तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

सोमवार, फ़रवरी 28, 2011

कहीं खुद की चाल भी न भूल जाएं बाबा रामदेव

एक कहावत है- कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। हालांकि यह पक्के तौर पर अभी से नहीं कहा जा सकता कि प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव की भी वैसी ही हालत होगी, मगर इन दिनों वे जो चाल चल रहे हैं, उसमें अंदेशा इसी बात का ज्यादा है।
हालांकि हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देशहित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे हैं। हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। गुरुतुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी करेंगे तो उन्हें भी वैसी ही टिप्पणियों का सामना करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि केवल वे ही हमला करते रहेंगे, अन्य भी उन पर हमला बोलेंगे। इसमें फिर उनके अनुयाइयों को बुरा नहीं लगना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि उन्हें हमले का विशेषाधिकार कैसे दिया जा सकता है?
हालांकि काले धन के बारे में बोलते हुए वे व्यवस्था पर ही चोट करते हैं, लेकिन गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बना बैठते हैं। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती जा रही है, जिसमें दंभ साफ नजर आता है, इसका नतीजा ये है कि अब कांग्रेस भी उन पर निशाना साधने लगी है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। हालांकि यह सही है कि ये संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। बताया तो ये भी जा रहा है कि कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे चुनाव लड़वाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं।   उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे अपने प्रत्याशी मैदान उतारेंगे तो वे सभी अनुयायी उनके मतदाता बन जाएंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हो रहे हैं, लेकिन जैसे ही वे राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा। आगे चल कर हिंदूवादी विचारधारा वाली भाजपा को भी उनसे परहेज रखने की नौबत आ सकती है, क्योंकि उनके अनुयाइयों में अधिसंख्य हिंदूवादी विचारधारा के लोग हैं, जो बाबा के आह्वान पर उनके साथ होते हैं तो सीधे-सीधे भाजपा को नुकसान होगा। कदाचित इसी वजह से 30 जनवरी को देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों को भाजपा या आरएसएस ने खुल कर समर्थन नहीं दिया। बाबा रामदेव के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा रखने वाले लोग भले ही रैलियों में शामिल हुए हों, मगर चुनाव के वक्त वे सभी बाबा की ओर से खड़े किए गए प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, इसमें तनिक संदेह ही है। इसकी एक वजह ये है कि वे योग गुरू के रूप में भले ही बाबा रामदेव को पूजते हों, मगर राजनीतिक रूप से उनकी प्रतिबद्धता भाजपा के साथ रही है।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है।  इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।

आखिर वसुंधरा का तोड़ नहीं निकाल पाया भाजपा हाईकमान

अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर च्पार्टी विद द डिफ्रेंसज् का नारा बुलंद करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया। हालत ये हो गई कि वे राजस्थान विधानसभा में विपक्ष का नेता दुबारा बनने को तैयार नहीं थीं और बड़े नेताओं को उन्हें राजी करने के लिए काफी अनुनय-विनय करना पड़ा। इसे राजस्थान भाजपा में व्यक्ति के पार्टी से ऊपर होने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कैसी विलक्षण स्थिति है कि एक साल पहले जिस वसुंधरा को विपक्ष का नेता पद छोडऩे के लिए हाईकमान मजबूर कर रहा था, वही उनका तोड़ नहीं निकाल पाने के कारण अंतत: पुन: उन्हीं को यह आसन ग्रहण करने की विनती करने को मजबूर हो गया। प्रदेश भाजपा के इतिहास में वर्षों तक यह बात रेखांकित की जाती रहेगी कि हटाने और दुबारा बनाने, दोनों मामलों में पार्टी को झुकना पड़ा। पार्टी के कोण से इसे थूक कर चाटने वाली हालत की उपमा दी जाए तो गलत नहीं होगा। चाटना क्या, निगलना तक पड़ा।
वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि हाईकमान को एक साल पहले विपक्ष का नेता पद छुड़वाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ा। असल बात तो ये कि उन्होंने पद छोड़ा ही न छोडऩे के अंदाज में। इसका नतीजा ये रहा कि उनके इस्तीफे के बाद किसी और को नेता नहीं बनाया जा सका और जब बनाया गया तो भी उन्हीं को, जबकि वे तैयार नहीं थीं। आखिर तक वे यही कहती रहीं कि यदि बनाना ही था तो फिर हटाया ही क्यों।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। पार्टी ने जब अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, तब भी वे दबाव में नहीं आईं और पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। चतुर्वेदी ने भी चालें कम नहीं चलीं, मगर विधायकों पर वसुंधरा के तिलिस्म को भंग नहीं कर पाए। वसुंधरा के आभा मंडल के आकर्षण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी में पद चाहने वाले भी चतुर्वेदी से छुप-छुप कर ही मिलते रहे कि कहीं वसुंधरा को पता न लग जाए, क्यों कि आने वाले दिनों में वसुंधरा के फिर से मजबूत होने के पूरे आसार हैं। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा है। प्रदेश में जहां भी जाती हैं, कार्यकर्ता और भाजपा मानसिकता के लोग उनके स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछा देते हैं।
हालांकि हाईकमान को वसुंधरा की ताकत का अंदाजा था, मगर संघ लॉबी के दबाव की वजह से वह सी एंड वाच की नीति बनाए हुए था। जब उसे यह पूरी तरह से समझ में आ गया कि वसुंधरा को दबाया जाना कत्तई संभव नहीं है और वीणा के तार ज्यादा खींचे तो वे टूट ही जाएंगे तो मजबूर हो कर उसे शरणागत होना पड़ा। जहां तक संघ का सवाल है, उसकी सोच ये रही कि वसुंधरा के पावरफुल रहते पार्टी का मौलिक चरित्र कायम रखना संभव नहीं है। संघ का ये भी मानना रहा कि वसुंधरा की कार्यशैली के कारण ही भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हुई। उन्होंने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वालों को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। यही वजह रही कि वह आखिरी क्षण तक इसी कोशिश में रहा कि वसुंधरा दुबारा विपक्ष का नेता न बनें, मगर आखिरकार झुक गया।
कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-गिरधर तेजवानी