तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, जून 17, 2025

भारत ने तो बहुत पहले ही बना लिया था मानव क्लोन

दोस्तो, नमस्कार। जिस मानव क्लोन को बनाने की वर्तमान में चर्चाएं हैं, ऐसे मानव क्लोन का इतिहास त्रेता युग से भी अधिक पुराना है। यह दावा रहा है प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का। कुछ साल पहले उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि ऐसे विस्मयकारी प्रयोग हमें वैदिक वांगमय में अनेकं बार सुनने अथवा पढ़ने को मिलते हैं। 

प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का मानना है कि स्मरण विज्ञान व श्रुति परम्परा (ओरल ट्रेडिशन) के धीरे-धीरे निष्प्रभावी होने के कारण हम भूल गए कि क्लोनिंग और अंतरिक्ष युद्ध जैसे चौंकाने वाले विषय कभी भारतीय वेद, पुराण और इतिहास में व्यवहारिक प्रयोग में थे। क्लोनिंग (रक्त बीज) से उत्पन्न सैनिक पूर्ण कुशलता से युद्ध लड़ा करते थे। यहां तक की उनके पराक्रम और शौर्य का देवगण भी लोहा मानते

थे। श्री शर्मा के अनुसार मानव क्लोनिंग के विषय में वेद, पुराण व इतिहास में बहुत कुछ कहा गया है। हां, स्मरण विज्ञान के लुप्त प्रायः हो जाने और वर्तमान भौतिक विज्ञान की प्रचण्ड आंधी ने स्मृतियों के सारांश पर धूल की अनेक परतें अवश्य जमा दी है। दुर्गा सप्तसती में वर्णित रक्त बीज वध नामक अध्याय का विवरण युद्ध क्षेत्र में क्लोनिंग से असुर सैनिकों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है। हरिवंश पुराण के पंचम अध्याय में भी मानव क्लोनिंग का रोचक प्रसंग है, जिसमें राजा वेन के अनाचार से कुद्ध होकर महर्षियों ने वेन की दाहिनी भुजा का मंथन कर महान् सदाचारी महिपाल राजा पृथु को उत्पन्न किया। हरिवंश पुराणा में ही एक और उदाहरण देखने को मिलता है जिसमें एक अविवाहित ऋषि ने अपनी वंशवृद्धि की इच्छा से जंघा को चीरकर रक्त निकाला और स्वगुण स्वरूप पुत्र की उत्पत्ति की। ब्रह्मचारी हनुमान के पसीने से मकरध्वज की उत्पत्ति भी विचारणीय है। इन धारणाओं के चलते वर्तमान जैव वैज्ञानिकों द्वारा प्रचारित चिकित्सकीय क्लोनिंग प्रौद्योगिकी पर दृष्टिपात करें तो डॉली नामक भेड़ को क्लोनिंग के जरिए पैदा करने वाले ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो. ईयन विल्मट ने दावा किया कि वे कुछ अनुसंधान के बाद पूर्णतः विकसित मानव कोशिका से दूसरा मानव बना सकते हैं। इसी प्रकार जैव नीति शास्त्र विषय पर इन्डो-जर्मन कार्य शिविर में नीतिपरक चर्चा के दौरान बाखूम विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी प्रो. स्ट्रेफेर ने जैव नीति शास्त्र पर दार्शनिकों के साथ मिलकर निरंतर विचार- विनिमय की बात पर बल दिया। उन्होंने कहा कि रक्तबीज (क्लोनिंग) क उपयोग ठीक उसी तरह है, जिस प्रकार शूरवीर यौद्धा शस्त्रों का उपयोग आतंकवाद को नष्ट करने के लिए करता है तथा तमोगुणी असुर अपने शस्त्र बल का प्रयोग जन समूह को आतंकित करने के लिए करता है। भारतीय चिंतन में नीति और ज्ञान-विज्ञान की कहीं कमी नहीं है। कमी है सिर्फ स्मरण शास्त्र को लुप्त होने से बचाने की। वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा में स्थापित किए गए नये आयाम यदि निरंतर क्रमोन्नत होते रहे तो हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की पश्चिमी वैज्ञानिकों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।

इस मसले का एक पहुल यह है कि मानव क्लोनिंग तकनीकी रूप से सिद्धांत में संभव मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह कानूनी, नैतिक और वैज्ञानिक सीमाओं के कारण व्यवहार में नहीं की जाती। क्लोनिंग का मतलब है किसी जीव का सटीक आनुवंशिक प्रतिरूप बनाना। 1996 में डॉली नाम की भेड़ को क्लोन किया गया था, जिससे यह साबित हुआ कि स्तनधारियों की क्लोनिंग संभव है। उसी तकनीक से, मानव कोशिकाओं की क्लोनिंग (जैसे स्टेम सेल थेरपी के लिए) प्रयोगशालाओं में की गई है, लेकिन पूरा मानव नहीं। क्लोनिंग से जन्मे जानवरों में अक्सर बीमारियां, असामान्यताएं, और कम जीवनकाल देखा गया है। तो इंसानों में ये खतरे और भी गंभीर हो सकते हैं।

ज्ञातव्य है कि लगभग हर देश में मानव क्लोनिंग पर रोक है, जैसे भारत, अमेरिका, यूरोप आदि में। संयुक्त राष्ट्र ने भी 2005 में इसके विरोध में प्रस्ताव पारित किया।

ज्ञातव्य है कि थेरेप्यूटिक क्लोनिंग को कुछ सीमित रूप से स्वीकार किया गया है, ताकि कैंसर, अल्जाइमर, पार्किंसंस जैसी बीमारियों का इलाज खोजा जा सके। लेकिन प्रजनन के लिए मानव क्लोनिंग पर सख्त प्रतिबंध है।

सैद्धांतिक रूप से मानव क्लोनिंग संभव हो सकती है, लेकिन आज की स्थिति में यह व्यावहारिक, नैतिक और कानूनी रूप से अस्वीकार्य है। भविष्य में विज्ञान और समाज की सोच में बदलाव के अनुसार इसमें परिवर्तन हो सकता है, लेकिन फिलहाल यह केवल विज्ञान कथा जैसा ही है।


https://youtu.be/nSF12IxYApE

https://ajmernama.com/thirdeye/433050/

क्या बृहस्पति देव और वीरल पीर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आमतौर पर लोग बृहस्पति देव और वीरल पीर को एक ही मानते हैं, लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि दोनो एक ही नहीं हैं, लेकिन कुछ सांस्कृतिक और लोक आस्थाओं में लोगों ने इन दोनों में समानता या संबंध देखा है। 

वस्तुतः हिंदू धर्म में बृहस्पति देव को देवताओं के गुरु के रूप में जाना जाता है। वे ज्ञान, धर्म, सत्य और ज्योतिष में निपुण माने जाते हैं। बृहस्पति ग्रह को ज्योतिष में सबसे शुभ माना गया है और गुरु के रूप में पूजा जाता है। गुरुवार यानि (बृहस्पतिवार) को इनकी विशेष पूजा होती है, पीले वस्त्र, चना दाल, पीले फूल आदि चढ़ाए जाते हैं।

दूसरी ओर लोकदेवता स्वरूप वीरल पीर या वीर पीर को संन्यासी, योगी या संत के रूप में पूजा जाता है। इनका संबंध कई बार इस्लाम और हिंदू लोक परंपरा दोनों से जुड़ता है। राजस्थान, गुजरात और सिंध क्षेत्र में इनकी लोकपूजा होती है। इन्हें रोग निवारण, रक्षा और चमत्कारों के लिए जाना जाता है। कई बार मुस्लिम संतों को भी पीर कहा जाता है, जो चमत्कारी और मार्गदर्शक होते हैं। कई बार ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम मान्यताओं का मेल हो जाता है। इसलिए किसी संत या पीर को बृहस्पति देव का अवतार या प्रतिनिधि मान लिया जाता है। अगर वीरल पीर की पूजा गुरुवार को होती है, तो लोग उन्हें बृहस्पति से जोड़ सकते हैं। शास्त्रीय दृष्टिकोण से बृहस्पति देव और वीरल पीर अलग हैं, लेकिन लोक मान्यताओं और भक्ति परंपरा में उन्हें एक जैसा आस्था का प्रतीक माना जा सकता है।

राजस्थान और सिंध क्षेत्र में बृहस्पति देव और वीरल पीर को जोड़ने की परंपरा लोकविश्वास, सांस्कृतिक समन्वय और धार्मिक सह-अस्तित्व की भावना से उत्पन्न हुई है। 


https://youtu.be/bacfjSLkzHE


बुधवार, जून 11, 2025

क्या महाभारत को घर रखना उचित नहीं है?

दोस्तो, नमस्कार। यह एक आम धारणा है कि महाभारत ग्रंथ को घर में नहीं रखना चाहिए। विशेषकर कुछ परंपरागत हिन्दू परिवारों में। लेकिन इसका कारण धार्मिक से ज्यादा सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं- महाभारत एक ऐसे महायुद्ध की कथा है, जिसमें भाई-भाई आमने-सामने हो जाते हैं। इसलिए माना जाता है कि इसे घर में रखने से झगड़े और तनाव का वातावरण बन सकता है। बहुत सी परंपराएं कहती हैं कि अगर आप संपूर्ण महाभारत ग्रंथ ( यानि 18 पर्वों वाला) घर में रखते हैं, तो वह घर कलह का केंद्र बन सकता है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए अंशतः महाभारत जैसे गीता या भीष्म पर्व आदि रखता है, तो वह स्वीकार्य माना जाता है। वस्तुतः यह सोचने वाली बात है कि किसी पुस्तक को घर पर रखने से उसका प्रभाव कैसे पड सकता है। विद्वान कहते हैं कि कोई भी ग्रंथ खुद कलह नहीं लाता। हमारी सोच, व्यवहार और परिवार में प्रेम की भावना ही मूल कारण होते हैं। एक पहलु यह भी है कि महाभारत केवल युद्ध कथा नहीं, बल्कि उसमें नीति, धर्म, कर्तव्य और जीवन के गूढ़ रहस्य भी समाहित हैं। यह एक महान ग्रंथ है, विशेषकर गीता का उपदेश। ऐसे में यदि आप उसमें श्रद्धा और अध्ययन की भावना से रखते हैं, तो कोई दोष नहीं। दिलचस्प बात है कि गीता महाभारत का ही अंष है, मगर उसे हर घर में रखा जाता है और पढा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तुविदों ने अपने हिसाब से व्याख्या करके ऐसी धारणा जन जन में डाली है कि युद्ध के ग्रंथ महाभारत को घर पर रखने से घर में झगडे व विवाद हो सकते हैं। जैसे युद्ध के चित्र घर की दीवार पर टांगने को लेकर भी धारणा है कि उससे घर का वातावरण खराब होता है। कुल जमा बात यह है कि महाभारत घर में नहीं रखने की धारणा आस्था जुडी हुई है तो उसका कोई उपाय नहीं, मगर असल में महाभारत को घर में रखना अशुभ नहीं है, बशर्ते आप उसे सही भाव से रखें।

https://ajmernama.com/thirdeye/432789/

https://youtu.be/GsXfDbTLeho


सोमवार, जून 09, 2025

कैसे पहननी चाहिए कछुए वाली अंगूठी?

दोस्तो, नमस्कार। कई लोग कछुए वाली अंगूठी पहनते हैं, उनमें से कई के मन में जिज्ञासा होती है कि उसकी दिषा क्या होनी चाहिए? कछुए वाली अंगूठी यानि टोरटोइज रिंग पहनते समय उसकी दिशा और पहनने का तरीका वास्तु शास्त्र और ज्योतिष के अनुसार विशेष महत्व रखता है। यह अंगूठी धन, सुख-शांति और सौभाग्य को आकर्षित करने के लिए पहनी जाती है। जानकार बताते हैं कि कछुए का मुख यानि सिर आपकी ओर यानी हथेली की ओर होना चाहिए। अर्थात जब आप अपनी हथेली देखें, तो कछुए का सिर आपकी ओर दिखे। ऐसा माना जाता है कि जब कछुए का मुख आपकी ओर होता है, तो वह ऊर्जा और समृद्धि आपकी ओर खींचता है। अगर उसका मुख बाहर की ओर हो, यानी नाखून की ओर, तो वह ऊर्जा बाहर की ओर धकेल सकता है, जिससे लाभ की बजाय हानि हो सकती है। यह अंगूठी आमतौर पर मध्यमा यानि मिडल फिंगर या अनामिका यानि रिंग फिंगर में पहनी जाती है। ज्योतिश परंपरा के अनुसार पुरुष दाएं हाथ में और महिलाएं बाएं हाथ में पहन सकती हैं। यह अंगूठी चांदी या पंचधातु में श्रेष्ठ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त इसे पहनना शुक्रवार या सोमवार शुभ माना जाता है।

https://youtu.be/7V7sewBLduo


https://ajmernama.com/thirdeye/432667/

शनिवार, जून 07, 2025

क्या एआई हमें कभी अंतर्ध्यान कर पाएगा?

दोस्तो, नमस्कार। षास्त्रों में आपने देवी-देवताओं के अंतर्ध्यान होने के प्रसंग सुने होंगे। उन्होंने इसके लिए किस विधा का उपयोग किया, पता नहीं, मगर आज के वैज्ञानिक युग में भी इस पर प्रयोग किए जा रहे हैं। अंतर्ध्यान अर्थात इन्विजिबिलिटी की तकनीक पर विज्ञान और आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस दोनों ही अलग-अलग दृष्टिकोणों से काम कर रहे हैं।

विज्ञान की दृष्टि से देखें तो आज के युग में वस्तुओं को अदृश्य बनाना कुछ हद तक संभव हो चुका है, लेकिन बहुत सीमित परिस्थितियों में। मेटा मटीरियल्स का उपयोग करके वैज्ञानिक कुछ तरंगों (जैसे कि माइक्रोवेव या इन्फ्रारेड) को मोड़ सकते हैं, जिससे वस्तु दिखाई नहीं देती। 2020 में कुछ शोधों में छोटे स्तर पर ऐसी वस्तुओं को दिखाया गया, जो कुछ खास एंगल से अदृश्य लगती थीं।

एआई खुद अंतर्ध्यान नहीं कर सकता, लेकिन इसमें मदद कर सकता है। एआई मेटामटीरियल्स और नैनो टेक्नोलॉजी के डिजाइन में मदद कर सकता है, ताकि लाइट वेव्स को मोड़ा जा सके। एआई की मदद से अंतर्ध्यान के लिए उपयोगी संरचनाओं और फॉर्मूलों, सिमुलेशन और मॉडलिंग को तेजी से टेस्ट किया जा सकता है। किसी भी अंतर्ध्यान डिवाइस को नियंत्रित करने के लिए स्मार्ट सेंसिंग और रिएक्शन सिस्टम की जरूरत होगी। जिसमें एआई की बड़ी भूमिका हो सकती है। फिलहाल इंसानों को पूरी तरह अदृश्य बनाना केवल साइंस फिक्शन में ही संभव है।

ज्ञातव्य है कैमुफ्लाज सूट आसपास के वातावरण की छवि को डिस्प्ले करता है, जिससे व्यक्ति अदृश्य हो जाता है। ऑप्टिकल क्लोकिंग डिवाइसेज भी बने हैं, जो अभी बहुत प्रारंभिक स्तर पर हैं।

कुल मिला कर एआई खुद अंतर्ध्यान की तकनीक नहीं खोजेगा, लेकिन यह एक सहयोगी उपकरण की तरह वैज्ञानिकों की मदद करेगा। अभी तक पूरी तरह से कार्यशील अंतर्ध्यान तकनीक मानव के लिए उपलब्ध नहीं है, पर भविष्य में एआई़ मेटामटीरियल्स ़ नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से यह संभव हो सकता है, खासकर सैन्य या रिसर्च एप्लिकेशन में।

कनाडा की कंपनी एक ने एक ऐसी शीट डिवाइस का दावा किया है जो पीछे की रोशनी को इस तरह बेंड करती है कि सामने खड़ा व्यक्ति गायब लगने लगता है। वे इसे लेंस आधारित क्लोकिंग बताते हैं, बिना बैटरी या प्रोजेक्शन के। एआई की मदद से हम जल्द ही ऐसे डायनामिक क्लोकिंग सिस्टम बना सकते हैं, जो किसी भी वस्तु को अपने वातावरण के अनुसार खुद को ढालने में सक्षम बनाए। लब्बोलुआब, पूरी तरह मानव अंतर्ध्यान अभी काल्पनिक है, लेकिन छोटे उपकरण, ड्रोन या वस्तुएं कुछ एंगल से अदृश्य बनाई जा सकती हैं।


https://youtu.be/2Sgs39KNia8


मंगलवार, जून 03, 2025

भगवान दयालु नहीं?

एक कहावत है कि जो होता है, वह अच्छे के लिए होता है अथवा जो होगा, वह अच्छे के लिए होगा। मैं इससे तनिक असहमत हूं। मेरी नजर में हमारे साथ वह होता है, जो उचित होता है। उसकी वजह ये है कि प्रकृति अथवा जगत नियंता को इससे कोई प्रयोजन नहीं कि हमारा अच्छा हो रहा है या बुरा। प्रकृति तो वही करती है, जो हमारे कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार उचित होता है। अच्छा या बुरा तो हमारा दृष्टिकोण है। जो हमारे अनुकूल होता है, उसे हम अच्छा मानते हैं और जो प्रतिकूल होता है, उसे बुरा मानते हैं। 

वस्तुतः प्रकृति निरपेक्ष भाव से काम करती है। जैसे सूरज की रोशनी अमीर पर भी उतनी ही गिरती है, जितनी की गरीब पर। सज्जन पर भी उतनी ही, जितनी दुष्ट पर। इसी प्रकार बारिश न तो महल देखती है और झोंपड़ी, वह तो सब पर समान रूप से गिरती है। 

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन भी विद्वानों ने उपर्युक्त कहावत कही है, उसके पीछे हमें सकारात्मकता बनाए रखने का प्रयोजन है। अगर बुरा भी हो रहा होता है तो, जो कि उचित होता है, उसमें अच्छाई पर ही नजर रखने की प्रेरणा है। यह सही भी है कि अच्छाई व बुराई का जोड़ा है, जो अच्छा है, उसमें कुछ बुरा भी होता है और जो बुरा होता है, उसमें भी कुछ अच्छा होता है। हम निराश न हों, इसलिए कहा जाता है कि भगवान जो कर रहे हैं, उसमें जरूर हमारी भलाई है। यह सिर्फ मन को समझाने का प्रयास है। आपने यह उक्ति भी सुनी होगी- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। अर्थात प्रकृति जो कर रही है, उसमें राजी रहें, वही हमारी नियति है, चूंकि उसके अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। बेहतर ये है कि हम उसे हमारे लिए उचित मान कर स्वीकार कर लें।

इसी कड़ी में यह बात जोड़ देता हूं। वो यह कि यह बात भी गलत है कि भगवान कृपा के सागर है, दयालु हैं। वे तो कर्म के अनुसार फल देते हैं। यदि बुरे कर्म करेंगे तो बुरा फल देंगे और अगर हम कर्म अच्छे करते हैं तो वह उसके अनुरूप अच्छा फल देने को प्रतिबद्ध हैं। दयालु तो तब मानते, जब कि हम कर्म तो बुरे करें और भगवान की कृपा से फल अच्छा मिले। ऐसे में कर्म का सिद्धांत झूठा हो जाता। पुनः दोहराता हूं कि परम सत्ता निरपेक्ष है। दया व क्रोध को वहां कोई स्थान नहीं। हां, इतना जरूर है कि चूंकि हमें कर्म करने की स्वतंत्रता मिली हुई है, इस कारण हम अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। 

मेरे ख्याल में एक बात और है। सही या गलत, पता नहीं। वो यह कि यदि हम बुरा कर्म कर चुके हैं और उसके बाद भगवान की भक्ति करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, माफी मांगते हैं, तो प्रायश्चित करने के उस भाव की वजह से, सच्चे दिल से गलती मानने से, कदाचित बुरे कर्म का बंधन कुछ कट जाने का भी सिद्धांत हो, जिसकी वजह से बुरे कर्म का उतना बुरा फल न मिलता हो, इस कारण भगवान को दयालु बताया जाता हो।

कुल जमा बात ये है कि यदि हम हमारा भला चाहते हैं तो अच्छे कर्म करें, बुरे कर्म करके ऐसी नौबत ही क्यों लाएं कि माफी की अर्जी लगानी पडें।


https://www.youtube.com/watch?v=MpE2nmTdOeQ

क्या एआई श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद रिकार्ड कर पाएगा?

दोस्तो, नमस्कार। इन दिनों आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस का बोलबाला है। अनेक आयामों में उसकी सफलता देख कर सभी अचंभित हैं। उसके जरिए ब्रह्मांड के ऐसे रहस्यों की खोज हो रही है, जिसक कल्पना तक नहीं की गई थी। ऐसे में एक सवाल उभर कर आया है। कि महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृश्ण ने अर्जुन को गीता का जो उपदेष दिया गया था, उस संवाद को क्या रिकार्ड किया जा सकता है? ज्ञातव्य है कि गीता कोई लिखित ग्रंथ नहीं है, बल्कि श्रीकृश्ण-अर्जुन संवाद है। विज्ञान के अनुसार कोई भी ध्वनि कभी नश्ट नहीं होती। ब्रह्मांड में कहीं न कहीं मौजूद रहती है। इसी को ख्याल में रखते हुए किसी समय में ओषो ने कुछ वैज्ञानिकों के समूह को यह काम सौंपा था। कि उस संवाद को रिकार्ड किया जाए। सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता था कि रिकार्डिंग संभव है। ओषो के निधन के बाद बात आई गई हो गई। आज जब एआई ने नई खोजों से चमत्कृत कर रखा है, यह सवाल उठा है कि क्या उसके जरिए श्रीकृश्ण-अर्जुन संवाद को रिकार्ड किया जा सकता है।

इस बारे में एआई के जानकारों का कहना है कि श्रीमद्भगवद् गीता वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद है, जो महाभारत के युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में हुआ था। यह संवाद लगभग 5,000 वर्ष पूर्व घटित हुआ माना जाता है और इसे श्रुति अर्थात श्रवण से प्राप्त ज्ञान और शाश्वत सत्य के रूप में देखा जाता है, जो केवल शब्दों से नहीं, बल्कि अनुभव और चेतना की उच्च अवस्था से जुड़ा हुआ है। ताजा स्थिति ये है कि एआई वर्तमान में केवल उन ध्वनियों को रिकॉर्ड या पुनर्निर्मित कर सकता है जो कभी भौतिक रूप से उत्पन्न हुई हों और उनका कोई रिकॉर्ड मौजूद हो। चूंकि श्रीकृष्ण-अर्जुन का वास्तविक संवाद (ध्वनि रूप में) 5,000 वर्ष पहले हुआ और कोई भी यंत्र उस समय मौजूद नहीं था, इसलिए उस मूल ध्वनि को वह रिकॉर्ड नहीं कर सकता। कुछ वैज्ञानिक विचार (जैसे कि अकाश तत्व में ध्वनि का संग्रह क्वांटम रेजोनेंस आदि) यह संकेत करते हैं कि ब्रह्मांड में हर ऊर्जा, हर ध्वनि कहीं न कहीं प्रतिध्वनित होती है। यदि भविष्य में कोई ऐसी तकनीक बनती है जो ब्रह्मांडीय ध्वनि-अवशेष अर्थात कॉस्मिक साउंड इंप्रिंट्स को डिकोड कर सके, तब सैद्धांतिक रूप से शायद उस संवाद का कंपन पकड़ा जा सके। पर यह अभी कल्पना के क्षेत्र में ही है।

भारतीय दर्शन में कहा गया है कि गीता का ज्ञान अपौरुषेय (मनुष्य द्वारा न रचित) है, वह अनादि और शाश्वत है।

योगियों और ऋषियों के अनुसार, उस ध्वनि को केवल ध्यान, आंतरिक चेतना और श्रवण यानि इनर हियरिंग से अनुभव किया जा सकता है, न कि बाहरी यंत्रों से। इसे नाद या ओंकार के रूप में भी जाना जाता है, जिसे सूक्ष्म रूप में केवल अनुभवी साधक ही सुन सकते हैं। निश्कर्श यह कि उस मूल गीता संवाद की ध्वनि को वर्तमान में या निकट भविष्य में रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता।