नागौर में बेहतरीन जिला कलेक्टर के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद हाल ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के निदेशक बने डॉ. समित शर्मा ने ऐलान किया है कि सरकारी के साथ-साथ निजी अस्पतालों के चिकित्सकों को भी जेनेरिक दवाई लिखने को बाध्य किया जाएगा। कहने को तो यह बयान बड़ा सुकून देता है, मगर ऐसा लगता है कि शर्मा जी को जमीनी हकीकत ही पता नहीं है। हालत ये है कि आज भी सरकारी डाक्टरों को जेनेरिक दवाई लिखने में जोर आता है। सरकार और निदेशालय उन्हीं पर सख्ती नहीं आजमा पाए हैं।
अपने एक बयान में खुद शर्मा जी ने माना है कि जेनेरिक दवाइयों के खिलाफ माहौल बनाने में चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने ही अहम भूमिका अदा की है। उसमें अगर यह जोड़ दिया जाए कि सत्ता के दलालों की ताकत बिना ऐसे लोग भूमिका अदा ही नहीं कर सकते तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह साफ है कि ब्रांडेड दवाइयां लिखने पर बतौर कमीशन डॉक्टरों तक हिस्सा पहुंचता है। ऐसे में वे भला जेनेरिक दवाई क्यों लिखेंगे। और सरकारी तनख्वाह के अतिरिक्त कमीशन से मिलने वाली राशि से ही डॉक्टर मनपसंद की जगहों पर तैनात होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। हालांकि कहने को सरकार बार-बार डॉक्टरों पर जेनेरिक दवाई लिखने का दबाव बना रही है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि उसे अभी पूरी कामयाबी नहीं मिली है। मेडिकल माफिया का एक बड़ा समूह सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ा रहा है। सख्ती का आलम ये है कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं की जा सकी है। असल बात तो ये है कि वह डॉक्टरों की कमी से ही जूझ रही है। ऐसे में भला वह सख्त कदम कैसे उठा सकती है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि वह डॉक्टरों से जेनेरिक दवाई लिखवाने में कामयाब हो गई है तो भी नतीजा ढ़ाक के तीन पात है। मार्केट में जेनेरिक दवाई पूरी तरह से उपलब्ध ही नहीं है। मरीज चाह कर भी जेनेरिक दवाई से वंचित है। उसे कई दुकानों के धक्के खाने पड़ते हैं। उतनी मशक्कत करने को कोई तैयार ही नहीं है। आम मरीज को तो पता ही नहीं है कि ये जेनेरिक दवाई होती क्या है। इससे भी बड़ी सच्चाई ये है कि खुद पढ़े-लिखे मरीज में ही जेनेरिक दवाई के प्रति विश्वास नहीं है। वह खुद ही ब्रांडेड दवाई ले कर जल्द से जल्द ठीक होना चाहता है। इस कारण पर्ची पर जेनेरिक दवाई लिखी भी हो तो वह मेडिकल स्टोर से मांग करता है कि जेनेरिक दवाइयों के कॉम्बीनेशन वाली किसी ब्रांडेड कंपनी की दवाई दे दे। इस जमीनी हकीकत के बाद भी शर्माजी अगर ये भभकी देते हैं कि अब प्राइवेट डाक्टरों को भी जेनेरिक दवाई लिखने के लिए बाध्य किया जाएगा, महज कल्पना ही दिखाई देती है।
शर्मा जी का एक तर्क यह है कि जेनेरिक दवाई पूरी तरह से असरकारक होती है। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। हालांकि यह सही है कि मेडिकल माफिया जेनेरिक दवाई को घटिया बता कर माहौल खराब कर रहा है, लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जेनेरिक दवाई कम असरकारक ही पाई गई है। इसकी वजह ये है कि जो कंपनियां जेनेरिक दवाई बना रही हैं, वे आलू-चालू सी मानी जाती हैं। उनके पास दवाई बनाने के अत्याधुनिक संसाधन ही नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि जेनेरिक दवाई से तो मरीज ठीक नहीं हुआ और ब्रांडेड कंपनी की दवाई से ठीक हो गया। शर्मा जी का यह तर्क खूबसूरत तो है कि सस्ती होने के कारण जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता में कमी नहीं आती, मगर ऐसा कहने का आधार कुछ भी नहीं है। माना कि जेनेरिक दवाई के साथ कमीशन का चक्कर नहीं है और उसके विज्ञापन आदि पर भी खर्च नहीं होता, मगर वह गुणवत्ता के लिहाज से अच्छी ही होती है, इसकी क्या गारंटी है? जब तक सरकार इस बारे में कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करेगी और आम जनता में विश्वास कायम नहीं करेगी, जेनेरिक दवाइयों के बारे में दी जा रही तमाम दलीलें काम नहीं आने वाली हैं।
अपने एक बयान में खुद शर्मा जी ने माना है कि जेनेरिक दवाइयों के खिलाफ माहौल बनाने में चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों ने ही अहम भूमिका अदा की है। उसमें अगर यह जोड़ दिया जाए कि सत्ता के दलालों की ताकत बिना ऐसे लोग भूमिका अदा ही नहीं कर सकते तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसकी वजह साफ है कि ब्रांडेड दवाइयां लिखने पर बतौर कमीशन डॉक्टरों तक हिस्सा पहुंचता है। ऐसे में वे भला जेनेरिक दवाई क्यों लिखेंगे। और सरकारी तनख्वाह के अतिरिक्त कमीशन से मिलने वाली राशि से ही डॉक्टर मनपसंद की जगहों पर तैनात होते हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। हालांकि कहने को सरकार बार-बार डॉक्टरों पर जेनेरिक दवाई लिखने का दबाव बना रही है, लेकिन वस्तुस्थिति ये है कि उसे अभी पूरी कामयाबी नहीं मिली है। मेडिकल माफिया का एक बड़ा समूह सरकारी आदेशों की धज्जियां उड़ा रहा है। सख्ती का आलम ये है कि किसी भी डॉक्टर के खिलाफ कोई सख्त कार्यवाही नहीं की जा सकी है। असल बात तो ये है कि वह डॉक्टरों की कमी से ही जूझ रही है। ऐसे में भला वह सख्त कदम कैसे उठा सकती है।
यदि यह मान भी लिया जाए कि वह डॉक्टरों से जेनेरिक दवाई लिखवाने में कामयाब हो गई है तो भी नतीजा ढ़ाक के तीन पात है। मार्केट में जेनेरिक दवाई पूरी तरह से उपलब्ध ही नहीं है। मरीज चाह कर भी जेनेरिक दवाई से वंचित है। उसे कई दुकानों के धक्के खाने पड़ते हैं। उतनी मशक्कत करने को कोई तैयार ही नहीं है। आम मरीज को तो पता ही नहीं है कि ये जेनेरिक दवाई होती क्या है। इससे भी बड़ी सच्चाई ये है कि खुद पढ़े-लिखे मरीज में ही जेनेरिक दवाई के प्रति विश्वास नहीं है। वह खुद ही ब्रांडेड दवाई ले कर जल्द से जल्द ठीक होना चाहता है। इस कारण पर्ची पर जेनेरिक दवाई लिखी भी हो तो वह मेडिकल स्टोर से मांग करता है कि जेनेरिक दवाइयों के कॉम्बीनेशन वाली किसी ब्रांडेड कंपनी की दवाई दे दे। इस जमीनी हकीकत के बाद भी शर्माजी अगर ये भभकी देते हैं कि अब प्राइवेट डाक्टरों को भी जेनेरिक दवाई लिखने के लिए बाध्य किया जाएगा, महज कल्पना ही दिखाई देती है।
शर्मा जी का एक तर्क यह है कि जेनेरिक दवाई पूरी तरह से असरकारक होती है। इसका कोई ठोस आधार नहीं है। हालांकि यह सही है कि मेडिकल माफिया जेनेरिक दवाई को घटिया बता कर माहौल खराब कर रहा है, लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जेनेरिक दवाई कम असरकारक ही पाई गई है। इसकी वजह ये है कि जो कंपनियां जेनेरिक दवाई बना रही हैं, वे आलू-चालू सी मानी जाती हैं। उनके पास दवाई बनाने के अत्याधुनिक संसाधन ही नहीं हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे कि जेनेरिक दवाई से तो मरीज ठीक नहीं हुआ और ब्रांडेड कंपनी की दवाई से ठीक हो गया। शर्मा जी का यह तर्क खूबसूरत तो है कि सस्ती होने के कारण जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता में कमी नहीं आती, मगर ऐसा कहने का आधार कुछ भी नहीं है। माना कि जेनेरिक दवाई के साथ कमीशन का चक्कर नहीं है और उसके विज्ञापन आदि पर भी खर्च नहीं होता, मगर वह गुणवत्ता के लिहाज से अच्छी ही होती है, इसकी क्या गारंटी है? जब तक सरकार इस बारे में कोई पुख्ता इंतजाम नहीं करेगी और आम जनता में विश्वास कायम नहीं करेगी, जेनेरिक दवाइयों के बारे में दी जा रही तमाम दलीलें काम नहीं आने वाली हैं।
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