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कहने की जरूरत नहीं है ये वही वसुंधरा हैं, जिनकी वजह से राजस्थान के सिंह कहलाने वाले स्वर्गीय शेखावत जी अपने प्रदेश में ही बेगाने से हो गए थे। दरअसल स्वर्गीय श्री शेखावत के उपराष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त करने के बाद राजस्थान लौटते ही दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा हो गया था। असल वे तब नहीं चाहतीं थीं कि शेखावत फिर से राजस्थान में पकड़ बनाएं। यूं तो शेखावत के पुत्र नहीं था, इस कारण खतरा नहीं था कि उनका कोई उत्तराधिकारी प्रतिस्पद्र्धा में आ जाएगा, मगर उनके जवांई नरपत सिंह राजवी उभर रहे थे। वसुंधरा इस खतरे को भांप गई थीं। इसी कारण शेखावत राजवी को भी उन्होंने पीछे धकेलने की उन्होंने भरसक कोशिश की। इस प्रसंग में यह बताना अत्यंत प्रासंगिक है कि शेखावत ने वसुंधरा राजे के कार्यकाल में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की शुरुआत की थी। यही वसुंधरा को नागवार गुजरी। सब जानते हैं कि शेखावत की इसी मुहिम का उदाहरण दे कर कांग्रेस ने वसुंधरा के कार्यकाल पर सवाल उठाने शुरू कर दिए थे।
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वस्तुत: श्रीमती राजे ने एक बार मुख्यमंत्री बनने के बाद तय कर लिया था कि अब राजस्थान को अपने कब्जे में ही रखेंगी। शेखावत ही क्यों, उनके समकक्ष या यूं कहना चाहिए कि उनके वरिष्ठ अनेक नेताओं को उन्होंने खंडहर बता कर हाशिये पर खड़ा कर दिया। मगर अब जब वसुंधरा पर आगामी चुनाव जीतने की चुनौती है तो उन्हीं खंडहरों के यहां धोक दे रही हैं। इसी सिलसिले में वे हरिशंकर भाभड़ा व ललित किशोर चतुर्वेदी सरीखे दिग्गजों के घर जा कर उनका दिल जीतने की कोशिश कर रही हैं।
-तेजवानी गिरधर