तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, अगस्त 31, 2014

राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन की सुगबुगाहट

हालांकि राजस्थान में श्रीमती वसुंधरा राजे के नेतृत्व में प्रचंड बहुमत से भाजपा ने कामयाबी हासिल कर सत्ता हासिल की है और ऐसे में इसकी अस्थिरता की कल्पना करना भी नासमझी कहलाएगी, मगर राजनीति हल्कों में इस किस्म की चर्चा आम है कि भाजपा हाईकमान राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की संभावनाएं तलाश रहा है अथवा एक गुट विशेष वसुंधरा को अपदस्थ करने की फिराक में है।
बेशक ऐसी बात कपोल कल्पित ही लगती है, मगर जिस प्रकार आठ माह बीत जाने के बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल गठित नहीं हो पाया, उससे इसकी आशंका तो महसूस की ही जा रही है कि जरूर केन्द्र व राज्य में कहीं न कहीं कोई गतिरोध है। संभव है ऐसा मंत्री बनाने को लेकर पसंद-नापसंद को लेकर है। ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा हाईकमान विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी श्रीमती वसुंधरा को फ्रीहैंड देने के मूड में नहीं हैं। और इसी को लेकर खींचतान चल रही है। एक ओर जहां प्रचंड बहुमत से भाजपा को जिताने वाली वसुंधरा कम से कम राजस्थान में अपनी पसंद का ही मंत्रीमंडल बनाना चाहती हैं, वहीं केन्द्र में सत्तारूढ़ हो कर मजबूत हो चुकी भाजपा अपनी हिस्सेदारी, जिसे कि दखल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा, रखना चाहती है। असल में वे दिन गए, जब केन्द्र में भाजपा विपक्ष में और कमजोर थी और वसुंधरा विधायकों के दम पर उस पर हावी थी, मगर अब हालात बदल गए हैं। केन्द्रीय नेता देश की सरकार चला रहे हैं। वे ज्यादा पावरफुल हो गए हैं। ऐसे में वे राजस्थान के मामले में टांड अड़ा रहे हैं। इसी अड़ाअड़ी के बीच ये चर्चा हो रही है कि मोदी राजस्थान में अपनी पसंद का मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं, जो उनके इशारे पर काम करे, वसुंधरा की तरह आंख में आंख मिला कर बात न करे। बताया जाता है कि मोदी की शह पर प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि माथुर मोदी के कितने करीबी हैं। इस सिलसिले में तकरीबन सत्तर विधायकों की एक गुप्त बैठक भी हुई और जोड़तोड़ की कवायद चल रही है। मसले का एक पहलु ये भी है कि मोदी पूरे देश में अपने हिसाब से ही जाजम बिछाना चाहते हैं। केन्द्रीय मंत्रियों पर शिकंजे और अपने ही शागिर्द अमित शाह को भाजपा अध्यक्ष बनवाने से यह साफ है कि वे इंदिरा गांधी वाली शैली में काम कर रहे हैं। आपको याद होगा कि इंदिरा गांधी के सामने जा कर बात करने के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री उनकी भृकुटी के अंदाज का पूरा ख्याल रखा करते थे।
खैर, मोदी की शह पर राज्य में अंडरग्राउंड चल रही हलचल कितनी कामयाब होगी, यह कहना मुश्किल है, मगर इससे कम से कम वसुंधरा जरूर अचंभित हैं। हालांकि वे इतनी चतुर राजनीतिज्ञ हैं कि एकाएक कोई बड़ा बदलाव नहीं होने देंगी, मगर इतना जरूर है कि पिछली बार की तरह वे शेरनी की शैली नहीं अपना पा रही हैं। दमदार नेतृत्व के बावजूद उनके ओज में आई कमी को साफ तौर पर देखा जा सकता है। असल में पहले जब सीमित विधायक थे, तब उनका उन पर एकछत्र राज था, मगर इस बार ढ़ेर सारे विधायकों को संभालना आसान नहीं रहा है। उसमें आरएसएस लॉबी के विधायक लामबंदी कर रहे हैं, जो कि वसुंधरा के लिए सिरदर्द है। जो कुछ भी हो, मगर आने वाले दिनों में कुछ ऐसा साफ झलकेगा कि केन्द्र वसुंधरा पर शिकंजा रखना चाहती है, ताकि वे एक क्षत्रप की तरह मनमानी न कर पाएं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, अगस्त 20, 2014

मगर आयोग की खत्म हुई साख का क्या होगा?

आरएएस के प्रश्रपत्र बिकने के लिए लीक होने, प्रश्र पत्रों में भारी गड़बडिय़ां पाए जाने जैसी गंभीर घटनाओं के सामने आने के बाद जिस प्रकार तेजी से जांच की जा रही है, उससे राजस्थान लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हबीब खान गोराण की कुर्सी छिनेगी या रहेगी, दोषियों को वाकई कड़ी से कड़ी सजा मिल पाएगी या नहीं, ये सवाल इन दिनों में चर्चा में हैं, मगर सवाल ये उठता है कि इतनी गंभीर धांधली के कारण आयोग की साख को जो बट्टा लगा है, उसका क्या होगा? इसमें कोई दोराय नहीं कि अगर किसी भी स्तर पर गोराण की गड़बडिय़ों में संलिप्ता पाई जाती है तो उन्हें हटाने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए, मगर साथ ही सवाल ये भी है कि क्या सरकार साख खो चुके आयोग की कार्यप्रणाली को सुधारने के प्रति वाकई गंभीर भी है या फिर मामला ठंडा होने के बाद वही घोड़े और वही मैदान की कहावत चरितार्थ हो जाएगी।
दरअसल जैसे ही मामला उजागर हुआ, उससे बेरोजगार युवा वर्ग तो अपने अंधकारमय होते भविष्य के प्रति बेहद चिंतित हो उठा है, वहीं सरकार पर भी भारी दबाव है कि निष्पक्ष जांच करवा कर दोषियों को सजा के मुकाम पर पहुंचाए। जाहिर तौर पर जैसा अमूमन होता है, किसी भी संस्था में कोई गड़बड़ी पाई जाती है तो सबसे पहले उसके मुखिया पर इस्तीफे देने या उसे हटाने की मांग जोर पकड़ लेती है। इस प्रकरण में भी यही हो रहा है। मामले ने राजनीतिक रूप भी ले लिया है। नतीजतन गोरान के पुराने मामलों को खंगाला जा रहा है। दिन-ब-दिन उन पर शिकंजा कसता जा रहा है। चूंकि उनकी नियुक्ति कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुई, इस कारण वे भाजपा सरकार के निशाने पर हैं, मगर सवाल ये है कि क्या केवल गौराण को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने अथवा हटाने की प्रक्रिया शुरू किए जाने मात्र से समस्या का हल हो जाएगा? क्या केवल मुखिया को अपदस्त कर देने से ही आयोग की व्यवस्था सुधर जाएगी और प्रश्न पत्र लीक होना बंद हो जाएंगे।
वस्तुत: जब भी इस प्रकार के संगीन मामले सामने आते हैं, वे राजनीति के शिकंजे में आ ही जाते हैं। मामले की जांच का मुद्दा तो उठता ही है, मगर सारा ध्यान संस्था के मुखिया को हटाने पर केन्द्रित हो जाता है। अगर यह मांग मान ली जाती है तो मामला ठंडा हो जाता है और उसके बाद जांचों का क्या होता है, उनका हश्र क्या होता है, सब जानते हैं। यानि कि गुस्सा संस्था प्रधान को हटाने तक ही सीमित रहता है और बाद में स्थिति जस की तस हो जाती है। हद से पकड़े गए मामले में दोषियों के खिलाफ कार्यवाही आरंभ हो जाती है, मगर शातिरों के इस प्रकार की गड़बड़ी करने की गुंजाइश ही न रहे, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
इसमें काई दो राय नहीं कि वर्तमान में आयोग के जो हालात हैं, उससे उसकी पूरी कार्यप्रणाली ही संदेह के घेरे में आ गई है और उसमें आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है। मगर सवाल ये है कि आज जो नेता गौरान अथवा आयोग की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा रहे हैं, वे आयोग में अध्यक्ष व सदस्यों की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर नहीं किए जाने का सवाल क्यों नहीं उठाते। सच तो ये है कि गोराण हो या पूर्ववर्ती अध्यक्ष, सभी की नियुक्ति राजनीतिक आधार पर ही की जाती रही है। राजनीतिक आधार पर ही नहीं, बल्कि जातीय तुष्टिकरण तक के लिए। नागौर के मौजूदा भाजपा सांसद सी. आर. चौधरी को भाजपा सरकार ने जाटों को खुश करने के लिए अध्यक्ष बनाया तो कांग्रेस ने मुस्लिमों की नाराजगी को कम करने के लिए गोराण की नियुक्ति करवा दी। चेयरमैन से लेकर सदस्य तक राजनीतिक दलों के वफादार हैं तो जाहिर है कि यहां प्राथमिकता प्रतिभा नहीं, बल्कि सियासी प्रतिबद्धता है। अगर हालत यह है तो आरपीएसी में गड़बडिय़ां और पेपर बिकना व लीक होना कोई आश्चर्य पैदा नहीं करता। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि आयोग के कामकाज में निष्पक्षता या पारदर्शिता और परीक्षा कार्य में गोपनीयता बनी रहेगी। यानि कि अगर आयोग के कामकाज में सुधार लाना है तो आयोग में नियुक्ति की प्रक्रिया में परिवर्तन लाना होगा। साथ ही परीक्षा की गोपनीयता के सारे उपाय करने होंगे। यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो प्रतिभाएं निराश-हताश होती रहेंगी।
गोराण की नियुक्ति पर ही बड़ा सवाल
पर्चा लीक होने के साथ ही जिस प्रकार गोराण से जुड़े पुराने मामले उजागर हो रहे हैं, उससे यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ है कि यदि उनका चरित्र संदिग्ध था तो सरकारी तंत्र में उनकी नियुक्ति की फाइल आगे सरकी ही है। स्वाभाविक रूप से जब उनको आयोग का अध्यक्ष बनाए जाने का प्रस्ताव तैयार किया होगा तो उसके साथ ही उनके अब तक के रिकार्ड से जुड़े कागजात भी नत्थी किए गए होंगे। या तो वे जानबूझ कर नीचे दबा दिए गए होंगे, या फिर राजनीतिक दबाव इतना अधिक बनाया गया कि वे नजरअंदाज कर दिए गए। यानि कि केवल मुस्लिमों को राजी करने के लिए जिस तरह उनकी नियुक्ति की गई, उसके लिए सीधे तौर पर पिछली अशोक गहलोत सरकार जिम्मेदार है।
एसपी मंथली प्रकरण में भी उठे थे गोराण पर सवाल
अजमेर के तत्कालीन एसपी राजेश मीणा के बंधी वसूली के प्रकरण के दौरान भी गोराण का नाम आया था। उनका जिक्र संबंधित एफआईआर में था। इस रूप में कि राजेश मीणा और एएसपी लोकेश मीणा के लिए थानों से बंधी जुटाने वाले रामदेव ठठेरा 2 जनवरी 2013 को कपड़े की थैली लेकर लोकेश मीणा के निवास से गौरान के बंगले में गया था। वह 40-50 मिनट तक बंगले में रहा और इसके बाद खाली हाथ लोकेश मीणा के निवास पर लौट आया। लेकिन आरोप पत्र में उनका नाम नहीं था। इस बारे में एसीबी ने उनको क्लीन चिट दे दी, मगर ये खुलासा नहीं किया कि ठठेरा उनके निवास पर क्यों गया था। उसने ये भी साफ नहीं किया कि अगर गौरान का बंधी मामले से कोई लेना देना नहीं था तो फिर उनका नाम एफआईआर में क्यों दर्ज किया गया। उस वक्त न तो सत्तारूढ़ कांग्रेस ने और न ही विपक्ष में बैठे भाजपा विधायकों ने इस मामले को उठाया। अब जबकि आरपीएससी अपने ही अंदरूनी मामले में फंस गई तो गोराण के उस प्रकरण को भी उठाया जा रहा है। खींवसर विधायक हनुमान बेनीवाल ने विधानसभा में आरोप लगाया कि जनवरी 2013 में बंधी मामले में गोराण की भूमिका की जांच क्यों नहीं हुई, जबकि एफआईआर में उनका नाम है। यानि कि उसी वक्त मामले की गहन जांच कर ली जाती तो इतने बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति के मामले में दूध का दूध पानी का पानी हो जाता।
एसीबी की कार्यवाही भी संदेह के घेरे में
बेशक, इस पूरे प्रकरण में सचमुच क्या हुआ, इसके लिए एसीबी पर ही यकीन करना होगा क्योंकि जांच एजेंसी वही है, मगर एसीबी के कार्यवाहक महानिदेशक अजीत सिंह का मात्र इतनी सफाई देना ही पर्याप्त नहीं कि गोरान की इस मामले में संलिप्तता नहीं पाई गई और उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। कैसी विडंबना है कि पहले खुद ही गोरान का नाम एफआईआर में शामिल किया और फिर खुद की खंडन कर दिया कि उनके बारे में कोई सबूत नहीं मिला है। वो भी तब जब निलंबित एसपी मीणा ने अपनी जमानत अर्जी में सवाल उठाया था। वरना यह पता ही नहीं लगता कि एसीबी ने कहां चूक की है। जब अजीत सिंह ने यह कहा कि गोराण बिलकुल निर्दोष हैं तो उन्हें यह भी बताना होगा कि आखिर किस तरह? आयोग अध्यक्ष का पद संवैधानिक है और आयोग की बड़ी गरिमा है, उसके बारे में यदि कोई संशय पैदा होता है तो उस पर सफाई होना बेहद जरूरी है। वरना, यह शक करना वाजिब होगा कि राजनीतिक दबाव की वजह से एसीबी ने लीपापोती की।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, अगस्त 16, 2014

नटवर का सोनिया की निजी जानकारी सार्वजनिक करना कितना उचित?

खांटी कांग्रेसी नेता रहे नटवर सिंह ने अपनी किताब के जरिए जिस प्रकार सोनिया-राहुल की निजी जानकारियां सार्वजनिक की हैं, उससे यकायक यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या राजनीति में इस प्रकार विमुख होने के बाद किसी की निजी जिंदगी का खुलासा किया जाना उचित है, जिससे आपके अंतरंग संबंध रहे हों? क्या इसे सामान्य नैतिकता की सीमा लांघने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? जिस परिवार के रहमो-करम पर आप इतनी ऊंचाइयां छू पाए, उससे अलग होने के बाद सारी मर्यादाएं ताक पर रख देनी चाहिए?
हो सकता है कि नटवर सिंह को लग रहा हो कि उन्होंने कोई बड़ा मीर मार लिया है, मगर इससे राजनीतिक लोगों का चरित्र किस हद तक गिर सकता है, उसका तो अनुमान होता ही है। ऐसा करके वे भले ही कांग्रेस विरोधियों की नजर में चढ़ गए हों, और उसका ईनाम भी पा जाएं, मगर आमजन की नजर में वे उच्च राजनीतिक नेता होते हुए भी निम्न स्तरीय हरकत करने वाले माने जाएंगे। असल में नटवर सिंह ने कोई नई खोज नहीं की है, जिसके लिए खुद की पीठ थपथपाएं। यदि उन्हें सोनिया के बारे में इतनी अंतरंग जानकारी है तो वह इसीलिए ना कि वे उनके करीब थे, वरना उन्हें कैसे पता लगा कि राहुल ने सोनिया के प्रधानमंत्री बनने पर उनकी हत्या किए जाने की आशंका के चलते प्रधानमंत्री पद न ग्रहण करने की जिद की थी। स्वाभाविक रूप से घनिष्ठ संबंधों के चलते इस विषय पर सोनिया व राहुल ने उनके चर्चा की थी। उन्हें ये अनुमान थोड़े ही रहा होगा कि भविष्य में यदि संबंध खराब होंगे तो नटवर सिंह इस तरह से पीठ में छुरा घोंपने को आतुर हो जाएंगे। अंतरंग संबंधों का एक और उदाहरण भी हमारे सामने है। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के बारे में सब को पता है कि उनका परिवार नेहरू परिवार के कितना करीब था। वे स्वयं भी राजीव गांधी के करीबी रहे। बाकायदा कांग्रेस के टिकट पर सांसद भी बने। मगर जब संबंध टूटे तो उसके बाद शायद ही उन्होंने निजी जिंदगी का बहुत खुलासा किया हो। जाहिर सी बात है कि वे राजनीतिक शख्स नहीं हैं, इस कारण उनका दिमाग इस ओर नहीं चला। इससे यह स्थापित होता है कि राजनीति इतनी गंदी चीज हो चली है, जिसमें किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। नटवर सिंह के खुलासे से सोनिया-राहुल और कांग्रेस को क्या परेशानी आएगी, ये तो पता नहीं मगर फिलवक्त लोगों को चटकारे लेने का मौका तो मिल ही गया है।
सिक्के का दूसरा पहलु ये भी है कि जब भी कोई ऊंचाइयों पर पहुंचता है, और खास कर जब उसका जीवन सार्वजनिक रूप में महत्व रखता है तो उसकी हर बात में लोगों की रुचि होती ही है। नैतिक रूप से भले ही ये ठीक नहीं लगता, मगर ऊंचे लोगों की निजी बातें अमूमन जगजाहिर हो ही जाती है। और स्वाभाविक रूप से उसे उनके निजी लोग की जगजाहिर किया करते हैं।
असल में नटवर सिंह ने जानबूझ कर यह सब कुछ किया है। उनका मकसद है कि किसी भी रूप में कांग्रेस से निकाल जाने के बाद उसका बदला लिया जाए। राजनीति के जानकार इसे इस रूप में लेते हैं कि छाती पर शहीदी तमगा और विचार के तौर पर त्याग का मुकुट लगा कर ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस को खड़ा किया, सत्ता तक पहुंचाया लेकिन नटवर सिंह ने जिस तरह राजीव गांधी की हत्या के साथ श्रीलंका को लेकर राजीव गांधी की फेल डिप्लोमेसी और सोनिया गांधी के त्याग के पीछे बेटे राहुल गांधी को मां की मौत का खौफ के होने की बात कही है, उसने गांधी परिवार के उस प्रभाव को भी खत्म नहीं तो कम तो किया ही है। अब तक इसी प्रभाव के आसरे कांग्रेस खड़ी रही है। नटवर ने कांग्रेस की उस राजीनिति में भी सेंध लगा दी है, जो बीते दस बरस से तमाम राजनीतिक दलों के नेताओं की तुलना में सोनिया गांधी को अलग खड़ा करती रही।
ऐसे में ये सवाल उठता है कि क्या नटवर के खुलासे के बाद सोनिया का आभा मंडल टूट जाएगा? क्या फिर उस पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा? यदि टूटा तो लौटेगा कैसे? क्या सोनिया के किताब लिखने से वह वापस जुड़ पाएगा? सवाल ये भी कि क्या सोनिया की राजनीतिक साख यहां खत्म होती है और अब कांग्रेस को तुरुप का पत्ता प्रियंका गांधी को चलने का वक्त आ गया है। या फिर राहुल गांधी को अब कहीं ज्यादा परिपक्व तरीके से सामने आकर उस राजनीतिक लकीर को आगे बढ़ाना होगा, जहां उनके कहने पर सोनिया गांधी पीएम नहीं बनी और राहुल के खौफ को अपनी आत्मा की आवाज के आसरे सोनिया गांधी ने त्याग की परिभाषा गढ़ी।
-तेजवानी गिरधर

तो सेलिब्रिटी को सांसद बनाते ही क्यों हैं?

जनता के बीच से चुने गए सांसदों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है
इन दिनों क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर और सुप्रसिद्ध अभिनेत्री रेखा के संसद में लगातार अनुपस्थित रहने को लेकर खासी गरमागरम बहस हो रही है। आप याद कीजिए कि जून 2012 में जब सचिन तेंदुलकर ने सांसद की शपथ ली थी तो उन्होंने कहा था, मैं संसद में खेल से जुड़े मुद्दे उठाना चाहता हूं। जाहिर है ऐसा आज तक तो हुआ नहीं कि सचिन तेंदुललर कोई मुद्दा उठाये या रेखा ने कभी कुछ कहा भी हो। ऐसे में कोई सांसद कहता है कि ऐसे सेलिब्रिटी सदस्यों को हटा देना चाहिए तो कोई कहता है कि सांसदों की न्यूनतम उपस्थिति अनिवार्य की जानी चाहिए। बहस का एक बिंदु ये भी है कि आखिर ऐसी सेलिर्बिटी को संसद में भेजा ही क्यों जाता है, जिनके पास संसद में उपस्थित होने का समय और देश के ज्वलंत विषयों पर अपनी राय रखने की रुचि ही नहीं है।
असल में संविधान में विभिन्न क्षेत्रों की हस्तियों को राज्यसभा में मनोनीत करने की व्यवस्था की ही इस कारण गई कि वे गैर राजनीतिक होने के कारण चुनाव लड़ कर संसद में नहीं आ सकतीं, मगर सोसायटी के अन्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए, ताकि उनकी भी भागीदारी हो। मगर अमूमन पाया ये गया है कि ऐसी सेलिब्रिटी न तो संसद आना जरूरी समझती हैं और न ही देश के जरूरी विषयों पर अपनी कोई राय रखती हैं। उन्होंने इसे केवल स्टेटस सिंबल बना रखा है और उससे होने वाले लाभ उठाती रहती हैं। ऐसे में यह सवाल उचित ही है कि ऐसी हस्तियों को संसद में रखने से क्या फायदा, जिनकी संसद में कोई रुचि ही नहीं है। माना कि राष्ट्रपति ने सरकार की राय पर ऐसी हस्तियों को सम्मान देने की खातिर उनका मनोनयन किया है, मगर उन्हें भी तो संसद का सम्मान करना चाहिए।
सिक्के का एक पहुल ये भी हस्तियों की लोकप्रियता ही इतनी है कि उन्हें एक अदद सांसद बनने की जरूरत नहीं है। उनका क्रेज ही इतना अधिक है कि खुद सांसद व मंत्री भी उनकी एक झलक पाना चाहते हैं। याद कीजिये तो 2012 में संसद के भीतर रेखा और सचिन तेंदुलकर को लेकर संसद का कुछ ऐसा ही हाल था। कैमरे की चमक। सितारों की चकाचौंध। हर नजर रेखा और सचिन की तरफ। एकबारगी तो ऐसा लगा कि संसद की चमक भी इनके सामने फीकी है। भला ऐसी हस्तियों को सांसद बनने की जरूरत ही क्या है? और अगर बन जाती हैं तो फिर संसद में अनुपस्थित न हो कर काहे को अपनी फजीहत करवाती हैं?
बहरहाल, चूंकि सांसदों की संसद में सक्रियता का मुद्दा इस बहाने उठ ही गया है तो बातें और भी उठने लगी हैं। वो ये कि जो सांसद सीधे जनता अथवा विधायकों के माध्मम चुन कर आते हैं, उनमें से भी कई कमोबेश ऐसा ही हाल है। सैकड़ों सांसद ऐसे हैं, जिन्हें जनता ने चुना है, लेकिन वे न तो कोई सवाल पूछते हैं, न चर्चा में शामिल होते है। आडवाणी और करिया मुंडा समेत समेत बीजेपी के दर्जनभर से ज्यादा सांसद ऐसे हैं, जिनकी हाजिरी सौ फीसदी रही, लेकिन न तो चर्चा में हिस्सा लिया, न ही कोई सवाल खड़ा किया। पिछली लोकसभा में कांग्रेस के जाने-पहचाने चेहरे अजय माकन ने पांच साल के दौरान न कोई सवाल पूछा, न ही किसी चर्चा में शामिल हुये।  इसी कड़ी में हालांकि सोनिया व राहुल गांधी का नाम भी लिया जाता है, मगर उन पर इसलिए अंगुली नहीं उठाई जा सकती क्योंकि वे ही तो कांग्रेस के रुख की नीति बनाते हैं। वे न भी बोले तो अन्य कांग्रेसी सांसदों का बोलना पर्याप्त है।
हाल ही यूपी की कानून व्यवस्था को लेकर यूपी के सीएम की सांसद पत्नी डिंपल यादव संसद में बोल रही थी, लेकिन 15 लोकसभा में डिंपल यादव ने कुछ कहा ही नहीं। यही हाल कांग्रेस के सी पी जोशी और वीरभ्रद्र सिंह का भी रहा। हाजिरी 95 फीसदी, लेकिन कभी संसद में नहीं बोले।  औसत निकालेंगे तो हर सत्र में सौ से ज्यादा सांसद ऐसे होंगे, जो संसद में आते हैं और चले जाते हैं। ताजा आंकड़ों को देखें तो मौजूदा लोकसभा में अभी तक 72 सांसदों की कोई भागेदारी ही नहीं है। 101 सांसदों ने किसी चर्चा में हिस्सा ही नहीं लिया है। 198 सांसदों ने कोई सवाल नहीं उठाया है।
खैर, जो सवाल सबसे बड़ा उभरता है वो यह है कि जब चुने हुए जिम्मेदार सांसदों का ही ये हाल है तो केवल सचिन या रेखा से ही कोई उम्मीद क्यों की जाये? जब उनकी अदा ही हर दिन चलने वाले संसद के खर्च से ज्यादा कमाई हर दिन कर लेती हो, तो फिर संसद की साख पर सचिन की अदा तो भारी होगी ही। चलो, रेखा और सचिन तो फिर भी मनोनीत हैं, मगर सीधे जनता के वोटों से जीतने वाले फिल्मी सांसदों का भी यही हाल है। बालीवुड के सिने कलाकार धर्मेन्द्र बीकानेर से जीत कर गए, मगर पूरे कार्यकाल के दौरान कुछ नहीं बोले। बोलने की छोडिय़े, वे तो पूरे पांच साल बीकानेर ही नहीं गए।
कुल मिला कर निष्कर्ष यही है कि चाहे सीधे जनता के जरिए लोकसभा चुनाव जीते या फिर विधायकों के जरिए या मनोनयन के आधार पर राज्य सभा में पहुंचे सांसदों पर कुछ तो नियम लागू होने ही चाहिए। जब स्कूल में छात्रों की निर्धारित उपस्थिति जरूरी है तो जनता के प्रति जिम्मेदार सांसदों के लिए क्यों जरूरी नहीं होनी चाहिए। इतना ही नहीं, हर सत्र या साल के बाद सांसदों की परफोरमेंस का रिकार्ड रख कर उन्हें निर्देशित किया जाना चाहिए कि वे जिस मकसद से संसद में हैं, उसका दायित्व निभाएं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, अगस्त 01, 2014

क्या मोदी की लहर अब धीमी हो चली है?

तकरीबन सत्तर दिन पहले हुए जिस चुनाव में उतराखंड की पांचों सीटें मोदी लहर में बह गई थीं, विधान सभा उप चुनाव के नतीजों के साथ ही अब वह लहर थमती नजर आ रही है। जहां खुद मुख्यमंत्री हरीश रावत ने धारचूला से जीत हासिल की, वहीं अन्य दोनों सीटों, डोइवाला और सोमेश्वर को कांग्रेस ने बीजेपी से छीन लिया। डोइवाला से पूर्व कैबिनेट मंत्री हीरासिंह बिष्ट ने जीत हासिल की, वहीं सोमेश्वर से ऐन चुनाव से पहले बीजेपी छोड़ कर कांग्रेस में शामिल हुई रेखा आर्य ने विजय पताका फहरायी। इस चुनाव परिणाम ने राजनीतिक हलकों में इस बहस को जन्म दिया है कि आखिर उस लहर का क्या हुआ, जिस पर सवार आकलनकर्ताओं को ये लग रहा था कि अब मोदी पांच साल नहीं बीस साल से ज्यादा के लिए आ गए हैं।
बेशक एक राज्य के विधानसभा चुनाव के परिणाम के आधार पर मोदी सरकार की लोकप्रियता को आंकना गलत है, मगर इतना जरूर लगता है कि मोदी के प्रति जो अत्यधिक आकर्षण दिखाई दे रहा था, वह तो कम हुआ ही है। और उसकी अपनी वजह है।
सबसे बड़ा सवाल महंगाई का है। मोदी ने चुनाव प्रचार ही इस प्रकार किया था कि जैसे ही वे सत्ता पर काबिज होंगे, महंगाई छूमंतर कर देंगे। मानो वे कोई जादूगर हों। कांग्रेस से तंग लोगों ने उन पर यकीन कर लिया। हालांकि यह बात सही है कि जिस माली हालत का भाजपा जिक्र कर रही थी, उसमें सुधार लाने में वक्त लगना था, मगर चूंकि वादे इस तरीके से किए गए थे कि उसके सत्ता में आते ही सारे समाधान हो जाएंगे, इस कारण जनता की अपेक्षाएं बढ़ गईं। दैनिक जरूरत के आलू-प्याज की कीमतें घटने की बजाय बढ़ गईं, तो त्राहि त्राहि मच गई। दोष भले ही मानसून का या काला बाजारियों का था, मगर चूंकि ये बहाना कांग्रेस भी बनाती थी, इस कारण जनता को ये बहाना मंजूर नहीं। खुद वित्त मंत्री जेटली कहते हैं कि निकट भविष्य में महंगाई घटने की कोई उम्मीद नहीं है। हद तो तब हो गई, जब खुद मोदी ने ही कड़वी दवा पीने को तैयार रहने को कह दिया। इसी प्रकार बहुत हुई महंगाई की मार, अब की बार मोदी सरकार के नारे पर झूमने वाले जमीन पर आ गिरे, जब रेल भाड़ा बजट से पहले ही बढ़ा दिया गया। जब ये कहा गया कि ये तो कांग्रेस के कार्यकाल में ही बढऩा प्रस्तावित था, उसे केवल लागू किया गया है, तो लोगों ने सवाल उठाया कि अब तो आपकी सरकार है, आप भी नहीं बढ़ाते। लोगों को तकलीफ इस वजह से हुई कि जिन सुविधाओं का सपना दिखा कर किराया बढ़ाया गया, वे देने से पहले ही किराया बढ़ा दिया गया। इस मुद्दे पर अब भाजपाई ये कह कर बगलें झांकने लगते हैं कि कांग्रेस के कर्मों को दुरुस्त करने में आखिर समय तो लगेगा।
जिन लोगों ने आंख मूंद कर मोदी को झोली भर वोट दिए, उन्हें तब और झटका लगा, जब मोदी सरकार के दोहरे पैमाने सामने आए। जब मोदी ने अपने पहले ही भाषण में राजनीति में अपराधीकरण बर्दाश्त न करने की बात कही, तो लोगों को बढ़ा सुखद लगा, मगर आरोप झेल रहे अपने खासमखास अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बना दिया, तो सवाल उठने ही थे। इसी प्रकार दुराचार के आरोपी निहालचंद को मंत्री पद से नहीं हटाने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
जिस काले धन को वापस लाने के वादे के साथ मोदी सरकार में आए, उस पर जब लोगों ने उनकी ही पार्टी के लोगों के बयान सुने तो वे सकते में आ गए। भाजपा सांसद रिशिकांत दुबे ने कहा कि काला धन इस जन्म में वापस लाना मुश्किल है। गौ हत्या का विरोध कर हिंदुओं का समर्थन लेने वाली भाजपा ने जब गौ-मांस पर टैक्स घटा दिया तो भी सवाल उठे कि वह तो गौ हत्या की बड़ी विरोधी थी। भाजपा के उस दोहरे मापदंड की भी आलोचना हो रही है, जिसमें कांग्रेस राज में वह एफडीआई का विरोध करती रही, मगर अब खुद एफडीआई को ला रही है।
लोगों को याद है वह दिन जब सुषमा स्वराज ने कहा था कि मनमोहन सरकार हाथ पर हाथ रख कर बैठी है, होना तो यह चाहिए कि हमारे एक जवान के बदले में दस पाकिस्तानियों के सिर काट कर लाएं। अब जब आए दिन सीमा पर जवान मर रहे हैं तो भाजपाई ये कह कर चुप हो जाते हैं कि हमारे सैनिक भी तो मार रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार वेद प्रताप वैदिक जब पाकिस्तान में भारत के सबसे बड़े दुश्मन हाफिज सईद से मिल कर आए तो सरकार ने यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि उसकी जानकारी में नहीं है। इस पर कांग्रेसी ये कह कर हल्ला मचा रहे हैं कि अगर कांग्रेस राज में ऐसा होता तो भाजपा आसमान सिर पर उठा लेती। आपको याद होगा कि आम आदमी पार्टी के नेता वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने जब कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन किया तो एक हिंदूवादी ने उनको पीट दिया था, जबकि वेद प्रताप वैदिक ने यही बात कही तो उस पर सरकार और भाजपाई चुप हैं।
मोदी सरकार पर इसलिए भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि कश्मीर में धारा 370 हटाने, राम मंदिर बनाने और कॉमन सिविल कोड पर सरकार चुप है, जबकि भाजपा का असल तीन सूत्री कार्यक्रम यही था, जिसकी बिना पर ही उसका वोटों का जनाधार बना हुआ है।
हाल ही गृह मंत्री राजनाथ सिंह के इस बयान की भी खिल्ली उड़ाई जा रही है कि सीमा पर गलती से भी घुसपैठ हो जाती है। कहा जा रहा है कि देश नहीं झुकने दूंगा वाले चीनी घुसपेठियो को वापस क्यों जाने दे रहे हैं।
कुल मिला कर अब मोदी सरकार की हर हरकत पर मीडिया व कांग्रेस सहित जनता की पैनी नजर है और उसकी समीक्षा हुए बिना नहीं रहती।
-तेजवानी गिरधर

राजस्थान की शेरनी वसुंधरा बेबस क्यों?

सुराज संकल्प यात्रा के जरिए लोगों के विश्वास कायम करने वाली श्रीमती वसुंधरा राजे ने मोदी लहर के सहारे राजस्थान में प्रचंड बहुमत तो हासिल कर लिया, मगर सत्ता संभालने के आठ माह बाद भी पूर्ण मंत्रीमंडल का गठन न कर पाने को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं। यह पहला मौका है कि वसुंधरा इतनी ताकतवर होने के बाद भी कमजोर दिखाई दे रही हैं, वरना विपक्ष में रहते हुए तो उन्होंने हाईकमान को इतना नचाया था कि उन्हें भी मुलायम, ममता, मायावती, जयललिता की तरह खुद के दम पर राजनीति करने वाली क्षत्रप के गिना जाने लगा था।
आपको याद होगा कि पिछली बार जब उनके नेतृत्व में भाजपा हार गई थी तो प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम माथुर के साथ उन्हें भी नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने को कहा गया था, प्रदेश अध्यक्ष माथुर ने तो तुरंत हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया, मगर वसुंधरा अड़ गईं। विधायकों पर उनकी इतनी जबदस्त पकड़ थी कि उनके दम पर वे हाईकमान से भिड़ गईं। काफी दिन तक नाटक होता रहा और बमुश्किल उन्होंने पद छोड़ा। छोड़ा भी ऐसा कि उनके बाद किसी और को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनने दिया। आखिरकार हाईकमान को झुकना पड़ा और देखा की वे बहुत ताकतवर हैं और संगठन बौना तथा उनकी उपेक्षा करके चुनाव नहीं जीता जा सकता तो फिर नेता प्रतिपक्ष बनने का आग्रह किया। एकबारगी तो उन्होंने इंकार कर दिया, मगर पर्याप्त अधिकार देने और उनके मामले में हस्तक्षेप न करने के आश्वासन पर ही मानीं। चुनाव नजदीक आते देख जब लगा कि उनके मुकाबले को कोई भी नेता नहीं है जो भाजपा की वैतरणी पार लगा सके, तो प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा भी उन्हें ही सौंपा गया। वे पार्टी के भरोसे पर पूरी तरह से खरी उतरीं भी। न केवल विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत दिलवाया, अपितु लोकसभा चुनाव में भी पच्चीसों सीटें जितवा कर दीं। यानि कि वे पहले के मुकाबले और अधिक ताकतवर हो गई हैं। मगर अब जब मंत्रीमंडल का विस्तार करने की जरूरत है तो ऊपर से हरी झंडी नहीं मिल पा रही। सत्ता संभालते ही उन्होंने न्यूनमत जरूरी 12 मंत्रियों का मंत्रीमंडल बनाया, मगर बाद में उसका विस्तार नहीं कर पाई हैं। यानि कि इन 12 मंत्रियों के सहारे ही सरकार के सारे मंत्रालयों का कामकाज किया जा रहा है, जबकि कुल 30 मंत्री बनाए जा सकते हैं। हालत ये है कि नसीराबाद के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट के अजमेर का सांसद बनने के बाद भी उन्हें मुक्त नहीं कर पा रही हैं, जबकि वे विधायक पद से इस्तीफा दे चुके हैं। अभी वे बिना विधायकी के मंत्री हैं। इसको लेकर कांग्रेस ने हंगामा मचा रखा है कि सांसद रहते नियमानुसार उन्हें मंत्री नहीं माना जा सकता, मगर विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल ने कांग्रेस की आपत्ति को नजरअंदाज कर रखा है।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि मंत्रीमंडल के विस्तार की सख्त जरूरत है, विवाद से बचने के लिए और सरकार को ठीक से काम करने के लिए भी, मगर विस्तार नहीं हो पा रहा। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो इस मुद्दे को लेकर हमला भी बोला है कि भारी बहुमत के बावजूद आठ माह से केबिनेट तक नहीं बना पा रही हैं। इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है। इसको लेकर लोगों में इस सरकार के प्रति निराशा उत्पन्न हो रही है। मगर वसुंधरा मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पा रहीं तो शंका होती ही है कि आखिर बात क्या है? विस्तार लगातार टलता जा रहा है। समझा जाता है कि यह स्थिति केन्द्र से तालमेल के अभाव में उत्पन्न हुई है। उनकी पसंद के सांसद, विशेष रूप से अपने सांसद बेटे को मंत्री को मंत्री नहीं बनवा पायी हैं। पच्चीस सांसदों पर एक ही मंत्री निहाल चंद मेघवाल बनाए गए हैं, मगर वे भी उनकी पसंद के नहीं हैं। माना जाता है कि केन्द्रीय मंत्रीमंडल के विस्तार की गुत्थी के साथ राजस्थान मंत्रीमंडल का विस्तार अटका हुआ है। यूं कहा तो ये जा रहा है कि लिस्ट फाइनल है, मगर उसे स्वीकृति नहीं मिल पा रही। पहले राजनाथ सिंह ने अध्यक्ष रहते उसे अटकाया और अब नए अध्यक्ष अमित शाह पेच फंसाए हुए हैं। समझा जा सकता है कि अमित शाह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथ की कठपुतली हैं और नरेन्द्र मोदी जब चाहेंगे, जैसा चाहेंगे, उसी के अनुरूप मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। खैर, राजस्थान की शेरनी वसुंधरा की मोदी के सामने जो हालत है, उसे देखते तो यही लगता है कि दोनों के बीच ट्यूनिंग कुछ गड़बड़ है। वैसे उम्मीद यही है कि अगस्त माह में मंत्रीमंडल का विस्तार होगा। केन्द्र का भी और राज्य का भी। तभी पता लगेगा कि वसुंधरा में कितना दमखम है और उनकी पसंद कितनी चल पाई है। वैसे संभावना यही है कि उन्हें स्थानीय संघ लॉबी से मिल कर ही चलना होगा।
-तेजवानी गिरधर