तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, मई 08, 2018

... फिर भी लाखों लोग आसाराम के मुरीद क्यों हैं?

-गिरधर तेजवानी-
नाबालिगा के साथ दुष्कर्म के आरोपी संत आसाराम अब सजायाफ्ता कैदी हैं। कोर्ट ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। अस्सी साल की उम्र में उम्र कैद का सीधा सा अर्थ ये है कि मृत्यु पर्यंत उन्हें कैद में रहना होगा। कोर्ट के इस फैसले से जहां कानून का इकबाल ऊंचा हुआ है, करोड़ों लोग इस फैसले से संतुष्ट हैं, वहीं लाखों लोग ऐसे भी हैं, जो अब भी उन्हें निर्दोष मानते हैं और कोई गुरू के रूप में तो कोई भगवान के रूप में पूजता है। कैसा विरोधाभास है? न्यायालय की ओर से दोषी करार दिए जाने के बाद भी उनके भक्त अंध श्रद्धा के वशीभूत हैं। आखिर ऐसी क्या वजह है कि निकृष्टमत अपराध के बाद भी लोग अपराधी के प्रति श्रद्धा से लबरेज हैं। भक्तों की अगाध श्रद्धा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे इस बारे में कोई तर्क नहीं सुनना चाहते। इतनी दृढ़ आस्था आखिर क्यों कर है? हम भारतवासी तो फिर भी इस विरोधाभास को पी सकते हैं, मगर सोचिए कि अमेरिका में बैठा व्यक्ति क्या सोचता होगा? कैसा देश है भारत? कैसा है भारतवासियों का मिजाज? अपराधी को पूजा जा रहा है?
असल में इस प्रकरण को रावण प्रकरण की रोशनी में देखें तो आसानी से समझ आ जाएगा कि यह विरोधाभास क्यों है। रावण के बारे में कहा जाता है कि वह प्रकांड पंडित, महाशक्तिवान व चतुर राजनीतिज्ञ था। उसकी महिमा अपार थी। मगर अकेले परनारी के प्रति आसक्ति के भाव ने उसको नष्ट होने की परिणति तक पहुंचा दिया। अकेले एक दोष ने उसकी सारी महिमा को भस्मीभूत कर दिया। इससे यह समझ में आता है कि महान से महान व सर्वगुण संपन्न व्यक्ति भी बुद्धि पथभ्रष्ट होने पर अपराध कर सकता है और अपराध किए जाने पर दंडित उसी तरह से होता है, जैसा कि आम आदमी।
आसाराम के मामले में देखिए। जेल में जाने से पहले तक बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, सीनियर आईएएस, यहां तक कि न्यायाधिकारी तक उनकी महिमा का गुणगान किए नहीं थकते थे। मीडियाकर्मी भी उनके भक्त रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब का आसाराम के साथ का वीडियो सोशल मीडिया खूब चला। ऐसे ही अनेक धार्मिक व राजनीतिक नेताओं के साथ के फोटो फेसबुव वाट्सऐप पर छाए हुए हैं।  जेल जाने के बाद राजनीति भी हुई और कुछ हिंदू नेताओं ने उनसे मिलने बाद कहा कि उनके साथ साजिश हुई है। इसके लिए सोनिया गांधी तक को जिम्मेदार ठहराया गया, कि ईसाइयत का विरोध करने की वजह से उन्हें फंसाया। मगर अब हालत ये है कि कांग्रेस नीत सरकार गए चार साल हो गए हैं और भाजपा की सरकार है तो भी उनकी खैर खबर लेने वाला कोई नहीं है। मीडिया तो हाथ धो कर पीछे पड़ा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उनका कृत्य ही ऐसा रहा, जिसकी घोर निंदा होनी ही चाहिए।
बहरहाल, बड़ा सवाल ये कि आखिर क्यों लाखों लोगों को आसाराम निर्दोष नजर आते हैं। यदि दीवानगी की हद तक लोगों की श्रद्धा है तो इसका कोई तो कारण होगा ही। हम भले ही उन्हें अंधभक्त कहें या बेवकूफ करार दें, मगर उन लोगों ने जरूर आसाराम में कुछ देखा होगा, जो उन्हें सम्मोहित किए हुए है। केवल सम्मोहित ही नहीं, अपितु अनेकानेक लोगों के जीवन में परिवर्तन आ गया है। उनका व्यवहार पावन हो गया है। पूरा जीवन अध्यात्म की ओर रुख कर गया है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो कि पता नहीं झूठे हैं या सच, मगर उनमें यह बताया गया है कि विपत्ति के समय उन्होंने आसाराम को याद किया और उनकी परेशानी खत्म हो गई या टल गई। कई लोगों को तो उनमें भगवान के दर्शन होते हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि जरूर आसाराम में कुछ ऐसे गुण रहे होंगे, विद्या रही होगी, जो भक्तों को प्रभावित करती है। इसी वजह से उनके अनन्य भक्त हैं। सरकार भी इस बात को जानती है, तभी तो उनको सजा सुनाए जाने वाले दिन अतिरिक्त सुरक्षा प्रबंध किए गए, ताकि उनके भक्त अराजकता न फैला दें।
आसाराम को पूर्वाभास भी होता था, जो कि एक वीडियो से परिलक्षित होता है। उसमें वे कहते दिखाई देते हैं कि उनके मन में जेल जाने का संकल्प आता है और उनका संकल्प देर-सवेर पूरा होता ही है। किस निमित्त, ये पता नहीं। आखिर हुआ भी यही।
खैर, उनमें चाहे जितने गुण रहे हों, मगर मात्र एक अवगुण ने उनकी जिंदगी नारकीय कर दी। अरबों-खरबों का उनका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। उसी अवगुण अथवा कृत्य के कारण उनके सारे गुण दिखाई देना बंद हो गए। दूसरी ओर उनके भक्तों को वे तमाम गुण नजर आते हैं, जबकि एक कृत्य साजिश दिखाई देता है।
दुर्भाग्य से आसाराम की तरह अन्य अनेक संत भी गंभीर आरोपों के कारण जेल में हैं। उनका भी अरबों का धार्मिक साम्राज्य बिखर गया है। इन सब की कटु आलोचना इस कारण है कि जो व्यक्ति दूसरों को सदाचार की सीख देता है, जिसके लाखों अनुयायी हैं, अगर वही कदाचार में लिप्त हो जाता है, तो वह घोर निंदनीय है।
कुल जमा बात ये है कि जिस कुकृत्य की वजह से आसराम को आजीवन कैद की सजा सुनाई गई है, उसने उनके जीवन का एक तरह से अंत ही कर दिया है। दूसरा ये कि कोई व्यक्ति कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो, कानून के सामने वह एक सामान्य व्यक्ति है। अपराध करेगा तो दंड का भागी होगा ही। ताजा फैसले से कानून की प्रभुसत्ता स्थापित हुई है, जो हर आम-ओ-खास के लिए एक नजीर व सबक है।

मोदी के सामने खम ठोक कर खड़ी हैं वसुंधरा

पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनाव से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच चल रही नाइत्तफाकी आखिर आगामी विधानसभा चुनाव से सात माह पहले परवान चढ़ गई है। यूं तो कई बार इस आशय की राजनीतिक अफवाहें उड़ीं कि मोदी वसुंधरा को जयपुर से हटा कर दिल्ली शिफ्ट करेंगे, मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं। वजह थी वसुंधरा को डिस्टर्ब करना आसान नहीं था। उनकी राजस्थान पर अपनी निजी पकड़ है। अब जब कि विधानसभा चुनाव नजदीक हैं तो लोकसभा उपचुनाव में करारी हार के बाद स्वाभाविक रूप से भाजपा हाईकमान को यहां नए सिरे से जाजम बिछानी ही है। उसी के तहत प्रदेश अध्यक्ष अशोक  परनामी को हटाया गया, मगर नया अध्यक्ष कौन हो, इसको लेकर मोदी व वसुंधरा के बीच टकराव की नौबत आ ही गई। हालांकि इस टकराव का क्या अंजाम होगा, यह कहना मुश्किल है, मगर यह सुनिश्चित है कि वसुंधरा इतनी आसानी से हथियार डालने वाली नहीं हैं।
ज्ञातव्य है कि भाजपा हाईकमान से टकराव की हिम्मत वसुंधरा पूर्व में भी दिखा चुकी हैं, मगर तब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे। तब भाजपा विपक्ष में होने के कारण कमजोर भी थी। इस कारण वसुंधरा के आगे हाईकमान को झुकना पड़ा। लंबे अरसे तक विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष किसी को नहीं बनने दिया। चुनावी साल में आखिरकार हाईकमान को मजबूर हो कर उन्हें ही पार्टी की कमान सौंपनी पड़ी। लेकिन जैसे ही मोदी लहर के साथ भाजपा पहली बार स्पष्ट बहुमत के साथ केन्द्र पर काबिज हुई और पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष मोदी के ही हनुमान अमित शाह को बनाया गया तो हाईकमान का पलड़ा काफी भारी हो गया। ऐसे में वसुंधरा को दिक्कतें आने लगीं। कई बार उन्हें हाईकमान के आगे मनमसोस कर चुप रहना पड़ा। बहुत प्रयासों के बाद भी अपने बेटे दुष्यंत को केन्द्र में मंत्री नहीं बनवा पायीं। मोदी लगातार इसी कोशिश में थे कि वसुंधरा सरंडर कर दें, मगर रजपूती महारानी का विल पॉवर कमजोर नहीं पड़ा।
ताजा विवाद नए प्रदेश अध्यक्ष को लेकर है। वसुंधरा को हाईकमान की ओर सुझाए जा रहे अध्यक्ष मंजूर नहीं हैं। वे अपने ही इशारे पर काम करने वाला अध्यक्ष चाहती हैं। उधर अमित शाह इस फिराक में हैं कि ऐसा अध्यक्ष बनाया जाए, जो केवल हाईकमान के कहने पर चले और वसुंधरा के आभामंडल का शिकार न हो। वस्तुत: भाजपा हाईकमान किसी भी सूरत में राजस्थान पर कब्जा बरकरार रखना चाहता है। वसुंधरा के फ्रंट पर रहते यह संभव नहीं है। वसुंधरा की पार्टी विधायकों व नेताओं पर तो पकड़ है, मगर जनाधार अब खिसक चुका है। उनके ताजा कार्यकाल में जातीय संतुलन भी काफी बिगड़ा है। ऐसे में उनके नेतृत्व में चुनाव लडऩे के जोखिम उठाया नहीं जा सकता। इसके लिए पार्टी को नए सिरे से तानाबाना बुनना होगा। बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों के टिकट काटने होंगे। नए जातीय समीकरण बनाने होंगे। उसी के तहत परनामी का इस्तीफा हुआ, मगर नए अध्यक्ष की नियुक्ति को लेकर गाडी गेर में आ गई। इसका प्रमाण ये है कि हाईकमान को नया अध्यक्ष घोषित करने में देरी हो रही है। अब देखना ये है कि वह वसुंधरा कैसे सैट करता है।
बड़ा सवाल ये भी है कि क्या वसुंधरा को अब हटाने का दुस्साहस हाईकमान में है, वो भी तब जबकि चुनाव नजदीक हैं और लोकसभा उपचुनाव के परिणामों ने साबित कर दिया है कि राजस्थान में एंटी इंकंबेंसी फैक्टर काम कर रहा है। लगता यही है कि वह कोई अतिवादी कदम उठाने की स्थिति में नहीं हैं। अगर ऐसा हुआ तो भाजपा के दोफाड़ होने का अंदेशा है। यह सुविज्ञ है कि पिछली बार जब टकराव हुआ था तो इस आशय की खबरें तक आ चुकी थीं कि हाईकमान नहीं माना तो वे अलग पार्टी खड़ी कर लेंगी। ऐसे में बीच का ही रास्ता अपनाया जाएगा। वसुंधरा भी तभी मानेंगी, जब कि उन्हें विधानसभा चुनाव टिकट वितरण में आनुपातिक रूप से पर्याप्त सीटें मिलेंगी। हो सकता है कि वसुंधरा को अनुमान हो कि आखिरकार उन्हें हाईकमान के आगे झुकना होगा या समझौता करना पड़ेगा, मगर फिर भी वे खम ठोक कर खड़ी हैं। असल में उन्हें इस बात का बड़ा गुमान है कि भाजपा वह पार्टी है, जिसे खड़ा करने में उनकी माताजी स्वर्गीया श्रीमती विजयाराजे सिंधिया का अहम योगदान रहा है। इस नाते वे पार्टी की एक ट्रस्टी हैं और बाद में आगे आए नेता उन्हें पीछे नहीं धकेल सकते। इसके अतिरिक्त उन्होंने राजस्थान भाजपा पर मजबूत पकड़ बना रखी है। बहुत से विधायक उनके व्यक्तिगत अनुयायी हैं। और सबसे बड़ी बात ये कि मोदी व शाह कितने भी पावरफुल व शातिर क्यों न हों, मगर राजनीतिक चालों में वसुंधरा भी कम नहीं हैं। राजनीति उनके खून में है। ऐसी महारानी भला इतनी आसानी से कैसे झुक सकती हैं।
-गिरधर तेजवानी