एक कहावत है- कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। हालांकि यह पक्के तौर पर अभी से नहीं कहा जा सकता कि प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव की भी वैसी ही हालत होगी, मगर इन दिनों वे जो चाल चल रहे हैं, उसमें अंदेशा इसी बात का ज्यादा है।
हालांकि हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देशहित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे हैं। हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। गुरुतुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी करेंगे तो उन्हें भी वैसी ही टिप्पणियों का सामना करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि केवल वे ही हमला करते रहेंगे, अन्य भी उन पर हमला बोलेंगे। इसमें फिर उनके अनुयाइयों को बुरा नहीं लगना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि उन्हें हमले का विशेषाधिकार कैसे दिया जा सकता है?
हालांकि काले धन के बारे में बोलते हुए वे व्यवस्था पर ही चोट करते हैं, लेकिन गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बना बैठते हैं। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती जा रही है, जिसमें दंभ साफ नजर आता है, इसका नतीजा ये है कि अब कांग्रेस भी उन पर निशाना साधने लगी है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। हालांकि यह सही है कि ये संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। बताया तो ये भी जा रहा है कि कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे चुनाव लड़वाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे अपने प्रत्याशी मैदान उतारेंगे तो वे सभी अनुयायी उनके मतदाता बन जाएंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हो रहे हैं, लेकिन जैसे ही वे राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा। आगे चल कर हिंदूवादी विचारधारा वाली भाजपा को भी उनसे परहेज रखने की नौबत आ सकती है, क्योंकि उनके अनुयाइयों में अधिसंख्य हिंदूवादी विचारधारा के लोग हैं, जो बाबा के आह्वान पर उनके साथ होते हैं तो सीधे-सीधे भाजपा को नुकसान होगा। कदाचित इसी वजह से 30 जनवरी को देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों को भाजपा या आरएसएस ने खुल कर समर्थन नहीं दिया। बाबा रामदेव के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा रखने वाले लोग भले ही रैलियों में शामिल हुए हों, मगर चुनाव के वक्त वे सभी बाबा की ओर से खड़े किए गए प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, इसमें तनिक संदेह ही है। इसकी एक वजह ये है कि वे योग गुरू के रूप में भले ही बाबा रामदेव को पूजते हों, मगर राजनीतिक रूप से उनकी प्रतिबद्धता भाजपा के साथ रही है।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।
हालांकि हमारे लोकतांत्रिक देश में किसी भी विषय पर किसी को भी विचार रखने की आजादी है। इस लिहाज से बाबा रामदेव को भी पूरा अधिकार है। विशेष रूप से देशहित में काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना और उसके प्रति जनता में जागृति भी स्वागत योग्य है। इसी वजह से कुछ लोग तो बाबा में जयप्रकाश नारायण तक के दर्शन करने लगे हैं। हमारे अन्य आध्यात्मिक व धार्मिक गुरू भी राजनीति में शुचिता पर बोलते रहे हैं। मगर बाबा रामदेव जितने आक्रामक हो उठे हैं और देश के उद्धार के लिए खुल कर राजनीति में आने का आतुर हैं, उसमें उनको कितनी सफलता हासिल होगी, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर योग गुरू के रूप में उन्होंने जो अंतरराष्ट्रीय ख्याति व प्रतिष्ठा अर्जित की है, उस पर आंच आती साफ दिखाई दे रही है। गुरुतुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यंभावी है।
यह सर्वविदित ही है कि जब वे केवल योग की बात करते हैं तो उसमें कोई विवाद नहीं करता, लेकिन भगवा वस्त्रों के प्रति आम आदमी की श्रद्धा का नाजायज फायदा उठाते हुए राजनीतिक टीका-टिप्पणी करेंगे तो उन्हें भी वैसी ही टिप्पणियों का सामना करना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि केवल वे ही हमला करते रहेंगे, अन्य भी उन पर हमला बोलेंगे। इसमें फिर उनके अनुयाइयों को बुरा नहीं लगना चाहिए। स्वाभाविक सी बात है कि उन्हें हमले का विशेषाधिकार कैसे दिया जा सकता है?
हालांकि काले धन के बारे में बोलते हुए वे व्यवस्था पर ही चोट करते हैं, लेकिन गाहे-बगाहे नेहरू-गांधी परिवार को ही निशाना बना बैठते हैं। शनै: शनै: उनकी भाषा भी कटु होती जा रही है, जिसमें दंभ साफ नजर आता है, इसका नतीजा ये है कि अब कांग्रेस भी उन पर निशाना साधने लगी है। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। हालांकि यह सही है कि ये संपत्तियां बाबा रामदेव के नाम पर अथवा निजी नहीं हैं, मगर चंद वर्षों में ही उनकी सालाना आमदनी 400 करोड़ रुपए तक पहुंचने का तथ्य चौंकाने वाला ही है। बताया तो ये भी जा रहा है कि कुछ टीवी चैनलों में भी बाबा की भागीदारी है। बाबा के पास स्कॉटलैंड में दो मिलियन पौंड की कीमत का एक टापू भी बताया जाता है, हालांकि उनका कहना है वह किसी दानदाता दंपत्ति ने उन्हें भेंट किया है। भले ही बाबा ने खुद के नाम पर एक भी पैसा नहीं किया हो, मगर इतनी अपार धन संपदा ईमानदारों की आमदनी से तो आई हुई नहीं मानी जा सकती। निश्चित रूप से इसमें काले धन का योगदान है। इस लिहाज से पूंजीवाद का विरोध करने वाले बाबा खुद भी परोक्ष रूप से पूंजीपति हो गए हैं। और इसी पूंजी के दम पर वे चुनाव लड़वाएंगे।
ऐसा प्रतीत होता है कि योग और स्वास्थ्य की प्रभावी शिक्षा के कारण करोड़ों लोगों के उनके अनुयायी बनने से बाबा भ्रम में पड़ गए हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आगामी चुनाव में जब वे अपने प्रत्याशी मैदान उतारेंगे तो वे सभी अनुयायी उनके मतदाता बन जाएंगे। योग के मामले में भले ही लोग राजनीतिक विचारधारा का परित्याग कर सहज भाव से उनके इर्द-गिर्द जमा हो रहे हैं, लेकिन जैसे ही वे राजनीति का चोला धारण करेंगे, लोगों का रवैया भी बदल जाएगा। आगे चल कर हिंदूवादी विचारधारा वाली भाजपा को भी उनसे परहेज रखने की नौबत आ सकती है, क्योंकि उनके अनुयाइयों में अधिसंख्य हिंदूवादी विचारधारा के लोग हैं, जो बाबा के आह्वान पर उनके साथ होते हैं तो सीधे-सीधे भाजपा को नुकसान होगा। कदाचित इसी वजह से 30 जनवरी को देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों को भाजपा या आरएसएस ने खुल कर समर्थन नहीं दिया। बाबा रामदेव के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा रखने वाले लोग भले ही रैलियों में शामिल हुए हों, मगर चुनाव के वक्त वे सभी बाबा की ओर से खड़े किए गए प्रत्याशियों को ही वोट देंगे, इसमें तनिक संदेह ही है। इसकी एक वजह ये है कि वे योग गुरू के रूप में भले ही बाबा रामदेव को पूजते हों, मगर राजनीतिक रूप से उनकी प्रतिबद्धता भाजपा के साथ रही है।
जहां तक देश के मौजूदा राजनीतिक हालात का सवाल है, उसमें शुचिता, ईमानदारी व पारदर्शिता की बातें लगती तो रुचिकर हैं, मगर उससे कोई बड़ा बदलाव आ जाएगा, इस बात की संभावना कम ही है। ऐसा नहीं कि वे ऐसा प्रयास करने वाले पहले संत है, उनसे पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। कहीं ऐसा न हो कि बाबा रामदेव भी न तो पूरे राजनीतिज्ञ हो पाएं और न ही योग गुरू जैसे ऊंचे आसन की गरिमा कायम रख पाएं।
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