हर बार किसी न किसी कारण से पारित होने से रुका लोकपाल विधेयक इस बार देशभर में कथित रूप से उठे बड़े जनआंदोलन के बावजूद राजनीति की भेंट चढ़ गया। राजनीतिज्ञों ने तो राजनीति की ही, एक पवित्र उद्देश्य के लिए आवाज उठाने के बाद राजनीति के दलदल में फंसी टीम अन्ना भी पटरी से उतर गई। असल में लोकपाल के लिए दबाव बनाने की जिम्मेदारी का निर्वाह कर पाने में जब प्रमुख विपक्षी दल भाजपा विफल हुआ तो इसकी जिम्मेदारी टीम अन्ना ने ली और आमजन में भी आशा की किरण जागी, मगर वह भी अपने आंदोलन को निष्पक्ष नहीं रख पाई और सरकार पर दबाव बनाने की निष्पक्ष पहल के नाम पर सीधे कांग्रेस पर ही हमला बोलने लगी। पर्दे के पीछे से संघ और भाजपा से सहयोग लेने के कारण पूरा आंदोलन राजनीतिक हो गया। ऐसे में जाहिर तौर पर कांग्रेस सहित सभी दलों ने खुल कर राजनीति की और लोकपाल विधेयक लोकसभा में पारित होने के बाद राज्यसभा में अटक गया।
भले ही गांधीवादी विचारधारा के कहे जाने वाले अन्ना को देश का दूसरा गांधी कहने पर विवाद हो, मगर यह सच है कि पहली बार पूरा देश व्यवस्था परिवर्तन के साथ खड़ा दिखाई दिया। दुनिया के अन्य देशों में हुई क्रांति से तुलना करते हुए लोगों को लग रहा था कि हम भी सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं। मीडिया की ओर से मसीहा बनाए गए अन्ना में लोगों ने अपूर्व विश्वास जताया, मगर उनकी टीम को लेकर उठे विवादों से आंदोलन की दिशा बदलने लगी। जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस पर सीधे हमलों की वजह से प्रतिक्रिया में विवाद खड़े किए जाने लगे, मगर टीम अन्ना के लोग उससे विचलित हो गए और उन्होंने सीधे कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए। देश हित की खातिर चल रहा आंदोलन कांग्रेस बनाम टीम अन्ना हो गया। इसके लिए जाहिर तौर पर दोनों ही जिम्मेदार थे। रहा सवाल भाजपा व अन्य दलों का, तो उन्हें मजा आ गया। वे इस बात खुश थे कि कांगे्रस की हालत पतली हो रही है और इसका फायदा उन्हें आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मिलेगा। आंदोलन के राजनीतिक होने के साथ ही उनकी दिलचस्पी इसमें नहीं थी कि एक सशक्त लोकपाल कायम हो जाए, बल्कि वे इसमें ज्यादा रुचि लेने लगे कि कैसे कांग्रेस को और घेरा जाए। रही सही कसर टीम अन्ना ने हिसार के उप चुनाव में खुल कर कांग्रेस का विरोध करके पूरी कर दी। वे मौखिक तौर पर तो यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर धरातल पर कांग्रेस से सीधे टकराव मोल लेने लगे। यहां तक कि अन्ना ने आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हराने का ऐलान कर दिया। खुद को राजनीति से सर्वथा दूर बताने वाली टीम अन्ना ने, जो कि पहले राजनेताओं से दूरी कायम रख रही थी, बाद में अपने मंच पर ही राजनीतिक दलों को बहस करने का न्यौता दे दिया। स्वाभाविक रूप से उनके मंच पर कांग्रेस नहीं गई, लेकिन अन्य दलों ने जा कर टीम अन्ना के लिए अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर किया। यद्यपि इससे अन्ना का आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक हो गया, मगर इससे यह उम्मीद जगी कि अब सत्तारूढ़ दल और दबाव में आएगा और इस बार लोकपाल विधेयक पारित हो जाएगा। मगर अफसोस कि जैसे ही विधेयक संसद में चर्चा को पहुंचा, कांग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबन्धन यूपीए और भाजपा के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी गठबन्धन एनडीए सहित सभी छोटे-बड़े विपक्षी दलों ने खुल कर राजनीति शुरू कर दी। लोकसभा में तो कांग्रेस ने अपने संख्या बल से उसे पारित करवा लिया, मगर राज्यसभा में कमजोर होने के कारण मात खा गई। कई स्वतंत्र विश्लेषकों सहित भाजपा व अन्य दलों ने कांग्रेस के फ्लोर मैनेजमेंट में असफल रहने की दुहाई दी। सवाल उठता है कि जब संख्या बल कम था तो विधेयक के पारित न हो पाने के लिए सीधे तौर पर कांग्रेस कैसे जिम्मेदार हो गई। लोकसभा में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का संशोधन भी विपक्ष के असहयोग के कारण गिरा तो राज्यसभा में भी इसी वजह से विधेयक लटक गया। निष्कर्ष यही निकला कि यह कांग्रेस का नाटक था, मगर यह नाटक करने का मौका विपक्ष ने ही दिया। विपक्ष की ओर से इतने अधिक संशोधन प्रस्ताव रख दिए गए कि नियत समय में उन पर चर्चा होना ही असंभव था। यहां तक कि कांग्रेस का सहयोगी संगठन तृणमूल कांग्रेस भी पसर गया। मजेदार बात ये रही कि इसे भी कांग्रेस की ही असफलता करार दिया गया। कुल मिला कर इसे कांग्रेस का कुचक्र करार दे दिया गया है, जब कि सच्चाई ये है कि हमाम में सभी नंगे हैं। कांग्रेस ज्यादा है तो विपक्ष भी कम नहीं है। अन्ना के मंच पर ऊंची-ऊंची बातें करने वाले संसद में आ कर पलट गए। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि जो लोग भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाते रहे हैं, वे संसद में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये घडिय़ाली आंसू बहाते नजर आये, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। संसद में सभी दल अपने-अपने राग अलापते रहे, लेकिन किसी ने भी सच्चे मन से इस कानून को पारित कराने का प्रयास नहीं किया। सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल पारित करवाने का दावा करने वाले यूपीए एवं एनडीए की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा की पोल खुल गयी। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन एक ओर तो अन्ना को उकसाते और सहयोग देते नजर आये, वहीं दूसरी ओर गांधीजी द्वारा इस देश पर थोपे गये आरक्षण को येन-केन समाप्त करने के कुचक्र भी चलते नजर आये।
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने अन्दरूनी तौर पर यह तय कर लिया था कि लोकपाल को किसी भी कीमत पर पारित नहीं होने देना है और देश के लोगों के समक्ष यह सिद्ध करना है कि दोनों ही दल एक सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं, वहीं दूसरी और सपा-बसपा जैसे दलों ने भी विधेयक पारित नहीं होने देने के लिये संसद में फालतू हंगामा किया। अलबत्ता वामपंथी जरूर कुछ गंभीर नजर आए, मगर वे इतने कमजोर हैं, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान नजर आई। कुल मिला कर देश में पहली बार जितनी तेजी से लोकपाल की मांग उठी, वह भी फिलहाल फिस्स हो गई, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि इस मांग की झंडाबरदार टीम अन्ना की साख भी कुछ कम हो गई और दिल्ली व मुंबई में आयोजित अनशन विफल हो गए व जेल भरो आंदोलन भी स्थगित हो गया। अब देखना ये है कि टीम अन्ना फिर से माहौल खड़ा कर पाती है या नहीं और यह भी कि कांग्रेस का अगले सत्र में परित करवाने का दावा कितना सही निकलता है।
-tejwanig@gmail.com
भले ही गांधीवादी विचारधारा के कहे जाने वाले अन्ना को देश का दूसरा गांधी कहने पर विवाद हो, मगर यह सच है कि पहली बार पूरा देश व्यवस्था परिवर्तन के साथ खड़ा दिखाई दिया। दुनिया के अन्य देशों में हुई क्रांति से तुलना करते हुए लोगों को लग रहा था कि हम भी सुधार की दिशा में बढ़ रहे हैं। मीडिया की ओर से मसीहा बनाए गए अन्ना में लोगों ने अपूर्व विश्वास जताया, मगर उनकी टीम को लेकर उठे विवादों से आंदोलन की दिशा बदलने लगी। जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस पर सीधे हमलों की वजह से प्रतिक्रिया में विवाद खड़े किए जाने लगे, मगर टीम अन्ना के लोग उससे विचलित हो गए और उन्होंने सीधे कांग्रेस पर हमले तेज कर दिए। देश हित की खातिर चल रहा आंदोलन कांग्रेस बनाम टीम अन्ना हो गया। इसके लिए जाहिर तौर पर दोनों ही जिम्मेदार थे। रहा सवाल भाजपा व अन्य दलों का, तो उन्हें मजा आ गया। वे इस बात खुश थे कि कांगे्रस की हालत पतली हो रही है और इसका फायदा उन्हें आगामी विधानसभा और लोकसभा चुनावों में मिलेगा। आंदोलन के राजनीतिक होने के साथ ही उनकी दिलचस्पी इसमें नहीं थी कि एक सशक्त लोकपाल कायम हो जाए, बल्कि वे इसमें ज्यादा रुचि लेने लगे कि कैसे कांग्रेस को और घेरा जाए। रही सही कसर टीम अन्ना ने हिसार के उप चुनाव में खुल कर कांग्रेस का विरोध करके पूरी कर दी। वे मौखिक तौर पर तो यही कहते रहे कि उनकी किसी दल विशेष से कोई दुश्मनी नहीं है, मगर धरातल पर कांग्रेस से सीधे टकराव मोल लेने लगे। यहां तक कि अन्ना ने आगामी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हराने का ऐलान कर दिया। खुद को राजनीति से सर्वथा दूर बताने वाली टीम अन्ना ने, जो कि पहले राजनेताओं से दूरी कायम रख रही थी, बाद में अपने मंच पर ही राजनीतिक दलों को बहस करने का न्यौता दे दिया। स्वाभाविक रूप से उनके मंच पर कांग्रेस नहीं गई, लेकिन अन्य दलों ने जा कर टीम अन्ना के लिए अपनी प्रतिबद्धता को जाहिर किया। यद्यपि इससे अन्ना का आंदोलन पूरी तरह से राजनीतिक हो गया, मगर इससे यह उम्मीद जगी कि अब सत्तारूढ़ दल और दबाव में आएगा और इस बार लोकपाल विधेयक पारित हो जाएगा। मगर अफसोस कि जैसे ही विधेयक संसद में चर्चा को पहुंचा, कांग्रेस के नेतृत्व वाले सत्ताधारी गठबन्धन यूपीए और भाजपा के नेतृत्व वाले मुख्य विपक्षी गठबन्धन एनडीए सहित सभी छोटे-बड़े विपक्षी दलों ने खुल कर राजनीति शुरू कर दी। लोकसभा में तो कांग्रेस ने अपने संख्या बल से उसे पारित करवा लिया, मगर राज्यसभा में कमजोर होने के कारण मात खा गई। कई स्वतंत्र विश्लेषकों सहित भाजपा व अन्य दलों ने कांग्रेस के फ्लोर मैनेजमेंट में असफल रहने की दुहाई दी। सवाल उठता है कि जब संख्या बल कम था तो विधेयक के पारित न हो पाने के लिए सीधे तौर पर कांग्रेस कैसे जिम्मेदार हो गई। लोकसभा में लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने का संशोधन भी विपक्ष के असहयोग के कारण गिरा तो राज्यसभा में भी इसी वजह से विधेयक लटक गया। निष्कर्ष यही निकला कि यह कांग्रेस का नाटक था, मगर यह नाटक करने का मौका विपक्ष ने ही दिया। विपक्ष की ओर से इतने अधिक संशोधन प्रस्ताव रख दिए गए कि नियत समय में उन पर चर्चा होना ही असंभव था। यहां तक कि कांग्रेस का सहयोगी संगठन तृणमूल कांग्रेस भी पसर गया। मजेदार बात ये रही कि इसे भी कांग्रेस की ही असफलता करार दिया गया। कुल मिला कर इसे कांग्रेस का कुचक्र करार दे दिया गया है, जब कि सच्चाई ये है कि हमाम में सभी नंगे हैं। कांग्रेस ज्यादा है तो विपक्ष भी कम नहीं है। अन्ना के मंच पर ऊंची-ऊंची बातें करने वाले संसद में आ कर पलट गए। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि जो लोग भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगाते रहे हैं, वे संसद में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये घडिय़ाली आंसू बहाते नजर आये, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। संसद में सभी दल अपने-अपने राग अलापते रहे, लेकिन किसी ने भी सच्चे मन से इस कानून को पारित कराने का प्रयास नहीं किया। सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल पारित करवाने का दावा करने वाले यूपीए एवं एनडीए की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा की पोल खुल गयी। भाजपा और उसके सहयोगी संगठन एक ओर तो अन्ना को उकसाते और सहयोग देते नजर आये, वहीं दूसरी ओर गांधीजी द्वारा इस देश पर थोपे गये आरक्षण को येन-केन समाप्त करने के कुचक्र भी चलते नजर आये।
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने अन्दरूनी तौर पर यह तय कर लिया था कि लोकपाल को किसी भी कीमत पर पारित नहीं होने देना है और देश के लोगों के समक्ष यह सिद्ध करना है कि दोनों ही दल एक सशक्त और स्वतन्त्र लोकपाल कानून बनाना चाहते हैं, वहीं दूसरी और सपा-बसपा जैसे दलों ने भी विधेयक पारित नहीं होने देने के लिये संसद में फालतू हंगामा किया। अलबत्ता वामपंथी जरूर कुछ गंभीर नजर आए, मगर वे इतने कमजोर हैं, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान नजर आई। कुल मिला कर देश में पहली बार जितनी तेजी से लोकपाल की मांग उठी, वह भी फिलहाल फिस्स हो गई, यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि इस मांग की झंडाबरदार टीम अन्ना की साख भी कुछ कम हो गई और दिल्ली व मुंबई में आयोजित अनशन विफल हो गए व जेल भरो आंदोलन भी स्थगित हो गया। अब देखना ये है कि टीम अन्ना फिर से माहौल खड़ा कर पाती है या नहीं और यह भी कि कांग्रेस का अगले सत्र में परित करवाने का दावा कितना सही निकलता है।
-tejwanig@gmail.com
Lokpal shayad hi kabhi pas ho payega ......bhrsat logon se bhrstata ke unmoolan ki ummeed karana khud ko dhokha dena hai .
जवाब देंहटाएं