तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, अप्रैल 12, 2025

सांस में छिपे हैं चमत्कारिक प्रयोग

भारतीय सनातन संस्कृति में शिव स्वरोदय एक ऐसा विज्ञान है, जिसका प्रयोग हर आम-ओ-खास कर सकता है, मगर अफसोसनाक पहलु ये है कि इसके बारे में चंद लोगों को ही जानकारी है। हालांकि विस्तार में जाने पर यह बहुत गूढ़ भी है, पूरे ब्रह्मांड का रहस्य इसमें छिपा है, जिसे योगाभ्यास करने वाला ही जान-समझ सकता है, लेकिन इसमें वर्णित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो न केवल आसानी से समझ में आते हैं, अपितु उनका प्रयोग भी बहुत सरल है। शास्त्रों के अनुसार यह विज्ञान मूलतः भगवान शिव व शक्ति के बीच का संवाद है, जिसमें जन कल्याण के लिए भगवान इसकी विस्तार से व्याख्या करते हैं। इस वीडियो में हम आम आदमी के हितार्थ कुछ टिप्स पर चर्चा करेंगे, ताकि वे उनका लाभ ले सके। 

टिप्स के वर्णन से पहले हम जरा इस विज्ञान के बारे में मोटी-मोटी जानकारी हासिल कर लें। यह तो आपके अनुभव में है ही हम अपनी नासिका छिद्रों से सांस लेते हैं और छोड़ते हैं। सांस हर पल चल रही है, खाते, पीते, चलते-फिरते, कुछ भी करते। स्वतः चल रही है। सोते समय भी यह स्वतः चलती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। हम सोच भी नहीं सकते कि इसके पीछे प्रकृति का एक अनूठा विज्ञान काम कर रहा है। जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि कभी तो हमारे नाक के बायें छिद्र से सांस आती-जाती है तो कभी दायें छिद्र से। हमें उसके महत्व का कोई भान नहीं, मगर इसके पीछे एक गहरा रहस्य छिपा है। 

बायें छिद्र से चलने वाली सांस को चंद्र स्वर कहते हैं और दायें छिद्र से चलने वाली सांस को सूर्य स्वर करते हैं। चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात पार्वती का रूप है। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले तो वह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा। मध्यमा स्वर क्रूर है। यह चलने पर हर काम के विघ्न आते हैं। 

चंद्र स्वर में ये कार्य किए किए जाने चाहिए-

विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि कार्य आदि चंद्र स्वर के चलते करने चाहिए। इसी प्रकार पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए।

सूर्य स्वर में किए जाने वाले कार्य ये हैं-

उत्तेजना, आवेश और जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनमें सूर्य स्वर उत्तम कहा जाता है। अर्थात यदि हम ऐसे कार्य के लिए जा रहे हैं, जिसमें वाद-विवाद होना है, तो सूर्य स्वर जीत दिलवाता है। सूर्य स्वर में स्नान, भोजन, शौच, औषधि सेवन, विद्या, संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं। घुड़सवारी अथवा वाहन पर चढ़ते समय सूर्य स्वर बेहतर होता है। 

सुषुम्ना स्वर साक्षात् काल स्वरूप है। इसमें ध्यान, समाधि, प्रभु स्मरण भजन-कीर्तन आदि सार्थक होते हैं। सुषुम्ना स्वर में अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें, अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। सुषुम्ना नाड़ी मोक्ष प्राप्त करवाती है।

कुछ उपयोगी टिप्स भी जान लेते हैं-

सुबह उठते वक्त जो भी स्वर चल रहा हो, उसी तरफ का पैर जमीन पर पहले रखें। इसके अतिरिक्त उसी तरफ के हाथ के दर्शन करें व हाथ को चूमें। उसके बाद दोनों हाथों को मिला कर दर्शन करें। स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, तो जिस तरफ स्वर चल रहा हो, उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें।

जब शरीर में अत्यधिक गर्मी महसूस करें, तब दाहिनी करवट लेट लें और बायां स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठंडक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा।

यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो जो स्वर नहीं चल रहा है, उस पैर को आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए तथा अचलित स्वर की ओर उस पुरुष या महिला को लेकर बातचीत करनी चाहिए। ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति को शांत हो जाएगा। गुरु, मित्र, अधिकारी, राजा, मंत्री आदि से वाम स्वर से ही वार्ता करनी चाहिए। 

सवाल ये उठता है कि यदि भोजन का समय हो गया हो और चंद्र स्वर चल रहा हो तो क्या करें? ऐसे में स्वर को बदलना ही होगा। यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए। इसी प्रकार इसका विलोम भी किया जा सकता है। अनुलोम-विलोम के अतिरिक्त चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जा सकता है। जिस नथुने से श्वास नहीं आ रही हो, उससे दूसरे नथुने को दबाकर पहले नथुने से श्वास निकालें। इस तरह कुछ ही देर में स्वर परिवर्तित हो जाएगा। घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है।

इस विज्ञान में यात्रा के लिए कुछ उपयोगी जानकारी दी गई है। पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र स्वर, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है। दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम या दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। बायें स्वर के चलते समय पूर्व तथा उत्तर दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। इससे यात्री को शत्रु का भय होता है और कभी-कभी तो यात्री घर वापस भी नहीं आता है। बायां या दाहिना कोई भी स्वर चल रहा हो और साथ ही सुषुम्ना भी चल रही हो तो मुख्य स्वर की तरफ वाला पांव आगे बढ़ा कर यात्रा करनी चाहिए। ऐसा करने से सफलता प्राप्त होती है।

आयु व मृत्यु के बारे में यह विज्ञान में विस्तार से जानकारी देता है। यदि किसी व्यक्ति का बायां स्वर लगातार चले और दाहिना स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु एक माह में होगी। जिस व्यक्ति की आयु समाप्त हो गयी है उसे अरुन्धती, धु्रव, विष्णु के तीन चरण और मातृमंडल नहीं दिखायी पड़ते। जिह्वा को अरुन्धती, नाक के अग्र भाग को धु्रव, दोनों भौहें और उनके मध्य भाग को विष्णु के तीन चरण तथा आंखों के तारों को मातृमंडल कहते हैं। जिस व्यक्ति को अपनी भौहें न दिखें, उसकी मृत्यु नौ दिन में, सामान्य ध्वनि कानों से न सुनाई पड़े तो सात दिन में, आंखों का तारा न दिखे तो पांच दिन में, नासिका का अग्रभाग न दिखे तो तीन दिन में और जिह्वा न दिखे तो एक दिन में मृत्यु होती है। आंखों के कोनों को दबाने पर चमकते तेज बिन्दु यदि न दिखें, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु दस दिन में होगी।

ऐसा बताया गया है कि जो लोग चन्द्र नाड़ी से सांस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से सांस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे दीर्घजीवी होते हैं। इसे ही अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम कहा गया है।

ज्योतिषी भी इस विज्ञान का उपयोग करते हैं। प्रश्नकर्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाए और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो मृत्यु शैया पर पड़ा व्यक्ति भी ठीक हो जाएगा। प्रश्नकर्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा। रोगी के बारे जानकारी चाहने वाला दूत प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी अभी और बीमार रहेगा।

रजस्वला होने के पांचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।

https://www.youtube.com/watch?v=DTdy8THzwfY&t=2s


सोमवार, अप्रैल 07, 2025

सत्य का विपरीत भी सत्य ही है

दोस्तों, सुप्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस का यह कथन बहुत कीमती है कि द अपोसिट आफ truth इस आलसो true। अर्थात सत्य का विपरीत भी सत्य है। इसके बहुत गहरे अर्थ हैं। आइये, जानने की कोशिश करते हैंः-

वस्तुतः जिसे हम सत्य मानते हैं या जानते हैं, वह कभी पूर्ण नहीं होता। सदैव अपूर्ण ही होता है। वजह यह कि हमारी बौद्धिक क्षमता पूर्ण सत्य को देखने की है ही नहीं। होता तो उसका विपरीत भी सत्य ही है, मगर हमें दिखाई नहीं देता, इस कारण हमारे हिसाब से वह असत्य होता है। दोनों एक साथ केवल विषेश स्थिति में ही दिखाई दे सकते हैं। कन्फ्यूषिस का कथन संत कबीर इन वक्तव्यों जैसा है- मछली चढ गई रूख और दरिया लागी आग। इनका अर्थ है मछली पेड पर चढ गई और सागर में आग लग गई। ये कथन सरासर झूठे और गप्प लगते हैं। भला मछली पेड पर कैसे चढ सकती है। और सागर में आग कैसे लग सकती है। इन दोनों में विरोधाभास साफ नजर आता है, मगर संत कबीर उस स्थिति का जिक्र कर रहे हैं, जहां दोनों विरोधी तत्व एक साथ नजर आने लग जाते हैं। जैसे जब अंधेरा नजर आता है तो प्रकाष नजर नहीं आता। एक बार में दोनों में से केवल एक ही की उपस्थिति हो सकती है। दोनों एक साथ नजर नहीं आ सकते। मगर एक अवस्था ऐसी भी होती है, जहां अंधेरा व प्रकाष एक साथ नजर आते हैं। वस्तुतः यह जगत द्वैत है। द्वैत से ही बना है। दोनों तत्व विपरीत हैं, मगर दोनों आवष्यक हैं। दोनों से मिल कर ही जगत बना हुआ है। अतः दोनों ही सत्य हैं।

 

https://www.youtube.com/watch?v=UnzsJUSv_Y0


रविवार, अप्रैल 06, 2025

इसलिए कई लोग नहीं जलाते अगरबत्ती

 हमारे यहां धर्म स्थलों व घर के मंदिरों में अगरबत्ती जलाने का चलन है। यह आम बात है। मगर कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ऐसा करना अनुचित है। आइये, जानते हैं कि उसकी क्या वजह है?

वे शास्त्रों के हवाले से सवाल खड़ा करते हैं कि जिस बांस की लकड़ी को चिता में भी जलाना वर्जित है, हम उस बांस से बनी अगरबत्ती को मंदिर में कैसे जला सकते हैं। वे कहते हैं कि शव को भले ही बांस व उसकी खपच्चियों से बनी सीढ़ी पर रख कर श्मशान पहुंचाते हैं, लेकिन जलाते वक्त उसे अलग कर देते हैं, क्यों कि बांस जलाने से पित्र दोष लगता है। उनका तर्क है कि शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं पर भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता। सब जगह धूप करने का ही जिक्र है। ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार हिंदू अगर का धूप करते हैं, वैसे ही मुस्लिम लोबान का धूप जलाते हैं। इससे वातावरण शुद्ध होता है और सकारत्मकता आती है।

इस बारे में वैज्ञानिक तर्क ये है कि बांस में सीसा प्रचुर मात्रा में होता है और उसके जलने पर लेड आक्साइड बनता है, जो कि खतरनाक है। इसके अतिरिक्त अगरबत्ती में सुंगध के साथ फेथलेट केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है, वह गंध के साथ सांस में प्रविष्ट होता है, जिससे फेफड़ों को नुकसान होता है। सीसे से केंसर व ब्रेन स्टॉक का खतरा होता है। लीवर भी इससे प्रभावित होता है। इसी कारण अनेक लोग अगरबत्ती की जगह धूप व विभिन्न प्रकार की धूप बत्तियां काम में लेते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=8vsE7JblBl8

गुरुवार, अप्रैल 03, 2025

हम ज्यादा क्यों जीना चाहते हैं?

एक शब्द है जिजीविषा। इसका अर्थ होता है जीने की इच्छा। हर आदमी अधिक से अधिक जीना चाहता है। आखिर क्या है इसकी वजह?

इसके पीछे मोटे तौर पर ये इच्छाएं हो सकती हैं कि बेटे-बेटियां पढ़-लिख कर कमाने योग्य हो जाएं, उनकी शादी हो जाए, वंश वृद्धि हो, पोते-पोती देखें। और अगर पड़ पोते-पड़ पोतियां देख लें तो कहने ही क्या, उसे बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है। सोने की सीढ़ी पर चढ़ा कर स्वर्ग भेजने तक का टोटका किया जाता है। मगर सूक्ष्म इच्छा यही है कि आदमी और अधिक, और अधिक जीना चाहता है। यह उसका मौलिक स्वभाव है, उसका कुछ नहीं किया जा सकता।

जाहिर है कि अगर कोई हमें अधिक जीने की दुआ देगा तो हम खुश होंगे। तभी तो चिरायु, चिरंजीवी, शतायु होने के आशीर्वाद दिए जाते हैं। शतायु होने का आशीर्वाद इस कारण तर्कसंगत माना जा सकता है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानी गई है। सौ वर्ष पूर्णता के साथ जीने के पश्चात मोक्ष की कामना के मकसद से सौ वर्षों को चार हिस्सों में बांटा गया। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम,  वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम की व्यवस्था की गई ताकि मनुष्य काम, अर्थ, व धर्म के बाद मोक्ष को उपलब्ध हो जाए। लेकिन कम से कम इस काल में तो ऐसा है नहीं। आश्रम व्यवस्था को कोई नहीं मानता। अधिकतम औसत आयु पैंसठ से सत्तर वर्ष है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर कुछ और साल जी भी लिया जाए तो क्या हो जाएगा? जीवन में इतनी रुचि क्यों? अरे, मरने पर शरीर के साथ सब कुछ छूटेगा ही, यहां तक कि संचित संस्कार व ज्ञान भी किसी के काम नहीं आएगा, वो भी साथ ही चला जाएगा।

सच तो ये है कि बुढ़ापे के साथ बीमारियां घेरने लगती हैं। पचास वर्ष के आसपास कोई न कोई बीमारी घेर लेती है। ब्लड प्रेशर व शुगर तो आम बात है। साठ साल का होने तक शरीर के अनेक अंग कमजोर पडऩे लगते हैं। दांत गिरते हैं, बहरापन आता है, कम दिखता है, घुटने जवाब देने लगते हैं। अगर बीमार न भी हों तो भी जरा अवस्था अपने आप में ही बड़ी कष्ठप्रद है। इसके अतिरिक्त जमाना ऐसा आ गया है, परिवार टूट कर छोटी इकाइयों में बंटने लगा है। बुजुर्गों की सेवा ही मुश्किल से होती है। बुजुर्गों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। वृद्धाश्रम उसी की देन हैं। मैने देखा है कि वृद्धाश्रमों में एकाकी जीवन जीने वाले लोग भी मरने की कामना नहीं करते। और अधिक जीना चाहते हैं। वहां भी जीने का रस तलाश ही लेते हैं। कई बार तो ये भी देखा गया है कि बुढ़ापे में भौतिक खाद्य पदार्थों की इच्छा और अधिक अधिक जागृत होने लगती है। 

खैर, जहां तक मुझे समझ आया है, अधिक जीने की इच्छा के पीछे एक गहरा राज है। वो यह कि हमारा शरीर जिन पांच तत्त्वों से मिल कर बना है, उनका गठन व तानाबाना इतना मजबूत है कि हमें लगता ही नहीं कि हम मरेंगे, भले रोज लोगों को मरते हुए देखते रहें। कदाचित श्मशान में कुछ पल के लिए यह ख्याल आ भी जाए, मगर बाहर निकलते ही वे श्मशानिया वैराग्य तिरोहित हो जाता है। वस्तुतरू शरीर में आत्मा इतनी गहरी कैद है, इतनी गहरी गुंथी हुई है कि अंत्येष्टि के दौरान पूरा शरीर जल कर राख होने के बाद भी आखिर में आत्मा को इस जगत से मुक्त करने के लिए कपाल क्रिया करनी पड़ती है। इससे हम समझ सकते हैं कि आदमी की जिजीविषा कितनी गहरी है। उससे भी बड़ी बात ये कि अगर कोई व्यक्ति किसी चिंता, परेशानी या बीमारी की वजह से मरने की इच्छा भी करता है, तो भी मौत तभी आती है जब शरीर और अधिक साथ नहीं दे पाता। तभी आत्मा शरीर की कैद से मुक्त होती है।

प्रसंगवश एक तथ्य और जान लें। वो ये कि जन्म के पश्चात तीन साल तक आत्मा का शरीर के साथ गहरा अटैचमेंट नहीं होता। तीन साल का होने के बाद ही आत्मा का शरीर से गहरा जुड़ाव होता है। जो संन्यासी हैं, या जिन्होंने जीते जी मरने की कीमिया जान ली है, उन्हें भी शरीर से मुक्त माना जाता है। हिंदू संस्कृति में इसी कारण तीन सल तक बच्चे व संन्यासी का दाह संस्कार नहीं किए जाने की परंपरा रही। दाह संस्कार की जरूरत ही नहीं मानी गई। दफनाने से ही काम चल जाता है। निष्कर्ष यही कि आम तौर पर आत्मा का शरीर के साथ इतना गहरा संबंध होता है कि वह मरने की कल्पना तक नहीं करता। 

https://www.youtube.com/watch?v=Lhx_nei7Kl0

बुधवार, अप्रैल 02, 2025

नशे का दुष्प्रभाव न पडने का उपाय

 दोस्तो, नमस्कार। षास्त्रों का अध्ययन करने वाले एक बुजुर्ग ने एक बार अनूठी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि अव्वल तो नषा करना ही नहीं चाहिए। वह नुकसान करता है। लेकिन नषे की आदत हो गई हो और न छूटती न हो तो नषे से होने वाले नुकसान से बचने के लिए एक उपाय करना चाहिए। उन्होंने बताया कि प्रतिदिन स्नान करने के दौरान आप अगर षिषन पर तीन चार मिनट ठंडे पानी की धार बहाएंगे तो नषे से होने वाले दुश्प्रभाव नश्ट हो जाएंगे। नषे से उत्पन्न गर्मी षीतल हो जाएगी। जाहिर है कि उन्होंने अनुभव व अध्ययन के आधार पर यह जानकारी दी होगी, लेकिन साथ ही उन्होंने एक तर्क भी दिया। उनका कहना था कि भगवान षिव भांग-धतूरे का सेवन करते थे, इसके अतिरिक्त एक बार उन्होंने गरल अर्थात विश का सेवन कर लिया था, जिसे उन्होंने कंठ पर रोक लिया था, कंठ नीला पड गया, जिसकी वजह से उनका नाम नील कंठ कहा जाने लगा। और नषे व विश का दुश्प्रभाव रोकने यानि निश्प्रभावी करने के लिए षिव लिंग पर निरंतर जलधारा बहाने की परंपरा है। उनकी यह बात कितनी सही है, पता नहीं, मगर अर्थपूर्ण तो लगती है। वैसे भी यह एक सामान्य कौतुहल तो है ही कि आखिर क्यों लिंग के आकार के पत्थर पर निरंतर पानी की धारा बहाई जाती है। इस मामले में एक सोच यह भी बताई जाती है कि शिव को संहारकर्ता माना जाता है और जलधारा से उनका क्रोध शांत होता है। यह भक्तों की आस्था है कि इससे शिव जी प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं।


https://youtu.be/IFeRSoZ0VX0



सोमवार, मार्च 31, 2025

हजारों खिज्र पैदा कर चुकी है नस्ल आदम की

दोस्तो, नमस्कार। टीम एज में मैं थोडा सा पागल था। कोई कहता था कि मेरा दिमाग थोडा सरका हुआ है तो कोई फिलोसोपर कहा करता था। तब एक ही सवाल दिमाग में कुलबुलाया करता था कि इस धरती पर कितने भगवान, ऋशि-मुनि, दार्षनिक, विद्वान, धर्मगुरू अवतरित हुए, मगर हम जैसे जैसे कथित रूप से सभ्य होते जा रहे हैं, उतने ही चालाक और भ्रश्ट बनते जा रहे हैं। धर्म और पंथ के नाम पर एक दूसरे के दुष्मन बने हुए हैं। क्यों? क्या महात्माओं का जन्म बेमानी हो गया? फिर गीता का सुपरिचित सूत्र संज्ञान में आया। श्रीकृश्ण कहते हैं, यदा यदा हि धर्मस्य ग्यानिर्भिवति भारतः, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मनं सृजाम्यहम। जब जब धर्म की हानि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं। यानि प्रकृति में ऐसी व्यवस्था है कि धर्म की हानि होगी ही, वह अवष्यंभावी है। मतलब अंधेरा षाष्वत है, उसे मिटाने को प्रकाष को आना पडता है। और जैसे ही प्रकाष मद्धम पडता है, अंधेरा उभर कर आ जाता है। कदाचित यही वजह है कि अवतार आते हैं, मगर फिर फिर आदमी अधार्मिक होता रहता है। इस सिलसिले में किसी षायर का यह षेर ख्याल में आता है- हजारों खिज्र पैदा कर चुकी है नस्ल आदम की, ये सब तस्लीम, मगर आदमी अब तक भटकता है। खिज्र यानि पथ प्रदर्षक और तस्लीम का मतलब स्वीकार। है न कडवी सच्चाई। बहरहाल, उसी दौर में मेरे अंग्रेजी के षिक्षक, जो कि दार्षनिक थे, उन्होंने उपदेष दिया कि दुनिया की चिंता छोडो, फालतू के सवाल करना बंद करो, यह दुनिया ऐसी ही है, कभी बुरी कभी भली। जब अवतार भी इसे स्थाई रूप से नहीं सुधार पाए तो तुम एक मामूली से इंसान क्या कर पाओगे? चिंता सिर्फ अपनी करो, चिंतन केवल आत्म कल्याण का किया करो।


https://youtu.be/eOsAkZ_zC7s


रविवार, मार्च 30, 2025

यह टोटका है सच है या अंधविष्वास?

दोस्तो, नमस्कार। सालों पहले जोधपुर में मेरे चचेरे भाई ने एक जानकारी दी थी, जो कि उन्हें किसी विद्वान ने बताई थी। आप भी जानिए, षायद आपके काम आ जाए। असल में यह एक टोटका है। वो यह कि जब भी हम अपना वाहन मोटर साइकिल, स्कूटर, कार इत्यादि पार्क कर किसी काम से जा रहे होते हैं, तो जाते समय पीछ मुड कर एक बार उसे ठीक से निहार लेने और सुरक्षित रहने का आग्रह करने से उसके चोरी होने की संभावना खत्म हो जाती है। हालांकि मैने भी इसे कई बार आजमाया और ठीक ही पाया, मगर आज तक सुनिष्चित नहीं हूं कि यह कीमिया है क्या? और यह कि इस टोटके का साइंस क्या है? प्रत्यक्षतः अंधविष्वास ही प्रतीत होता है। मगर जिसने भी यह टोटका इजाद किया है तो जरूर उसका कोई आधार होगा। कदाचित ऐसा हो सकता है कि जब हम अपने वाहन को निहारते हुए उसके सुरक्षित रहने की कामना करते हैं तो उसे मानसिक सुरक्षा घेरा मिल जाता है। इस वजह से चोरी करने वाले की नियत उस ओर नहीं हो पाती। अगर यह टोटका मिथ्या है तो भी इसे अपनाने में बुराई ही क्या है? 


शुक्रवार, मार्च 28, 2025

दरवाजे पर सी ऑफ करने की परंपरा क्यों?

दोस्तो, नमस्कार। आपने अमूमन देखा होगा कि जब भी परिवार का कोर्इ्र सदस्य घर से बाहर जा रहा हो, यानि बाजार जा रहा हो, ऑफिस जा रहा हो, घूमने जा रहा हो या यात्रा पर जा रहा हो तो उसकी माताजी, धर्मपत्नी या अन्य सदस्य उसे दरवाजे तक सी ऑफ करते हैं। अपनत्व गहरा हो तो दरवाजे के बाद गली के नुक्कड तक भी निहारते रहते हैं और बाय बाय करते हैं। यह एक परंपरा है, जिसे कि षिश्टाचार व औपचारिकता की संज्ञा दी जा सकती है। विदाई के समय दरवाजे पर आकर किसी को देखना यह दर्शाता है कि हम उनकी परवाह करते हैं। यह प्रेम और अपनापन दिखाने का एक तरीका है। ऐसा माना जाता है कि जब कोई घर से बाहर जाता है और पीछे मुड़ कर देखता है कि उनके प्रियजन उन्हें विदा कर रहे हैं, तो इससे यात्रा के प्रति एक सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। यह मानसिक रूप से व्यक्ति को आश्वस्त करता है कि उसका परिवार उसके साथ है। दरवाजे तक आकर विदा करना यह दर्शाता है कि हम चाहते हैं कि जाने वाला व्यक्ति जल्द ही लौटे और हमारे साथ फिर से जुड़े।

बाहर जा रहा सदस्य भी यह अपेक्षा रखता है कि जाते समय कोई सदस्य दरवाजे तक छोडने आए। अन्यथा, उसे अधूरा अधूरा सा लगता है। वह अधूरापन क्या है? ऐसा लगता है कि बाहर जाने वाले का अपने घर व परिजन के प्रति जो अटैचमेंट है, उसे कायम रखने के लिए ऐसा किया जाता होगा। जिसमें यह भाव भी होता है कि जो भी काम करने जा रहा है, वह पूर्ण हो और वह वापस सुरक्षित लौटे। बाहर जाने वाला भी अपने घर के प्रति अटैचमेंट कायम रखने के लिए ऐसा करता है। हालांकि यह बात अतिषयोक्तिपूर्ण हो जाएगी, मगर मन के सूक्ष्मतम तल में कहीं न कहीं यह भाव होता है कि घर से जा रहा है तो एक बार देख ही लूं। कुल जमा यही समझ में आता है कि दरवाजे तक आकर किसी को विदा करने की परंपरा सिर्फ एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक गहरी भावनात्मक और सांस्कृतिक प्रथा है।


https://www.youtube.com/watch?v=z1I4XLYMsME


बुधवार, मार्च 26, 2025

किसी की आंख में मत झांकिये

दोस्तो, नमस्कार। यदि आप किसी से सम्मोहित नहीं होना चाहते या अप्रभावित रहना चाहते हैं या नहीं चाहते कि वह आप पर मानसिक रूप से दबाव बनाए तो एक ही काम कीजिए। आप जब भी उससे बात करें तो उसकी आंख में नहीं झांकिये। यथासंभव उसके चेहरे को नहीं देखिए। इधर उधर देखते हुए बात कीजिए। यदि आपको लगता है कि वह समझ सकता है कि आप उसकी बात पर ध्यान ही नहीं दे रहे तो उसके चेहरे पर देखिए, लेकिन उसके होंठ, दंत पंक्ति, ठुड्डी, कान आदि पर नजर रखिए। उससे उसको लगेगा कि आप उसकी ओर देख रहे हैं, उसको तवज्जो दे रहे हैं। लेकिन भूल कर भी उसकी आंख में नहीं झांकिए। आप उसके आभा मंडल की गिरफ्त में आने से बच जाएंगे। वस्तुतः आंख ही वह खिडकी है, जिसके माध्यम से कोई अपनी भीतरी मानसिक षक्ति को आपकी ओर फेंकता है। और आंख ही वह खिडकी है, जिसके जरिए हम सामने वाले की मानसिक षक्ति को ग्रहण करते हैं। अगर हम आंख से आंख नहीं मिलाएंगे तो प्रभावित होने से बच जाते हैं। यह तथ्य उसी मूल मंत्र का हिस्सा है कि कोई भी आपको तभी सम्मोहित कर सकता है, जब कि आप उसके लिए तैयार हों। अगर आप सम्मोहित नहीं होना चाहते तो कोई भी आपको सम्मोहित नहीं कर पाएगा। इसका विपरीत तथ्य यह है कि अगर आप किसी को सम्मोहित करना चाहते हैं या उसे प्रभावित करना चाहते हैं तो बात करते हुए पूरे मनायोग से उसकी आंख में झांकिये। आंख की महत्ता को यूं भी समझ सकते हैं कि प्रेमी-प्रेमिका के बीच आंतरिक संवाद आंख के जरिए ही होता है। वे आंख के माध्यम से ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। आपको ख्याल में होगा कि यदि हम किसी को डराना धमकाना चाहते हैं तो षब्दों के साथ साथ आंख का ही उपयोग करते हैं।

https://ajmernama.com/thirdeye/429077/

https://youtu.be/j100TW_4KZU

सोमवार, मार्च 24, 2025

शोकाकुल महिला को जानबूझ कर क्यों रुलाया जाता है?

दोस्तो, आपका ख्याल में होगा कि किसी का निधन हो जाने पर बारहवें तक नियमित बैठक में नाते-रिश्तेदार महिलाएं आ कर रुदन का करती हैं। शोकाकुल महिला को जानबूझ कर रुलाया जाता है। क्यों?

देहात में यह चलन अब भी है, लेकिन षहरों में आजकल कई लोग परिवार में किसी सदस्य का निधन हो जाने पर तीये की बैठक के साथ ही घोशणा कर देते हैं कि आज के बाद कोई नियमित बैठक नहीं होगी। उसकी वजह यह है कि दुकानदार तीये की बैठक के बाद दुकान नियमित खोलना चाहता है या नौकरीपेषा नौकरी पर जाना चाहता है। जिन परिवारों में नियमित बैठक होती है, उनमें नाते-रिष्तेदार महिलाएं आ कर रूदन करती हैं। जाहिर तौर पर परिवार की षोकाकुल महिलाएं भी बहुत रोती हैं। विषेश रूप से जिस महिला के पुत्र, पुत्री अथवा पति का निधन हो चुका होता है, वह फूट फूट कर रोती है। कई बार रोते-रोते बेहोष तक हो जाती है। ऐसे में परिवार के पुरूश सदस्य क्रोधित हो जाते हैं और महिलाओं से रूदन बंद करने को कहते है। इस पर बुजुर्ग महिलाएं बताती हैं कि रूदन की परंपरा यूं ही नहीं बनाई गई है। अच्छा हमें भी नहीं लगता, मगर रूदन से षोकाकुल महिला की रूलाई बाहर आ जाती है। दिल का दर्द आंसुओं के जरिए बह जाता है। इसलिए जानबूझ कर रूलाया जाता है। अगर उसे रोने नहीं दिया जाएगा तो परिजन की मौत का सदमा उसके दिल में बैठ जाएगा, जो उसके स्वास्थ्य के लिए बहुत नुकसानदेह हो सकता है।

https://www.youtube.com/watch?v=Rakeb588bgY


रविवार, मार्च 23, 2025

बांयी ओर खडे हो कर की गई गुहार पूरी होती है?

दोस्तों, हम लोग भले ही अंध विश्वास की आलोचना करते रहते हैं, मगर अपना कोई काम अटक जाए और कोई रास्ता नजर न आए तो साथियों की सलाह पर कई प्रकार के टोटके भी करते हैं। इनका कोई वैज्ञानिक 

आधार नहीं होता। फिर भी परंपरा के चलते अथवा ज्योतिषी पर विश्वास रख कर इन्हें आजमाते हैं। उन पर केवल यही सोच कर हम भरोसा करते हैं कि जिसने भी टोटका ईजाद किया होगा, तो जरूर उसके पीछे कोई साइंस होगा। हमारा उन पर यकीन हो तब तो ठीक, लेकिन अगर उन पर भरोसा न भी हो तो भी उन्हें आजमाने से परहेज नहीं करते। सोचते हैं कि क्या पता काम सिद्ध हो जाए।

आइये, एक ऐसे टोटके पर चर्चा करते हैं, जिसका उपयोग हमारे दैनिक जीवन में हो सकता है। 

ऐसी मान्यता है कि अगर आपको किसी अधिकारी या किसी ओर से कोई काम हो तो उसके बायीं ओर खड़े हो कर अपनी बात कहिये, वह आसानी से आपकी बात मान जाएगा। इसके पीछे तर्क ये दिया जाता है कि हर व्यक्ति के बायीं ओर हृदय होता है। हृदय अर्थात दिल, जो कि संवेदना का केन्द्र है। वाम अंग पर चंद्रमा का प्रभाव होता है। जब हम बायीं ओर खड़े हो कर उससे कोई मांग रखते हैं तो वह संवेदनापूर्वक हमारी बात मान जाता है। अर्थात दायीं ओर की तुलना में बायीं ओर खड़े होने पर काम सिद्ध होने की संभावना अधिक रहती है। इसलिए जब भी किसी अधिकारी के पास जाएं तो कोशिश करके उसके बायीं ओर खड़े होइये। 

एक बात और। कदाचित ऐसा भी हो सकता है कि टोटका इस्तेमाल करने के दौरान हमारा आत्मविश्वास मजबूत होता हो कि हम टोटके का उपयोग कर रहे हैं। और इसी वजह से अपनी बात पूरी ऊर्जा के साथ कहते हैं, जो सामने वाले पर असर कर जाती हो।

मैने स्वयं इसे आजमाया है। मुझे तो यह तथ्य सही लगा। यह मेरा भ्रम भी हो सकता है, अतः आप स्वयं आजमाइये। संभव है, हम इस तथ्य की बारीकी को न समझ पाएं, मगर बायीं ओर खडे होने में हर्ज ही क्या है? क्या पता तथ्य सही हो। अगर विद्वानों ने बताया है तो कोई तो राज होगा।

https://www-youtube-com/watch\v¾OUsVrDu02W0

शनिवार, मार्च 22, 2025

माइंड रीडर्स किस विधा का उपयोग करते हैं?

जैसे ही बागेश्वर धाम सरकार और पंडोखर धाम सरकार चर्चा में आए तो दावे प्रतिदावे के बीच माइंड रीडर्स व जादूगर भी विमर्श में शामिल हो गए। वे बाकायदा इलैक्टॉनिक मीडिया के सामने अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। वे स्वयं कह रहे हैं कि वे कोई चमत्कार नहीं कर रहे, बल्कि वे अपनी विधा को कला का संज्ञा दे रहे हैं। आइये, समझते हैं, माजरा क्या हैः-

आपने देखा होगा कि माइंड रीडर्स सामने वाले को कुछ सोचने को कहते हैं और कहते हैं कि जो भी सोच रहे हैं, उसे मन ही मन जोर से बोलें। उसके तुरंत बार माइंड रीडर सामने वाले ने जो भी सोचा उसको स्लेट अथवा कागज पर लिख कर दिखा देते हैं। स्वाभाविक रूप से हर कोई चकित रह जाता है कि आखिर यह कैसे हो गया। चलो आध्यात्मिक संत मन की जो बात पकडते हैं, उसमें या तो किसी ईश्ट की भूमिका बताई जाती है, या फिर कर्ण पिषाचिनी सिद्ध होने की बात कही जा रही है, मगर माइंड रीडर्स के पास आखिर कौन सी तकनीक है, जिससे वे मन की बात पकड लेते हैं। वे इस कला का पूरे आत्मविष्वास के साथ प्रदर्षन कर रहे हैं, मगर उस कला के बारे में कुछ नहीं बताते और यह कह कर टाल देते हैं कि यह टेड सीक्रेट है, जिसका वे खुलासा नहीं कर सकते। जहां तक मेरी समझ है, वे टेली रेस्पांस पावर का इस्तेमाल करते हैं। जैसे कर्ण पिषाचिनी के मामले में व्यक्ति का सम्मुख होना जरूरी है, वैसे ही माइंड रीडर्स भी सामने होेने पर ही माइंड रीड करते हैं। हो सकता है वे सामने वाले के चेहरे के हाव भाव को भी पढने की भी सहायता लेते हों, या मनुश्य के वैचारिक पथ को पकडते हों, मगर मोटे तौर पर यही प्रतीत होता है कि वे टेली रेस्पांस पावर का इस्तेमाल करते हैं। यदि नेट पर वीडियो कॉलिंग के जरिए भी बात करते हैं तो चाहते हैं कि सामने वाले का चेहरा साफ दिखाई दे। दूर होने की स्थिति में विषेश रूप से इस पर जोर देते हैं कि जो भी मन में सोच रहे हैं, उसे मन ही मन बहुत जोर से उच्चारित करें। इस विधा पर पष्चिम में खूब काम हुआ है। इससे संबंधित अनेक पुस्तकें भी मार्केट में मौजूद हैं। टेली रेस्पांस पावर का उपयोग करने वाले हजारों किलोमीटर दूर मन की षक्ति से संदेष भेजते हैं और संदेष हासिल करते हैं।

टेली रेस्पांस पावर का इस्तेमाल करने वालों का दावा है कि निर्जीव वस्तुओं को भी संदेष या आदेष दिया जा सकता है। इसका एक डेमो इस प्रकार हैः- एक गिलास में पानी भर लीजिए। उसकी सतह पर तेल की बूंदे डाल दीजिए। तेल हल्का होने के कारण पानी पर तेल की फिल्म बन जाएगी। उस पर एक तिनका रख दीजिए। जाहिर तौर पर वह सतह पर तैरता रहेगा। इसके पष्चात उस पर नजर गडा कर मन की पूरी षक्ति से आदेष दीजिए कि बायें या दायें घूम जा। त्राटक सिद्ध व्यक्ति हो तो तिनका बाकायदा आदेष को फॉलो करता है। इस विधा के संबंध में कहा जाता है कि ध्यान के सतत प्रयास के बाद निर्जीवी वस्तु को भी आदेष दिया जा सकता है। वर्शों पहले एक व्यक्ति ने नजर गडा कर सामने रखी लोहे की चाबी को मोड कर दिखा दिया था। उसकी पूरी दुनिया में खूब चर्चा हुई थी। वह भी या तो नसर्गिक रूप से हासिल मजबूत इच्छा षक्ति या फिर टेली रेस्पांस पावर का कमाल था।


https://www.youtube.com/watch?v=uM3uf8pA0yY

 

शुक्रवार, मार्च 21, 2025

पति-पत्नी के बीच गहन अंतर्संबंध

दोस्तों, पति पत्नी लाइफ पार्टनर होते हैं। अर्थात जीवन भर की हर घटना, हर उतार चढाव में हिस्सेदार, भागीदार होते हैं। साथ ही उनके बीच गहन अंतर्संबंध भी होता है, यह तथ्य एक घटना से प्रमाणित होता है। 

हुआ यूं कि मेरे एक परिजन गंभीर बीमार हुए। एक ज्योतिशी को उनकी कुंडली दिखाई तो उन्होंने उसमें अनिश्ट का योग बताया, लेकिन कहा कि आप उनकी पत्नी की कुंडली लाइये, तभी सटीक भविश्यवाणी की जा सकेगी। हमने उनको वह कुंडली दिखाई तो यकायक उनके मुंह से निकल गया कि बीमार बंदे का कुछ नहीं बिगडेगा। उनका कहना था कि भले ही पति की कुंडली में अनिश्टकारक संकेत मिल रहे हैं, लेकिन पत्नी की कुंडली में वैधव्य के कोई संकेत नहीं हैं, साफ तौर पर सौभाग्यवती होने के इषारे हैं। इस आधार पर उन्हें यह भविश्यवाणी करने में जरा भी झिझक नहीं है कि पति बीमारी से उबर आएंगे और लंबी आयु तक जीवित रहेंगे। और हुआ भी वही। वह अस्वस्थ व्यक्ति थोडा कश्ट पा कर ठीक हो गया। इस प्रसंग से हट कर भी देखें तो हमारे यहां परंपरागत रूप से औरत को सौभाग्यवति का आषीर्वाद दिया जाता है। अर्थात पति ही उसका सौभाग्य होता है। आपने देखा होगा कि महिला को भागवान के संबोधन से भी पुकारा जाता है। पुरूश को चिरंजीवी होने का आर्षीवाद दिया जाता है, ताकि उसकी पत्नी का सौभाग्य कायम रहे।


https://www.youtube.com/watch?v=mU6sxPuCK84


गुरुवार, मार्च 20, 2025

गुरूवार को चने के व्यंजन क्यों खाते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। एक मित्र ने पूछा कि गुरूवार को चने के व्यंजन क्यों खाते हैं? इस विशय पर विद्वानों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि यह परंपरा धार्मिक और ज्योतिषीय मान्यताओं से जुड़ी हुई है। वस्तुतः बृहस्पति देव को पीला रंग व भोज्य पदार्थ चना पसंद है। इस कारण गुरुवार के दिन चने की दाल और बेसन से बने व्यंजन बृहस्पति देव को अर्पित किए जाते हैं। ज्योतिशीय दृश्टि से देखा जाए तो बृहस्पति ग्रह को बलवान बनाने के लिए पीले रंग के खाद्य पदार्थ खाने की परंपरा है। गुरुवार का व्रत रखने वाले लोग अक्सर चने की दाल या बेसन के व्यंजन खाते हैं। कई लोग गुरूवार के दिन पहले पहर में, अर्थात सूर्योदय से डेढ घंटे तक की अवधि में पीला वस्त्र धारण करते हैं या पीले रंग का धागा बांधते हैं। मान्यता है कि इससे व्यक्ति की बुद्धि, धन, और समृद्धि में वृद्धि होती है। ऐसी मान्यता है कि एक समय गुरु बृहस्पति गरीब ब्राह्मण का रूप धारण कर एक घर में भिक्षा मांगने गए। गृहणी ने उन्हें चने की दाल और गुड़ का भोजन कराया, जिससे वे प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दे गए। तभी से चने की दाल और उससे बने व्यंजन गुरुवार को खाने और बांटने की परंपरा बन गई।


https://youtu.be/cHxrLo56N_A


बुधवार, मार्च 19, 2025

जब भी थके हुए हों तो करें यह प्रयोग

आमतौर पर जब भी हम काम की अधिकता के कारण थक जाते हैं तो कुछ वक्त आराम करते हैं अथवा सो जाते हैं। सोने से थकावट मिट जाती है। लेकिन अगर हमारे पास आराम करने का वक्त नहीं है और फिर से काम करना है तो बहुत दिक्कत हो जाती है। हम अंडर रेस्ट हो जाते हैं। ऐसे में त्वरित स्फूर्ति पाने के लिए क्या करें?

थकावट से उबरने के लिए वर्षों पहले मुझे एक जैन मुनि ने रोचक व उपयोगी जानकारी दी थी। वह आपसे साझा कर रहा हूं। नागौर जिले के लाडनूं स्थित जैन विश्व भारती में मेरा नियमित जाना होता था। वहां एक जैन मुनि श्री किशनलाल जी से निकटता हो गई। योग, ध्यान व सम्मोहन के बारे में उनकी गहरी जानकारी थी। उन्होंने मेरे सामने सम्मोहन के अनेक प्रयोग करके दिखाए थे। हां, उनका यह कहना था कि सम्मोहित उसे ही किया जा सकता है, जो उसके लिए सहयोग करे। उनसे कई विषयों पर चर्चा होती थी। एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि थकावट की स्थिति से आसानी से उबरा जा सकता है। इसके लिए करीब बीस मिनट लेट जाएं और तीन-चार बार अपनी गुदा अर्थात मलद्वार को संकुचित करें। जितना ज्यादा समय तक संकुचन करेंगे, उतना ही जल्दी थकावट मिट जाएगी और पूरे शरीर में ऊर्जा का संचार हो जाएगा। शरीर में स्फूर्ति आ जाएगी। उन्होंने बताया कि गुदा के पास ही मूलाधार चक्र है। गुदा को संकुचित करने से वह शक्ति केन्द्र जागृत हो जाता है और नई ऊर्जा उत्पन्न होती है। मैने उनके बताए इस प्रयोग को कई बार इस्तेमाल किया और पाया कि उन्होंने सही जानकारी दी है। आज इस जानकारी को साझा करते हुए मैं उनको तहेदिल से साधुवाद देता हूं।

आपने पाया होगा कि जब भी हम ज्यादा वजन उठाते हैं, तो उस वक्त भी स्वतः गुदा संकुचित हो जाती है, हालांकि हमें इसका भान नहीं होता। इससे भी सिद्ध होता है कि गुदा संकुचन से ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस सिलसिले में मुझे यकायक एक कहावत का ख्याल आ गया। शब्दों में उसका प्रयोग इस प्रकार है- किसी को चुनौति देते वक्त यह कहते हैं न कि लगा ले अपनी गुदा का जोर। या उसने गुदा का पूरा जोर लगा लिया, मगर वह अमुक काम नहीं कर पाया। अर्थात गुदा के पास स्थित मूलाधार चक्र शक्ति का केन्द्र है, इसकी जानकारी हमारी संस्कृति में बहुत पहले से रही है। उसी वजह से यह कहावत बनी है।


https://www.youtube.com/watch?v=OgLuJna2-rU&t=18s


सोमवार, मार्च 17, 2025

शवदाह के बाद पीछे मुड़ कर क्यों नहीं देखते?

दोस्तों, आपको जानकारी होगी कि षव का अंतिम संस्कार करने के बाद पीछे मुड कर न देखने की सलाह दी जाती है। क्या आपने सोचा है कि इसकी वजह क्या है? 

इस बारे में गरूड पुराण में कहा गया है कि जब षव को अग्नि के हवाले करने के बाद नाते-रिष्तेदार लौट रहे होते हैं तो मृतक की आत्मा उनको देख रही होती है और मोहवष उनके साथ लौटना चाहती है, जब कि मृत्योपरांत अंत्येश्टि के बाद उसे आगे की यात्रा करनी होती है। यदि परिजन पीछे मुड कर देखते हैं तो मृतात्मा को मोह के बंधन से मुक्त होने में कठिनाई होती है। कुल जमा बात यह है कि मृत आत्मा के इस जगत से संबंध विच्छेद के वक्त किसी तरह का मोह उत्पन्न न हो इसके लिए परिजन को पीछे मुड कर न देखने को कहा जाता है।

आपको यह भी जानकारी होगी कि जब ज्योतिशी चौराहे, तिराहे अथवा वृक्ष इत्यादि पर कोई टोटका करने की सलाह देते हैं तो साथ हिदायत देते हैं कि टोटके के बाद पीछे मुड कर नहीं देखना है। कदाचित इसके पीछे भी वही दर्षन है कि आप जो भी टोटका कर रहे हैं, वह स्वतंत्र रूप से तभी काम करेगा, जबकि आप उससे संबंध विच्छेद कर लेंगे।

https://www.youtube.com/watch?v=cLcryvBHyZ8


बुधवार, मार्च 12, 2025

क्या कर्ण पिशाचिनी सिद्ध होती है?

इन दिनों छत्तीसगढ के छतरपुर स्थित बागेश्वर धाम सरकार के धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री व पंडोखर सरकार धाम खूब चर्चा में हैं। अंधविश्वास निर्मूलन समिति के श्यााम मानव ने उनको दिव्य शक्तियों को साबित करने की चुनौती दी है। चुनौती स्वीकार भी हो गई है। परीक्षण कब होगा पता नहीं, मगर इस प्रकरण से मुझे एक प्रसंग ख्याल में आ गया।

उससे तो यह संकेत मिलता है कि ऐसी षक्तियां हैं तो सही, जिनको भले ही वैज्ञानिक तरीके से सिद्ध न किया जा सके। हुआ यूं कि मैं एक ज्यातिर्विद के पास गया भविश्य जानने। गया क्या, सच तो यह है कि ले जाया गया। मेरे वरिश्ठ मित्र की इच्छा थी कि आपके भविश्य के बारे में जानकारी ली जाए। वहां जाने पर ज्योतिशी जी ने कहा कि आपकी कुंडली त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि इसमें दिया गया जन्म समय गलत है। पहले आप अमुक ज्योतिशी के पास जाइये। वे आपको आपका वास्तविक जन्म समय बता देंगे। उसी के आधार पर कुंडली बना कर सही फलित बनाया जा सकता है। हम उन के पास गए। उन्होंने पूछा कि क्या कुंडली लाए हो तो मैंने अपने बेग में कुंडली निकाल कर दे दी। उन्होंने कुंडली को देखे बिना ही साइड में रख दिया। फिर लगे केलकूलेट पर कोई गणना करने। उन्होंने जन्म समय तो बताया ही, साथ ही जैसे ही मेरे पिताजी व दादाजी का नाम बताया तो मैं हतप्रभ रह गया। जन्म समय तो संभव है, गलत भी हो, मगर उन्हें मेरे पिताजी व दादाजी का नाम कैसे पता लगा, यह वाकई सोचनीय रहा। बाद में मैने कुछ अन्य से राय ली तो उन्होंने बताया कि ज्योतिशी जी ने कर्ण पिषाचिनी सिद्ध कर रखी होगी, जो कि सामने बैठे व्यक्ति के भूतकाल के बारे में कान में सब कुछ बता सकती है। सच क्या है, मुझे नहीं पता, मगर जरूर को ऐसी विद्या है, जो भूतकाल का ज्ञान करवा सकती है। मेरी इस धारणा को अंधविष्वास इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मैने जो देखा, उस पर अविष्वास करने का आधार है ही नहीं। यहां यह स्पश्ट कर दूं कि मै जिन वरिश्ठ मित्र के साथ गया था, उनको मेरे पिताजी व दादाजी के नाम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, अन्यथा यह संदेह किया जा सकता था कि उन्होंने ज्योतिशी जी को पहले से बता दिया होगा। 


https://youtu.be/gU07osN9qf8

रामभक्त पवनपुत्र हनुमान जी देवता नहीं

आम तौर पर हम रामभक्त पवनपुत्र हनुमानजी को देवताओं में ही शामिल मानते हैं, लेकिन यह कम लोगों को जानकारी है कि वे देवता नहीं हैं। वे न नाग योनि से हैं न पितर योनि से, न किन्नर हैं, न यक्ष। उनकी अलग ही योनि है। और वह है किंपुरुष। हालांकि वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश नहीं हैं, मगर उनके जितनी सामर्थ्य रखते हैं। वे अपनी इच्छा से अपने में किसी भी देवता को प्रकट कर सकते हैं।

कहते हैं कि श्रीराम के अपने निजधाम प्रस्थान करने के बाद हनुमानजी और अन्य वानर किंपुरुष नामक देश को प्रस्थान कर गए। वे मयासुर द्वारा निर्मित द्विविध नामक विमान में बैठ कर किंपुरुष नामक लोक में चले गए। किंपुरुष लोक स्वर्ग लोग के समकक्ष है। षास्त्रों के अनुसार यह किन्नर, वानर, यक्ष, यज्ञभुज् आदि जीवों का निवास स्थान है। योधेय, ईश्वास, अर्षि्टषेण, प्रहर्तू आदि वानरों के साथ हनुमानजी इस लोग में प्रभु रामकी भक्ति, कीर्तन और पूजा में लीन रहते हैं।

जम्बूद्वीप के नौ खंडों में से एक किंपुरुष भी था। नेपाल और तिब्बत के बीच हिमालयी क्षेत्र में कहीं पर किंपुरुष की स्थिति बताई गई है। हालांकि पुराणों अनुसार किंपुरुष हिमालय पर्वत के उत्तर भाग का नाम है। यहां किन्नर नामक मानव जाति निवास करती थी। बताते हैं कि इस स्थान पर मानव की आदिम जातियां निवास करती थीं। यहीं पर एक पर्वत है जिसका नाम गंधमादन कहा गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार हनुमानजी कलियुग में गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं। ज्ञातव्य है कि पांडव अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके गंधमादन के पास पहुंचे थे। यह कथा भी प्रचलित है कि एक बार भीम सहस्रदल कमल लेने के लिए गंधमादन पर्वत के वन में पहुंच गए थे, जहां उनकी मुलाकात हनुमान जी से हुई। हनुमान जी लेटे हुए थे। भीम ने उनसे रास्ते से अपनी पूंछ हटाने को कहा, इस पर हनुमानजी ने भीम का घमंड चूर कर दिया था।

गंधमादन में ऋषि, सिद्ध, चारण, विद्याधर, देवता, गंधर्व, अप्सराएं और किन्नर निवास करते हैं। सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था। गंधमादन सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था।

https://www.youtube.com/watch?v=W14P9d-Hcfs&t=26s


मंगलवार, मार्च 11, 2025

हम क्यों रहना चाहते हैं अमर?

कोई भी मरना नहीं चाहता। हर व्यक्ति अमर रहना चाहता है। और दिलचस्प बात ये है कि हर आदमी ये भी जानता है कि अमर होना संभव नहीं है। जो आया है, उसे जाना ही होगा। मृत्यु अवश्यंभावी है। उसे टाला नहीं जा सकता है। हद से हद जीवन को दीर्घ किया जा सकता है। जिन भी ऋषि-मुनियों, सुरों-असुरों ने कठोर तप करके अमर होने का वरदान मांगा है, वह खाली गया है। अजेय होने के वरदान दिए हैं, अधिक से अधिक शक्ति संपन्न होने के वरदान दिए गए हैं, मगर यह कह कर अमरता के लिए इंकार किया गया है कि यह विधि के विरुद्ध है।

सवाल ये उठता है कि जब अमर हुआ ही नहीं जा सकता तो हमारे भीतर अमरता का भाव आता कहां से है? 

जब भी हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो जीवन व संसार की नश्वरता से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, फिर भी यह भाव रहता है कि मैं तो अभी नहीं मरूंगा। कुछ पल के लिए जरूर संसार से विरक्ति का भाव आता है, जिसे कि श्मशानिया वैराग्य कहा गया है, मगर श्मशान से बाहर आते ही वह तिरोहित हो जाता है। श्मशान में रहते अवश्य जीवन की आपाधापी निरर्थक लगती है, सोचते हैं कि जब एक दिन मरना ही तो क्यों बुरे कर्म करें, लेकिन बाहर आते ही हम जस के तस हो जाते हैं।  राग-द्वेष में प्रवृत्त हो जाते हैं। कल्पना कीजिए कि अगर श्मशान में जाने पर उत्पन्न होने वाला अनासक्ति का भाव स्थाई हो जाए तो हम बाहर निकलते ही बदले हुए इंसान हो जाएं। मगर ऐसा होता नहीं है। क्यों नहीं होता है ऐसा?

वस्तुतरू जिस चित्त में अमरता का अहसास पैठा हुआ है, वह हमारी जीवनी शक्ति की अमरता की वजह से ही है। वह तत्त्व, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह अमर है। शास्त्र भी यही समझाता है कि आत्मा अजर-अमर है। न उसे पानी में भिगोया जा सकता है, न उसे आग में जलाया जा सकता है, न उसे हवा में सुखाया जा सकता है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। पंच महाभूत से बना शरीर जरूर नष्ट हो जाता है, जो कि मृत्यु होने की निशानी है, मगर आत्मा कायम रहती है। इसे इस रूप में समझाया गया है कि शरीर एक चोला है। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही आत्मा जन्म लेती है और फिर पुनरू जन्म लेती है। हमें शास्त्र की इस समझाइश से बड़ा सुकून मिलता है। बहुत संतुष्टि होती है। लगता है कि वह ठीक ही कह रहा है। वो इसलिए कि वह हमारे चित्त में बैठे अमरता के भाव पर ठप्पा लगाती है। उसकी पुष्टि करती है। हमारे मनानुकूल है। जब हमारा कोई निकटस्थ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो यही समझाया जाता है चिंता न करें, मरना तो सुनिश्चित है, मगर मृत व्यक्ति की आत्मा अमर है। हमें इससे भी संतुष्टि होती है कि चलो शरीर नष्ट हो गया, मगर उसकी आत्मा का वजूद तो कायम है। इसी मिथ के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा बनी हुई है। इसी आधार पर मान्यता बनी हुई है कि पिछले जन्मों के कर्म हमारी आत्मा के साथ आते हैं और उसी के अनुरूप हमें सुख-दुख मिलता है। 

अमरता का अहसास ही पति-पत्नी व प्रेमी-प्रेमिका को अगले जन्म में भी मिलने और जन्मों-जन्मों तक साथ निभाने की कसम दिलवाता है। 

कई लोग तो अपने बुजुर्ग के अगले जन्म में अपने ही परिवार में जन्म लेने की कामना करते हैं। सपने में हुई अनुभूति या लक्षणों के आधार पर हम यह भी यकीन कर लेते हैं हमारे अमुक संबंधी ने फिर हमारी संतान के रूप में जन्म लिया है।

यह जानते हैं कि हमारा अमुक संबंधी मर कर कहीं अन्य जन्म ले चुका है, लौट कर नहीं आएगा, फिर भी उससे नाता बनाए रखते हैं। यानि कि उसके भी अमर होने का विश्वास है। उसके लिए बाकायदा 15 तिथियों की श्राद्ध की व्यवस्था की हुई है। जिस तिथी पर संबंधी की मृत्यु हुई थी, उस पर ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं। यह मान कर हमारे संबंधी की आत्मा उसके शरीर में आ कर भोजन कर रही है। 

कुल जमा यह धारणा यह है कि आत्मा अमर है। भीतर भी यही विश्वास है कि हम अमर हैं। अमरता की चाह भी वहीं से पैदा होती है। पर चूंकि भौतिक जगत में विधि का विधान इसकी अनुमति नहीं देता, इस कारण शरीर नष्ट हो जाने पर भी हम अमर रहेंगे, यह यकीन बहुत आत्मिक संतुष्टि देता है। 

अमरता की इस आस्था के कारण ही यह सीख दी जाती है कि अच्छे कर्म करें, ताकि अगले जन्म में सुख मिले। इसी विश्वास के कारण सद्कर्म करने का उपदेश दिया जाता है, ताकि उसे बाद की पीढिय़ां याद करें और हमारा नाम अमर बना रहे। बेशक, हमें याद किया जा रहा है या नहीं, इसे देखने को हम मौजूद नहीं रहने वाले हैं, मगर अमरता की चाह हमें सुकर्म करने को प्रेरित करती रहती है।

प्रसंगवश यहां उन आठ चिरंजीवियों का भी जिक्र कर लेते हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में बताया गया है कि वे हजारों साल से जीवित हैं। 

इनमें से भगवान रुद्र के 11 वें अवतार व भगवान श्रीराम के परम सेवक श्रीहनुमान के चारों युगों में होने की महिमा को हनुमान चालीसा में चारों युग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा कह कर गाते हैं। बाकी 7 काल विजयी दिव्य आत्माओं का विवरण इस प्रकार हैरू- महामृत्युंजय सिद्धि प्राप्त शिव भक्त ऋषि मार्कण्डेय, चारों वेदों व 18 पुराणों के रचनाकार भगवान वेद व्यास, जगतपालक भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम, भक्त प्रह्लाद के वंशज व भगवान वामन को अपना सब कुछ दान करने वाले राजा बलि, 

लंकापति रावण के साथ युद्ध में भगवान राम का साथ देने वाले विभीषण, कौरवों और पाण्डवों के कुल गुरु परम तपस्वी ऋषि कृपाचार्य, कौरवों और पाण्डवों के ही गुरु द्रोणाचार्य के सुपुत्र अश्वत्थामा। 

आप देखिए, इन सभी आठों को चिरंजीवी तो कहा गया है लेकिन अमर नहीं कहा गया है बावजूद इसके लिए हमारे लिए वे अमर होने के ही समान हैं क्योंकि चिर काल तक जीवित रहने का अर्थ है अंनत काल तक वजूद में रहना।

इस संपूर्ण चर्चा का सार यही है कि आत्मा की अमरता की वजह से ही हमारे भीतर अमरता या अमर रहने की भाव कायम है।

https://www.youtube.com/watch?v=3mcwFwRLhsI


सोमवार, मार्च 10, 2025

आदमी में भी माहवारी जैसा ही कुछ होता है?

दोस्तो, नमस्कार। यह सर्वविदित है कि औरत हर महिने माहवारी की अवस्था से गुजरती है। उस दौरान वह चिढचिढी हो जाती है। ऐसा हार्मोनल चैंजेज की वजह से होता है। यह भी पक्का है कि आदमी के षरीर में माहवारी जैसी कोई स्थिति उत्पन्न नहीं होती। मगर कुछ वैज्ञानिकों ने गहन षोध में पाया है कि हर माह आदमी भी अट्ठाईसवें दिन औरत के मासिक धर्म की अवस्था में आता है। उसमें भी उसी प्रकार चिढचिढापन आ जाता है। हालांकि, वैज्ञानिक रूप से यह अभी पूर्णतः प्रमाणित नहीं हुआ है कि हर माह पुरुषों में भी महिलाओं की तरह मासिक धर्म जैसी कोई चक्रीय प्रक्रिया होती है। लेकिन, कुछ शोध बताते हैं कि पुरुषों में हर माह हार्मोनल उतार-चढ़ाव होते हैं, विशेष रूप से टेस्टोस्टेरोन स्तर में परिवर्तन, जिससे उनका मूड, ऊर्जा स्तर और चिड़चिड़ापन प्रभावित हो सकता है। इसे कभी-कभी प्ततपजंइसम डंसम ैलदकतवउम प्डै कहा जाता है, जिसमें पुरुषों को चिड़चिड़ापन, थकान, अवसाद, और संवेदनशीलता महसूस हो सकती है। यह हार्मोनल असंतुलन, तनाव, नींद की कमी, या जीवनशैली के कारण भी हो सकता है। अध्यात्म व ज्योतिश की नजर से देखें तो ऐसे परिवर्तन चंद्रमा की कलाओं की वजह से होता होगा। एक नजरिया यह भी है कि आदमी व औरत, हो भले ही भिन्न, मगर मूलतः हैं तो इंसान ही। दोनों में काफी साम्य है। जैसे औरत के स्तन होते हैं तो आदमी के भी स्तन होते हैं, मगर वे निश्क्रिय अवस्था में, अनुपयोगी।


शनिवार, मार्च 08, 2025

खूबसूरत चीज का देख कर थुथकारा क्यों करते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आपने देखा होगा कि जब भी हम किसी व्यक्ति अथवा वस्तु को देख कर उसकी तारीफ करते हैं तो सलाह दी जाती है कि थुथकारा कर दो, जमीन पर थूक दो, अन्यथा नजर लग जाएगी। हम यह तथ्य जानते हुए स्वयं भी ऐसा करते हैं। कई बार ऐसा भी पाया होगा कि जब हम किसी बच्चे की खूबसूरती का जिक्र करते हैं तो अंगुली को जीभ से स्पर्ष करके बच्चे के गाल या हाथ पर स्पर्ष करते हैं। इसी प्रकार जब हम मानते हैं कि अमुक आदमी की नजर लगी है तो उसका जूठा पानी पिलाने की सलाह दी जाती है। उसमें भी मूल रूप से थूक की ही भूमिका होती है। 

सवाल यह है कि इसके पीछे कौन सा साइंस है? थूक का नजर से क्या संबंध है? ऐसा प्रतीत होता है कि थूक लगाने या जूठा पानी पीने से दो षरीरों की कीमिया समान हो जाती है। तो जिस तारीफ की वजह से नजर लगी है, उसकी सघनता डाइल्यूट हो जाती है। दोनों षरीरों का गुणधर्म एक जैसा हो जाता है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि यूं तो किसी का जूठा खाने या पीने से मना किया जाता है, लेकिन आपको इस मान्यता का भी ख्याल होगा कि हम किसी का जूठा पानी पीते हैं तो उसके गुण हमारे भीतर आ जाते हैं। कई बार आपने देखा होगा कि अमुक व्यक्ति की किसी आदत पर हम कहा करते हैं कि आपने किस जूठा खाया है। जैसे कोई वाचाल है तो कहते हैं न कि इसका अन्न प्राषन्न संस्कार वाचाल मौसी ने किया था। कई समाजों में ऐसी प्रथा है कि नवजात बच्चे को पहला स्वाद किसी बुजुर्ग के जरिये कराया जाता है। वह जौ व गुड चबा कर उसका मामूली सा अंष बच्चे की जीभ पर रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे उसमें बुजुर्ग के गुण प्रवेष कर जाएंगे।

नजर उतारने का एक और तरीका भी अपनाया जाता है। कुछ जानकार सलाह देते हैं कि जब आपको लगे कि किसी व्यक्ति विशेष की नजर लगी है तो आप उससे अपने बच्चे के सिर पर हाथ फिरवा कर भी नजर उतार सकते हैं।

गुरुवार, मार्च 06, 2025

गणेशजी को जबरन मनाने का अनोखा तरीका

दोस्तों, लोग भगवान को, देवता को, अपने इष्ट को मनाने के लिए इस हद तक जा सकते हैं कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते। साधना और तपस्या तक तो ठीक है, मगर वे अनोखे तरीके अपनाने तक से नहीं चूकते। गणेशजी को ऐसे ही जबरन व अजीबोगरीब तरीके को देख कर मैं भोंचक्क रह गया। 

हाल ही तीर्थराज पुश्कर के निकट श्रीभट बावडी गणेष जी के मंदिर के दर्षन का सौभाग्य मिला। मंदिर में स्थित गणेष जी की मूर्ति के पास दीवार पर सिंदूर से स्वस्तिक का निषान उलटा अंकित हो रखा था। अज्ञान की वजह से कई लोग अपने घर के बाहर अथवा कॉपी-किताब पर स्वस्तिक का चिन्ह उलटा अंकित कर देते हैं। इस पर जानकार लोग उन्हें टोकते हैं कि स्वस्तिक का निषान सीधा बनाइये। सीधा अर्थात क्लॉक वाइज। वह प्रगति का सूचक भी है। यदि एंटी क्लॉक वाइज बनाएंगे तो मान्यता है कि अवगति होगी। आपको ख्याल में होगा कि वास्तु षास्त्र के अनुसार मकान में सीढियां भी क्लॉक वाइज बनाई जाती हैं। एंटी क्लॉक वाइज सीढी अनिश्ट की सूचक मानी जाती है। खैर, लेकिन एक जाने-माने मंदिर में, जिसके प्रति हजारों श्रद्धालुओं की आस्था हो, स्वस्तिक उलटा अर्थात एंटी क्लॉक वाइज बना हो तो चौंकना स्वाभाविक है। किसी व्यक्ति का इतना इतना दुस्साहस कैसे हो सकता है। मैं तो उसका फोटो तक लेने का साहस नहीं जुटा पाया। मैंने मंदिर के पुजारी से पूछा कि यह क्या है? स्वस्तिक का उलटा निषान? इस पर पुजारी ने बताया कि यह किसी ऐसे व्यक्ति की हरकत है, जिसे किसी तांत्रिक ने यह सलाह दी होगी कि यदि गणेष जी आपकी गुहार न सुन रहे हों तो स्वस्तिक उलटा अंकित कर दीजिए। इससे गणेष जी का ध्यान जल्द आकर्शित होगा। उन्हें आपकी अर्जी मंजूर करनी ही होगी। कमाल है। अपने इश्ट को मनाने के लिए लोग किस हद तक चले जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक तरह का हठयोग है, जिसमें बंदा रब से हठपूर्वक मांगता है। कई सवाली भी अपनी मांग के लिए अड जाते हैं और बताते हैं कि यदि आस्था बहुत मजबूत हो तो उसकी मांग पूरी होती भी है।

https://www.youtube.com/watch?v=FbJ-hnwP4RU

बुधवार, मार्च 05, 2025

भोजन करते वक्त उसका अंश गिरने का क्या मतलब है?

क्या भोजन करते समय उसका अंश यानि थोड़ा सा हिस्सा गिर जाने का भी कोई अर्थ हो सकता है? यह सवाल मेरे मन में तब उठा, जब एक बार भोजन करते वक्त सब्जी का छोटा सा अंष मेरी षर्ट पर गिरा तो मेरी ताई ने बताया कि ऐसा हमारे यहां पुरखों से होता आया है। हालांकि वे यह नहीं बता पाई कि ऐसा होता क्यों है या इसका क्या अर्थ है। मैने बहुत खोजा। कई विद्वानों से पूछा। हालांकि ठीक ठीक संतुश्टिपूर्ण जवाब तो नहीं मिला, लेकिन भिन्न भिन्न धारणाएं सामने आईं।

एक मान्यता है कि भोजन का गिरना इस बात का संकेत है कि घर में समृद्धि रहेगी और भोजन की कभी कमी नहीं होगी। एक धारणा यह है कि यदि भोजन खाते समय कुछ गिर जाए, तो यह संकेत हो सकता है कि घर में कोई अतिथि आने वाला है। कुछ परंपराओं में भोजन को ईश्वर का प्रसाद माना जाता है और उसका गिरना इस बात का संकेत हो सकता है कि किसी और पशु-पक्षी या जरूरतमंद को भी इसका भाग मिलना चाहिए था, जो कि हमने नहीं दिया। कुछ लोग इसे अशुभ भी मानते हैं, खासकर यदि भोजन बार-बार गिर रहा हो, तो इसे अनिष्टकारी संकेत के रूप में देखा जा सकता है।

ये सब धारणाएं हैं, इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। वैज्ञानिक आधार केवल इतना है कि हम भोजन करते वक्त असावधानी बरतते हैं या जल्दबाजी करते हैं, इस कारण ऐसा घटित होता है।


मंगलवार, मार्च 04, 2025

वे ताजिंदगी आइने में चेहरा नहीं देखते


दोस्तों, बताते हैं कि तिब्बत में एक साधना पद्धति ऐसी भी है, जिसमें लोग ताजिंदगी आइने में अपना चेहरा नहीं देखते। यहां तक कि पानी या तेल की सतह पर भी नजर नहीं डालते कि कहीं उसमें चेहरा न दिखाई दे जाए। विद्वान मानते हैं कि उसके पीछे उनका गहन दर्षन है। वो यह है इस पद्धति में मोक्ष के लिए दुनिया में रहते हुए भी दुनिया के प्रति अनासक्ति की साधना की जाती है। मानसिक स्तर पर दुनिया से संबंध विच्छेद का प्रयास किया जाए। उनका मानना है कि अगर हमें यह पता हो कि हम कैसे दिखते हैं, हमारा चेहरा कैसा है तो उससे भी अटैचमेंट हो सकता है। दुनिया से विरक्त होने में पर्याप्त सफलता मिल भी जाए तो भी आखिर में अपने चेहरे से लगाव बाधक बन सकता है। अपना चेहरा ही मोक्ष में रुकावट बन जाता है। इसके लिए वे पूरी जिंदगी आइने में अपना चेहरा नहीं देखते। है न विलक्षण साधना पद्धति।


सोमवार, मार्च 03, 2025

कौन अधिक खूबसूरत आदमी अथवा औरत?


यही सही है कि आदमी को औरत खूबसूरत दिखती है और औरत को आदमी खूबसूरत नजर आता है, मगर यह आम धारणा है कि निरपेक्ष रूप से देखा जाए तो औरत आदमी की तुलना में अधिक खूबसूरत होती है। मगर पाकिस्तान के मुफ्ती तारीक मसूद कहते हैं कि आदमी में नूर ज्यादा होता है। बेषक खुदा ने औरत को हुस्न दिया है, मगर आदमी को जो जमाल दिया है, उसका दर्जा उंचा है।

कुछ लोग कह सकते हैं कि इस मान्यता के पीछे मौलिक रूप से पुरूशवादी मानसिकता है। चूंकि प्रकृति में पुरूश अधिक मुखर है, इस कारण उसकी धारणा सही प्रतीत होती है। आप देखिए ने औरत की खूबसूरती की बाकायदा नुमाइष होती है। नाइट क्लब्स में औरत का प्रदर्षन हाता है। मजबूरी में या स्वैच्छा से, वह इसके लिए राजी भी है। फैषन षो होते हैं। हालांकि अब पुरूश भी भागीदारी कर रहा है। हो सकता है औरत की मानसिकता इससे भिन्न हो। वह पुरूश को अधिक खूबसूरत करार दे सकती है। दूसरी ओर पाकिस्तान के मुफ्ती तारीक मसूद अपने बयान में इससे इतर राय रखते हैं। वे कहते हैं कि औरत आदमी को और आदमी औरत को खूबसूरत कहेगा ही, लेकिन अगर गैर इंसान अर्थात अन्य मखलूकात से पूछेंगे और अगर वह बता सकता हो तो यही कहेगा कि इंसान में आदमी ज्यादा खूबसूरत होता है। उसकी वजह ये है कि आदमी में जमाल होता है। आदमी में नूर ज्यादा होता है। बेषक खुदा ने औरत को हुस्न दिया है, मगर आदमी को जो जमाल दिया है, उसका दर्जा उंचा है।

दिलचस्प बात है कि ने इंसान के अतिरिक्त अन्य सभी जीव जंतुओं में मादा की बजाय नर को अधिक खूबसूरत बनाया है। आप देखिए कि मोरनी की तुलना में मोर, मुर्गी की तुलना में मुर्गा, घोडी की तुलना में घोडा, बकरी की तुलना में बकरा, षेरनी की तुलना में षेर अधिक खूबसूरत होता है। 

ऐसे में सवाल उठता है कि जब सारी मखलूक में मादा की तुलना में नर ज्यादा खूबसूरत होता है तो इंसान में यह नियम लागू क्यों नहीं होना चाहिए? 

https://www.youtube.com/watch?v=bWqOZEiE_R8&t=26s

महिलाएं अंतिम संस्कार में शामिल क्यों नहीं होती?

हालांकि परिजन के निधन पर विशेष परिस्थितियों में महिलाएं शवयात्रा और अंतिम संस्कार के दौरान श्मशान स्थल पर मौजूद रहती हैं, मगर आमतौर पर केवल पुरुष ही अंत्येष्टि में शामिल होते हैं। महिलाओं के लिए श्मशान स्थल वर्जित होने के पीछे जरूर कोई कारण होंगे। आइये, उन्हें समझने की कोशिश करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पुरूशों की तुलना में महिलाएं कोमल हृदय होती हैं। यद्यपि निकट संबंधी के निधन पर पुरूश भी रोते हैं, लेकिन व्यवहार में पाया गया है कि महिलाएं अधिक विलाप करती हैं। अंतिम संस्कार का प्रयोजन ही यह होता है कि मृत आत्मा का षरीर के अतिरिक्त इस जगत से संबंध विच्छेद हो जाए, कपाल क्रिया उसका ही हिस्सा है, लेकिन महिलाओं के रोने की अवस्था में संबध विच्छेद की प्रक्रिया में बाधा आ सकती है। ऐसा माना जाता है कि ष्मषान स्थल पर अषांत मृत आत्माएं विचरण करती रहती हैं, जो कोमल मन वाली महिलाओं में प्रवेष कर सकती हैं। अंतिम संस्कार के दौरान घर सूना न रहे, इसलिए भी महिलाओं को घर पर रहने की सलाह दी जाती है। बदले हालात में अब भाइयों के अभाव में बहिनें अपने माता पिता के निधन पर अर्थी को कंधा देने लगी है, जिसे नारी सषक्तिकरण के रूप में देखा जाता हे, मगर आज भी आम तौर पर महिलाएं अंतिम संस्कार में नहीं जातीं। यह परंपरा पुरूश प्रधान समाज की द्योतक है। महिलाओं ने भी इस व्यवस्था को स्वीकार कर रखा है। हालांकि महिलाओं के ष्मषान स्थल पर जाने पर कोई रोक नहीं है।


https://www.youtube.com/watch?v=mtuY661u6MA


शनिवार, मार्च 01, 2025

सूफी चक्कर नृत्य क्यों करते हैं?

आपने देखा होगा कि बच्चों को खेलते खेलते अपने स्थान पर खडे हो कर चक्कर लगाने की इच्छा होती है। लेकिन हम उसे यह कह कर रोक देते हैं कि आपको चक्कर आ जाएगा। और यह सही भी है। नृत्य के दौरान भी चक्कर लगाया जाता है, लेकिन उतनी ही देर, जब तक चक्कर न आने लग जाए। आपने भी कभी चक्कर लगा कर देखा होगा। चार पांच बार चक्कर लगाने के बाद जैसे ही आप रूकते हैं, सिर घूमने लगता है, सिर चकराने लगता है। आप आंख बंद कर लेते हैं। लेकिन धीरे धीरे चक्कर कम होते होते आप स्थिर हो जाते हैं। निर्विचार होने लगते हैं क्योंकि आप एक केन्द्र पर स्थित हो जाते हैं। बस इसी क्षण ध्यान की हल्की सी झलक दिखाई देती है। इसी सूत्र को गहराई से जान कर सूफियों ने चक्कर नृत्य को इजाद किया। 

आपने देखा होगा कि एक तो वे आंखें बंद रखते हैं। इससे सिर कम चकराता है। यह ठीक वैसा ही है, जैसे घाणी के बैल कर आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है, ताकि उसे चक्कर न आएं। दूसरा ये कि सूफी हाथ फैला कर रखते हैं, ताकि षरीर का संतुलन बना रहे। साथ ही ऐसा संगीत बजाया जाता है, जिसे सुनने से षक्ति मिलती है। उर्जा मिलती है। वस्तुतः इसके लिए अभ्यास करना होता है। अभ्यास से चक्कर लगाने का समय बढाया जाता है। जितने अधिक चक्कर लगाए जाते हैं, स्थिर होने पर उसी के अनुपात में ध्यान बना रहता है।

विकीपीडिया के अनुसार सूफी चक्कर शारीरिक रूप से सक्रिय ध्यान का एक रूप है, जो कुछ सूफी समूहों के बीच उत्पन्न हुआ है और जो अभी भी मेवलेवी आदेश के सूफी दरवेशों और अन्य आदेशों जैसे रिफाई-मारुफी द्वारा अभ्यास किया जाता है।

जानकारी के अनुसार चक्करदार दरवेशों की स्थापना रहस्यवादी कवि रूमी ने 13वीं शताब्दी में की थी। प्रारंभ में सूफी बिरादरी को संगठित किया गया था, जहां सदस्यों ने एक शेख या गुरु के साथ विश्वास स्थापित करने के लिए सेवा में निर्धारित अनुशासनों का पालन किया था। ऐसी बिरादरी के सदस्य को फारसी दरवेश कहा जाता है। ये तुर्क धार्मिक जीवन की एक इस्लामी अभिव्यक्ति के आयोजन के लिए जिम्मेदार थे, जो अक्सर स्वतंत्र संतों द्वारा स्थापित किया गया था। एक दरवेश कई अनुष्ठानों का अभ्यास करता है, जिनमें से प्राथमिक है जिक्र, अल्लाह को याद करना। 

एक तथ्य यह भी है कि घूमते हुए उसकी भुजाएं खुली हैं उसका दाहिना हाथ आकाश की ओर निर्देशित है, जो ईश्वर का उपकार प्राप्त करने के लिए तैयार है उसका बायाँ हाथ, जिस पर उसकी आँखें टिकी हैं, पृथ्वी की ओर मुड़ा हुआ है। वह भगवान के आध्यात्मिक उपहार को उन लोगों तक पहुँचाता है जो उसको देख रहे हैं। एक लंबी आस्तीन वाली जैकेट, एक बेल्ट, और एक काला ओवरकोट या खिरका जिसे भंवर शुरू होने से पहले हटा दिया जाता है। जैसा कि अनुष्ठान नृत्य शुरू होता है, दरवेश सिर के चारों ओर लिपटी एक पगड़ी के अलावा एक फेल्ट टोपी, एक सिक्का पहनता है, जो मेवलेवी आदेश का एक ट्रेडमार्क है। 

शेख नाचने की जगह के सबसे सम्मानित कोने में खड़ा होता है, और दरवेश तीन बार उसके पास से गुजरते हैं, हर बार अभिवादन का आदान-प्रदान करते हैं, जब तक कि परिक्रमा शुरू नहीं हो जाती। रोटेशन स्वयं बाएं पैर पर होता है, रोटेशन का केंद्र बाएं पैर की गेंद होती है और पैर की पूरी सतह फर्श के संपर्क में रहती है। रोटेशन के लिए प्रेरणा दाहिने पैर द्वारा प्रदान की जाती है, पूर्ण 360-डिग्री कदम में। यदि एक दरवेश बहुत अधिक मुग्ध हो जाता है, तो एक अन्य सूफी, जो व्यवस्थित प्रदर्शन का प्रभारी होता है, धीरे-धीरे अपने आंदोलन को रोकने के लिए अपनी फ्रॉक को छूएगा। दरवेशों का नृत्य इस्लाम में रहस्यमय जीवन की सबसे प्रभावशाली विशेषताओं में से एक है , और इसके साथ संगीत अति सुंदर है, जो पैगंबर के सम्मान में महान भजन नात-ए शरीफ से शुरू होता है और तुर्की में गाए जाने वाले छोटे, उत्साही गीतों के साथ समाप्त होता है। 

https://www.youtube.com/watch?v=XZxcXCZlldg

क्या यह धरती ही नर्क है?

एक उक्ति है नानक दुखिया सब संसार। अर्थात पूरा संसार दुखी है। यहां हर व्यक्ति दुखी है। चाहे बहुत धनवान हो या सत्ताधीष, दिखता भले ही सुखी हो, मगर उसके भी अपने दुख होते हैं। कोई विपन्नता के कारण परेषान है, तो कोई औलाद न होने के कारण, कोई औलाद के नालायक होने से दुखी है तो कोई पति अथवा पत्नी से संतुश्ट नहीं है। कोई गंभीर बीमारी से पीडित है तो कोई अपनी संतान के बीमार होने के कारण। संसारी मनुश्यों की छोडिये, संत-महात्मा तक व्याधियों से पीडित देखे गए हैं। ऐसे में यह सवाल खडा होता है कि कहीं यह धरती ही तो नर्क नहीं है। बेषक यहां सुख भी हैं, मगर उसका अंत तो दुख ही है। हालांकि षास्त्रों में स्वर्ग व नर्क का अलग से उल्लेख है, और धरती को कर्म व भोग की भूमि कहा गया है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि ये धरती ही नर्क है। बेषक यह कर्म भूमि है। मनुश्य को कर्म की सुविधा है, जो कि पषु को नहीं है। लेकिन प्रत्यक्षतः प्रतीत होता है कि इस धरती पर कोई भी सुखी नहीं है। अव्वल तो तथाकथित नर्क देखा किसने है। अगर नर्क अलग से है तो फिर धरती पर नारकीय दुख क्यों हैं, वे तो नर्क में ही होने चाहिए थे। हां, इतना जरूर हो सकता है कि तथाकथित नर्क में धरती से कई गुना अधिक दुख भोगने पडते हों।

https://www.youtube.com/watch?v=fMIjR-qDGFU&t=41s


शुक्रवार, फ़रवरी 28, 2025

खाना खाते वक्त जीभ या गाल क्यों कट जाते हैं?

एक परिवार के सदस्य आपस में कितने गहरे जुडे होते हैं और उनके अस्तित्व के बीच कितना अंतरसंबंध होता है, एक इसका एक रोचक उदाहरण मेरे ख्याल में आता है। जिसका जिक्र मेरी माताजी किया करती थी।

आपने देखा होगा कि जब भी खाना खाते वक्त अचानक जीभ दांत की चपेट में आ जाए या दांत से गाल कट जाए तो यही कहा जाता है घर से बाहर गए अमुक सदस्य को भूख लगी होगी। ऐसी मान्यता है तो जरूर इसे अनुभव किया गया होगा। जीभ या गाल कटने की घटना को हम भले ही एक संयोग या सामान्य घटना मानें, मगर अवष्य जानकार लोगों ने इसका कारण खोजा होगा। किसी षास्त्र में इसका जिक्र है या नहीं, पता नहीं, मगर एक नजरिया यह हो सकता है कि जब भी बाहर गए व्यक्ति को भूख लग रही होगी यानि मुख खाने की चाह कर रहा होगा तो जैसे ही घर बैठा भोजन करता है तो आपस में अंतरसंबंध होने के कारण उसके मुख में विचलन होता होगा और जीभ या गाल दांत की चपेट में आ जाता होगा। ऐसा भी हो सकता है कि इस प्रकार के प्रसंग मां और संतान के बीच अधिक होता हो, चूंकि उनका जुडाव नाभी से होता है। अर्थात यह हिचकी और आंख फडकने जैसी एक प्राकृतिक संकेत प्रणाली हो सकती है। आपको जानकारी होगी ही कि हिचकी आने पर ऐसा माना जाता है कि कोई याद कर रहा है। यह मेरा अनुमान या कयास मात्र है। यदि आपको इस संबंध में ठीक ठीक जानकारी हो तो मेहरबानी करते कमेंट जरूर कीजिए।

https://www.youtube.com/watch?v=Q9QDEpVncZM


बुधवार, फ़रवरी 26, 2025

क्या शिव और शंकर अलग-अलग हैं?

हमारी जनचेतना में यह बात गहरे बैठी है कि शिव और शंकर एक ही हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं समझा जाता। जब भी शिव लिंग पर जल चढ़ाते हैं तो मन में त्रिशूलधारी, त्रिनेत्र व नील कंठ की प्रतिमा होती है, जिनकी जटा से गंगा निकलती है। शंकर भगवान का वाहन नंदी को माना जाता है और शिव लिंग के सामने भी नंदी बैल की प्रतिमा स्थापित की जाती है। दोनों के नाम का उच्चारण भी एक साथ किया जाता है, यथा शिव शंकर, शिव शंभू, शिव भोलेनाथ। शिव लिंग पर भी वैसा ही त्रिनेत्र बनाया जाता है, जैसा शंकर के है। दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो कि इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं। उनके अपने तर्क हैं।

जो लोग दोनों को अलग मानते हैं, हो सकता है कि उन्हें मतिभ्रम हो या फिर यह एक गूढ़ रहस्य हो, मगर उनके इस तर्क में जरूर दम है कि भगवान शंकर तो खुद ही शिव लिंग के आगे ध्यान करते हैं। ऐसी तस्वीरें मौजूद हैं। यहां तक अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी शिव लिंग की आराधना करते हैं। अर्थात जिस परम सत्ता का प्रतीक शिव लिंग है, वह महादेव व राम से भी ऊपर हैं। वे ही सृष्टि की रचना, पालना व विनाश करने के लिए क्रमशरू त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की रचना करते हैं। अर्थात महेश परमात्मा शिव की रचना हैं तो फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं।  


एक और तर्क में भी दम है। वो ये कि शंकर तो सृष्टि का संहार करते हैं, उसकी रचना व पालन का भार ब्रह्मा व विष्णु पर है, तो फिर ऐसा कैसा हो सकता है कि सृष्टि का संहार करने वाले व त्रिदेव से ऊपर जो परम सत्ता है, वह और शंकर एक ही हों? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जिस पर केवल संहार का दायित्व है, रचना व पालन का अन्य पर तो वे परम सत्ता कैसे हो सकते हैं? 


सवाल ये भी उठता है कि हम जो शिव रात्री मनाते हैं, वह परमात्मा शिव की स्मृति में है या फिर महादेव शंकर की याद में? शिव रात्रि पर शिव लिंग की ही उपासना की जाती है, इससे लगता है कि शिव लिंग परमात्मा शिव का प्रतीक है। यदि भगवान शंकर ही शिव हैं तो उनका अलग प्रतीक बनाने की क्या जरूरत है। शंकर के ही समकक्ष ब्रह्मा व विष्णु के तो प्रतीक चिन्ह नहीं हैं। ऐसे में शंकर को शिव इसलिए नहीं माना जा सकता, क्यों वे तो साकारी देवता हैं, जिनकी लीलाओं का पुराणों व शास्त्रों में वर्णन है।


वेदों में भी यही लिखा है कि शिव निरंकारी है, उनका कोई आकार नहीं है, शिव लिंग तो एक प्रतीक मात्र है। बावजूद इसके यदि शिव व शंकर को एक ही मान लिया गया है तो जरूर कोई कारण होगा या फिर कोई गंभीर त्रुटि हो गई है।


https://youtu-be/s9tw6VECFQo


गुरुवार, फ़रवरी 20, 2025

अल्लाह से जुडे नायाब लफ्ज

आपने अल्लाह से जुडे ये लफ्ज सुने होंगे। माषाअल्लाह, जजाकअल्लाह, सुभानअल्लाह, इंषाअल्लाह आदि। इनका उपयोग भिन्न प्रसंगों में किया जाता है। आम तौर पर लोग इनके ठीक मायने नहीं जानते। आइये, समझने की कोषिष करते हैंः- 

माशाअल्लाह एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है जो अल्लाह ने चाहा या अल्लाह की मर्जी से। इसे आमतौर पर किसी अच्छी चीज, सफलता, सुंदरता या आशीर्वाद को देख कर कहा जाता है, ताकि बुरी नजर न लगे। किसी की तरक्की या सफलता पर, जैसे किसी ने परीक्षा में अच्छे नंबर हासिल किए, तो कहा जाता है माशाअल्लाह, बहुत अच्छे नंबर आए। खूबसूरती की तारीफ में, अगर कोई बच्चा बहुत प्यारा लगे, तो कहते हैं माशाअल्लाह, कितना प्यारा बच्चा है। नए घर, गाड़ी या किसी उपलब्धि पर, जब कोई नई चीज खरीदे या नया घर बनाए तो बधाई देने के साथ माशाअल्लाह कहा जाता है।

अगर कोई आपको माशाअल्लाह कहे, तो आप जजाकअल्लाह कहें, यानि अल्लाह तुम्हें भी बरकत दे, कह सकते हैं।

जजाक अल्लाह अरबी भाषा का एक इस्लामी वाक्यांश है, जिसका अर्थ होता है अल्लाह आपको बदला (प्रतिफल), बरकत दे।

यह वाक्यांश आमतौर पर तब कहा जाता है, जब आप किसी व्यक्ति का शुक्रिया अदा करना चाहते हैं, खासकर किसी अच्छे काम, मदद या भलाई के बदले में। जब कोई आपकी मदद करे या कोई अच्छा काम करे। जब किसी ने आपको दान दिया हो या आपकी सहायता की हो।

इसी प्रकार सुभान अल्लाह कब कहा जाता है? सुभानअल्लाह का अर्थ होता है अल्लाह पाक है या अल्लाह हर कमी से मुक्त है। इसे आमतौर पर अल्लाह की महानता, खूबसूरती या किसी अद्भुत चीज को देखकर कहा जाता है।

अल्लाह की महानता या कुदरत देख कर, जब कोई सुंदर नजारा, जैसे सूर्योदय, समुद्र या पहाड़ देखें तो कहा जाता है सुभानअल्लाह, कितनी खूबसूरत अल्लाह की कुदरत है। मुसलमान अपनी इबादत में सुभानअल्लाह का जिक्र करते हैं, खासकर नमाज के बाद या तसबीह (माला) पढ़ते समय।

अगर कोई सुभानअल्लाह कहे, तो आप भी सुभानअल्लाह या अल्लाहु अकबर कह सकते हैं।

इसी प्रकार इंषाअल्लाह तब कहा जाता है, जब हम कोई काम आरंभ कर रहे हों या आरंभ करने का संकल्प करते हों। इसका अर्थ होता है अल्लाह ने चाहा तो। यानि हर काम का श्रेय अल्लाह को दिया जाता है।


बुधवार, फ़रवरी 19, 2025

प्रार्थना या दुआ के वक्त सिर क्यों ढ़कते हैं?

आपने देखा होगा कि दरगाहों, गुरुद्वारों व सिंधी दरबारों में सिर ढ़कने की परंपरा है। इस परंपरा का सख्ती से पालन भी किया जाता है। दरगाहों में अमूमन टोपी पहनने की परंपरा है। टोपी न हो तो रुमाल से सिर ढ़कते हैं। गुरुद्वारों में पगड़ी न होने पर रुमाल का इस्तेमाल किया जाता है। कई सिंधी दरबारों में टोपी की व्यवस्था होती है, लेकिन आम तौर पर रुमाल से ही सिर ढ़का जाता है। अगर आपने लापरवाही में सिर नहीं ढ़ंका है तो अन्य श्रद्धालु आपको तुरंत टोक देते हैं। सिर ढ़कने की परंपरा क्यों है, यह सवाल कभी आपके जेहन में भी उठता होगा। मैने इस बारे में कई लोगों से चर्चा की। अनेक लोग इसे महज एक परंपरा मानते हैं और इसकी वजह नहीं जानते। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि इसे आदर का सूचक मानते हैं। कुछ जानकार लोग इसका धार्मिक कारण बताते हैं। वे कहते हैं कि इसके पीछे भी एक साइंस है। 

आइये, जरा इस पर विस्तृत चर्चा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि धर्म स्थलों में शुद्ध व पवित्र भाव होने के कारण किसी क्षण विशेष में शक्तिपात होने की संभावना रहती है। हमारा शरीर में उस शक्तिपात को सहन करने की क्षमता नहीं होती। विक्षिप्त होने अथवा मृत्यु होने का खतरा रहता है। चूंकि टोपी या रुमाल, यानि कि कपड़ा, कुचालक होता है, इस कारण वह शक्तिपात होने की स्थिति में उसे रोक देता है। आपने यह भी देखा होगा कि हिंदुओं में तिलक करते समय भी सिर ढ़कने की परंपरा है। अगर उस वक्त कपड़ा उपलब्ध नहीं है तो सिर पर हाथ रखते हैं। हालांकि हम जब हाथ रखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह आदर का सूचक है, लेकिन उसके पीछे भी शक्तिपात होने की संभावना का तर्क दिया जाता है। वैसे हाथ रखना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि हाथ कुचालक नहीं है। अलबत्ता रुकावट जरूर है। ऐसी मान्यता है कि भ्रूमध्य में अदृश्य तीसरा नेत्र सुप्तावस्था में विद्यमान है। तिलक से प्रतिष्ठित करने पर उस स्थान के जागृत होने की संभावना रहती है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जाता है। उस अवस्था में शक्तिपात होने की भी संभावना होती है। यज्ञादि में दौरान भी सिर पर कुशा या मौली का धागा रखने की परंपरा है। इसका संबंध भी कदाचित शक्तिपात से ही होगा।

हमारे यहां मंदिर में प्रवेश व आरती के वक्त, अरदास के समय और किसी के पैर छूने के दौरान, बड़े-बुजुर्गों के सामने स्त्रियां आवश्यक रूप से साड़ी अथवा चुन्नी के पल्लू से सिर ढ़कती हैं। इसे एक मर्यादित आचरण के रूप में लिया जाता है। इस मर्यादा की पालना मुस्लिमों में अधिक पायी जाती है। वे नमाज के वक्त सिर ढ़कते ही हैं। आपने देखा होगा कि मदरसों में जाते वक्त छोटे-छोटे बच्चे टोपी पहनते हैं और बच्चियां चुन्नी ओढ़ती हैं। सिख तो सदैव पगड़ी पहनते हैं। गांवों में अलग-अलग तरह की टोपियां व साफे पहनने का चलन है। इस पर चर्चा फिर कभी।

https://youtu.be/PvgFT-4YX_c

मंगलवार, फ़रवरी 18, 2025

ये डंकी रूट क्या है?

इन दिनों अमेरिका में अवैध रूप से रह रहे अप्रवासी भारतीयों को भारत लौटाया जा रहा है। कहा जा रहा है कि वे डंकी रूट से अमेरिका गए थे। डंकी रूट के मायने क्या हैं? कम ही लोगों को इसकी जानकारी होगी। इस सिलसिले में किसी समय अजमेर में जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सेवानिवृत्त अधिशाषी अभियंता रहे लेखक ई. शिव शंकर गोयल, जो कि इन दिनों दिल्ली में निवास कर रहे हैं, उन्होंने शोध किया है। उनकी जानकारी के अनुसार जब राजस्थान में, अगस्त 1968 में, सार्वजनिक निर्माण विभाग से निकल कर जन स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग का गठन हुआ तो नागौर जिले के बांका पट्टी इलाके में ग्राउंड वाटर में अधिक फ्लोराइड की समस्या मुंह बायें खडी थी। स्थानीय लोग वहां का पानी पी-पीकर कूबड, हाथ-पांव टेढे होना तथा दांतों की विभिन्न बीमारियां झेल रहे थे। विभाग ने उस स्थान से दूर एक जगह पीने योग्य पानी का पता लगा कर एक ट्यूब वैल खुदवाया और उसे गांवों से जोड़ने हेतु एक गांव में सर्वे टीम भेजी। टीम को देख कर गांव वाले भी इकट्ठे हो गये। उनमें से एक ने टीम के मुखिया से पूछ लिया कि इतने ताम-झाम के साथ कैसे आना हुआ? तो उन्हें बताया गया कि ट्यूब वैल से गांव तक आने का छोटे से छोटा रास्ता ढूंढना है ताकि पाइप लाइन बिछाई जा सके। इस पर गांव वालों ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि इस छोटे से काम के लिए इतना झंझट करने की क्या जरूरत है? जब रेलवे लाइन बिछी थी तो गांव से स्टेशन तक का छोटे में छोटा गेला (रास्ता) ढूंढना था तो हमने एक गधे को पीट कर उधर की तरफ छोड दिया। वह जिस जिस रास्ते से स्टेशन गया, उससे पता लगा कि वह सबसे सोरा (छोटा) रास्ता है। कहते हैं कि तभी से डंकी रूट चर्चा का विषय हो गया, जिसका इस्तेमाल गुजरात, पंजाब और हरियाणा के कुछ लोगों ने किया।

इस बारे में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में तनिक भिन्न जानकारी उपलब्ध है। 

उसके अनुसार डंकी रूट एक अवैध और खतरनाक प्रवास मार्ग को संदर्भित करता है, जिसका उपयोग लोग गैरकानूनी तरीके से एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए करते हैं। यह रूट मुख्य रूप से दक्षिण एशियाई देशों (भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि) से यूरोप, अमेरिका, कनाडा और अन्य विकसित देशों तक जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कई देशों से होते हुए गुप्त और खतरनाक रास्तों से यात्रा करनी पड़ती है, जैसे ईरान, तुर्की, ग्रीस के जरिए यूरोप में प्रवेश और दक्षिण और मध्य अमेरिका के रास्ते अमेरिका में प्रवेश (मेक्सिको बॉर्डर के जरिए) रूस, सर्बिया या अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से होकर। डंकी शब्द पंजाबी में छिप कर जाने या गैरकानूनी तरीके से यात्रा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसे डंकी इसलिए कहा गया क्योंकि लोगों को लंबी दूरी पैदल, खच्चरों (mules) या अन्य अवैध साधनों से तय करनी पड़ती है, जो गधों (Donkeys) पर बोझ ढोने की तरह कठिन और थकाने वाला होता है। पंजाब और अन्य भारतीय राज्यों के कई लोग कनाडा, यूरोप, अमेरिका जाने के लिए इस अवैध रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। पंजाबी बोलचाल में डंकी शब्द का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो बिना वीजा या कानूनी दस्तावेजों के किसी देश में घुसने की कोशिश करते हैं। समय के साथ यह शब्द खासकर अवैध रूप से विदेश जाने वाले प्रवासियों के लिए प्रचलित हो गया।

-तेजवाणी गिरधर

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असुरों को वरदान देते ही क्यों हैं त्रिदेव?

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे?

पुराणों और रामायण व महाभारत से जुड़ी कथाओं में इस बात का स्पष्ट जिक्र है कि अमुक असुर ने त्रिदेव या किसी देवी-देवता से प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हुए देवताओं, ऋषि-मुनियों आमजन को बहुत पीड़ित किया। इस पर दुखी हो कर वे त्रिदेव के पास गए और त्राहि माम त्राहि माम कहते हुए उस असुर की यातानाओं से मुक्ति के लिए प्रार्थना की। उन्होंने अपने वरदान की महत्ता को तो कायम रखा, मगर साथ ही देवताओं व ऋषि-मुनियों पर दया की और अपने ही वरदान का तोड़ निकाला। और इस प्रकार अंततः देवी-देवता, ऋषि-मुनि व आमजन परेशानी से मुक्ति पाते हैं। ऐसे अनेकानेक प्रसंग हैं। कोई गिनती ही नहीं।

सवाल ये है कि त्रिदेव या देवता असुरों को ऐसे वरदान देते ही क्यों हैं कि वे उसका दुरुपयोग कर सकें? क्या उन्हें इस बात का अहसास और इल्म नहीं कि असुर उस वरदान को दुनिया पर जुल्म ढ़हाने के लिए उपयोग करेगा? क्या किसी को आराधना, कठोर साधना व तप करने के बाद वरदान देना उनकी मजबूरी है, चाहे वह उसका दुरुपयोग करे? ऐसे वरदान भी जानकारी में हैं, जिनके साथ ये शर्त लगाई जाती है कि वे उसका उपयोग जनकल्याण के लिए करने की बजाय दुरुपयोग करेंगे तो वह स्वतः ही बेअसर हो जाएगा। मगर सच्चाई ये है कि असुरों द्वारा हासिल वरदानों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उनका दुरुपयोग किया ही जाता है। स्वाभाविक ही है कि असुर ऐसा ही करेंगे। वरना वे असुर ही क्यों कहलाते? वरदान भी ऐसे-ऐसे कि क्या कहें? जिनसे साफ झलकता है कि असुर उसका दुरुपयोग करेंगे ही। असल में वे शक्ति का वरदान हासिल ही इसलिए करते हैं, ताकि उसका उपयोग कर देवताओं का दमन करें। अपने साम्राज्य का विस्तार कर सकें। कोई असुर अजेय होने का वरदान पा लेता है तो कोई ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र व अन्य कई प्रकार के अमोघ अस्त्र वरदान स्वरूप हासिल कर लेता है, जिनका उपयोग महाविनाश के लिए किया जा सकता है। जब यह पहले से संज्ञान में है कि उनका उपयोग सृष्टि को नष्ट करने के लिए किया जा सकता है तो उसे देना ही नहीं चाहिए। 

जरा गौर कीजिए। भस्मासुर शंकर भगवान से किसी के भी सिर पर हाथ फेरने पर उसके भस्म हो जाने का वरदान पा लेता है। बाद में माता पार्वती का वरण करने की खातिर भगवान को ही भस्म करने पर आमादा हो जाता है। बड़ी युक्ति से भगवान को उससे मुक्ति मिल पाती है। उसकी भी एक कहानी है। ब्रह्मा जी व विष्णु भगवान भी पहले तो ऐसे ही अनेक वरदान असुरों को देते हैं और बाद में खुद ही उनके निवारण के रास्ते निकालते हैं। यानि समस्या भी वे ही पैदा करते हैं और समाधान भी खुद ही करते हैं। हिरण्यकश्यप की कथा सर्वविदित है। उसे न अस्त्र से न शस्त्र से, न अंदर न बाहर, न जमीन पर न आसमान में, न मानव द्वारा न पशु द्वारा मारे जाने की वरदान हासिल होता है। अर्थात भगवान पहले तो ऐसा वरदान दे देते हैं कि उसे विभिन्न तरीकों से मारा नहीं जा सकेगा और बाद में खुद ही तोड़ निकालते हुए नृसिंह अवतार लेकर युक्तिपूर्वक उसका वध करते हैं, ताकि उनका वरदान की कायम रहे और हिरण्यकश्यप भी मारा जा सके।

इन सब में एक बात कॉमन है, वो यह कि मृत्यु अवश्यंभावी है, जगत के इस अटल सत्य को ध्यान में रख कर ही वरदान दिए जाते हैं। किसी को भी अमरता का वरदान नहीं दिया जाता। दिया भी नहीं जा सकता। जैसे भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था, मगर में उसमें भी मृत्यु सुनिश्चित थी। बस इतना था कि उन्हें तभी काल वरण पाएगा, जब उनकी इच्छा होगी।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ असुर ही प्राप्त वरदान का दुरुपयोग करते हैं, ऐसे कई प्रसंग हैं, जिनमें देवता भी अपनी शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। बिलकुल वैसा ही व्यवहार करते हैं, जैसा कि आम मनुष्य करता है। ऋषि-मुनि तक मानवीय कामनाओं के वशीभूत हो कर कृत्य करते हैं। हां, इतना जरूर है कि ऐसे प्रसंगों की संख्या कम है। दुरुपयोग करने पर बाद में उन्हें भी शापित होना पड़ता है।

खैर, कुल मिला कर यह सवाल सिर ही चकरा देता है कि क्यों तो असुरों को वरदान दे कर उन्हें शक्तिशाली बनाया जाता है और फिर बाद में देवताओं के अनुनय-विनय पर दया करके असुरों का अंत किया जाता है।

यह तो हुई मोटी बु्द्धि और तर्क की बात। विषय का एक पहलु। जरा गहरे में जाएं तो और ही दृष्टिकोण उभरता है। ऐसा प्रतीत होता है कि परमसत्ता या प्रकृति द्वारा जगत के संचालन के लिए नकारात्मक व सकारात्मक शक्तियों का संतुलन बैठाया जाता है। यह जगत है ही द्वैत। अच्छाई और बुराई से मिल कर ही बना है। दोनों जगत के अस्तित्व के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। इनका जोड़, बाकी, गुणा, भाग सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा, सृष्टि के पालक भगवान विष्णु व सृष्टि के संहारकर्ता भगवान शंकर करते हैं। ये तीनो सृष्टि के नियामक आयोग के डायरेक्टर हैं, जो स्वयं भी शक्ति के आदि केन्द्र के नियमों की पालना करवाने के लिए बाध्य हैं।

दूसरा तथ्य ये समझ में आता है कि कठोर साधना करके कोई भी शक्ति हासिल कर सकता है, चाहे असुर हो या देवता। प्रकृति की आदि शक्ति उसमें कोई भेद नहीं करती। वह सदैव निरपेक्ष रहती है।

इस विषय पर कभी और विस्तार से गहरे में चर्चा करेंगे।

https://www.youtube.com/watch?v=GsUgnVxIs5k


रविवार, फ़रवरी 16, 2025

दैनिक राषिफल पर अविष्वास क्यों?

हर आम ओ खास की दैनिक राषिफल देखने में रूचि होती है। चाहे उस पर विष्वास हो या नहीं। यकीन न हो तो भी एक बार देख ही लेते हैं। यकीन न होने के पीछे तर्क यह होता है कि अमुक राषि का दिनमान पूरी दुनिया के लोगों पर कैसे लागू हो सकता है? जैसे राषिफल आता है कि अमुक राषि के लोग आज मालामाल होंगे। बेषक उस राषि के लोगों के लिए वैसा योग होता तो है, मगर सभी के लिए भिन्न भिन्न होता है, क्योंकि सभी की कुंडली में ग्रहों की स्थिति अलग अलग होती है। अगर मालामाल होने का योग लागू होता है तो भी सभी पर समान रूप से परिफलित नहीं हो पाता। इसे यूं समझिये। जैसे किसी दिन अमुक राषि के लोगों पर धन वर्शा का योग है, मगर सभी पर धन वर्शा होती नजर नहीं आती। असल में वर्शा तो सभी पर समान रूप से होती है, मगर उसका फल हर व्यक्ति की पात्रता के अनुसार मिलता है। जिसका पात्र एक लीटर का है तो उसे एक लीटर और जिसका पांच लीटर का है, उसे पांच लीटर जल मिलता है। गरीब भी मालामाल होता है, मगर पात्रता के अनुसार। जैसे उसके पास दस रूपये हैं तो उसे एक हजार मिलते हैं और जिसके पास पहले से एक हजार रूपये हैं तो उसे पचास हजार मिलते हैं। ऐसे में असमंजस होना स्वाभाविक है, षंका होना लाजिमी है।

https://youtu.be/k6Wt1yPMp-k