तीसरी आंख

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बुधवार, मार्च 21, 2012

ममता की दीदीगिरी से उठे क्षेत्रीय दलों के वजूद पर सवाल


हाल ही रेल बजट पेश करने के बाद उस पर बहस से पहले ही रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को इस्तीफा देने पर मजबूर करने वाली ममता की दीदीगिरी लोकतंत्र में एक काले अध्याय के रूप में अंकित हो गया है। साथ ही इसने एक बड़ी बहस को जन्म दिया है कि देशभर में छोटे-छोटे उद्देश्यों के गठित छोटे-छोटे दलों के कुकुरमुत्तों की तरह उग आने के बाद हो रही लोकतांत्रिक दादागिरी का अंत कैसे हो पाएगा?
ऐसा नहीं है कि गठबंधन सरकार की मजबूरी को केवल मौजूदा मनमोहन सिंह की सरकार ने भोगा हो। पूर्व में अटल बिहारी वाजपेयी भी लगभग ऐसी ही मजबूर सरकार चला चुके हैं। तब वे भी आए दिन ममता बनर्जी, मायावती व जयललिता की दादागिरी के आगे झुक जाने को मजबूर हुए थे। बस फर्क इतना है कि मनमोहन सिंह सरकार कुछ ज्यादा की रेखांकित हो गई। उसमें भी ताजा प्रकरण ने पुख्ता तौर पर साबित कर दिया है छोटे अथवा क्षेत्रीय उद्देश्यों के लिए गठित दल किस प्रकार देश की सरकार की दिशा और दशा तय करने की भूमिका में आ गए हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव भी इसी की मिसाल है। वहां दो राष्ट्रीय दलों कांग्रेस व भाजपा को नकार कर जनता ने जातीय व क्षेत्रीय उद्देश्यों की खातिर एक क्षेत्रीय दल को नकार कर दूसरे क्षेत्रीय दल को चुन लिया, जिसे कि वह पहले गुंडाराज के कारण नकार चुकी थी। और अफसोसनाक बात ये है कि इन्हीं दो क्षेत्रीय दलों की बैसाखियों पर केन्द्र की सरकार चल रही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह कैसी विडंबना है।
हम आज भले ही गठबंधन सरकारों की मजबूरियों को समझने के आदी हो गए हैं, मगर क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि देश का रेल मंत्री कौन होगा, यह देश का प्रधानमंत्री नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की तानाशाह तय करती है। यह केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए शर्मनाक नहीं, बल्कि हम सबके लिए भी है। और अफसोस कि इसके बाद भी यदि हम अपने देश को सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश कह कर गौरवान्वित महसूस करते हैं। यह छद्म लोकतंत्र है। एक किस्म की तानाशाही ही है। इसे तानाशाही कहना इसलिए अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं कहेंगे क्योंकि ममता ने रेल बजट में संशोधन करवाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने की बजाय उस रेल मंत्री को ही हटवा दिया, जिन्हें कि अब बहस में जवाब देने का मौका नहीं ही मिलेगा, जब कि बजट उन्होंने ही पेश किया है। त्रिया हठ देखिए कि उन्हें लोकतांत्रिक मर्यादाओं को कूड़े में डाल कर अपनी जिद पूरा करना ही ज्यादा जरूरी लगा। त्रिवेदी भले ही यह कह कर अपनी शाब्दिक जीत मान रहे हों कि देश का रेल बजट कोलकाता से नहीं बनता है, मगर कोलकाता ने साबित कर दिया कि रेल बजट क्या, देश की सरकार ही कोलकाता के इशारे पर चलती है।
तस्वीर कर दूसरा रुख ये है कि ममता भले ही अपनी जिद पूरी करवाने में कामयाब हो गई हों, मगर इससे यकीनन उनकी छवि खराब हुई है। कैसा विचित्र खेल हुआ कि आम आदमी सबसे बड़ी पैराकार ममता के विरोध और त्रिवेदी के इस्तीफे के बाद भी आम जनता में यह संदेश चला गया कि त्रिवेदी ने जो कुछ किया, देश हित के लिए किया, जबकि ममता ने जो कुछ किया, मनमानी की खातिर किया। इससे बड़ी बात क्या होगी कि रेलवे कर्मचारी तक ममता के खिलाफ खड़े हो गए। एक अर्थ में त्रिवेदी की यह शहादत उनके कद को और ऊंचा कर गई। आज उनके प्रति सहानुभूति को साफ तौर देखा जा सकता है, जब कि ममता जैसों को सबक सिखाने के लिए क्षेत्रीय दलों की भूमिका पर बड़ी बहस छिड़ चुकी है।
इस मौके पर कुछ राजनीतिज्ञ यह कह कर मनमोहन सिंह को ज्ञान पिला रहे हैं कि उन्हें इस मौके पर तो गठबंधन धर्म की जगह राजधर्म निभाना चाहिए था, चाहे ममता समर्थन वापस ले लेतीं। सरकार तो मुलायम सिंह की सपा को शामिल करके भी बचाई जा सकती थी। मगर उसका क्या जब सपा भी बाद में उसी तरह दादागिरी करती। फर्क क्या है? ये तो मनमोहन या कांग्रेस ही बेहतर जानते हैं कि सपा को सरकार में शामिल करने के लिए उन्हें अपनी आत्मा पर कितने पत्थर और रखने पड़ते।
लब्बोलुआब मनमोहन सिंह की अनेक मजबूरियों को देख चुके देश के सामने अब यक्ष सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या अब भी हम इसी प्रकार क्षेत्रीय दलों के हाथों की कठपुतली बने रहना चाहते हैं? क्या देश की सरकान चुनते वक्त भी हम क्षेत्रीय जरूरतों के लिए बने संगठनों को ही तरजीह देते रहेंगे? क्या चुनाव आयोग प्रांतीय हितों के लिए गठित अथवा प्रांतों तक ही सीमित दलों की लोकसभा चुनाव में भागीदारी पर पुनर्विचार करने पर मंथन करेगा?

-तेजवानी गिरधर
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