तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, मई 17, 2025

बुजुर्ग भाइयों के चेहरे मिलते जुलते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। पुरानी पीढी के लोगों को देखेंगे तो भाई भाई की षक्ल लगभग एक जैसी नजर आएगी। काफी समानता दिखाई देगी। जब कि आज ऐसा नहीं है। भाई भाई की षक्ल कम ही मिलती है। मिलती है तो थोडी बहुत। मेरे मित्र लक्ष्मण सतवानी उर्फ कालू भाई ने मुझे यह जानकारी दी। उनका कहना है कि पुराने समय में गर्भवती महिलाएं अमूमन घर में ही रहती थीं। बाहर कम ही निकलती थीं। सारे दिन उसके सामने घर के ही सदस्य होते थे। बाहर नहीं निकलने के कारण अन्य चेहरे उसके सामने आते ही नहीं थे। इस कारण संतान में बुजुर्गों का अक्स आता था। आजकल गर्भवती महिलाएं बाहर जाती हैं। नौकरी के लिए या किसी काम से। वह अन्य पुरूशों के चेहरे भी देखती है। इसका उसके मन मस्तिश्क पर असर पडता है। और उसका प्रभाव गर्भस्थ षिषु पर भी पडता है। कदाचित यह सही हो, मगर इस धारणा का वैज्ञानिक पहलु यह है कि भाई-भाई के चेहरों में समानता का मुख्य कारण जीन होते हैं। संतान अपने माता-पिता से जीन प्राप्त करती है। जब माता-पिता एक ही जातीय, सामाजिक या क्षेत्रीय पृष्ठभूमि से होते हैं (जैसा कि पहले अधिकतर होता था), तब उनकी संतानों में जीन का मेल अधिक होता है, जिससे भाई-भाई में अधिक समानता नजर आती है।

आजकल, अंतर्जातीय विवाह, अंतर-क्षेत्रीय विवाह अधिक होते जा रहे हैं, जिससे जीन का मिश्रण विविध हो गया है। इसका परिणाम यह है कि बच्चों में विविधता अधिक दिखने लगी है। निश्कर्श यह है कि यह धारणा कि गर्भवती महिला के द्वारा देखे गए चेहरों का प्रभाव भ्रूण के चेहरे पर पड़ता है, वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं है। पुराने समय में भाई-भाई में समानता अधिक इसलिए दिखती थी क्योंकि जीन पूल सीमित था और विवाह की विविधता कम थी।

आज की विविधता, मिश्रित समाज और व्यापक सामाजिक संपर्क ने अनुवांशिक विविधता बढ़ा दी है, जिससे चेहरे अलग-अलग नजर आते हैं। यह तय करने में कि बच्चा किसकी तरह दिखेगा, केवल और केवल जीन ही भूमिका निभाते हैं, न कि गर्भवती महिला ने किसे देखा या किनके साथ समय बिताया।

इस पर सवाल उठता है कि तो अमूमन लोग गर्भवति के कमरे में क्यों खुबसूरत बच्चे की फोटो लगाते हैं, इसलिए न कि गर्भस्थ शिशु भी सुंदर हो। इस बारे में वैज्ञानिक दृश्टिकोण यह है कि गर्भ के दौरान अच्छे पोषण, मानसिक शांति, और तनाव-मुक्त वातावरण से बच्चे के संपूर्ण विकास पर जरूर असर पड़ता है, लेकिन इससे चेहरे की सुंदरता नहीं बदलती। सकारात्मक माहौल से हॉर्मोन बैलेंस बना रहता है, जिससे शिशु का मानसिक और शारीरिक विकास बेहतर हो सकता है।


https://youtu.be/ShORoNDJLto


बुधवार, मई 14, 2025

केवल गहरी चिंता भी प्रार्थना बन जाती है?

जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है।

मेरे एक अति प्रिय मित्र श्री ऋशिराज षर्मा, जो कि वरिश्ठ पत्रकार हैं, ने अपने किसी दोस्त के हवाले से बताया कि जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है। प्रत्यक्षतः यह बात गले नहीं उतरती। यदि हम सहायता की प्रार्थना नहीं करेंगे तो भला कोई देवी-देवता, भगवान अथवा खुदा क्यों द्रवित हो कर कृपा करेगा। केवल चिंता में डूबने से क्या हो जाएगा?

इस विशय पर मैने इसलिए गहन चिंतन-मनन किया कि कोई अगर ऐसी बात कर रहा है, तो जरूर उसका कोई तो आधार होगा। हो सकता है कि उसका यह निजी अनुभव भी हो।

ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हम गहरी पीडा में होते हैं तो प्रकृति स्वयं आगे हो कर उसे दूर करने में जुट जाती है। इसका एक उदाहरण मेरे ख्याल में है। एक प्रवचन में ओषो ने जिक्र किया है कि ऐसे कई कीट-पतंग, जीव-जंतु हैं, जो दुर्घटनाग्रस्त होते हैं, जिन्हें कि मानव मदद नहीं मिलती, तो वे क्षतिग्रस्त भाग पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं, एकाग्र हो जाते हैं और प्रकृति उसे दुरूस्त करने लगती है।

यह बात उपर उल्लेखित बात से तनिक मेल खाती प्रतीत होती है। गहरी पीडा के वक्त भी आदमी एकाग्र हो जाता है, भले ही वह किसी देवता का स्मरण न कर रहा हो, मगर दुख से निवृत्ति का भाव तो होता ही है, ऐसे में कदाचित प्रकृति विकृत स्थिति को दुरूस्त करने लगती हो। इस तथ्य को हम लॉ ऑफ अटेक्षन से भी जोड कर देख सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि जब भी हम कोई मजबूत संकल्प लेते हैं तो प्रकृति की सारी षक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती हैं।

यह प्रकरण इसलिए जिक्र नहीं किया जा रहा कि दुख के समय में भगवान से मदद की गुहार करने की जरूरत नहीं है, बल्कि उस कीमिया को समझने का प्रयास मात्र है, जो कि प्रकृति में इनबिल्ट है। 

प्रकृति अपनी ओर से कैसे काम करती है, इसके एक दो छोटे उदाहरण देखिए। जब भी हमें चोट लगती है, खून बहता है तो जल्द ठीक होने के लिए हम दवाई लेते हैं, लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति खुद थक्का बना कर खून को बहने से रोकती है। इसे तो चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है कि जब हड्डी टूटती है तो डाक्टर इतना भर करता है कि उसे ठीक से बैठा कर दर्द निवारक दवा दे देता है, मगर हड्डी को जाडने की स्वतः प्रक्रिया तो प्रकृति ही करती है। आपने देखा होगा कि कोई कुत्ता-बिल्ली आदि जानवर चोटिल हो जाते हैं तो अपनी जीभ से चोटग्रस्त स्थान को जीभ से चाटते हैं। विज्ञान कहता है कि जीभ की लार में घाव को ठीक करने के तत्व मौजूद रहते हैं। यह प्रकृति का ही तो कमाल है कि भोजन करते वक्त, पानी पीते वक्त उसका कुछ अंष अगर ष्वास नली में चला जाए तो प्रकृति उसे खांसी के जरिए बाहर निकालने लग जाती है। जब भी कोई विशाक्त पदार्थ षरीर के भीतर प्रवेष करता है तो प्रकृति उसे बाहर निकालने की कोषिष करती है, जिसे हम उल्टी करना कहते हैं।

कुल मिला कर इस निश्कर्श पर पहुंचा जा सकता है कि प्रकृति सदैव संतुलन करने में जुटी रहती है। जहां भी विकृति होती है तो उसे फिर से ठीक कर प्राकृतिक अवस्था में लाने में प्रवृत्त होती है। षायद यही सिद्धांत हमारे गहरे चिंतित होने पर भी लागू होता हो। और हम यह सोचते हैं कि अमुक देवी-देवता की प्रार्थना करने से दुख की निवृत्ति हुई है, जबकि असल में वह प्रकृति का कमाल हो।


https://www.youtube.com/watch?v=bMBH2cV8Wpw

शुक्रवार, मई 09, 2025

चौक में तवा उलटा रखने से बंद हो जाती है बारिश?

बारिश होने पर तो कई कहावतें हैं मगर एक कहावत ऐसी भी है जो बारिश को रोकने के टोटके के रूप में काम में ली जाती है। इस दिलचस्प टोटके के अनुसार अगर बारिश नहीं थम रही हो तो चौक में तवे को उलटा करके रख देने से बारिश धीमी पड़ जाती है या थम जाती है। जी हां, यह बहुत पुरानी मान्यता है। आइये कुछ और कहावतों के बारे में जानते हैंः-

मौसम विभाग तो सेटेलाइट के माध्यम से पता लगाता है कि कहां कितनी बारिश होने की संभावना है और वह ज्यादा बारिश होने की चेतावनी भी देता रहता है, मगर पुराने जमाने में जब विज्ञान उन्नत अवस्था में नहीं था, तब प्रकृति के अनेक संकेतों से बारिश का अनुमान लगाया करते थे। इन संकेतों ने मान्यताओं व कहावतों को जन्म दिया। 

बारिश होने पर तो कई कहावतें हैं मगर एक कहावत ऐसी भी है जो बारिश को रोकने के टोटके के रूप में काम में ली जाती है। इस दिलचस्प टोटके के अनुसार अगर बारिश नहीं थम रही हो तो चौक में तवे को उलटा करके रख देने से बारिश धीमी पड़ जाती है या थम जाती है। जी हां, यह बहुत पुरानी मान्यता है।

आइये कुछ और कहावतों के बारे में जानते हैं

मौसम व खेती के बारे में भड्डरी व घाघ कवि की कहावतें बहुत चलन में हैं।

एक कहावत है कि शुक्रवार की बादली शनिचर छाय। ऐसा बोल भडुरी बिन बरसे नहीं जाय। अर्थात शुक्रवार के दिन होने वाले बादल आकाश में शनिवार तक ठहर जाएं तो वर्षा अवश्य होगी।

नक्षत्र भी बारिश के बारे में संकेत दिया करते हैं। जैसे अगस्त्य नामक तारे का उदय हो तो मान लीजिए कि बारिश समाप्त होने वाली है। कहावत है- अगस्त ऊगा, मेह पूगा। इसी कड़ी में कहावत है कि जे मंडे तो धार न खंडे, अर्थात यदि बारिश फिर भी हो जाए तो मान कर चलिए कि बारिश जम कर होगी, थमेगी ही नहीं।

अकाल पडऩे के बारे में नक्षत्र संकेत देते हैं, वो यह कि अक्षय तृतीया पर रोहणी नक्षत्र न हो, रक्षाबंधन पर श्रवण नक्षत्र न हो और पौष की पूर्णिमा पर मूल नक्षत्र न हो तो अनावृष्टि की आशंका होती है। इसको लेकर कहावत है- अक्खा रोहण बायरी, राखी सरबन न होय। पो ही मूल न होय तो, म्ही डूलंती जोय।

इसी प्रकार - अषाढ़ सुदी हो नवमी, ना बादल ना वीज। हल फारो इंधन करो, बैठो चाबो बिज। अर्थात आषाढ़ शुक्ल पक्ष नवमी को आकाश में बादल-बिजली कुछ नहीं हो तो वर्षा बिलकुल नहीं होगी और सूखा पड़ेगा।

यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है। इसकी कहावत है- भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय। ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।

यदि गिरगिट पेड़ पर उल्टा होकर अर्थात पूंछ ऊपर की ओर करके चढ़े तो समझना चाहिए कि इतनी वर्षा होगी कि पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। इसकी कहावत है - उलटे गिरगिट ऊँचे चढै। बरखा होइ भूइं जल बुडै।।

एक कहावत तो बहुत प्रचलित है, वो यह कि चिडिय़ा धूल में लोटपोट हो कर नहाए तो माना जाता है कि बारिश आने वाली है।

एक कहावत है- अम्मर पीळो, मेह सीळो। इसका अर्थ है यदि आसमान में पीलिमा दिखाई दे तो समझो कि बारिश धीमी पडऩे वाली है। इसी से जुड़ी एक कहावत है- अम्मर रातो, मेह मातो, यानि कि अगर आसमान में लालिमा हो तो समझिये बारिश जोरदार पडऩे वाली है। इसी क्रम में कहते हैं- अम्मर हरियो, चूव टपरियो। अर्थात आसमान में हरीतिमा दिखाई दे तो वह सामान्य बारिश होने का संकेत है।

ऐसी मान्यता है कि यदि तीतर के पंख बादल जैसे रंग के हो जाएं तो पक्का जानिये कि बारिश होगी ही, जिसमें कोई संदेह नहीं है। इसकी कहावत हैरू- तीतर पंखी बादळी, विधवा काजळ रेख, बा बरसै बा घर करै, ई में मीन न मेख। इसी कहावत में यह भी बताया गया है कि यदि विधवा की आंख में काजल नजर आए तो इसका मतलब है कि वह फिर घर बसाएगी। 

यदि रात में विचरण करते वक्त ऊंटनी को आलस्य आए या वह ऊंघने लगे तो इसका मतलब है कि बारिश की उम्मीद है। एक कहावत है कि अत तरणावै तीतरी, लक्खारी कुरलेह। सारस डूंगर भमै, जदअत जोरे मेह। इसका अर्थ है कि तीतरी जोर से आवाज करे, लक्कारी कुरलाए, सारस ऊंचे स्थान का चयन करे तो तेज बारिश आ सकती है।

इसी प्रकार कहते हैं कि बारिश के मौसम में लोमड़ी ऊंचे स्थान पर खड्डा खोद कर अपना विश्राम स्थल बनाए और उछल-कूद करे तो समझिये अच्छी बारिश होगी। इसकी कहावत है- धुर बरसालै लूंकड़ी, ऊंची घुरी खिणन्त। भेळी होय ज खेल करै, तो जलधर अति बरसन्त।

ऊंटनी भी बारिश का संकेत जमीन पर पैर पटक कर, एक स्थान पर न टिक कर और बैठने से आनाकानी करके यह संकेत देती है कि बारिश जरूर आएगी। इसकी कहावत है- आगम सूझे सांढणी, दौड़े थळा अपार। पग पटकै बैसे नहीं, जद मेह आवणहार।

कुछ इसी प्रकार विक्रम संवत के महीने भी संकेत देते हैं। मावां पोवां धोधूंकार, फागण मास उड़ावै छार। चौत मॉस बीज ह्लकोवै, भर बैसाखां केसू धोवै। अर्थात माघ और पोष माह में कोहरा पड़े, फाल्गुन माह में धूल उड़े और चौत्र माह में बिजली न दिखाई दे तो बैशाख में वर्षा होगी।


https://www.youtube.com/watch?v=LDtf2kMVNTg

मंगलवार, मई 06, 2025

फल की इच्छा के बिना कर्म हो ही कैसे सकता है?

गीता का एक सूत्र है- कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन। इसका तात्पर्य है कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा मत करो। अर्थात वह ईश्वर पर छोड़ दो। चूंकि यह सूत्र कर्मयोग के महानतम ग्रंथ गीता का है, इस कारण इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। लकिन सवाल है कि फल की इच्छा के बिना कोई कर्म किया ही कैसे जा सकता है?

जरूर इसका कोई गहरा अर्थ होगा। शब्दों में यह संदेश जितना सीधा सादा है, इसका अर्थ उतना ही गहरा है। यूं भी यह सीधी से बात है कि हम केवल कर्म पर ही ध्यान दें। वही हमारे हाथ में है। उसका फल क्या होगा, इसका पता नहीं। हमारी इच्छा करने से कुछ होना भी नहीं है। फल तो प्रकृति को ही तय करना है। हालांकि वास्तव में ऐसा है नहीं। फल तो हमारे कर्म के अनुसार ही तय होता है, प्रकृति तो केवल उसका आकलन करती है। जैसे परीक्षा में जितने भी सवाल हमने सुलझाए हैं, उसी के तहत नंबर मिलते हैं, मगर चूंकि उसकी गणना परीक्षक करता है, इस कारण यह प्रतीत होता है कि फल वह निर्धारित कर रहा है।

हालांकि बहुत गहरे अर्थों में गीता का सूत्र पूर्णतरू सत्य है, मगर मोटे तौर पर इसमें बड़ा विरोधाभास नजर आता है। इसे यूं समझिये। हम जब भी कोई कर्म करते हैं, तो उससे पहले फल की इच्छा जागती है, तभी हम कर्म करते हैं। यदि किसी फल की कामना ही न तो हम कर्म ही क्यों करेंगे? जैसे यदि सामने परोसी हुई थाली में रखी वस्तु हमें खानी है तो मस्तिष्क हाथ को कर्म करने का आदेश देते हुए वह वस्तु पकड़ कर मुख में रखने को कहेगा। अर्थात खाने की इच्छा पहले जागृत हुई और हाथ ने कर्म बाद में किया। इसे अन्य उदाहरणों व तरीकों से भी समझा जा सकता है। यदि हमें परीक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होना है तो उसी के अनुरूप कर्म करना होगा, यानि कि हमारी दृष्टि में परिणाम या लक्ष्य पहले सामने रखना होता है, तभी उसके लिए अपेक्षित मेहनत करेंगे। लेकिन गीता का सूत्र इसके सर्वथा विपरीत है। वह कहता है कि फल ही इच्छा ही न कर, केवल कर्म कर। यह सूत्र समझ से परे प्रतीत होता है। ईश्वर ने हमें जो बुद्धि या समझ दी है, उसमें यह बैठता थोड़ा कठिन है।

जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, गीता का सूत्र गहरे मायने लिए हुए है। उसका संदर्भ अलग है। एक तो ये कि जैसे ही हम आसक्त भाव से कर्म करते हैं तो उसका बंधन हो जाता है। विद्वान तो यहां तक कहते हैं कि कर्म क्या, केवल विचार मात्र भी कर्म का बंधन कर देता है। किसी का हत्या करना तो दूर, हत्या का विचार भी दूषित कर्म का बंधन कर देता है। दूसरी बात ये कि जैसे ही हम फल की इच्छा करते हुए कर्म करते हैं तो भीतर अहम का भाव जागृत हो जाता है कि हमने कर्म किया, इस कारण फल मिला है। इस अहम के भाव से मुक्ति के लिए ही फल का निर्धारण प्रकृति पर छोड़ देना होता है। यही वजह है कि ज्ञानी जन किसी भी उपलब्धि का श्रेय प्रकृति को ही देते हैं, खुद को उससे अलग ही किए रखते हैं, ताकि अंहकार घनीभूत न हो।

इस सूत्र के एक मायने ये भी हैं कि जैसे ही फल की कामना लिए हुए हम कर्म करते हैं तो अपेक्षित फल न मिलने पर दुखी होते हैं। जो भी फल हो उसके लिए जैसे ही अपने आपको मन के स्तर पर तैयार कर लेते हैं, तो पीड़ा नहीं होती।

जरा और गहरे में जाएं। वह एक अलग ही तल है। चूंकि हम सांसारिक प्राणी हैं, इस कारण जीवन यापन के लिए कर्म करना जरूरी है, मगर वह हम कर्तव्य की तरह, ड्यूटी की तरह करें। उसके प्रति आसक्ति न रखें तो जीते जी हम मुक्ति की राह पर चल पड़ेंगे। यह अवस्था तब आएगी, जब हम अपने आपको थर्ड पर्सन की तरह देखना शुरू कर देंगे। ऐसे जैसे हम अपने आपको अपने से पृथक देखना शुरू कर दें। इसे इस तरह से समझें। मानो हमारा नाम राम है। तो जब भी हम कुछ करें तो यह जाने कि राम हमसे अलग है। राम रो रहा है, राम हंस रहा है, राम दौड़ रहा है, हम तो दृष्टा मात्र हैं। यह विधि जगत में रहते हुए जगत से अलग रहना सिखाती है। हालांकि यह है कठिन, मगर कदाचित गीता का सूत्र इसी दिशा में हमें ले जाना चाहता है।


https://www.youtube.com/watch?v=ussKnlMHnbw

रविवार, मई 04, 2025

चांदी व तांबे के बर्तन में रखे पानी पीने के क्या फायदे हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आपकी जानकारी में होगा कि कई लोग चांदी या तांबे में रखे पानी को पीते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे कुछ फायदे होते हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसा पानी में चांदी व तांबे के तत्व षामिल हो जाने की वजह से होता होगा, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसकी वजह से बर्तन का वजन कम होता है? हमें तो नजर नहीं आता
कि बर्तन के वजन में कमी आई है, यानि बर्तन के तत्व में कमी नहीं आती तो षंका होना स्वाभाविक है कि कहीं यह केवल मिथ मात्र तो नहीं है?

चलिए, पहले यह जानते हैं कि चांदी व तांबे के बर्तन में रखे पानी से क्या क्या फायदे बताए गए हैं। बताया जाता है कि चांदी व तांबे के बर्तन में रखे पानी में चांदी यानि एजी और तांबे यानि कॉपर के आयन पानी में घुल जाते हैं। बर्तन में पानी डाल कर तुरंत पीने से ही उसमें आयन नहीं आते। लंबे समय तक पानी रखा जाए यानि 6 से 8 घंटे या उससे अधिक, तो उसमें थोड़ी मात्रा में कॉपर आयन घुलते हैं। यह प्रक्रिया ऑक्सीडेशन और जल में मौजूद खनिजों के कारण होती है। इसी प्रकार चांदी के आयन बहुत धीमी गति से घुलते हैं। लेकिन इनकी मात्रा तांबे की तुलना में कम होती है। चांदी व तांबे के आयन एंटी बैक्टीरियल गुणों वाले होते हैं।

तांबा रोगाणुओं खासकर ईकोली और सल्मोनेला को नष्ट कर सकता है। तांबा पाचन तंत्र को उत्तेजित करता है और गैस, अपच जैसी समस्याओं में राहत देता है। इससे त्वचा को स्वस्थ रखने में मदद मिलती है। इसके अतिरिक्त न्यूरो ट्रांसमीटर के निर्माण में मदद करता है, जिससे मस्तिष्क का कार्य बेहतर होता है। डब्ल्यू एच ओ के अनुसार दिन में कम से कम 2 मिली ग्राम तांबा सुरक्षित माना जाता है। यदि बहुत अधिक मात्रा में लिया जाए तो यह कॉपर टॉक्सिसिटी का कारण बन सकता है, जिससे उल्टी, पेट दर्द, लीवर पर असर आदि हो सकते हैं।

इसी प्रकार चांदी के आयन आम तौर पर नॉन-टॉक्सिक माने जाते हैं। सिल्वर आयन कई रोगजनकों को निष्क्रिय करने में सक्षम होते हैं।

आयुर्वेद में ‘सिल्वर वॉटर’ या चांदी के बर्तन का उपयोग मानसिक शांति और प्रतिरक्षा शक्ति बढ़ाने के लिए किया जाता था। यदि लंबे समय तक अधिक मात्रा में सिल्वर का सेवन किया जाए तो इससे आर्गेरिया नामक स्थिति हो सकती है, जिसमें त्वचा नीली-रंगी हो जाती है, हालांकि बर्तन से इतना अधिक सिल्वर लेना संभव नहीं होता।

बताया जाता है कि रोजाना 6 से 8 घंटे तक पानी को तांबे-चांदी के बर्तन में रख कर पीना सुरक्षित और लाभदायक माना जाता है, लेकिन बहुत लंबे समय तक पानी स्टोर न करें। विषेश रूप से तांबे के बर्तन में 24 घंटे से अधिक नहीं।

अब सवाल यह कि क्या बर्तन का वजन कम होता है? इसका जवाब यह है कि तकनीकी रूप से हां, परन्तु यह कमी बहुत ही सूक्ष्म और नगण्य होती है, इतने कम स्तर पर कि वह मानव तुला से मापी नहीं जा सकती, खासकर सामान्य उपयोग में। अगर रोजाना कुछ माइक्रोग्राम तांबा घुल भी जाता है, तो भी कई वर्षों तक उपयोग करने पर ही बर्तन के वजन में कोई मापन योग्य बदलाव आ सकता है।


https://youtu.be/4DDLmOUbpKM

शुक्रवार, मई 02, 2025

पितरों को श्राद्ध की वस्तुएं कैसे मिलती हैं?

हालांकि सभी हिंदू श्राद्ध में विश्वास रखते हैं, और परंपरागत रूप से श्राद्ध कर्म करते भी हैं, मगर कुछ लोग यह सवाल खडा करते हैं कि जो प्राणी मरने के बाद दूसरी योनि में जन्म ले चुका, वह श्राद्ध पक्ष के दौरान हमारी ओर से उसके निमित्त ब्राह्मण को कराए गए भोजन को कैसे ग्रहण कर पाता होगा। 

तार्किक रूप से यह प्रश्न बिलकुल ठीक प्रतीत होता है। इसी कडी में कई लोग कहते हैं कि गया में पिंडदान करके दिवंगत परिजन को जब आप विदा कर चुके हैं तो क्यों उन्हें श्राद्ध के नाम पर फिर से बुलाने की गुस्ताखी की जाए। इससे भी बडा सवाल है कि हम भी निश्चत रूप से पूर्व जन्मों में किन्हीं के पूर्वज थे, यदि वे हमारा श्राद्ध करते हैं तो उससे होने वाली संतुष्टि का अनुभव हमें क्यों नहीं होता?

दूसरी ओर शास्त्र बताता है कि पितृ ऋण चुकाने के लिए किए जाने वाले श्राद्ध कर्म की कीमिया क्या है? इस सिलसिले में हाल ही अजमेर के शिव सागर, आगरा गेट स्थित मराठा कालीन श्री पंचमुखी हनुमानजी व वैभव महालक्ष्मी मंदिर के पंडित प्रकाश चन्द्र शर्मा एक पोस्ट सोशल मीडिया पर जारी की है। जाहिर है उन्होंने श्राद्ध कर्म के प्रति उत्पन्न हो रही अश्रद्धा की प्रतिक्रिया में यह कोशिश की है।

बहरहाल, यह जानते हैं कि श्राद्ध कर्म के बारे में शास्त्र क्या बताता है?

श्राद्ध का अर्थ - ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्ध।’

‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।

एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा ’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रस तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व!

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अतः वे अन्न व जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।

यदि पशु योनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नाग योनि में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्ति कारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।

जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

इस बारे में एक दष्टांत है कि श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने राजा दशरथ व पितरों के दर्शन किए थे।

वाकया इस प्रकार है कि एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं

‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में सट कर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती इसलिए मैं ओट में हो गई।’


श्राद्ध की महत्ता के बारे में बताया गया है कि और वंश वृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है। पितर गण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।

श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।

श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि के बारे में बताया गया है कि मृत व्यक्ति के दाह कर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दुख होता है।

आश्विन मास के पितृ पक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे यही आशा लेकर वे पितृ लोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं लेकिन जो लोग पितर हैं ही कहां? यह मान कर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दुखी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं।

ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठा कर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।


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