तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, अगस्त 20, 2014

मगर आयोग की खत्म हुई साख का क्या होगा?

आरएएस के प्रश्रपत्र बिकने के लिए लीक होने, प्रश्र पत्रों में भारी गड़बडिय़ां पाए जाने जैसी गंभीर घटनाओं के सामने आने के बाद जिस प्रकार तेजी से जांच की जा रही है, उससे राजस्थान लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हबीब खान गोराण की कुर्सी छिनेगी या रहेगी, दोषियों को वाकई कड़ी से कड़ी सजा मिल पाएगी या नहीं, ये सवाल इन दिनों में चर्चा में हैं, मगर सवाल ये उठता है कि इतनी गंभीर धांधली के कारण आयोग की साख को जो बट्टा लगा है, उसका क्या होगा? इसमें कोई दोराय नहीं कि अगर किसी भी स्तर पर गोराण की गड़बडिय़ों में संलिप्ता पाई जाती है तो उन्हें हटाने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए, मगर साथ ही सवाल ये भी है कि क्या सरकार साख खो चुके आयोग की कार्यप्रणाली को सुधारने के प्रति वाकई गंभीर भी है या फिर मामला ठंडा होने के बाद वही घोड़े और वही मैदान की कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
दरअसल जैसे ही मामला उजागर हुआ, उससे बेरोजगार युवा वर्ग तो अपने अंधकारमय होते भविष्य के प्रति बेहद चिंतित हो उठा है, वहीं सरकार पर भी भारी दबाव है कि निष्पक्ष जांच करवा कर दोषियों को सजा के मुकाम पर पहुंचाए। जाहिर तौर पर जैसा अमूमन होता है, किसी भी संस्था में कोई गड़बड़ी पाई जाती है तो सबसे पहले उसके मुखिया पर इस्तीफे देने या उसे हटाने की मांग जोर पकड़ लेती है। इस प्रकरण में भी यही हो रहा है। मामले ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। नतीजतन गोरान के पुराने मामलों को खंगाला जा रहा है। दिन-ब-दिन उन पर शिकंजा कसता जा रहा है। चूंकि उनकी नियुक्ति कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुई, इस कारण वे भाजपा सरकार के निशाने पर हैं, मगर सवाल ये है कि क्या केवल गौराण को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने अथवा हटाने की प्रक्रिया शुरू किए जाने मात्र से समस्या का हल हो जाएगा? क्या केवल मुखिया को अपदस्त कर देने से ही आयोग की व्यवस्था सुधर जाएगी और प्रश्न पत्र लीक होना बंद हो जाएंगे।
वस्तुत: जब भी इस प्रकार के संगीन मामले सामने आते हैं, वे राजनीति के शिकंजे में आ ही जाते हैं। मामले की जांच का मुद्दा तो उठता ही है, मगर सारा ध्यान संस्था के मुखिया को हटाने पर केन्द्रित हो जाता है। अगर यह मांग मान ली जाती है तो मामला ठंडा हो जाता है और उसके बाद जांचों का क्या होता है, उनका हश्र क्या होता है, सब जानते हैं। यानि कि गुस्सा संस्था प्रधान को हटाने तक ही सीमित रहता है और बाद में स्थिति जस की तस हो जाती है। हद से पकड़े गए मामले में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही आरंभ हो जाती है, मगर शातिरों के इस प्रकार की गड़बड़ी करने की गुंजाइश ही न रहे, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
इसमें काई दो राय नहीं कि वर्तमान में आयोग के जो हालात हैं, उससे उसकी पूरी कार्यप्रणाली ही संदेह के घेरे में आ गई है और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। मगर सवाल ये है कि आज जो नेता गौरान अथवा आयोग की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा रहे हैं, वे आयोग में अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर नहीं किए जाने का सवाल क्यों नहीं उठाते। सच तो ये है कि गोराण हो या पूर्ववर्ती अध्यक्ष, सभी की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर ही की जाती रही है। राजनीतिक आधार पर ही नहीं, बल्कि जातीय तुष्टिकरण तक के लिए। नागौर के मौजूदा भाजपा सांसद सी. आर. चौधरी को भाजपा सरकार ने जाटों को खुश करने के लिए अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस ने मुस्लिमों की नाराजगी को कम करने के लिए गोराण की नियुक्ति करवा दी। चेयरमैन से लेकर सदस्य तक राजनीतिक दलों के वफादार हैं तो जाहिर है कि यहां प्राथमिकता प्रतिभा नहीं, बल्कि सियासी प्रतिबद्धता है। अगर हालत यह है तो आरपीएसी में गड़बडिय़ां और पेपर बिकना व लीक होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि आयोग के कामकाज में निष्पक्षता या पारदर्शिता और परीक्षा कार्य में गोपनीयता बनी रहेगी। यानि कि अगर आयोग के कामकाज में सुधार लाना है तो आयोग में नियुक्ति की प्रक्रिया में परिवर्तन लाना होगा। साथ ही परीक्षा की गोपनीयता के सारे उपाय करने होंगे। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो प्रतिभाएं निराश-हताश होती रहेंगी।
गोराण की नियुक्ति पर ही बड़ा सवाल
पर्चा लीक होने के साथ ही जिस प्रकार गोराण से जुड़े पुराने मामले उजागर हो रहे हैं, उससे यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि यदि उनका चरित्र संदिग्ध था तो सरकारी तंत्र में उनकी नियुक्ति की फाइल आगे सरकी ही है। स्वाभाविक रूप से जब उनको आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव तैयार किया होगा तो उसके साथ ही उनके अब तक के रिकार्ड से जुड़े कागजात भी नत्थी किए गए होंगे। या तो वे जानबूझ कर नीचे दबा दिए गए होंगे, या फिर राजनीतिक दबाव इतना अधिक बनाया गया कि वे नजरअंदाज कर दिए गए। यानि कि केवल मुस्लिमों को राजी करने के लिए जिस तरह उनकी नियुक्ति की गई, उसके लिए सीधे तौर पर पिछली अशोक गहलोत सरकार जिम्मेदार है।
एसपी मंथली प्रकरण में भी उठे थे गोराण पर सवाल
अजमेर के तत्कालीन एसपी राजेश मीणा के बंधी वसूली के प्रकरण के दौरान भी गोराण का नाम आया था। उनका जिक्र संबंधित एफआईआर में था। इस रूप में कि राजेश मीणा और एएसपी लोकेश मीणा के लिए थानों से बंधी जुटाने वाले रामदेव ठठेरा 2 जनवरी 2013 को कपड़े की थैली लेकर लोकेश मीणा के निवास से गौरान के बंगले में गया था। वह 40-50 मिनट तक बंगले में रहा और इसके बाद खाली हाथ लोकेश मीणा के निवास पर लौट आया। लेकिन आरोप पत्र में उनका नाम नहीं था। इस बारे में एसीबी ने उनको क्लीन चिट दे दी, मगर ये खुलासा नहीं किया कि ठठेरा उनके निवास पर क्यों गया था। उसने ये भी साफ नहीं किया कि अगर गौरान का बंधी मामले से कोई लेना देना नहीं था तो फिर उनका नाम एफआईआर में क्यों दर्ज किया गया। उस वक्त न तो सत्तारूढ़ कांग्रेस ने और न ही विपक्ष में बैठे भाजपा विधायकों ने इस मामले को उठाया। अब जबकि आरपीएससी अपने ही अंदरूनी मामले में फंस गई तो गोराण के उस प्रकरण को भी उठाया जा रहा है। खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल ने विधानसभा में आरोप लगाया कि जनवरी 2013 में बंधी मामले में गोराण की भूमिका की जांच क्यों नहीं हुई, जबकि एफआईआर में उनका नाम है। यानि कि उसी वक्त मामले की गहन जांच कर ली जाती तो इतने बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के मामले में दूध का दूध पानी का पानी हो जाता।
एसीबी की कार्यवाही भी संदेह के घेरे में
बेशक, इस पूरे प्रकरण में सचमुच क्या हुआ, इसके लिए एसीबी पर ही यकीन करना होगा क्योंकि जांच एजेंसी वही है, मगर एसीबी के कार्यवाहक महानिदेशक अजीत सिंह का मात्र इतनी सफाई देना ही पर्याप्त नहीं कि गोरान की इस मामले में संलिप्तता नहीं पाई गई और उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। कैसी विडंबना है कि पहले खुद ही गोरान का नाम एफआईआर में शामिल किया और फिर खुद की खंडन कर दिया कि उनके बारे में कोई सबूत नहीं मिला है। वो भी तब जब निलंबित एसपी मीणा ने अपनी जमानत अर्जी में सवाल उठाया था। वरना यह पता ही नहीं लगता कि एसीबी ने कहां चूक की है। जब अजीत सिंह ने यह कहा कि गोराण बिलकुल निर्दोष हैं तो उन्हें यह भी बताना होगा कि आखिर किस तरह? आयोग अध्यक्ष का पद संवैधानिक है और आयोग की बड़ी गरिमा है, उसके बारे में यदि कोई संशय पैदा होता है तो उस पर सफाई होना बेहद जरूरी है। वरना, यह शक करना वाजिब होगा कि राजनीतिक दबाव की वजह से एसीबी ने लीपापोती की।
-तेजवानी गिरधर