तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, दिसंबर 21, 2025

नेत्रहीन अमूमन अच्छे गायक क्यों होते हैं?

आपने देखा होगा कि नेत्रहीन की कोई न कोई इन्द्री अधिक सक्रिय होती है। खासकर कंठ यानि स्वर इंन्द्री। नेत्रविहीन अमूमन बहुत सुमधुर गायक होते हैं। इसके अनेक उदाहरण मौजूद हैं। यह सार्वभौमिक नियम तो नहीं है, लेकिन कई नेत्रहीन लोग आवाज की बारीकियों को गहराई से सुन पाते हैं। उनका सारा ध्यान स्वर-इंद्री पर केन्द्रित हो जाता है। इसलिए वे अपने स्वर, सुर और ताल को बेहतर साध लेते हैं। संगीत का अभ्यास भी कई नेत्रहीन व्यक्तियों के लिए एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति बन जाता है। इसलिए मधुर कंठ उनकी “अतिरिक्त इन्द्रिय” नहीं, बल्कि बेहतर श्रवण-ध्यान और लगातार अभ्यास का परिणाम है। 

वस्तुतः जब दृष्टि नहीं रहती, तो मस्तिष्क अपने उस हिस्से को उपयोग में लाता है जो पहले देखने में लगता था, और उसे सुनने, छूने, दिशा-ज्ञान या स्मृति जैसी गतिविधियों में लगा देता है। इसे न्यूरोप्लास्टिसिटी कहते हैं। उनकी श्रवण शक्ति अधिक प्रशिक्षित हो जाती है और वे सूक्ष्म ध्वनियों, स्वर के उतार-चढ़ाव को बेहतर पकड़ते हैं। स्पर्श व दिशा-ज्ञान (जैसे छड़ी से कंपन समझना, कमरे की ध्वनि-गूंज से दूरी आंकना) अधिक पैना होता है। स्मृति और ध्यान सामान्य लोगों की तुलना में बेहतर विकसित हो सकते हैं। वे किसी भी वस्तु को छू कर बता देते हैं, वह क्या है? यानि उनकी अंगुलियों की त्वचा बहुत संवेदना से भर जाती है। इसी संवेदना का उपयोग पढाई के लिए ब्रेल लिपी में उपयोग किया जाता है। ब्रेल लिपी दृष्टिबाधित (नेत्रहीन) व्यक्तियों के लिए विकसित एक स्पर्श आधारित लेखन प्रणाली है। इसे उंगलियों से छूकर पढ़ा जाता है। इसका आविष्कार लुई ब्रेल (स्वनपे ठतंपससम) ने 1824 में किया था।

मान्यता है कि उनकी छठी इन्द्री भी अधिक सक्रिय होती है। बहुत-से लोग नेत्रहीनों के बारे में यह अनुभव करते हैं कि वे किसी व्यक्ति की उपस्थिति, उसके भाव या कमरे का माहौल बहुत जल्दी भाँप लेते हैं। वास्तव में यह “छठी इन्द्रिय” नहीं, बल्कि सुपर-संवेदी अवलोकन है। यानी वे ध्वनि, चाल, सांसों की लय, हवा के दबाव, हल्के कंपन, गंध जैसे सूक्ष्म संकेतों पर अधिक ध्यान देते हैं, जिन्हें सामान्य व्यक्ति नजर पर निर्भर रहने के कारण अनदेखा कर देता है।


शुक्रवार, दिसंबर 12, 2025

घड़ी को कभी नहीं रुकने दीजिए

दोस्तो, नमस्कार। दीवाल घड़ी व हाथ घड़ी की सुई का रुक जाना वास्तु-शास्त्र, ज्योतिष और लोक-मान्यताओं में एक विशेष संकेत माना गया है। यह पूरी तरह आस्था पर आधारित विषय है, पर लोगों के अनुभवों में इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी जुड़ा होता है। वास्तु के अनुसार घड़ी समय, ऊर्जा के प्रवाह और जीवन की गति का प्रतीक मानी जाती है। इसलिए कहा जाता है कि घड़ी का रुकना ऊर्जा रुकने का संकेत है। घड़ी के रुकने को घर में गतिशीलता, प्रगति या सकारात्मक ऊर्जा प्रभावित होने का संकेत माना जाता है। वास्तु में कहा गया है कि “ठहरा हुआ समय” घर में नहीं रखना चाहिए। कई वास्तु विशेषज्ञ कहते हैं कि रुकी हुई घड़ी नकारात्मक कंपन पैदा करती है, जिससे घर का माहौल भारी लगने लगता है। ऐसी भी मान्यता है कि ईशान-उत्तर दिशा में लगी घड़ी का रुकना अधिक अशुभ है, क्योंकि ये दिशाएं सकारात्मक ऊर्जा, धन और अवसरों का प्रतीक मानी जाती हैं।

यहां घड़ी रुक जाए तो संकेत माना जाता है कि कार्यों में देरी, अवसर चूकने या आर्थिक बाधा आ सकती है। लोक मान्यताओं में घड़ी का रुक जाना अक्सर यह संकेत माना गया जाता है कि घर में कोई परिवर्तन या घटना होने वाली है। जैसे कोई महत्वपूर्ण समाचार, यात्रा, निर्णय आदि।

कुछ लोग मानते हैं कि जब घर के किसी सदस्य के जीवन में अचानक तनाव, उलझन या असंतुलन बढ़ता है तो “घड़ी रुकना” उसका प्रतीक माना जाता है। रुकी घड़ी को विवाह, गृह-प्रवेश या नए काम की शुरुआत में प्रतिकूल माना गया है। इसके अतिरिक्त बंद हो चुकी खराब घडी को घर में नहीं रखने की सलाह दी जाती है।

वास्तव में घड़ी के रुकने की वजह साधारण होती है बैटरी का खत्म होना,

मगर जब किसी व्यक्ति का मन पहले से परेशान हो, तो घड़ी का रुकना उसे अशुभ संकेत लगेगा। अतः रुकी हुई घड़ी तुरंत चलवा दें या हटा दें

वास्तुविद बताते हैं कि घड़ी हमेशा पूर्व-उत्तर दिशा में सबसे उपयुक्त है।

टिक-टिक साफ सुनाई दे, तो यह प्रगति का सूचक माना जाता है। घडी का एक उपयोग यह भी है कि यदि मकान में सीढी एंटी क्लॉक वाइज हो तो उसका वास्तु दोश दूर करने के लिए सीढी के मोड पर घडी लगाई जाती है।


सोमवार, दिसंबर 08, 2025

मुस्लिम तीन बार गले क्यों मिलते हैं?

आम तौर पर आपने देखा होगा कि ईद या अन्य मौकों पर मुस्लिम एक दूसरे को षुभकामना देते हैं, तो तीन बार गले मिलते हैं। यह रवायत क्यों है? क्या एक बार ही गले मिलना पर्याप्त नहीं है? 

जानकार लोग बताते हैं कि असल में मुसलमानों के तीन बार गले मिलने की परंपरा इस्लामी शिक्षाओं में सीधे अनिवार्य नहीं है, लेकिन यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक परंपरा बन गई है, विशेषकर ईद जैसे त्योहारों पर। इसके पीछे कुछ मानवीय, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक कारण होते हैं। पहली बार गले मिलना एक-दूसरे से मिलने की खुशी व्यक्त करना। दूसरी बार दिलों में आपसी रंजिश मिटाना। तीसरी बार आपसी संबंध को मजबूत करना और दुआ देना। यह मानवीय भावनाओं को दर्शाता है कि हम सिर्फ औपचारिकता नहीं, बल्कि दिल से एक-दूसरे से जुड़े हैं। हालाँकि तीन बार गले मिलना कुरान या हदीस में अनिवार्य नहीं बताया गया, लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप और कुछ अन्य जगहों पर यह रिवाज के तौर पर विकसित हो गया है। यह व्यक्ति को यह अनुभव कराता है कि सामने वाला उसे सचमुच अहमियत दे रहा है। कुल जमा यह इस्लाम का धार्मिक आदेश नहीं है, बल्कि एक सामाजिक रिवाज है, जो खासकर भारतीय, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी मुसलमानों में ज्यादा प्रचलित है। दुनिया के कई मुस्लिम देशों में लोग एक ही बार गले मिलते हैं या सिर्फ सलाम करके मुबारकबाद दे देते हैं।

चर्चा के दौरान अंजुमन दरगाह तारागढ के सचिव सैयद रब नवाज ने जानकारी दी कि कोई नियम नहीं है, मगर षीया समुदाय में परंपरागत रूप से दो बार गले मिलने की परंपरा है।