असल में दान प्रकृति की आदान-प्रदान, लेन-देन, क्रिया-प्रतिक्रिया की व्यवस्था का ही रूप प्रतीत होता है। जैसे कोई वस्तु किसी स्थान से कहीं और जाएगी तो वह जो अंतराल उत्पन्न हुआ है, उसे प्रकृति किसी न किसी रूप में भर देती है। दान का सिद्धांत इसी व्यवस्था का आधार है। जब भी हम किसी को कोई वस्तु दान में देते हैं तो बाद में पलट कर वापस मिलती है। कब और कैसे, पता नहीं। प्रकृति की अपनी व्यवस्था है, जिसे समझना व जानना संभव नहीं है। कर्म का सिद्धांत भी तो ऐसा ही है। हम अच्छा कर्म करते हैं तो बाद में उसका फल भी अच्छा मिलता है। बुरे कर्म का बुरा फल। इसी सूत्र से जुड़ी एक उक्ति आपने सुनी होगी कि बोये पेड़ बबूल का, आम कहां से होय।
दान के कई प्रकार हैं। अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान। इसी क्रम में रक्तदान, किडनी दान, मृत्योपरांत नेत्रदान व संपूर्ण शरीर का दान आदि आते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं दान की प्रवृत्ति से सांसारिक आसक्ति यानी मोह माया से छुटकारा मिलता है। हवन-यज्ञ में अग्नि देवता को विभिन्न वस्तुओं की आहुति देने का भी अपना विधान है।
ज्योतिष के अनुसार दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है। अलग-अलग वस्तुओं के दान से अलग-अलग समस्याएं दूर होती हैं। ज्योतिष में तो इस पर पूरा विधान बना हुआ है कि अमुक वस्तु के दान को कब करने से क्या फल मिलता है। यहां तक बताया गया है कि उसी स्तर के कपड़ों का दान करें, जिस स्तर के कपड़े आप पहनते हैं। फटे-पुराने वस्त्रों का दान कभी न करें। ये भी बताया गया है कि मृत्यु आसान हो, इसके लिए दान किया जाता है। यही कारण है कि हमारे यहां मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति के हाथों से दान करवाया जाता है, ताकि उसकी सद्गति हो। हमारे यहां मकर संक्रांति जैसी तिथियों पर दान करने की परंपरा है। और तो और अपनी बेटी का विवाह करने को कन्यादान कहा गया है, जिसका बड़ा महत्व बताया गया है। कहते हैं कि कन्यादान न करने से मुक्ति नहीं मिलती। इसी कारण जिन के बेटी नहीं होती, वे किसी अन्य की कन्या की शादी करवा का पुण्य कमाते हैं। हिंदुओं में कई लोग ऐसे हैं, जिनकी मान्यता है कि अपनी कमाई का दसवां हिस्सा दान करना चाहिए। इससे विभिन्न प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है।
इस्लाम में भी दान की बड़ी महिमा बताई गई है। हैसियतमंद मुसलमान को जकात देना जरूरी है। आमदनी से पूरे साल में जो बचत होती है, उसका 2.5 फीसदी हिस्सा किसी गरीब या जरूरतमंद को दिया जाता है, जिसे जकात कहते हैं। ईद से पहले यानी रमजान में जकात अदा करने की परंपरा है। यह जकात खासकर गरीबों, विधवा महिलाओं, अनाथ बच्चों या किसी बीमार व कमजोर व्यक्ति को दी जाती है। जकात और फितरे में बड़ा फर्क ये है कि जकात देना रोजे रखने और नमाज पढऩे जैसा ही जरूरी होता है, बल्कि फितरा देना इस्लाम के तहत जरूरी नहीं है। फितरे की कोई सीमा नहीं होती। इंसान अपनी हैसियत के हिसाब से कितना भी फितरा दे सकता है।
कई लोग संस्थागत दान की बजाय जांच-परख कर पात्र व्यक्ति को दान देने को अधिक उचित मानते हैं। यही वजह है कि अनेक लोग परंपरागत व आदतन भिखारी को दान देने की बजाय उसी को दान देना अधिक उपयुक्त मानते हैं जो कि वाकई जरूरतमंद हो। जरूरतमंद को सहायता करने से वह सच्चे दिल से दुआ करता है। कई लोग भिखारी को खाना तो खिलवा देते हैं, मगर धन नहीं देते। उनकी मान्यता है कि पेशे से भिखारी व्यक्ति उसका उपयोग नशे के लिए कर सकता है, जिससे पुण्य की बजाय उलटे पाप लगेगा। लोगों की इस प्रवृत्ति को भिखारी भी जान गए हैं, इस कारण वे खाने या दवाई के नाम पर पैसा मांगते हैं। सिद्धांत के पक्के लोग किसी भिखारी को पैसे देने की बजाय खुद भोजन व दवाई दिलवाते हैं।
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