तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, अक्तूबर 18, 2012

जेठमलानी पहले भी दिखा चुके के बगावती तेवर


एक ओर जहां अरविंद केजरीवाल की ओर से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर सीधा हमला किए जाने पर पूरी भाजपा उनके बचाव में आ खड़ी हुई है, वहीं भाजपा कोटे से राज्यसभा सांसद बने वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने अलग ही सुर अलापना शुरू कर दिया। लंदन में एक चैनल से उन्होंने कहा कि यदि केजरीवाल के आरोप सही हैं तो गडकरी को पद छोड़ देना चाहिए। वे इतने पर भी नहीं रुके और बोले कि भाजपा अध्यक्ष रहते हुए गडकरी द्वारा लिए गए गलत फैसलों के सबूत मैं भी पेश करूंगा। जेठमलानी की यह हरकत पहली नहीं है। इससे पहले भी वे कई बार पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि उन्हें उनके बगावती तेवर के बाद भी राजस्थान के किसी और नेता का हक मार पर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा के दबाव में राज्यसभा बनवाया गया? ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील राम जेठमलानी भारतीय जनता पार्टी के गले की फांस साबित हो गए हैं, तभी तो उनकी पार्टी अध्यक्ष विरोधी टिप्पणी के बाद भी सारे नेताओं को सांप सूंघे रहा।
आपको याद होगा कि जब वसुंधरा जेठमलानी को राज्यसभा चुनाव के दौरान पार्टी प्रत्याशी बनवा कर आईं तो भारी अंतर्विरोध हुआ, मगर वसुंधरा ने किसी की न चलने दी। इतना ही नहीं विधायकों पर अपनी पकड़ के दम पर वे उन्हें जितवाने में भी कामयाब हो गईं। तभी इस बात की पुष्टि हो गई थी कि जेठमलानी के हाथ में जरूर भाजपा के बड़े नेताओं की कमजोर नस है। भाजपा के कुछ नेता उनके हाथ की कठपुतली हैं। उनके पास पार्टी का कोई ऐसा राज है, जिसे यदि उन्होंने उजागर कर दिया तो भारी उथल-पुथल हो सकती है। स्पष्ट है कि वे भाजपा नेताओं को ब्लैकमेल कर पार्टी में बने हुए हैं। तब यह तथ्य भी उभरा था कि उन्हें टिकट दिलवाने में कहीं ने कहीं गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का हाथ था। कदाचित इसी वजह से जेठमलानी ने हाल ही मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने तक की सलाह दी है।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि जेठमलानी के प्रति आम भाजपा कार्यकर्ता की कोई संवेदना नहीं है। वजह साफ है। उनके विचार भाजपा की विचारधारा से कत्तई मेल नहीं खाते। उन्होंने बेबाक हो कर भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की थी। इतना ही नहीं उन्होंने जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दे दिया था। पार्टी के अनुशासन में वे कभी नहीं बंधे। पार्टी की मनाही के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा। इतना ही नहीं उन्होंने संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की, जबकि भाजपा अफजल को फांसी देने के लिए आंदोलन चला रही है। वे भाजपा के खिलाफ किस सीमा तक चले गए, इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये रहा कि वे पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
आपको बता दें कि जब वे पार्टी के बैनर पर राज्यसभा सदस्य बने तो मीडिया में ये सवाल उठे थे कि क्या बाद में पार्टी के सगे बने रहेंगे? क्या वे पहले की तरह मनमर्जी की नहीं करेंगे? आज वे आशंकाएं सच साबित हो गई हैं। इतना ही नहीं उनकी टिप्पणी का प्रतिकार तक किसी ने नहीं किया। ऐसे में लगता ये है कि पार्टी विथ द डिफ्रेंस और अपने आप को बड़ी आदर्शवादी, साफ-सुथरी और अनुशासन में सिरमौर मानने वाली भाजपा भी अंदर ही अंदर किसी न किसी चक्रव्यूह में फंसी हुई है।
-तेजवानी गिरधर

इतनी जल्दी हवा कैसे निकल गई खेमका की?


कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमती सोनिया गांधी के दामाद राबर्ट वाड्रा के मामले में मीडिया के केमरों की चकाचौंध से चुंधियाए वरिष्ठ आईएएस डॉ. अशोक खेमका अपने एक दुस्साहस और बेबाक बयान की वजह से रातों-रात हीरो तो बन गए, मगर जैसे ही उन्होंने धरातल को देखा तो उनकी हवा निकल गई। मुख्यमंत्री की घुड़की और अपने खिलाफ तीन सीनियर अफसरों की जांच कमेटी बैठने के बाद वे घबरा गए और मुख्य सचिव पी.के.चौधरी से मिलने के बाद उन्होंने कहा है कि उन्हें बीस साल की नौकरी में हुए चालीसवें तबादले पर अब कोई ऐतराज नहीं है। सवाल ये उठता है कि जिन खेमका पर अरविंद केजरीवाल की छाया आ जाने का आभार हुआ था, वे यकायक पलटी कैसे खा गए?
कानाफूसी है कि तबादला आदेश मिलने के बाद जोश में आ कर उन्होंने वाड्रा-डीएलएफ डील को रद्द तो कर दिया, मगर बाद में उन्हें ख्याल आया कि वे ऐसा नहीं कर सकते थे। तबादला आदेश मिलने के बाद व रिलीव होने से ठीक पहले इतना महत्वपूर्ण आदेश जारी करना जाहिर करता है कि उन्होंने ऐसा दुर्भावना से किया, जिसकी जांच पर वे फंस जाते, सो बेकफुट पर आना ही मुनासिब समझा।
लोग समझ रहे थे कि खेमका बड़े दिलेर अफसर हैं, पर वे असल में थे डरपोक। इस बारे जर्नलिस्ट कम्युनिटी डॉट कॉम में पत्रकार सतीश त्यागी के हवाले से छपा है कि कई साल पहले वे विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार पद पर तैनात थे और तब कुलपति ओ पी कौशिक थे, जिन्होंने खेमका के सारे खम निकल कर सीधा कर दिया था। घायल खेमका ने किसी मित्र के माध्यम से मुझसे संपर्क साधा। उन दिनों मैं अमर उजाला अखबार में था और विश्वविद्यालय मेरी बीट में था। खेमका ने दो घंटे मुझसे कौशिक के खिलाफ जहर उगला लेकिन जब अगले दिन खबर पढ़ी तो शेर से गीदड़ हो गए। कहने लगे कि आखिरकार वीसी मेरे बॉस हैं। उन्होंने मेरे खिलाफ संपादक को पत्र भी लिखा था। इस बार मुझे लगा था कि शायद खेमका शेर हो गए होंगे लेकिन मैं गलत निकला।
मान के चलिए कि खेमका के खिलाफ अब सरकार की जांच कमेटी कुछ नहीं करेगी और वाड्रा के जमीन की जमाबंदी खारिज करने वाला उनका आर्डर पलटता है तो वे भी खामोश रहेंगे। कोर्ट वोर्ट कतई नहीं जाएंगे। उन्हें उनके ताबड़तोड़ तबादलों से सहानुभूति रखने वाली इंडिया अगेंस्ट करप्शन से जुड़ी एक्टिविस्ट डा. नूतन ठाकुर की हाईकोर्ट में उस याचिका या उस के निर्णय से भी कोई लेना देना नहीं है, जिस में प्रशासनिक अधिकारियों के तबादलों बारे कोई नियमावली व मर्यादाएं तय करने का अनुरोध किया गया है। ये तो वही बात हुई न कि मुद्दई सुस्त, गवाह चुस्त।