तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, जनवरी 23, 2013

राजनाथ की ताजपोशी से वसुंधरा की मुश्किल बढ़ी


हालांकि यह लगभग तय है कि राजस्थान में भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को आगे रख कर ही चुनाव लडऩे को मजबूर है, मगर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राजनाथ सिंह के काबिज होने के बाद समीकरणों में कुछ बदलाव आया है। लगता यही है कि वसुंधरा को संघ के साथ समझौते में जिनती आसानी नितिन गडकरी के रहते होती, उतनी राजनाथ सिंह के रहते नहीं होगी। यानि कि संघ लॉबी अब बंटवारे में पहले से कहीं अधिक सीटें हासिल कर सकती है।
वस्तुत: राजनाथ सिंह व वसुंधरा राजे के संबंध कुछ खास अच्छे नहीं रहे हैं। आपको याद होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय होने की जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर ने तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे की बात आई तो वसुंधरा ने इससे इंकार कर दिया था। तब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था। आखिरकार वसुंधरा को पद छोडऩा पड़ा था। यह बात दीगर है कि उसके बाद तकरीबन एक साल तक यह पद खाली पड़ा रहा और उसे फिर से वसुंधरा को ही सौंपना पड़ा। लब्बोलुआब वसुंधरा के प्रति जितना सॉफ्टकोर्नर गडकरी का रहा, उतना राजनाथ सिंह का नहीं रहेगा। राजनाथ सिंह व वसुंधरा के संबंधों पर रामदास अग्रवाल का यह बयान काफी मायने रखता है कि सिंह में पार्टी हित में कठोर निर्णय लेने की क्षमता है। उन्होंने नेता प्रतिपक्ष से वसुंधरा राजे का इस्तीफा ले लिया था। गलती पर जसवंत सिंह तक को बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं हिचके।
राजनाथ सिंह के दरबार में वसुंधरा की कितनी अहमियत है, इसका अंदाजा इस बात से भी होता है कि एक ओर जहां वे औपचारिक रूप से उनसे मिलने और पदग्रहण समारोह में शामिल होने के बाद जल्द ही जयपुर लौट आईं, जबकि संघ लॉबी के रामदास अग्रवाल, घनश्याम तिवाड़ी और अरुण चतुर्वेदी दिल्ली में ही डटे रहे।
इसके अतिरिक्त राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने से प्रदेश में भाजपा संगठन और संघ से जुड़े नेता और मजबूत होंगे। राजनाथ सिंह के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी से कैसे संबंध हैं, इसका अंदाजा उनके इस बयान से लगाया जा सकता है कि उन्होंने ही उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया। वे युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, तब कार्यकारिणी में उन्हें लिया था। ऐसे में प्रदेश अध्यक्ष संघनिष्ठ खेमे का बनना तय माना जा रहा है। हां, इतना जरूर संभव है कि सिंह के लिए यह मजबूरी हो कि सत्ता में आने के लिए वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने पर मजबूर होना पड़े।
भाजपा का सत्ता में आना कुछ आसान
राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने एक असर ये भी होता दिखाई दे रहा है कि यहां भाजपा के लिए सत्ता की सीढ़ी चढऩा कुछ आसान हो सकता है। इसकी वजह ये है कि किरोड़ी लाल मीणा से सिंह के अच्छे संबंध रहे हैं। और इसी कारण माना ये जा रहा है कि वसुंधरा की गलती से भाजपा से दूर हुए मीणा विधानसभा चुनाव होने से पार्टी में वापस लाए जा सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह भाजपा के लिए काफी सुखद होगा। यहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि वसुंधरा की हार की वजूआत में एक प्रमुख वजह मीणा की नाराजगी भी थी।
-तेजवानी गिरधर

कल्याण सिंह को थूक कर फिर चाट लिया भाजपा ने


भाजपा ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को एक बार फिर थूक कर चाट लिया है। उनकी वापसी बड़े जोर-शोर से हुई है, तभी तो लखनऊ में आयोजित रैली में बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी शामिल हुए।
ज्ञातव्य है कि कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी तीसरी बार हुई है। बेशक 1990 के दशक में कल्याण सिंह का खासा दबदबा था। भाजपा भी काफी मजबूती से उभरी, मगर नेताओं की आपसी खींचतान के चक्कर में कल्याण बाहर हो गए और उसका फायदा समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने उठाया, क्योंकि पिछड़े वर्ग के लोधी वोटों में उन्होंने सेंध मार ली। अब हालत ये है कि लोधी वोट पार्टी से काफी दूर जा चुके हैं। हालत ये है कि कल्याण सिंह की जगह लोधी वोटों को खींचने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव में फायर ब्रांड नेता उमा भारती को कमान सौंपी गई, मगर वे भी कुछ नहीं कर पाईं। कहने की जरूरत नहीं है कि ये उमा भारती भी थूक कर चाटी हुई नेता हैं। अब जब कि कल्याण सिंह को फिर से गले लगाया गया है, यह सोचने का विषय है कि क्या अब भी वे कारगर हो सकते हैं? क्या अब भी उनकी लोधी वोटों पर उतनी ही पकड़ है, जितनी पहले हुआ करती थी? यह सवाल इसलिए वाजिब है क्योंकि कल्याण सिंह अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद खारिज किए जा चुके हैं।
आइये, जरा समझें कि कल्याण सिंह का सियासी सफर कैसा रहा है।  कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने साल 1962 में राजनीतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से प्रेरित होकर राजनीति में प्रवेश किया। वे 1967, 1969, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996 और 2002 में यानी दस बार विधायक चुने गए। बीजेपी में रहते हुए वो दो बार 1991 और 1997 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। बीजेपी से नाराज होकर कल्याण सिंह ने 1999 में अपने 77वें जन्मदिन पर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी नाम से एक नई पार्टी बनाई। साल 2002 का विधानसभा चुनाव बीजेपी और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था। यही वह चुनाव था जहां से उत्तर प्रदेश में बीजेपी का ग्राफ गिरना शुरू हुआ। बीजेपी की सीटों की संख्या 177 से गिरकर 88 हो गई। प्रदेश की 403 सीटों में से 72 सीटों पर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने दावेदारी ठोकी थी और इन्हीं सीटों पर बीजेपी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा। नतीजा कल्याण की घर वापसी की कोशिशें शुरू हुईं और 2004 में कल्याण बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद 2007 में विधानसभा चुनाव में कल्याण की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कल्याण के नेतृत्व में बीजेपी को सिर्फ 51 सीटें हासिल हुईं। 2009 में कल्याण का बीजेपी से फिर मोहभंग हुआ और उन्होंने मुलायम सिंह से दोस्ती कर ली। अपने बेटे राजवीर सिंह को उन्होंने सपा का राष्ट्रीय पदाधिकारी भी बनवा दिया, लेकिन ये दोस्ती भी ज्यादा नहीं टिकी। 2012 में कल्याण ने अपनी एक और पार्टी जन क्रांति पार्टी बना ली। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में उनकी पार्टी के हाथ कुछ नहीं लगा। उधर, बीजेपी भी महज 47 सीटों पर सिमट गई।
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक कल्याण और बीजेपी की इसी मजबूरी ने इन्हें दोबारा दोस्त बनाया है। कल्याण सियासत की दुनिया में गुमनाम हो चले थे। बीजेपी भी लाख कोशिशों के बावजूद यूपी में तीसरे नंबर पर सरक गई है। ऐसे में उसे यूपी में एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर सके। उधर कल्याण सिंह के पास भी विकल्प नहीं था। उनकी पार्टी यूपी में अपना आधार नहीं बना सकी। ऐसे में कल्याण सिंह और बीजेपी दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। खास बात ये है कि कल्याण की बीजेपी में वापसी को लेकर फायर ब्रांड नेता उमा भारती काफी सक्रिय रहीं। दोनों नेताओं की जुगलबंदी बीजेपी को यूपी में पुरानी स्थिति में ना सही, एक सम्मानजनक स्थिति में भी ला सकी तो पार्टी का मकसद हल हो जाएगा।
असल में भाजपा जानती है कि उसे अगर लोकसभा चुनाव में सशक्त रूप से उभरना है तो उत्तर प्रदेश पर ध्यान देना ही होगा। हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में जरूर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी कुछ कर नहीं पाए, क्योंकि वोटों का धु्रवीकरण बसपा से सपा की ओर हो गया, मगर अब जब राहुल ने ही कांग्रेस की कमान संभाल ली है तो जाहिर सी बात वे उत्तरप्रदेश पर जरूर ध्यान देंगे और वह कारगर भी हो सकता है। उन्हीं का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने खारिज किए जा चुके कल्याण सिंह को गले लगाया है। समझा जाता है कि कांग्रेस व भाजपा की इस नई गतिविधि का कुछ तो असर होगा ही क्योंकि विधानसभा चुनाव के फैक्टर अलग होते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव के अलग। लोकसभा चुनाव में मतदाता की सोच राष्ट्रीय हो जाती है। ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि दोनों दल मतदाताओं के अपनी-अपनी ओर कितना खींच पाते हैं।
-तेजवानी गिरधर