प्रदेश में भाजपा गहरे अंतद्र्वंद्व में जी रही है। जब से संघ ने पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटने के लिए मजबूर किया और उन्होंने काफी ना-नुकुर और भारी मन से पद छोड़ा, तब से पार्टी अंदर ही अंदर बड़ी परेशानी में है। हालांकि वसुंधरा की नापसंद के बाद भी हाई कमान प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद पर अरुण चतुर्वेदी को बैठाने में कामयाब हो गया, लेकिन वसुंधरा राजे के अडिय़ल रुख के कारण काफी प्रयास के बाद भी विपक्ष का नेता नहीं चुना जा सका। संघ ने भी अपनी पूरी ताकत लगाई, लेकिन पार्टी के दोफाड़ हो जाने के खतरे को देख कर वह भी आखिरकार चुप हो गया। हालांकि हाल ही ऐसी खबरें आईं कि गतिरोध समाप्त न होता देख हाईकमान ने अंतत: थक-हार कर पूरी जिम्मेदारी वसुंधरा पर ही डाल दी कि वे ही तय करें कि विपक्ष का नेता कौन हो।
बताया जाता है कि ऐसा वसुंधरा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ विदेश दौरे के दौरान सामंजस्य बैठ जाने के बाद ही संभव हो पाया। वसुंधरा को यहां तक छूट दी गई है कि चाहें तो वे स्वयं भी फिर से पद पर बैठ सकती हैं। इसी के साथ यह भी संभावना बनी कि गतिरोध खत्म होने के कारण विधानसभा सत्र शुरू होने से पहले ही भाजपा विधायक दल का नेता तय हो जाएगा, चाहे वसुंधरा बनें या कोई और। विधानसभा सत्र भी शुरू हो गया, लेकिन अब तक उस कुर्सी पर कोई नहीं बैठा है।
हालांकि पहले यही माना गया कि हाईकमान के झुकने के बाद वसुंधरा एक बार फिर शान से कुर्सी संभाल कर यह जताना चाहती हैं कि देखो आखिर उनकी ही चली। अधिसंख्य समर्थक विधायकों की भी यही राय है कि वे ही उनकी नेता के रूप में विधानसभा में बैठें। अन्य किसी के प्रति तो फिर भी आम सहमति बनानी होगी, जबकि वसुंधरा के मामले में आमराय पहले से ही बनी हुई है। लेकिन समझा जाता है कि उनके सलाहकारों ने राय दी है कि अब उसी कुर्सी पर वापस बैठने में कोई शान नहीं है। ऐसे में कदाचित वसुंधरा स्वयं असमंजस में हैं। उन्होंने अपनी ताकत से जंग तो जीत ली है, लेकिन अब समझ नहीं पा रही हैं कि अपनी ताकत का इस्तेमाल अब किस रूप में करें। एक और वे यह कहती हैं कि यदि हाईकमान फिर यह चाहता है कि कमान वे ही संभालें तो पहले हटाया ही क्यों था। दूसरी ओर सोचती हैं कि मौका मिला ही है तो इसे चूकूं क्यों? कहते हैं न कि त्रिया चरित्र को न तो देवता जान सकते हैं और न ही त्रिया चरित्र के हठ के आगे कोई टिकता है। बस यूं ही समझ लीजिए। विधानसभा सत्र शुरू होने के बाद भी वे अपने पत्ते नहीं खोल रही हैं। इसी अंतद्र्वंद्व के बीच विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद अब भी खाली पड़ा है।
समझा जा रहा है कि वे अपनी पसंद किसी विधायक को विपक्ष का नेता बना कर दोहरी भूमिका अदा करना चाहती हैं। एक तो जो उनकी कृपा से नेता बनेगा, वह हर बात उन्हीं से पूछ-पूछ कर काम करेगा, दूसरा ये कि राष्ट्रीय महामंत्री होने के नाते वे राष्ट्रीय राजनीति में भी टांग फंसाए रखेंगी। हालांकि यह तो पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में आमराय बन चुकी है कि अगला विधानसभा चुनाव वंसुधरा राजे के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और जीतना भी उनके नेतृत्व में ही संभव है, क्योंकि उनके अतिरिक्त फिलहाल पार्टी के पास ग्लैमरस नेता दूसरा नहीं है। इसके बावजूद समझा जाता है कि वसुंधरा की नजर केन्द्र पर भी है। क्या पता कभी वहां भी चांस लग जाए। यूं वहां भी नंबर वन को लेकर खींचतान है, लेकिन जिनके भी बीच जंग चल रही है, उनके मुकाबले की तो वसुंधरा भी हैं। महिला नेताओं में भले ही दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज अपने वाक्चातुर्य के दम पर शीर्ष पर हैं, मगर राजनीतिक जोड़-तोड़ और धन-बल में वंसुधरा कहीं अधिक भारी पड़ती हैं। खैर, यह काफी दूर की कौड़ी है, मगर समझा जाता है कि वसुंधरा की उसी पर नजर है, अथवा केन्द्र में भी अच्छी पोजीशन बनाए रखने की नीयत है, इस कारण संभव है प्रदेश में विपक्ष का नेता किसी और को ही बनाएंगी। संभावना यही बताई जा रही है कि इसी माह के अंत तक फैसला हो जाएगा।
बताया जाता है कि ऐसा वसुंधरा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ विदेश दौरे के दौरान सामंजस्य बैठ जाने के बाद ही संभव हो पाया। वसुंधरा को यहां तक छूट दी गई है कि चाहें तो वे स्वयं भी फिर से पद पर बैठ सकती हैं। इसी के साथ यह भी संभावना बनी कि गतिरोध खत्म होने के कारण विधानसभा सत्र शुरू होने से पहले ही भाजपा विधायक दल का नेता तय हो जाएगा, चाहे वसुंधरा बनें या कोई और। विधानसभा सत्र भी शुरू हो गया, लेकिन अब तक उस कुर्सी पर कोई नहीं बैठा है।
हालांकि पहले यही माना गया कि हाईकमान के झुकने के बाद वसुंधरा एक बार फिर शान से कुर्सी संभाल कर यह जताना चाहती हैं कि देखो आखिर उनकी ही चली। अधिसंख्य समर्थक विधायकों की भी यही राय है कि वे ही उनकी नेता के रूप में विधानसभा में बैठें। अन्य किसी के प्रति तो फिर भी आम सहमति बनानी होगी, जबकि वसुंधरा के मामले में आमराय पहले से ही बनी हुई है। लेकिन समझा जाता है कि उनके सलाहकारों ने राय दी है कि अब उसी कुर्सी पर वापस बैठने में कोई शान नहीं है। ऐसे में कदाचित वसुंधरा स्वयं असमंजस में हैं। उन्होंने अपनी ताकत से जंग तो जीत ली है, लेकिन अब समझ नहीं पा रही हैं कि अपनी ताकत का इस्तेमाल अब किस रूप में करें। एक और वे यह कहती हैं कि यदि हाईकमान फिर यह चाहता है कि कमान वे ही संभालें तो पहले हटाया ही क्यों था। दूसरी ओर सोचती हैं कि मौका मिला ही है तो इसे चूकूं क्यों? कहते हैं न कि त्रिया चरित्र को न तो देवता जान सकते हैं और न ही त्रिया चरित्र के हठ के आगे कोई टिकता है। बस यूं ही समझ लीजिए। विधानसभा सत्र शुरू होने के बाद भी वे अपने पत्ते नहीं खोल रही हैं। इसी अंतद्र्वंद्व के बीच विधानसभा में विपक्ष के नेता का पद अब भी खाली पड़ा है।
समझा जा रहा है कि वे अपनी पसंद किसी विधायक को विपक्ष का नेता बना कर दोहरी भूमिका अदा करना चाहती हैं। एक तो जो उनकी कृपा से नेता बनेगा, वह हर बात उन्हीं से पूछ-पूछ कर काम करेगा, दूसरा ये कि राष्ट्रीय महामंत्री होने के नाते वे राष्ट्रीय राजनीति में भी टांग फंसाए रखेंगी। हालांकि यह तो पूरे प्रदेश के भाजपाइयों में आमराय बन चुकी है कि अगला विधानसभा चुनाव वंसुधरा राजे के नेतृत्व में लड़ा जाएगा और जीतना भी उनके नेतृत्व में ही संभव है, क्योंकि उनके अतिरिक्त फिलहाल पार्टी के पास ग्लैमरस नेता दूसरा नहीं है। इसके बावजूद समझा जाता है कि वसुंधरा की नजर केन्द्र पर भी है। क्या पता कभी वहां भी चांस लग जाए। यूं वहां भी नंबर वन को लेकर खींचतान है, लेकिन जिनके भी बीच जंग चल रही है, उनके मुकाबले की तो वसुंधरा भी हैं। महिला नेताओं में भले ही दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज अपने वाक्चातुर्य के दम पर शीर्ष पर हैं, मगर राजनीतिक जोड़-तोड़ और धन-बल में वंसुधरा कहीं अधिक भारी पड़ती हैं। खैर, यह काफी दूर की कौड़ी है, मगर समझा जाता है कि वसुंधरा की उसी पर नजर है, अथवा केन्द्र में भी अच्छी पोजीशन बनाए रखने की नीयत है, इस कारण संभव है प्रदेश में विपक्ष का नेता किसी और को ही बनाएंगी। संभावना यही बताई जा रही है कि इसी माह के अंत तक फैसला हो जाएगा।
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