तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, नवंबर 06, 2015

बिहार चुनाव की सरगरमी ने भटकाया मोदी के विकास एजेंडे को

बिहार में भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा का सारा जोर जंगल राज से मुक्त हो कर विकास की ओर अग्रसर होने पर है, मगर चाहे अनचाहे वह भटक कर बीफ और साहित्कारों के अकादमी पुरस्कार लौटाने पर केन्द्रित हो गया है। जाहिर तौर पर सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाले मोदी बिलकुल भी नहीं चाहते होंगे कि उनका एजेंडा भटके, मगर बिहार चुनाव की सरगरमी में निचले स्तर के नेताओं की बयानबाजी ने माहौल को ऐसा गरमा दिया कि कथित रूप से वामपंथ के इषारे पर साहित्यकारों ने अकादमी पुरस्कार लौटा कर परेषानी में डाल दिया। हालांकि यह सही है कि बिहार चुनाव के बाद माहौल फिर से सामान्य किया जा सकेगा, मगर फिलहाल तो मोदी सरकार ऐसी परेषानी में फंस गई है, जिसकी कल्पना उसने नहीं की होगी।
हुआ यूं कि जैसे ही मोदी सरकार अस्तित्व में आई थी, वैसे ही आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों ने अपना एजेंडा कुछ इस तरह चलाया कि मोदी के सबका साथ सबका विकास पर सवाल उठने लगे। इसमें मोदी की चुप्पी ने भी अहम भूमिका अदा की। अगर वे आरंभ में ही बयानवीरों पर अंकुष रखते तो कदाचित ऐसी नौबत नहीं आती।
असल में दादरी कांड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंबी चुप्पी ने भाजपा का बड़ा नुकसान किया है। मोदी की चुप्पी को अजब-गजब बयान देने वाले नेता अपने लिए मौन समर्थन समझ बैठे थे या वास्तव में मोदी ही उन्हें मूक समर्थन दे रहे थे, इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता, लेकिन इतना तय है कि दोनों ही सूरत में नुकसान भाजपा का ही हुआ है और दुनिया में देश की छवि पर असर पड रहा है।
वस्तुतः जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुना गया था, तब भी और उनके भारी बहुमत से जीतकर आने के बाद भी देश के बुद्धिजीवियों ने शंका जाहिर की थी कि देश में अतिवादी हिंदू संगठन मुखर होकर सामने आ सकते हैं। दुर्भाग्य से उनकी शंका सही साबित हुई। कन्नड़ लेखक एमएम कुलबर्गी की हत्या और दादरी कांड से देश सकते में आ गया। सबसे बुरी बात यह हुई कि भाजपा के कुछ नेताओं ने दादरी कांड को सही ठहराने की कोशिश की, जिसका खंडन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से इस तरह नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। हर छोटी-बड़ी और अच्छी-बुरी घटना पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री दादरी कांड पर चुप्पी लगा गए। दस दिन बाद जब प्रधानमंत्री की चुप्पी टूटी तो वह बेमायने थी। नतीजा यह हुआ हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने मुस्लिमों और बीफ के बारे में ऐसा बयान दिया कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी उसे पचा नहीं सका और उसने बिना वक्त गंवाए उससे अपने को अलग कर लिया।
यहां तक आरएसएस के मुखपत्र कहे जाने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य की उस कवर स्टोरी ने भी भाजपा नेतृत्व को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया, जिसमें बाकायदा वेदों का हवाला देकर अखलाक की हत्या को सही ठहराया गया था। आखिरकार भाजपा ने पांचजन्य्य और आर्गेनाइजर को अपना मुखपत्र मानने से ही इंकार कर दिया। भाजपा अध्यक्ष अमित षाह को भी लगा कि मामला गंभीर होता जा रहा है और उन्हें भाजपा सांसद साक्षी महाराज, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा और भाजपा विधायक संगीत सोम को दिल्ली तलब करके बीफ मुद्दे पर उलटे-सीधे बयान न देने की सख्त ताकीद करना पडा।
कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने यह सब जानबूझ कर होने दिया। संभवतः वह समझ रहा था कि बीफ मुद्दे का बिहार चुनाव में फायदा मिल सकता है, लेकिन बिहार में इसके नकारात्मक प्रभाव सामने आने के बाद भाजपा आलाकमान को होश आया।  
बहरहाल, कन्नड लेखक एमएम कुलबर्गी और दादरी कांड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी ने देश के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इतना असहज कर दिया कि उन्होंने विरोधस्वरूप अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो उनका सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। साहित्यकारों के विरोध हवा में उड़ा देने वाली भाजपा को शायद अभी एहसास नहीं है कि इसका दुनिया के देशों में क्या प्रभाव पड़ रहा है। एक अमेरिकी संस्था ने अपनी रिपोर्ट में हाल में ही कहा है कि मोदी सरकार के आने के बाद भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है, जिससे वहां के अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। देश के मौजूदा हालात से प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों पर भी ग्रहण लग सकता है। विदेशी निवेश उसी देश में आ सकता है, जब वहां के हालात सही हों।
अजब विडंबना है कि जो देश अमेरिका की तरह अति विकसति बनना चाहता है, संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्यता के लिए दावेदारी पेश कर रहा है, वह उन मुद्दों पर उलझ गया है, जो देश को पीछे ही ले जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, सितंबर 14, 2015

गणवेष पर अब जा कर बोले मोहन भागवत

तेजवानी गिरधर
-तेजवानी गिरधर- ऐसा जानकारी में आया है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत ने कहा है कि संघ की गणवेश में बदलाव किया जा सकता है। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 12 और 13 सितम्बर को जयपुर में हुई राष्ट्रीय संगोष्ठी में लेखकों के सवालों का जवाब देते हुए भागवत ने कहा कि संघ में पेंट पहन कर आने पर कोई पाबंदी नहीं है। कुछ लोग आरंभ में शाखाओं में पेंट पहन कर आते भी हैं, लेकिन जब उन्हें योग, व्यायाम आदि में असुविधा होती है, तो अपने आप ही नेकर पहनने लग जाते हैं। उन्होंने कहा कि बदलाव परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि संघ की गणवेश में भी बदलाव की जरुरत हुई तो हम तैयार है। आज जो संघ की गणवेश और नीतियां हैं, इसी की वजह से युवाओं का आकर्षण बढ़ा है। आज सर्वाधिक युवा किसी संगठन के पास हैं, तो वह संघ ही है। उन्होंने कहा कि हिन्दूत्व एक दृष्टिकोण है, हिन्दू प्रगतिशील है। हम अपना मॉडल खड़ा कर रहे हैं और यही होना चाहिए। पश्चिम की संस्कृति नहीं। हमें आधुनिक तकनीक का उपयोग करना चाहिए, जो लोग नव बाजारवाद को हमारी संस्कृति पर खतरा मानते हैं, उन्हें घबराने की जरुरत नहीं है।
उनके इस आषय के बयान पर इस लेखक को यकायक अपना लिखा वह आलेख स्मरण हो आया, जो चंद साल पहले भागवत के अजमेर प्रवास के दौरान इसी कॉलम में पेष किया था। वह इस कारण प्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि भागवत ने जिस गणवेष की बात अब उठाई है, उसे इस लेखक ने तभी उस ओर इषारा कर दिया था। इसके अतिरिक्त ये भी बताया था कि भले ही संघ के प्रति निष्ठा कथित रूप से बढी हो, मगर सच्चाई ये है कि संघ के स्वयंसेवकों की संख्या घटी ही है।
वस्तुत: संघ के प्रति युवकों के आकर्षण कम होने का सिलसिला हाल ही में शुरू नहीं हुआ है अथवा अचानक कोई कारण नहीं उत्पन्न हुआ है, जो कि आकर्षण कम होने के लिए उत्तरदायी हो। पिछले करीब 15 साल के दरम्यान संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या में गिरावट महसूस की गई है। यह गिरावट इस कारण भी संघ के नीति निर्धारकों को ज्यादा महसूस होती है, क्योंकि जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में युवा जुड़ नहीं पाया है। भले ही यह सही हो कि जो स्वयंसेवक आज से 10-15 साल पहले अथवा उससे भी पहले जुड़ा, वह टूटा नहीं है, लेकिन नया युवा उतने उत्साह के साथ नहीं जुड़ रहा, जिस प्रकार पहले जुड़ा करता था। इसके अनेक कारण हैं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो इसकी मुख्य वजह है टीवी और संचार माध्यमों का विस्तार, जिसकी वजह से पाश्चात्य संस्कृति का हमला बढ़ता ही जा रहा है। यौवन की दहलीज पर पैर रखने वाली हमारी पीढ़ी उसके ग्लैमर से सर्वाधिक प्रभावित है। गांव कस्बे की ओर, कस्बे शहर की तरफ और शहर महानगर की दिशा में बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि भौतिकतावादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण शहरी स्वच्छंदता गांवों में भी प्रवेश करने लगी है। युवा पीढ़ी का खाना-पीना व रहन-सहन तेजी से बदल रहा है। बदलाव की बयार में बह रहे युवाओं को किसी भी दृष्टि से संघ की संस्कृति अपने अनुकूल नहीं नजर आती। संघ के स्वयंसेवकों में आपस का जो लोक व्यवहार है, वह किसी भी युवा को आम जिंदगी में कहीं नजर नहीं आता। व्यवहार तो दूर की बात है, संघ का अकेला डे्रस कोड ही युवकों को दूर किए दे रहा है।
जब से संघ की स्थापना हुई है, तब से लेकर अब तक समय बदलने के साथ डे्रस कोड में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सच्चाई तो ये है कि चौड़े पांयचे वाली हाफ पैंट ही मजाक की कारक बन गई है। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि अपने आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मानने वालों के प्रति आम लोगों में श्रद्धा की बजाय उपहास का भाव है और वे स्वयंसेवकों को चड्ढा कह कर संबोधित करते हैं। स्वयं सेवकों को भले ही यह सिखाया जाता हो कि वे संघ की डे्रस पहन कर और हाथ में दंड लेकर गर्व के साथ गलियों से गुजरें, लेकिन स्वयं सेवक ही जानता है कि वह हंसी का पात्र बन कर कैसा महसूस करता है। हालत ये है कि संघ के ही सियासी चेहरे भाजपा से जुड़े नेता तक संघ के कार्यक्रम में हाफ पैंट पहन कर जाने में अटपटा महसूस करते हैं, लेकिन अपने नंबर बढ़ाने की गरज से मजबूरी में हाफ पैंट पहनते हैं। हालांकि कुछ वर्ष पहले संघ में ड्रेस कोड में कुछ बदलाव करने पर चर्चा हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोर गु्रप ने ऐसा करने का साहस नहीं जुटाया है। उसे डर है कि कहीं ऐसा करने से स्वयंसेवक की पहचान न खो जाए। ऐसा नहीं है कि डे्रस कोड की वजह से दूर होती युवा पीढ़ी की समस्या से केवल संघ ही जूझ रहा है, कांग्रेस का अग्रिम संगठन सेवादल तक परेशान है। वहां भी ड्रेस कोड बदलने पर चर्चा हो चुकी है।
जहां तक संघ पर सांप्रदायिक आरोप होने का सवाल है, उसकी वजह से भी युवा पीढ़ी को संघ में जाने में झिझक महसूस होती है, चूंकि व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता का माहौल ज्यादा बन गया है। भले ही भावनाओं के ज्वार में हिंदू-मुस्लिम दंगे होने के कारण ऐसा प्रतीत होता हो कि दोनों संप्रदाय एक दूसरे के विपरीत हैं, लेकिन व्यवहार में हर हिंदू व मुसलमान आपस में प्रेम से घुल-मिल कर ही रहना चाहता है। देश भले ही धार्मिक कट्टरवाद की घटनाओं से पीडि़त हो, मगर आम जनजीवन में कट्टरवाद पूरी तरह अप्रासंगिक है। युवकों को इस बात का भी डर रहता है कि यदि उन पर सांप्रदायिक संगठन से जुड़े होने का आरोप लगा तो उनका कैरियर प्रभावित होगा। आज बढ़ती बेरोजगारी के युग में युवकों को ज्यादा चिंता रोजगार की है, न कि हिंदू राष्ट के लक्ष्य को हासिल करने की और न ही राष्ट्रवाद और राष्ट्र की। असल में राष्ट्रीयता की भावना और जीवन मूल्य जितनी तेजी से गिरे हैं, वह भी एक बड़ा कारण हैं। युवा पीढ़ी को लगता है कि संघ में सिखाए जाने वाले जीवन मूल्य कहने मात्र को तो अच्छे नजर आते हैं, जब कि व्यवहार में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। सुखी वह नजर आता जो कि शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार पर चल रहा है, ईमानदार तो कष्ट ही कष्ट ही झेलता है।
जरा, राजनीति के पहलु को भी देख लें। जब तक संघ के राजनीतिक मुखौटे भाजपा से जुड़े लोगों ने सत्ता नहीं भोगी थी, तब तक उन्हें सत्ता के साथ आने वाले अवगुण छू तक नहीं पाए थे, लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद चख लिया, उनके चरित्र में ही बदलाव आ गया है। इसकी वजह से संघ व भाजपा में ही दूरियां बनने लगी हैं। संघर्षपूर्ण व यायावर जिंदगी जीने वाले संघ के प्रचारकों को भाजपा के नेताओं से ईष्र्या होती है। हिंदूवादी मानसिकता वाले युवा, जो कि राजनीति में आना चाहते हैं, वे संघ से केवल इस कारण थोड़ी नजदीकी रखते हैं, ताकि उन्हें चुनाव के वक्त टिकट आसानी से मिल जाए। बाकी संघ की संस्कृति से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। अनेक भाजपा नेता अपना वजूद बनाए रखने के लिए संघ के प्रचारकों की सेवा-चाकरी करते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की केवल इसी कारण चलती है, क्योंकि उन पर किसी संघ प्रचारक व महानगर प्रमुख का आशीर्वाद बना हुआ है। प्रचारकों की सेवा-चाकरी का परिणाम ये है कि प्रचारकों में ही भाजपा नेताओं के प्रति मतभेद हो गए हैं। संघ व पार्टी की आर्थिक बेगारियां झेलने वाले भाजपा नेता दिखाने भर को प्रचारक को सम्मान देते हैं, लेकिन टिकट व पद हासिल करते समय अपने योगदान को गिना देते हैं। भीतर ही भीतर यह माहौल संघ के नए-नए स्वयंसेवक को खिन्न कर देता है। जब स्वयं स्वयंसेवक ही कुंठित होगा तो वह और नए युवाओं को संघ में लाने में क्यों रुचि लेगा। ऐसा नहीं है कि संघ के कर्ताधर्ता इन हालात से वाकिफ न हों, मगर समस्या इतनी बढ़ गई है कि अब इससे निजात कठिन ही प्रतीत होता है।
एक और अदृश्य सी समस्या है, महिलाओं की आधी दुनिया से संघ की दूरी। भले ही संघ के अनेक प्रकल्पों से महिलाएं जुड़ी हुई हों, मगर मूल संगठन में उन्हें कोई स्थान नहीं है। इस लिहाज से संघ को यदि पुरुष प्रधान कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संघ ने महिलाओं की भी शाखाएं गठित करने पर कभी विचार नहीं किया। आज जब कि महिला सशक्तिकरण पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, महिलाएं हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं, संघ का महिलाओं को न जोडऩे की वजह से संघ उतना मजबूत नहीं हो पा रहा, जितना कि होना चाहिए। 

बुधवार, सितंबर 02, 2015

छह दिन के सप्ताह पर चर्चा: अच्छी पहल

-तेजवानी गिरधर- राज्य सरकार अपने कार्यालयों में फिर से छह दिन का सप्ताह करने पर विचार कर रही है, यह एक अच्छी पहल है। हालांकि इसकी चर्चा पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के दौरान भी होती रही है, मगर वह सुगबुगाहट मात्र रही, हुआ कुछ नहीं। असल में बडे अफसर ये जानते हैं कि जब से पांच दिन का सप्ताह हुआ है, जनता की तकलीफें बढ गई हैं, मगर कर्मचारियों के नाराज होने के डर से बात आगे बढती ही नहीं। यहां आपको बता दें कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने पिछले कार्यकाल में जाते जाते छह की जगह पांच दिन का सप्ताह कर दिया था, यह सोच कर कि कर्मचारी वर्ग खुष होगा, मगर उसका लाभ विधानसभा चुनाव में भाजपा को नहीं मिल पाया। जब गहलोत सरकार आई तो यह महसूस किया गया कि इस बडे फैसले से कर्मचारियों के भले ही मजे हो गए, मगर आम जनता के रोजमर्रा के काम देरी से होने लगे, इस कारण विचार बना कि पिछली सरकार के निर्णय को पलट दिया जाए, मगर कर्मचारियों के डर की वजह से एक बार सत्ता खो चुके गहलोत की हिम्मत नहीं हुई।
अब एक बार फिर जनता की पीडा को समझते हुए छह दिन का सप्ताह करने की चर्चा आरंभ हो रही है। समझा जाता है कि अधिकारी वर्ग इससे सहमत है, मगर इसे लागू करने से पहले कर्मचारी वर्ग का मूड भांपा जा रहा है।
दरअसल यह पांच दिन के सप्ताह का फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
अब जब कि पांच दिन के सप्ताह की व्यवस्था को काफी साल हो गए हैं, यह स्पष्ट हो गया है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ी है। पांच दिन का हफ्ता करने की एवज में प्रतिदिन के काम के घंटे बढ़ाने का कोई लाभ नहीं हुआ है। कर्मचारी वही पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में वही पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। मगर हुआ कुछ नहीं।
यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो केन्द्र सरकार के दफ्तरों में बेहतर काम हो ही रहा है। पांच दिन डट कर काम होता है और दो दिन मौज-मस्ती। मगर केन्द्र व राज्य सरकार के दफ्तरों के कर्मचारियों का मिजाज अलग है। केन्द्रीय कर्मचारी लंबे अरसे से उसी हिसाब ढले हुए हैं, जबकि राज्य कर्मचारी अब भी अपने आपको उस हिसाब से ढाल नहीं पाए हैं। वे दो दिन तो पूरी मौज-मस्ती करते हैं, मगर बाकी पांच दिन डट कर काम नहीं करते। कई कर्मचारी तो ऐसे भी हैं कि लगातार दो दिन तक छुट्टी के कारण बोर हो जाते हैं। दूसरा अहम सवाल ये भी है कि राज्य सरकार के अधीन जो विभाग हैं, उनसे आम लोगों का सीधा वास्ता ज्यादा पड़ता है। इस कारण हफ्ते में दो दिन छुट्टी होने पर परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हैं कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
ऐसा नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं, बेहद परेशान हैं, मगर बोल कोई नहीं रहा। कर्मचारी संगठनों के तो बोलने का सवाल ही नहीं उठता। राजनीतिक संगठन ऐसे पचड़ों में पड़़ते नहीं हैं और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों को क्या पड़ी है कि इस मामले में अपनी शक्ति जाया करें। ऐसे में जनता की आवाज दबी हुई पड़ी है। देखना ये है कि इस बार आरंभ होने जा रही चर्चा सिरे तक पहुंचती है या नहीं।
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, अगस्त 05, 2015

मिसाइल मेन अब्दुल कलाम और आतंकी याकूब की तुलना दुर्भाग्यपूर्ण

यह एक संयोग ही था कि एक ओर मिसाइल मैन पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब का इंतकाल हो गया और दूसरी ओर मुंबई बम धमाके के षड्यंत्रकारी याकूब मेमन को फांसी दी जानी थी। सोशल मीडिया के जरिए मानो पूरा देश उबल रहा था। कहीं अश्रुपूरित भावातिरेक में तो कहीं उन्माद में। एक ओर जहां स्वाभाविक रूप से कलाम साहब की शान में गद्यात्मक व पद्यात्मक श्रद्धांजली का सैलाब था तो दूसरी ओर याकूब को फांसी दिए जाने पर राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण दिल को ठंडक पहुंचाने वाली शब्दावली। यह सब कुछ स्वाभाविक ही था। हालांकि कलाम साहब के प्रति अतिरिक्त से भी अतिरिक्त सम्मान जाहिर किए जाने पर कहीं कहीं ऐसा लगा कि कहीं ये उद्देश्य विशेष के लिए तो नहीं किया जा रहा। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक समुदाय विशेष के व्यक्ति को फांसी दिए जाने से जो क्षति होगी, उसकी पूर्ति वर्ग विशेष के कलाम साहब को अतिरिक्त सम्मान दे कर न्यूट्रलाइज किया जाए, ताकि यह संदेश जाए कि हम समुदाय विशेष के व्यक्ति को अतिरिक्त सम्मान भी देना जानते हैं, गर वह देश के लिए काम करता है तो। मगर इस मौके पर जिस तरह एक समुदाय विशेष को निशाना बना कर कलाम साहब व याकूब की तुलना की गई, वह साबित कर रही थी कि कुछ विचारधारा विशेष से जुड़े लोग दोनों के एक ही समुदाय का होने की आड़ में समुदाय विशेष के लोगों को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं।
फेसबुक पर हुई एक पोस्ट का नमूना देखिए:-
जिनको ये लगता है कि हमें खास वर्ग का होने के कारण हर बार निशाना बनाया जाता है और हमारी देशभक्ति पर शक किया जाता है, उनको ये भी देखना चाहिए कि किस तरह पूरा देश अब्दुल कलाम साहब के निधन पर शोक में डूब गया है। देश का हर नागरिक आज शोकमग्न है और हर कोई कलाम साहब को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। इज्जत कमाई जाती है, मांगी नहीं जाती।
यह एक व्यक्ति की टिप्पणी मात्र नहीं है। बाकायदा एक मुहिम का हिस्सा है, जिसके चलते आज पूरा सोशल मीडिया बेहद तल्ख टिप्पणियों से अटा पड़ा है। देश भक्ति के बहाने सामुदायिक जहर उगला जा रहा है।
जहां तक टिप्पणी का सवाल है, प्रश्न ये उठता है कि कलाम साहब इसमें एक वर्ग विशेष के कैसे हो गए? जिस व्यक्ति ने पूरा जीवन देश की सेवा की, राष्ट्रपति के रूप में भी सेवाएं दीं, उसमें उनके एक वर्ग विशेष का होने की क्या भूमिका थी? क्या उनके एक वर्ग विशेष का होने के बावजूद राष्ट्रभक्त होने की हमें अपेक्षा नहीं थी? क्या कलाम साहब जिस मुकाम को हासिल किए, उसकी हमें अपेक्षा नहीं थी? यदि नहीं थी तो इसका अर्थ केवल ये निकलता है कि हम एक पूरे समुदाय को नजरिए विशेष से देखने की कोशिश कर रहे हैं। यदि कोई एक व्यक्ति देश के प्रति समर्पित रहा है तो उसमें उसके वर्ग विशेष को रेखांकित करने की जरूरत क्या है? क्या कलाम साहब अकेले ऐसे अनूठे व्यक्ति हैं? क्या हमारी गुप्तचर सेवाओं, सुरक्षा एजेंसियों में वर्ग विशेष के हजारों व्यक्ति देश के प्रति निष्ठा नहीं रखते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम कलाम साहब के एक वर्ग विशेष का होने के बहाने एक पूरे समुदाय पर तंज कस रहे हैं? ऐसा करके हमें क्या हासिल होने जा रहा है? क्या हम दोनों घटनाओं को अलग-अलग परिपेक्ष में नहीं देख सकते? क्या इससे जिस समुदाय को जो संदेश देने की कोशिश की जा रही है, वह इसे इसी रूप में लेगा या फिर भयभीत हो कर और अधिक संगठित व प्रतिक्रियावादी होगा।
बात कुल जमा ये है कि कलाम साहब ने देश के लिए काम किया तो उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए, चाहे वे किसी भी समुदाय से हों और याकूब ने आतंकी वारदात में हिस्सा लिया है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो। अपराधी को कानूनी प्रावधान के तहत कड़ा से कड़ा दंड मिलना ही चाहिए, उसमें यह नहीं देखा जा सकता कि वह किस समुदाय से है। इसमें कोई किंतु परंतु होने का सवाल ही नहीं है। यहां इस विषय पर चर्चा होने का कोई मतलब ही नहीं कि फांसी जायज थी या नाजायज। जायज ही थी, तभी देश की न्याय व्यवस्था ने उसे दी। दूसरे पक्ष की दलील अपनी जगह है। चूंकि अधिसंख्य लोग आतंकी को फांसी दिए जाने के पक्ष में रहे, इस कारण जाहिर तौर पर याकूब की पैरवी करने वालों पर गालियों की बौछार हुई। मगर कानून ने अपना काम किया। इसमें कोई अगर समुदाय विशेष को तुष्ट करने का कृत्य देखता है, यह उसकी अपनी सोच हो सकती है। मगर जिस तरह दोनों घटनाओं को जोड़ कर समुदाय विशेष को सबक देने की कोशिश की गई, वह कम से सदाशयता की श्रेणी में तो नहीं गिनी जा सकती।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, जुलाई 07, 2015

वसुंधरा राजे को हटाना हंसी-खेल नहीं

जैसी कि इन दिनों चर्चा है कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे आज हटीं, कल हटीं, फिर ये आया कि फिलहाल मामला टल गया है, ये बातें हैं, बातों का क्या? धरातल की सच्चाई इससे भिन्न है। हालांकि यह सही है कि आज भाजपा आलाकमान अमित शाह व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बहुत ताकतवर हैं और चाहें तो इतना बड़ा कदम उठा भी सकते हैं, मगर उन्हें भी ऐसा निर्णय करने से पहले कई बार सोचना होगा। वसुंधरा को यूं ही हटाना आसान नहीं है। संसद सत्र में हो सकता है कि विपक्ष भारी दबाव बनाए और वसुंधरा को हटाना मजबूरी हो जाए, फिर भी उन्हें हटाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी भाजपा को। इसलिए भाजपा को इस मसले से जुड़े नफे नुकसान का ठीक से आकलन करना होगा।
वस्तुत: वसुंधरा को हटाना इसलिए नामुमकिन लग रहा है कि अगर भाजपा विपक्ष के दबाव में आ कर निर्णय लेगी तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के इस्तीफे के लिए भी दबाव बढ़ेगा। राजस्थान की प्रचंड बहुमत वाली सत्तारूढ़ भाजपा में खलबली मचेगी, सो अलग। बेशक ताजा मसले से भाजपा की किरकिरी हुई है और विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी की चुप्पी पर सवाल उठ रहे हैं। साथ ही कांग्रेस भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस के भाजपा के नारे की बखिया उधेड़ रही है। मगर उससे अधिक नुकसान राजे को हटाने से होने की आशंका है।
यह सर्वविदित है कि वसुंधरा राजे सिंधिया राजघराने से ताल्लुक रखती हैं और वे विजयराजे सिंधिया की बेटी हैं, जिन्होंने भाजपा को शुरुआती दिनों में जबरदस्त आर्थिक मदद की थी। उनका अहसान भाजपा कभी नहीं भुला सकती। इसके अतिरिक्त वसुंधरा ने पूर्व में मुख्यमंत्री रहते भी पार्टी को भरपूर फंडिंग की थी। पहले जब केन्द्र में भाजपा सरकार में नहीं थी, तब पार्टी के नेताओं में इतना दम नहीं था कि वे राजे के वजूद के साथ छेड़छाड़ कर सकें।  यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी उन पर लगाम लगाने में नाकामयाब हो गया था। राजनाथ सिंह के बीजेपी अध्यक्ष के पहले कार्यकाल में राजे ने केंद्रीय नेतृत्व की तमाम कोशिशों के बावजूद राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता का पद छोडऩे से मना कर दिया था। उस वक्त राजे ने सिंह के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के लिए अपने समर्थक विधायकों को दिल्ली भी भेजा था। आखिर में जब यह पूरी तरह साफ हो गया कि उनके पास पद छोडऩे के सिवा कोई विकल्प नहीं है, तो उन्होंने पार्टी के दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी को अपना इस्तीफा पत्र सौंपा और सिंह से मुलाकात तक नहीं की। वे कितनी प्रभावशाली थीं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तकरीबन एक साल तक विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद खाली रहा। बाद में जब पार्टी को झुक कर फिर वसुंधरा को ही कमान सौंपनी पड़ी। उन्हें बाकायदा प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया और चुनाव में उनका चेहरा ही आगे रखना पड़ा। वे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व और आरएसएस पर यह दबाव बनाने में कामयाब रहीं कि 2013 का विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा जाए। यह अलग बात है कि जब भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो यही कहा गया कि मोदी लहर का असर था, मगर जानकार लोगों का पता था कि जीत की रणनीति वसुंधरा ने ही रची थी।
आज भी पार्टी विधायकों का एक बड़ा तबका उनके आभा मंडल के इर्दगिर्द घूमता है। हालांकि इसमें मत भिन्नता है कि विधायकों का बड़ा तबका वसुंधरा के ही साथ है। अधिसंख्य विधायकों ने अपना समर्थन राजे के पक्ष में जताया है, मगर संघ के सूत्रों का कहना है कि ये समर्थन केवल उनके पद पर रहने तक है, हटाने के बाद अधिसंख्य विधायक केन्द्रीय नेतृत्व के आगे नतमस्तक हो जाएगा। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कई ऐसे विधायक भी हैं, जो नजर तो वसुंधरा के साथ आ रहे हैं, मगर अंदर ही अंदर संघ व मोदी के प्रति निष्ठा जता रहे हैं। खैर, सच्चाई जो भी हो, इतना तय माना जा रहा है कि वसुंधरा को हटाते ही राजस्थान में भाजपा संगठन को बड़ा नुकसान हो सकता है। एक बात ये भी कि अगर वसुंधरा को हटाया गया तो वे भी चुप रहने वाली नहीं हैं। कोई न कोई खेल तो खेल ही लेंगी। यद्यपि बताया ये जा रहा है कि मोदी की राजे पर टेढ़ी नजर है और वे चाहें तो इस मौके पर उनको हटा सकते हैं, मगर उसके बाद जो स्थितियां बनेंगी, उनको समेटना मुश्किल होगा। इसी वजह से उनको हटाना आसान नहीं माना जा रहा। हां, इतना तय है कि अभी राजे भले ही हटाई न जा सकें, मगर पद पर रहते हुए भी वे और अधिक दबाव में काम करने को मजबूर रहेंगी। कदाचित भाजपा आलाकमान इसी वजह से बड़ा कदम उठाने से पहले बार-बार सोच रहा है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, जून 21, 2015

क्या सुषमा स्वराज किसी षड्यंत्र की शिकार हुई?

आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी की मदद करने को लेकर विवादों में फंसीं केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हालांकि अपनी गलती को यह कह कर स्वीकार सा कर लिया है कि उन्होंने जो कुछ किया मानवीय आधार पर किया, मगर विपक्ष के ताबड़तोड़ हमले के बीच भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व संघ ने जिस प्रकार उनका बचाव किया है, उससे प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं दाल में काला है।
विपक्ष के सवाल विपक्षी धर्म के नाते अपनी जगह हैं, मगर कुछ और भी सवाल खड़े होने लगे हैं। वो ये कि क्या सुषमा स्वराज किसी षड्यंत्र का शिकार हुई हैं? क्या सुषमा स्वराज के निर्णय के पीछे सचमुच कोई पारिवारिक कारण हैं या मानवीय आधार पर पार्टी या सरकार में वे इस्तेमाल हुई हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिन्होंने उन्हें इस अनाचार के लिए इस्तेमाल किया, उन्हें भय है कि स्वराज को इस मामले में किनारे करने पर उनका भांडा फूट जाएगा? वरना क्या वजह हो सकती है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ललित मोदी के नाम पर अपनी सरकार को बदनाम होते देख सुषमा को बचाए हुए हैं?
असल में षड्यंत्र का सवाल इस कारण उठा है कि नरेन्द्र मोदी कभी नहीं चाहेंगे कि उनसे अधिक योग्य कभी सिर न उठा सकें। जिन हालात में मोदी को सुषमा को विदेश मंत्री बनाना पड़ा, वह उनकी मजबूरी थी। देश-विदेश की जानकारी और अनुभव के मामले में सुषमा स्वराज मोदी से कई गुना बेहतर मानी जाती हैं, मगर चूंकि संघ के फैसले से मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट किया गया, उससे सुषमा को तकलीफ हुई ही होगी। वैसे भी वे पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी लॉबी की मानी जाती हैं। पिछले एक साल में जिस प्रकार मोदी ने विदेश मंत्री होते हुए भी सुषमा की उपेक्षा कर स्वयं विदेश दौरे किए, उस पर भी खूब कानाफूसी हो रही थी। बहरहाल, सार यही है कि मोदी तभी कामयाब हो सकते हैं, जबकि पार्टी के भीतर उनके प्रतिद्वंद्वी रहे कभी उभर कर न आएं, इस कारण वे इस मामले में इंदिरा गांधी वाली शैली अपनाना पसंद करेंगे। कुछ राजनीतिक समीक्षक इस ओर इशारा भी कर रहे हैं कि मोदी इंदिरा पैटर्न पर काम कर रहे हैं। हालांकि पक्की तौर पर ये कहना कठिन है कि सुषमा इस मामले में भूल से फंस गई हैं या फंसाई गई हैं, मगर इतना तय है कि सुषमा की ताजा स्थिति का मोदी भरपूर लाभ उठाना चाहेंगे। भले ही वे उन्हें हटा कर नई मुसीबत मोल न लें, मगर इस बहाने सुषमा को दबा कर जरूर रखेंगे। सफल राजनीतिज्ञ तो यही करेगा।
बताया तो यहां तक जा रहा है कि आईपीएल के पूर्व चेयरमैन ललित मोदी से जुड़ा विवाद उछलने से पहले ही कथित तौर पर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने नरेन्द्र मोदी के सामने इस्तीफे की पेशकश की थी। मोदी ने बीजेपी और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सीनियर नेताओं की मीटिंग बुलाई थी और यह विचार-विमर्श किया गया था कि इस मसले पर सरकार और पार्टी की रणनीति क्या होगी। बताया जाता है कि सुषमा ने इस मीटिंग में अपना पक्ष रखते हुए साफ तौर पर कहा था कि वह नहीं चाहतीं कि उनकी वजह से सरकार को किसी तरह की शर्मिंदगी का सामना करना पड़े और वह इसके लिए इस्तीफा देने को भी तैयार हैं। मगर मोदी को यही उचित लगा कि इस वक्त उनका इस्तीफा नहीं लिया जाना चाहिए। इस रणनीति के तहत ही पार्टी अध्यक्ष अमित शाह, गृह मंत्री राजनाथ सिंह और आरएसएस के नेता इंद्रेश कुमार ने सुषमा स्वराज के समर्थन में बयान दिया। अगर मोदी सुषमा के इस्तीफे की पेशकश को स्वीकार कर लेते हैं तो यह सरकार के लिए बेहद शर्मनाक होगा कि उसका विदेश मंत्री इस प्रकार निपट जाए। दूसरा ये कि मुक्त होते ही सुषमा मोदी के खिलाफ तानाबाना बुनने के लिए आजाद हो जाएंगी।
तेजवानी गिरधर
7742067000

सोमवार, फ़रवरी 23, 2015

अजीब पसोपेश में है हार के बाद कांग्रेस

देश की राजधानी दिल्ली के विधानसभा चुनाव में सूपड़ा साफ पराजय के बाद भी कांग्रेस पार्टी के नेता न तो कुछ सीखने को तैयार हैं और न ही उन्हें आगे की रणनीति सूझ रही है। हार के तुरंत बाद जिस प्रकार पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने हार का ठीकरा अजय माकन पर फोड़ा, वहीं माकन भी पलट वार करने से नहीं चूके। इससे पार्टी की बहुत छीछालेदर हुई। पार्टी हाईकमान कुछ सख्त हुआ ही था कि एक समूह ने प्रियंका गांधी को आगे लाने की मांग उठा डाली। उठा क्या डाली, दोहरा डाली। जब-जब भी कांग्रेस को झटका लगता है, एक तबका राहुल की बजाय प्रियंका को आगे लानेे की रट लगाता ही है। ऐसे में हाईकमान किंकर्तव्यविमूढ़ सा नजर आता है।
कितनी अफसोसनाक बात है कि हार के बाद कांग्रेस को अपनी दुर्गति पर पश्चाताप करके नए सिरे से समीक्षा करनी चाहिए थी, वहीं इसके दो नेता शीला दीक्षित व अजय माकन अंदर की लड़ाई सड़क पर ले आए। जहां शीला दीक्षित ने खुले रूप में अजय माकन के चुनाव अभियान को नाकाफी बताया है, वहीं माकन भी सीधे शब्दों में शीला दीक्षित के पन्द्रह वर्षों के कार्यकाल को दोषी ठहराया। दोनों के बीच इस प्रकार की बयानबाजी होना, निसंदेह यह तो साबित करता ही है कि कांगे्रस की इस शर्मनाक हार को किसके मत्थे मढ़ा जाए। हालांकि हाईकमान ने अजय माकन के इस्तीफे को नामंजूर करके यह संदेश दिया है कि वह हार के लिए किसी एक नेता को दोषी ठहराने के मूड में नहीं है, बावजूद इसके माकन अपने भविष्य को लेकर सशंकित यह कह बैठे कि शीला दीक्षित अगर चुनाव से पूर्व आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की बात नहीं करतीं तो इतनी बुरी स्थिति नहीं होती।
बताया जाता है कि कांग्रेस के एक धड़े में यह सुगबुगाहट भी होने लगी है कि शीला दीक्षित ने अंदरूनी तौर पर केजरीवाल से हाथ मिला लिया है, क्योंकि स्वयं शीला भी इस बात से डरी हुई हैं कि कहीं नई सरकार उनके खिलाफ चल रहे घोटालों के मामलों को उजागर करते हुए कार्रवाई न कर दे। कहा जाता है कि इसका मोर्चा स्वयं शीला दीक्षित ने अपने सांसद पुत्र संदीप दीक्षित को आगे करके संभाला। ज्ञातव्य है कि संदीप दीक्षित ने कांग्रेस के प्रचार अभियान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। इसीलिए कांग्रेस में उनकी भूमिका को लेकर कई प्रकार के सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी की यह नसीहत कि नेता बयानबाजी से बाज आएं, उनके गंभीर होने का प्रमाण है।
जाहिर है लोकसभा और पिछले विधानसभा चुनाव और हाल के दिल्ली विधानसभा चुनावों से कांग्रेस ने कोई सबक नहीं लिया। कांग्रेस के जो अंदरूनी हालात है, उनसे लगता भी नहीं है कि पार्टी में बदलाव और आत्ममंथन का दौर शुरु हो पाएगा। कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की मांग लोकसभा चुनाव के बाद से ही शुरु हो गई थी। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद इस मांग ने एक बार फिर जोर पकड़ लिया है। यह पार्टी के लिए एक गंभीर मसला है। कांग्रेस का एक तबका कांग्रेस की हालत सुधारने के लिए लगातार प्रियंका को आगे लाने की मांग कर रहा है। जाहिर तौर पर ऐसे कांग्रेसी वे हैं जो पाटी्र्र की दिन ब दिन दयनीय होती जा रही स्थिति से चिंतित है, मगर दिक्कत ये है कि प्रियंका को आगे लाने की बात मानना ही इस बात का पुख्ता सबूत और स्वीकारोक्ति हो जाएगी कि राहुल अप्रासंगिक हो गए हैं। हालांकि इक्का-दुक्का को छोड कर किसी की यह कहने की हिम्मत नहीं कि राहुल की जगह प्रियंका को कमान दी जाए, मगर सच ये है कि अधिसंख्य कांग्रेसी कार्यकर्ता यही मानता है कि प्रियंका एक ब्रह्मास्त्र हैं, जिसे अगर अभी नहीं चला गया तो आखिर कब चला जाएगा। कदाचित सोनिया व अन्य बड़े नेता इस बात को अच्छी तरह से जानते होंगे, मगर दिक्कत वही है कि प्रियंका को आगे लाने पर राहुल का राजनीतिक कैरियर समाप्त हो जाएगा। प्रियंका को लाने से संभव है पार्टी की नैया पार लग भी जाए, मगर ऐसे में पुत्र मोह उससे भी बड़ी बात है। ये भी पक्का है कि सोनिया की इच्छा के बिना प्रियंका को आगे लाना कत्तई नामुमकिन है। इस कारण आम तौर पर नेता चुप ही हैं। कोई भी अपना रिपोर्ट कार्ड खराब नहीं करना चाहता।
जहां तक राहुल की बात है, उन पर एक ऐसे समय में कांग्रेस की कमान संभालने का दबाव है, जब कांग्रेस काफी कुछ खो चुकी है। भाजपा पूरी तरह से सशक्त हो कर उभर चुकी है। कई राज्यों में कांग्रेस का वोट अन्य पार्टियां हथिया चुकी हैं। दिल्ली में तो सारा वोट खिसक कर आम आदमी पार्टी के पास चला गया है। भाजपा हिंदूवाद के नाम पर विस्तार पा रही है तो आम आदमी पार्टी ईमानदार राजनीति के नए प्रयोग के कारण आकर्षक हो चली है। ऐसे में कांग्रेस अपने वजूद को कैसे बचाए रखे, इसको लेकर बड़ा पसोपेश है।

आप की जीत ने बढ़ाया विपक्ष का हौसला

आम आदमी पार्टी की दिल्ली में प्रचंड बहुमत से हुई जीत से भाजपा कदाचित चिंतित मात्र हो और समय से पहले खतरे की चेतावनी मिलने के कारण संभलने की विश्वास रखती हो, मगर दूसरी ओर हताश-निराश विपक्ष का हौसला बढ़ा ही है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जिस प्रकार भाजपा ने जीत हासिल की, वह ऐसे लगने लगी थी कि अब भाजपा अपराजेय हो गई है, उसे हराना अब शायद कभी संभव न हो। मगर आम आदमी पार्टी के ताजा चमत्कार ने यह पुष्ट कर दिया है कि राजनीति में कुछ भी स्थाई नहीं होता। जब भाजपा को दिल्ली में पूरी तरह से निपटाया जा सका है तो उसे अन्य राज्यों में भी चुनौती दी जा सकती है। कांग्रेस भी भले ही पूरी तरह निपट गई, मगर  अब वह इस पर चिंतन करने की स्थिति में है कि जिन राज्यों में उसका सीधा मुकाबला भाजपा से है, वहां पार्टी को मजबूत किया जा सकता है। एक वाक्य में कहा जाए तो यह कहना उपयुक्त रहेगा कि आप की जीत ने देश की राजनीति के समीकरणों को बदलने का अवसर दे दिया है।
ज्ञातव्य है कि पिछले दशक की कांग्रेस बनाम विपक्षी राजनीति को समाप्त कर भाजपा बनाम विपक्ष के परिदृश्य का मार्ग प्रशस्त हुआ था। नतीजतन बिहार में पूर्व दुश्मन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ने महागठबंधन बना लिया। भगवा ताकत के खिलाफ विपरीत धु्रव ममता बनर्जी और वाम दल एक ही भाषा बोलते दिख रहे हैं। जनता परिवार के बाकी घटकों को एक साथ लाने की कोशिशें हो रही हैं, हालांकि अभी तक प्रक्रिया धीमी थी, लेकिन आप की कामयाबी के बाद इस मुहिम के फिर से परवान चढऩे की उम्मीद है। पिछले नवंबर-दिसंबर में गैर भाजपा दलों के बीच जो समन्वय दिखाई दिया, वह आगामी बजट सत्र के दौरान पहले की तुलना में अधिक अड़चनें खड़ी कर सकता है।
आप की जीत ने भाजपा के सहयोगी दलों का भी हौसला बढ़ाया है और वे अपने लिए अधिक की मांग कर सकते हैं। महाराष्ट्र का ही उदाहरण देखिए। वहां सरकार में शिव सेना खुद को उपेक्षित महसूस कर रही है। उसी के चलते आप की जीत के बाद उद्धव ठाकरे ने दिल्ली में भाजपा की हार के लिए मोदी की आलोचना की।
सहयोगी दलों की छोडिय़े, भाजपा के अंदर भी वे नेता, जो मोदी की चमक के कारण सहमे हुए थे, अब थोड़ी राहत की सांस ले रहे हैं। यह बात तो मीडिया में खुल कर आई है कि दिल्ली के चुनाव परिणाम का असर राजस्थान में भी माना जाता है। राजनीतिक जानकार मान कर चल रहे थे कि अगर मोदी दिल्ली में भी कामयाब हो गए तो वे वसुंधरा को हटा कर किसी अन्य यानि ओम प्रकाश माथुर को मुख्यमंत्री बना सकते हैं, मगर अब वसुंधरा को कुछ राहत मिली है। चूंकि मोदी पहले दिल्ली में हुई हार के सदमे से उबरना चाहेंगे। इतना ही नहीं उन्हें इस बात पर विचार करना होगा कि जिस जीत को वे शाश्वत मान कर चल रहे थे, उसे कोई भेद भी सकता है।
आम आदमी पार्टी की बात करें तो यह एक अहम सवाल है कि अब आगे उसकी रणनीति क्या होगी? क्या वह उसी तरह गैर भाजपा दलों को एक साथ ला पाएगी, जिस तरह 1989 में वीपी सिंह ने किया था। वी पी सिंह ने गैर कांग्रेस प्लेटफॉर्म बनाया। उन्होंने मिस्टर क्लीन राजीव गांधी को गद्दी से बेदखल किया और प्रचंड बहुमत के साथ 415 लोकसभा सीट जीतने वाली कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। हालांकि ऐसा नहीं लगता कि आप आने वाले दिनों में इस तरह का कोई जोखिम लेना चाहेगी। इसने दिल्ली में अपने पक्ष में नीतीश कुमार के चुनाव प्रचार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से परहेज किया क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम इसका केंद्रीय मुद्दा है और भ्रष्टाचार के मामले में दोषी लालू, नीतीश के अब साथ हैं। यह ऐसी समस्या है जिसके चलते आप कई क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करने से बचना चाहेगी। क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने के बजाय इस बात की संभावना है कि भाजपा को हराने के लिए आप अपनी ताकत को बढ़ाना चाहेगी। दिल्ली में ऐतिहासिक जीत के साथ निश्चित रूप से देश के अन्य हिस्सों में आप को अपना विस्तार करने में सहायता मिलेगी।
कुल मिला कर केजरीवाल जानते थे कि राष्ट्रीय फलक पर उभरने के लिए उनको दिल्ली में तत्काल नतीजे दिखाने होंगे, लेकिन अन्य दलों के साथ मिलकर एक प्लेटफॉर्म बनाने का मामला अभी संभव प्रतीत नहीं होता। हालांकि मोदी के विजय रथ को रोक कर हताश क्षेत्रीय क्षत्रपों को उन्होंने नया उत्साह तो दिया ही है।

सोमवार, जनवरी 26, 2015

सोशल मीडिया पर हुई हामिद अंसारी की जम कर मजम्मत

गणतंत्र दिवस पर राजधानी दिल्ली में आयोजित मुख्य समारोह में गार्ड ऑफ ऑनर के दौरान सैल्यूट नहीं करने को लेकर उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी की सोशल मीडिया पर जम कर मजम्मत हुई। कई हिंदूवादियों ने तो बाकायदा निशाना बना कर उनकी राष्ट्र भक्ति पर सवाल उठाए। कुछ लोगों ने गंदे अल्फाज का प्रयोग किया, जिनमें सांप्रदायिकता की बू आ रही थी। इससे पूर्व एक समारोह में आरती की थाली न लेने का मसला भी फिर से प्रकाश में ला गया। मामले ने राजनीतिक रंग भी लिया। जहां भाजपाई अंसारी की निंदा कर रहे थे, वहीं कांग्रेसी उनका बचाव करते नजर आए। दिन भर फेसबुक व वाट्स ऐप पर बहस होती रही। एक मुस्लिम होने के नाते कीजा रही मजम्मत से कुछ मुस्लिम आहत हुए और प्रतिक्रिया दी तो उन्हें हिंदूवादियों ने घेर लिया। वायरल हुए एक फोटो में तो बाकायदा सेना के कुत्तों को सलामी की मुद्रा में दिखाते हुए मूल फोटो जोड़ा गया, ताकि यह जाहिर हो कि सैल्यूट न करने वालों से तो कुत्ते ही बेहतर, जिनमें कि देशभक्ति मौजूद है। हालांकि सैल्यूट न करने वाले अमरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की भी आलोचना की गई, पर अंसारी की छीछालेदर बहुत ज्यादा हुई। जाहिर तौर पर बात सरकार तक भी गई। इस पर उपराष्ट्रपति की ओर से सफाई पेश की गई कि उन्होंने सैल्यूट न दे कर कुछ गलत नहीं किया है।
असल में अंसारी के खिलाफ जो कुछ लिखा गया, वह इतना गंदा है कि उसे यहां उल्लेखित करना संभव नहीं है। सोशल मीडिया पर चूंकि किसी का नियंत्रण नहीं है, इस कारण वहां घटिया से घटिया तरीके से भड़ास निकाली गई, मगर यहां उसका हूबहू उल्लेख किया जाना संभव नहीं है। बस इतना ही कहा जा सकता है कि सैल्यूट न करने के कृत्य को उनके मुसलमान होने से जोड़ा गया, जो स्वाभाविक रूप से यह जाहिर करता है कि अब हिंदूवाद पूरी उफान पर है। अहम सवाल सिर्फ ये कि अगर संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को भी हम हिंदू या मुसलमान की नजर से देखते हैं तो इससे घटिया सांप्रदायिकता कोई हो नहीं सकती।
बहरहाल, अब अंसारी को निर्दोष बताने वाला एक बयान यहां पेश है, जो कितना सही है, वह तो फैसला आप ही कर सकते हैं:-
सोशल मीडिया पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक फोटो काफी चर्चा में है, उस फोटो में यह दिखाया गया है कि परेड के दौरान गार्ड आफ ऑनर के दौरान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सैल्यूट क्यों नहीं किया? आरएसएस ने यह फोटो ट्वीट किया है और उपराष्ट्रपति ने राष्ट्रध्वज को सलाम क्यों नहीं किया? इस बात को यहां साफ करना बहुत जरूरी है कि सच्चाई क्या है और सलामी के नियम क्या कहते हैं। क्योंकि जिन्हें सलामी के नियम नहीं मालूम हैं, वे सोशल मीडिया में उपराष्ट्रपति की बेईज्जती करने से नहीं हिचकेंगे।
सैल्यूट के नियम के अनुसार झंडा फहराने, झंडा झुकाने या परेड के दौरान सलामी लेने के दौरान, वहां मौजूद सभी लोग झंडे की तरफ मुंह किए रहेंगे और सावधान की मुद्रा में खड़े होंगे तथा राष्ट्रपति (तीनों सेना के प्रमुख) और वर्दी में मौजूद लोग सलामी देंगे। जब परेड के दौरान आपके सामने से झंडा गुजर रहा हो तो वहां मौजूद सभी लोग सावधान की मुद्रा में खड़े रह सकते हैं या सलामी भी दे सकते हैं। यानि ये अनिवार्य नहीं है। कोई भी गणमान्य व्यक्ति सलामी दे सकता है, भले ही उसके सिर ढका न हो..। तो ये है सलामी का नियम।
मगर, सोशल मीडिया पर एक फोटो को लेकर किसी की भी धज्जियां उड़ा सकते हैं, लेकिन एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी कोई नए नहीं है। उपराष्ट्रपति के तौर पर यह उनका दूसरा कार्यकाल है और वे इन नियमों को अच्छी तरह जानते हैं। इसके पहले भी वो डिप्लोमेट रहे हैं, कई देशों में राजदूत रह चुके हैं और यह उनका गणतंत्र दिवस की परेड में उपराष्ट्रपति के तौर पर आठवां साल है। यानि किसी पर भी इल्जाम लगाने के पहले यह तय कर लेना चाहिए कि नियम क्या कहता है।
उधर विवाद के बाद उनके कार्यालय ने बयान जारी कर स्पष्ट किया कि प्रोटोकॉल के मुताबिक इसकी आवश्यकता नहीं है। संयुक्त सचिव और उपराष्ट्रपति के ओएसडी गुरदीप सप्पल ने बयान जारी कर कहा कि गणतंत्र दिवस परेड के दौरान भारत के राष्ट्रपति सर्वोच्च कमांडर के नाते सलामी लेते हैं। प्रोटोकॉल के मुताबिक उपराष्ट्रपति को सावधान की मुद्रा में खड़ा होने की जरूरत होती है। सप्पल ने कहा कि जब उपराष्ट्रपति प्रधान हस्ती होते हैं तो वे राष्ट्रगान के दौरान पगड़ी पहन कर सैल्यूट देते हैं जैसा कि इस वर्ष एनसीसी शिविर में हुआ।
एक दिलचस्प वाकया ये भी हुआ कि जब कांग्रेसियों से न रहा गया तो उन्होंने भी एक फोटो वायरल किया, जिसमें दिखाया गया था कि एक समारोह में अन्य सभी तो ताली बजा रहे हैं, जबकि मोदी नहीं। हालांकि ये खिसयाना सा ही लगा।

-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, जनवरी 20, 2015

मोदी व केजरीवाल, दोनों की अग्नि परीक्षा है दिल्ली विधानसभा का चुनाव

हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक-एक बार अपनी-अपनी चमक दिखा चुके हैं, मगर दिल्ली विधानसभा के दुबारा होने जा रहे चुनाव में दोनों को ही एक अग्रि परीक्षा से गुजरना है। एक ओर जहां मोदी को यह साबित करना है कि जो लहर उन्होंने पूरे देश में चला कर सत्ता हासिल की और उसके बाद हुए चुनावों में भी लहर की मौजूदगी का अहसास कराया, क्या वह देश की राजधानी दिल्ली में भी मौजूद है, वहीं केजरीवाल को एक बार फिर उस कसौटी से गुजरना है, जिसमें उन्होंने साबित किया था कि देश को सत्ता परिवर्तन ही नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की जरूरत है।
हालांकि सीधे तौर पर दिल्ली में होने जा रहे चुनाव से मोदी का लेना-देना नहीं है, क्योंकि वहां उन्हें या तो अपनी पार्टी व उसकी नीतियों के आधार पर या फिर किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके चुनावी रणनीति बनानी है, बावजूद इसके इस चुनाव के परिणाम उनकी छवि व लहर का आकलन करने वाले हैं। यूं भी दिल्ली का चुनाव कोई मात्र विधानसभा का ही चुनाव नहीं है, बल्कि वह एक तरह से राष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित रहने वाला है। इसी चुनाव से पता लगेगा कि आम जनता मोदी व उनकी नीतियों का समर्थन करती है या फिर केजरीवाल की कल्पित नई व साफ सुथरी व्यवस्था में अपनी आस्था जताती है।
जैसा नजर आता है, उसके अनुसार भाजपा को मोदी की छवि, उनकी लहर और देश में उसकी सत्ता का लाभ मिलने ही वाला है। दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में भाजपा इतनी मजबूत स्थिति में नहीं थी। दूसरा ये कि जो लहर पूरे देश में अन्य विधानसभा चुनावों में दिखाई दी थी, उसका असर दिल्ली में नजर नहीं आया था। वहां चूंकि जनता सीधे तौर पर अन्ना हजारे के आंदोलन व केजरीवाल की मुहिम से सीधे जुड़ी हुई थी, इस कारण मोदी के नाम का कोई खास चमत्कार नहीं हो पाया था। मगर अब स्थितियां भिन्न हैं। मोदी एक बड़ा पावर सेंटर बन चुके हैं, जबकि केजरीवाल मुख्यमंत्री पद से स्तीफा देकर लोकसभा चुनाव में खराब परफोरमेंस की वजह से पहले जितने लोकप्रिय नहीं रह गए हैं। उनकी दिल्ली की राजनीतिक गणित पर पकड़ तो है, मगर सवाल ये उठता है क्या दिल्ली की जनता केन्द्र में भाजपा की सरकार के रहते केजरीवाल को दुबारा मुख्यमंत्री बनने का मौका देगी? क्या जिन मुद्दों से आकर्षित हो कर जनता ने केजरीवाल का साथ दिया था, वे अब बदली परिस्थितियों में भी उसे जरूरी नजर आते हैं?
कुल मिला कर मोदी व केजरीवाल के लिए ये चुनाव बेहद प्रतिष्ठापूर्ण हैं। अगर भाजपा यह चुनाव हारती है तो इसी के साथ मोदी लहर के अवसान की शुरुआत हो जाएगी। और अगर जीतती है तो मोदी और अधिक ताकतवर हो जाएंगे। उधर केजरीवाल के लिए बड़ी परेशानी है। अगर वे जीतते हैं तो फिर से अपनी पार्टी को संवारने और उसे राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का मौका पाएंगे और अगर हारते हैं तो इसी के साथ उनके राजनीतिक अवसान का खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
-तेजवानी गिरधर