तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 29, 2012

गडकरी के बयानों से और बढ़ेगा घमासान


अब तक की सर्वाधिक बदनाम कांग्रेस सरकार की विदाई की उम्मीद में भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो चुका है। बड़े मजे की बात ये है कि उस घमासान समाप्त करने अथवा छुपाने की जिम्मेदारी जिस शख्स पर है, खुद वही नित नए विवाद की स्थिति पैदा कर रहा है। इशारा आप समझ ही गए होंगे।
बात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की चल रही है। हाल ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बता कर अन्य दावेदारों को सतर्क कर दिया था। अभी इस पर चर्चा हो कर थमी ही नहीं थी उन्होंने एक बयान में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधानमंत्री के योग्य करार दे दिया। हालांकि यह सही है कि उन्होंने जैसा सवाल वैसा जवाब दिया होगा और उनका मकसद किसी को अभी से स्थापित करने का नहीं होगा, बावजूद इसके उनके बयानों से पार्टी कार्यकर्ताओं में तो असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो ही रही है। होता अमूमन ये है कि पत्रकार ऐसे पेचीदा सवाल पूछते हैं कि उसमें नेता को हां और ना का जवाब देना ही पड़ता है और जो भी जवाब दिया जाता है, जाहिर तौर पर उसके अर्थ निकल कर आ जाते हैं। जवाब देने वाला खुद भी यह समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे हो गया। उसका मकसद वह तो नहीं था, जो कि प्रतीत हो रहा होता है। कमोबेश स्थिति ऐसी ही लगती है। पता नहीं किस हालात में गडकरी ने मोदी को प्रधानमंत्री के पद के योग्य बताया और पता नहीं किस संदर्भ में उन्होंने सुषमा व जेटली को भी उस पंक्ति में खड़ा कर दिया। मगर जब इन सभी जवाबों को एक जगह ला कर तुलनात्मक समीक्षा की जाती है तो गुत्थी उलझ जाती है कि आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। संभव है कि उन्होंने कोई विवाद उत्पन्न करने के लिए ऐसा नहीं किया हो, मगर उनके बयानों से पार्टी में असमंजस तो पैदा होता ही है।
जरा पीछे झांक कर देखें। आडवाणी के रथयात्रा निकालने के निजी फैसले पर जब पार्टी ने मोहर लगाई और उनका पूरा सहयोग किया, तब ये मुद्दा उठा कि आडवाणी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं अथवा पार्टी उन्हें फिर से प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रही है। तब खुद गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। उस वक्त आडवाणी की दावेदारी को नकारने वाले गडकरी के ताजा बयान इस कारण रेखांकित हो रहे हैं कि वे क्यों मोदी, सुषमा व जेटली को दावेदार बता कर विवाद पैदा कर रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है कि उनके मौजूदा बयानों से लाल कृष्ण आडवाणी और उनके करीबी लोगों को तनिक असहज लगा होगा कि गडकरी जी ये क्या कर रहे हैं। इससे तो आडवाणी का दावा कमजोर हो जाएगा। संभावना इस बात की भी है कि उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया हो, ताकि कोई एक नेता अपने आप को ही दावेदार न मान बैठे, लेकिन उनकी इस कोशिश से मीडिया वालों को अर्थ के अर्थ निकालने का मौका मिल रहा है। विशेष रूप से तब जब कि जिस गरिमापूर्ण पद वे बैठे हैं, उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करते। उनकी जुबान फिसलने के एकाधिक मौके पेश आ चुके हैं। उनके कुछ जुमलों को लेकर भी मीडिया ने गंभीर अर्थ निकाले हैं। जैसे एक अर्थ ये भी निकाला जा चुका है कि भाजपा के इतिहास में वे पहले अध्यक्ष हैं, जिन्होंने अपनी बयानबाजी से पार्टी को एक अगंभीर पार्टी की श्रेणी पेश कर दिया है। इसे भले ही वे अपनी साफगोई या बेबाकी कहें, मगर उनकी इस दरियादिली से पार्टी में तंगदिली पैदा हो रही है। इससे पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर चल रही जंग को नया आयाम मिला है।
उल्लेखनीय है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी। बाद में गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर तीन दिवसीय उपवास कर की, जो कि साफ तौर पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनाने के रूप में ली गई। यूं पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी दावेदारी की जुगत में हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे। कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहे घमासान को गडकरी के बयानों से हवा मिल रही है।

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