, जो कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए घातक होगा। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या अभिव्यक्ति की आजादी के मायने यह हैं कि फेसबुक, ट्विटर, गूगल, याहू और यू-ट्यूब जैसी वेबसाइट्स पर लोगों की धार्मिक भावनाओं, विचारों और व्यक्तिगत भावना से खेलने तथा अश्लील तस्वीरें पोस्ट करने की छूट दे दी जाए? व्यक्ति विशेष के प्रति अमर्यादित टिप्पणियां और अश्लील फोटो जारी करने दिए जाएं? किसी के खिलाफ भड़ास निकालने की खुली आजादी दे दी जाए? सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इन दिनों जो कुछ हो रहा है, क्या उसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर स्वीकार कर लिया जाये?
चूंकि ऐसी स्वच्छंदता पर काबू पाने का काम सरकार के ही जिम्मे है, इस कारण जैसे ही नियंत्रण की बात आई, उसने राजनीतिक लबादा ओढ लिया। राजनीतिक दृष्टिकोण से हट कर भी बात करें तो यह सवाल तो उठता ही है कि क्या हमारा सामाजिक परिवेश और संस्कृति ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर आ रही अपसंस्कृति को स्वीकार करने को राजी है? माना कि इंटरनेट के जरिए सोशल नेटवर्किंग के फैलते जाल में दुनिया सिमटती जा रही है और इसके अनेक फायदे भी हैं, मगर यह भी कम सच नहीं है कि इसका नशा बच्चे, बूढ़े और खासकर युवाओं के ऊपर इस कदर चढ़ चुका है कि वह मर्यादाओं की सीमाएं लांघने लगा है। अश्लीलता व अपराध का बढ़ता मायाजाल अपसंस्कृति को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। जवान तो क्या, बूढ़े भी पोर्न मसाले के दीवाने होने लगे हैं। इतना ही नहीं फर्जी आर्थिक आकर्षण के जरिए धोखाधड़ी का गोरखधंधा भी खूब फल-फूल रहा है। साइबर क्राइम होने की खबरें हम आए दिन देख-सुन रहे हैं। जिन देशों के लोग इंटरनेट का उपयोग अरसे से कर रहे हैं, वे तो अलबत्ता सावधान हैं, मगर हम भारतीय मानसिक रूप से इतने सशक्त नहीं हैं। ऐसे में हमें सतर्क रहना होगा। सोशल नेटवर्किंग की  सकारात्मकता के बीच ज्यादा प्रतिशत में बढ़ रही नकारात्मकता से कैसे निपटा जाए, इस पर गौर करना होगा।
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गुरुवार, दिसंबर 08, 2011

खुद के गिरेबां में भी झांके टीम अन्ना

इसमें कोई दोराय नहीं है कि आर्थिक आपाधापी और भ्रष्ट राजनीति के कारण भ्रष्टाचार के तांडव से त्रस्त देशवासियों की टीम अन्ना के प्रति अगाध आस्था और विश्वास उत्पन्न हुआ है और आम आदमी को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं, मगर टीम के कुछ सदस्यों को लेकर उठे विवादों से तनिक चिंता की लकीरें भी खिंच गई हैं। हालांकि कहने को यह बेहद आसान है कि सरकार जवाबी हमले के बतौर टीम अन्ना को बदनाम करने के लिए विवाद उत्पन्न कर रही है, और यह बात आसानी से गले उतर भी रही है, मगर मात्र इतना कह कर टीम अन्ना के लिए बेपरवाह होना नुकसानदेह भी हो सकता है। इसमें महत्वपूर्ण ये नहीं है कि किन्हीं विवादों के कारण टीम अन्ना के सदस्य बदनाम हो रहे हैं, बल्कि ये महत्वपूर्ण है कि विवादों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन प्रभावित हो सकता है। आंदोलन के नेता भले ही अन्ना हजारे हों, मगर यह आंदोलन अन्ना का नहीं, बल्कि जनता का है। यह वो जनता है, जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्सा है और उसे अन्ना जैसा नेता मिल गया है, इस कारण वह उसके साथ जुड़ गई है।
वस्तुत: जब से टीम अन्ना का आंदोलन तेज हुआ है, उसके अनेक सदस्यों को विवादों में उलझाने की कोशिशें हुई हैं। पुराने मामलों को खोद-खोद कर बाहर निकाला जा रहा है। साफ तौर पर यह बदले की भावना से की गई कार्यवाही प्रतीत होती है। लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि टीम अन्ना पर लगे आरोप पूरी तरह से निराधार हैं। जरूर कुछ न कुछ तो बात है ही। अरविंद केजरीवाल के मामले को ही लीजिए। यह सवाल जरूर वाजिब है कि उन पर बकाया की याद कई साल बाद और आंदोलन के वक्त की कैसे आई, मगर यह भी सही है कि केजरीवाल कहीं न कहीं गलत तो थे ही। और यही वजह है कि उन्होंने चाहे अपने मित्रों से ही सही, मगर बकाया चुकाया ही है। इसी प्रकार किरण बेदी पर हो आरोप लगा, वह भी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी का प्रतिफल है, मगर उससे भी कहीं न कहीं ये बात तो उठी ही है कि किरण बेदी ने कुछ तो चूक की ही है, वरना उन्हें राशि लौटने की बात क्यों कहनी पड़ती। प्रशांत भूषण का विवाद तो साफ तौर पर आ बैल मुझे मार वाली कहावत चरितार्थ करता है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपना विचार रखने की आजादी है, मगर एक ओर जब पूरा देश टीम अन्ना को आदर्श मान कर आंदोलनरत थी, तब प्रशांत भूषण का कश्मीर के बारे में निजी विचार जाहिर करना बेमानी था ही, टीम अन्ना को मुश्किल में डालने वाला था। जाहिर तौर पर आज यदि प्रशांत भूषण को पूरा देश जान रहा है तो उसकी वजह है टीम अन्ना का आंदोलन, ऐसे में टीम अन्ना के प्रमुख प्रतिनिधि का निजी विचार अनावश्यक रूप से पूरी टीम के लिए दिक्कत का कारण बन गया। उससे भी बड़ी बात ये है कि यदि किसी एक सदस्य के कारण आंदोलन पर थोड़ा भी असर पड़ता है, तो यह ठीक नहीं है। अत: बेहतर ये ही होगा भी वे पूरा ध्यान आंदोलन पर ही केन्द्रित करें, उसे भटकाने वालों को कोई मौका न दें।
वस्तुत: टीम अन्ना के सदस्यों को यह सोचना होगा कि आज वे पूरे देश के एक आइडल के रूप में देखे जा रहे हैं, उनका व्यक्तित्व सार्वजनिक है, तो उन्हें अपनी निजी जीवन को भी पूरी तरह से साफ-सुथरा रखना होगा। लोग उनकी बारीक से बारीक बात पर भी नजर रख रहे हैं, अत: उन्हें अपने आचरण में पूरी सावधानी बरतनी होगी। जब उनका एक नार पूरे देश को आंदोलित कर देता है तो उनकी निजी बात भी चर्चा की विषय हो जाती है। टीम के मुखिया अन्ना हजारे को ही लीजिए। हालांकि वे मूल रूप से अभी जनलोकपाल बिल के लिए आंदोलन कर रहे हैं, मगर उनके प्रति विश्वास इतना अधिक है कि देश के हर ज्वलंत मुद्दे पर उनकी राय जानने को पूरा देश आतुर रहता है। तभी तो जैसे ही केन्द्रीय मंत्री शरद पवार को एक युवक ने थप्पड़ मारा तो रालेगणसिद्धी में मौजूद मीडिया ने उनकी प्रतिक्रिया भी जानने की कोशिश की। बेहतर तो ये होता कि वे इस पर टिप्पणी ही नहीं करते और टिप्पणी करना जरूरी ही लग रहा था तो इस घटना का निंदा भर कर देते, मगर अति उत्साह और कदाचित सरकार के प्रति नाराजगी के भाव के कारण उनके मुंह से यकायक ये निकल गया कि बस एक ही थप्पड़। हालांकि तुरंत बाद उन्होंने बयान को सुधारा, मगर चंद दिन बाद ही फिर पलटे और उसे जायज ठहराने की कोशिश करते हुए नए गांधीवाद की रचना करने लगे। उन्हें ख्याल में रखना चाहिए कि आज यदि वे पूज्य हो गए हैं तो उसकी वजह ये है कि उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। विचारणीय है कि आज जब अन्ना हजारे एक आदर्श पुरुष और प्रकाश पुंज की तरह से देखे जा रहे हैं तो उनकी हर छोटी से छोटी बात को आम आदमी बड़े गौर से सुनता है। ऐसे में उनका एक-एक वाक्य सधा हुआ होना ही चाहिए। देखिए न, चंद लफ्जों ने कैसे अन्ना को परेशानी में डाल दिया। अव्वल तो उन्हें पहले केवल लोकपाल बिल पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। यदि सभी राष्ट्रीय मुद्दों और घटनाओं पर भी अपनी राय थोपने का ठेका लेंगे तो आंदोलन गलत दिशा में भटक सकता है।
बहरहाल, इन सारी बातों के बाद भी जहां तक आंदोलन का सवाल है, वह जिस पवित्र उद्देश्य को लेकर हो रहा है, उसके प्रति जनता पूरी तरह से समर्पित है, मगर टीम अन्ना को अपने व्यक्तिगत आचरण पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। इससे विरोधियों को अनावश्यक रूप से हमले करने का मौका मिलता है। आज पूरा देश यही चाहता है कि आंदोलन कामयाब हो, मगर छोटी-छोटी बातों से अगर आंदोलन प्रभावित होता है तो यह जनता के साथ अन्याय ही कहलाएगा, जिसके सामने एक लंबे अरसे बाद आशा की किरण चमक रही है।
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सोमवार, दिसंबर 05, 2011

केन्द्र को हिला कर रख दिया मायावती ने

हाल ही उत्तरप्रदेश विधानसभा में मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की बसपा सरकार ने राज्य को चार राज्यों में बांटने का प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार को हिला कर रख दिया है। हालांकि छोटे राज्यों का मुद्दा पहले भी गरमाता रहा है और उसकी वजह से कुछ राज्यों के टुकड़े भी किए गए हैं, मगर मायावती ने एक राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव पारित करवा एक नया संकट पैदा कर दिया है।
सर्वविदित ही है कि देश में पहले से कुछ राज्यों में विभाजन को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। वहा उग्र और भारी उठापटक वाला आंदोलन चल रहा है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। ऐसे में जाहिर है कि मायावती के इस नए पैंतरे से अन्य प्रांतों में भी यह आग भड़क सकती है। हालांकि जैसे ही प्रस्ताव पारित हुआ तो देशभर के बुद्धिजीवी इसी बहस में उलझ गए कि राज्यों के पुनर्गठन व छोटे राज्यों के क्या लाभ-हानि होते हैं, मगर धरातल की सच्चाई ये है कि मायावती यह प्रस्ताव पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है।
जहां तक इस मुद्दे के सैद्धांतिक पक्ष की बात है, पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने-अपने तर्क हैं, जो अपनी-अपनी जगह सही ही प्रतीत होते हैं।  छोटे राज्यों की पैरवी करने वाले यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य में कानून-व्यवस्था को संभालना बेहद कठिन होता है और सरकारों का ज्यादा समय कानून-व्यवस्था की समस्याओं से जूझने में ही खर्च होता है। और इसकी वजह से सरकारें विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पातीं। उनका तर्क है कि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है, क्योंकि वहां सामान्य कामकाज की समस्याएं कम होती हैं, सभी जिलों पर पकड़ अच्छी होती है, इस कारण विकास पर ज्यादा ध्यान दिया जा सकता है। दूसरी ओर छोटे राज्यों के खिलाफ राय रखने वालों की मान्यता है कि छोटे राज्यों के सामने सदैव संसाधनों के अभाव की समस्या रहती है। ऐसे में वे या तो अपने निकटवर्ती राज्य से प्रभावित रहते हैं या केन्द्र सरकार के रहमो-करम पर निर्भर। केन्द्र पर निर्भरता के चलते उसकी अपनी स्वायत्तता प्रभावित होती है। ये तो हुई तर्क-वितर्क की बात, मगर धरातल पर जा कर देखें तो निर्णय करने में भारी असमंजस उत्पन्न होता है। यह सर्वविदित ही है कि छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम राजनीतिक अस्थिरता से गुजरते रहते हैं और वे विकास के मामले में पिछड़ते जा रहे हैं। बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की बात करें तो वहां की हालत काफी खराब है। विकास करना तो दूर हर वक्त राजनीतिक अस्थिरता बनी रहती है। इसके ठीक विपरीत मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्यकुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें। उधर गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के ऐसे आयाम छू रहा है, जिसकी देश ही नहीं बल्कि विश्व में भी तारीफ हो रही है। वह एक आदर्श विकास मॉडल के रूप में उभर आया है। 
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर सही क्या है? छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि भौगोलिक स्थिति, संसाधनों और जनभावना को ध्यान में रख कर ही निर्णय किया जाना चाहिए। लेरिक सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। इस मुद्दे को लेकर लगातार राजनीति होती है। राजनीतिक दल अपने-अपने हित के हिसाब से पैंतरे चलते हैं। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने ध्यान तो जनता की मांग का रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनकी पार्टी की सरकार बने। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक है। कांग्रेस व भाजपा सहित अन्य दल जानते हैं कि मायावती के इस पैंतरे से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। वे समझ रहे हैं कि चार राज्य तो होंगे जब होंगे, मगर चंद माह बाद ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मायावती इसका सीधा-सीधा फायदा उठा सकती हैं। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। हालांकि वे भी छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, मगर मायावती की चाल के आगे निरुतर हो गए हैं। उनके पास ऐतराज करने को सिर्फ ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
इससे भी अहम पहलु ये है कि भले ही राज्यों का पुनर्गठन करना केन्द्र सरकार के हाथ में है, मगर देश की एकता व अखंडता की जिम्मेदारी के नाते मायावती ने उसके सामने एक संकट तो खड़ा कर ही दिया है। पहले से ही अनेक भागों में पनप रहे अलगाववाद को इससे बल मिलने की आशंका है। देखते हैं कि अब केन्द्र इस मामले में क्या रुख अख्तियार करता है।
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गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

राजनीति ज्यादा हो रही है छोटे राज्यों के मुद्दे पर

उत्तरप्रदेश विधानसभा में हाल ही मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की पहल पर बहुजन समाज पार्टी की सरकार द्वारा पारित राज्य को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव पारित किए जाने का मुद्दा इन दिनों गर्माया हुआ है। हालांकि प्रत्यक्षत: तो यही लग रहा है कि राज्यों के पुनर्गठन और छोटे राज्यों के लाभ-हानि को लेकर बहस हो रही है, मगर वस्तुत: इसके पीछे राजनीति कहीं ज्यादा नजर आती है।
छोटे राज्यों के पक्षधर यह तर्क दे रहे हैं कि बड़े राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था संभालना कठिन काम है और सरकार का अधिकतर समय उस व्यवस्था को कायम रखने में खर्च होता है, इससे विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा सकता। जबकि छोटे राज्य में विकास करना आसान होता है। दूसरी ओर इसके विपरीत राय रखने वालों का कहना है कि छोटे राज्य के सामने संसाधनों का अभाव होने की आशंका रहती है, इस कारण केन्द्र अथवा अन्य राज्य के प्रति उसकी निर्भरता बढ़ जाती है। दोनों पक्षों के तर्क अपने-अपने हिसाब से ठीक ही प्रतीत होते हैं। मगर धरातल की तस्वीर कुछ और ही है। अलग-अलग मामलों में अलग-अलग तर्क सही बैठ रहे हैं।
बानगी देखिए। एक ओर मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम जैसे छोटे-छोटे राज्य विकास के मामले में पिछड़ रहे हैं, जबकि गुजरात जैसा बड़ा राज्य प्रगति के नए आयाम छू रहा है। इसी प्रकार बिहार को काट कर बनाए गए झारखंड की हालत खराब है और वहां राजनीतिक अस्थिरता साफ देखी जा सकती है। विकास तो दूर की बात है। उधर मध्यप्रदेश को काट कर बनाए गए छत्तीसगढ़ में पर्याप्त प्रगति हुई है। हालांकि इसके पीछे वहां की सरकार की कार्य कुशलता की दुहाई दी जाती है। बड़े राज्यों में विकास कठिन है, इस तर्क का समर्थन करने वाले उत्तरप्रदेश और जम्मू-कश्मीर का उदाहरण देते हैं। जम्मू-कश्मीर में अकेले कश्मीर घाटी में व्याप्त आतंकवाद की वजह से पूरे राज्य का विकास ठप पड़ा है। इसी वजह से कुछ लोग सुझाव देते हैं कि राज्य को जम्मू, कश्मीर और लद्दाख में बांट दिया जाए, ताकि कम से कम जम्मू व लद्दाख तो प्रगति करें।
कुल मिला कर सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर छोटे राज्य का आकार तय करने का फार्मूला क्या हो? और उसका उत्तर ये ही है कि दोनों की पक्षों की बातों में सामंजस्य बैठा कर धरातल के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया जाए। बीच का रास्ता निकाला जाए। मगर वस्तुत: ऐसा हो नहीं पा रहा। पुनर्गठन को लेकर होती सियासत के कारण टकराव की नौबत तक आ गई है। महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच बेलगांव को लेकर चल रही खींचतान के कारण अनेक जानें जा चुकी हैं। आन्ध्रप्रदेश से तेलंगाना अलग करने को लेकर लंबे अरसे से टकराव जारी है। अर्थात पुनर्गठन की सारी खींचतान सियासी ज्यादा है। उत्तप्रदेश की बात करें तो हालांकि मोटे तौर पर मायावती ने जनता की मांग का ध्यान रखा है, मगर उसमें भी इस बात का ध्यान ज्यादा रखा है कि उनकी पार्टी को ज्यादा से ज्यादा लाभ हो। अर्थात चार राज्य होने पर चारों में ही उनका वर्चस्व हो। और इसी चक्कर में कुछ जिलों के बारे में किया गया निर्णय साफ तौर पर अव्यावहारिक  हो गया है। अन्य राजनीतिक दलों की परेशानी ये है कि ताजा निर्णय से बसपा को ही ज्यादा फायदा होने वाला है। एक तो जल्द ही होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा जनहित का ध्यान रखे जाने के निर्णय के कारण ज्यादा वोट बटोर सकती है और दूसरा ये कि यदि मायावती के मुताबिक बंटवारा होता है तो उनमें भी बसपा ही ज्यादा फायदे में रहने वाली है। इस कारण वे जम कर विरोध कर रहे हैं। वे छोटे राज्यों के पक्षधर तो हैं, लेकिन उनक ऐतराज ये है कि अगर मायावती को यह निर्णय करना ही था तो साढ़े चार साल तक क्या करती रहीं, ऐन चुनाव के वक्त ही क्यों निर्णय किया? अर्थात वे केवल राजनीतिक लाभ की खातिर ऐसा कर रही हैं। उनका दूसरा तर्क ये है कि जिस तरह से प्रस्ताव पारित किया गया, वह अलोकतांत्रिक है क्योंकि इस पर न तो जनता के बीच सर्वे कराया गया और न ही अन्य दलों से राय ली गई। बसपा ने एकतरफा निर्णय कर बिना बहस कराए ही प्रस्ताव पारित कर दिया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच तर्क भले ही कुछ भी दिए जाएं, मगर यह बिलकुल साफ है कि राज्यों के पुनर्गठन के मामले में सियासत ज्यादा हावी है और इसी कारण विकास के मौलिक सिद्धांत के नजरअंदाज होने की आशंका अधिक है।
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शनिवार, नवंबर 26, 2011

संघ अभी राजी नहीं है वसुंधरा राजे पर

भले ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने साफ कर दिया हो कि आगामी राजस्थान विधानसभा चुनाव वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा, मगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक बड़ा वर्ग आज भी उनके पक्ष में नहीं है। जैसा कि संघ का मिजाज है, वह खुले में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता, मगर भीतर ही भीतर पर इस बात पर मंथन चल रहा है कि वसुंधरा को किस प्रकार कमजोर किया जाए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि राजस्थान में भाजपा के पास वसुंधरा राजे के मुकाबले का कोई दूसरा आकर्षक व्यक्तित्व नहीं है। अधिसंख्य विधायक व कार्यकर्ता भी उनसे प्रभावित हैं। उनमें जैसी चुम्बकीय शक्ति और ऊर्जा है, वैसी किसी और में नहीं दिखाई देती। उनके जितना साधन संपन्न भी कोई नहीं है। उनकी संपन्नता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भाजपा हाईकमान उनके विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नहीं रहने पर अड़ गया था, तब उन्होंने एकबारगी तो नई पार्टी के गठन पर विचार ही शुरू कर दिया था। राजनीति के जानकार समझ सकते हैं कि नई पार्टी का गठन कितना धन साध्य और श्रम साध्य है। असल में वे उस विजया राजे सिंधिया की बेटी हैं, जो कभी भाजपा की सबसे बड़ी फाइनेंसर हुआ करती थीं। मुख्यमंत्री रहने के दौरान भी उन्होंने पार्टी को जो आर्थिक मदद की, उसका कोई हिसाब नहीं। जाहिर तौर पर ऐसे में जब उन पर ही अंगुली उठाई गई तो बिफर गईं। उन्होंने अपने और अपने परिवार के योगदान को बाकायदा गिनाया भी। वस्तुत: साधन संपन्नता और शाही ठाठ की दृष्टि से वसुंधरा के लिए मुख्यमंत्री का पद कुछ खास नहीं है। उन्हें रुचि है तो सिर्फ पद की गरिमा में, उसके साथ जुड़े सत्ता सुख में। बहरहाल, कुल मिला कर उनके मुकाबले का कोई नेता भाजपा में नहीं है। यह सही है कि भाजपा केडर बेस पार्टी है और उसका अपना नेटवर्क है। कोई भी व्यक्ति पार्टी से बड़ा नहीं माना जाता। कोई भी नेता पार्टी से अलग हट कर कुछ भी नहीं है, मगर वसुंधरा के साथ ऐसा नहीं है। उनका अपना व्यक्तित्व और कद है। और यही वजह है कि सिर्फ उनके चेहरे को आगे रख कर ही पार्टी चुनावी वैतरणी पार सकती है।
ऐसा नहीं है कि संघ इस बात को नहीं समझता। वह भलीभांति जानता है। मगर उसे उनके तौर तरीकों पर ऐतराज है। संघ का मानना है कि राजस्थान में आज जो पार्टी की संस्कृति है, वह वसुंधरा की ही देन है। इससे पहले पार्टी साफ-सुथरी हुआ करती थी। अब पार्टी में पहले जैसे अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव है। निचले स्तर पर भले ही कार्यकर्ता आज भी समर्पित हैं, मगर मध्यम स्तर की नेतागिरी में कांग्रेसियों जैसे अवगुण आ गए हैं। और उसकी एक मात्र वजह है कि राजनीति अब बहुत खर्चीला काम हो गया है। बिना पैसे के कुछ भी नहीं होता। और पैसे के लिए जाहिर तौर पर वह सब कुछ करना होता है, जिससे अलग रह कर पार्टी अपने आप को पार्टी विथ द डिफ्रेंस कहाती रही है। मगर सत्ता के साथ जुड़े अवगुण भी नेताओं में आ गए। संघ भी इस बात को अब समझने को मजबूर है, मगर उसे ज्यादा तकलीफ इस बात से है कि वसुंधरा उसके सामने उतनी नतमस्तक नहीं होतीं, जितना अब तक भाजपा नेता होते रहे हैं। यह सर्वविदित है कि संघ के नेता लोकप्रियता और सत्ता सुख के चक्कर में नहीं पड़ते, सादा जीवन उच्च विचार में जीते हैं, मगर चाबी तो अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं। और उसकी एक मात्र वजह ये है कि संघ भाजपा का मातृ संगठन है। भाजपा की अंदरूनी ताकत तो संघ ही है। वह अपनी अहमियत किसी भी सूरत में खत्म नहीं होने देना चाहता। उधर वसुंधरा की जो कार्य शैली है, वह संघ के तौर-तरीकों से मेल नहीं खाती। पिछले मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान प्रदेश भाजपा अध्यक्षों को जिस प्रकार उन्होंने दबा कर रखा, उसे संघ कभी नहीं भूल सकता। चह चाहता है कि पार्टी संगठन पर संघ की ही पकड़ रहनी चाहिए। इसी वजह से वसुंधरा पर नकेल कसने के लिए अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था, मगर वे भी वसुंधरा के आभा मंडल के आगे फीके ही साबित हुए हैं। उनके पास संघ की अंदरूनी ताकत जरूर है, मगर जननेता नहीं बन पाए। न तो वे लोकप्रिय हैं और न ही तेज-तर्रार, जैसी कि वसुंधरा हैं।  बावजूद इसके उन्होंने संघ के दम पर पार्टी पर पकड़ तो बना ही रखी है। इसे उनकी नहीं, अपितु संघ की पकड़ कहा जाए तो बेहतर होगा। आज भी स्थिति ये है कि विधानसभा टिकट के अधिसंख्य दावेदार संघ और वसुंधरा, दोनों को राजी रखने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं। जिन पर वसुंधरा की छाप है, वे गुपचुप संघ की हाजिरी बजाते हैं और जो संघ से जुड़े हैं वे वसुंधरा के यहां भी अपना लिंक बनाए हुए हैं। पता नहीं ऐन वक्त पर कौन ज्यादा ताकतवर हो जाए।
वैसे संघ की वास्तविक मंशा तो वसुंधरा को निपटाने की ही है, या उनसे पार्टी को मुक्त कराने की है, यह बात दीगर है कि अब ऐसा करना संभव नहीं हो पा रहा। ऐसे में संघ की कोशिश यही रहेगी कि आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के दौरान पूरी ताकत लगा कर संतुलन बनाया जाए। अर्थात संघ अपने पसंद के दावेदारों को टिकट दिलवाने की पूरी कोशिश करेगा, ताकि चुनाव के बाद वसुंधरा पार्टी पर हावी न हो जाएं।
राजस्थान में मोटे तौर पर भाजपा की तस्वीर यही है, मगर चूंकि केन्द्रीय स्तर पर भी काफी खींचतान चल रही है और रोज नए समीकरण बनते-बिगड़ते हैं, इस कारण पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि चुनाव के वक्त क्या हालात होंगे। चंद शब्दों में फिलहाल केवल यही कहा जा सकता है, टिकट वितरण में ज्यादा वसुंधरा की ही चलेगी और मुख्यमंत्री पद की दावेदार भी वे ही होंगी, मगर संघ भी अपना वजूद बनाए रखने के लिए पूरी ताकत झौंक देगा, ताकि भाजपा की सरकार बने तो सत्ता में उसकी भी भागीदारी हो।
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रविवार, नवंबर 13, 2011

गहलोत को चुनौती, साबित करके दिखाएं वसुंधरा राज का भ्रष्टाचार

पूर्व उप प्रधानमंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के राजस्थान दौरे के दौरान कांग्रेस और भाजपा के बीच चले आरोप-प्रत्यारोप के बीच मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को यह चुनौती मिल गई है कि वे वसुंधरा राजे सरकार के दौरान हुए जिस भ्रष्टाचार को लेकर वे बार-बार भाजपा पर हमले करते हैं, उन्हें साबित भी करके दिखाएं।
विवाद की नए सिरे से शुरुआत इस वजह से हुई क्योंकि कांग्रेस ने आडवाणी के राजस्थान में प्रवेश के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनकी पूर्ववर्ती सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए भाजपा को घेरने की कोशिश की। कांग्रेस की ओर भ्रष्टाचार से जुड़े दस सवाल दागे, जो पूर्व में भी कई बार दागे जा चुके हैं। अर्थात कांग्रेस ने वे ही बम फिर छोडऩे की कोशिश की, जो कि पहले ही फुस्स साबित हो चुके हैं। वे सवाल खुद की ये सवाल पैदा कर रहे थे कि उनमें से एक में भी कार्यवाही क्यों नहीं हो पाई है, जबकि अब तो सरकार कांग्रेस की है। प्रतिक्रिया में न केवल भाजपा ने पलटवार किया और मौजूदा कांग्रेस सरकार के तीन साल के कामकाज पर सवाल उठा दिए, अपितु पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी दहाड़ीं। उन्होंने गहलोत के गृह नगर में ही उन्हें चुनौती दी कि केवल आरोप क्या लगाते हो, उन्हें साबित भी करके दिखाओ। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि गहलोत ने उन्हें घेरने के लिए माथुर आयोग तक बनाया, कोर्ट में भी गए, मगर आज तक आरोप साबित नहीं कर पाए हैं। पूरी सरकार आपके पास है, सरकारी दस्तावेज आपके पास हैं, भ्रष्टाचार हुआ था तो साबित क्यों नहीं कर पा रहे। जाहिर तौर पर उनकी बात में दम है। हालांकि यह सही है कि गहलोत ने भाजपा के ही नेताओं के बयानों को आधार पर भारी भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे, मगर उनमें से एक को भी साबित नहीं कर पाए हैं। ऐसे में आडवाणी के यात्रा के दौरान उठाए गए सारे सवाल बेमानी हो गए हैं। उलटे भाजपा की ओर से सरकार को जिस प्रकार घेरा गया है, उसका गहलोत से जवाब देते नहीं बन रहा है। सरकार की यह हालत देख कर खुद कांग्रेसी नेताओं को बड़ा अफसोस है कि गहलोत सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह से नकारा साबित हो गई है। उन्हें बड़ी पीड़ा है कि वे वसुंधरा को घेरने की बजाय खुद ही घिरते जा रहे हैं। वसुंधरा के दहाडऩे से उनके सीने पर सांप लौटने लगे हैं। वे सियापा कर रहे हैं कि सरकार ने वसुंधरा के खिलाफ की जांच ठीक से क्यों नहीं करवाई। कांग्रेसी नेताओं का ये भी कहना है कि भले ही तकनीकी पहलुओं के कारण माथुर आयोग की कवायद बेकार हो गई, मगर इसका मतलब ये नहीं है कि भ्रष्टाचार तो नहीं हुआ था। कोर्ट ने वसुंधरा को क्लीन चिट नहीं दी है। कदाचित उनकी बात में कुछ सच्चाई भी हो, मगर न केवल वसुंधरा की ओर से, अपितु अब तो कांग्रेस ने भी एक तरह से गहलोत को चुनौती दे दी है कि वसुंधरा पर आरोप लगाने मात्र से कुछ नहीं होगा, उसे साबित भी करके दिखाइये। हालांकि यह भी सही है कि वसुंधरा जिस तरह से अपने आप को निर्दोष बताते हुए दहाड़ रही हैं, जनता उन्हें उतना पाक साफ नहीं मानती। भाजपा राज में हुए भ्रष्टाचार को लेकर आम जनता में चर्चा तो खूब है, भले ही गहलोत उसे साबित करने में असफल रहे हों। जनता की नजर में भले ही वसुंधरा की छवि बहुत साफ-सुथरी नहीं हो, मगर कम से कम गहलोत तो उनके दामन पर दाग नहीं लगा पाए हैं।
कुल मिला कर आडवाणी के यात्रा के दौरान कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकार को बदनाम करने की मुहिम तो नकारा हुई ही है, उलटे खुद कांग्रेस सरकार और उसके मंत्री तक घिर गए हैं। भंवरीदेवी नट के मामले में तो मदेरणा का कैरियर चौपट होने के साथ खुद गहलोत तो चुनौती मिल रही है कि उनके भी इस मामले से तार जुड़े हुए हैं और क्या वे भी इस्तीफा देंगे। गहलोत के तार जुड़े हुए हैं या नहीं, पता नहीं, लेकिन इतनी तो आम धारणा बन ही गई है कि इस मामले में वे जातीय राजनीति के कारण पूरी तरह से कमजोर दिख हैं। प्रदेश की प्रभावशाली जाट लॉबी के दबाव में वे काफी दिन तक तो इस मामले को टालते ही रहे। बाद में जब एक के बाद एक परतें खुलीं तो वे समझ गए कि मदेरणा को बचाना मुश्किल होगा। इस पर मदेरणा को इस्तीफा देने को कह दिया, मगर उनकी बात को मदेरणा ने सुना-अनसुना कर दिया। हालत ये हो गई कि कांग्रेस आलाकमान को दखल देना पड़ा और ऊपर की फटकार के बाद उन्हें मदेरणा को बर्खास्त करने की सिफारिश करनी पड़ी। कुछ और मंत्रियों पर लगे आरोपों के चलते गहलोत की पहले की काफी किरकिरी हो चुकी है। हालांकि गहलोत ने भंवरी देवी के मामले में पलट वार करते हुए भाजपा नेताओं के भी भंवरी से संबंधों की ओर इशारा किया है और सवाल खड़ा किया है कि इस मामले में भाजपा ज्यादा हल्ला क्यों नहीं मचा रही, मगर सब समझते हैं कि इसे साबित करना बहुत कठिन है। जाहिर तौर पर भंवरी देवी कोई कांग्रेसी तो थी नहीं कि उसके केवल कांग्रेस नेताओं से ही तालुक्क होते। जैसा उसका पेशा था, भाजपा नेताओं से भी उसके संबंध हो सकते हैं, मगर अहम सवाल ये है कि उसका अपहरण और कथित हत्या किसने करवाई? चूंकि मौजूदा विवाद की जड़ में भंवरी और मदेरणा के अवैध संबंध हैं, इस कारण उनसे जुड़ी सीडी भी सामने आई। ऐसी सीडी कम से कम भाजपा नेताओं के बारे में आने की तो संभावना कम ही नजर आती है। अलबत्ता किसी के बयानों में भंवरी के भाजपा नेताओं से भी संबंध होने की बात जरूर आ सकती है। वह कोई खास बात नहीं होगी, क्योंकि भंवरी के कुछ बड़े अधिकारियों से भी संबंधों की बात सामने आ रही है।
लब्बोलुआब मौजूदा दौर में यह जुमला फिट बैठता है कि बद अच्छा बदनाम बुरा। व्यक्तिगत तौर पर भले ही वसुंधरा राजे के बारे में आम धारणा ज्यादा अच्छी नहीं है और गहलोत के चरित्र पर कोई बड़ा दाग नहीं है, बावजूद इसके वसुंधरा की तुलना में गहलोत सरकार का कामकाज उन्नीस ही माना जा रहा है।
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शुक्रवार, अक्तूबर 21, 2011

एक बार फिर उठा पांच दिन के हफ्ते का मुद्दा

पंचायतीराज मंत्री भरतसिंह ने लिखा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्रराज्य के सरकारी दफ्तरों में छह दिन की बजाय पांच दिन का हफ्ता किए जाने से जनता को हो रही भारी परेशानी का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। राज्य सरकार के ही पंचायतीराज मंत्री श्री भरतसिंह ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र लिख कर समस्या का तुरंत समाधान करने का आग्रह किय है।
श्री सिंह ने कहा है कि पिछली सरकार ने भले ही जो भी सोच रख कर छह दिन की जगह पांच दिन का सप्ताह कर दिया हो, मगर यह व्यवस्था राज्य कर्मचारियों को छोड़ कर आम आदमी के लिए बेहद कष्टप्रद है। कर्मचारी पांच दिन के हफ्ते में भी बदले गए समय के मुताबिक अपनी सीट पर नहीं आते, जिससे जनता के काम अटक रहे हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि पूर्व में भी यह चर्चा उठती रही है कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार दफ्तरों में फिर से छह दिन का हफ्ता करने पर विचार कर रही है। ज्ञातव्य है कि पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार के जाते-जाते कर्मचारियों के वोट हासिल करने के लिए पांच दिन का हफ्ता कर गई थीं। चंद दिन बाद ही आम लोगों को अहसास हो गया कि यह निर्णय काफी तकलीफदेह है। लोगों को उम्मीद थी कि कांगे्रस सरकार इस फैसले को बदलेगी। उच्च स्तर पर बैठे अफसरों का भी यह अनुभव था कि पांच दिन का हफ्ता भले ही कर्मचारियों के लिए कुछ सुखद प्रतीत होता हो, मगर आम जनता के लिए यह असुविधाजनक व कष्टकारक ही है। हालांकि अधिकारी वर्ग छह दिन का हफ्ता करने पर सहमत है, लेकिन इसे लागू करने से पहले कर्मचारी वर्ग का मूड भांपा जा रहा है।
वस्तुत: यह फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
अब जब कि वसुंधरा की ओर से की गई व्यवस्था को तकरीबन तीन साल का समय हो गया है, यह स्पष्ट हो गया है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ी है। पांच दिन का हफ्ता करने की एवज में प्रतिदिन के काम के घंटे बढ़ाने का कोई लाभ नहीं हुआ है। कर्मचारी वही पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में वही पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। चर्चा कब अंजाम तक पहुंचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो केन्द्र सरकार के दफ्तरों में बेहतर काम हो ही रहा है। पांच दिन डट कर काम होता है और दो दिन मौज-मस्ती। मगर केन्द्र व राज्य सरकार के दफ्तरों के कर्मचारियों का मिजाज अलग है। केन्द्रीय कर्मचारी लंबे अरसे से उसी हिसाब ढले हुए हैं, जबकि राज्य कर्मचारी अब भी अपने आपको उस हिसाब से ढाल नहीं पाए हैं। वे दो दिन तो पूरी मौज-मस्ती करते हैं, मगर बाकी पांच दिन डट कर काम नहीं करते। कई कर्मचारी तो ऐसे भी हैं कि लगातार दो दिन तक छुट्टी के कारण बोर हो जाते हैं। दूसरा अहम सवाल ये भी है कि राज्य सरकार के अधीन जो विभाग हैं, उनसे आम लोगों का सीधा वास्ता ज्यादा पड़ता है। इस कारण हफ्ते में दो दिन छुट्टी होने पर परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हंै कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
बहरहाल, अब जबकि सरकार के ही मंत्री ने इस मुद्दे को फिर से उठाया है, देखना ये है कि सरकार इस दिशा में क्या कदम उठाती है।
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बुधवार, अक्तूबर 19, 2011

दर्द भी कम नहीं दे रही मुफ्त की दवा

राज्य सरकार की ओर से गत 2 अक्टूबर से शुरू की गई मुफ्त दवा योजना बेशक बेहतरीन है, मगर उसको अमल में लाए जाने वे पहले पूरी तैयारी नहीं किए जाने के कारण मरीजों को सुविधा मिलने की बजाय परेशानियां ज्यादा हो रही हैं। हालांकि योजना की तैयारी काफी वक्त पहले ही शुरू कर दी गई, मगर घोषित तिथि पर लागू करने की जल्दबाजी के कारण आधी अधूरी व्यवस्थाओं में ही शुरू कर दिया गया। नतीजतन हालत ये है कि न तो निर्धारित सभी दवाइयां अस्पतालों में पहुंची और न ही यकायक बढऩे वाली भीड़ को व्यवस्थित करने के उपाय किए गए। हालत ये है कि इस योजना की तारीफ करने वालों से कहीं ज्यादा है परेशान होने वाले लोगों की तादात। यह सही है कि इस योजना का बाजार पर फर्क पड़ा है, मगर अस्पताल में धक्के खा कर सरकार को कोसते हुए लौटने वाले भी बहुत हैं।
इस महत्वाकांक्षी योजना का सबसे अहम पहलु ये है कि सरकार लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया के कुप्रचार से नहीं निपट पाई है। आपको याद होगा कि योजना से पहले जब सरकार ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई ही लिखने के लिए बाध्य किया, तब भी माफिया के निहित स्वार्थों के कारण उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया था। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी चला रखी है और एक ओर जहां चिकित्सकों को मालामाल कर दिया, वहीं आम आदमी की कमर तोड़ रखी है। अब तो हाईकोर्ट तक को कड़ा रुख अपना कर जेनेरिक दवाई न लिखने वाले डाक्टरों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने की चेतावनी दी गई है।
असल में शुरू से यह कुप्रचार किया जाता रहा कि जेनेरिक दवाई सस्ती भले ही हो, मगर वह ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले घटिया है और उससे मरीज ठीक नहीं हो पाता। यह धारणा आज भी कायम है। इसकी खास वजह ये है कि सरकार के नुमाइंदे ये तो कहते रहे कि जेनेरिक दवाई अच्छी होती है, मगर आम जनता में उसके प्रति विश्वास कायम करने के कोई उपाय नहीं किए गए। इसी कारण दवा माफिया का दुष्प्रचार अब भी असर डाल रहा है।
यह आशंका शुरू से थी कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? ये आशंकाएं सही ही निकलीं। सरकार यह सोच रही थी कि जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं, मगर जरूरत के मुताबिक दवाइयां उपलब्ध न करवा पाने के कारण वह सोच धरी रह गई है। हालत ये है कि मरीज अस्पताल में लंबी लाइन में लग कर पर्ची लिखवाने के बाद सरकारी स्टोर पर जाता है तो उसे छह में से चार दवाइयां मिलती ही नहीं। मजबूरी में उसे बाजार में जाना पड़ता है और वहां उसे ब्रांडेड दवाई ही खरीदनी पडती है। वहां एक और धांधली होने की भी जानकारी है। बताया जाता है कि जेनेरिक दवाई पर भी उसके वास्तविक मूल्य से कई गुना अधिक प्रिंट रेट होती है। यानि कि अब उसमें भी कमीशनबाजी का चक्कर शुरू हो गया है। सरकार ने इससे निपटने के लिए कोई पुख्ता इंतजाम नहीं किया है।
योजना की सफलता को लेकर एक आशंका तो ये भी है कि कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर क्या इसे आसानी से सफल होने देंगे, जिनकी भूमिका इसे लागू करवाने में सबसे महत्वपूर्ण है। कदाचित वे यह कह सकते हैं कि वह सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहे हैं और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी।
एक छिपा हुआ तथ्य ये भी है कि जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने का दावा भले ही जोरशोर से किया जा रहा हो, मगर असल स्थिति ये है कि टेंडर के जरिए दवा कंपनियों को दिए गए आदेश को लेकर उठे सवालों पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। ऐसे में यह सवाल तो कायम ही है कि जो कंपनी राजनीतिक प्रभाव अथवा कुछ ले-दे कर आदेश लेने में कामयाब हुई है, वह दवाई बनाने के मामले में कितनी ईमानदारी बरत नहीं होगी।
इस योजना पर एक खतरा ये भी है कि सरकारी दवाई में कहीं बंदरबांट न हो जाए। अगर अस्पताल प्रशासन मुस्तैद नहीं रहा तो सरकारी दवाई बिकने को मार्केट में चली जाएगी। कुल मिला कर योजना तभी कारगर होगी, जबकि सरकार इस मामले की मॉनिटरिंग मुस्तैदी से करेगी।
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मंगलवार, अक्तूबर 18, 2011

संसद से ऊपर कैसे हो गए अन्ना हजारे?

उत्प्रेरक के रूप में राजनीति की रासायनिक प्रक्रिया तो कर रहे हैं, मगर खुद अछूआ ही रहना चाहते हैं

हाल ही अन्ना हजारे की टीम के प्रमुख सिपहसालार अरविंद केजरीवाल ने यह कह कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है कि अन्ना संसद से भी ऊपर हैं और उन्हें यह अधिकार है कि वे अपेक्षित कानून बनाने के लिए संसद पर दबाव बनाएं। असल में वे बोल तो गए, मगर बोलने के साथ उन्हें लगा कि उनका कथन अतिशयोक्तिपूर्ण हो गया है तो तुरंत यह भी जोड़ दिया कि हर आदमी को अधिकार है कि वह संसद पर दबाव बना सके।
यहां उल्लेखनीय है कि अन्ना हजारे पर शुरू से ये आरोप लगता रहा है कि वे देश की सर्वोच्च संस्था संसद को चुनौती दे रहे हैं। इस मसले पर संसद में बहस के दौरान अनेक सांसदों ने ऐतराज जताया कि अन्ना संसद को आदेशित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें अथवा किसी और को सरकार या संसद से कोई मांग करने का अधिकार तो है, मगर संसद को उनकी ओर से तय समय सीमा में बिल पारित करने का अल्टीमेटम देने का अधिकार किसी को नहीं है। इस पर प्रतिक्रिया में टीम अन्ना यह कह कर सफाई देने लगी कि कांग्रेस आंदोलन की हवा निकालने अथवा उसकी दिशा बदलने के लिए अनावश्यक रूप से संसद से टकराव मोल लिए जाने का माहौल बना रही है। वे यह भी स्पष्ट करते दिखाई दिए कि लोकपाल बिल के जरिए सांसदों पर शिंकजा कसने को कांग्रेस संसद की गरिमा से जोड़ रही है, जबकि उनकी ऐसी कोई मंशा नहीं है। एक आध बार तो अन्ना ये भी बोले कि संसद सर्वोच्च है और अगर वह बिल पारित नहीं करती तो उसका फैसला उनको शिरोधार्य होगा। लेकिन हाल ही हरियाणा के हिसार उपचुनाव के दौरान अन्ना हजारे के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने एक बार फिर इस विवाद को उछाल दिया है। वे साफ तौर पर कहने लगे कि अन्ना संसद से ऊपर हैं।
अगर उनके बयान पर बारीकी से नजर डालें तो यह केवल शब्दों का खेल है। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। जनता की ओर से चुने जाने के बिना किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अपने आपको जनता का प्रतिनिधि कहे। जनता का प्रतिनिधि तो जनता के वोटों से चुने हुए व्यक्ति को ही मानना होगा। यह बात दीगर है कि जनता में कोई समूह जनप्रतिनिधियों पर अपने अधिकारों के अनुरूप कानून बनाने की मांग करने का अधिकार जरूर है। यह साफ सुथरा सत्य है, जिसे शब्दों के जाल से नहीं ढंका जा सकता। इसके बावजूद केजरीवाल ने अन्ना को संसद से ऊंचा बता कर टीम अन्ना की महत्वाकांक्षा और दंभ को उजागर कर दिया है।
उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो इस बात से भी खुल कर सामने आ गई है कि राजनीति और चुनाव प्रक्रिया में सीधे तौर पर शामिल होने से बार-बार इंकार करने के बाद भी हिसार उपचुनाव में खुल कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने पर उतर आई। सवाल ये उठता है कि अगर वह वाकई राजनीति में शुचिता लाना चाहती है तो दागी माने जा रहे हरियाणा जनहित कांग्रेस के कुलदीप विश्नोई और इंडियन नेशनल लोकदल के उम्मीदवार अजय चौटाला को अपरोक्ष रूप से लाभ कैसे दे रही है? एक ओर वह इस उपचुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सर्वे करार दे रही है, दूसरी अपना प्रत्याशी उतारने का साहस नहीं जुटा पाई। अर्थात वे रसायन शास्त्र के उत्प्रेरक की भांति राजनीति में रासायनिक प्रक्रिया तो कर रही है, मगर खुद उससे अलग ही बने रहना चाहती है। कृत्य को अपने हिसाब से परिफलित करना चाहती है, मगर कर्ता होने के साथ जुड़ी बुराई से मुक्त रहना चाहती है। इसे यूं भी कहा जा सकता है मैदान से बाहर रह कर मैदान पर वर्चस्व बनाए रखना चाहती है। अफसोसनाक पहलु ये है कि इस मसले पर खुद टीम अन्ना में मतभेद है। टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्नता जाहिर कर चुके हैं। इसी मसले पर क्यों, कश्मीर पर प्रशांत भूषण के बयान पर हुए हंगामे के बाद अन्ना व उनके अन्य साथी उससे अपने आपको अलग कर रहे हैं।
कुल मिला कर अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आ गया है। राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। ऐसे में जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही उनके ताजा रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है। देशभक्ति के जज्बे साथ उनके पीछे हो ली युवा पीढ़ी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रही है।
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मंगलवार, अक्तूबर 11, 2011

मैदान से बाहर रह कर मैदान का मजा ले रहे हैं अन्ना

भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम तथा जनलोकपाल विधेयक संसद में पेश किए जाने की मांग को लेकर पूरे देश में हलचल मचाने के दौरान खुद को राजनीति से दूर रखने की घोषणा करने वाले अन्ना हजारे का छुपा एजेंडा सामने आने लगा है। असल में आ ही गया है। उनकी और उनके साथियों की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा साफ नजर आ रही है।
इस सिलसिले में मुझे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक सभा में कहा गया एक कथन याद आता है। उन दिनों अभी जनता पार्टी का राज नहीं आया था। नागौर शहर की एक सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस उन पर आरोप लगा रही है कि वे सत्ता हासिल करना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इसमें बुराई भी क्या है? क्या केवल कांग्रेस ही राज करेगी, हम नहीं करेंगे? हम भी राजनीति में सत्ता के लिए आए हैं, कोई कपास कातने या कीर्तन थोड़े ही करने आए हैं। वाजपेयी जी ने तो जो सच था कह दिया, मगर अन्ना एंड कंपनी में शायद ये साहस नहीं है। वे राजनीति और सत्ता में आना भी चाहते हैं और कहते हैं कि हम राजनीति में नहीं आना चाहते। असल में वे जानते हैं कि उनको जो समर्थन मिला था, वह केवल इसी कारण कि लोग समझ रहे थे कि वे नि:स्वार्थ आंदोलन कर रहे हैं। यदि वे भी ये कह कर कि हम भी राजनीति में आना चाहते हैं तो कदाचित जनता उनको इतना समर्थन नहीं देती। भाजपा को ही लीजिए न, आंदोलन तो उसने भी दिखाने को किया, विपक्षी दल की औपचारिकता निभाई, मगर जनसमर्थन नहीं मिला। वजह साफ थी कि जिस मुद्दे पर आंदोलन हुआ, उस मामले में वह भी दूध की धुली हुई है।
बहरहाल, अन्ना एंड कंपनी को जैसे ही लगा कि जनता उनका साथ दे रही है तो उनकी भी महत्वाकांक्षा जाग गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना हजारे को अंदाजा था। इसी कारण कदम दर कदम राजनीति की ओर सरक रहे हैं। पहले देशभक्ति का नाम दे कर जनता का समर्थन हासिल किया और अब अपनी ताकत भी नाप रहे हैं। उसमें भी चालाकी कर रहे हैं। खुद सीधे तौर पर राजनीति में नहीं उतर रहे। हिसार के उपचुनाव में अपना कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं कर रहे, मगर कांग्रेस को निशाना बना कर उसके विरोध में प्रचार कर रहे हैं। जाहिर तौर पर जो जनता उनको महात्मा गांधी की उपमा दे रही थी, वही अब रवैये देखकर उनके आंदोलन को संदेह से देख रही है।
भले ही वे कहें कि जो भी जनलोकपाल बिल के प्रति सहयोगात्मक रुख नहीं रखेगा, उसका विरोध करेंगे, मगर केवल एक पार्टी विशेष पर निशाना साधने से उनके कृत्य में राजनीति की बू आने लगी है। अन्ना और उनके समर्थक भले ही शब्दों के कितने ही जाल फैलाएं, कितनी ही सफाई दें, मगर उनके ताजा कृत्य से जाहिर हो गया है कि वे अपने मूल मकसद से हटकर विवाद की ओर बढ़ रहे हैं। खुद उनकी ही टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्ना जाहिर कर चुके हैं। चलो कांग्रेस पर तो हमला हो रहा है, इस कारण वह राजनीति के तहत की पलट वार कर रही है। उसके इस आरोप में कितना दम है कि अन्ना भाजपा व संघ के हाथों की कठपुतली हैं या उनको राष्ट्रपति पद का साझा उम्मीदवार बनाने का लालच दिया गया है, कुछ कह नहीं सकते, मगर आमजन में भी यह प्रतिक्रिया तो है कि आखिर अन्ना हजारे व उनके साथियों मकसद वास्तव में है क्या?  सवाल ये भी उठने लगा है कि वे जनलोकपाल विधेयक को संसद में पारित कराने की बजाय खुल कर कांग्रेस की खिलाफत पर क्यों उतर आए? जाहिर तौर पर इसका भारतीय जनता पार्टी समर्थित उम्मीदवार के रूप में हरियाणा जनहित कांगेस के उम्मीदवार कुलदीप बिश्रोई को फायदा होगा, जो कि परोक्ष रूप से उनका समर्थन करने के ही समान है। खुद अन्ना भी स्वीकार कर रहे हैं कि ऐसा तो होता ही है, एक का विरोध करने पर दूसरे को फायदा होता है। मगर आश्चर्य है कि वे इसे दूसरे का समर्थन करार दिए जाने को गलत मानते हैं। क्या यह एक चतुराई नहीं है कि वे राजनीति के मैदान को गंदा बताते हुए उसमें आ भी नहीं रहे और उसमें टांग भी अड़ा रहे हैं? यानि राजनीति से दूर रह कर अपने आपको महान भी कहला रहे हैं और उसके मजे भी ले रहे हैं। गुड़ से परहेज दिखा रहे हैं और गुलगुले बड़े चाव से खा रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई शादी न करके उसकी परेशानियों से दूर भी बना रहे और शादी से मिलने वाले सुख को भोगता रहे।
एक दिलचस्प बात और है। वो ये कि अन्ना हजारे खुद ही हिसार के दंगल को आगामी लोकसभा चुनाव का सेंपल सर्वे तक करार दिए रहे हैं, जो कि नितांत हास्यास्पद है। हर लोकसभा क्षेत्र के चुनावी समीकरण काल, परिस्थितियों सहित अनेकानेक पहलुओं पर निर्भर करता है। गौर करने लायक बात ये भी है कि अरविंद केजरीवाल अपने भाषणों में जैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, वह किसी सदाशयी की भाषा तो कत्तई नहीं दिखाई देती। साफ तौर पर वे राजनीति के गिरे हुए स्तर पर जा कर बोल रहे हैं। उनकी भाषा में वैसी ही कुटिलता है, जैसी आमतौर पर राजनीतिकज्ञों की भाषा में होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि खुद अन्ना एंड कंपनी इस उपचुनाव को अपने लिए सेंपल सर्वे कर रही है, ताकि बाद में अन्ना की उस घोषणा पर भी काम शुरू किया जा सके, जिसमें उन्होंने कहा था कि वे ऐसे स्वच्छ लोगों की तलाश में हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में उतारे जा सकें। वे ऐसे लोगों को पूरा समर्थन देंगे। कुल मिला कर इससे अन्ना और उनकी टीम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा खुलकर सामने आ गई है और ये भी जाहिर हो गया है कि अन्ना शुरू से ही अपने आंदोलन को सत्ता संघर्ष के लिए एक सीढ़ी बना कर चल रहे हैं।
रहा सवाल अन्ना के भाजपा या संघ की कठपुतली होने का तो भले ही यह आरोप सीधे तौर पर गलत हो, मगर यह तो सच है ही कि अन्ना के आंदोलन की सफलता में भाजपा का भी हाथ रहा है, भले ही उसके कार्यकर्ता अपनी पहचान छुपा कर शामिल हुए हों। संघ प्रमुख मोहन भागवत सहित भाजपा के नेताओं ने तो साथ स्वीकार कर ही लिया कि देशहित की खातिर संघ ऐसे आंदोलन का समर्थन करता है और करता रहेगा, भले अन्ना उनके समर्थन होने की बात से इंकार करें।
बहरहाल, अन्ना एंड कंपनी जो कुछ कर रही है, वह इस लोकतांत्रिक देश में उनकी स्वतंत्रता है, मगर यदि वे वाकई राजनीति के इसी स्तर पर आने का छुपा एजेंडा ले कर चल रहे थे तो उस युवा पीढ़ी के साथ जरूर धोखा होगा, जो देशभक्ति के जज्बे के कारण उनके साथ हो ली थी। उन पर क्या बीतेगी जो, राष्ट्र प्रेम की खातिर निष्छल भाव से भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाने की खातिर जुटे थे?
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गुरुवार, अक्तूबर 06, 2011

तब क्यों छुड़वाया था पाक यात्रियों को आडवानी ने?

हाल ही भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष तथा पूर्व सांसद औंकार सिंह लखावत व जिलाध्यक्ष व पूर्व सांसद रासासिंह रावत सहित विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल ने अजमेर में बिना अनुमति के पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्री के सभा करने पर कड़ा ऐतराज करते हुए दोषियों के विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के साथ केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम तथा राज्य के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल के इस्तीफे की मांग की है। जैसा प्रकरण है, उनकी मांग बिलकुल जायज है। बेशक अजमेर में अवैधानिक तथा सुरक्षा नियमों के विपरीत हुई पाक वाणिज्य  मंत्री मकदूम अमीन फहीम की सभा कराने तथा इसमें सीमावर्ती जिलों से हजारों की तादाद में लोगों को लाने की कार्यवाही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा है, मगर सवाल ये उठता है क्या भाजपा नेता दोहरा मापदंड अपना  रहे हैं?
पाठकों को याद होगा कि काफी दिन पहले तीर्थराज पुष्कर में बिना वीजा के घूमते पकड़े गए पाकिस्तान के सिंध प्रांत के 66 हिंदू तीर्थ यात्रियों को कथित रूप से लालकृष्ण आडवाणी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर बिना किसी कार्यवाही के छुड़वा दिया। इतना ही नहीं उन्हें आगे की यात्रा भी जारी रखने की इजाजत दिलवा दी थी। कुछ हिंदूवादी संगठनों व भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के आग्रह पर आडवाणी के इस प्रकार दखल करने से एक नई बहस छिड़ गई थी।
हुआ यूं था कि जैसे ही पाकिस्तान के सिंधी तीर्थयात्रियों के बिना वीजा पुष्कर में पकड़े जाने की सूचना आई, हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय सिंधु सभा के पदाधिकारी सक्रिय हो गए। उन्होंने पुष्कर पहुंच कर सीआईडी के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा पर दबाव बनाया कि उन्हें बिना किसी कार्यवाही के छोड़ दिया जाए, क्योंकि वे हिंदू तीर्थयात्री हैं। वर्मा ने उनकी एक नहीं सुनी, उलटे उन्हें डांट और दिया। बहरहाल उन्हें पाक तीर्थ यात्रियों से मिलने और उनकी सेवा-चाकरी करने छूट जरूर दे दी। जब हिंदूवादी संगठनों और विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी को लगा कि स्थानीय स्तर पर दबाव बनाने से कुछ नहीं होगा, उन्होंने ऊपर संपर्क किया। आडवाणी को फैक्स किए और गृह मंत्रालय से भी इस मामले में नरमी बरतने का आग्रह किया। इस पर भी जब दाल नहीं गली तो पाक जत्थे में एक प्रभावशाली व्यक्ति ने भी अपने अहमदाबाद निवासी समधी के जरिए आडवाणी से मदद करने का आग्रह किया। अहमदाबाद निवासी उस व्यापारी के आडवाणी से करीबी रिश्ते होने के कारण आखिरकार उन्हें मशक्कत करनी पड़ी। जानकारी के मुताबिक आडवाणी ने अपने स्तर पर केन्द्र व राज्य के अधिकारियों से संपर्क साधा और पाक तीर्थयात्रियों को बेकसूर बता कर उन्हें छोडऩे का आग्रह किया। भारी दबाव में आखिरकार सीआईडी मुख्यालय को उन्हें बिना कोई कार्यवाही किए आगे की यात्रा के लिए जाने की इजाजत देनी पड़ी।
उसी के अनुरूप सीआईडी पुलिस के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक गजानंद वर्मा को यह रिपोर्ट देनी पड़ी कि तीर्थ यात्रियों ने भूल से वीजा नियमों का उल्लंघन किया है और ट्रेवल एजेंसी संचालकों ने उन्हें इस बारे में जानकारी नहीं दी थी, मगर जिस तरह घटनाक्रम घूमा, उससे स्पष्ट है कि तीर्थयात्री जानते थे कि वे वीजा में उल्लेख न होने के बावजूद पुष्कर का भ्रमण कर रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि जत्थे में से एक यात्री ने यहां मीडिया को बताया था कि उनका पुष्कर यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं था, लेकिन जब उन्हें मुनाबाव में पता लगा कि पुष्कर भी एक प्रमुख तीर्थस्थल है तो मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने कहा कि वीजा में पुष्कर का अलग से उल्लेख करने की जरूरत नहीं है, वे चाहें तो खाना खाने के बहाने से वहां कुछ देर घूम सकते हैं। उस यात्री ने ही दबाव बनाया था कि उन्हें मुनाबाव में भारतीय अधिकारियों ने गुमराह किया था, वरना वे पुष्कर में नहीं उतरते।
बहरहाल, सीआईडी के नरम रुख की चर्चा इस कारण उठी है क्योंकि पिछले उर्स मेले के दौरान चार पाक जायरीन भी इसी तरह बिना वीजा के पुष्कर गए और वहां ब्रह्मा मंदिर में प्रवेश करते हुए पकड़े गए तो उनके खिलाफ सीआईडी की ओर से ब्लैक लिस्टेड करने की सिफारिश की गई थी। तब सवाल ये भी उठाया गया था कि यदि भारत के हिंदू राष्ट्रीयता को छोड़ कर पाकिस्तान के हिंदुओं के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो यदि भारत के मुसलमान कभी पाकिस्तान के मुस्लिमों के प्रति सोफ्ट कॉर्नर रखते हैं तो उसमें ऐतराज क्यों किया जाता है? यानि कि धर्म निश्चित रूप से राष्ट्रों की सीमा से बड़ा है।
उससे भी बड़ी बात ये है कि एक ओर तो भाजपा बिना अनुमति के पाक मंत्री की सभा होने पर ऐतराज करती है, दूसरी ओर बिना बीजा के पुष्कर आए हिंदू पाकिस्तानियों के प्रति नरम रुख रखती है। सही क्या है और गलत क्या, यह पाठक ही तय कर सकते हैं।
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रविवार, अक्तूबर 02, 2011

भाजपा में मचा प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान

घोटालों से घिरी कांग्रेस नीत सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। पार्टी को लग रहा है कि इस बार उसे उत्तर भारत के कांग्रेस प्रभावित क्षेत्रों में अच्छी सफलता हासिल होगी। भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपा नीत एनडीए तो सत्ता में आ ही जाएगा। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा विपक्षी दल होगा, लिहाजा उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा।
हालांकि अब तक लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी, मगर अब कुछ और दावेदार भी सामने आने लगे हैं। गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर जनता के नाम खुले पत्र में शांति और सद्भावना के लिए तीन दिवसीय उपवास की घोषणा कर दी। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौसला और बढ़ गया और 'शांति और साम्प्रदायिक सद्भावÓ के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बदल कर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया।
यूं तो मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार खुसफुसाहट में माना जाता रहा है, लेकिन सबसे बड़ी बाधा यही रही कि उनका चेहरा सर्वमान्य नहीं है। उनके नाम पर राजग के अन्य घटक सहमत होने की संभावना शून्य ही मानी जाती रही है। यह सही है कि मोदी का उपवास जिस प्रकार का था, वह हाल ही अन्ना हजारे की ओर से किए गए उपवास के तुरंत बाद हुआ, इस कारण लोगों ने उसकी तुलना जाहिर तौर पर उससे करते हुए उसे नाटकबाजी ही करार दिया। कांग्रेस ने तो मोदी के इस उपवास को फाइव स्टार उपवास की संज्ञा देते हुए कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि इससे उन पर लगे सांप्रदायिकता के आरोप समाप्त नहीं हो जाएंगे। कांग्रेस नेता शंकर सिंह वाघेला ने समानांतर उपवास करके मोदी के लोकप्रियता को बढऩे से रोकने का प्रयास किया। मीडिया तक यही सवाल करता रहा कि इससे मोदी को चेहरा धुल पाएगा या नहीं। रही सही कसर मोदी ने मुस्लिम धार्मिक नेताओं की टोपी ग्रहण करने से इंकार करके पूरी कर दी। कुल मिला कर मोदी विकास के नाम पर जिस तरह का सर्वसम्मत चेहरा हासिल करना चाहते थे, वह पूरा नहीं हो पाया। उनके उपवास कार्यक्रम में पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल आसानी से आ गये और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने भी मोदी के आग्रह पर अपने दो पार्टी नेताओं को वहां भेज दिया। शिवसेना और मनसे ने भी अपने नेताओं को भेजा, लेकिन जद-यू इससे दूर रहा। राजग संयोजक शरद यादव ने तो मोदी के उपवास का उपहास तक किया। ्रबावजूद इसके मोदी का यह कदम भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदारों पर भारी पड़ गया। वे एकाएक एक प्रबल दावेदार बन कर उभर आए। कम से कम हिंदू वोट बटोरने के मामले में तो उनका नाम सबसे ऊपर माना जाने लगा है। जाहिर तौर पर इससे सुषमा स्वराज व जेटली को तकलीफ हुई होगी। वे ही क्यों पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए गए आडवाणी तक को तकलीफ हुई। उन्होंने भी रथयात्रा की घोषणा कर रखी है। हालांकि उसमें मोदी के फच्चर डालने से आडवाणी को दिक्कत आ गई है। खुद पार्टी अध्यक्ष निनित गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। आडवाणी के अतिरिक्त पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश में रथयात्रा के माध्यम से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त सुनने में यह भी आ रहा है कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे।
कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। हालांकि मोदी व आडवाणी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन दोनों पर कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। सुषमा स्वराज फिलहाल चुप हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि अकेले भाजपा के दम पर तो सरकार बनेगी नहीं, और अन्य दलों का सहयोग लेना ही होगा। ऐसे में मोदी की तुलना में उनको पसंद किया जाएगा। रहा सवाल जेटली का तो वे भी गुटबाजी को आधार बना कर मौका पडऩे पर यकायक आगे आने का फिराक में हैं। इसी प्रकार जहां तक राजनाथ सिंह के नाम का सवाल है तो यह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर निर्भर करता है। यदि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो निश्चित रूप से उनकी दावेदारी मजबूत होगी।
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गुरुवार, सितंबर 08, 2011

विवादों से घिरते जा रहे हैं स्वामी अग्निवेश



हाल ही अन्ना हजारे की टीम से अलग हुए स्वामी अग्निवेश एक बार फिर विवादों से घिरने लगे हैं। वस्तुस्थिति तो ये है कि उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गई है। अन्ना की टीम में रहने के दौरान भी कुछ लोग उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके बारे में अंटशंट टिप्पणियां आती रहती थीं, लेकिन जैसे ही वे अन्ना से अलग हुए हैं, उनके बारे में उनके बारे में सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर टीका-टिप्पणियां होने लगी हैं। हालत ये है कि आजीवन सामाजिक क्षेत्र में काम करने का संकल्प लेने वाले अग्निवेश को अब कांगे्रस का एजेंट बन कर सियासी दावपेंच चलाने में मशगूल बताया जा रहा है।
असल में स्वामी अग्निवेश मूलत: अन्ना हजारे की टीम में शामिल नहीं थे। वैसे भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व रहा है, इस कारण अन्ना हजारे के आभामंडल को पूरी तरह से स्वीकार किए जाने की कोई संभावना नहीं थी। कम से कम अरविंद केजरीवाल व किरण बेदी की तरह अन्ना हजारे का हर आदेश मानने को तत्पर रहने की तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। सामाजिक क्षेत्र में पहले से सक्रिय स्वामी अन्ना से जुड़े ही एक मध्यस्थ के रूप में थे। वे उनकी टीम का हिस्सा थे भी नहीं, मगर ऐसा मान लिया गया था कि वे उनकी टीम में शामिल हो गए हैं। और यही वजह रही कि उनसे भी वैसी ही उम्मीद की जा रही थी, जैसी कि केजरीवाल व किरण से की जा सकती है।
जहां तक मध्यस्थता का सवाल है, उसमें कोई बुराई नहीं है। मध्यस्थ का अर्थ ही ये है कि जो दो पक्षों में बीच-बचाव करे और वह दोनों ही पक्षों में विश्वनीय हो। तभी तो दोनों पक्ष उसके माध्यम से बात करने को राजी होते हैं। मगर समस्या तब उत्पन्न हुई, जब इस बात की जानकारी हुई कि वे पूरी तरह से कांग्रेस का साथ देते हुए मध्यस्थता कर रहे हैं तो अन्ना व उनकी टीम को ऐतराज होना स्वाभाविक था। जैसा कि आरोप है, वे तो अन्ना की टीम को ही निपटाने में जुट गए थे। जाहिर तौर पर उनकी यह हरकत अन्ना टीम सहित उनके सभी समर्थकों को नागवार गुजरी। बुद्धिजीवियों में मतभेद होना स्वाभाविक है, मगर यदि मनभेद की स्थिति आ जाए तो संबंध विच्छेद की नौबत ही आती है। कदाचित कुछ मुद्दों पर स्वामी अन्ना से सहमत न हों, मगर उन्हीं मुद्दों को लेकर अन्ना के खिलाफ काम करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। संतोष हेगड़े को ही लीजिए। उनके भी कुछ मतभेद थे, मगर उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। उनको लेकर कोई राजनीति नहीं कर रहे थे।
जैसी कि जानकारी है, अन्ना टीम को पता तो पहले ही लग गया था कि स्वामी क्या कारस्तानी कर रहे हैं, मगर आंदोलन के सिरे तक पहुंचने से पहले वह चुप रहने में ही भलाई समझ रही थी। जानती थी कि अगर मतभेद और विवाद पहले ही उभर आए तो परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। और यही वजह रही कि जब अन्ना का आंदोलन एक मुकाम पर पहुंच गया और उसकी सफलता का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर इस बात की समीक्षा की जा रही थी कि कौन लंका ढ़हाने के लिए विभीषण की भूमिका अदा कर रहा है। उसमें सबसे पहले नाम आया स्वामी अग्निवेश का। इसी सिलसिले में उनका का एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया गया। जिससे यह साबित हो रहा था कि वे थे तो टीम अन्ना में, मगर कांग्रेस का एजेंट बन कर काम कर रहे थे। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके।
जहां तक वीडियो की विषय वस्तु का प्रश्न है, स्वयं अग्निवेश भी स्वीकार कर रहे हैं कि वह गलत नहीं है, मगर उनकी सफाई है कि इस वीडियो में वे जिस कपिल से बात कर रहे हैं, वे केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं हैं, बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। बस यहीं उनका झूठ सामने आ गया। मौजूदा इंस्टंट जर्नलिज्म के दौर में मीडिया कर्मी कपिल मुनि महाराज तक पहुंच गए। उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात ही नहीं की। साथ ये भी बताया कि हरिद्वार में उनके अतिरिक्त कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है। यानि कि यह स्पष्ट है कि स्वामी सरासर झूठ बोल रहे हैं। जाहिर तौर पर इस प्रकार की हरकत को धोखाधड़ी ही कहा जाएगा।
जहां तक अग्निवेश का अन्ना टीम छोडऩे का सवाल है, ऐसा वीडियो आने के बाद ऐसा होना ही था, मगर स्वयं अग्निवेश का कहना है कि वे केजरीवाल की शैली से नाइत्तफाकी रखते थे, इस कारण बाहर आना ही बेहतर समझा। इस बात में तनिक सच्चाई भी लगती है, क्यों कि अन्ना की टीम में दूसरे नंबर के लैफ्टिनेंट वे ही हैं। कुछ लोग तो यहां तक भी कहते हैं कि अन्ना की चाबी भी केजरवाल ही हैं। बहरहाल, दूसरी ओर केजरीवाल का कहना है कि स्वामी इस कारण नाराज हो कर चले गए क्योंकि आखिरी दौर की बातचीत में अन्ना की ओर से उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना को उनके बारे में पुख्ता जानकारी मिल चुकी थी, इसी कारण उनसे थोड़ी दूरी बनाने का प्रयास किया गया होगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हजारे पहली बार अनशन पर बैठे तो स्वामी ही मध्यस्थ के रूप में आगे आए थे, मगर उनकी भूमिका पर संदेह होने के कारण ही उन्हें लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट बना कर सरकार से बात करने वाली टीम में शामिल नहीं किया गया, जब कि स्वामी ने बहुत कोशिश की कि उन्हें जरूर शामिल किया जाए। बस तभी से स्वामी समझ गए कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली है। इसी कारण जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो अग्निवेश ने आलोचना की थी। अनशन शुरू होने से लेकर तिहाड़ जेल से बाहर आने तक स्वामी गायब रहे, मगर फिर नजदीक आने की कोशिश की तो अन्ना की टीम ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
खैर, यह पहला मौका नहीं कि उनकी ऐसी जलालत झेलनी पड़ी हो। इससे पूर्व आर्य समाज, जो कि उनके व्यक्तित्व का आधार रहा है, उस तक ने उनसे दूरी बना ली थी। ताजा मामले में भी आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने उन्हें धोखेबाज बताते हुए सावधान रहने की सलाह दी है। माओवादियों से बातचीत के मामले में भी उनकी कड़ी आलोचना हो चुकी है। अब देखना यह है कि आगे वे क्या करते हैं? सरकार की किसी पेशकश को स्वीकार करते हैं या फिर से सामाजिक क्षेत्र में जमीन तलाशते हैं?

गुरुवार, अगस्त 04, 2011

क्या दूसरी आजादी की मुहिम कामयाब होगी?

यह एक संयोग ही है कि एक ओर हम देश की आजादी का जश्न मनाने जा रहे हैं और दूसरी सिविल सोसायटी की ओर से अन्ना हजारे लोकपाल बिल के लिए दूसरी आजादी की मुहिम को परवान पर चढ़ा रहे हैं। उनका कहना है कि हमने एक आजादी तो गोरे अंग्रेजों से हासिल कर ली, लेकिन उनकी जगह काले अंग्रेजों ने ले ली। अब उनसे भी आजादी हासिल करनी होगी, तभी हम सुख से जी सकेंगे। हालांकि उनका आजादी के बाद की सरकारों को काले अंग्रेजों की संज्ञा देना बेहद आपत्तिजनक है, यह अराजकता फैलाने जैसा प्रतीत होता है, मगर हम अगर उनकी भावना पर ही ध्यान करें तो उनका कहना ठीक ही है कि हम आजाद होते हुए भी पूरी आजादी हासिल नहीं कर पाए हैं। कहने भर को हम आजाद हैं, हमारी खुद की चुनी हुई सरकार है, लेकिन आजादी के बाद जिस तेजी से भ्रष्टाचार बढ़ा है, उससे अमीर और अमीर एवं गरीब और गरीब होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी पिसता जा रहा है। पूरे सिस्टम में भ्रष्टाचार व्याप्त है और इससे मुक्ति के लिए बड़े उपाय करने की जरूरत है। इसे वे दूसरी आजादी का नाम दे रहे हैं।
यह सच है कि जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है।  'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है। संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। दरअसल, अब हम एक  ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओं के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं।
अन्ना हजारे उसी आजादी की बात कर रहे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा सरकार और उनके बीच चल रही रस्साकसी संघर्ष को बढ़ाएगी। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित लोकपाल बिल का जो मसौदा संसद में पेश करने को तैयार है, उससे अन्ना हजारे व उनकी टीम सहित अनेक बुद्धिजीवी सहमत नहीं हैं। सरकार नहीं चाहती कि सर्वोच्च पद पर बैठे प्रधानमंत्री व न्यायपालिका  इस बिल के माध्यम से लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएं। इसके पीछे सरकार की चाहे जो मंशा हो, और चाहे जो तर्क दिए जा रहे हों, मगर वे आम जन को गले नहीं उतर रहे। दूसरी ओर हालांकि अन्ना हजारे की जिद देश के भले के लिए ही है, मगर उनके कुछ बिंदु ऐसे हैं, जिनके बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनको देश की तमाम जनता का पूरा समर्थन है। जो समर्थन दिखाई दे रहा है, वह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सोच-समझ कर दिया जा रहा है, अथवा देश हित के जज्बे के कारण दिया जा रहा है। उचित क्या है, अनुचित क्या है, इसका फैसला वस्तुत: अन्ना की टीम को नहीं दिया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो फिर पूरे लोकतांत्रिक सिस्टम का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। आखिरकार हमारे यहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। मुहिम अपनी जगह है, उसकी महत्ता भी है, मगर निर्णय तो आखिरकार संसद को ही करना है। अन्ना हजारे को भी उसे मानना होगा, क्योंकि वे संसद से बड़े नहीं हैं।
बहरहाल, अन्ना की अनशन की जिद सरकार के लिए क्या संकट उत्पन्न करेगी, यह अभी पता नहीं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत विपक्षी पार्टियों पर बड़ा दायित्व आ गया है। उन्हें चाहिए कि वे संविधान के दायरे में रचनात्मक रूप से उचित मुद्दों पर सरकार को झुकने को मजबूर करें। हालांकि सरकार की रणनीति यही है कि कारगर लोकपाल की स्थापना के लिए अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठें तो उनके आंदोलन को संसद के खिलाफ चित्रित कर दिया जाए, लेकिन यही मौका है जब विपक्ष प्रस्तावित लोकपाल को अधिक से अधिक ताकतवर बनाने के लिए रचनात्मक सुझाव पेश करे और उसे मनवाए। कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे अन्ना की मुहिम भी कामयाब हो जाए और टकराव भी न हो।
tejwanig@gmail.com

शनिवार, जुलाई 30, 2011

समलैंगिकता : कानूनी भले ही मिल गई, मगर सामाजिक मान्यता नहीं

यह सच है कि भारत में समलैंगिकता को एक अत्यंत निंदित, घृणित सामाजिक अपराध के रूप में देखा जाता रहा है, परंतु धरातल सच है कि  सामाजिक भय से भले ही छिप कर, लेकिन यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। विशेष रूप से इस सिलसिले में आए कोर्ट के फैसले के दौरान पिछले दिनों जब इस पर बड़ी भारी बहस छिड़ी तो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोग खुल कर सामने आ गए। यहां तक कि कई गैर-सरकारी संगठन और कथित उदार वादी इसके पक्ष में खड़े हो गए।
यहां उल्लेखनीय है कि समलैंगिकों के हित केलिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे कुछ सफलता भी मिली। पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उन अंशों को अवैध करार दिया, जो दो वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति पर आधारित यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखते आए हैं। अदालत ने इसे भारतीय संविधान की धाराओं 21 (निजी स्वतंत्रता), 14 (समानता का अधिकार) और 15 (पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण) का उल्लंघन माना। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर ठप्पा लगा दिया। हालांकि अब भी समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता पर निर्णय होना बाकी है। हालांकि यह सही है कि दंड संहिता की जिस धारा के अंशों को अदालत ने असंवैधानिक करार दिया है, उनमें पिछले डेढ़ सौ साल में डेढ़ सौ लोगों को भी सजा नहीं दी गई, फिर भी अदालती फैसले का गहरा सांकेतिक महत्व है। इससे सामाजिक भय के कारण छिप कर समलैंगिक संबंध कायम रखने वाले लोगों को उन्मुक्त होने का मौका दे दिया। इस मसले का सबसे घिनौना रूप ये रहा कि जैसे ही कोर्ट का ठप्पा लगा समलैंगिक बेशर्म हो कर सड़कों पर आ गए।
ऐसे में चिंता का विषय ये है कि क्या जिस कृत्य को सामाजिक मान्यता नहीं और जिसे समाज निंदनीय मानता है, उसे केवल कानून के दम पर इतना प्रचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में  गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर (जीएलबीटी) लोगों ने रैली निकाली थी। उनमें से एक कार्यकर्ता के हाथ में ली हुई तख्ती पर लिखा था- हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप्स आर नॉट नैचुरल, दे आर ओन्ली कॉमन। यानी पुरुष-महिला संबंध प्राकृतिक नहीं हैं, अधिक प्रचलित भर है। एक अर्थ में देखा जाए तो यह महज नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के कारण चुप बैठे लोगों का उस समाज के प्रति मौन प्रत्युत्तर था, जिसने उन्हें लंबे समय से उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है। ऐसे में जाहिर तौर पर समाज आज समलैंगिक संबंधों को परोक्ष वैधता प्रदान करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से ठगा सा रह गया है।
मसले का एक पहलु ये है कि लैंगिक विभाजनों के संदर्भ में भारत में आए ये कुछ फैसले वास्तव में एक वैश्विक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में फिट न होने वाले लोगों के प्रति नजरिए में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। चर्च के भारी विरोध के बावजूद अमेरिका के अनेक प्रांतों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता दे दी गई है। लिंजी लोहान जैसे हॉलीवुड के कलाकारों, एल्टन जॉन जैसे संगीत के दिग्गजों और अन्य क्षेत्रों की समलैंगिक हस्तियों ने खुले आम अपने संबंधों को स्वीकार कर इस वर्ग के लोगों का खुल कर सामने आने को प्रेरित किया। विश्व के अनेक देशों में नियमित अंतराल पर गे परेड होने लगी हैं। कुछ देशों में तो हॉटेस्ट गे कपल और हॉटेस्ट लेस्बियन कपल जैसी प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। पश्चिमी दुनिया का यह संदेश धीरे-धीरे विकासमान देशों तक भी पहुंच रहा है। अब वह हमें चौंकाता नहीं। एक सौ पंद्रह देशों ने इन्हें मान्यता दे दी है और 80 देश अब भी इसके लिए तैयार नहीं हैं और सऊदी अरब, ईरान, यमन, सूडान तथा मॉरीतानिया में ऐसे संबंध बनाने वालों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है।
सच्चाई तो ये है कि समलैंगिता तो दूर, भारत में अभी तक विरपरीत लिंगियों के प्रेम को ही पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाकों में प्रेमी-प्रेमिका को फांसी पर लटकाने जैसी वीभत्स घटनाएं होती रहती हैं। ऑनर किलिंग भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आ रही है। ऐसे लोगों का समान लिंगी व्यक्तियों के प्रेम को स्वीकार करना कम से कम भारतीय समाज के लिए तो बेहद कठिन है। भले ही इसे कानूनी मान्यता मिल जाए और समलैंगिता में रुचि रखने वाले निडर हो जाएं, मगर समाज तो उन्हें हेय दृष्टि से ही देखेगा।
वस्तुत: समलैंगिता मूल रूप से मानसिक विकृति है। जब प्राकृतिक और सहज तरीकों से किसी के काम की पूर्ति नहीं होती तो वह उसके विकृत रूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अत: यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करे। समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मान कर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
७७४२०६७०००

रविवार, जुलाई 17, 2011

मंत्रीमंडल विस्तार के अर्थ निकालना बहुत कठिन

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से हाल ही किए गए मंत्रीमंडल में एक ओर जहां गुरुदास कामत के इस्तीफे की पेशकश और वीरप्पा मोइली व श्रीकांत जेला की नाराजगी से कांग्रेस के अंदर अंतरविरोध उभर आया है, वहीं विपक्षी दल इस कवायद को बेमानी साबित करने पर तुले हुए हैं। एक ओर जहां सिंह का यह कहना कि यह यूपीए-दो का अंतिम मंत्रिमंडलीय फेरबदल है, यह संकेत दे रहा है कि उनकी कुर्सी को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, लेकिन दूसरी ओर विस्तार में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के वफादारों को तवज्जो मिलने से यह भी साफ है सिंह आज भी कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। हालांकि इस विस्तार से इस तरह कि मीडियाई अटकलों से मुक्ति मिल गई है कि मनमोहन सिंह हटाए जा रहे हैं और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन रहे हैं, लेकिन इस पर यकीन करना कुछ कठिन ही प्रतीत हो रहा है। कुल मिला कर राजनीति के दिग्गज जानकार भी इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर इस विस्तार के क्या-क्या ठीक अर्थ हैं।
यह सही है कि सिंह को हटाए जाने और राहुल की ताजपोशी की अटकलों पर विराम दे कर देश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की दिशा में यह विस्तार काफी महत्वपूर्ण है। चारों ओर से घिरी सरकार के लिए यह संदेश देना जरूरी हो गया था। मगर पीछे के एजेंडे को समझना कठिन हो गया है। वस्तुत: यूपीए-2 की परफोरमेंस कमजोर रहने और विपक्ष की ओर से एक बार फिर मनमोहन सिंह को कमजोर व कठपुतली प्रधानमंत्री करार दिए जाने के कारण यह तय माना जा रहा था कि राहुल के लिए रास्ता बनाने के लिए इस विस्तार में राहुल के काफी चहेतों को स्थान देने की कोशिश की जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दूसरी ओर मनमोहन सिंह की भी व्यक्तिगत इच्छा चली हो, ऐसा भी नहीं दिखाई दे रहा है। केवल सोनिया दरबार की चली है। इसका परिणाम ये है कि विस्तार को सिंह के निस्तेज और अप्रभावी फेरबल के रूप में आंका जा रहा है।
इससे कम से कम ये तो साफ है कि सिंह के निस्तेज चेहरे और नवगठित मंत्रीमंडल के भरोसे तो कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव लडऩा काफी कठिन हो जाएगा। ऐसे में यह कयास अनपेक्षित नहीं होगा कि भले ही सिंह कुछ भी कहें, कांग्रेस राहुल के लिए कोई न कोइ रास्ता तो निकालेगी ही। यह भी साफ है कि ऐसा लुंजपुंज विस्तार गठबंधन की मजबूरी की वजह से नहीं, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक संरचना के चलते हुआ है। मनमोहन सिंह कितने मजबूर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपीए गठबंधन के घटक तृणमूल कांग्रेस से रेल राज्यमंत्री मुकुल राय ने रेल दुर्घटना के स्थल का दौरा करने से इंकार कर दिया। यह बात अलग है कि उनसे अब यह विभाग ले लिया गया है। विभाग बंटवारे से नाराज राज्यमंत्री गुरुदास कामत का इस्तीफा और श्रीकांत जैना का शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आना भी यही इशारा कर रहा है कि सिंह की लीडरशिप में दम नहीं है। वे विवादास्पद मंत्री जयराम रमेश को हटाने की बजाय उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने को मजबूर हुए, भले ही उन्हें पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया हो। अपनी कमजोरियों और असफलताओं को छिपाने के लिए जिस गठबंधन की मजबूरी का सिंह बार-बार हवाला देते रहे, वही मजबूरी अब भी कायम है।  तभी तो द्रमुक से संबंध बेहतर नहीं रह पाने के बावजूद उसके लिए दो सीटें खाली रखी हैं। गठबंधन की मजबूरी का एक और बड़ा सबूत ये कि तृणमूल अध्यक्ष ममता के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद रेल मंत्रालय तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट में जगह दी गई।
हालांकि मंत्रिमंडल को व्यापक कहा जा रहा है, लेकिन इसे अभी अधूरा ही माना जाएगा। इससे सिंह के इस बयान पर यकीन करना कठिन हो गया है कि यह आखिरी विस्तार है। मंत्रिमंडल के बहुचर्चित पुनर्गठन में मनमोहन सिंह ने 'चार बड़ों' वित्त, गृह, रक्षा और विदेश मामले को नहीं छुआ और दूरसंचार तथा नागर विमानन सहित चार मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार भी यथावत रहा। मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करने की कवायद अभी अधूरी इस कारण भी मानी गई है कि कपड़ा और जल संसाधन के अतिरिक्त प्रभार क्रमश: आनंद शर्मा और पीके बंसल को ही दिए गए हैं। शर्मा के पास वाणिज्य एवं उद्योग और बंसल के पास संसदीय मामले पहले से हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दूरसंचार का अतिरिक्त प्रभार संभाले हुए हैं, जबकि प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री वयालार रवि के पास नागर विमानन विभाग का अतिरिक्त प्रभार है। डीएमके के किसी प्रतिनिधि को राजा और मारन के स्थान पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। कुछ विभागों को अतिरिक्त प्रभार के तौर पर रखा गया है ताकि अगर डीएमके अपने प्रतिनिधि भेजना चाहे तो उन्हें मंत्रिमंडल में मुनासिब जगह दी जा सके।
कुल मिला कर ताजा मंत्रिमंडल विस्तार से न तो सरकार कोई संदेश दे पाई है और न ही सिंह की छवि में कोई सुधार हो पाया है। अंतिम बताए जाने के बाद भी विस्तार अधूरा ही है। राहुल के बढ़ते कदमों पर कुछ रोक जरूर दिखाई देती है, मगर वे ठहर जाएंगे और कांग्रेस हाईकमान फिर आगामी चुनाव सिंह के नेतृत्व में ही लड़े जाने  का साहस दिखा पाएगा, इस पर सहसा यकीन नहीं होता। लब्बोलुआब  इस विस्तार के ठीक-ठीक अर्थ निकाल पाना कठिन ही है।
 -तेजवानी गिरधर
tejwanig@gmail.com

रविवार, जुलाई 03, 2011

राहुल की ताजपोशी पर विवाद : कितना सही, कितना गलत?

नेहरू-गांधी खानदान के युवराज राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी की मांग करके कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर राजनीतिकों को विवाद और चर्चा करने का मौका दे दिया है। एक ओर जहां कांग्रेस के अंदरखाने में इस पर गंभीर चिंतन हो रहा है, वहीं विपक्षी दलों ने इसे परिवारवाद की संज्ञा देने साथ-साथ मजाक उड़ाना शुरू कर दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो बाकायदा सुनियोजित तरीके से एक तबका इस विषय पर हंसी-ठिठोली कर रहा है।
आइये, जरा गौर करें दिग्विजय सिंह के बयान पर। उनका कहना है कि राहुल अब 40 वर्ष के हो गये हैं और उनमें प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण और अनुभव आ गये हैं। सवाल ये उठता है कि क्या 40 साल का हो जाना कोई पैमाना है? क्या इतनी उम्र हो जाने मात्र से कोई प्रधानमंत्री पद के योग्य हो जाता है? जाहिर सी बात है उम्र कोई पैमाना नहीं है और सीधे-सीधे बहुमत में आई पार्टी अथवा गठबंधन को यह तय करना होता है कि वह किसे प्रधानमंत्री बनाए। तो फिर दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान क्यों दिया? ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा उन्होंने इस कारण कहा है कि पूर्व में जब उनका नाम उछाला गया था तो विपक्ष ने उन्हें बच्चा कह कर खिल्ली उड़ाई थी। तब अनुभव की कमी भी एक ठोस तर्क था। लेकिन अब जब कि वे संगठन में कुछ अरसे से काम कर रहे हैं, विपक्ष को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि उन्हें अनुभव नहीं है। उम्र के लिहाज से अब वे उन्हें बच्चा भी नहीं कर पाएंगे। और सबसे बड़ा ये कि जिस प्रकार विपक्ष ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी पीछे खींच लिया था, वैसा राहुल के साथ नहीं कर पाएंगे। ऐसे में हाल ही पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक नया पैंतरा खेला है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि कांग्रेस एक परिवार की जागीर हो गई है। ऐसा करके वे कांग्रेस में विरोध की सुगबुगाहट शुरू करना चाहते हैं। ऐसे प्रयास पूर्व में भी हो चुके हैं।
तार्किक रूप से आडवाणी की बात सौ फीसदी सही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस प्रकार परिवारवाद कायम रहना निस्संदेह शर्मनाक है। अकेले प्रधानमंत्री पर ही क्यों, यह बात केन्द्रीय मंत्रियों व  मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होती है। राजनीति में परिवारवाद पर पूर्व में भी खूब बहस होती रही है। मगर सच्चाई ये है कि कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। खुद भारतीय जनता पार्टी भी नहीं। कांग्रेस तो खड़ी ही परिवारवाद पर है। यदि बीच में किसी और को भी मौका दिया गया तो उस पर नियंत्रण इसी परिवार का ही रहा है। जब पी. वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने और सोनिया गांधी राजनीति में न आने की जिद करके बैठी थीं, तब भी बड़े फैसले वहीं से होते थे। मनमोहन सिंह को तो खुले आम कठपुतली ही करार दे दिया गया है। एक ओर यह कहा जाता है कि वे सर्वाधिक ईमानदार हैं तो दूसरी ओर सोनिया के इशारे पर काम करने के कारण सबसे कमजोर भी कहा जाता है। मगर तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि उन्हें कमजोर और आडवाणी को लोह पुरुष बता कर भी भाजपा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में उन्हें खारिज नहीं करवा पाई थी। तब भाजपा की  बोलती बंद हो गई थी। अब जब कि मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार व महंगाई के मामले उफान पर हैं, उन्हें नकारा माना जा रहा है। इसी मौके का फायदा उठा कर दिग्विजय सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री के योग्य बताने का राग अलाप दिया है। समझा जाता है कि कांग्रेस हाईकमान भी यह समझता है कि दूसरी बार उनके नेतृत्व में चुनावी वैतरणी पार करना नितांत असंभव है, इस कारण पार्टी में गंभीर चिंतन चल रहा है कि आगामी चुनाव से पहले पाल कैसे बांधी जाए। यूं तो मनमोहन सिंह के अतिरिक्त कुछ और भी योग्य नेता हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लायक हैं, मगर चूंकि डोर सोनिया गांधी के हाथ ही रहनी है तो उसकी भी हालत वही हो जाने वाली है, जो मनमोहन सिंह की हुई है। ऐसे में पार्टी के सामने आखिरी विकल्प यही बचता है कि राहुल को कमान सौंपी जाए। इसमें कोई दोराय नहीं कि परिवारवाद पर टिकी कांगे्रेस में अंतत: राहुल की ही ताजपोशी तय है, मगर पार्टी यह आकलन कर रही है कि इसका उचित अवसर अभी आया है या नहीं। इतना भी तय है कि आगामी चुनाव से पहले ही राहुल को कमान सौंप देना चाहती है, ताकि उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए। मगर अहम सवाल ये भी है कि क्या स्वयं राहुल अपने आपको इसके तैयार मानते हैं। देश में प्रधानमंत्री पद के अन्य उम्मीदवारों से राहुल की तुलना करें तो राहुल भले ही कांग्रेस जैसी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का नेता होने और गांधी परिवार से ताल्लुक रखने के कारण सब पर भारी पड़ते हैं, लेकिन यदि अनुभव और वरिष्ठता की बात की जाए तो वह पिछड़ जाते हैं। यदि उन्हें अपनी समझ-बूझ जाहिर करनी है तो खुल कर सामने आना होगा। ताजा स्थिति तो ये है कि देश के ज्वलंत मुद्दों पर तो उन्होंने चुप्पी ही साध रखी है। अन्ना हजारे का लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव का कालेधन के खिलाफ आंदोलन, इन दोनों पर राहुल खामोश रहे। इसके बावजूद यह पक्का है कि यदि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने चमत्कारिक परिणाम दिखाये तो फिर प्रधानमंत्री पद राहुल के लिए ज्यादा दूर नहीं रहेगा। रहा मौलिक सवाल परिवारवाद का तो यह आम मतदाता पर छोड़ देना चाहिए। अगर राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव लड़ती है तो जाहिर है कि विपक्ष परिवारवाद के मुद्दे को दमदार ढंग से उठाएगा। तब ही तय होगा कि लोकतंत्र में सैद्धांतिक रूप से गतल माने जाने वाले परिवारवाद की धरातल पर क्या स्थिति है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

बुधवार, जून 29, 2011

अन्ना हजारे की अक्ल आ गई ठिकाने

सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसने वाले, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताने वाले और मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की सरकार बताने वाले गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की अक्ल ठिकाने आ ही गई। वे समझ गए हैं कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जंतर-मंतर पर अनशन करने से माहौल जरूर बनाया जा सकता है, लेकिन कानून जंतर-मंतर पर नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जा सकेगा। कल जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर अब उन्हें समझ में आ गया है कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण अब वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे हैं, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। मगर आज हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे हैं कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है?
इतना ही नहीं, जनता के इस सबसे बड़े हमदर्द की हालत देखिए कि कल तक वे जनता को मालिक और चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का नौकर करार दे रहे थे, आज उन्हीं नौकरों की दहलीज पर मालिकों के सरदार सिर झुका रहे हैं। तभी तो कहते है कि राजनीति इतनी कुत्ती चीज है कि आदमी जिसका मुंह भी देखना पसंद करता, उसी का पिछवाड़ा देखना पड़ जाता है। ये कहावत भी सार्थक होती दिखाई दे रही है कि वक्त पडऩे पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
आइये, अब तस्वीर का एक और रुख देख लें। जाहिर सी बात है कि विपक्षी नेताओं से मिलने के पीछे अन्ना का मकसद ये है कि यदि उनका सहयोग मिल गया संसद में उनकी आवाज और बुलंदी के साथ उठेगी। मगर अन्ना जी गलतफहमी में हैं। माना कि सरकार को अस्थिर करने के लिए, कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी नेता अन्ना को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं, मगर जब बात सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने की आएगी तो भला कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। यह तो गनीमत है कि अन्ना जी जिस मुहिम को चला रहे हैं, उसकी वजह से उनकी जनता में इज्जत है, वरना वे ही राजनीतिज्ञ बदले में उनको भी दुत्कार कर भगा सकते थे कि पहले सभी को गाली देते थे, अब हमारे पास क्यों आए हो?
जरा अन्ना की भाषा और शैली पर भी चर्चा कर लें। सभी सियासी लोगों को भ्रष्ट बताने वाले अन्ना हजारे खुद को ऐसे समझ रहे हैं कि वे तो जमीन से दो फीट ऊपर हैं। माना कि सरकार के मंत्री समूह से लोकपाल बिल के मसौदे पर मतभेद है, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि आप चाहे जिसे जिस तरह से दुत्कार दें। खुद को गांधीवादी मानने वाले और मौजूदा दौर का महात्मा गांधी बताए जाने पर फूल कर कुप्पा होने वाले अन्ना हजारे को क्या ये ख्याल है कि गांधीजी कभी घटिया भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। उनके सत्य-आग्रह में भाषा का संयम भी था। यदि कभी संयम खोया भी होगा तो उनकी मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ थी, इस कारण उसे जायज ठहराया जाता सकता है। मगर अन्ना ने तो मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की ही सरकार बता दिया। ऐसा कह के उन्होंने अनजाने में पूरी जनता को काले अंग्रेज करार दे दिया है। जब ये सरकार हमारी है और हमने ही बनाई है तो इसका मतलब ये हुआ कि हम सब भी काले अंग्रेज हैं। मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है। कल हमें पसंद नहीं आएगी तो हम दूसरों को मौका दे देंगे। पहले भी दे ही चुके हैं। सरकार से मतभेद तो हो सकता है, मगर उसके चलते उसे अंगे्रज करार देना साबित करता है कि अन्ना दंभ में आ कर भाषा का संयम भी खो बैठे हैं। असल बात तो ये है कि वे दूसरी आजादी के नाम पर जाने-अनजाने देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं।
वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे, मगर अब जब बात नहीं बनी तो उन्हें ही सोनिया की कठपुतली करार दे रहे हैं। हालांकि यह सर्वविदित है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में है, उसमें ऐतराज भी क्या है, फिर गठबंधन का अध्यक्ष होने का मतलब ही क्या है, मगर अन्ना को अब जा कर समझ में आया है। तभी तो कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो सीधे और ईमानदार आदमी हैं लेकिन रिमोट कंट्रोल (सोनिया गांधी) समस्याएं पैदा कर रहा है। कल उन्हें आरएसएस का मुखौटा बताए जाने पर सोनिया से ही उम्मीद कर रहे थे कि वह कांग्रेसियों को ऐसा कहने से रोकें और आज उसी सोनिया से नाउम्मीद हो गए।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी। कम से कम अन्ना एंड कंपनी तो नहीं। यदि संसद नहीं मानती तो उसका कोई चारा नहीं है। ऐसे में यदि वे 16 अगस्त से फिर अनशन करते हैं तो वह संसद के खिलाफ कहलाएगा। सरकार की ओर से तो इशारा भी कर दिया गया है। उनके अनशन के हश्र पर ही टिप्पणियां आने लगी हैं। खैर, आगे-आगे देखिए होता है क्या?
आखिर में एक बात और। जब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

शनिवार, जून 18, 2011

राजनीति की भेंट चढ़ गया बाबा रामदेव का आंदोलन

गांधीवादी अन्ना हजारे के सफल अनशन के बाद योग गुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सफलता का किनारा छूते-छूते राजनीति के गर्त में डूब गया। बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर जाहिर तौर पर व्यापक विरोध प्रदर्शन अब भी देशभर में जारी है, मगर सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बाबा की नब्बे फीसदी मांगों पर सहमति के बाद भी सरकार पुलिस कार्यवाही करने को मजबूर हो गई और बाद में जारी अनशन को तुड़वाने में सरकार ने कोई रुचि नहीं ली?
सक्रिय राजनीति में संतों की भागीदारी कितनी उचित?
वस्तुत: मौलिक सवाल ये उठा कि क्या किसी संन्यासी अथवा योग गुरू को सक्रिय राजनीति करनी चाहिए, लेकिन इसे यह तर्क दे कर नकार दिया गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना-रोकना ठीक नहीं है। इस सिलसिले में कहावत का उल्लेख प्रासंगिक लगता है, और वह ये कि कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। कमोबेश इसी स्थिति से बाबा रामदेव को गुजरना पड़ गया। अगर इतिहास पर नजर डालें तो संतों का राजनीति में आना सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी उनका राजनीति करना खास सफल नहीं हो पाया है। बाबा रामदेव से पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। ठीक इसी प्रकार न केवल बाबा का आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया, अपितु वे खुद भी विवादास्पद हो गए। कहां तो पूर्व में राजनेता उनके यहां आशीर्वाद लेने को आतुर रहते थे और कहां अब आरोपों की बौछार हो रही है।
भाजपा व आरएसएस का समर्थन पड़ गया भारी
इसके कारणों पर नजर डालें तो कदाचित इसकी एक वजह ये समझ में आती है कि वे राजनीति की डगर पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल पड़े। आंदोलन की शुरुआत में ही उनकी ओर से की गई यह घोषणा कि सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे अपनी पार्टी बना कर उसे चुनाव मैदान में उतारेंगे। गुरू तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यम्भावी हो जाता है। व्यवस्था और सरकार की आलोचना करते-करते जब उनके प्रहार सीधे कांग्रेस पर ही होने लगे तो प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें ढोंगी ही करार दे दिया। जहां तक भाजपा का सवाल है, वह पहले तो देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों से अपने आपको अलग की रखे रही, लेकिन जैसे ही वे अनशन पर उतारू हो गए तो भाजपा व आरएसएस को लगा कि वे उनकी जमीन ही खिसका देंगे, इस कारण मजबूरी में समर्थन दे दिया। बाबा भी सहर्ष उस समर्थन को लेने को तैयार हो गए। बस यहीं गड़बड़ हो गई। बाबा रामदेव से गलती ये हुई कि वे अन्ना हजारे की तरह अपने आंदोलन को राजनेताओं से बचा नहीं पाए और जमाने में देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाली साध्वी ऋतम्भरा को ही मंच पर बैठा दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि बाबा को भाजपा का मुखौटा होने का आरोप सहना पड़ा।
इसलिए बदल गई आंदोलन की दिशा
जहां तक उनके आंदोलन के कामयाब होते-होते बिखर जाने का सवाल है, बाबा सरकार से नब्बे प्रतिशत मांगों पर सहमति हासिल करने और अनशन समाप्त करने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी अज्ञात कारणों से डटे रहे। खुद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि दूसरे दिन बड़ी तादात में उनके समर्थक अनशन स्थल पर आएंगे। ऐसे में सरकार उनकी मंशा के प्रति आशंकित हो गई और मात्र योग कराने की अनुमति होने और समर्थकों की अधिकतम संख्या पांच हजार होने की शर्त का बहाना बना कर पुलिस कार्यवाही कर बैठी। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार ने आखिर किस वजह से जानते-बूझते हुए भी दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया।
और इस प्रकार घटा ली अपनी प्रतिष्ठा
बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने की सर्वत्र भत्सर्ना हो रही है, लेकिन साथ ही बाबा की कुछ त्रुटियां भी चर्चा में हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोते दिखाई दिए तो दूसरी ओर खुद महिलाओं के कपड़े पहन कर दो घंटे तक अनशन परिसर में दुबके रहे। इतना ही नहीं वहां से भागने का प्रयास भी किया। इसमें भी चतुराईपूर्ण दंभ प्रकट किया। इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से कर बैठे। एक ओर सरकार की तानाशाही के लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते रहे तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से सरकार को माफ भी कर दिया। कैसी विडंबना रही एक ओर तो अत्याचार को लेकर पूरा देश आक्रोश में रहा, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। बाबा को अन्ना हजारे से तुलना करके भी देखा जा रहा है कि वे कई बार बड़बोलापन कर जाते हैं, जबकि अन्ना संयत हो कर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनकी कुछ मांगों ने भी लोगों को यह चर्चा करने का मौका दे दिया कि उन्हें कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की पूरी समझ नहीं है और बाल हठ करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा देने, बड़े नोट समाप्त करने, तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगों पर अड़ रहे हैं।
कुल जमा एक पवित्र मकसद के लिए कामयाबी के निकट पहुंचा आंदोलन फिस्स हो गया। इसकी प्रमुख वजह की ओर अन्ना का ये इशारा कुछ समझ में आता है कि वे भले ही शीर्षस्थ योग गुरू हैं, मगर उनमें आंदोलन चलाने की राजनीतिक व कूटनीतिक समझ नहीं है।
-गिरधर तेजवानी

बुधवार, जून 08, 2011

क्या बाबा रामदेव खुद को भी माफ कर पाएंगे?

आज जब कि बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है, जो कि उचित ही प्रतीत होता है, खासकर के प्रमुख विपक्षी दल भाजपा के लिए तो बेहद जरूरी, मगर ऐसे में अनेक ऐसी बातें दफन हो गई हैं, जिन पर भी विचार की जरूरत महसूस करता हूं।
असल में हुआ ये है कि पुलिस की कार्यवाही इतनी ज्यादा हाईलाइट हुई है, मीडिया द्वारा की गई है, कि इस पूरे मसले से जुड़े अनेक तथ्य सायास हाशिये पर डाल दिए गए हैं। अगर किसी को समझ में आ भी रहे हैं तो केवल इसी कारण नहीं बोल रहा कि कहीं उसकी बात वक्त की धारा के खिलाफ न मान ली जाए। कि कहीं उसे कांग्रेसी विचारधारा न मान लिया जाए। कि उसे आज के सबसे अहम और जरूरी भ्रष्टाचार के मुद्दे का विरोधी न मान लिया जाए।
हालांकि मैं जानता हूं कि इस लेख में जो सवाल खड़े करूंगा, उनसे बाबा रामदेव के भक्तों और हिंदूवादियों को भारी तकलीफ हो सकती, मगर सत्य का दूसरा चेहरा भी देखना जरूरी है। चूंकि बाबा रामदेव का आंदोलन एक पवित्र उद्देश्य के लिए है, चूंकि वे एक संन्यासी हैं, चूंकि उन्होंने हमारे लिए आदरणीय भगवा वस्त्र पहन रखे हैं, चूंकि उनका कोई स्वार्थ नहीं है, इस कारण उनकी ओर से की गई सारी हरकतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
वस्तुत: जब ये सवाल उठा कि बाबा को केवल अपने योग पर ही ध्यान देना चाहिए और राजनीति के पचड़े में नहीं पडऩा चाहिए, यह तर्क दे कर उसे नकारा गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना ठीक नहीं है। बात ठीक भी लगती है, मगर जो बाबा एक बार सारी राजनीतिक पार्टियों को गाली बक कर अपनी नई पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके हैं, तो उन्हें भी उसी प्रकार आलोचना के लिए तैयार रहना होगा, जैसे ही अन्य राजनेता सहज सहन करते हैं। मगर दिखाई ये दिया कि उनके भक्त अथवा कुछ और लोग भगवा के सुरक्षा कवच पर प्रहार बर्दाश्त नहीं कर पा रहे।
चलो, बाबा की एक ताजा तरीन हरकत से बात शुरू करते हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोने का नाटक करते हैं और पुलिस की बजाय उसे संचालित करने वाली सरकार और यहां तक सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते हैं तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से माफ भी कर देते हैं। अव्वल तो उनसे माफी मांगी ही किसने जो उन्होंने माफ कर दिया। उन्हें ये गलतफहमी कैसे हो गई कि वे सरकार से भी ऊंचे हैं। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो उनके समर्थकों पर अत्याचार को लेकर भाजपा सहित पूरा देश आक्रोश में है, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। यानि मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त। यानि उनका साथ देने वाले बेवकूफ हैं। इससे तो यह साबित होता है कि उनका कोई स्टैंड ही नहीं है। वे पल-पल बदलते हैं। एक ओर लोगों को योग के जरिए चित्त वृत्ति निरोध: का उपदेश देते हैं तो दूसरी ओर अपना चित्त ही स्थिर नहीं रख पा रहे। स्थिर रखना तो दूर, वैसे ही उद्वेलित होते हैं, जैसे आम आदमी होता है। जरा तुलना करके देखिए बाबा और अन्ना की भाषा का। आप देख सकते हैं लगातार टीवी चैनलों के केमरों से घिरे बाबा का। देशभक्ति के नाम पर जो मन में आ रहा है, बक रहे हैं, जबकि अन्ना हजारे ठंडे दिमाग से तर्कपूर्ण बात करते दिखाई देते हैं। बाबा देशभक्ति के नाम पर उत्तेजना फैला कर अपने आपको जबरन 120 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि बताते हैं। इससे तो यही साबित होता है कि दंभ से भरे हुए बाबा योगाचार्य नहीं, बल्कि मात्र योगासनाचार्य और आयुर्वेदाचार्य हैं। व्यवहार से वे अपरिपक्व भी नजर आते हैं। दूसरी ओर गांधीवादी अन्ना खुद तो परिपक्व हैं ही, उनके साथी भी तार्किक और बुद्धिमान।
खैर, सवाल ये है कि सरकार को माफ करने वाले बाबा क्या खुद को कभी माफ कर पाएंगे? बेशक सरकार ने जो तरीका अपनाया, वह दुर्भाग्यपूर्ण था, मगर बाबा ने जो हरकतें कीं, वे उनके समर्थकों के लिए एक सदमे से कम नहीं हैं। चूंकि वे अपने भक्तों के लिए भगवान तुल्य हैं, इस कारण उनकी आलोचना करने में जरा हिचक होती है, मगर प्रश्न ये है कि अनशन और सत्याग्रह के नाम पर हजारों समर्थकों को एकत्रित करने वाले बाबा मौत से इतना घबरा गए कि खुद औरतों के कपड़े पहन कर महिलाओं के बीच दो घंटे तक दुबक कर बैठे रहे। इतना ही नहीं मौका पा कर भागने की भी कोशिश की। कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि महिलाओं के पिटने पर रोने का नाटक करने वाले बाबा खुद महिलाओं पिटता देख दुबके रहे। खुद की सुरक्षा की इतनी चिंता कि स्वयं उन्होंने महिलाओं से अपील की कि वे उनके चारों ओर सुरक्षा घेरा बना लें। ऐसा करके उन्होंने अपने आपको शिखंडी तक साबित कर दिया।
असल में अनशन का अर्थ होता ही ये है कि व्यक्ति अपने उद्देश्य के प्रति इतना अडिग है कि मौत को भी गले लगाने को तैयार है। तो फिर वे मौत से इतना जल्दी कैसे घबरा गए? ऐसे में उनका सत्याग्रह दो कौड़ी का साबित हो गया। मजे की बात देखिए कि इस पर वे कितना बचकाना जवाब देते हैं कि वे देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की रक्षा करने को मजबूर थे। जरा दंभ देखिए कि इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से करते हैं, जबकि वे उनके चरणों की धूल भी नहीं हैं। एक बिंदु ये भी है कि वे ये आरोप लगा रहे हैं कि उनको मार देने का षड्यंत्र था। एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है कि यह आरोप कितना थोथा है।
चलते रस्ते एक बात और भी कर लें। अनशन स्थल पर अचानक धारा 144 लागू करने और पांडाल में आंसू गैस छोडऩे की कानूनी विवेचना करने वाले ये भूल जाते हैं कि बाबा को योग करने के लिए अनुमति दी गई थी, वो भी अधिकतम पांच हजार लोगों के लिए, मगर वे वहां अनशन और आंदोलन पर उतारू हो गए और साथ ही हजारों लोगों को एकत्रित कर लिया। यदि पुलिस कानून-कायदों को ताक पर रख कर अत्याचार करने पर आलोचना की पात्र है तो बाबा भी कानून को धोखा देने पर निंदा के पात्र होने चाहिए। मगर नहीं, चूंकि वे एक पवित्र उद्देश्य के लिए ऐसा कर रहे थे, इस कारण इस बारे में चर्चा मात्र को पसंद नहीं किया जा रहा। पुलिस अत्याचार पर कानून की दुहाई देने वाले बाबा पुलिस अधिकारी की फीत उतारने वाली महिलाओं को बहादुर बता कर कौन से कानून की हिमायत कर रहे हैं? और अगर महिलाओं तक ने ये हरकत की है तो पुलिस ने भी ठोक दिया तो क्या गलत कर दिया। और सबसे अहम सवाल ये कि क्या योग के नाम पर जमा लोगों को तो पता नहीं था कि वे आंदोलन करने को जुटे हैं, वहां कोई लड्डू थोड़े ही बंटने वाले हैं।
एक उल्लेखनीय बात देखिए, सोते हुए लोगों, बेचारी महिलाओं पर अत्याचार की बात चिल्ला-चिल्ला कर कहने वाले ये तर्क देते हैं कि उन निहत्थे और निरीह लोगों से क्या खतरा था, मगर उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि क्या भीड़ का भी कोई धर्म होता है? उनके पास इस बात का जवाब है क्या कि बाबा ने दूसरे दिन और ज्यादा लोगों को निमंत्रित क्यों किया था? और कानून-व्यवस्था बिगड़ती तो कौन जिम्मेदार होता? क्या इस बात को भुला दिया जाए कि जिस विचारधारा वालों का समर्थन हासिल कर आंदोलन को बाबा आगे बढ़ा रहे हैं, उन्होंने बाबरी मस्जिद मामले में सरकार और कोर्ट को आश्वस्त किया था, मगर फिर भी बाबरी मस्जिद तोड़ दी। और मजे की बात ये है कि यह कह कर अपना पल्लू झाड़ लिया कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। सवाल ये उठता है कि उसी किस्म के लोग जब ज्यादा तादात में वहां जमा होते और कुछ कर बैठते तो उसके लिए कौन जिम्मेदार होता? बाबा तो कह देते कि उन्होंने कुछ नहीं किया, भीड़ बेकाबू हो गई थी। और ये सच भी है कि भीड़ जुटा लेना तो आसान है, पर उस पर नियंत्रण खुद उनके नेताओं का नहीं रह पाता है।
एक अहम बात और। शुरू से उन पर ये आरोप लग रहा था कि वे आरएसएस व भाजपा की कठपुतली हैं तो वे क्यों कर अपने आपको निष्पक्ष बताते हुए कांग्रेस सहित सभी पार्टियों को समान बता रहेे थे? मुद्दे को समर्थन देने के नाम पर आगे आई भाजपा को यह कह समर्थन लेने से क्यों इंकार नहीं किया कि उनका आंदोलन दूषित हो जाएगा? आंदोलन के पहले ही दिन उन्होंने किसी वक्त देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाले साध्वी ऋतम्भरा को पास में कैसे बैठा लिया? ऐसे में आंदोलन का दूसरा दिन किस ओर जाने वाला था, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यदि उनमें जरा भी निष्पक्षता होती तो भाजपा को उनके मामले न पडऩे की कहते। जब पूरे देश के कुल गांवों की संख्या गिना कर वहां अपने समर्थक होने का दंभ भरते हैं तो उन्हीं के भरोसे रह लेते। लोग अभी नहीं भूले हैं अन्ना के अनशन वाली बात, जिसमें साध्वी उमा भारती व अन्य नेताओं को अन्ना के समर्थकों ने ही खदेड़ दिया था। यही फर्क है बाबा व अन्ना में।
 अब जरा बात कर लें बाबा की मांगों की। उनकी अधिकतर मांगें, ऐसी हैं जो जाहिर करती हैं कि बाबा को कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की कितनी समझ है। वे मांग कर रहे हैं कि आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दो, अब बाबा को कौन समझाए कि दुनिया में हिंसा करने वालों तक को फांसी की सजा नहीं दिए जाने पर चर्चा हो रही है और वे ऐसी बचकानी मांग कर रहे हैं। फिर बड़े नोट समाप्त करने की मांग भी ऐसी ही बाल हठ जैसी है। ये तो अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं कि यह संभव और व्यावहारिक भी है या नहीं। सीधे प्रधानमंत्री का चुनाव और तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगें भी हवाई ही हैं। रहा सवाल विदेशी बैंकों में जमा काले धन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने का तो भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर आंदोलन करने वाले अन्ना हजारे और उसके विधि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि यह आसान नहीं है और इसमें काफी वक्त लगेगा। चाहे सरकार कांग्रेस की हो या किसी और की, क्या उसमें इतनी ताकत है कि इसका आदेश एक पंक्ति में जारी कर दे?
सवाल ये उठता है कि जब आपको कुछ समझ ही नहीं है तो आप क्यों कर योग सीखने आए अथवा अपना इलाज करवाले आए लोगों को बेवकूफ बना कर फोकट नारे लगवा कर आंदोलित कर रहे हैं। खुद को गांधी के बराबर कहलवाने को आतुर बाबा को पता भी है कि गांधी जी गाधी जी कितना पढ़े थे, कितने योग्य थे, उनके प्रशंसक किस श्रेणी के लोग थे? भला कौन बाबा को समझाएगा कि भले ही आपको राजनीति करने का अधिकार है, मगर उसके लिए आपको विश्व की राजनीतिक स्थिति, वैदेशिक नियम और परस्पर संधियों, प्रोटोकोल आदि को समझना होगा। चलो ये मान भी लिया जाए कि आपको भले ही जानकारी नहीं है, मगर आपका उद्देश्य तो पवित्र है, तो क्या वजह है कि इसी मुद्दे पर संघर्ष कर रहे अन्ना हजारे में मंच पर नाच कर नौटंकी करने के बाद भी आप उनसे अलग ढपली बजाने लग गए। इतना ही आपने तो सिविल सोसायटी की हवा निकालने तक की बचकाना हरकत भी की।
आखिर में एक बात और। बाबा रामदेव ने भगवा कपड़े में राजनीति करके भले ही अपने संवैधानिक अधिकार का उपयोग किया हो, मगर असल में उन्होंने इन्हीं भगवा कपड़ों को कलंकित करने की कोशिश की है। बाबा की हरकतों के बाद अब कोई सच्चा योग गुरु भी शक की नजर से देखा जाएगा।
अब जरा बाबा के प्रमुख सहयोगी आचार्य बालकृष्ण की भी थोड़ी चर्चा कर ली जाए। एक ओर बाबा कह रहे थे कि बालकृष्ण किसी मिशन पर हैं, इस कारण सामने नहीं आ रहे, जबकि बाद में स्वयं बालकृष्ण ने सामने आने पर फूट-फूट कर रोते हुए बताया कि वे गिरफ्तारी के डर से बचने के लिए भटक  रहे थे। कैसा बहादुर सेनापति रखा है बाबा ने। देश भक्ति और देश को विश्व गुरू बनाने की मुहिम में जुटे बाबा व उनके सहयोगी की ये कैसी बहादुरी है कि गिरफ्तारी मात्र से घबरा रहे हैं। फूट-फूट कर रो रहे सो अलग। कहते हैं कि मैने तो सुना मात्र था कि पुलिस बर्बरता करती है, लेकिन देखा पहली बार। हो लिया ऐसे रोवणे देशभक्तों के रहते देश का कल्याण।
मैं यहां साफ कर देना चाहता हूं कि मैंने केवल तस्वीर के दूसरे रुख को ही प्रस्तुत किया है। एक रुख पर तो भेड़ चाल की तरह खूब चर्चा हो रही है। समझदार व नासमझ, सभी एक ही सुर में बोल रहे हैं। इसका मतलब ये कत्तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि पहले रुख से मेरा कोई सरोकार नहीं है या फिर मैं देशभक्ति, भ्रष्टाचार आदि विषयों पर बाबा व अन्ना से इतर राय रखता हूं। यद्यपि तस्वीर का दूसरा रुख तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश की है, पर मुझे साफ दिखाई दे रहा है कि दिमाग से नहीं बल्कि केवल दिल से हर बात को देखने वालों को ये बातें गले नहीं उतरेंगी। उलटे गुस्सा भी आ सकता है। मैं उन सभी से माफी मांगते हुए उम्मीद करता हूं कि इस लेख को दुबारा तार्किक बुद्धि से पढ़ेंगे। इसके बाद भी लानत देते हैं तो मुझे वह स्वीकार है।