तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

मंगलवार, जून 17, 2025

भारत ने तो बहुत पहले ही बना लिया था मानव क्लोन

दोस्तो, नमस्कार। जिस मानव क्लोन को बनाने की वर्तमान में चर्चाएं हैं, ऐसे मानव क्लोन का इतिहास त्रेता युग से भी अधिक पुराना है। यह दावा रहा है प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का। कुछ साल पहले उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था कि ऐसे विस्मयकारी प्रयोग हमें वैदिक वांगमय में अनेकं बार सुनने अथवा पढ़ने को मिलते हैं। 

प्रज्ञा ज्योतिष शोध संस्थान के संचालक पं. पंतराम शर्मा का मानना है कि स्मरण विज्ञान व श्रुति परम्परा (ओरल ट्रेडिशन) के धीरे-धीरे निष्प्रभावी होने के कारण हम भूल गए कि क्लोनिंग और अंतरिक्ष युद्ध जैसे चौंकाने वाले विषय कभी भारतीय वेद, पुराण और इतिहास में व्यवहारिक प्रयोग में थे। क्लोनिंग (रक्त बीज) से उत्पन्न सैनिक पूर्ण कुशलता से युद्ध लड़ा करते थे। यहां तक की उनके पराक्रम और शौर्य का देवगण भी लोहा मानते

थे। श्री शर्मा के अनुसार मानव क्लोनिंग के विषय में वेद, पुराण व इतिहास में बहुत कुछ कहा गया है। हां, स्मरण विज्ञान के लुप्त प्रायः हो जाने और वर्तमान भौतिक विज्ञान की प्रचण्ड आंधी ने स्मृतियों के सारांश पर धूल की अनेक परतें अवश्य जमा दी है। दुर्गा सप्तसती में वर्णित रक्त बीज वध नामक अध्याय का विवरण युद्ध क्षेत्र में क्लोनिंग से असुर सैनिकों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है। हरिवंश पुराण के पंचम अध्याय में भी मानव क्लोनिंग का रोचक प्रसंग है, जिसमें राजा वेन के अनाचार से कुद्ध होकर महर्षियों ने वेन की दाहिनी भुजा का मंथन कर महान् सदाचारी महिपाल राजा पृथु को उत्पन्न किया। हरिवंश पुराणा में ही एक और उदाहरण देखने को मिलता है जिसमें एक अविवाहित ऋषि ने अपनी वंशवृद्धि की इच्छा से जंघा को चीरकर रक्त निकाला और स्वगुण स्वरूप पुत्र की उत्पत्ति की। ब्रह्मचारी हनुमान के पसीने से मकरध्वज की उत्पत्ति भी विचारणीय है। इन धारणाओं के चलते वर्तमान जैव वैज्ञानिकों द्वारा प्रचारित चिकित्सकीय क्लोनिंग प्रौद्योगिकी पर दृष्टिपात करें तो डॉली नामक भेड़ को क्लोनिंग के जरिए पैदा करने वाले ब्रिटिश वैज्ञानिक प्रो. ईयन विल्मट ने दावा किया कि वे कुछ अनुसंधान के बाद पूर्णतः विकसित मानव कोशिका से दूसरा मानव बना सकते हैं। इसी प्रकार जैव नीति शास्त्र विषय पर इन्डो-जर्मन कार्य शिविर में नीतिपरक चर्चा के दौरान बाखूम विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी प्रो. स्ट्रेफेर ने जैव नीति शास्त्र पर दार्शनिकों के साथ मिलकर निरंतर विचार- विनिमय की बात पर बल दिया। उन्होंने कहा कि रक्तबीज (क्लोनिंग) क उपयोग ठीक उसी तरह है, जिस प्रकार शूरवीर यौद्धा शस्त्रों का उपयोग आतंकवाद को नष्ट करने के लिए करता है तथा तमोगुणी असुर अपने शस्त्र बल का प्रयोग जन समूह को आतंकित करने के लिए करता है। भारतीय चिंतन में नीति और ज्ञान-विज्ञान की कहीं कमी नहीं है। कमी है सिर्फ स्मरण शास्त्र को लुप्त होने से बचाने की। वर्तमान सरकार द्वारा शिक्षा में स्थापित किए गए नये आयाम यदि निरंतर क्रमोन्नत होते रहे तो हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की पश्चिमी वैज्ञानिकों का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा।

इस मसले का एक पहुल यह है कि मानव क्लोनिंग तकनीकी रूप से सिद्धांत में संभव मानी जाती है, लेकिन वर्तमान में यह कानूनी, नैतिक और वैज्ञानिक सीमाओं के कारण व्यवहार में नहीं की जाती। क्लोनिंग का मतलब है किसी जीव का सटीक आनुवंशिक प्रतिरूप बनाना। 1996 में डॉली नाम की भेड़ को क्लोन किया गया था, जिससे यह साबित हुआ कि स्तनधारियों की क्लोनिंग संभव है। उसी तकनीक से, मानव कोशिकाओं की क्लोनिंग (जैसे स्टेम सेल थेरपी के लिए) प्रयोगशालाओं में की गई है, लेकिन पूरा मानव नहीं। क्लोनिंग से जन्मे जानवरों में अक्सर बीमारियां, असामान्यताएं, और कम जीवनकाल देखा गया है। तो इंसानों में ये खतरे और भी गंभीर हो सकते हैं।

ज्ञातव्य है कि लगभग हर देश में मानव क्लोनिंग पर रोक है, जैसे भारत, अमेरिका, यूरोप आदि में। संयुक्त राष्ट्र ने भी 2005 में इसके विरोध में प्रस्ताव पारित किया।

ज्ञातव्य है कि थेरेप्यूटिक क्लोनिंग को कुछ सीमित रूप से स्वीकार किया गया है, ताकि कैंसर, अल्जाइमर, पार्किंसंस जैसी बीमारियों का इलाज खोजा जा सके। लेकिन प्रजनन के लिए मानव क्लोनिंग पर सख्त प्रतिबंध है।

सैद्धांतिक रूप से मानव क्लोनिंग संभव हो सकती है, लेकिन आज की स्थिति में यह व्यावहारिक, नैतिक और कानूनी रूप से अस्वीकार्य है। भविष्य में विज्ञान और समाज की सोच में बदलाव के अनुसार इसमें परिवर्तन हो सकता है, लेकिन फिलहाल यह केवल विज्ञान कथा जैसा ही है।


https://youtu.be/nSF12IxYApE

https://ajmernama.com/thirdeye/433050/

क्या बृहस्पति देव और वीरल पीर एक ही हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आमतौर पर लोग बृहस्पति देव और वीरल पीर को एक ही मानते हैं, लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि दोनो एक ही नहीं हैं, लेकिन कुछ सांस्कृतिक और लोक आस्थाओं में लोगों ने इन दोनों में समानता या संबंध देखा है। 

वस्तुतः हिंदू धर्म में बृहस्पति देव को देवताओं के गुरु के रूप में जाना जाता है। वे ज्ञान, धर्म, सत्य और ज्योतिष में निपुण माने जाते हैं। बृहस्पति ग्रह को ज्योतिष में सबसे शुभ माना गया है और गुरु के रूप में पूजा जाता है। गुरुवार यानि (बृहस्पतिवार) को इनकी विशेष पूजा होती है, पीले वस्त्र, चना दाल, पीले फूल आदि चढ़ाए जाते हैं।

दूसरी ओर लोकदेवता स्वरूप वीरल पीर या वीर पीर को संन्यासी, योगी या संत के रूप में पूजा जाता है। इनका संबंध कई बार इस्लाम और हिंदू लोक परंपरा दोनों से जुड़ता है। राजस्थान, गुजरात और सिंध क्षेत्र में इनकी लोकपूजा होती है। इन्हें रोग निवारण, रक्षा और चमत्कारों के लिए जाना जाता है। कई बार मुस्लिम संतों को भी पीर कहा जाता है, जो चमत्कारी और मार्गदर्शक होते हैं। कई बार ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम मान्यताओं का मेल हो जाता है। इसलिए किसी संत या पीर को बृहस्पति देव का अवतार या प्रतिनिधि मान लिया जाता है। अगर वीरल पीर की पूजा गुरुवार को होती है, तो लोग उन्हें बृहस्पति से जोड़ सकते हैं। शास्त्रीय दृष्टिकोण से बृहस्पति देव और वीरल पीर अलग हैं, लेकिन लोक मान्यताओं और भक्ति परंपरा में उन्हें एक जैसा आस्था का प्रतीक माना जा सकता है।

राजस्थान और सिंध क्षेत्र में बृहस्पति देव और वीरल पीर को जोड़ने की परंपरा लोकविश्वास, सांस्कृतिक समन्वय और धार्मिक सह-अस्तित्व की भावना से उत्पन्न हुई है। 


https://youtu.be/bacfjSLkzHE


बुधवार, जून 11, 2025

क्या महाभारत को घर रखना उचित नहीं है?

दोस्तो, नमस्कार। यह एक आम धारणा है कि महाभारत ग्रंथ को घर में नहीं रखना चाहिए। विशेषकर कुछ परंपरागत हिन्दू परिवारों में। लेकिन इसका कारण धार्मिक से ज्यादा सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं- महाभारत एक ऐसे महायुद्ध की कथा है, जिसमें भाई-भाई आमने-सामने हो जाते हैं। इसलिए माना जाता है कि इसे घर में रखने से झगड़े और तनाव का वातावरण बन सकता है। बहुत सी परंपराएं कहती हैं कि अगर आप संपूर्ण महाभारत ग्रंथ ( यानि 18 पर्वों वाला) घर में रखते हैं, तो वह घर कलह का केंद्र बन सकता है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति अध्ययन के लिए अंशतः महाभारत जैसे गीता या भीष्म पर्व आदि रखता है, तो वह स्वीकार्य माना जाता है। वस्तुतः यह सोचने वाली बात है कि किसी पुस्तक को घर पर रखने से उसका प्रभाव कैसे पड सकता है। विद्वान कहते हैं कि कोई भी ग्रंथ खुद कलह नहीं लाता। हमारी सोच, व्यवहार और परिवार में प्रेम की भावना ही मूल कारण होते हैं। एक पहलु यह भी है कि महाभारत केवल युद्ध कथा नहीं, बल्कि उसमें नीति, धर्म, कर्तव्य और जीवन के गूढ़ रहस्य भी समाहित हैं। यह एक महान ग्रंथ है, विशेषकर गीता का उपदेश। ऐसे में यदि आप उसमें श्रद्धा और अध्ययन की भावना से रखते हैं, तो कोई दोष नहीं। दिलचस्प बात है कि गीता महाभारत का ही अंष है, मगर उसे हर घर में रखा जाता है और पढा जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तुविदों ने अपने हिसाब से व्याख्या करके ऐसी धारणा जन जन में डाली है कि युद्ध के ग्रंथ महाभारत को घर पर रखने से घर में झगडे व विवाद हो सकते हैं। जैसे युद्ध के चित्र घर की दीवार पर टांगने को लेकर भी धारणा है कि उससे घर का वातावरण खराब होता है। कुल जमा बात यह है कि महाभारत घर में नहीं रखने की धारणा आस्था जुडी हुई है तो उसका कोई उपाय नहीं, मगर असल में महाभारत को घर में रखना अशुभ नहीं है, बशर्ते आप उसे सही भाव से रखें।

https://ajmernama.com/thirdeye/432789/

https://youtu.be/GsXfDbTLeho


सोमवार, जून 09, 2025

कैसे पहननी चाहिए कछुए वाली अंगूठी?

दोस्तो, नमस्कार। कई लोग कछुए वाली अंगूठी पहनते हैं, उनमें से कई के मन में जिज्ञासा होती है कि उसकी दिषा क्या होनी चाहिए? कछुए वाली अंगूठी यानि टोरटोइज रिंग पहनते समय उसकी दिशा और पहनने का तरीका वास्तु शास्त्र और ज्योतिष के अनुसार विशेष महत्व रखता है। यह अंगूठी धन, सुख-शांति और सौभाग्य को आकर्षित करने के लिए पहनी जाती है। जानकार बताते हैं कि कछुए का मुख यानि सिर आपकी ओर यानी हथेली की ओर होना चाहिए। अर्थात जब आप अपनी हथेली देखें, तो कछुए का सिर आपकी ओर दिखे। ऐसा माना जाता है कि जब कछुए का मुख आपकी ओर होता है, तो वह ऊर्जा और समृद्धि आपकी ओर खींचता है। अगर उसका मुख बाहर की ओर हो, यानी नाखून की ओर, तो वह ऊर्जा बाहर की ओर धकेल सकता है, जिससे लाभ की बजाय हानि हो सकती है। यह अंगूठी आमतौर पर मध्यमा यानि मिडल फिंगर या अनामिका यानि रिंग फिंगर में पहनी जाती है। ज्योतिश परंपरा के अनुसार पुरुष दाएं हाथ में और महिलाएं बाएं हाथ में पहन सकती हैं। यह अंगूठी चांदी या पंचधातु में श्रेष्ठ मानी जाती है। इसके अतिरिक्त इसे पहनना शुक्रवार या सोमवार शुभ माना जाता है।

https://youtu.be/7V7sewBLduo


https://ajmernama.com/thirdeye/432667/

शनिवार, जून 07, 2025

क्या एआई हमें कभी अंतर्ध्यान कर पाएगा?

दोस्तो, नमस्कार। षास्त्रों में आपने देवी-देवताओं के अंतर्ध्यान होने के प्रसंग सुने होंगे। उन्होंने इसके लिए किस विधा का उपयोग किया, पता नहीं, मगर आज के वैज्ञानिक युग में भी इस पर प्रयोग किए जा रहे हैं। अंतर्ध्यान अर्थात इन्विजिबिलिटी की तकनीक पर विज्ञान और आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस दोनों ही अलग-अलग दृष्टिकोणों से काम कर रहे हैं।

विज्ञान की दृष्टि से देखें तो आज के युग में वस्तुओं को अदृश्य बनाना कुछ हद तक संभव हो चुका है, लेकिन बहुत सीमित परिस्थितियों में। मेटा मटीरियल्स का उपयोग करके वैज्ञानिक कुछ तरंगों (जैसे कि माइक्रोवेव या इन्फ्रारेड) को मोड़ सकते हैं, जिससे वस्तु दिखाई नहीं देती। 2020 में कुछ शोधों में छोटे स्तर पर ऐसी वस्तुओं को दिखाया गया, जो कुछ खास एंगल से अदृश्य लगती थीं।

एआई खुद अंतर्ध्यान नहीं कर सकता, लेकिन इसमें मदद कर सकता है। एआई मेटामटीरियल्स और नैनो टेक्नोलॉजी के डिजाइन में मदद कर सकता है, ताकि लाइट वेव्स को मोड़ा जा सके। एआई की मदद से अंतर्ध्यान के लिए उपयोगी संरचनाओं और फॉर्मूलों, सिमुलेशन और मॉडलिंग को तेजी से टेस्ट किया जा सकता है। किसी भी अंतर्ध्यान डिवाइस को नियंत्रित करने के लिए स्मार्ट सेंसिंग और रिएक्शन सिस्टम की जरूरत होगी। जिसमें एआई की बड़ी भूमिका हो सकती है। फिलहाल इंसानों को पूरी तरह अदृश्य बनाना केवल साइंस फिक्शन में ही संभव है।

ज्ञातव्य है कैमुफ्लाज सूट आसपास के वातावरण की छवि को डिस्प्ले करता है, जिससे व्यक्ति अदृश्य हो जाता है। ऑप्टिकल क्लोकिंग डिवाइसेज भी बने हैं, जो अभी बहुत प्रारंभिक स्तर पर हैं।

कुल मिला कर एआई खुद अंतर्ध्यान की तकनीक नहीं खोजेगा, लेकिन यह एक सहयोगी उपकरण की तरह वैज्ञानिकों की मदद करेगा। अभी तक पूरी तरह से कार्यशील अंतर्ध्यान तकनीक मानव के लिए उपलब्ध नहीं है, पर भविष्य में एआई़ मेटामटीरियल्स ़ नैनो टेक्नोलॉजी की मदद से यह संभव हो सकता है, खासकर सैन्य या रिसर्च एप्लिकेशन में।

कनाडा की कंपनी एक ने एक ऐसी शीट डिवाइस का दावा किया है जो पीछे की रोशनी को इस तरह बेंड करती है कि सामने खड़ा व्यक्ति गायब लगने लगता है। वे इसे लेंस आधारित क्लोकिंग बताते हैं, बिना बैटरी या प्रोजेक्शन के। एआई की मदद से हम जल्द ही ऐसे डायनामिक क्लोकिंग सिस्टम बना सकते हैं, जो किसी भी वस्तु को अपने वातावरण के अनुसार खुद को ढालने में सक्षम बनाए। लब्बोलुआब, पूरी तरह मानव अंतर्ध्यान अभी काल्पनिक है, लेकिन छोटे उपकरण, ड्रोन या वस्तुएं कुछ एंगल से अदृश्य बनाई जा सकती हैं।


https://youtu.be/2Sgs39KNia8


मंगलवार, जून 03, 2025

भगवान दयालु नहीं?

एक कहावत है कि जो होता है, वह अच्छे के लिए होता है अथवा जो होगा, वह अच्छे के लिए होगा। मैं इससे तनिक असहमत हूं। मेरी नजर में हमारे साथ वह होता है, जो उचित होता है। उसकी वजह ये है कि प्रकृति अथवा जगत नियंता को इससे कोई प्रयोजन नहीं कि हमारा अच्छा हो रहा है या बुरा। प्रकृति तो वही करती है, जो हमारे कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार उचित होता है। अच्छा या बुरा तो हमारा दृष्टिकोण है। जो हमारे अनुकूल होता है, उसे हम अच्छा मानते हैं और जो प्रतिकूल होता है, उसे बुरा मानते हैं। 

वस्तुतः प्रकृति निरपेक्ष भाव से काम करती है। जैसे सूरज की रोशनी अमीर पर भी उतनी ही गिरती है, जितनी की गरीब पर। सज्जन पर भी उतनी ही, जितनी दुष्ट पर। इसी प्रकार बारिश न तो महल देखती है और झोंपड़ी, वह तो सब पर समान रूप से गिरती है। 

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि जिन भी विद्वानों ने उपर्युक्त कहावत कही है, उसके पीछे हमें सकारात्मकता बनाए रखने का प्रयोजन है। अगर बुरा भी हो रहा होता है तो, जो कि उचित होता है, उसमें अच्छाई पर ही नजर रखने की प्रेरणा है। यह सही भी है कि अच्छाई व बुराई का जोड़ा है, जो अच्छा है, उसमें कुछ बुरा भी होता है और जो बुरा होता है, उसमें भी कुछ अच्छा होता है। हम निराश न हों, इसलिए कहा जाता है कि भगवान जो कर रहे हैं, उसमें जरूर हमारी भलाई है। यह सिर्फ मन को समझाने का प्रयास है। आपने यह उक्ति भी सुनी होगी- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये। अर्थात प्रकृति जो कर रही है, उसमें राजी रहें, वही हमारी नियति है, चूंकि उसके अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा भी नहीं है। बेहतर ये है कि हम उसे हमारे लिए उचित मान कर स्वीकार कर लें।

इसी कड़ी में यह बात जोड़ देता हूं। वो यह कि यह बात भी गलत है कि भगवान कृपा के सागर है, दयालु हैं। वे तो कर्म के अनुसार फल देते हैं। यदि बुरे कर्म करेंगे तो बुरा फल देंगे और अगर हम कर्म अच्छे करते हैं तो वह उसके अनुरूप अच्छा फल देने को प्रतिबद्ध हैं। दयालु तो तब मानते, जब कि हम कर्म तो बुरे करें और भगवान की कृपा से फल अच्छा मिले। ऐसे में कर्म का सिद्धांत झूठा हो जाता। पुनः दोहराता हूं कि परम सत्ता निरपेक्ष है। दया व क्रोध को वहां कोई स्थान नहीं। हां, इतना जरूर है कि चूंकि हमें कर्म करने की स्वतंत्रता मिली हुई है, इस कारण हम अच्छे कर्म करके बुरे कर्मों के प्रभाव को कम कर सकते हैं। 

मेरे ख्याल में एक बात और है। सही या गलत, पता नहीं। वो यह कि यदि हम बुरा कर्म कर चुके हैं और उसके बाद भगवान की भक्ति करते हैं, अनुनय-विनय करते हैं, माफी मांगते हैं, तो प्रायश्चित करने के उस भाव की वजह से, सच्चे दिल से गलती मानने से, कदाचित बुरे कर्म का बंधन कुछ कट जाने का भी सिद्धांत हो, जिसकी वजह से बुरे कर्म का उतना बुरा फल न मिलता हो, इस कारण भगवान को दयालु बताया जाता हो।

कुल जमा बात ये है कि यदि हम हमारा भला चाहते हैं तो अच्छे कर्म करें, बुरे कर्म करके ऐसी नौबत ही क्यों लाएं कि माफी की अर्जी लगानी पडें।


https://www.youtube.com/watch?v=MpE2nmTdOeQ

क्या एआई श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद रिकार्ड कर पाएगा?

दोस्तो, नमस्कार। इन दिनों आर्टिफिषियल इंटेलिजेंस का बोलबाला है। अनेक आयामों में उसकी सफलता देख कर सभी अचंभित हैं। उसके जरिए ब्रह्मांड के ऐसे रहस्यों की खोज हो रही है, जिसक कल्पना तक नहीं की गई थी। ऐसे में एक सवाल उभर कर आया है। कि महाभारत युद्ध में भगवान श्रीकृश्ण ने अर्जुन को गीता का जो उपदेष दिया गया था, उस संवाद को क्या रिकार्ड किया जा सकता है? ज्ञातव्य है कि गीता कोई लिखित ग्रंथ नहीं है, बल्कि श्रीकृश्ण-अर्जुन संवाद है। विज्ञान के अनुसार कोई भी ध्वनि कभी नश्ट नहीं होती। ब्रह्मांड में कहीं न कहीं मौजूद रहती है। इसी को ख्याल में रखते हुए किसी समय में ओषो ने कुछ वैज्ञानिकों के समूह को यह काम सौंपा था। कि उस संवाद को रिकार्ड किया जाए। सैद्धांतिक रूप से यह माना जाता था कि रिकार्डिंग संभव है। ओषो के निधन के बाद बात आई गई हो गई। आज जब एआई ने नई खोजों से चमत्कृत कर रखा है, यह सवाल उठा है कि क्या उसके जरिए श्रीकृश्ण-अर्जुन संवाद को रिकार्ड किया जा सकता है।

इस बारे में एआई के जानकारों का कहना है कि श्रीमद्भगवद् गीता वास्तव में श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद है, जो महाभारत के युद्धभूमि कुरुक्षेत्र में हुआ था। यह संवाद लगभग 5,000 वर्ष पूर्व घटित हुआ माना जाता है और इसे श्रुति अर्थात श्रवण से प्राप्त ज्ञान और शाश्वत सत्य के रूप में देखा जाता है, जो केवल शब्दों से नहीं, बल्कि अनुभव और चेतना की उच्च अवस्था से जुड़ा हुआ है। ताजा स्थिति ये है कि एआई वर्तमान में केवल उन ध्वनियों को रिकॉर्ड या पुनर्निर्मित कर सकता है जो कभी भौतिक रूप से उत्पन्न हुई हों और उनका कोई रिकॉर्ड मौजूद हो। चूंकि श्रीकृष्ण-अर्जुन का वास्तविक संवाद (ध्वनि रूप में) 5,000 वर्ष पहले हुआ और कोई भी यंत्र उस समय मौजूद नहीं था, इसलिए उस मूल ध्वनि को वह रिकॉर्ड नहीं कर सकता। कुछ वैज्ञानिक विचार (जैसे कि अकाश तत्व में ध्वनि का संग्रह क्वांटम रेजोनेंस आदि) यह संकेत करते हैं कि ब्रह्मांड में हर ऊर्जा, हर ध्वनि कहीं न कहीं प्रतिध्वनित होती है। यदि भविष्य में कोई ऐसी तकनीक बनती है जो ब्रह्मांडीय ध्वनि-अवशेष अर्थात कॉस्मिक साउंड इंप्रिंट्स को डिकोड कर सके, तब सैद्धांतिक रूप से शायद उस संवाद का कंपन पकड़ा जा सके। पर यह अभी कल्पना के क्षेत्र में ही है।

भारतीय दर्शन में कहा गया है कि गीता का ज्ञान अपौरुषेय (मनुष्य द्वारा न रचित) है, वह अनादि और शाश्वत है।

योगियों और ऋषियों के अनुसार, उस ध्वनि को केवल ध्यान, आंतरिक चेतना और श्रवण यानि इनर हियरिंग से अनुभव किया जा सकता है, न कि बाहरी यंत्रों से। इसे नाद या ओंकार के रूप में भी जाना जाता है, जिसे सूक्ष्म रूप में केवल अनुभवी साधक ही सुन सकते हैं। निश्कर्श यह कि उस मूल गीता संवाद की ध्वनि को वर्तमान में या निकट भविष्य में रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता।

शनिवार, मई 17, 2025

बुजुर्ग भाइयों के चेहरे मिलते जुलते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। पुरानी पीढी के लोगों को देखेंगे तो भाई भाई की षक्ल लगभग एक जैसी नजर आएगी। काफी समानता दिखाई देगी। जब कि आज ऐसा नहीं है। भाई भाई की षक्ल कम ही मिलती है। मिलती है तो थोडी बहुत। मेरे मित्र लक्ष्मण सतवानी उर्फ कालू भाई ने मुझे यह जानकारी दी। उनका कहना है कि पुराने समय में गर्भवती महिलाएं अमूमन घर में ही रहती थीं। बाहर कम ही निकलती थीं। सारे दिन उसके सामने घर के ही सदस्य होते थे। बाहर नहीं निकलने के कारण अन्य चेहरे उसके सामने आते ही नहीं थे। इस कारण संतान में बुजुर्गों का अक्स आता था। आजकल गर्भवती महिलाएं बाहर जाती हैं। नौकरी के लिए या किसी काम से। वह अन्य पुरूशों के चेहरे भी देखती है। इसका उसके मन मस्तिश्क पर असर पडता है। और उसका प्रभाव गर्भस्थ षिषु पर भी पडता है। कदाचित यह सही हो, मगर इस धारणा का वैज्ञानिक पहलु यह है कि भाई-भाई के चेहरों में समानता का मुख्य कारण जीन होते हैं। संतान अपने माता-पिता से जीन प्राप्त करती है। जब माता-पिता एक ही जातीय, सामाजिक या क्षेत्रीय पृष्ठभूमि से होते हैं (जैसा कि पहले अधिकतर होता था), तब उनकी संतानों में जीन का मेल अधिक होता है, जिससे भाई-भाई में अधिक समानता नजर आती है।

आजकल, अंतर्जातीय विवाह, अंतर-क्षेत्रीय विवाह अधिक होते जा रहे हैं, जिससे जीन का मिश्रण विविध हो गया है। इसका परिणाम यह है कि बच्चों में विविधता अधिक दिखने लगी है। निश्कर्श यह है कि यह धारणा कि गर्भवती महिला के द्वारा देखे गए चेहरों का प्रभाव भ्रूण के चेहरे पर पड़ता है, वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित नहीं है। पुराने समय में भाई-भाई में समानता अधिक इसलिए दिखती थी क्योंकि जीन पूल सीमित था और विवाह की विविधता कम थी।

आज की विविधता, मिश्रित समाज और व्यापक सामाजिक संपर्क ने अनुवांशिक विविधता बढ़ा दी है, जिससे चेहरे अलग-अलग नजर आते हैं। यह तय करने में कि बच्चा किसकी तरह दिखेगा, केवल और केवल जीन ही भूमिका निभाते हैं, न कि गर्भवती महिला ने किसे देखा या किनके साथ समय बिताया।

इस पर सवाल उठता है कि तो अमूमन लोग गर्भवति के कमरे में क्यों खुबसूरत बच्चे की फोटो लगाते हैं, इसलिए न कि गर्भस्थ शिशु भी सुंदर हो। इस बारे में वैज्ञानिक दृश्टिकोण यह है कि गर्भ के दौरान अच्छे पोषण, मानसिक शांति, और तनाव-मुक्त वातावरण से बच्चे के संपूर्ण विकास पर जरूर असर पड़ता है, लेकिन इससे चेहरे की सुंदरता नहीं बदलती। सकारात्मक माहौल से हॉर्मोन बैलेंस बना रहता है, जिससे शिशु का मानसिक और शारीरिक विकास बेहतर हो सकता है।


https://youtu.be/ShORoNDJLto


बुधवार, मई 14, 2025

केवल गहरी चिंता भी प्रार्थना बन जाती है?

जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है।

मेरे एक अति प्रिय मित्र श्री ऋशिराज षर्मा, जो कि वरिश्ठ पत्रकार हैं, ने अपने किसी दोस्त के हवाले से बताया कि जब हम किसी बात से परेषान होते हैं, तो अपने इश्ट देव से, भगवान से प्रार्थना करते हैं, खुदा से दुआ मांगते हैं। इस उम्मीद में कि वहां से मदद आएगी। आती भी है। इससे इतर अगर हम मदद की गुहार नहीं भी करते और चिंता में ही गहरे डूबे रहते हैं, तब भी वह प्रार्थना बन जाती है और प्रकृति से मदद आती है। प्रत्यक्षतः यह बात गले नहीं उतरती। यदि हम सहायता की प्रार्थना नहीं करेंगे तो भला कोई देवी-देवता, भगवान अथवा खुदा क्यों द्रवित हो कर कृपा करेगा। केवल चिंता में डूबने से क्या हो जाएगा?

इस विशय पर मैने इसलिए गहन चिंतन-मनन किया कि कोई अगर ऐसी बात कर रहा है, तो जरूर उसका कोई तो आधार होगा। हो सकता है कि उसका यह निजी अनुभव भी हो।

ऐसा प्रतीत होता है कि जब भी हम गहरी पीडा में होते हैं तो प्रकृति स्वयं आगे हो कर उसे दूर करने में जुट जाती है। इसका एक उदाहरण मेरे ख्याल में है। एक प्रवचन में ओषो ने जिक्र किया है कि ऐसे कई कीट-पतंग, जीव-जंतु हैं, जो दुर्घटनाग्रस्त होते हैं, जिन्हें कि मानव मदद नहीं मिलती, तो वे क्षतिग्रस्त भाग पर अपना पूरा ध्यान केन्द्रित कर लेते हैं, एकाग्र हो जाते हैं और प्रकृति उसे दुरूस्त करने लगती है।

यह बात उपर उल्लेखित बात से तनिक मेल खाती प्रतीत होती है। गहरी पीडा के वक्त भी आदमी एकाग्र हो जाता है, भले ही वह किसी देवता का स्मरण न कर रहा हो, मगर दुख से निवृत्ति का भाव तो होता ही है, ऐसे में कदाचित प्रकृति विकृत स्थिति को दुरूस्त करने लगती हो। इस तथ्य को हम लॉ ऑफ अटेक्षन से भी जोड कर देख सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि जब भी हम कोई मजबूत संकल्प लेते हैं तो प्रकृति की सारी षक्तियां उसे पूरा करने में जुट जाती हैं।

यह प्रकरण इसलिए जिक्र नहीं किया जा रहा कि दुख के समय में भगवान से मदद की गुहार करने की जरूरत नहीं है, बल्कि उस कीमिया को समझने का प्रयास मात्र है, जो कि प्रकृति में इनबिल्ट है। 

प्रकृति अपनी ओर से कैसे काम करती है, इसके एक दो छोटे उदाहरण देखिए। जब भी हमें चोट लगती है, खून बहता है तो जल्द ठीक होने के लिए हम दवाई लेते हैं, लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति खुद थक्का बना कर खून को बहने से रोकती है। इसे तो चिकित्सा विज्ञान भी स्वीकार करता है कि जब हड्डी टूटती है तो डाक्टर इतना भर करता है कि उसे ठीक से बैठा कर दर्द निवारक दवा दे देता है, मगर हड्डी को जाडने की स्वतः प्रक्रिया तो प्रकृति ही करती है। आपने देखा होगा कि कोई कुत्ता-बिल्ली आदि जानवर चोटिल हो जाते हैं तो अपनी जीभ से चोटग्रस्त स्थान को जीभ से चाटते हैं। विज्ञान कहता है कि जीभ की लार में घाव को ठीक करने के तत्व मौजूद रहते हैं। यह प्रकृति का ही तो कमाल है कि भोजन करते वक्त, पानी पीते वक्त उसका कुछ अंष अगर ष्वास नली में चला जाए तो प्रकृति उसे खांसी के जरिए बाहर निकालने लग जाती है। जब भी कोई विशाक्त पदार्थ षरीर के भीतर प्रवेष करता है तो प्रकृति उसे बाहर निकालने की कोषिष करती है, जिसे हम उल्टी करना कहते हैं।

कुल मिला कर इस निश्कर्श पर पहुंचा जा सकता है कि प्रकृति सदैव संतुलन करने में जुटी रहती है। जहां भी विकृति होती है तो उसे फिर से ठीक कर प्राकृतिक अवस्था में लाने में प्रवृत्त होती है। षायद यही सिद्धांत हमारे गहरे चिंतित होने पर भी लागू होता हो। और हम यह सोचते हैं कि अमुक देवी-देवता की प्रार्थना करने से दुख की निवृत्ति हुई है, जबकि असल में वह प्रकृति का कमाल हो।


https://www.youtube.com/watch?v=bMBH2cV8Wpw

शुक्रवार, मई 09, 2025

चौक में तवा उलटा रखने से बंद हो जाती है बारिश?

बारिश होने पर तो कई कहावतें हैं मगर एक कहावत ऐसी भी है जो बारिश को रोकने के टोटके के रूप में काम में ली जाती है। इस दिलचस्प टोटके के अनुसार अगर बारिश नहीं थम रही हो तो चौक में तवे को उलटा करके रख देने से बारिश धीमी पड़ जाती है या थम जाती है। जी हां, यह बहुत पुरानी मान्यता है। आइये कुछ और कहावतों के बारे में जानते हैंः-

मौसम विभाग तो सेटेलाइट के माध्यम से पता लगाता है कि कहां कितनी बारिश होने की संभावना है और वह ज्यादा बारिश होने की चेतावनी भी देता रहता है, मगर पुराने जमाने में जब विज्ञान उन्नत अवस्था में नहीं था, तब प्रकृति के अनेक संकेतों से बारिश का अनुमान लगाया करते थे। इन संकेतों ने मान्यताओं व कहावतों को जन्म दिया। 

बारिश होने पर तो कई कहावतें हैं मगर एक कहावत ऐसी भी है जो बारिश को रोकने के टोटके के रूप में काम में ली जाती है। इस दिलचस्प टोटके के अनुसार अगर बारिश नहीं थम रही हो तो चौक में तवे को उलटा करके रख देने से बारिश धीमी पड़ जाती है या थम जाती है। जी हां, यह बहुत पुरानी मान्यता है।

आइये कुछ और कहावतों के बारे में जानते हैं

मौसम व खेती के बारे में भड्डरी व घाघ कवि की कहावतें बहुत चलन में हैं।

एक कहावत है कि शुक्रवार की बादली शनिचर छाय। ऐसा बोल भडुरी बिन बरसे नहीं जाय। अर्थात शुक्रवार के दिन होने वाले बादल आकाश में शनिवार तक ठहर जाएं तो वर्षा अवश्य होगी।

नक्षत्र भी बारिश के बारे में संकेत दिया करते हैं। जैसे अगस्त्य नामक तारे का उदय हो तो मान लीजिए कि बारिश समाप्त होने वाली है। कहावत है- अगस्त ऊगा, मेह पूगा। इसी कड़ी में कहावत है कि जे मंडे तो धार न खंडे, अर्थात यदि बारिश फिर भी हो जाए तो मान कर चलिए कि बारिश जम कर होगी, थमेगी ही नहीं।

अकाल पडऩे के बारे में नक्षत्र संकेत देते हैं, वो यह कि अक्षय तृतीया पर रोहणी नक्षत्र न हो, रक्षाबंधन पर श्रवण नक्षत्र न हो और पौष की पूर्णिमा पर मूल नक्षत्र न हो तो अनावृष्टि की आशंका होती है। इसको लेकर कहावत है- अक्खा रोहण बायरी, राखी सरबन न होय। पो ही मूल न होय तो, म्ही डूलंती जोय।

इसी प्रकार - अषाढ़ सुदी हो नवमी, ना बादल ना वीज। हल फारो इंधन करो, बैठो चाबो बिज। अर्थात आषाढ़ शुक्ल पक्ष नवमी को आकाश में बादल-बिजली कुछ नहीं हो तो वर्षा बिलकुल नहीं होगी और सूखा पड़ेगा।

यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है। इसकी कहावत है- भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय। ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।

यदि गिरगिट पेड़ पर उल्टा होकर अर्थात पूंछ ऊपर की ओर करके चढ़े तो समझना चाहिए कि इतनी वर्षा होगी कि पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। इसकी कहावत है - उलटे गिरगिट ऊँचे चढै। बरखा होइ भूइं जल बुडै।।

एक कहावत तो बहुत प्रचलित है, वो यह कि चिडिय़ा धूल में लोटपोट हो कर नहाए तो माना जाता है कि बारिश आने वाली है।

एक कहावत है- अम्मर पीळो, मेह सीळो। इसका अर्थ है यदि आसमान में पीलिमा दिखाई दे तो समझो कि बारिश धीमी पडऩे वाली है। इसी से जुड़ी एक कहावत है- अम्मर रातो, मेह मातो, यानि कि अगर आसमान में लालिमा हो तो समझिये बारिश जोरदार पडऩे वाली है। इसी क्रम में कहते हैं- अम्मर हरियो, चूव टपरियो। अर्थात आसमान में हरीतिमा दिखाई दे तो वह सामान्य बारिश होने का संकेत है।

ऐसी मान्यता है कि यदि तीतर के पंख बादल जैसे रंग के हो जाएं तो पक्का जानिये कि बारिश होगी ही, जिसमें कोई संदेह नहीं है। इसकी कहावत हैरू- तीतर पंखी बादळी, विधवा काजळ रेख, बा बरसै बा घर करै, ई में मीन न मेख। इसी कहावत में यह भी बताया गया है कि यदि विधवा की आंख में काजल नजर आए तो इसका मतलब है कि वह फिर घर बसाएगी। 

यदि रात में विचरण करते वक्त ऊंटनी को आलस्य आए या वह ऊंघने लगे तो इसका मतलब है कि बारिश की उम्मीद है। एक कहावत है कि अत तरणावै तीतरी, लक्खारी कुरलेह। सारस डूंगर भमै, जदअत जोरे मेह। इसका अर्थ है कि तीतरी जोर से आवाज करे, लक्कारी कुरलाए, सारस ऊंचे स्थान का चयन करे तो तेज बारिश आ सकती है।

इसी प्रकार कहते हैं कि बारिश के मौसम में लोमड़ी ऊंचे स्थान पर खड्डा खोद कर अपना विश्राम स्थल बनाए और उछल-कूद करे तो समझिये अच्छी बारिश होगी। इसकी कहावत है- धुर बरसालै लूंकड़ी, ऊंची घुरी खिणन्त। भेळी होय ज खेल करै, तो जलधर अति बरसन्त।

ऊंटनी भी बारिश का संकेत जमीन पर पैर पटक कर, एक स्थान पर न टिक कर और बैठने से आनाकानी करके यह संकेत देती है कि बारिश जरूर आएगी। इसकी कहावत है- आगम सूझे सांढणी, दौड़े थळा अपार। पग पटकै बैसे नहीं, जद मेह आवणहार।

कुछ इसी प्रकार विक्रम संवत के महीने भी संकेत देते हैं। मावां पोवां धोधूंकार, फागण मास उड़ावै छार। चौत मॉस बीज ह्लकोवै, भर बैसाखां केसू धोवै। अर्थात माघ और पोष माह में कोहरा पड़े, फाल्गुन माह में धूल उड़े और चौत्र माह में बिजली न दिखाई दे तो बैशाख में वर्षा होगी।


https://www.youtube.com/watch?v=LDtf2kMVNTg

मंगलवार, मई 06, 2025

फल की इच्छा के बिना कर्म हो ही कैसे सकता है?

गीता का एक सूत्र है- कर्मण्येवाधिकारस्ते, माफलेषु कदाचन। इसका तात्पर्य है कि कर्म करो, मगर फल की इच्छा मत करो। अर्थात वह ईश्वर पर छोड़ दो। चूंकि यह सूत्र कर्मयोग के महानतम ग्रंथ गीता का है, इस कारण इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। लकिन सवाल है कि फल की इच्छा के बिना कोई कर्म किया ही कैसे जा सकता है?

जरूर इसका कोई गहरा अर्थ होगा। शब्दों में यह संदेश जितना सीधा सादा है, इसका अर्थ उतना ही गहरा है। यूं भी यह सीधी से बात है कि हम केवल कर्म पर ही ध्यान दें। वही हमारे हाथ में है। उसका फल क्या होगा, इसका पता नहीं। हमारी इच्छा करने से कुछ होना भी नहीं है। फल तो प्रकृति को ही तय करना है। हालांकि वास्तव में ऐसा है नहीं। फल तो हमारे कर्म के अनुसार ही तय होता है, प्रकृति तो केवल उसका आकलन करती है। जैसे परीक्षा में जितने भी सवाल हमने सुलझाए हैं, उसी के तहत नंबर मिलते हैं, मगर चूंकि उसकी गणना परीक्षक करता है, इस कारण यह प्रतीत होता है कि फल वह निर्धारित कर रहा है।

हालांकि बहुत गहरे अर्थों में गीता का सूत्र पूर्णतरू सत्य है, मगर मोटे तौर पर इसमें बड़ा विरोधाभास नजर आता है। इसे यूं समझिये। हम जब भी कोई कर्म करते हैं, तो उससे पहले फल की इच्छा जागती है, तभी हम कर्म करते हैं। यदि किसी फल की कामना ही न तो हम कर्म ही क्यों करेंगे? जैसे यदि सामने परोसी हुई थाली में रखी वस्तु हमें खानी है तो मस्तिष्क हाथ को कर्म करने का आदेश देते हुए वह वस्तु पकड़ कर मुख में रखने को कहेगा। अर्थात खाने की इच्छा पहले जागृत हुई और हाथ ने कर्म बाद में किया। इसे अन्य उदाहरणों व तरीकों से भी समझा जा सकता है। यदि हमें परीक्षा में अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होना है तो उसी के अनुरूप कर्म करना होगा, यानि कि हमारी दृष्टि में परिणाम या लक्ष्य पहले सामने रखना होता है, तभी उसके लिए अपेक्षित मेहनत करेंगे। लेकिन गीता का सूत्र इसके सर्वथा विपरीत है। वह कहता है कि फल ही इच्छा ही न कर, केवल कर्म कर। यह सूत्र समझ से परे प्रतीत होता है। ईश्वर ने हमें जो बुद्धि या समझ दी है, उसमें यह बैठता थोड़ा कठिन है।

जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, गीता का सूत्र गहरे मायने लिए हुए है। उसका संदर्भ अलग है। एक तो ये कि जैसे ही हम आसक्त भाव से कर्म करते हैं तो उसका बंधन हो जाता है। विद्वान तो यहां तक कहते हैं कि कर्म क्या, केवल विचार मात्र भी कर्म का बंधन कर देता है। किसी का हत्या करना तो दूर, हत्या का विचार भी दूषित कर्म का बंधन कर देता है। दूसरी बात ये कि जैसे ही हम फल की इच्छा करते हुए कर्म करते हैं तो भीतर अहम का भाव जागृत हो जाता है कि हमने कर्म किया, इस कारण फल मिला है। इस अहम के भाव से मुक्ति के लिए ही फल का निर्धारण प्रकृति पर छोड़ देना होता है। यही वजह है कि ज्ञानी जन किसी भी उपलब्धि का श्रेय प्रकृति को ही देते हैं, खुद को उससे अलग ही किए रखते हैं, ताकि अंहकार घनीभूत न हो।

इस सूत्र के एक मायने ये भी हैं कि जैसे ही फल की कामना लिए हुए हम कर्म करते हैं तो अपेक्षित फल न मिलने पर दुखी होते हैं। जो भी फल हो उसके लिए जैसे ही अपने आपको मन के स्तर पर तैयार कर लेते हैं, तो पीड़ा नहीं होती।

जरा और गहरे में जाएं। वह एक अलग ही तल है। चूंकि हम सांसारिक प्राणी हैं, इस कारण जीवन यापन के लिए कर्म करना जरूरी है, मगर वह हम कर्तव्य की तरह, ड्यूटी की तरह करें। उसके प्रति आसक्ति न रखें तो जीते जी हम मुक्ति की राह पर चल पड़ेंगे। यह अवस्था तब आएगी, जब हम अपने आपको थर्ड पर्सन की तरह देखना शुरू कर देंगे। ऐसे जैसे हम अपने आपको अपने से पृथक देखना शुरू कर दें। इसे इस तरह से समझें। मानो हमारा नाम राम है। तो जब भी हम कुछ करें तो यह जाने कि राम हमसे अलग है। राम रो रहा है, राम हंस रहा है, राम दौड़ रहा है, हम तो दृष्टा मात्र हैं। यह विधि जगत में रहते हुए जगत से अलग रहना सिखाती है। हालांकि यह है कठिन, मगर कदाचित गीता का सूत्र इसी दिशा में हमें ले जाना चाहता है।


https://www.youtube.com/watch?v=ussKnlMHnbw

रविवार, मई 04, 2025

चांदी व तांबे के बर्तन में रखे पानी पीने के क्या फायदे हैं?

दोस्तो, नमस्कार। आपकी जानकारी में होगा कि कई लोग चांदी या तांबे में रखे पानी को पीते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे कुछ फायदे होते हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसा पानी में चांदी व तांबे के तत्व षामिल हो जाने की वजह से होता होगा, ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इसकी वजह से बर्तन का वजन कम होता है? हमें तो नजर नहीं आता
कि बर्तन के वजन में कमी आई है, यानि बर्तन के तत्व में कमी नहीं आती तो षंका होना स्वाभाविक है कि कहीं यह केवल मिथ मात्र तो नहीं है?

चलिए, पहले यह जानते हैं कि चांदी व तांबे के बर्तन में रखे पानी से क्या क्या फायदे बताए गए हैं। बताया जाता है कि चांदी व तांबे के बर्तन में रखे पानी में चांदी यानि एजी और तांबे यानि कॉपर के आयन पानी में घुल जाते हैं। बर्तन में पानी डाल कर तुरंत पीने से ही उसमें आयन नहीं आते। लंबे समय तक पानी रखा जाए यानि 6 से 8 घंटे या उससे अधिक, तो उसमें थोड़ी मात्रा में कॉपर आयन घुलते हैं। यह प्रक्रिया ऑक्सीडेशन और जल में मौजूद खनिजों के कारण होती है। इसी प्रकार चांदी के आयन बहुत धीमी गति से घुलते हैं। लेकिन इनकी मात्रा तांबे की तुलना में कम होती है। चांदी व तांबे के आयन एंटी बैक्टीरियल गुणों वाले होते हैं।

तांबा रोगाणुओं खासकर ईकोली और सल्मोनेला को नष्ट कर सकता है। तांबा पाचन तंत्र को उत्तेजित करता है और गैस, अपच जैसी समस्याओं में राहत देता है। इससे त्वचा को स्वस्थ रखने में मदद मिलती है। इसके अतिरिक्त न्यूरो ट्रांसमीटर के निर्माण में मदद करता है, जिससे मस्तिष्क का कार्य बेहतर होता है। डब्ल्यू एच ओ के अनुसार दिन में कम से कम 2 मिली ग्राम तांबा सुरक्षित माना जाता है। यदि बहुत अधिक मात्रा में लिया जाए तो यह कॉपर टॉक्सिसिटी का कारण बन सकता है, जिससे उल्टी, पेट दर्द, लीवर पर असर आदि हो सकते हैं।

इसी प्रकार चांदी के आयन आम तौर पर नॉन-टॉक्सिक माने जाते हैं। सिल्वर आयन कई रोगजनकों को निष्क्रिय करने में सक्षम होते हैं।

आयुर्वेद में ‘सिल्वर वॉटर’ या चांदी के बर्तन का उपयोग मानसिक शांति और प्रतिरक्षा शक्ति बढ़ाने के लिए किया जाता था। यदि लंबे समय तक अधिक मात्रा में सिल्वर का सेवन किया जाए तो इससे आर्गेरिया नामक स्थिति हो सकती है, जिसमें त्वचा नीली-रंगी हो जाती है, हालांकि बर्तन से इतना अधिक सिल्वर लेना संभव नहीं होता।

बताया जाता है कि रोजाना 6 से 8 घंटे तक पानी को तांबे-चांदी के बर्तन में रख कर पीना सुरक्षित और लाभदायक माना जाता है, लेकिन बहुत लंबे समय तक पानी स्टोर न करें। विषेश रूप से तांबे के बर्तन में 24 घंटे से अधिक नहीं।

अब सवाल यह कि क्या बर्तन का वजन कम होता है? इसका जवाब यह है कि तकनीकी रूप से हां, परन्तु यह कमी बहुत ही सूक्ष्म और नगण्य होती है, इतने कम स्तर पर कि वह मानव तुला से मापी नहीं जा सकती, खासकर सामान्य उपयोग में। अगर रोजाना कुछ माइक्रोग्राम तांबा घुल भी जाता है, तो भी कई वर्षों तक उपयोग करने पर ही बर्तन के वजन में कोई मापन योग्य बदलाव आ सकता है।


https://youtu.be/4DDLmOUbpKM

शुक्रवार, मई 02, 2025

पितरों को श्राद्ध की वस्तुएं कैसे मिलती हैं?

हालांकि सभी हिंदू श्राद्ध में विश्वास रखते हैं, और परंपरागत रूप से श्राद्ध कर्म करते भी हैं, मगर कुछ लोग यह सवाल खडा करते हैं कि जो प्राणी मरने के बाद दूसरी योनि में जन्म ले चुका, वह श्राद्ध पक्ष के दौरान हमारी ओर से उसके निमित्त ब्राह्मण को कराए गए भोजन को कैसे ग्रहण कर पाता होगा। 

तार्किक रूप से यह प्रश्न बिलकुल ठीक प्रतीत होता है। इसी कडी में कई लोग कहते हैं कि गया में पिंडदान करके दिवंगत परिजन को जब आप विदा कर चुके हैं तो क्यों उन्हें श्राद्ध के नाम पर फिर से बुलाने की गुस्ताखी की जाए। इससे भी बडा सवाल है कि हम भी निश्चत रूप से पूर्व जन्मों में किन्हीं के पूर्वज थे, यदि वे हमारा श्राद्ध करते हैं तो उससे होने वाली संतुष्टि का अनुभव हमें क्यों नहीं होता?

दूसरी ओर शास्त्र बताता है कि पितृ ऋण चुकाने के लिए किए जाने वाले श्राद्ध कर्म की कीमिया क्या है? इस सिलसिले में हाल ही अजमेर के शिव सागर, आगरा गेट स्थित मराठा कालीन श्री पंचमुखी हनुमानजी व वैभव महालक्ष्मी मंदिर के पंडित प्रकाश चन्द्र शर्मा एक पोस्ट सोशल मीडिया पर जारी की है। जाहिर है उन्होंने श्राद्ध कर्म के प्रति उत्पन्न हो रही अश्रद्धा की प्रतिक्रिया में यह कोशिश की है।

बहरहाल, यह जानते हैं कि श्राद्ध कर्म के बारे में शास्त्र क्या बताता है?

श्राद्ध का अर्थ - ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्ध।’

‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।

एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा ’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रस तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व!

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अतः वे अन्न व जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।

यदि पशु योनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नाग योनि में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्ति कारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।

जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

इस बारे में एक दष्टांत है कि श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने राजा दशरथ व पितरों के दर्शन किए थे।

वाकया इस प्रकार है कि एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं

‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारण कर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छाया रूप में सट कर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती इसलिए मैं ओट में हो गई।’


श्राद्ध की महत्ता के बारे में बताया गया है कि और वंश वृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है। पितर गण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।

श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।

श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि के बारे में बताया गया है कि मृत व्यक्ति के दाह कर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दुख होता है।

आश्विन मास के पितृ पक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे यही आशा लेकर वे पितृ लोक से पृथ्वी लोक पर आते हैं लेकिन जो लोग पितर हैं ही कहां? यह मान कर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दुखी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं।

ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठा कर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।


https://www.youtube.com/watch?v=c5WP7qh0d7g&t=7s

बुधवार, अप्रैल 30, 2025

देवी-देवताओं को भी खुषामद पसंद हैं?

इस दुनिया में आम तौर पर हर आदमी अपना मतलब सिद्ध करने के लिए चमचागिरी करता है। हालांकि ऐसे भी लोग हैं जो कि आत्म सम्मान के नाम पर चमचागिरी से परहेज रखते हैं। उनमें से एक मैं भी हूं। मैं किसी को पूरी सहृदयता से अपेक्षित सम्मान तो दे सकता हूं, मगर चमचागिरी नहीं कर सकता। उसका खामियाजा भी बहुत उठाया है, क्यों कि अधिसंख्य लोग चमचागिरी पसंद हैं। वे योग्यता व पात्रता की बजाय चमचों को प्राथमिकता देते हैं। और मैं उन चमचों से पिछड़ जाता हूं। यह बात भलीभांति समझने के बावजूद अगर मैं सफलता के विशेष सूत्र, चमचागिरी का इस्तेमाल नहीं करता तो मुझ से ज्यादा बेवकूफ भला कौन होगा? मैं झूठ नहीं बोलूंगा। भौतिक जगत में भले ही मैं किसी की चमचागिरी नहीं करता, मगर आध्यात्मिक जगत में उससे कोई परहेज नहीं रखता। यह बात दीगर है कि मैं ऐसा करके क्या मांगता हूं? सच तो ये है कि कुछ नहीं मांगता। तर्क ये कि उसे ये पता होगा कि मुझे क्या चाहिए। अगर उसे मेरी जरूरत का ही पता नहीं चलता तो फिर मांगना क्या? उसे जो उचित लगेगा, वह दे देगा। हालांकि मेरे कुछ मित्रों का तर्क है कि मां भी रोये बिना दूध नहीं पिलाती, मगर ये बात आज तक मेरे दिमाग में नहीं बैठी। 

चलो मुद्दे पर आते हैं। आपने एक कहावत सुनी ही होगी। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। यह जंगल में तो लागू है ही, सामाजिक व्यवस्था में भी फिट बैठती है। हर जगह ताकत की ही महत्ता है। हर ताकतवर अपने से कम ताकतवर को दबा रहा है और हर कम शक्तिमान अपने से अधिक शक्तिमान की खुषामद करने को मजबूर है। इस सत्य को मैने वृहत्तर स्तर पर देखने की कोशिश की है। यह पूरी प्रकृति में भी तो यह लागू होता है।

हम सब जानते हैं कि आदमी सर्वगुणसंपन्न नहीं है। न ही हो सकता है। कोई कितना भी शक्ति संपन्न क्यों न हो, एक सीमा के बाद उसे हाथ खड़े करने ही होते हैं। और तब उसे प्रकृति को सलाम ठोकना पड़ता है। वह सर्वशक्तिमान ईश्वर या किसी न किसी देवता के आगे आत्म समर्पण कर देता है। हालांकि हम उसे आस्था का नाम देते हैं, मगर असल में है वह खुषामद ही। ऋगवेद में ईश्वर का महिमा गान हो अथवा किसी भी देवी-देवता की चालीसा या आरती, उसमें आपको विरुदावलि ही नजर आएगी। यानि कि हम देवी-देवताओं को रिझाने के लिए, स्वार्थ पूर्ति के लिए उनके गुणों का गान करते हैं। वह भी खुषामद ही तो है। बस फर्क ये है कि गुणगान शब्द सुसंस्कृत है और खुषामद शब्द घटिया। चलो गुणगान तक तो ठीक है, मगर खुषामद का आलम ये है कि हम देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए उन्हें प्रसाद तक अर्पित करते हैं। अर्जी लगाते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना पूरी होगी तो इतने रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। देवता का अर्थ है, जो हमें देता है। जैसे वरुण देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, अग्नि देवता, धरती माता इत्यादि। वे सब हमारे जीवन के आधार हैं। कैसा विरोधाभास है कि जो हमें देते हैं, उन्हीं को हम दे कर पटाने की कोशिश करते हैं। प्रसाद चढ़ाने के विधान का जो भी रहस्य हो, मगर मोटे तौर पर तो यही सही है न कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा करके हम उन्हें प्रसन्न कर रहे हैं और वे भी अपनी दी हुई भौतिक वस्तु के अर्पण से प्रसन्न हो रहे हैं।

यदि ये सही है कि प्रसाद चढ़ाने व गुणगान करने से देवी-देवता राजी होते हैं, तो इसका अर्थ ये है कि वे भी खुषामद पसंद हैं। उन्हें भी अपनी जय जयकार पसंद है। देवी-देवता ही क्यों, इस सृष्टि को उत्पन्न करने, पालन करने और संहार करने वाले ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी आराधना करने पर वर देते हैं। उसमें मेरिट-डिमेरिट कुछ नहीं देखते। तभी तो राक्षस उन्हें रिझा कर वर हासिल कर लेते हैं। बाद में उसी वर का उपयोग वे देवताओं के खिलाफ करते हैं। देवता परेशान हो कर त्राहि-त्राहि माम करते हैं, तब जा कर वे उनकी रक्षा करते हैं। समझ में नहीं आता कि क्या वर दाताओं को यह ख्याल नहीं होता कि वे जिसे वर दे रहे हैं, वह उसका पात्र है भी या नहीं? या फिर उन्हें यह पता ही नहीं होता कि जिसे वे वर दे रहे हैं, उसके मन में क्या दुर्भावना है? या फिर आराधना के वक्त राक्षस पूर्ण सद्भावी होते हैं और वर हासिल करने के बाद उसका दुरुपयोग करते हैं? या उनको तो इससे सरोकार है कि किसने उनकी आराधना के लिए कितनी कठोर तपस्या की है? जो कुछ भी हो, मगर इतना तय है कि आराधना अर्थात चमचागिरी से वे प्रसन्न होते हैं। हो सकता है कि मुझे इस सत्य का दर्शन पूर्ण रूप से नहीं हो रहा हो, नहीं ही हो रहा होगा, मगर जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, उससे मेरा नजरिया ये ही बना है कि खुषामद कोई बुरी बात नहीं है, वह करनी ही चाहिए, चूंकि पूरी प्रकृति का विधान यही है।


https://www.youtube.com/watch?v=_w6-GNeWrKo&t=9s

गीता में बाल होने का राज क्या है?

दोस्तो, नमस्कार। कुछ कथा वाचक व संत श्रोताओं का विष्वास जीतने के लिए एक अनूठी तरकीब का इस्तेमाल किया करते हैं। इसकी जानकारी मुझे अरसे पहले मेरी मां के माध्यम से हुई। वे आध्यात्मिक प्रवत्ति की थीं। अमूमन संतों के प्रवचन व कथा सुनने जाती थीं। एक बार कथा सुन कर आने पर उन्होंने बताया कि आज अमुक संत ने कहा कि यदि आपको मेरी बातों पर यकीन न हो तो घर जा कर देखना। गीता की जिस पुस्तक का आप पठन किया करती हैं, उसमें कहीं न कहीं बाल मिल जाएगा। उन्होंने पुस्तक को खंगाला तो एक जगह बाल मिल गया। मैं भी चकित रह गया। बाद में उन्होंने बताया कि उनके साथ कथा सुनने गईं अन्य महिलाओं को भी उनकी पुस्तकों में बाल मिला है। तब तो मैं सन्न रह गया। कि क्या कोई संत इस प्रकार घरों में रखी हुई गीता पुस्तकों में बाल भेज सकते हैं। हो सकता है कि ऐसा करना किन्हीं संतों की सामर्थ्य में हो, मैं उसे सिरे से तो नहीं नकारता, मगर मेरी भेद बुद्धि इस पर सहसा विष्वास नहीं करती। मुझे लगता है कि जो महिलाएं नियमित गीता का पाठ करती हैं, उनका बाल पुस्तक में गिरने की प्रबल संभावना हो सकती है। जैसे कई बार रोटी व सब्जी में बाल गिर जाता है। अच्छा, एक दिलचस्प बात और। वो यह कि कथा सुनने के बाद जिस महिला को पुस्तक में बाल नहीं मिलता, वह यही मानती है कि वह भाग्यवान नहीं है। उसे लगता है कि जब इतनी सारी महिलाओं को बाल मिले हैं, और अकेले उसको ही बाल क्यों नहीं मिला, तो कोई तो वजह होगी ही। यानि कि वह संत की बात पर षंका नहीं करती। और इसके पीछे है आस्था। आस्था तर्क को नहीं मानती। श्रद्धा उसे ऐसा करने से रोकती है।


मंगलवार, अप्रैल 29, 2025

सत्ताधीश पर जादू या मंत्र असर नहीं डालता?

दोस्तो, नमस्कार। वर्शों पहले मैने सुना था कि राजाओं, सत्ताधीषों और प्रशासनिक तंत्र के लिए काम करने वालों पर जादू या तंत्र-मंत्र का असर नहीं होता। इस बारे में विद्वानों से चर्चा की तो समझ में आया कि इसकी वजह क्या हो सकती है? अव्वल तो जादू-टोने के अस्तित्व पर ही सवाल खडे किए जाते हैं, कई लोग नहीं मानते कि जादू-टोना किया जा सकता है, मगर यदि यह धारणा बनी है कि सत्ताधीषों पर जादू असर नही करता तो जरूर को आधार होगा। 

असल में प्राचीन काल में राजाओं को अक्सर देवताओं का प्रतिनिधि या स्वयं देवता माना जाता था। इस दैवीय अधिकार के कारण, यह माना जाता था कि वे अलौकिक शक्तियों की वजह से सुरक्षित हैं। इसी प्रकार सत्ताधीष भी पूरी व्यवस्था के केन्द्र में स्थित होते हैं, षक्ति संपन्न होते हैं, इस कारण कोई जादूगर अथवा तांत्रिक चाहे तो उन पर अपने जादू या तंत्र-मंत्र का उपयोग नहीं कर सकता। जैसे कोई तांत्रिक प्रधानमंत्री से असहमत है, उसके खिलाफ है, तो वह चाह कर भी उस पर तंत्र का अस्त्र नहीं चला सकता। अगर वह ऐसा करने में सक्षम होता तो सारी सत्ता उसके षिकंजे में होती। मगर ऐसा हो नहीं सकता। प्रधानमंत्री को छोडिये, एक सामान्य सिपाही तक में भी सत्ता की प्रतिश्ठा होती है, इस कारण उस पर जादू-टोना काम नहीं कर सकता। आपके ख्याल में होगा कि किसी अनिश्ठकारी स्थान के पास जाने से आम आदमी घबराता है, मगर सत्ता के आदेष पर उसे ध्वस्त करने वाले सिपाही व मजदूर का कुछ नहीं बिगडता।

एक तर्क यह है कि सत्ताधीष के पद और अधिकार उन्हें एक प्रकार की स्वाभाविक सुरक्षा प्रदान करते हैं। उनकी शक्ति और प्रभाव इतना अधिक होता है कि सामान्य जादू या मंत्र उन तक नहीं पहुंच पाते। इसके अतिरिक्त सत्ता में बैठे लोग अक्सर कड़ी सुरक्षा के घेरे में रहते हैं। उनके आसपास हमेशा पहरेदार और सेवक होते हैं, जिससे किसी बाहरी व्यक्ति के लिए उन तक पहुंच कर जादू करना मुश्किल हो जाता है। 

यह भी संभव है कि यह विश्वास सत्ता में बैठे लोगों के प्रति एक प्रकार का भय और सम्मान दर्शाता है। लोगों का मानना हो सकता है कि उनकी शक्ति इतनी अधिक है कि कोई भी जादू उन पर काम नहीं कर सकता। राजा और प्रशासनिक तंत्र के पास संसाधनों और लोगों पर नियंत्रण होता है। यह संभव है कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करके किसी भी जादू या मंत्र के प्रभाव को नकार सकते हैं या उससे बच सकते हैं।

आप देखिए न, कोई कथित योगी या तांत्रिक, जो कि आम तौर पर चमत्कार दिखाता है, लेकिन अगर किसी दुश्कर्म की वजह से उसे गिरफ्तार किया जाए तो वह पुलिस कर्मियों को कोई भी नुकसान नहीं पहुंचा पाता। जेल में रहने के दौरान प्रहरियों व न्यायाधीष का कुछ नहीं बिगाड पाता है। ऐसे कई कथित तांत्रिक व साधु इन दिनों जेल में बंद हैं, मगर वे अपने कथित योग बल से जेल के बाहर नहीं आ पा रहे। उन्हें न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना ही पड रहा है।


https://youtu.be/jwTK9Gy7yBk


सोमवार, अप्रैल 28, 2025

सात पीढी ही क्यों, आठ या नौ क्यों नहीं?

दोस्तो, नमस्कार। आपको जानकारी होगी कि हम पूर्वजों अथवा भावी पीढी के बारे में बात करते हैं तो सात पीढी का जिक्र आता है। इस सात के आंकडे के क्या मायने हैं? पीढी सात ही क्यों, आठ या नौ क्यों नहीं?

वस्तुतः सात पीढ़ी का उल्लेख खास तौर पर भारतीय संस्कृति, धर्म और सामाजिक परंपराओं में मिलता है। विद्वानों ने इसके पीछे धार्मिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण बताए हैं। सनातन धर्म के अनुसार कर्म और पाप-पुण्य का प्रभाव सात पीढ़ियों तक चलता है। अर्थात किसी व्यक्ति के कर्म उसके पूर्वजों की सात पीढ़ियों से प्रभावित होते हैं। और उसके वंशजों की सात पीढ़ियों पर भी असर डाल सकते हैं। इसी कारण तर्पण, श्राद्ध आदि में सात पीढ़ियों का स्मरण किया जाता है। आधुनिक आनुवंशिकी यानि जेनेटिक्स में भी माना जाता है कि किसी व्यक्ति के जीन का प्रभाव लगभग 5-7 पीढ़ियों तक साफ तौर पर रह सकता है। उसके बाद जीन के बदलाव इतने हो जाते हैं कि मूल प्रभाव क्षीण होने लगता है। इसलिए सात पीढ़ी एक प्राकृतिक चक्र की तरह समझा जाता है। पूर्व में विवाह और वंश परंपरा में भी यह नियम था कि एक ही गोत्र अर्थात में सात पीढ़ियों तक शादी नहीं करनी चाहिए, ताकि रक्त संबंध बहुत पास-पास न हों और वंश में आनुवांशिक दोष न आएं। इसी से स्वस्थ संतति यानि औलाद का विचार भी जुड़ा था। भारतीय दर्शन में सात के अंक को एक पवित्र और संपूर्ण संख्या माना जाता है, जैसे सप्तर्षि, सप्तलोक, सप्तस्वर, सप्तसागर आदि। इसीलिए सात पीढ़ी का भी विशेष महत्व बन गया। कुल जमा सात एक तरह का पूर्ण और संतुलित चक्र माना गया है। आठवीं पीढ़ी से असर इतना क्षीण हो जाता है कि उसे सामाजिक या धार्मिक जिम्मेदारी के दायरे में रखना आवश्यक नहीं समझा गया। इसी प्रकार विवाह में सात फेरे व सात जन्मों का साथ रहने के पीछे भी यही साइंस प्रतीत होती है।

https://youtu.be/du_bXxZp0OU

शनिवार, अप्रैल 26, 2025

...तो वैज्ञानिकों की पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए?

हाल ही मेरे एक मित्र ने मेरे सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। उनकी बात तर्क के लिहाज से ठीक प्रतीत होती है, मगर होना क्या चाहिए, इस पर आप सुधि पाठक विचार कर सकते हैं।

सवाल है कि सुखी रहने के लिए हम देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। उनके चित्रों-मूर्तियों के आगे दिया-बत्ती, अगरबत्ती जलाते हैं, मगर जिन वैज्ञानिकों ने हमारी जिंदगी में भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए एक से बढ़ कर एक अविष्कार किए, उनकी पूजा तो दूर, याद तक नहीं करते। उनके सवाल में तनिक नास्तिकता झलकती है, वो इसलिए कि उन्होंने जिस ढ़ंग से सवाल किया, वह ऐसा आभास देता है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि पंक्चर ठीक करने वाला एक दुकानदार सुबह दुकान खोलने पर किसी न किसी देवता के आगे अगरबत्ती जलाता है, इस उम्मीद में कि उसकी रोजी-रोटी ठीक से चले। पता नहीं, अगरबत्ती करने से ऐसा होता भी है या नहीं, पता नहीं, क्योंकि बावजूद पूजा के उसके जीवन में कष्ट होते ही हैं। सुख के साथ सारे दुःख भी भोगता है। कोरोना महामारी में लॉक डाउन के दौरान सभी देवी-देवताओं के मंदिरों के पट बंद हो गए। वे पूजा-अर्चना से वंचित रह गए। वे महामारी के असर से अपने आपको नहीं बचा पाए। इसके आगे वे कहते हैं कि वह दुकानदार ऐसे ही देवी-देवता के आगे अगरबत्ती करता है, मगर जिन वैज्ञानिकों के अविष्कारों के बदोलत वह पंक्चर ठीक कर पाता है, उनका उसे ख्याल ही नहीं। जिन विज्ञान ऋषियों के सदके उसकी रोजी-रोटी चलती है, उनका उसे कोई स्मरण ही नहीं। जिस वैज्ञानिक ने बिजली की खोज की, जिस वैज्ञानिक ने प्रेशर पंप बनाया, क्या उसके चित्र के आगे उसे अगरबत्ती नहीं करनी चाहिए? उसके मन में ये विचार क्यों नहीं आता कि जिन वैज्ञानिकों के कारण उसकी आजीविका चल रही है, उनका चित्र लगा कर भी अगरबत्ती कर दे। सच तो ये है जिन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, उसी की बदोलत में हमारे जीवन में सारे भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन मौजूद हैं। जिस प्रकार ज्ञान के भंडार वेदों की ऋचाएं किसी एक ऋषि ने नहीं लिखी, एक लंबी शृंखला है ऋषियों की। उनकी वजह से ही हमें आध्यात्मिक समझ है। ठीक उसी प्रकार वैज्ञानिकों की भी एक लंबी शृंखला है, जिन्होंने उत्तरोत्तर नई नई खोजें कीं। सुख-सुविधाओं के साधनों के नाम पर आज क्या नहीं है हमारे पास।

बहरहाल, मेरे मित्र का सवाल सीधे-सीधे तो मेरे गले नहीं उतरा, क्योंकि देवी-देवता अपनी जगह हैं, वैज्ञानिक अपनी जगह। वस्तुतरू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना आस्था का सवाल है। हमें यकीन है कि हमारे शास्त्रों में जो कुछ भी बताया गया है, वह सही है। कई लोगों ने अनुभव भी किया होगा कि देवी-देवता आराधना, पूजा-अर्चना करने पर वे फल देते हैं। अतरू उस पर तो सवाल बनता ही नहीं। हां, ये ठीक है कि जिन वैज्ञानिकों ने वास्तव में प्रत्यक्षतरू हमारे जीवन में सुख के साधन जुटाएं हैं, वे भी सम्मान के पात्र हैं। जब हम अपने पूर्वजों, अपने नेताओं की मूर्तियों के आगे हर साल जयंती व पुण्य तिथी पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो वैज्ञानिकों को क्यों नहीं श्रद्धा के साथ याद करना चाहिए? क्या उनके नाम भी एक दिया नहीं बनता?


https://www.youtube.com/watch?v=7fXGG--x040&t=14s


शुक्रवार, अप्रैल 25, 2025

सांड लाल कपडा देख कर भडकता क्यों है?

दोस्तो, नमस्कार। आपको यह अनुभव होगा कि जब हम कहीं से गुजर रहे हों और लाल रंग का वस्त्र पहना हुआ व सामने से सांड आ रहा हो तो सलाह दी जाती है कि हम उससे नजर बचा कर चलें। अन्यथा वह हमला कर देगा। असल में यह एक बहुत ही आम धारणा है कि सांड लाल रंग देख कर भड़कता है। लेकिन यह दिलचस्प तथ्य है कि सांड कलर ब्लाइंड होते हैं। वे रंग अंधता से ग्रसित होते हैं। वे लाल और हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते। सांड रंगों को इंसानों की तरह नहीं देख सकते। तो सवाल उठता है कि बुल फाइटिंग अर्थात सांड युद्ध में लाल कपडा देख कर वे भडकते क्यों हैं? असल में वे रंग की वजह से नहीं, बल्कि कपडे की हरकत के कारण प्रतिक्रिया देते हैं। सांड स्वाभाविक रूप से हिलती हुई वस्तुओं पर ध्यान देते हैं और उन्हें संभावित खतरे या चुनौती के रूप में देखते हैं। लहराता हुआ कपडा सांड का ध्यान आकर्षित करता है और उसे उत्तेजित करता है। बुल फाइटर जानबूझ कर कपड़े को इस तरह से हिलाता है कि सांड को उकसाया जा सके। जानकार लोग बताते हैं कि सांड स्वभाव से क्षेत्रीय होते हैं और किसी भी चीज को अपने क्षेत्र में घुसपैठ करते हुए देख कर आक्रामक हो सकते हैं। हिलता हुआ कपड़ा उनके क्षेत्र में एक चुनौती की तरह लगता है। सवाल यह भी उठता है कि सांड युद्ध में लाल रंग का ही कपडा क्यों लहराया जाता है, उसकी पक्की वजह का पता नहीं, वह परंरागत है। यह परंपरा क्यों पडी, पता नहीं, मगर समझा जाता है कि लाल रंग बहुत चमकीला होता है, खून का आभास देता है और देखने वालों को उत्तेजित करता है। इसी कारण लाल रंग का कपडा लहराया जाता है। और इसकी कारण यह धारणा बन गई कि लाल रंग से सांड भडकता है।


https://youtu.be/FGWMr_52EaY

गुरुवार, अप्रैल 24, 2025

गणेश चतुर्थी के दिन चांद को देखने पर लगता है झूठा आरोप

हालांकि आज के वैज्ञानिक चुग में जबकि मानव चंद्रमा की धरती पर पहुंच चुका है, ऐसे में इस प्रकार की अवधारणा खारिज सी होती है, मगर जैसा चलन में उसका जिक्र कर रहे हैं

यह एक बेहद रोचक मिथ है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी अर्थात गणेश चतुर्थी के दिन चांद देखने पर आप पर झूठा आरोप लग जाता है। अर्थात जो अपराध आपने किया ही नहीं, वह आप पर मढ़ दिया जाता है। पुराणों के अनुसार ऐसा भगवान श्रीकृष्ण के साथ भी हो चुका है। एक प्रसंग में तो उन पर स्यमंतक मणि की चोरी झूठा आरोप लगा था।

सवाल उठता है कि आखिर गणेश चतुर्थी का चांद देखने पर झूठा आरोप लगता क्यों है? इस बारे में कथा है कि एक बार गणेश जी के लंबे पेट और हाथी के मुख को देख कर चंद्रमा को हंसी आ गई। गणेश जी इससे नाराज को गए और चंद्रमा से कहा कि तुम्हें अपने रूप का अहंकार हो गया है, अतरू अब तुम्हारा क्षय हो जाए। जो भी तुम्हें देखेगा, उसे झूठा कलंक लगेगा। गणेश जी के शाप से चन्द्रमा दुरूखी हो गए। उन्हें दुखी देख कर देवताओं ने राय दी कि गणेश जी की विधिवत पूजा करो। उनके प्रसन्न होने से शाप से मुक्ति मिल सकती है। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। इस पर गणेश जी प्रसन्न तो हुए, मगर कहा कि शाप पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकता।ष्द्धड्डठ्ठस्र अपनी गलती चन्द्रमा को हमेशा याद रहे। तब से गणेश चतुर्थी के दिन जो भी चांद देखता है, उसे भगवान गणेश के प्रकोप का सामना करना पड़ता है। यदि भूल से चंद्र दर्शन हो जाये तो उसके निवारण के लिए श्रीमद्भागवत के 10 वें स्कंध के 56-57 वें अध्याय में उल्लेखित स्यमंतक मणि की चोरी कि कथा का श्रवण करना लाभकारक है। जिससे चंद्रमा के दर्शन से होने वाले मिथ्या कलंक का ज्यादा खतरा नहीं होगा।


https://www.youtube.com/watch?v=iaxBOFKtZKo


बुधवार, अप्रैल 23, 2025

क्या एक आत्मा की जगह दूसरी आत्मा को ले जाया जा सकता है?

हाल ही मेरे रिश्तेदारों के साथ एक ऐसा वाकया पेश आया, जिससे सवाल उठता है कि क्या यमदूत एक आत्मा की जगह दूसरी आत्मा को ले जा सकते हैं?

हुआ ये कि मेरे एक रिश्तेदार जयपुर से अहमदाबाद माइग्रेट हो रहे थे। सामान के साथ एक छोटे ट्रक में बैठ कर सफर कर रहे थे। रास्ते में उनकी छोटी बेटी अचानक अस्वस्थ हो गई। लगभग मरणासन्न हालत में आ जाने पर रास्ते में ही एक अस्पताल में भर्ती करवाया। मेरे रिश्तेदार की बुजुर्ग मां ने दुआ मांगी कि भगवान उसको तो उठा ले, लेकिन पोती को ठीक कर दे। अर्थात एक अर्थ में उन्होंने अपनी उम्र पोती को दान कर दी। इसे चमत्कार ही मानेंगे कि चंद घंटों में ही बुजुर्ग महिला की तो मौत हो गई, जबकि वह पूरी तरह स्वस्थ थी और उनकी पोती, जो कि मौत के करीब पहुंच चुकी थी, वह बिलकुल स्वस्थ हो गई।

इससे  सवाल उठता है कि क्या यह महज एक संयोग है यानि कि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है कि बुजुर्ग महिला की दुआ कबूल हो गई, जबकि वास्तविकता ये थी कि बच्ची की जिंदगी अभी बाकी थी और वह केवल बीमार हुई थी और बुजुर्ग की आयु समाप्त हो गई थी। सवाल ये भी है कि क्या दुआ वाकई कबूल हो गई? यानि कि किसी की उम्र किसी और के शरीर में शिफ्ट हो सकती है? अर्थात कोई अपनी सांसें किसी और को दान में दे सकता है। हमारे यहां ऐसा सुनने को मिलता है कि कई लोग अपनी उम्र किसी प्रियजन को लग जाने की दुआ मांगा करते हैं। समझा यही जाता है कि वह औपचारिक दुआ मात्र होती है। उसके फलित होने को सुनिश्चित नहीं माना जाता। वह मात्र प्रियजन के प्रति दुआगो के अनुराग का द्योतक है। लेकिन ताजा घटना, यदि संयोग नहीं है तो इस बात की पुष्टि करती है कि यदि दुआ सच्चे दिल से की जाए तो वह कबूल भी हो सकती है। इसका अर्थ ये भी हुआ कि उस बुजुर्ग महिला की जितनी उम्र बाकी थी, वह पोती में शिफ्ट हो गई तो वह अब उतने ही साल जीवित रहेगी, क्योंकि उसकी सांसें तो समाप्त होने वाली थीं।

आपने कई बार ये सुना होगा कि यमदूत कभी गलती से किसी की आत्मा ले जाते हैं, मगर जैसे ही उन्हें पता लगता है कि त्रुटि हो गई है तो वे वापस शरीर में आत्मा को प्रविष्ट कर देते हैं, अगर उसका अंतिम संस्कार न हुआ हो। ताजा प्रसंग में संभव है ऐसा हुआ हो कि लेने तो वे बुजुर्ग महिला की आत्मा आए हों और गलती से वे बच्ची की आत्मा लेने लगे हों और वह मरणासन्न अवस्था में आ गई हो, लेकिन जैसे ही उन्हें गलती का अहसास हुआ, तुरंत बच्ची को छोड़ कर बुजुर्ग की आत्मा को साथ ले गए हों। 

इस प्रसंग में एक बात ये भी गौर करने योग्य है कि बुजुर्ग महिला तनिक मंदबुद्धि थी। बेहद सहज व भोली-भाली अर्थात एकदम सच्ची इंसान। ऐसा संभव है कि भीतर से पवित्र इंसानों की इच्छा या दुआ शीघ्र मंजूर हो जाती हो।


https://www.youtube.com/watch?v=sqBxY9XZJcI


मंगलवार, अप्रैल 22, 2025

सिंधी समुदाय हर माह चांद उत्सव क्यों मनाता है?

सिंधी समुदाय नव हिंदू वर्श के आरंभ में चैत्र माह की प्रतिपदा यानि चेटीचंड को इस्ट देव झूलेलाल जी की जयंती बडे उत्साह के साथ मनाता है। इसके अतिरिक्त सिंधी समुदाय हर माह की अमावस्या के बाद पहली चांद रात यानि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा या द्वितीया को चांद उत्सव मनाता है। इसी दिन माह की षुरूआत मानी जाती है। यह उत्सव चंद्र दर्शन से जुड़ा होता है और इसका धार्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व होता है। आराध्य देव झूलेलाल जी को भी इस दिन विशेष पूजा अर्पित की जाती है। वस्तुतः सिंधी संस्कृति में चांद का विशेष महत्व है। सिंध प्रदेश, जो कि अब पाकिस्तान में है, में चांद की पूजा और चंद्र दर्शन को शुभ माना जाता था। यह परंपरा विभाजन के बाद भी भारत व दुनिया भर के सिंधी समुदायों में जीवित है। यह उत्सव एक प्रकार का धन्यवाद होता है। ईश्वर व प्रकृति को एक और माह की शुरुआत के लिए आभार प्रकट करने का तरीका। इस दिन सिंधी परिवार एकत्र होते हैं, चंद्रमा के दर्शन करते हैं, प्रार्थना करते हैं और फिर मिठाई या विशेष व्यंजन बना कर एक-दूसरे को बांटते हैं। सभी छोटे बडों का आषीर्वाद लेते हैं। इससे समाज में भाईचारा बढता है। एक गहरा रहस्य ये है कि चंद्रमा मन, शांति और संतुलन का प्रतीक है। चांद उत्सव में लोग ध्यान, प्रार्थना और सकारात्मक ऊर्जा के लिए चंद्रमा से जुड़ते हैं। 


https://youtu.be/l6bjUToIcGU


शनिवार, अप्रैल 19, 2025

जप करते समय माला को ढ़कते क्यों हैं?

आपने देखा होगा कि अनेक श्रद्धालु जप करते समय हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े अथवा गौमुखी से ढ़क कर रखते हैं। गौमुखी अर्थात गौमुख की आकृति में सिला हुआ कपड़ा, जिसमें माला सहित हाथ डाल कर जप किया जाता है। इसकी वजह क्या है?

वस्तुतः हमारे यहां मान्यता है कि योग व भोग एकांत में अर्थात छिप कर करना चाहिए। किसी की दृष्टि या उपस्थिति का व्यवधान नहीं होना चाहिए। योग के मायने योगाभ्यास व ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना अर्थात पूजा-अर्चना या स्वाध्याय है। असल में योग व प्रार्थना पूर्णतः वैयक्तिक मानी जाती है। उसमें खलल नहीं पडऩा चाहिए। हालांकि योगाभ्यास व प्रार्थना सामूहिक भी की जाती है, मगर उसका वास्तविक लाभ एकांत में करने पर ही मिलता है। वजह ये कि तभी एकाग्रता कायम हो पाती है। कई बार ऐसा संभव नहीं होता। अगर अपने घर पर अथवा सार्वजनिक स्थान पर माला फेरने का समय हो जाए तो बेहतर ये है कि माला को ढ़क कर रखा जाए। यदि आप जप करते समय माला को खुला रखते हैं तो उस पर अन्य लोगों की नजर पड़ती है। उससे दोष उत्पन्न होता है। 

इसी कारण विद्वान कहते हैं कि जप करते समय दाहिने हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। आपने देखा होगा कि अनेक मुस्लिम भी तस्बीह फेरते समय उसे कपडे से ढक कर रखते हैं।

ऐसा प्रायः देखने में आता है कि कई लोग प्रवचन सुनते समय भी माला फेरते रहते हैं, मगर यह समझ से परे है कि वे प्रवचन व नाम स्मरण या मंत्रोच्चार के बीच कैसे सामंजस्य बैठा पाते होंगे। कभी प्रवचन पर ध्यान जाता होगा तो कभी जप पर। यानि कि दोनों ही अधूरे। किसी से बातचीत करते समय भी माला फेरने से कोई लाभ नहीं हो सकता। और अगर माला के मनकों को ही फेरा जा रहा है तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। 

तभी तो कबीरदास जी कहते हैं-

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

निहितार्थ यही है कि केवल माला के मनके फेरने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उनके साथ मन का संबंध नहीं होगा।

इसी प्रकार भोग अर्थात भोजन व मैथुन भी एकांत में करने की सीख दी हुई है। आम तौर पर एकांत में भोजन करने की सुविधा नहीं होती, इस कारण नियम में पालना कम ही हो पाती है। आजकल तो डायनिंग टेबल का चलन है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं, मगर पुरानी मान्यता ये है कि भोजन करते वक्त किसी की दृष्टि नहीं पडऩी चाहिए। एक साथ बैठ कर भोजन करने से स्वाभाविक रूप से आपस में बातचीत भी होती ही है, ऐसे में हम जो भोजन करते हैं, उससे ख्याल हट जाता है। हम उसका पूरा रस नहीं ले पाते। भोजन का वास्तविक आनंद उसका पूरा रस लेने में ही तो है। इसके लिए बेहतर ये है कि हम विभिन्न सांसारिक बातों का चिंतन करने की बजाय केवल भोजन पर ही ध्यान दें। भोजन करते समय बातचीत न की जाए, इस कारण हमारे यहां कहा जाता है कि भोजन के वक्त बात न करें, वरना वह भोजन दुष्टात्माओं को प्राप्त हो जाता है। आपने देखा होगा कि कई दुकानदार मुंह फेर कर भोजन करते हैं। प्रयोजन ये है कि एक तो ग्राहक आए तो उसे ख्याल रहे कि दुकानदार भोजन कर रहा है और वह कुछ देर इंतजार करे, दूसरा ये कि भोजन पर ग्राहक की नजर न पड़े। ऐसा मानते हैं कि भोजन पर किसी की नजर पडऩे पर उसमें दृष्टि दोष हो जाता है। इस दोष का अर्थ ये है कि अगर देखने वाला के मन में भोजन के प्रति क्षुधा का भाव आ जाए तो वह अशुद्ध हो जाता है। कई लोग दुकानों में सजाई मिठाई केवल इसी कारण नहीं खरीदते, क्योंकि उस पर न जाने कितने लोगों की ललचाई नजर पड़ी होगी। हमारे यहां तो यह तक चलन है कि भगवान के भोग लगाते समय या तो थाली को कपड़े से ढ़क कर रखते हैं या पर्दा लगा देते हैं। जब भगवान तक को एकांत में भोजन करवाते हैं तो हमें क्यों नहीं इस नियम की पालना करनी चाहिए। इसके पीछे एक भाव ये है कि मूर्ति के भोजन ग्रहण करने के चमत्कार को देखने की क्षमता हमारे में नहीं है।

https://www.youtube.com/watch?v=x4XwsP3n68s&t=18s


शुक्रवार, अप्रैल 18, 2025

क्या फ्रिज में आटे का लोया रखने पर उसे भूत खाने को आते हैं?

आजकल की व्यस्त जिंदगी में आमतौर पर गृहणियां आटे को गूंथ कर उसका लोया फ्रिज में रख देती हैं, ताकि जब खाने का वक्त हो तो उसे तुरंत निकाल कर गरम रोटी बनाई जा सके। यह आम बात है। इसको लेकर संस्कृति की दुहाई देते हुए सोशल मीडिया में यह जानकारी फैलाई रही है कि यह उचित नहीं है। वो इसलिए कि आटे का लोया पिंड का रूप ले लेता है, जिसे ग्रहण करने के लिए भूत-प्रेत आ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनिष्ट कर देते हैं। 

शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि आटे के ये पिंड भूतों-प्रेतों को निमंत्रण देते हैं। ये उन अतृप्त आत्माओं को आकर्षित करते हैं, जिनके पिंड दान नहीं किए गए हैं । इस आटे पर उनकी नकारात्मक ऊर्जा का वास हो जाता है। इस आटे को खाने से पूरे परिवार पर इसका असर पड़ता है। प्रसंगवश बता दें कि इस तथ्य को इस बात से जोड़ा जाता है कि हिंदुओं में पूर्वजों एवं मृत आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए पिंड दान की विधि बताई गई है। पिंडदान के लिए आटे का लोया, जिसे पिंड कहते हैं, बनाया जाता है। 

इसी संदर्भ में कहा जाता है कि आटे का लोया गोल होता है, वही मृतात्माओं को आमंत्रित करता है। यदि उस पर कुछ अंकित कर दिया जाए तो प्रेतात्माएं उस ओर आकर्षित नहीं होतीं। इस कारण कई महिलाएं आटे का लोया बनाने के बाद उस पर अंगुलियों के निशान अंकित कर देती हैं। यह निशान इस बात का प्रतीक होता है कि रखा हुआ पिंड पूर्वजों के लिए नहीं, बल्कि आम इंसानों के लिए है। जानकारी में ऐसा भी है कि महिलाएं आटा गूंथने के बाद उस पर अगुलियों के निशान बना कर उसमें पानी भर देती हैं। कुछ देर ऐसा करके रख देने से रोटियां मुलायम बनती हैं।

सवाल ये है कि सच क्या है? क्या वाकई भूत-प्रेत की धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है? या यूं ही प्रचलित मान्यता? 

जहां तक वैज्ञानिक तथ्य का सवाल है, ऐसा बताया जाता है कि आटा पानी के संपर्क में आने के बाद उसमें कई रासायनिक बदलाव आते हैं। ज्यादा समय तक रखने पर वे नुकसानदायक हो जाते हैं। अगर उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो हानिकारक किरणों पर भी प्रभाव पड़ता है। उस आटे से बनी रोटी खाने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है।

दूसरी ओर जो लोग भूत-प्रेत का अस्तित्व ही नहीं मानते, वे उनके आकर्षित होने को सिरे से नकार देते हैं। जो भूत-प्रेत का अस्तित्व मानते भी हैं, तो उनका मानना है कि आटा गूंथ कर फ्रिज में रखने से भले ही बीमारी का खतरा हो, मगर उसका भूत-प्रेत के आकर्षण से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। किसी भी भौतिक वस्तु का सेवन करने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। बिना इन्द्रियों के भौतिक वस्तुओं का सेवन नहीं किया जाता सकता। मृत्यु के बाद मनुष्य का सूक्ष्म शरीर, जिसे अक्सर भूत-प्रेत समझ लिया जाता है, केवल महसूस कर सकता है, भोग करने के लिए उसे इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जो कि उसके पास नहीं होतीं।

असल में दिक्कत ये है कि आटे के लोये को खाने के लिए भूत-प्रेतों के आने जैसे सवालों का सवाल है, उसका प्रचार करने वाले उसे शास्त्रोक्त तो बता देते हैं, मगर कभी जिक्र नहीं करते कि किस शास्त्र में ऐसा लिखा हुआ है। वे इस बात का भी जिक्र नहीं करते कि अमुक ऋषि ने इतने हजार लोगों पर प्रयोग करके यह तथ्य सिद्ध किया है। इसी कारण ऐसी बातें अंध विश्वास की श्रेणी में गिनी जाती हैं। बावजूद इसके भय के कारण कई उसे मान भी लेते हैं कि मानने में हर्ज ही क्या है? दिलचस्प बात ये है कि पिंड को खाने के लिए मृतात्माओं के आने वाली बात को जानते हुए भी अधिसंख्य महिलाएं व्यस्त जिंदगी में समय को बचाने के लिए अथवा आलस्य के कारण आटे का लोया बना कर फ्रिज में रखती हैं। 

हो सकता है कि भूत-प्रेत वाली बातें सच हों, मगर ऐसी बातें करने वालों को बाकायदा उस शास्त्र का हवाला देना चाहिए, अन्यथा लोग उसे अंध विश्वास ही करार देंगे। उनका मकसद भले ही संस्कृति को बचाना हो, मगर उनके बिना आधार के, केवल शास्त्र शब्द का हवाला देते हुए ऐसी बातें करने से उलटा संस्कृति का नुकसान ही होने वाला है। वे संस्कृति का बचाव नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे हैं।


https://www.youtube.com/watch?v=oISPhoRYOL0&t=12s

गुरुवार, अप्रैल 17, 2025

क्या मोक्ष प्राप्त संत की समाधि फल दे सकती है?

हम संत-महात्माओं की समाधियां बनाते हैं। वहां अपना सिर झुकाते हैं। हर साल उन समाधियों पर मेले लगते हैं। उनकी महिमा गाई जाती है। अपनी किसी मनोकामना को लेकर हम भी अरदास करते हैं। बिना किसी स्वार्थ के केवल श्रद्धा भाव से किसी समाधि पर मत्था टेकने वाले भी होंगे, मगर अमूमन किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही लोग समाधि की पूजा करते हैं।

जो महान आत्माएं अच्छे कार्य करके स्वर्ग चली गईं, मैं उनकी बात नहीं करता, वे कदाचित हमारी मनोकामना पूरी करती ही होंगी, चूंकि वे देवताओं की श्रेणी में मानी जा सकती हैं। मैं उनकी बात कर रहा हूं, जिनके बारे में हमारी मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गईं। मोक्ष का अर्थ ही है कि संसार से पूर्ण मुक्ति और परम सत्ता में विलीन हो जाना। उसके बाद भौतिक जगत से उनका कोई वास्ता ही नहीं रहता। यानि कि अगर हम ऐसी महान आत्मा की समाधि बनाते हैं तो वह वहां तो मौजूद नहीं हो सकती। उसका कोई अंश भी वहां नहीं है, चूंकि वे तो यहां से छूट कर परम धाम को चली गईं। तो फिर वहां किसी मनोरथ से सिर झुकाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। हां, समाधि स्थल उनकी याद के लिए तो ठीक है, उनके गुणों का स्मरण कर उन्हें आत्मसात करने के लिए उचित है, लेकिन यदि हम अगर ये सोचें कि वह हमारी मनोकामना भी पूरी करेंगी तो यह हमारा भ्रम मात्र है। चूंकि वह वहां है ही नहीं, हमारी बात सुनने के लिए। न ही हमारा उससे कोई कनैक्शन है, चूंकि वह तो मुक्त ही हो चुकी। उसका जगत से संबंध ही विच्छेद हो गया। बुलाएंगे कैसे, सुनने वाला ही नहीं रहा। परम सत्ता में भी उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है, चूंकि वह तो उसमें विलीन ही हो गई। फिर भी यदि हम समाधि के आगे खड़े हो कर उनका आह्वान करते हैं तो यह न केवल बेवकूफी है, अपितु घोर स्वार्थपरता है। हम कितने मतलबी हैं। उनको मोक्ष मिल गया, इसके प्रति अहोभाव तो है नहीं, उलटे खींच कर इसी जगत में रखना चाहते हैं, ताकि वे हमारे काम आते रहें।

इस सिलसिले में मैने एक महंत से चर्चा की व मेरी शंका का समाधान करने का आग्रह किया तो वे कुछ सोच कर बोले कि मेरी सोच बौद्धिक स्तर पर तर्कपूर्ण ही है। उनका कहना था कि बेशक मोक्ष प्राप्त संत की समाधि इच्छा पूर्ति का स्थल नहीं हो सकता। वह हमारी श्रद्धा का केन्द्र जरूर हो सकता है। वहां मन की शांति भी मिल सकती है। वहां से अच्छे कार्य करने की प्रेरणा भी मिल सकती है। लेकिन अगर हम वहां जा कर इच्छाओं का इजहार करते हैं, तो वह बेमानी है। आम आदमी इस बात को समझ नहीं पाता। वह तो स्वार्थ लेकर ही वहां जाता है। और अगर उसकी मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर उसे निराशा ही हाथ लगेगी। सिद्धांततः उन महंत के मन्तव्य से मेरी सोच मिलती है, वे मेरे नजरिये पर मुहर लगा रहे हैं, बावजूद इसके यही अंतिम सत्य है, ऐसा कहना इसलिए उचित नहीं क्योंकि हो सकता है कि मेरी समझ से भी परे कोई रहस्य हो, जो मुझे दिखाई न दे रहा हो। अगर आपको इस बारे में कोई जानकारी हो तो जरूर मेरा ज्ञानवर्द्धन कीजिएगा।

https://www.youtube.com/watch?v=C8-3ViWd4Ic


बुधवार, अप्रैल 16, 2025

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर क्यों बैठते हैं?

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है? यह सवाल मेरे जेहन में अरसे से है। इसका जवाब जानने की बहुत कोशिश की, मगर अब तक उसका ठीक ठीक कारण नहीं जान पाया हूं। भले ही आज वास्तविक कारण का हमें पता न हो, मगर यह परंपरा जरूर कोई न कोई राज लिए हुए है।

मुझे मोटे तौर यह समझ में आता है कि मंदिर के आध्यात्मिक माहौल को आत्मसात करने के बाद बाहर आने पर एक झटके में भौतिक जगत से जो सामना होता है, वह कहीं एक झटके में ही आध्यात्मिक भाव को नष्ट न कर दे। मंदिर के भीतर हमने जो ऊर्जा हासिल की है, वह बाहर आते ही भौतिक वातावरण में तिरोहित न हो जाए, इसलिए कुछ क्षण बैठ कर उसे भीतर गहरे बैठाने की कोशिश की जाती है।

हाल ही मेरे वरिष्ठ मित्र हाल दिल्ली निवासी श्री शिव शंकर गोयल, जो कि जाने-माने व्यंग्य लेखक हैं, ने इससे संबंधित पोस्ट वाट्स ऐप पर भेजी।  उसे हूबहू आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं, उसे पढऩे के बाद हम विचार करेंगे कि क्या वाकई हमें अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं-

परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या अटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर अपने घर / व्यापार / राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस श्लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है-

अनायासेन मरण

बिना देन्येन जीवन

देहान्त तव सान्निध्य

देहि मे परमेश्वर

इस श्लोक का अर्थ है

अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठा कर मृत्यु को प्राप्त न हो। चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।

बिना देन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन न हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस न हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।

देहांते तव सान्निध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।

देहि में परमेशवरम् अर्थात् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।

भगवान से प्रार्थना करते हुए उपरोक्त श्लोक का पाठ करें। 

गाडी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठ कर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है, वह भीख है।

प्रार्थना शब्द के प्र का अर्थ होता है विशेष अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और अर्थना अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।

मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, शृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।

दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुनः दर्शन करें।

इस पोस्ट में मंदिर के बाहर सीढ़ी पर बैठने के बाद क्या करना है, ये तो बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। साथ ही ऐसा करने का प्रयोजन भी आखिर में बताया गया है। वो यह कि भीतर जो दर्शन किया है, उसे सीढ़ी पर बैठ कर एक बार आत्मसात कर लें, ताकि वह चिरस्थाई हो जाए। जैसे पढ़ाई करते वक्त पढ़े हुए पाठ को याद रखने के लिए रिवीजन किया जाता है। 

बेशक एक कारण ये हो सकता है, हालांकि लोग तो इस कारण को जाने बिना ही केवल औपचारिक रूप से ऐसा करते हैं। एक वजह सम्मान की भी हो सकती है। मंदिर से बाहर निकलते वक्त हमारी पीठ मूर्ति की ओर होती है, जो कि उचित नहीं। अतः मूर्ति के देवता के प्रति आदर व आभार प्रकट करने के लिए सीढ़ी पर कुछ क्षण बैठा जाता होगा। मेरी खोज जारी है, यदि कोई और कारण भी जानकारी में आया तो आपसे शेयर जरूर करूंगा।


https://www.youtube.com/watch?v=w7tqIryKpQM

मंगलवार, अप्रैल 15, 2025

चौराहे, तिराहे व मार्ग के भी देवता होते हैं?

हिंदू धर्म में तैंतीस कोटी अर्थात करोड़ देवी-देवता माने जाते हैं। हालांकि इसको लेकर मतभिन्नता भी है। कुछ जानकारों का कहना है कि कोटि का अर्थ करोड़ तो होता है, मगर कोटि का अर्थ प्रकार भी होता है। उनका कहना है कि देवता तैंतीस कोटि अथवा प्रकार के होते हैं। जो कुछ भी हो, मगर यह पक्का है कि देवी-देवता अनगिनत हैं। हम तो पेड़-पौधे यथा तुलसी, पीपल, कल्पवृक्ष, बड़, आंवले का पेड़ इत्यादि में देवता मान कर उनकी पूजा करते हैं। यहां तक कि चौराहे, तिराहे व मार्ग के भी देवता होते हैं।

हरियाली अमावस्या पर कल्पवृक्ष की विशेष पूजा की जाती है। आंवला नवमी के दिन आंवले के पेड़ को पूजा जाता है। खेजड़ी, रात की रानी के पेड़ व बेर के झाड़ी में भूत-प्रेत का वास माना जाता है। इसी प्रकार पशु-पक्षी यथा गाय में सभी देवताओं व कुत्ते में शनि और बंदर में हनुमान जी की धारणा करते हैं। पहली रोटी गाय व आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। काली गाय व काले कुत्ते का तो और भी अधिक महत्व है। बंदरों को केला खिलाने की परंपरा है। आपकी जानकारी में होगा कि बंदर में हनुमान जी की मौजूदगी की मान्यता के कारण उसकी मृत्यु होने पर बाकायादा बैकुंठी निकाली जाती है। करंट से बंदर की मृत्यु हो जाने पर करंट वाले बालाजी के मंदिर कई शहरों में बनाए जा चुके हैं। इसी प्रकार सांड का अंतिम संस्कार करने से पहले बैकुंठी निकाली जाती है। कबूतर, चिडिय़ा इत्यादि को दाना डालने के पीछे भी देवताओं को तुष्ट करने का चलन है। ऐसी मान्यता है कि मकान की छत पर पूर्वजों की मौजूदगी है, इस कारण कई लोग वहां पक्षियो के लिए दाना बिखरते हैं। श्राद्ध पक्ष में कौए के लिए ग्रास निकाला जाता है। उल्लू को लक्ष्मी  का वाहन माना जाता है। चींटी के माध्यम से शनि देवता को प्रसन्न करने के लिए कीड़ी नगरे को सींचते हैं। कई लोग चूहे को इस कारण नहीं मारते कि वह गणेश जी का वाहन है। जलचरों में मछली को दाना डालने की परंपरा है। जल, धरती, वायु इत्यादि में भी देवताओं के दर्शन करते हैं। यहां तक कि पत्थर की मूर्ति बना कर उसमें विभिन्न प्रकार के देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा करके उसे पूजते हैं। निहायत तुच्छ सी झाड़ू में लक्ष्मी का वास होने की मान्यता है, इस कारण उसे गुप्त स्थान पर रखने व पैर न छुआने की सलाह दी जाती है। छिपकली में भी लक्ष्मी की मौजूदगी मानी जाती है। कहते हैं कि दीपावली के दिन अगर छिपकली दिखाई दे जाए तो समझिये कि लक्ष्मी माता ने दर्शन दे दिए हैं। वास्तु शास्त्र की बात करें तो हर रिहाहिशी मकान व व्यावसायिक स्थल और ऑफिस का अपना अलग वास्तु पुरुष है, जो कि विभिन्न देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। और तो और चौराहे, तिराहे व मार्ग तक में भी देवता की उपस्थिति होने की मान्यता है। 

मैंने देखा है कि चाय की दुकान करने वाले सुबह सबसे पहली चाय चौराहे, तिराहे या मार्ग को अर्पित करते हैं। इसी प्रकार नाश्ते की दुकान करने वाले भी भोग लगाते हैं। इस बारे में उनसे चर्चा करने पर यह निष्कर्ष निकला कि हालांकि उन्हें इसका ठीक से पता नहीं कि वे किस देवता को प्रसाद चढ़ा रहे हैं। वे तो परंपरा का पालन कर रहे हैं। फिर भी यह पूछने पर आपके भीतर ऐसा करते वक्त क्या भाव उत्पन्न होता है, तो वे बताते हैं कि चौराहे, तिराहे व मार्ग पर स्थानीय देवता की मौजूदगी है, चाहे उसका कोई नामकरण न हो। हम उनकी छत्रछाया में ही व्यवसाय करते हैं, इस कारण उनकी कृपा दृष्टि के लिए प्रसाद चढ़ाते हैं।

चौराहे, तिराहे या मार्ग का महत्व तंत्र में भी है। नजर उतारने सहित अनके प्रकार के टोने-टोटके के लिए इन स्थानों का उपयोग किया जाता है। आपने देखा होगा कि कई लोग किसी टोटके के तहत नीबू, कौड़ी, गेहूं, लाल-काला कपड़ा, दीपक, छोटी मटकी इत्यादि रखते हैं। यही सलाह दी जाती है कि उनको न छुएं। इसका मतलब ये हुआ कि तंत्र विद्या में भी इन जगहों पर शक्तियों का वास माना गया है।

है न हमारी सनातन संस्कृति सबसे अनूठी। शास्त्र तो कण-कण में भगवान की उपस्थिति मानता है। बताते हैं गीतांजलि काव्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले श्री रविन्द्र नाथ टैगोर का जब ईश्वर से साक्षात्कार हुआ तो उन्हें हर जगह उसके दर्शन होने लगे। भावातिरेक अवस्था में वे पेड़ों से लिपट कर रोया करते थे। लोग भले ही इसे पागलपन की हरकत मानते हों, मगर वे तो किसी और ही तल पर जीने लगे थे।


https://www.youtube.com/watch?v=r7pq9rOfUX0


रविवार, अप्रैल 13, 2025

रोना आए तो उसे रोकें नहीं

दोस्तो, नमस्कार। अमूमन कई ऐसे मौके आते हैं, जब हमारे भीतर संवदेना जाग जाती है। हम किसी के प्रति संवेदना से भर जाते हैं। कोई घटना देख कर, किसी की दर्दभरी दास्तान सुन कर, फिल्म में कोई दृष्य देख कर हमारा मन द्रवित होने लगता है, करूणा का झरना बहने लगता है, लेकिन हम हठात अपने आपको रोक लेते हैं। मन को कठोर कर लेते हैं। अपने आपको भावुक होने से बचाने की कोषिष करते हैं। रोने की इच्छा होती है, मगर हम जबरन कठोर होने की कोषिष करते हैं। अगर आंसू झलक भी आएं तो उन्हें पोंछ लेते हैं, ताकि कोई देख न ले। कदाचित उसे हम कमजोरी की निषानी मानते हैं। विषेश रूप से पुरूश। समाज में ऐसी व्यवस्था बन गई है कि पुरूश के रोने को ठीक नहीं माना जाता। रोने को महिलाओं के लिए छोड दिया गया है। 

मगर हम बडी भूल कर बैठते हैं। मन को पिघलने से रोकना, आंसुओं को आंखों में जब्ज करना हमारी सहज अवस्था से अपने आपको दूर करने के समान है। नतीजतन भीतर ग्रंथी उत्पन्न होती है। जब कि होना यह चाहिए कि जब भी भावुक होने की इच्छा हो, होने दें, मन को कडा न करें, आंसू बहने को हों, तो उनको रोकें नहीं। मेरा अनुभव यह है कि ऐसा करने पर भीतर की संवेदना हमें सरल, सहज कर देती है। जब भी किसी प्रसंग विषेश के कारण हम रोने लगते हैं तो मन निर्मल हो जाता है। कलुशता बह जाती है। भीतर पवित्रता का आभास होता है। जो कि बहुत आनंददायक है।


https://youtu.be/SoDx1wYUKGM

शनिवार, अप्रैल 12, 2025

सांस में छिपे हैं चमत्कारिक प्रयोग

भारतीय सनातन संस्कृति में शिव स्वरोदय एक ऐसा विज्ञान है, जिसका प्रयोग हर आम-ओ-खास कर सकता है, मगर अफसोसनाक पहलु ये है कि इसके बारे में चंद लोगों को ही जानकारी है। हालांकि विस्तार में जाने पर यह बहुत गूढ़ भी है, पूरे ब्रह्मांड का रहस्य इसमें छिपा है, जिसे योगाभ्यास करने वाला ही जान-समझ सकता है, लेकिन इसमें वर्णित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो न केवल आसानी से समझ में आते हैं, अपितु उनका प्रयोग भी बहुत सरल है। शास्त्रों के अनुसार यह विज्ञान मूलतः भगवान शिव व शक्ति के बीच का संवाद है, जिसमें जन कल्याण के लिए भगवान इसकी विस्तार से व्याख्या करते हैं। इस वीडियो में हम आम आदमी के हितार्थ कुछ टिप्स पर चर्चा करेंगे, ताकि वे उनका लाभ ले सके। 

टिप्स के वर्णन से पहले हम जरा इस विज्ञान के बारे में मोटी-मोटी जानकारी हासिल कर लें। यह तो आपके अनुभव में है ही हम अपनी नासिका छिद्रों से सांस लेते हैं और छोड़ते हैं। सांस हर पल चल रही है, खाते, पीते, चलते-फिरते, कुछ भी करते। स्वतः चल रही है। सोते समय भी यह स्वतः चलती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। हम सोच भी नहीं सकते कि इसके पीछे प्रकृति का एक अनूठा विज्ञान काम कर रहा है। जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि कभी तो हमारे नाक के बायें छिद्र से सांस आती-जाती है तो कभी दायें छिद्र से। हमें उसके महत्व का कोई भान नहीं, मगर इसके पीछे एक गहरा रहस्य छिपा है। 

बायें छिद्र से चलने वाली सांस को चंद्र स्वर कहते हैं और दायें छिद्र से चलने वाली सांस को सूर्य स्वर करते हैं। चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात पार्वती का रूप है। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले तो वह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा। मध्यमा स्वर क्रूर है। यह चलने पर हर काम के विघ्न आते हैं। 

चंद्र स्वर में ये कार्य किए किए जाने चाहिए-

विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि कार्य आदि चंद्र स्वर के चलते करने चाहिए। इसी प्रकार पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए।

सूर्य स्वर में किए जाने वाले कार्य ये हैं-

उत्तेजना, आवेश और जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनमें सूर्य स्वर उत्तम कहा जाता है। अर्थात यदि हम ऐसे कार्य के लिए जा रहे हैं, जिसमें वाद-विवाद होना है, तो सूर्य स्वर जीत दिलवाता है। सूर्य स्वर में स्नान, भोजन, शौच, औषधि सेवन, विद्या, संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं। घुड़सवारी अथवा वाहन पर चढ़ते समय सूर्य स्वर बेहतर होता है। 

सुषुम्ना स्वर साक्षात् काल स्वरूप है। इसमें ध्यान, समाधि, प्रभु स्मरण भजन-कीर्तन आदि सार्थक होते हैं। सुषुम्ना स्वर में अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें, अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। सुषुम्ना नाड़ी मोक्ष प्राप्त करवाती है।

कुछ उपयोगी टिप्स भी जान लेते हैं-

सुबह उठते वक्त जो भी स्वर चल रहा हो, उसी तरफ का पैर जमीन पर पहले रखें। इसके अतिरिक्त उसी तरफ के हाथ के दर्शन करें व हाथ को चूमें। उसके बाद दोनों हाथों को मिला कर दर्शन करें। स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, तो जिस तरफ स्वर चल रहा हो, उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें।

जब शरीर में अत्यधिक गर्मी महसूस करें, तब दाहिनी करवट लेट लें और बायां स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठंडक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा।

यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो जो स्वर नहीं चल रहा है, उस पैर को आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए तथा अचलित स्वर की ओर उस पुरुष या महिला को लेकर बातचीत करनी चाहिए। ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति को शांत हो जाएगा। गुरु, मित्र, अधिकारी, राजा, मंत्री आदि से वाम स्वर से ही वार्ता करनी चाहिए। 

सवाल ये उठता है कि यदि भोजन का समय हो गया हो और चंद्र स्वर चल रहा हो तो क्या करें? ऐसे में स्वर को बदलना ही होगा। यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए। इसी प्रकार इसका विलोम भी किया जा सकता है। अनुलोम-विलोम के अतिरिक्त चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जा सकता है। जिस नथुने से श्वास नहीं आ रही हो, उससे दूसरे नथुने को दबाकर पहले नथुने से श्वास निकालें। इस तरह कुछ ही देर में स्वर परिवर्तित हो जाएगा। घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है।

इस विज्ञान में यात्रा के लिए कुछ उपयोगी जानकारी दी गई है। पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र स्वर, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है। दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम या दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। बायें स्वर के चलते समय पूर्व तथा उत्तर दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। इससे यात्री को शत्रु का भय होता है और कभी-कभी तो यात्री घर वापस भी नहीं आता है। बायां या दाहिना कोई भी स्वर चल रहा हो और साथ ही सुषुम्ना भी चल रही हो तो मुख्य स्वर की तरफ वाला पांव आगे बढ़ा कर यात्रा करनी चाहिए। ऐसा करने से सफलता प्राप्त होती है।

आयु व मृत्यु के बारे में यह विज्ञान में विस्तार से जानकारी देता है। यदि किसी व्यक्ति का बायां स्वर लगातार चले और दाहिना स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु एक माह में होगी। जिस व्यक्ति की आयु समाप्त हो गयी है उसे अरुन्धती, धु्रव, विष्णु के तीन चरण और मातृमंडल नहीं दिखायी पड़ते। जिह्वा को अरुन्धती, नाक के अग्र भाग को धु्रव, दोनों भौहें और उनके मध्य भाग को विष्णु के तीन चरण तथा आंखों के तारों को मातृमंडल कहते हैं। जिस व्यक्ति को अपनी भौहें न दिखें, उसकी मृत्यु नौ दिन में, सामान्य ध्वनि कानों से न सुनाई पड़े तो सात दिन में, आंखों का तारा न दिखे तो पांच दिन में, नासिका का अग्रभाग न दिखे तो तीन दिन में और जिह्वा न दिखे तो एक दिन में मृत्यु होती है। आंखों के कोनों को दबाने पर चमकते तेज बिन्दु यदि न दिखें, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु दस दिन में होगी।

ऐसा बताया गया है कि जो लोग चन्द्र नाड़ी से सांस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से सांस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे दीर्घजीवी होते हैं। इसे ही अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम कहा गया है।

ज्योतिषी भी इस विज्ञान का उपयोग करते हैं। प्रश्नकर्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाए और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो मृत्यु शैया पर पड़ा व्यक्ति भी ठीक हो जाएगा। प्रश्नकर्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा। रोगी के बारे जानकारी चाहने वाला दूत प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी अभी और बीमार रहेगा।

रजस्वला होने के पांचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।

https://www.youtube.com/watch?v=DTdy8THzwfY&t=2s