तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, फ़रवरी 18, 2025

ये डंकी रूट क्या है?

इन दिनों अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे अप्रवासी भारतीयों को भारत लौटाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वे डंकी रूट से अमेरिका गए थे। डंकी रूट के मायने क्या हैं? कम ही लोगों को इसकी जानकारी होगी। इस सिलसिले में किसी समय अजमेर में जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सेवानिवृत्त अधिशाषी अभियंता रहे लेखक ई. शिव शंकर गोयल, जो कि इन दिनों दिल्ली में निवास कर रहे हैं, उन्होंने शोध किया है। उनकी जानकारी के अनुसार जब राजस्थान में, अगस्त 1968 में, सार्वजनिक निर्माण विभाग से निकल कर जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का गठन हुआ तो नागौर जिले के बांका पट्टी इलाके में ग्राउंड वाटर में अधिक फ्लोराइड की समस्या मुंह बायें खडी थी। स्थानीय लोग वहां का पानी पी-पीकर कूबड, हाथ-पांव टेढे होना तथा दांतों की विभिन्न बीमारियां झेल रहे थे। विभाग ने उस स्थान से दूर एक जगह पीने योग्य पानी का पता लगा कर एक ट्यूब वैल खुदवाया और उसे गांवों से जोड़ने हेतु एक गांव में सर्वे टीम भेजी। टीम को देख कर गांव वाले भी इकट्ठे हो गये। उनमें से एक ने टीम के मुखिया से पूछ लिया कि इतने ताम-झाम के साथ कैसे आना हुआ? तो उन्हें बताया गया कि ट्यूब वैल से गांव तक आने का छोटे से छोटा रास्ता ढूंढना है ताकि पाइप लाइन बिछाई जा सके। इस पर गांव वालों ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि इस छोटे से काम के लिए इतना झंझट करने की क्या जरूरत है? जब रेलवे लाइन बिछी थी तो गांव से स्टेशन तक का छोटे में छोटा गेला (रास्ता) ढूंढना था तो हमने एक गधे को पीट कर उधर की तरफ छोड दिया। वह जिस जिस रास्ते से स्टेशन गया, उससे पता लगा कि वह सबसे सोरा (छोटा) रास्ता है। कहते हैं कि तभी से डंकी रूट चर्चा का विषय हो गया, जिसका इस्तेमाल गुजरात, पंजाब और हरियाणा के कुछ लोगों ने किया।

इस बारे में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में तनिक भिन्न जानकारी उपलब्ध है। 

उसके अनुसार डंकी रूट एक अवैध और खतरनाक प्रवास मार्ग को संदर्भित करता है, जिसका उपयोग लोग गैरकानूनी तरीके से एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए करते हैं। यह रूट मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) से यूरोप, अमेरिका, कनाडा और अन्य विकसित देशों तक जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कई देशों से होते हुए गुप्त और खतरनाक रास्तों से यात्रा करनी पड़ती है, जैसे ईरान, तुर्की, ग्रीस के जरिए यूरोप में प्रवेश और दक्षिण और मध्य अमेरिका के रास्ते अमेरिका में प्रवेश (मेक्सिको बॉर्डर के जरिए) रूस, सर्बिया या अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से होकर। डंकी शब्द पंजाबी में छिप कर जाने या गैरकानूनी तरीके से यात्रा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसे डंकी इसलिए कहा गया क्योंकि लोगों को लंबी दूरी पैदल, खच्चरों (mules) या अन्य अवैध साधनों से तय करनी पड़ती है, जो गधों (Donkeys) पर बोझ ढोने की तरह कठिन और थकाने वाला होता है। पंजाब और अन्य भारतीय राज्यों के कई लोग कनाडा, यूरोप, अमेरिका जाने के लिए इस अवैध रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। पंजाबी बोलचाल में डंकी शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो बिना वीजा या कानूनी दस्तावेजों के किसी देश में घुसने की कोशिश करते हैं। समय के साथ यह शब्द खासकर अवैध रूप से विदेश जाने वाले प्रवासियों के लिए प्रचलित हो गया।

-तेजवाणी गिरधर

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असुरों को वरदान देते ही क्यों हैं त्रिदेव?

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे?

पुराणों और रामायण व महाभारत से जुड़ी कथाओं में इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि अमुक असुर ने त्रिदेव या किसी देवी-देवता से प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हुए देवताओं, ऋषि-मुनियों आमजन को बहुत पीड़ित किया। इस पर दुखी हो कर वे त्रिदेव के पास गए और त्राहि माम त्राहि माम कहते हुए उस असुर की यातानाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उन्होंने अपने वरदान की महत्ता को तो कायम रखा, मगर साथ ही देवताओं व ऋषि-मुनियों पर दया की और अपने ही वरदान का तोड़ निकाला। और इस प्रकार अंततः देवी-देवता, ऋषि-मुनि व आमजन परेशानी से मुक्ति पाते हैं। ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं। कोई गिनती ही नहीं।

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे? ऐसे वरदान भी जानकारी में हैं, जिनके साथ ये शर्त लगाई जाती है कि वे उसका उपयोग जनकल्याण के लिए करने की बजाय दुरुपयोग करेंगे तो वह स्वतः ही बेअसर हो जाएगा। मगर सच्चाई ये है कि असुरों द्वारा हासिल वरदानों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उनका दुरुपयोग किया ही जाता है। स्वाभाविक ही है कि असुर ऐसा ही करेंगे। वरना वे असुर ही क्यों कहलाते? वरदान भी ऐसे-ऐसे कि क्या कहें? जिनसे साफ झलकता है कि असुर उसका दुरुपयोग करेंगे ही। असल में वे शक्ति का वरदान हासिल ही इसलिए करते हैं, ताकि उसका उपयोग कर देवताओं का दमन करें। अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकें। कोई असुर अजेय होने का वरदान पा लेता है तो कोई ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र व अन्य कई प्रकार के अमोघ अस्त्र वरदान स्वरूप हासिल कर लेता है, जिनका उपयोग महाविनाश के लिए किया जा सकता है। जब यह पहले से संज्ञान में है कि उनका उपयोग सृष्टि को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है तो उसे देना ही नहीं चाहिए। 

जरा गौर कीजिए। भस्मासुर शंकर भगवान से किसी के भी सिर पर हाथ फेरने पर उसके भस्म हो जाने का वरदान पा लेता है। बाद में माता पार्वती का वरण करने की खातिर भगवान को ही भस्म करने पर आमादा हो जाता है। बड़ी युक्ति से भगवान को उससे मुक्ति मिल पाती है। उसकी भी एक कहानी है। ब्रह्मा जी व विष्णु भगवान भी पहले तो ऐसे ही अनेक वरदान असुरों को देते हैं और बाद में खुद ही उनके निवारण के रास्ते निकालते हैं। यानि समस्या भी वे ही पैदा करते हैं और समाधान भी खुद ही करते हैं। हिरण्यकश्यप की कथा सर्वविदित है। उसे न अस्त्र से न शस्त्र से, न अंदर न बाहर, न जमीन पर न आसमान में, न मानव द्वारा न पशु द्वारा मारे जाने की वरदान हासिल होता है। अर्थात भगवान पहले तो ऐसा वरदान दे देते हैं कि उसे विभिन्न तरीकों से मारा नहीं जा सकेगा और बाद में खुद ही तोड़ निकालते हुए नृसिंह अवतार लेकर युक्तिपूर्वक उसका वध करते हैं, ताकि उनका वरदान की कायम रहे और हिरण्यकश्यप भी मारा जा सके।

इन सब में एक बात कॉमन है, वो यह कि मृत्यु अवश्यंभावी है, जगत के इस अटल सत्य को ध्यान में रख कर ही वरदान दिए जाते हैं। किसी को भी अमरता का वरदान नहीं दिया जाता। दिया भी नहीं जा सकता। जैसे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था, मगर में उसमें भी मृत्यु सुनिश्चित थी। बस इतना था कि उन्हें तभी काल वरण पाएगा, जब उनकी इच्छा होगी।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ असुर ही प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हैं, ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें देवता भी अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा कि आम मनुष्य करता है। ऋषि-मुनि तक मानवीय कामनाओं के वशीभूत हो कर कृत्य करते हैं। हां, इतना जरूर है कि ऐसे प्रसंगों की संख्या कम है। दुरुपयोग करने पर बाद में उन्हें भी शापित होना पड़ता है।

खैर, कुल मिला कर यह सवाल सिर ही चकरा देता है कि क्यों तो असुरों को वरदान दे कर उन्हें शक्तिशाली बनाया जाता है और फिर बाद में देवताओं के अनुनय-विनय पर दया करके असुरों का अंत किया जाता है।

यह तो हुई मोटी बु्द्धि और तर्क की बात। विषय का एक पहलु। जरा गहरे में जाएं तो और ही दृष्टिकोण उभरता है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमसत्ता या प्रकृति द्वारा जगत के संचालन के लिए नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियों का संतुलन बैठाया जाता है। यह जगत है ही द्वैत। अच्छाई और बुराई से मिल कर ही बना है। दोनों जगत के अस्तित्व के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। इनका जोड़, बाकी, गुणा, भाग सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा, सृष्टि के पालक भगवान विष्णु व सृष्टि के संहारकर्ता भगवान शंकर करते हैं। ये तीनो सृष्टि के नियामक आयोग के डायरेक्टर हैं, जो स्वयं भी शक्ति के आदि केन्द्र के नियमों की पालना करवाने के लिए बाध्य हैं।

दूसरा तथ्य ये समझ में आता है कि कठोर साधना करके कोई भी शक्ति हासिल कर सकता है, चाहे असुर हो या देवता। प्रकृति की आदि शक्ति उसमें कोई भेद नहीं करती। वह सदैव निरपेक्ष रहती है।

इस विषय पर कभी और विस्तार से गहरे में चर्चा करेंगे।

https://www.youtube.com/watch?v=GsUgnVxIs5k