तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, दिसंबर 16, 2010

अब उमा को थूक कर चाटने की तैयारी


पार्टी विथ दि डिफ्रेंसज् का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पहले उसने पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर गले लगाया, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की बगावत के आगे घुटने टेके और अब उमा भारती को थूक कर चाटने को तैयार है। हालांकि फिलवक्त उन्होंने अपनी राजनीतिक दिशा तय करने के लिए कुछ दिन की मोहलत मांगी है, मगर पक्की जानकारी यही है कि पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवानी उन्हें पार्टी में वापस लाने की पूरी तैयार कर चुके हैं।
राजनीति में समझौते तो करने ही होते हैं, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा।
वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के आदेश की अवहेलना करने पर पार्टी वसुंधरा के खिलाफ कठोर निर्णय करने से कतराती रही। वजह साफ थी वे राजस्थान में नई पार्टी बनाने का मूड बना चुकी थीं, जो कि भाजपा के लिए बेहद कष्टप्रद हो सकता था। संघ लॉबी चाह कर भी वसुंधरा के कद को नहीं घटा पाई। उन्हें केन्द्रीय कार्यकारिणी में सम्मानजनक पद देना पड़ा। पार्टी ने सोचा कि ऐसा करने से वसुंधरा को राजस्थान से कट जाएंगी, मगर वह मंशा पूरी नहीं हो पाई। प्रदेश अध्यक्ष भले ही उसकी पसंद का है, मगर आज भी राज्य में पार्टी की धुरी वसुंधरा ही हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। वसुंधरा के मामले में पार्टी की स्थिति कितनी किंकर्तव्यविमूढ़ है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब से उन्होंने विपक्ष के नेता का पद छोड़ा है, आज तक दूसरे किसी को उस पद पर आसीन नहीं किया जा सका है।
हाल ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दे रही है। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा अंतद्र्वंद में जी रही है।
थोड़ा पीछे मुड़ कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा का ढांचा चरमराया हुआ है। कांग्रेसनीत सरकार लाख बुराइयों के बावजूद सत्ता पर फिर काबिज हो गई। मूलत: हिंदुत्व की पक्षधर, मगर राजनीतिक मजबूरी के चलते मुसलमानों को भी गले लगाने का नाटक करते हुए दोहरी मानसिकता में जी रही भाजपा की तो चूलें ही हिल गईं। पार्टी में इतना घमासान हुआ कि एक बारगी तो नाव के खिवैया बन कर डूबने से बचाने वाले शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ही पार्टी के भीतर अप्रांसगिक महसूस होने लगे। यहां तक कि कट्टर हिंदुत्व के पक्षधरों को ही हार की मूल वजह माना जाने लगा। पार्टी के दिग्गजों को अपनी मौलिक विचारधारा की दुबारा समीक्षा करने नौबत आ गई। उन्हें यही समझ में नहीं आ रहा था कि पार्टी को प्रतिबद्ध हिंदुत्व की राह पर चलाया जाए अथवा लचीले हिंदुत्व का रास्ता चुना जाए। आखिरकार सभी संघ की ओर ही मुंह ताकने लगे। संघ ने कमान संभाली और नए सिरे से शतरंज की बिसात बिछा दी। उसी का ही परिणाम था कि पार्टी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बदलना पड़ा। बदले समीकरणों में गडकरी अध्यक्ष पद तो काबिज हो गए, मगर उन्हें लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं।

गुरुवार, दिसंबर 02, 2010

जीत हुई आखिर बगावत और ब्लैकमेलिंग की

पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद कर वोट हासिल करने वाली भाजपा और अन्य राजनीतिक पार्टियों में कोई डिफ्रेंस नहीं रह गया है। भाजपा में अब न केवल बगावत का जमाना आ गया है, अपितु सत्ता की खातिर वह ब्लैकमेल होने को भी तैयार है। अफसोसनाक पहलु देखिए कि जिस भ्रष्टाचार को लेकर वह दिल्ली में हुल्लड़ मचाए हुए है, कर्नाटक में उसी मुद्दे के आगे नतमस्तक हो गई है। इससे तो वर्षों तक सत्ता का मजा ले चुकी और भ्रष्ट मानी जाने वाली कांग्रेस ही बेहतर रही, जिसने ना-नुकुर के बाद ही सही, मगर भ्रष्टाचार का आरोप लगने पर दूरसंचार मंत्री राजा को हटा दिया।
असल सवाल ये नहीं है कि राजा ने तो इस्तीफा दे दिया और कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा अड़ गए, असल सवाल ये है कि दूसरी पार्टी के होते हुए भी राजा ने कांग्रेस के दबाव पर पद छोड़ दिया, जबकि येदियुरप्पा इस्तीफा देने के पार्टी हाईकमान के फरमान के बाद भी कुर्सी से चिपके रहे। चिपके क्या रहे, पार्टी हाईकमान पर यह लेबल चिपका दिया कि वह इतना कमजोर हो गया है कि क्षेत्रीय क्षत्रप उसके कब्जे में नहीं रहे हैं।
धरातल का सच तो यह है कि येदियुरप्पा न केवल बगावत की, अपितु पार्टी हाईकमान को ब्लैकमेल तक किया। उन्होंने जब ये चेतावनी दी कि अगर उनसे जबरन इस्तीफा मांगा गया तो कर्नाटक में भाजपा का सफाया हो जाएगा, पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को झुकना ही पड़ा। दरअसल येदियुरप्पा के पास ब्लैकमेल करने की ताकत थी ही इस कारण कि उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। इसके अतिरिक्त उन्होंने दो बार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करके भी दिखा दिया। यदि पार्टी उन्हें पद से हटने को मजबूर करती तो पार्टी का जनाधार ही समाप्त हो जाता। इसके अतिरिक्त निकट भविष्य में होने जा रहे पंचायती राज चुनाव में भारी घाटा उठाना पड़ता। जाहिर सी बात है कि उत्तर भारत की पार्टी कहलाने वाली भाजपा को कर्नाटक के बहाने दक्षिण में बमुश्किल पांव जमाने का मौका मिला था, भला वहां उखडऩे को कैसे तैयार होती। कदाचित अब भाजपा को भी समझ में आ गया होगा कि आदर्श की बातें करना और उन पर अमल करना कितना कठिन है। उसे यह भी अहसास हो गया होगा कि जिन मुद्दों पर वह कांग्रेस को घेरते हुए अपने आपको पाक साफ बताती थी, उनको लेकर सत्ता की खातिर कांग्रेस कैसे कई बार ढ़ीठ हो जाती थी।
भाजपा की इस ताजा हरकत से यकायक यह एसएमएस याद आ गया, जो पिछले दिनों काफी चर्चित रहा था-

How strange is the logic of our mind, we look for compromise, when we are wrong and we look for justice when others are wrong.

ऐसा नहीं कि भाजपा में यह पहला मामला हो। इससे पहले राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे बगावती तेवर दिखा चुकी हैं। उन्होंने भी पार्टी हाईकमान के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया था कि वे नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ दें। संगठन में राष्ट्रीय महामंत्री बनाए जाने के बाद भी बड़ी मुश्किल से पद छोड़ा, पर नहीं छोडऩे जैसा। उनके छोडऩे के बाद दूसरा आज तक पदारूढ़ नहीं किया जा सका है। प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास की पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर भाजपा की दुकान की असली मालिक अब भी श्रीमती वसुंधरा ही नजर आती हैं। बीच में तो हालत ये हो गई थी कि यदि हाईकमान  ज्यादा ही सख्ती दिखाता तो वसुंधरा नई पार्टी गठित कर देती। ऐसे में हाईकमान यहां समझौता करके ही चल रही है। राजनीतिक गरज की खातिर इससे पूर्व भी हाईकमान ब्लैकमेल हो चुका है। खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। उसकी इस राजनीतिक मजबूरी तो तब इसे थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी। विशेष रूप से इस कारण कि लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने पार्टी को एक के बाद एक ऐसे कदम उठाने पड़े। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा। इससे पहले आडवाणी से किनारा करने का पक्का मानस बना चुकी भाजपा को अपने भीतर उन्हीं के कद के अनुरूप जगह बनानी पड़ी है।
वसुंधरा इतनी ताकतवर हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही है। भाजपाईयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
बहरहाल, पार्टी आज जिस रास्ते पर चल रही है, उससे उसका पार्टी विद द डिफ्रेंस का तमगा छिन चुका है। माने भले ही खुद को सर्वाधित पाक साफ, मगर राजनीतिक लिहाज से कांग्रेस से अलग या ऊपर होने का गौरव खो चुकी है।