मेरे एक अति प्रिय मित्र श्री ऋशिराज षर्मा, जो कि वरिश्ठ पत्रकार हैं, ने अपने किसी दोस्त के हवाले से बताया कि जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है। प्रत्यक्षतः यह बात गले नहीं उतरती। यदि हम सहायता की प्रार्थना नहीं करेंगे तो भला कोई देवी-देवता, भगवान अथवा खुदा क्यों द्रवित हो कर कृपा करेगा। केवल चिंता में डूबने से क्या हो जाएगा?
इस विशय पर मैने इसलिए गहन चिंतन-मनन किया कि कोई अगर ऐसी बात कर रहा है, तो जरूर उसका कोई तो आधार होगा। हो सकता है कि उसका यह निजी अनुभव भी हो।
ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हम गहरी पीडा में होते हैं तो प्रकृति स्वयं आगे हो कर उसे दूर करने में जुट जाती है। इसका एक उदाहरण मेरे ख्याल में है। एक प्रवचन में ओषो ने जिक्र किया है कि ऐसे कई कीट-पतंग, जीव-जंतु हैं, जो दुर्घटनाग्रस्त होते हैं, जिन्हें कि मानव मदद नहीं मिलती, तो वे क्षतिग्रस्त भाग पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं, एकाग्र हो जाते हैं और प्रकृति उसे दुरूस्त करने लगती है।
यह बात उपर उल्लेखित बात से तनिक मेल खाती प्रतीत होती है। गहरी पीडा के वक्त भी आदमी एकाग्र हो जाता है, भले ही वह किसी देवता का स्मरण न कर रहा हो, मगर दुख से निवृत्ति का भाव तो होता ही है, ऐसे में कदाचित प्रकृति विकृत स्थिति को दुरूस्त करने लगती हो। इस तथ्य को हम लॉ ऑफ अटेक्षन से भी जोड कर देख सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि जब भी हम कोई मजबूत संकल्प लेते हैं तो प्रकृति की सारी षक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती हैं।
यह प्रकरण इसलिए जिक्र नहीं किया जा रहा कि दुख के समय में भगवान से मदद की गुहार करने की जरूरत नहीं है, बल्कि उस कीमिया को समझने का प्रयास मात्र है, जो कि प्रकृति में इनबिल्ट है।
प्रकृति अपनी ओर से कैसे काम करती है, इसके एक दो छोटे उदाहरण देखिए। जब भी हमें चोट लगती है, खून बहता है तो जल्द ठीक होने के लिए हम दवाई लेते हैं, लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति खुद थक्का बना कर खून को बहने से रोकती है। इसे तो चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है कि जब हड्डी टूटती है तो डाक्टर इतना भर करता है कि उसे ठीक से बैठा कर दर्द निवारक दवा दे देता है, मगर हड्डी को जाडने की स्वतः प्रक्रिया तो प्रकृति ही करती है। आपने देखा होगा कि कोई कुत्ता-बिल्ली आदि जानवर चोटिल हो जाते हैं तो अपनी जीभ से चोटग्रस्त स्थान को जीभ से चाटते हैं। विज्ञान कहता है कि जीभ की लार में घाव को ठीक करने के तत्व मौजूद रहते हैं। यह प्रकृति का ही तो कमाल है कि भोजन करते वक्त, पानी पीते वक्त उसका कुछ अंष अगर ष्वास नली में चला जाए तो प्रकृति उसे खांसी के जरिए बाहर निकालने लग जाती है। जब भी कोई विशाक्त पदार्थ षरीर के भीतर प्रवेष करता है तो प्रकृति उसे बाहर निकालने की कोषिष करती है, जिसे हम उल्टी करना कहते हैं।
कुल मिला कर इस निश्कर्श पर पहुंचा जा सकता है कि प्रकृति सदैव संतुलन करने में जुटी रहती है। जहां भी विकृति होती है तो उसे फिर से ठीक कर प्राकृतिक अवस्था में लाने में प्रवृत्त होती है। षायद यही सिद्धांत हमारे गहरे चिंतित होने पर भी लागू होता हो। और हम यह सोचते हैं कि अमुक देवी-देवता की प्रार्थना करने से दुख की निवृत्ति हुई है, जबकि असल में वह प्रकृति का कमाल हो।
https://www.youtube.com/watch?v=bMBH2cV8Wpw
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