तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जनवरी 20, 2011

पहले सरकारी डॉक्टरों से तो जेनेरिक दवाई लिखवा लीजिए !

नागौर में बेहतरीन जिला कलेक्टर के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद हाल ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक बने डॉ. समित शर्मा ने ऐलान किया है कि सरकारी के साथ-साथ निजी अस्पतालों के चिकित्सकों को भी जेनेरिक दवाई लिखने को बाध्य किया जाएगा। कहने को तो यह बयान बड़ा सुकून देता है, मगर ऐसा लगता है कि शर्मा जी को जमीनी हकीकत ही पता नहीं है। हालत ये है कि आज भी सरकारी डाक्टरों को जेनेरिक दवाई लिखने में जोर आता है। सरकार और निदेशालय उन्हीं पर सख्ती नहीं आजमा पाए हैं।
अपने एक बयान में खुद शर्मा जी ने माना है कि जेनेरिक दवाइयों के खिलाफ माहौल बनाने में चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने ही अहम भूमिका अदा की है। उसमें अगर यह जोड़ दिया जाए कि सत्ता के दलालों की ताकत बिना ऐसे लोग भूमिका अदा ही नहीं कर सकते तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह साफ है कि ब्रांडेड दवाइयां लिखने पर बतौर कमीशन डॉक्टरों तक हिस्सा पहुंचता है। ऐसे में वे भला जेनेरिक दवाई क्यों लिखेंगे। और सरकारी तनख्वाह के अतिरिक्त कमीशन से मिलने वाली राशि से ही डॉक्टर मनपसंद की जगहों पर तैनात होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। हालांकि कहने को सरकार बार-बार डॉक्टरों पर जेनेरिक दवाई लिखने का दबाव बना रही है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि उसे अभी पूरी कामयाबी नहीं मिली है। मेडिकल माफिया का एक बड़ा समूह सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ा रहा है। सख्ती का आलम ये है कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं की जा सकी है। असल बात तो ये है कि वह डॉक्टरों की कमी से ही जूझ रही है। ऐसे में भला वह सख्त कदम कैसे उठा सकती है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि वह डॉक्टरों से जेनेरिक दवाई लिखवाने में कामयाब हो गई है तो भी नतीजा ढ़ाक के तीन पात है। मार्केट में जेनेरिक दवाई पूरी तरह से उपलब्ध ही नहीं है। मरीज चाह कर भी जेनेरिक दवाई से वंचित है। उसे कई दुकानों के धक्के खाने पड़ते हैं। उतनी मशक्कत करने को कोई तैयार ही नहीं है। आम मरीज को तो पता ही नहीं है कि ये जेनेरिक दवाई होती क्या है। इससे भी बड़ी सच्चाई ये है कि खुद पढ़े-लिखे मरीज में ही जेनेरिक दवाई के प्रति विश्वास नहीं है। वह खुद ही ब्रांडेड दवाई ले कर जल्द से जल्द ठीक होना चाहता है। इस कारण पर्ची पर जेनेरिक दवाई लिखी भी हो तो वह मेडिकल स्टोर से मांग करता है कि जेनेरिक दवाइयों के कॉम्बीनेशन वाली किसी ब्रांडेड कंपनी की दवाई दे दे। इस जमीनी हकीकत के बाद भी शर्माजी अगर ये भभकी देते हैं कि अब प्राइवेट डाक्टरों को भी जेनेरिक दवाई लिखने के लिए बाध्य किया जाएगा, महज कल्पना ही दिखाई देती है।
शर्मा जी का एक तर्क यह है कि जेनेरिक दवाई पूरी तरह से असरकारक होती है। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। हालांकि यह सही है कि मेडिकल माफिया जेनेरिक दवाई को घटिया बता कर माहौल खराब कर रहा है, लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जेनेरिक दवाई कम असरकारक ही पाई गई है। इसकी वजह ये है कि जो कंपनियां जेनेरिक दवाई बना रही हैं, वे आलू-चालू सी मानी जाती हैं। उनके पास दवाई बनाने के अत्याधुनिक संसाधन ही नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि जेनेरिक दवाई से तो मरीज ठीक नहीं हुआ और ब्रांडेड कंपनी की दवाई से ठीक हो गया। शर्मा जी का यह तर्क खूबसूरत तो है कि सस्ती होने के कारण जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता में कमी नहीं आती, मगर ऐसा कहने का आधार कुछ भी नहीं है। माना कि जेनेरिक दवाई के साथ कमीशन का चक्कर नहीं है और उसके विज्ञापन आदि पर भी खर्च नहीं होता, मगर वह गुणवत्ता के लिहाज से अच्छी ही होती है, इसकी क्या गारंटी है? जब तक सरकार इस बारे में कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करेगी और आम जनता में विश्वास कायम नहीं करेगी, जेनेरिक दवाइयों के बारे में दी जा रही तमाम दलीलें काम नहीं आने वाली हैं।

आयोग ने निकाल दी सवर्णों के हंगामे की हवा

हाल ही अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वे फार्म को लेकर जो बवाल खड़ा हुआ था, राजस्थान राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने उसकी हवा पूरी तरह से निकाल दी है। आयोग ने साफ कर दिया है कि उसकी ओर से सवर्ण जातियों के संदर्भ में कोई सर्वे किया ही नहीं जा रहा, तो ऐसे काल्पनिक सर्वे पर हंगामे का औचित्य ही क्या है। आयोग ने इस सिलसिले में बाकायदा एक प्रेस रिलीज जारी किया है, मगर अफसोसनाक पहलू ये है कि सर्वे में पूछे गए सवालों को घटिया बता कर सवर्णों को भडक़ाने वाले और बाद में सवर्णों के भडक़ जाने पर उसकी खबरें सुर्खियों में छापने वाले मीडिया ने उसे प्रकाशित ही नहीं किया। यदि किसी अखबार ने प्रकाशित भी किया होगा तो किसी कोने-खोचरे में दिया होगा, ताकि वह नजर में ही नहीं आए।
आयोग ने जो प्रेस रिलीज जारी किया है, उसमें साफ तौर पर कहा गया है कि सवर्णों के बारे में इस प्रकार का सर्वे उसके क्षेत्राधिकार में ही नहीं आता है, अपितु उसके लिए अलग से आर्थिक पिछड़ा वर्ग आयोग है। आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी. के. तिवारी का कहना है कि जो सर्वे फार्म जिला कलेक्टरों को भेजा गया है, उसका सवर्ण जातियों से तो कोई संबंध ही नहीं है।
ऐसा लगता है कि जो सर्वे फार्म एक अखबार में छपा, वह प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह की ओर से ही उपलब्ध करवाया गया होगा, जिसके बारे में संबंधित रिपोर्टर ने पूरी छानबीन की ही नहीं और बाईलाइन फ्रंट पर छपने के चक्कर में जल्दबाजी में सवर्णों को भडक़ाने  का काम कर दिया। खबर छपने के बाद जाहिर तौर पर सवर्ण भडक़े भी और उन्होंने बाकायदा आयोग के दफ्तर पर हंगामा भी किया। आखिरकार आयोग के अध्यक्ष को स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी। अहम सवाल ये भी है कि जो सर्वे फार्म जिला कलेक्टरों को भेजा गया है, वह महावीर सिंह के हाथ आया कहां से? यदि आ भी गया तो उन्होंने यह कह कर गुमराह कैसे किया कि वह ब्राह्मण, वैश्य व राजपूत वर्ग से संबंधित है? लगता है कि उन्हें भी नेतागिरी करने की जल्दी थी कि कहीं किसी और नेता के हाथ वह सर्वे फार्म आ जाएगा तो हंगामे का श्रीगणेश करने का श्रेय ले जाएगा।
उल्लेखनीय है कि कथित रूप से ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों का पता लगाने के लिए भेजे गए सर्वे फार्म में पूछे गए सवालों को ही पिछड़ा करार देते हुए आपत्ति दर्ज कराई गई थी  कि वे अपमानजनक हैं। प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह ने तो बाकायदा यह तक आरोप लगाया कि ऐसे सवाल पूछ कर सरकार गरीब राजपूतों को आरक्षण का लाभ देने से वंचित करना चाहती है। इसी प्रकार एक समाजशास्त्री प्रो. राजीव गुप्ता ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कहा था कि सरकार भले ही किसी को उसका अधिकार दे या न दे, मगर उसके सम्मान व स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ न करे। दूसरी ओर राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य सचिव ए. के. हेमकार का कहना था कि सर्वे फार्म के सवाल आपत्तिजनक नहीं हैं और ओबीसी में शामिल किए जाने के मापदंड हैं, जो कि पहले से ही निर्धारित हैं। मगर दुर्भाग्य से उन्होंने तब ही यह स्पष्ट नहीं किया कि जिस सर्वे फार्म को लेकर आपत्ति की जा रही है, उसका सवर्णों से कोई ताल्लुक ही नहीं है और इसी कारण विवाद को बढऩे को जगह मिल गई।