तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, नवंबर 27, 2010

आखिर कब होगा छह दिन का हफ्ता?

एक चर्चा बार-बार उठती है कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार अपने दफ्तरों में फिर से छह दिन का हफ्ता करने पर विचार कर रही है। पिछले दिनों भी इस प्रकार की सुगबुगाहट सुनाई दी थी, लेकिन हुआ कुछ नहीं। असल में जब से अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने हैं, वे और उनके सिपहसालार ये महसूस कर रहे हैं पांच दिन का हफ्ता होने से आम जनता बेहद त्रस्त है, मगर चर्चा होती है और सिरे तक नहीं पहुंच पाती।
ज्ञातव्य है कि पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार के जाते-जाते कर्मचारियों के वोट हासिल करने के लिए पांच दिन का हफ्ता कर गई थीं। चंद दिन बाद ही आम लोगों को अहसास हो गया कि यह निर्णय काफी तकलीफदेह है। लोगों को उम्मीद थी कि कांगे्रस सरकार इस फैसले को बदलेगी। उच्च स्तर पर बैठे अफसरों का भी यह अनुभव था कि पांच दिन का हफ्ता भले ही कर्मचारियों के लिए कुछ सुखद प्रतीत होता हो, मगर आम जनता के लिए यह असुविधाजन व कष्टकारक ही है। हालांकि अधिकारी वर्ग छह दिन का हफ्ता करने पर सहमत है, लेकिन इसे लागू करने से पहले कर्मचारी वर्ग का मूड भांपा जा रहा है।
वस्तुत: यह फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
अब जब कि वसुंधरा की ओर से की गई व्यवस्था को दो साल से भी ज्यादा का समय हो गया है, यह स्पष्ट हो गया है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ी है। पांच दिन का हफ्ता करने की एवज में प्रतिदिन के काम के घंटे बढ़ाने का कोई लाभ नहीं हुआ है। कर्मचारी वही पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में वही पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। चर्चा कब अंजाम तक पहुंचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो केन्द्र सरकार के दफ्तरों में बेहतर काम हो ही रहा है। पांच दिन डट कर काम होता है और दो दिन मौज-मस्ती। मगर केन्द्र व राज्य सरकार के दफ्तरों के कर्मचारियों का मिजाज अलग है। केन्द्रीय कर्मचारी लंबे अरसे से उसी हिसाब ढले हुए हैं, जबकि राज्य कर्मचारी अब भी अपने आपको उस हिसाब से ढाल नहीं पाए हैं। वे दो दिन तो पूरी मौज-मस्ती करते हैं, मगर बाकी पांच दिन डट कर काम नहीं करते। कई कर्मचारी तो ऐसे भी हैं कि लगातार दो दिन तक छुट्टी के कारण बोर हो जाते हैं। दूसरा अहम सवाल ये भी है कि राज्य सरकार के अधीन जो विभाग हैं, उनसे आम लोगों का सीधा वास्ता ज्यादा पड़ता है। इस कारण हफ्ते में दो दिन छुट्टी होने पर परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हंै कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
ऐसा नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं, बेहद परेशान हैं, मगर बोल कोई नहीं रहा। कर्मचारी संगठनों के तो बोलने का सवाल ही नहीं उठता। राजनीतिक संगठन ऐसे पचड़ों में पड़़ते नहीं हैं और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों को क्या पड़ी है कि इस मामले में अपनी शक्ति जाया करें। ऐसे में जनता की आवाज दबी हुई पड़ी है। देखना ये है कि गहलोत आम लोगों के हित में फैसले को पलट पाते हैं या नहीं।

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

घटिया हरकत का जवाब घटिया तरीके से ही दिया सुदर्शन ने

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सहित अन्य हिंदूवादी संगठनों पर भगवा आतंकवाद का लेबल चस्पा किए जाने से तिलमिलाए संघ के पूर्व प्रमुख के. एस. सुदर्शन ने जब जहर उगला तो बवाल हो गया। पूरे देश में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने अपनी सुप्रीमो सोनिया गांधी पर कीछड़ उछाले जाने पर हंगामा कर दिया।
हालांकि सोनिया गांधी पर सास इंदिरा गांधी व पति राजीव गांधी की हत्या करवाने का जो आरोप सुदर्शन ने लगाया है, उससे संघ और भाजपा ने किनारा कर इसे सुदर्शन के निजी विचार बताया है, मगर संघ के सर्वोच्च पद बैठ चुके व्यक्ति के आग उगलने की हरकत से संघ अपने आपको अलग नहीं कर सकता। सुदर्शन ने कोई व्यक्तिगत साक्षात्कार में तो आरोप लगाए नहीं थे कि उन्हें उनके निजी विचार मान लिया जाए। उन्होंने बाकायदा संघ के सार्वजनिक मंच से ही इस प्रकार की हरकत की, जिससे संघ भले ही अपने आपको अलग करके बचने की कोशिश करे, मगर अकेले सुदर्शन के एक बयान पर हो रही प्रतिक्रिया पूरे संघ पर चस्पा हो गई है। चाहे इसे संघ स्वीकार करे या न करे।
अव्वल तो सवाल ये उठता है कि सुदर्शन के पास सोनिया के बारे में जो जानकारी थी, वह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के इतने साल बाद क्यों उजागर की? वे इतने साल इंतजार क्यों कर रहे थे? क्या वे इंतजार कर रहे थे कांग्रेस संघ का नाम भगवा आतंकवाद से जोड़ेगी, तभी इस ब्रह्मास्त्र को चलाएंगे? दोनो हत्याकांडों की कोर्ट में चली सुनवाई के दौरान वे एक राष्ट्रवादी होने के नाते कोर्ट को यह जानकारी देने क्यों नहीं गए? यानि कि उनके पास सबूत के नाम पर कुछ है नहीं और केवल गाल बजाते हुए ऐसा कह रहे हैं।
असल में उनका आरोप कितना वाहियात है, यह तो इसी से उजागर हो गया था, जब उनसे एक पत्रकार ने पूछा कि वे किस आधार पर ये बयान दे रहे हैं, तो उन्होंने कहा कि यह जानकारी उन्हें एक कांग्रेसी नेता ने दी थी। उन्होंने उस कांग्रेसी नेता का नाम भी नहीं बताया। यानि कि उनके खुद के पास कोई तथ्य या सबूत नहीं हैं? बिना तथ्य और सबूत के उन्होंने किसी पार्टी के प्रमुख पर इतने गंभीर आरोप कैसे लगा दिए? और बिना किसी सबूत के किसी कांग्रेसी की बात पर उन्होंने यकीन कर लिया, क्योंकि उन्हें यह बात अपने विचारों के अनुकूल लगती थीं। उससे भी बड़ी बात ये कि इतना गंभीर आरोप लगाने से पहले उन्होंने अपने संगठन के मंच पर चर्चा तक नहीं की। बयान जारी करने से पहले संगठन से अनुमति तक नहीं ली। क्या दुनिया के सर्वाधिक अनुशासित संगठन में इस प्रकार की अनुशासनहीनता का चलन शुरू हो चुका है? सवाल ये भी उठता है कि जो संगठन यह कह कर अपना पल्लू झाड़ रहा है कि यह संगठन का विचार नहीं है, उनको चुप रहने की हिदायत देगा।? या फिर इस हरकत को नजरअंदाज कर देगा, क्योंकि वह उसके अनुकूल पड़ती है? या फिर यह सोची-समझी चाल है कि एक व्यक्ति आरोप लगा देगा और संगठन पीछे हट जाएगा? इससे संगठन भी बच जाएगा और आरोप का आरोप लग जाएगा?
सुदर्शन के बयान से ऐसे ही अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। जैसा कि कांग्रेसी उन को पागल, दिवालिया मानसिकता वाला इत्यादि की संज्ञा दे रहे हैं, क्या उन्होंने ऐसी अनर्गल बातें इसी कारण की हैं या जानबूझ कर किया है? स्पष्ट है कि संघ प्रमुख रहा कोई बौद्धिक व्यक्ति पागलों जैसी बात नहीं कर सकता। उन्होंने जानबूझ कर ऐसा कहा है, ताकि कांग्रेसियों को मिर्ची लगे और वे भी उछलें, जैसा कि संघ के कार्यकर्ता संघ पर भगवा आतंकवाद का आरोप लगने पर उछले थे। आज सवाल ये भी उठ रहा है कि स्वयं को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाले यह कहते तो नहीं अघाते कि हिंदू आतंकी नहीं हो सकता, यह भी कहेंगे कि हिंदू संस्कृति में पला-बड़ा संघ परिवार का सदस्य ऐसी घटिया बातें नहीं कर सकता? मातृ-शक्ति का विशेष सम्मान करने वाले किसी महिला के बारे में ऐसी बेहूदा बातें नहीं किया करते?
दरअसल ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जब भी संघ या भाजपा के नेताओं को कांग्रेस पर हमला करना होता है, वे सीधे कांग्रेस प्रमुख को व्यक्तिगत व चारित्रिक गाली देते रहे हैं। सोनिया गांधी के बारे में इस प्रकार की अनर्गल बातें पूर्व में भी कही जाती रही हैं। सोनिया तो चलो विदेश से आ कर यहां बसी हैं, संघ व भाजपा के नेता इंदिरा गांधी तक को नहीं छोड़ते थे। किसी विधवा के बारे में जो भद्दा शब्द इस्तेमाल किया जाता है, वह तक उनके लिए बेलगाम बोला करते थे। उनके चरित्र के बारे में जो मन में आता था, कहा करते थे। नेहरू-गांधी के चरित्र हनन की बातें किस प्रकार बड़ी आसानी से कही जाती हैं, सब जानते हैं। असल में उनका यह व्यवहार गांधी-नेहरू परिवार से शुरू का रहा है। आज भले ही अकेले सुदर्शन ने ही सार्वजनिक रूप से सोनिया के बारे में कहा, मगर हकीकत ये है कि संघ व भाजपा के नेता आमबोल चाल की भाषा में भी इसी प्रकार की बातें करते रहे हैं। इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं। दुनिया के सबसे ताकतवार देश अमेरिका के राष्ट्रपति बराम ओबामा हाल ही जिन महात्मा गांधी को देश का ही नहीं, पूरे विश्व का हीरो की उपमा दे कर गए हैं, उनके बारे में बुड्ढ़ा और टकला जैसे शब्द इस्तेमाल करने वालों में कौन अग्रणी रहते हैं, यह कौन नहीं जानता?
और सबसे अहम सवाल ये कि सुदर्शन को इतने घटिया स्तर पर जाने की नौबत आई ही क्यों? जाहिर है कांग्रेस नेताओं के लगातार संघ व भाजपा को भगवा आतंकवाद से जोडऩे, यहां तक कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के संघ की तुलना सिमी से करने के बाद ही संघ भडक़ा है। कोई भी राष्ट्रवादी व्यक्ति राष्ट्रविरोधी होने की गाली बर्दाश्त नहीं कर सकता। यदि संघ के जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं ने आतंकी वारदातों को अंजाम दिया भी है तो उनके खिलाफ मुकदमा चल रहा है, बार-बार पूरे संघ के बारे में अनर्गल बोलना कैसी राजनीति का हिस्सा है? इसमें कोई दो राय नहीं कि संघ कोई आतंकी संगठन नहीं है। वह एक ऐसा राष्ट्रवादी संगठन है, जो व्यक्ति को शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा को स्वस्थ और सबल बनाने के साथ राष्ट्रवादी बनाने का काम कर रहा है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि वह हिंदू राष्ट्र का सपना लेकर चल रहा है, जबकि हमारे देश का संविधान धर्मनिरपेक्षता के मूल सिंद्धांत पर बना हुआ है।
दोनों पक्षों से इतर हो कर सोचें तो वस्तुत: देश को आजाद करवाने का श्रेय लेने वाली कांग्रेस और राष्ट्र के प्रति विशेष सच्चा प्यार करने वालों की होड़ में देश कहीं पीछे रह गया है, नीति दूर रह गई है, केवल रही है तो राजनीति।
-ह्लद्गद्भ2ड्डठ्ठद्बद्दञ्चद्दद्वड्डद्बद्य.ष्शद्व