तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, दिसंबर 25, 2014

मोदी के विकास को पटरी से नहीं उतार दें ये भाजपा नेता

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास के जिस वादे के साथ आंधी की तरह देश भर में छा गए, उसे देश की अब तक की राजनीति में आशावाद का अनूठा उदाहरण माना जा सकता है। और उससे भी बड़ी बात ये कि उनका सबका साथ सबका विकास नारा इतना लोकप्रिय हुआ है कि तटस्थ मुस्लिमों को भी मोदी भाने लगे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा के कुछ बयानवीर मोदी के विकास को पटरी से उतारने को उतारु हैं। हालत ये है कि खुद मोदी को संसद में अपनी मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे बनाम हरामजादे वाले बयान पर खेद तक व्यक्त करके विपक्ष से अपील करनी पड़ी कि साध्वी के माफी मांग लेने के बाद मामला समाप्त मान लिया जाना चाहिए। मोदी जैसे प्रखर नेता के लिए ऐसी अपील करते हुए कितना कष्टप्रद रहा होगा, जब उन्हें यह दलील देनी पड़ी होगी कि साध्वी पहली बार मंत्री बनी हैं और उनकी पृष्ठभूमि को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह अकेला एक उदाहरण नहीं कि जिसमें मोदी को खुद के विकास के नारे से जागी आशा में खलल पड़ता दिखाई दिया होगा।
इसमें कोई दोराय नहीं कि भाजपा या यूं कहना ज्यादा उचित होगा कि देश में मोदी का राज लाने में हिंदूवादी संगठन आरएसएस की अहम भूमिका रही है, मगर आम जनता की ओर से जिस प्रकार झोलियां भर कर वोट डाले गए, उसमें मोदी के प्रति विकास की आशा भरी निगाहें टिकी हुई हैं। आम जन लगता है कि मोदी निश्चित ही देश की कायापलट कर देंगे। मगर दूसरी ओर कट्टर हिंदूवादी नेता इसे हिंदुत्व को स्थापित करने का स्वर्णिम मौका मान कर ऐसी ऐसी हरकतें कर रहे हैं, जो मोदी के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। एक ओर मोदी दुनिया भर में घूम कर अपनी छवि को मांजने में लगे हुए हैं तो दूसरी उन्हीं के साथी उनकी टांगे खींच कर सांप्रदायिकता के दलदल में घसीटने से बाज नहीं आ रहे।
देश के ताजा हालात पर जानीमानी पत्रकार तवलीन सिंह की एक टिप्पणी ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि खुद मोदी के ही साथी उनकी जमीन को खोखला कर रहे हैं। आपको बता दे कि यह तवलीन सिंह वही हैं, जिन्होंने लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के पक्ष में लगभग एकपक्षीय पत्रकारिता की थी, लेकिन अब वे भी मानती हैं कि मोदी सरकार ने जब से सत्ता संभाली है, एक भूमिगत कट्टरपंथी हिन्दुत्व की लहर चल पड़ी है। ज्ञातव्य है कि उनकी यह टिप्पणी साध्वी निरंजन ज्योति के रामजादे बनाम हरामजादे वाले बयान पर आई है। लेकिन अफसोस कि इससे कोई सबक लेने के बजाय यह भूमिगत हिन्दू एजेण्डा अब गीता के बहाने और भी खतरनाक साम्प्रदायिक लहर पैदा करने जा रहा है।
मोदी सरकार की विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने जैसे ही हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करने की मांग की, देश धर्मनिरपेक्ष तबका यह सोचने को मजबूर हो गया है कि आखिर भाजपा राजनीति की कौन सी दिशा तय करने की कोशिश कर रही है। इससे भी खतरनाक बयान हरियाणा के मुख्यमन्त्री मनोहरलाल खट्टर का आया है, जिन्होंने यह मांग की है कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। इसका साफ मतलब है कि खट्टर भारतीय संविधान की जगह गीता को भारत का संविधान बनाना चाहते हैं।
असल में ऐस प्रतीते होता है कि मोदी के प्रधानमन्त्री बनते ही संघ परिवार का हिन्दुत्व ऐसी कुलांचे मार रहा है, मानो इससे बेहतर मौका अपना एजेंडा लागू करने को नहीं मिलने वाला है। एक अर्थ में यह बात सही भी है। पिछली बार जब भाजपा को अन्य दलों के साथ सरकार बनाने का मौका मिला था तो उसे धारा 370, कॉमन सिविल कोड व राम मंदिर के अपने मौलिक एजेंडे को साइड में रखना पड़ा था, मगर अब जबकि भाजपा प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हुई है, संघनिष्ठों को लगने लगा है कि यदि अब भी वे अपने एजेंडे को लागू न करवा पाए तो फिर जाने ऐसा मौका मिलेगा या नहीं। उन्हें ये खयाल ही नहीं कि मोदी ने हिंदूवादी एजेंडे को गौण कर विकास का नारा देने पर ही उन्हें सफलता हाथ लगी है। ऐसे में यह खतरा उत्पन्न होता नजर आ रहा है कि कहीं संघ खेमे के कुछ नेता कहीं मोदी के विकास को पटरी न उतार दें। आज जब देश महंगाई, भ्रष्टाचार से मुक्ति पा कर विकास के नए आयाम छूने के सपने देख रहा है, इस प्रकार के हिंदूवादी वादी मुद्दे उसकी आशाओं पर पानी न फेर दें, इसकी आशंका उत्पन्न होने लगी है। देखना ये है कि मोदी किस प्रकार संतुलन बना कर देश को विकास की दिशा में ले जाने में कामयाब हो पाते हैं।