तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जुलाई 25, 2013

क्या फिर वसुंधरा की गोदी में बैठेंगे सिंघवी?

जनता दल यू के राष्ट्रीय महासचिव चंद्रराज सिंघवी के बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर स्वार्थी होने का आरोप लगाते हुए पार्टी पद से इस्तीफा देने के साथ ही यह सवाल खड़ा हो गया है कि खुरापाती स्वभाव के चलते वे अब क्या करेंगे? उनके लिए सबसे मुफीद चुनावी मौसम में किस दल में जाएंगे? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि उन्हें अब पचाएगा कौन?
सबको मालूम है कि सिंघवी पुराने कांग्रेसी चावल हैं। कांग्रेस की पोल पट्टी के विशेषज्ञ। राजनीति के शातिर खिलाड़ी। जमीन पर पकड़ हो न हो, जोड़तोड़ में माहिर हैं। उसी के दम पर राजनीति करते हैं। उनका उपयोग कितना सकारात्मक करेंगे, इससे कहीं अधिक कितना सामने वाले की बारह बजाएंगे, इसमें है। कांगे्रस में तो पहले से ही शातिरों की भरमार है। जब वहां दाल न गलती दिखी और वसुंधरा के उगते सूरज को सलाम कर दिया। वसुंधरा को भी ऐसे ही खुरापाती की जरूरत थी, जो कांगे्रस की लंका भेद सके। उन्होंने सिंघवी को खूब तवज्जो दी। सिंघवी की चवन्नी भी अठन्नी में चलने लगी। चाहे जिस को चूरण बांटने लगे। केडर बेस पार्टी के नेता व कार्यकर्ता भला ऐसे आयातित तत्व को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। विशेष रूप से संघ लॉबी को तो वे फूटी आंख नहीं सुहाते थे। आखिरकार उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ा। राजनीति ही जिनका दाना-पानी हो, वे भला उसके बिना जिंदा कैसे रह सकते थे। दोनों बड़े राजनीतिक दलों से नाइत्तफाकी के बाद गैर कांग्रेस गैर भाजपा की राजनीति करने लगे। इधर-उधर घूम कर आखिर जदयू में जा कर टिके। जिस जदयू का राजस्थान में नामलेवा नहीं, उसे तो ऐसे नेता की जरूरत थी, सो वहां बड़ा सम्मान मिला। यकायक राष्ट्रीय क्षितिज पर आ गए। चूंकि वसुंधरा से उनका पुराना नाता था, इस कारण जदयू हाईकमान को भी लगता था कि वे राजस्थान में भाजपा से तालमेल में काम आएंगे। हालांकि यूं तो वे किरोड़ी लाल मीणा के साथ मिल कर तीसरे मार्चे की बिसात बिछाने लगे हुए थे, मगर उम्मीद कुछ ज्यादा नहीं थी। पिछले विधानसभा चुनावों में भी सिंघवी ने तीन पार्टियों का गठबंधन बनाया था, लेकिन उनके उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाए। जहां तक जदयू का सवाल है, उसके पास अभी कुशलगढ़ विधायक फतेह सिंह एकमात्र विधायक हैं। हालांकि जेडीयू और भाजपा ने आपसी तालमेल के साथ पिछला चुनाव लड़ा था,मगर इस बार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मुद्दा बना कर जदयू ने भाजपा से नाता तोड़ दिया तो अब यहां भी सिंघवी की उपयोगिता समाप्त हो गई। ऐसे में पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने उनके बड़बोलेपन को बहाना बना कर पद से हटा दिया। अब उनके लिए जदयू में रहना बेमानी हो गया है। ऐसे में हर किसी की निगाह है कि अब वे कहां जाएंगे। कांग्रेस के खिलाफ इतना विष वमन कर चुके हैं कि वहां जा नहीं सकते। कांग्रेस भी ऐसे नेता को लेकर अपने यहां गंदगी नहीं करना चाहेगी। वैसे भी बदले समीकरणों में भाजपा से दूरी बनाने के बाद नीतीश की कांग्रेस से कुछ नजदीकी दिखाई देती है। जब से हटे ही नीतीश पर हमला बोल कर हैं तो वहां जाने की कोई संभावना नहीं है।
रहा सवाल वसुंधरा का तो वे चूंकि येन-केन-प्रकारेन सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं, सो संभव है वे उन्हें फिर से पपोलने लगें। जाहिर तौर पर न सही, गुप्त रूप से तो वे उनका काम कर ही सकते हैं। तीसरे मोर्चे की कवायद के चलते संभव है दिखाई तो किरोड़ी लाल मीणा के साथ दें, मगर ज्यादा संभावना इसी बात की है कि वे वसुंधरा से गुप्त समझौता कर लेंगे। जानते हैं कि गर उनकी सत्ता आई तो मलाई खाने को मिल सकती है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, जुलाई 24, 2013

कटारिया का मुद्दा तो निकला भाजपा के हाथ से

राजस्थान में विपक्ष के नेता गुलाबचंद कटारिया को सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में जमानत मिलने से भाजपा का वह ख्वाब टूट गया है, जिसके आधार पर वह प्रदेशभर में आंदोलन का मूड बना रही थी।
असल में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा जानती थीं कि उनकी सुराज संकल्प यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व कांग्रेस को घेरने की उनकी कोशिशें दम तोड़ रही हैं। हालांकि वे रोजाना नए-नए आरोप जड़ती जा रही हैं और गहलोत को भ्रष्ट साबित करने की नाकाम कोशिश कर रहीं है, मगर  गहलोत की व्यक्तिगत छवि बेदाग होने के कारण सारे वार खाली जा रहे हैं। वे समझ रही हैं कि वे सरकार की जनोपयोगी योजनाओं के सामने ऐसे आरोपों से चुनावी माहौल नहीं बना पा रही हैं। उलटे उन पर कांग्रेस का एक ही वार काफी भारी पड़ रहा था कि पूरे चार साल तो वे गायब रहीं और चुनाव आते ही आरोपों की झड़ी लगा रही हैं। चार साल गायब रहने का उनके पास कोई जवाब था भी नहीं।  ऐसे में वह किसी ऐसे मौके की तलाश कर रही थी, जिससे राजस्थान की जनता को उद्वेलित किया जा सके। यूं भी भाजपा की चुनावी रणनीति मुद्दे को उछालने की रहती है, ऐसे में उन्हें कोई ऐसा मौका चाहिए था। संयोग से सीबीआई ने उसे वह मौका दे दिया। सीबीआई ने कटारिया को एनकाउंटर का आरोपी बनाया और ऐसे में उन पर गिरफ्तारी की तलवार लटक गई। वसुंधरा ये सोचने लगीं कि जैसे ही कटारिया को गिरफ्तार किया जाएगा, वे पूरे प्रदेश में कांगे्रेस के दमन चक्र को मुद्दा बना कर आंदोलन छेड़ देंगी, जिससे भाजपा कार्यकर्ता तो लामबंद व वार्म अप होगा ही, जनता की भावनाएं भी भड़काई जा सकेंगी। और इसी कारण बार-बार कहती रहीं कि सरकार कटारिया को झूठा फंसा रही है, सरकार उन्हें भी किसी झूठे मामले में उलझाने की कोशिश कर सकती है, मगर वे किसी से डरने वाली नहीं हैं। असल में वे कटारिया की गिरफ्तारी होने पर किए जाने वाले आंदोलन की पृष्ठभूमि बना रही थीं, मगर उनकी सोच धरी की धरी रह गई, जब कटारिया का जमानत मंजूर हो गई। अब वसुंधरा के पास जनता को उद्वेलित करने का फिलहाल कोई मौका नहीं है। ऐसे में संभव है भाजपा नरेन्द्र मोदी ब्रांड पैंतरा खेल सकती है। इसका इशारा कांग्रेसी नेता कर भी चुके हैं।
जहां तक कटारिया के मुकदमे का सवाल है, उनको जमानत मिलते ही ये सवाल उठने लगे हैं कि यह कैसे हो गया। इस बारे में जयपुर के एक पत्रकार निरंजन परिहार ने तो बाकायदा प्रायोजित न्यूज आइटम बना कर खुलासा करने की कोशिश की है। उनका कहना है कि कटारिया को फांसने के मामले में सीबीआई बगलें झांक रही है और सबूतों के मामले में सीबीआई झूठी साबित हो रही है।
मुंबई की विशेष अदालत में चल रहे इस केस में कटारिया को आरोपी बना कर उनके खिलाफ चार्जशीट भी पेश कर दी, लेकिन अब अपने लगाए आरोपों को वह साबित नहीं कर पा रही है। ऐसा लग रहा है कि अपनी जलाई गुई आग में सीबीआई खुद झुलस रही है। इसके पीछे तर्क ये दिया है कि सीबीआई की कहानी झूठी है। वे कहते हैं कि कुख्यात अपराधी सोहराबुद्दीन की मौत के मामले में कटारिया के खिलाफ लगाए गए आरोप में सिर्फ एक बात कही गई है कि 27 दिसम्बर, 2005 से 30 दिसम्बर, 2005 तक आईपीएस ऑफिसर डीजी वणजारा उदयपुर के सर्किट हाउस में रुके थे। उसी दौरान राजस्थान के तत्कालीन गृहमंत्री कटारिया का भी स्टाफ भी वहीं पर रुका हुआ था। जिन तारीखों की घटनाओं का हवाला देकर सीबीआई ने कटारिया को फांसने की चार्जशीट तैयार की है, उन दिनों वे मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के राष्ठ्रीय अधिवेशन में भाग लेने के लिए मुंबई आए हुए थे। खुद निरंजन परिहार के साथ वे सहारा समय टेलीविजन चैनल के स्टूडिय़ो में भी एक लाइव कार्यक्रम में उपस्थित थे, जिसकी प्रसारण की तारीख को सीबीआई झुठला नहीं सकती।
सिद्धराज लोढ़ा के समाचार पत्र शताब्दी गौरव, गोविंद पुरोहित के जागरूक टाइम्स, सुरेश गोयल के प्रात:काल सहित मुंबई के विभिन्न समाचार पत्रों में उन तारीखों के दौरान कटारिया के मुंबई के विभिन्न कार्यक्रमों की खबरें और तस्वीरें भी छपी हैं, सीबीआई उन्हें गलत साबित नहीं कर सकती। उन्हीं दिनों मुंबई में माथुर भी बीजेपी अधिवेशन में मौजूद थे। सीबीआई द्वारा बताए जा रहे दिनों में दोनों नेताओं के उदयपुर में नहीं होने की बात साबित हो चुकी है। यहां तक कि दोनों नेताओं के मुंबई आने-जाने के टिकट और कटारिया के गोवा यात्रा के सबूत भी मौजूद हैं।
उनकी इन बातों में कितनी सच्चाई है ये तो कोर्ट में होने वाली कार्यवाही से पता लगेगी, मगर केवल इन तारीखों के आधार पर ही सीबीआई ने बेवकूफी की होगी, ये समझ से परे हैं। जरूर उसके पास कोई आधार होगा। भले ही कटारिया को जमानत मिलने से परिहार को ये न्यूज आइटम बनाने का मौका मिला गया, मगर वसुंधरा वे मौका तो नहीं मिल पाया, जिसको वे भुनाने की कोशिश में थीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, जुलाई 20, 2013

अन्ना और मीडिया में से कौन सच्चा, कौन झूठा?

जन लोकपाल के लिए आंदोलन छेडऩे वाले समाजसेवी अन्ना हजारे एक बार फिर अपने बयान को लेकर विवाद में आ गए हैं। पहले उनके हवाले से छपा कि वे नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक नहीं मानते, दूसरे दिन जैसे ही इस खबर ने मीडिया में सुर्खियां पाईं तो वे पलटी खा गए और बोले कि उन्होंने कभी सांप्रदायिकता पर मोदी को क्लीन चिट नहीं दी। उन्होंने कहा कि मीडिया ने उनके बयान को गलत रूप में छापा।
ज्ञातव्य है कि मध्यप्रदेश में जनतंत्र यात्रा के आखिरी दिन गत बुधवार को इंदौर पहुंचे अन्ना ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सांप्रदायिक विचारधारा के नेता होने के सियासी आरोपों पर कहा कि मोदी के सांप्रदायिक नेता होने का अब तक कोई सबूत मेरे सामने नहीं आया है। बाद में बयान बदल कर कहा कि मैं कैसे कह सकता हूं कि मोदी सांप्रदायिक नहीं हैं? वे सांप्रदायिक हैं। उन्होंने कभी गोधरा कांड की निंदा नहीं की।
असल में विवाद हुआ ही इस कारण कि जब अन्ना से पूछा गया कि क्या आप मोदी को सांप्रदायिक मानते हैं, तो उन्होंने सीधा जवाब देने की बजाय चालाकी से कह दिया कि मोदी के सांप्रदायिक नेता होने का अब तक कोई सबूत मेरे सामने नहीं आया है। यही चालाकी उलटी पड़ गई। उनका यह कहना कि सबूत नहीं है, अर्थात बिना सबूत के वे मोदी को सांप्रदायिक कैसे कह दें। उन्होंने सीधे-सीधे मोदी को सांप्रदायिक करार देने अथवा न देने की बजाय यह जवाब दिया। कदाचित वे सीधे-सीधे यह कह देते कि वे मोदी को सांप्रदायिक मानते हैं, तो प्रतिप्रश्न उठ सकता था कि आपके पास क्या सबूत है, लिहाजा घुमा कर जवाब दिया। उसी का परिणाम निकला कि मीडिया ने उसे इस रूप में लिया कि अन्ना मोदी को सांप्रदायिक नहीं मानते। स्पष्ट है कि कोई भी अतिरिक्त चतुराई बरतते हुए मीडिया के सवाल का जवाब घुमा कर देगा, तो फिर मीडिया उसका अपने हिसाब से ही अर्थ निकालेगा। इसे मीडिया की त्रुटि माना जा सकता है, मगर यदि जवाब हां या ना में होता तो मीडिया को उसका इंटरपिटेशन करने का मौका ही नहीं मिलता। हालांकि मीडिया को भी पूरी तरह से निर्दोष नहीं माना जा सकता। कई बार वह भी अपनी ओर से घुमा-फिरा कर सामने वाले के मुंह में जबरन शब्द ठूंसता नजर आता है, ऐसे में शब्दों का कमतर जानकार उलझ जाता है। इसका परिणाम ये निकलता है कि कई बार राजनेताओं को यह कह पल्लू झाडऩे का मौका मिल जाता है कि उन्होंने ऐसा तो नहीं कहा था, मीडिया ने उसका गलत अर्थ निकाला है।
वैसे अन्ना के साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। वे कई बार अस्पष्ट जवाब देते हैं, नतीजतन उसके गलत अर्थ निकलते ही हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि हिंदी भाषा की जानकारी कुछ कम होने के कारण वे कहना क्या चाहते हैं और कह कुछ और जाते हैं। कई बार जानबूझ कर मीडिया को घुमाते हैं। उनके प्रमुख सहयोगी रहे अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी आम आदमी पार्टी को समर्थन देने अथवा न देने के मामले में भी वे कई बार पलटी खा चुके हैं। कभी कहते हैं कि उनके अच्छे प्रत्याशियों को समर्थन देंगे तो कभी कहते हैं समर्थन देने का सवाल ही नहीं उठता। इंदौर में भी उन्होंने ये कहा कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी एक सियासी दल है। लिहाजा मैं इस पार्टी का भी समर्थन नहीं कर सकता। इसके पीछे तर्क ये दिया कि भारतीय संविधान उम्मीदवारों को समूह में चुनाव लडऩे की इजाजत नहीं देता। जनता को संविधान की मूल भावना के मुताबिक निर्वाचन की पार्टी आधारित व्यवस्था को खत्म करके खुद अपने उम्मीदवार खड़े करना चाहिए। केजरीवाल के बारे उनसे अनगिनत बार सवाल किए जा चुके हैं, मगर बेहद रोचक बात ये है कि मीडिया और पूरा देश आज तक नहीं समझ पाया है कि वे क्या चाहते हैं और क्या करने वाले हैं? अब इसे भले ही समझने वालों की नासमझी कहा जाए, मगर यह साफ है कि अन्ना के जवाबों में कुछ न कुछ गोलमाल है। इसी कारण कई बार तो यह आभास होने लगता है कि देश जितना उन्हें समझदार समझता है, उतने वे हैं नहीं। मीडिया भी मजे लेता प्रतीत होता है। वह उन्हें राजनीतिक व सामाजिक विषयों का विशेषज्ञ मान कर ऐसे-ऐसे सवाल करता है, जिसके बारे में न तो उनको जानकारी है और न ही समझ। और इसी कारण अर्थ के अनर्थ होते हैं। बीच में तो जब उनकी लोकप्रियता का ग्राफ आसमान की ऊंचाइयां छू रहा था, तब तो मीडिया वाले देश की हर छोटी-मोटी समस्या के जवाब मांगने पहुंच जाते थे। ऐसे में कई बार ऊटपटांग जवाब सामने आते थे। और फिर पूरा मीडिया उनके पोस्टमार्टम में जुट जाता था। विशेष रूप से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया, जिसे हर वक्त चटपटे मसाले की जरूरत होती है। वह चटपटा इस कारण भी हो जाता था कि शब्दों के सामान्य जानकार के बयानों के बाल की खाल शब्दों के खिलाड़ी निकालते थे। ताजा विवाद भी शब्दों का ही हेरफेर है।
लब्बोलुआब, अन्ना एक ऐसे आदर्शवादी हैं, जिनकी बातें लगती तो बड़ी सुहावनी हैं, मगर न तो वैसी परिस्थितियां हैं और न ही व्यवस्था। और बात रही व्यवस्था बदलने की तो यह महज कपड़े बदलने जितना आसान भी नहीं है। इसी कारण अन्ना के आदर्शवाद ने कई बार मुंह की खाई है। जनलोकपाल के लिए हुए बड़े आंदोलन में तो उनकी अक्ल ही ठिकाने पर आ गई। एक ओर वे सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसते रहे, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताते रहे, मगर बाद में समझ में आया कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर बाद में उन्हें समझ में आ गया कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे थे, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था, मगर बाद में हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे थे कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है? पहले जनता जनार्दन को संसद से भी ऊपर बता रहे थे, बाद में समझ में आ गया कि कानून जनता की भीड़ नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जाएगा। यहां भी शब्दों का ही खेल था। यह बात ठीक है किसी भी लोकतांत्रिक देश में लोक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। चुनाव के दौरान वही तय करता है कि किसे सत्ता सौंपी जाए। मगर संसद के गठन के बाद संसद ही कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था होती है। उसे सर्वोच्च होने अधिकार भले ही जनता देती हो, मगर जैसी कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, उसमें संसद व सरकार को ही देश को गवर्न करने का अधिकार है। जनता का अपना कोई संस्थागत रूप नहीं है। अन्ना ऐसी ही जनता के अनिर्वाचित प्रतिनिधि हैं, जिनका निर्वाचित प्रतिनिधियों से टकराव होता ही रहेगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

भाजपा वाजपेयी के नाम को भी भुनाएगी

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके दौर व नीतियों को लगभग भुला चुकी भाजपा भले ही अब गुजरात में मुख्यमंत्री की अगुवाई में हिंदूवादी एजेंडे पर चलने को कृतसंकल्प है, लेकिन अब भी उसे वाजपेयी की उपयोगिता नजर आती है। वह उनके नाम को भी भुनाने के चक्कर में है। कदाचित यही वजह है भाजपा की प्रचार समिति के प्रमुख नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में गठित बहुप्रतिक्षित इलेक्शन कमेटी में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और डॉ. मुरली मनोहर जोशी के साथ अटल बिहारी वाजपेयी को भी शामिल किया गया है। इसी तरह कुल बीस समितियों की समीक्षा का काम भी मोदी के नेतृत्व में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह, लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी करेंगे। कैसी विचित्र बात है कि अटल बिहारी वाजपेयी का स्वास्थ्य बेहद खराब है और पिछले कुछ महीनों से घर से तो क्या कमरे से बाहर नहीं निकले हैं। लेकिन पार्टी ने उनके नाम को मोदी की समिति में बनाकर रखा है। साफ है कि वह उनके नाम का इस्तेमाल चुनाव के दौरान भी करना चाहती है। यानि कि भाजपा को जितनी उपयोगिता हिंदूवादी वोटों को खींचने केलिए मोदी की लगती है, उतनी उपयोगिता उसे अल्पसंख्यकों को रिझाने के लिए सर्वमान्य नेता वाजपेयी की भी नजर आती है। ऐसा प्रतीत होता है भाजपा का रिमोट कंट्रोल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ मोदी को आगे करने के बाद लगातार हो रहे विवाद और वोटों के धु्रवीकरण की संभावना को देखते हुए मोदी को फ्रीहैंड देने में झिझक रही है और साथ ही अटल-आडवाणी युग की छाया को साथ रखते हुए वाजपेयी को भी आइकन बनाना चाहता है। उसके इस अंतर्विरोध का चुनाव परिणाम पर क्या असर होगा, ये तो पता नहीं, मगर भाजपा कार्यकर्ता जरूर दिग्भ्रमित हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, जुलाई 16, 2013

बाबा रामदेव बना रहे हैं कुछ टिकटों के लिए दबाव

कभी अपनी सेना बनाने की घोषणा कर आलोचना होने पर पीछे हटने और बाद में अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने के संकेत लगातार देने वाले बाबा रामदेव ने हालांकि ऐसा तो कुछ नहीं किया, मगर अब भाजपा को खुला समर्थन देने की एवज में राजस्थान में अपने कुछ चहेतों को विधानसभा चुनाव की टिकटें देने के लिए दबाव बना रहे हैं। सूत्रों के अनुसार हाल ही उनकी प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से हुई मुलाकात में भी इस पर चर्चा हुई है।
जानकारी के अनुसार पिछले कुछ समय से भाजपा की मुख्य धारा से कुछ अलग चल रहे वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी को उनका वरदहस्त है। इसीलिए तिवाड़ी को राजी करने के लिए वसुंधरा ने उनसे मध्यस्थता करने  का आग्रह किया था। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि बाबा रामदेव से जब पूछा गया कि उनकी वसुंधरा से मुलाकात का सबब क्या है तो उन्होंने कहा कि इसके लिए राजे ने कई बार आमंत्रण दिया था। हालांकि उन्होंने मुलाकात को औपचारिक बताया, मगर मुलाकात कितनी औपचारिक थी, इसका खुलासा इसी बात से हो जाता है कि उन्होंने साफ कहा कि वसुंधरा और तिवाड़ी को मिल कर प्रदेश में सुशासन की तैयारी करनी चाहिए। उन्होंने स्वीकार किया कि वे दोनों के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहे हैं। वसुंधरा को वे किस कदर समर्थन दे रहे हैं, इसका अंदाजा उनके इस कथन से हो जाता है कि इस प्रदेश को वसुंधरा राजे जैसे ओजस्वी, साहसी और पराक्रमी मुख्यमंत्री की आवश्यकता है। जानकारी के अनुसार वे वसुंधरा के लिए प्रचार करने की एवज में अपनी पसंद के कुछ नेताओं को टिकट दिलवाना चाहते हैं। हाल ही में हुई मुलाकात में इसी पर चर्चा हुई बताई। यह स्वाभाविक भी है। बेशक कांग्रेस उनकी दुश्मन नंबर वन है, सो देशभर में उसकी खिलाफत अपने एजेंडे के तहत कर रहे हैं, मगर भाजपा के लिए अपने चेहरे का इस्तेमाल करने के प्रतिफल के रूप में वे कुछ हासिल भी करना चाहते हैं।
आने वाले चुनाव में वे किस प्रकार सक्रिय होंगे, इसका भान उनके इस कथन से हो जाता है कि देश में सत्ता परिवर्तन के लिए वन बूथ इलेवन यूथ जरूरी है। अर्थात वे चुनाव में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपनी टीम भी उपलब्ध करवाने जा रहे हैं। राजस्थान में कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने की उनकी योजना का खुलासा उनके इस कथन से हो गया कि जिस तरह से देश में प्रधानमंत्री चुप है, वहीं राजस्थान में सीएम चार साल में नहीं दिखे। इन्हें भी कोई और ही संचालित कर रहा है। प्रदेश में कुशासन है, जिसके चलते आम जनता आहत है। प्रदेश में केन्द्र की तरह राज और कोई ही चला रहा है, सीएम तो डमी मात्र है।
ज्ञातव्य है कि योग गुरू के रूप में प्रतिष्ठा हासिल करने के बाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा इतनी बलवती हो गई थी कि उन्होंने सीधे दिल्ली पर ही धावा बोल दिया था। वहां मुंह की खाने के बाद से इतने बिफरे हुए हैं कि हर वक्त कांग्रेस के खिलाफ आग उगलते रहते हैं। कई बार तो उनकी शब्दावली राजनेताओं से भी घटिया हो जाती है। कांग्रेस और विशेष रूप से नेहरू-गांधी खानदान की छीछालेदर करना उनका एक सूत्रीय अभियान है।  हाल ही जयपुर आए तब भी उनका यही कहना था कि नेहरू खानदान ने हिन्दुस्तान को अपनी जागीर समझ रखा है। भाजपा के लिए उनका अभियान चुनावी दृष्टि से मुफीद रहेगा, लिहाजा इसकी एवज में कुछ टिकटें उनके चरणों में समर्पित की जाती हैं, तो उसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जुलाई 03, 2013

सोमैया ने खोल दी भाजपा के एजेंडे की पोल

अजमेर में भाजपा की बैठक में मौजूद किरीट सोमैया
एक ओर जहां भाजपा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने से लगातार बच रही है, वहीं भाजपा के राजस्थान प्रदेश के सह-प्रभारी एवं पूर्व सांसद किरीट सोमैया ने अजमेर प्रवास के दौरान पत्ते खोल दिए कि मोदी ही देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे। पता नहीं उन्होंने ऐसा जानबूझ कर कहा, अथवा गलती से मुंह से निकल गया। कह तो वे यह रहे थे कि आने वाले चुनावों में राजस्थान में वसुंधरा राजे की सरकार बनेगी, मगर साथ ही यह भी कह दिया कि केन्द्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनाएगी।
ज्ञातव्य है कि हाल ही जब भाजपा ने मोदी को प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया तो बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने अपनी पार्टी जदयू को यही सोच कर अलग कर लिया कि भाजपा भले ही अभी मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित नहीं कर रही है, मगर करेगी वही। इस पर भाजपा ने बिहार की जनता की हमदर्दी जीतने के लिए गठबंधन तोडऩे का जिम्मेदार नीतिश को ठहरा दिया। साथ ही यह भी कहा कि हमने तो मोदी को केवल प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया है। नीतिश को तो गठबंधन तोडऩा है, इस कारण बहाना तलाश रहे थे। भाजपा के सारे प्रवक्ता चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि भाजपा ने अभी प्रधानमंत्री पद के दावेदार की घोषणा नहीं की है। अव्वल तो भाजपा ने अभी इस पर विचार ही नहीं किया है। हालांकि भाजपा की इस दोमुंही बात की असलियत सभी जानते हैं। वह लाख मना करे, मगर सब को पता है कि भाजपा क्या करने वाली है। जनता को तो तब से पता है, जब से मोदी के गुजराज का तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें दूल्हा बना कर घूम रही है। भाजपा इस प्रकार का दोमुंहापन संघ के मामले में वर्षों से स्थापित है। वह बार-बार कहती रही है कि संघ का भाजपा के संगठनात्मक मामलों में कोई दखल नहीं है, जबकि असलियत क्या है, ये सब जानते हैं। इसकी पोल भी पिछले दिनों तब खुल गई, जब आडवाणी को इस्तीफा वापस लेने के लिए मनाने की खातिर संघ प्रमुख मोहन भागवत को हस्तक्षेप करना पड़ा और इसकी पुष्टि खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कर दी।
खैर, ताजा मामले में भले ही पूरी भाजपा मोदी का पत्ता खोलने को तैयार नहीं है, मगर किरीट सोमैया ने तो पत्ता खोल ही दिया है। अब ये आप पर है कि आप भाजपा के बड़े नेताओं पर यकीन करते हैं या फिर सोमैया पर। हां, इतना तय है कि अगर आप भाजपा के किसी बड़े नेता से बात करेंगे तो वह यही कह कर पल्लू झाडऩे की कोशिश करेगा कि वह सोमैया की निजी राय या मोदी के प्रति श्रद्धा हो सकती है।
-तेजवानी गिरधर