तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, जनवरी 17, 2025

जिस अंग का दान करेंगे, उसका अगले जन्म में अभाव होगा?

जैसे धन दान व रक्त दान की महिमा है, ठीक वैसे ही अंग दान की उससे भी ज्यादा महत्ता है। इन दिनों अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं जो अंग दान के लिए शपथ पत्र भरवा रही हैं। इसे बहुत पुनीत कार्य समझा जाता है। हमारे किसी अंग के दान से अगर किसी के जीवन में उजियारा आता है, किसी की जिंदगी बेहतर होती है, तो इससे बेहतर पुण्य कार्य क्या हो सकता है? मगर इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं, जो अंग दान के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि इस जन्म में हम जिस अंग का दान करेंगे, अगले जन्म में उसका अभाव हो जाएगा। उनके कहने का तात्पर्य है कि अगर हम आंख का दान करते हैं, तो अगले जन्म में अंधे पैदा होंगे। लेकिन वैज्ञानिक रूप से इसका कोई आधार नहीं है। विज्ञान के अनुसार, मृत्यु के बाद शरीर का विघटन हो जाता है, और कोई भी अंग अगले जन्म में नहीं जाता। यह पूरी तरह से भौतिक प्रक्रिया है। अव्वल तो पुनर्जन्म भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं है। इसलिए अंगदान के पक्षधरों का कहना है कि अंग दान एक महान कार्य है और इसे किसी भी धार्मिक मान्यता या अंधविश्वास से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

दूसरे पक्ष का कहना है कि अंतिम संस्कार संपूर्ण अंगों के साथ ही किया जाना चाहिए, इसीलिए तो किसी की मृत्यु होने पर प्रयास यह रहता है कि शव का पोस्टमार्टम न किया जाए। दूसरा तर्क यह है कि देवता भी अंग भंग जानवर की बलि स्वीकार नहीं करते। बलि को देवताओं को अर्पित किया जाने वाला पवित्र कर्म माना जाता है। इसलिए उस जानवर को चुना जाता है जो स्वस्थ, संपूर्ण और निर्दोष हो। आपको ख्याल में होगा कि किसी बकरे की बलि नहीं चढाई जा सके, इसके लिए उसका कान काट दिया जाता है, ताकि वह अंग भंग की श्रेणी में आ जाए। उसे अमर बकरा कहा जाता है। इसी प्रकार अग्नि देवता को समर्पित किया जा रहा शव अंग भंग नहीं होना चाहिए। मजबूरी की बात अलग है। यदि कोई दुर्घटना का शिकार हो जाता है, तो कोई उपाय नहीं। दुर्घटना में मौत को अकाल मृत्यु कहा जाता है, उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती, वह भटकती रहती है। प्रकृति की भी यही व्यवस्था है कि जैसा हम उसे देंगे, पलट कर वही हमें लौटा देती है। कुल मिला कर दोनों पक्षों के अपने दमदार तर्क हैं। प्रगतिशील लोग अंगदान को महान कार्य बताते हैं और परंपरावादी धार्मिक लोग अंगदान के पक्ष में नहीं हैं।

-तेजवाणी गिरधर 7742067000


गिलास से नहीं, लोटे से पीयें पानी

हाल ही सोशल मीडिया पर एक रोचक पोस्ट देखी, जिसमें गिलास की बजाय लोटे से पानी पीने की सलाह दी गई है। हालांकि उसमें वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाया गया है, जिनकी प्रमाणिकता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर प्रस्तावना में स्वदेशी की पैरवी और विदेशी का परित्याग करने का भाव अधिक है। विषय दिलचस्प है, लिहाजा सोचा कि इसे विमर्श के लिए आपके समक्ष रखा जाए। इस पोस्ट में अनावश्क विस्तार है, जिसे हटा दिया गया है।

इसमें लिखा है कि भारत में हजारों साल की पानी पीने की जो सभ्यता है, वो गिलास नही है, ये गिलास जो है, विदेशी है। गिलास भारत का नहीं है। गिलास यूरोप से आया। और यूरोप में पुर्तगाल से आया था। ये पुर्तगाली जब से भारत देश में घुसे थे, तब से गिलास में हम फंस गये। गिलास अपना नहीं है, अपना लौटा है। लौटा कभी भी एकरेखीय नही होता, तो वागभट्ट जी कहते हैं कि जो बर्तन एकरेखीय हैं, उनका त्याग कीजिये। 

आपको तो सबको पता ही है कि पानी को जहां धारण किया जाए, उसमे वैसे ही गुण उसमें आते हैं। पानी के अपने कोई गुण नहीं हैं, जिसमें डाल दो उसी के गुण आ जाते हैं। दही में मिला दो तो छाछ बन गया, दूध में मिलाया तो दूध का गुण। जिस आकार के पात्र में डाला जाएगा, उसी का रूप धारण कर लेता है। अगर थोड़ा भी गणित आप समझते हैं तो हर गोल चीज का सरफेस टेंशन कम रहता है। क्योंकि सरफेस एरिया कम होता है। स्वास्थ्य की दष्टि से कम सरफेस टेंशन वाली चीज ही आपके लिए लाभदायक है। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पेय आप पीयेंगे तो बहुत तकलीफ देने वाला है।

चूंकि कुआं गोल है, इस कारण उसका पानी सबसे अच्छा है। आपने देखा होगा कि सभी साधु-संत कुएं का ही पानी पीते हैं। न मिले तो प्यास सहन कर जाते हैं। साधु-संत अपने साथ जो केतली रखते हैं, वह लोटे के तरह के आकार वाली होती है। गोल कुए का पानी है तो बहुत अच्छा है। गोल तालाब का पानी, पोखर अगर गोल हो तो उसका पानी बहुत अच्छा है। नदी में गोल कुछ भी नहीं है। वो सिर्फ लम्बी है, उसमे पानी का फ्लो होता रहता है। नदी का पानी हाई सरफेस टेंशन वाला होता है और नदी से भी ज्यादा खराब पानी समुद्र का होता है। उसका सरफेस टेंशन सबसे अधिक होता है।

प्रकृति में देखेंगे तो बारिश का पानी गोल होकर धरती पर आता है। सभी बूंदें गोल होती हैं, क्योंकि उसका सरफेस टेंशन बहुत कम होता है।

एक तर्क ये दिया गया है। सरफेस टेंशन कम होने से पानी का सफाई करने वाला गुण लम्बे समय तक जीवित रहता है। पानी का ये गुण इस प्रकार काम करता है- बड़ी आंत और छोटी आंत में मेम्ब्रेन है और कचरा उसी में जा कर फंसता है। उसकी सफाई तभी संभव है, जब कम सरफेस टेंशन वाला पानी आप पी रहे हो। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पानी है तो ये कचरा बाहर नहीं आएगा, मेम्ब्रेन में ही फंसा रह जाता है।

एक प्रयोग भी बताया गया है-

थोड़ा सा दूध लें और उसे चेहरे पे लगाइए। 5 मिनट बाद रुई से पोंछिये, रुई काली हो जाएगी। स्किन के अन्दर का कचरा और गन्दगी बाहर आ जाएगी। इसे दूध बाहर लेकर आया। असल में दूध का सरफेस टेंशन सभी वस्तुओं से कम है। दूध ने स्किन का सरफेस टेंशन कम किया व त्वचा थोड़ी सी खुल गयी और त्वचा खुली तो अंदर का कचरा बाहर निकल गया। यही क्रिया लोटे का पानी पेट में करता है।

अगर आप गिलास का हाई सरफेस टेंशन का पानी पीयेंगे तो आंतें सिकुड़ेंगी क्योंकि तनाव बढ़ेगा। तनाव बढ़ते समय चीज सिकुड़ती है और तनाव कम होते समय चीज खुलती है। अब तनाव बढ़ेगा तो सारा कचरा अंदर जमा हो जायेगा और वो ही कचरा भगन्दर, बवासीर जैसी बीमारियां उत्पन्न करेगा।

कुल मिला कर गिलास की बजाय पानी लौटे में पीयें। गिलास का प्रयोग बंद कर दें। जब से आपने लोटे को छोड़ा है, तब से भारत में लोटे बनाने वाले कारीगरों की रोजी रोटी खत्म हो गयी। गांव-गांव में कसेरे कम हो गये। वो पीतल और कांसे के लोटे बनाते थे। सब इस गिलास के चक्कर में भूखे मर गये। तो वागभट्ट जी की बात मानिये और लोटे वापस लाइए।

https://www.youtube.com/watch?v=K4OLLX_qW0Y