ऐसी चर्चा सुनने में आ रही है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना को लागू करने में अहम भूमिका निभाने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक डॉ. समित शर्मा को यह योजना पूरे देश में लागू किए जाने की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। हालांकि राजस्थान में इस योजना को लागू करने के साथ कुछ विसंगतियां अब भी मौजूद हैं। साथ ही यह उतनी लोकप्रिय नहीं हो पाई, जितनी कि उम्मीद थी, मगर उसके लिए मूलत: योजना की कमी की बजाय अन्य कारकों को जिम्मेदार माना जा रहा है। अर्थात मोटे तौर पर योजना को सफल ही माना जा रहा है।
चूंकि योजना का खाका डॉ. शर्मा ने ही तैयार किया है और वे ही इसकी देखरेख कर रहे हैं, इस कारण केन्द्र सरकार पूरे देश में इसे लागू करवाने में उनकी मदद लेने की सोच रही है। इसी सिलसिले में केन्द्र सरकार के निर्देश पर पिछले दिनों उत्तरप्रदेश व महाराष्ट्र के मुख्य सचिवों के साथ हुई बैठक को इसे अमलीजामा पहनाने की दिशा में एक कदम माना जा रहा है।
शर्मा साहब, जरा इस पर भी गौर करिये-
बेशक यह योजना अपने आप में अनूठी है और किसी भी सरकार के लिए इससे बड़ी लोकहितकारी योजना नहीं हो सकती, मगर वर्षों से दवा माफियाओं के चंगुल में फंसा मेडिकल व्यवसाय अब भी इसमें बाधक बना हुआ है। इस महत्वाकांक्षी योजना का सबसे उल्लेखनीय पहलु ये है कि सरकार लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया के कुप्रचार से नहीं निपट पाई है। आपको याद होगा कि योजना से पहले जब सरकार ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई ही लिखने के लिए बाध्य किया, तब भी माफिया के निहित स्वार्थों के कारण उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया था। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी चला रखी है। कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर अब भी इसी ढर्ऱे पर चल रहे हैं कि वे सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहे हैं और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी।
असल में शुरू से यह कुप्रचार किया जाता रहा कि जेनेरिक दवाई सस्ती भले ही हो, मगर वह ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले घटिया है और उससे मरीज ठीक नहीं हो पाता। यह धारणा आज भी कायम है। इसकी खास वजह ये है कि सरकार के नुमाइंदे ये तो कहते रहे कि जेनेरिक दवाई अच्छी होती है, मगर आम जनता में उसके प्रति विश्वास कायम करने के कोई उपाय नहीं किए गए। इसी कारण दवा माफिया का दुष्प्रचार अब भी असर डाल रहा है।
हालांकि योजना से लोगों को काफी राहत मिली है, लेकिन अब भी इसकी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पाई है। यह आशंका शुरू से थी कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? ये आशंकाएं सही ही निकलीं। सरकार यह सोच रही थी कि जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं, मगर जरूरत के मुताबिक दवाइयां उपलब्ध न करवा पाने के कारण वह सोच धरी रह गई है। हालत ये है कि मरीज अस्पताल में लंबी लाइन में लग कर पर्ची लिखवाने के बाद सरकारी स्टोर पर जाता है तो उसे छह में से चार दवाइयां मिलती ही नहीं। मजबूरी में उसे बाजार में जाना पड़ता है और वहां उसे ब्रांडेड दवाई ही खरीदनी पडती है।
एक छिपा हुआ तथ्य ये भी है कि जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने का दावा भले ही जोरशोर से किया जा रहा हो, मगर असल स्थिति ये है कि टेंडर के जरिए दवा कंपनियों को दिए गए आदेश को लेकर उठे सवालों पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। ऐसे में यह सवाल तो कायम ही है कि जो कंपनी राजनीतिक प्रभाव अथवा कुछ ले-दे कर आदेश लेने में कामयाब हुई है, वह दवाई बनाने के मामले में कितनी ईमानदारी बरत नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर
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