तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

बुधवार, अप्रैल 30, 2025

देवी-देवताओं को भी खुषामद पसंद हैं?

इस दुनिया में आम तौर पर हर आदमी अपना मतलब सिद्ध करने के लिए चमचागिरी करता है। हालांकि ऐसे भी लोग हैं जो कि आत्म सम्मान के नाम पर चमचागिरी से परहेज रखते हैं। उनमें से एक मैं भी हूं। मैं किसी को पूरी सहृदयता से अपेक्षित सम्मान तो दे सकता हूं, मगर चमचागिरी नहीं कर सकता। उसका खामियाजा भी बहुत उठाया है, क्यों कि अधिसंख्य लोग चमचागिरी पसंद हैं। वे योग्यता व पात्रता की बजाय चमचों को प्राथमिकता देते हैं। और मैं उन चमचों से पिछड़ जाता हूं। यह बात भलीभांति समझने के बावजूद अगर मैं सफलता के विशेष सूत्र, चमचागिरी का इस्तेमाल नहीं करता तो मुझ से ज्यादा बेवकूफ भला कौन होगा? मैं झूठ नहीं बोलूंगा। भौतिक जगत में भले ही मैं किसी की चमचागिरी नहीं करता, मगर आध्यात्मिक जगत में उससे कोई परहेज नहीं रखता। यह बात दीगर है कि मैं ऐसा करके क्या मांगता हूं? सच तो ये है कि कुछ नहीं मांगता। तर्क ये कि उसे ये पता होगा कि मुझे क्या चाहिए। अगर उसे मेरी जरूरत का ही पता नहीं चलता तो फिर मांगना क्या? उसे जो उचित लगेगा, वह दे देगा। हालांकि मेरे कुछ मित्रों का तर्क है कि मां भी रोये बिना दूध नहीं पिलाती, मगर ये बात आज तक मेरे दिमाग में नहीं बैठी। 

चलो मुद्दे पर आते हैं। आपने एक कहावत सुनी ही होगी। जिसकी लाठी, उसकी भैंस। यह जंगल में तो लागू है ही, सामाजिक व्यवस्था में भी फिट बैठती है। हर जगह ताकत की ही महत्ता है। हर ताकतवर अपने से कम ताकतवर को दबा रहा है और हर कम शक्तिमान अपने से अधिक शक्तिमान की खुषामद करने को मजबूर है। इस सत्य को मैने वृहत्तर स्तर पर देखने की कोशिश की है। यह पूरी प्रकृति में भी तो यह लागू होता है।

हम सब जानते हैं कि आदमी सर्वगुणसंपन्न नहीं है। न ही हो सकता है। कोई कितना भी शक्ति संपन्न क्यों न हो, एक सीमा के बाद उसे हाथ खड़े करने ही होते हैं। और तब उसे प्रकृति को सलाम ठोकना पड़ता है। वह सर्वशक्तिमान ईश्वर या किसी न किसी देवता के आगे आत्म समर्पण कर देता है। हालांकि हम उसे आस्था का नाम देते हैं, मगर असल में है वह खुषामद ही। ऋगवेद में ईश्वर का महिमा गान हो अथवा किसी भी देवी-देवता की चालीसा या आरती, उसमें आपको विरुदावलि ही नजर आएगी। यानि कि हम देवी-देवताओं को रिझाने के लिए, स्वार्थ पूर्ति के लिए उनके गुणों का गान करते हैं। वह भी खुषामद ही तो है। बस फर्क ये है कि गुणगान शब्द सुसंस्कृत है और खुषामद शब्द घटिया। चलो गुणगान तक तो ठीक है, मगर खुषामद का आलम ये है कि हम देवी-देवता को प्रसन्न करने के लिए उन्हें प्रसाद तक अर्पित करते हैं। अर्जी लगाते हैं कि हमारी अमुक मनोकामना पूरी होगी तो इतने रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। देवता का अर्थ है, जो हमें देता है। जैसे वरुण देवता, वायु देवता, सूर्य देवता, अग्नि देवता, धरती माता इत्यादि। वे सब हमारे जीवन के आधार हैं। कैसा विरोधाभास है कि जो हमें देते हैं, उन्हीं को हम दे कर पटाने की कोशिश करते हैं। प्रसाद चढ़ाने के विधान का जो भी रहस्य हो, मगर मोटे तौर पर तो यही सही है न कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा करके हम उन्हें प्रसन्न कर रहे हैं और वे भी अपनी दी हुई भौतिक वस्तु के अर्पण से प्रसन्न हो रहे हैं।

यदि ये सही है कि प्रसाद चढ़ाने व गुणगान करने से देवी-देवता राजी होते हैं, तो इसका अर्थ ये है कि वे भी खुषामद पसंद हैं। उन्हें भी अपनी जय जयकार पसंद है। देवी-देवता ही क्यों, इस सृष्टि को उत्पन्न करने, पालन करने और संहार करने वाले ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी आराधना करने पर वर देते हैं। उसमें मेरिट-डिमेरिट कुछ नहीं देखते। तभी तो राक्षस उन्हें रिझा कर वर हासिल कर लेते हैं। बाद में उसी वर का उपयोग वे देवताओं के खिलाफ करते हैं। देवता परेशान हो कर त्राहि-त्राहि माम करते हैं, तब जा कर वे उनकी रक्षा करते हैं। समझ में नहीं आता कि क्या वर दाताओं को यह ख्याल नहीं होता कि वे जिसे वर दे रहे हैं, वह उसका पात्र है भी या नहीं? या फिर उन्हें यह पता ही नहीं होता कि जिसे वे वर दे रहे हैं, उसके मन में क्या दुर्भावना है? या फिर आराधना के वक्त राक्षस पूर्ण सद्भावी होते हैं और वर हासिल करने के बाद उसका दुरुपयोग करते हैं? या उनको तो इससे सरोकार है कि किसने उनकी आराधना के लिए कितनी कठोर तपस्या की है? जो कुछ भी हो, मगर इतना तय है कि आराधना अर्थात चमचागिरी से वे प्रसन्न होते हैं। हो सकता है कि मुझे इस सत्य का दर्शन पूर्ण रूप से नहीं हो रहा हो, नहीं ही हो रहा होगा, मगर जहां तक मेरी समझ पहुंच पाई है, उससे मेरा नजरिया ये ही बना है कि खुषामद कोई बुरी बात नहीं है, वह करनी ही चाहिए, चूंकि पूरी प्रकृति का विधान यही है।


https://www.youtube.com/watch?v=_w6-GNeWrKo&t=9s

गीता में बाल होने का राज क्या है?

दोस्तो, नमस्कार। कुछ कथा वाचक व संत श्रोताओं का विष्वास जीतने के लिए एक अनूठी तरकीब का इस्तेमाल किया करते हैं। इसकी जानकारी मुझे अरसे पहले मेरी मां के माध्यम से हुई। वे आध्यात्मिक प्रवत्ति की थीं। अमूमन संतों के प्रवचन व कथा सुनने जाती थीं। एक बार कथा सुन कर आने पर उन्होंने बताया कि आज अमुक संत ने कहा कि यदि आपको मेरी बातों पर यकीन न हो तो घर जा कर देखना। गीता की जिस पुस्तक का आप पठन किया करती हैं, उसमें कहीं न कहीं बाल मिल जाएगा। उन्होंने पुस्तक को खंगाला तो एक जगह बाल मिल गया। मैं भी चकित रह गया। बाद में उन्होंने बताया कि उनके साथ कथा सुनने गईं अन्य महिलाओं को भी उनकी पुस्तकों में बाल मिला है। तब तो मैं सन्न रह गया। कि क्या कोई संत इस प्रकार घरों में रखी हुई गीता पुस्तकों में बाल भेज सकते हैं। हो सकता है कि ऐसा करना किन्हीं संतों की सामर्थ्य में हो, मैं उसे सिरे से तो नहीं नकारता, मगर मेरी भेद बुद्धि इस पर सहसा विष्वास नहीं करती। मुझे लगता है कि जो महिलाएं नियमित गीता का पाठ करती हैं, उनका बाल पुस्तक में गिरने की प्रबल संभावना हो सकती है। जैसे कई बार रोटी व सब्जी में बाल गिर जाता है। अच्छा, एक दिलचस्प बात और। वो यह कि कथा सुनने के बाद जिस महिला को पुस्तक में बाल नहीं मिलता, वह यही मानती है कि वह भाग्यवान नहीं है। उसे लगता है कि जब इतनी सारी महिलाओं को बाल मिले हैं, और अकेले उसको ही बाल क्यों नहीं मिला, तो कोई तो वजह होगी ही। यानि कि वह संत की बात पर षंका नहीं करती। और इसके पीछे है आस्था। आस्था तर्क को नहीं मानती। श्रद्धा उसे ऐसा करने से रोकती है।


मंगलवार, अप्रैल 29, 2025

सत्ताधीश पर जादू या मंत्र असर नहीं डालता?

दोस्तो, नमस्कार। वर्शों पहले मैने सुना था कि राजाओं, सत्ताधीषों और प्रशासनिक तंत्र के लिए काम करने वालों पर जादू या तंत्र-मंत्र का असर नहीं होता। इस बारे में विद्वानों से चर्चा की तो समझ में आया कि इसकी वजह क्या हो सकती है? अव्वल तो जादू-टोने के अस्तित्व पर ही सवाल खडे किए जाते हैं, कई लोग नहीं मानते कि जादू-टोना किया जा सकता है, मगर यदि यह धारणा बनी है कि सत्ताधीषों पर जादू असर नही करता तो जरूर को आधार होगा। 

असल में प्राचीन काल में राजाओं को अक्सर देवताओं का प्रतिनिधि या स्वयं देवता माना जाता था। इस दैवीय अधिकार के कारण, यह माना जाता था कि वे अलौकिक शक्तियों की वजह से सुरक्षित हैं। इसी प्रकार सत्ताधीष भी पूरी व्यवस्था के केन्द्र में स्थित होते हैं, षक्ति संपन्न होते हैं, इस कारण कोई जादूगर अथवा तांत्रिक चाहे तो उन पर अपने जादू या तंत्र-मंत्र का उपयोग नहीं कर सकता। जैसे कोई तांत्रिक प्रधानमंत्री से असहमत है, उसके खिलाफ है, तो वह चाह कर भी उस पर तंत्र का अस्त्र नहीं चला सकता। अगर वह ऐसा करने में सक्षम होता तो सारी सत्ता उसके षिकंजे में होती। मगर ऐसा हो नहीं सकता। प्रधानमंत्री को छोडिये, एक सामान्य सिपाही तक में भी सत्ता की प्रतिश्ठा होती है, इस कारण उस पर जादू-टोना काम नहीं कर सकता। आपके ख्याल में होगा कि किसी अनिश्ठकारी स्थान के पास जाने से आम आदमी घबराता है, मगर सत्ता के आदेष पर उसे ध्वस्त करने वाले सिपाही व मजदूर का कुछ नहीं बिगडता।

एक तर्क यह है कि सत्ताधीष के पद और अधिकार उन्हें एक प्रकार की स्वाभाविक सुरक्षा प्रदान करते हैं। उनकी शक्ति और प्रभाव इतना अधिक होता है कि सामान्य जादू या मंत्र उन तक नहीं पहुंच पाते। इसके अतिरिक्त सत्ता में बैठे लोग अक्सर कड़ी सुरक्षा के घेरे में रहते हैं। उनके आसपास हमेशा पहरेदार और सेवक होते हैं, जिससे किसी बाहरी व्यक्ति के लिए उन तक पहुंच कर जादू करना मुश्किल हो जाता है। 

यह भी संभव है कि यह विश्वास सत्ता में बैठे लोगों के प्रति एक प्रकार का भय और सम्मान दर्शाता है। लोगों का मानना हो सकता है कि उनकी शक्ति इतनी अधिक है कि कोई भी जादू उन पर काम नहीं कर सकता। राजा और प्रशासनिक तंत्र के पास संसाधनों और लोगों पर नियंत्रण होता है। यह संभव है कि वे अपने प्रभाव का उपयोग करके किसी भी जादू या मंत्र के प्रभाव को नकार सकते हैं या उससे बच सकते हैं।

आप देखिए न, कोई कथित योगी या तांत्रिक, जो कि आम तौर पर चमत्कार दिखाता है, लेकिन अगर किसी दुश्कर्म की वजह से उसे गिरफ्तार किया जाए तो वह पुलिस कर्मियों को कोई भी नुकसान नहीं पहुंचा पाता। जेल में रहने के दौरान प्रहरियों व न्यायाधीष का कुछ नहीं बिगाड पाता है। ऐसे कई कथित तांत्रिक व साधु इन दिनों जेल में बंद हैं, मगर वे अपने कथित योग बल से जेल के बाहर नहीं आ पा रहे। उन्हें न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना ही पड रहा है।


https://youtu.be/jwTK9Gy7yBk


सोमवार, अप्रैल 28, 2025

सात पीढी ही क्यों, आठ या नौ क्यों नहीं?

दोस्तो, नमस्कार। आपको जानकारी होगी कि हम पूर्वजों अथवा भावी पीढी के बारे में बात करते हैं तो सात पीढी का जिक्र आता है। इस सात के आंकडे के क्या मायने हैं? पीढी सात ही क्यों, आठ या नौ क्यों नहीं?

वस्तुतः सात पीढ़ी का उल्लेख खास तौर पर भारतीय संस्कृति, धर्म और सामाजिक परंपराओं में मिलता है। विद्वानों ने इसके पीछे धार्मिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक कारण बताए हैं। सनातन धर्म के अनुसार कर्म और पाप-पुण्य का प्रभाव सात पीढ़ियों तक चलता है। अर्थात किसी व्यक्ति के कर्म उसके पूर्वजों की सात पीढ़ियों से प्रभावित होते हैं। और उसके वंशजों की सात पीढ़ियों पर भी असर डाल सकते हैं। इसी कारण तर्पण, श्राद्ध आदि में सात पीढ़ियों का स्मरण किया जाता है। आधुनिक आनुवंशिकी यानि जेनेटिक्स में भी माना जाता है कि किसी व्यक्ति के जीन का प्रभाव लगभग 5-7 पीढ़ियों तक साफ तौर पर रह सकता है। उसके बाद जीन के बदलाव इतने हो जाते हैं कि मूल प्रभाव क्षीण होने लगता है। इसलिए सात पीढ़ी एक प्राकृतिक चक्र की तरह समझा जाता है। पूर्व में विवाह और वंश परंपरा में भी यह नियम था कि एक ही गोत्र अर्थात में सात पीढ़ियों तक शादी नहीं करनी चाहिए, ताकि रक्त संबंध बहुत पास-पास न हों और वंश में आनुवांशिक दोष न आएं। इसी से स्वस्थ संतति यानि औलाद का विचार भी जुड़ा था। भारतीय दर्शन में सात के अंक को एक पवित्र और संपूर्ण संख्या माना जाता है, जैसे सप्तर्षि, सप्तलोक, सप्तस्वर, सप्तसागर आदि। इसीलिए सात पीढ़ी का भी विशेष महत्व बन गया। कुल जमा सात एक तरह का पूर्ण और संतुलित चक्र माना गया है। आठवीं पीढ़ी से असर इतना क्षीण हो जाता है कि उसे सामाजिक या धार्मिक जिम्मेदारी के दायरे में रखना आवश्यक नहीं समझा गया। इसी प्रकार विवाह में सात फेरे व सात जन्मों का साथ रहने के पीछे भी यही साइंस प्रतीत होती है।

https://youtu.be/du_bXxZp0OU

शनिवार, अप्रैल 26, 2025

...तो वैज्ञानिकों की पूजा क्यों नहीं होनी चाहिए?

हाल ही मेरे एक मित्र ने मेरे सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जिसने मुझे सोचने को मजबूर कर दिया। उनकी बात तर्क के लिहाज से ठीक प्रतीत होती है, मगर होना क्या चाहिए, इस पर आप सुधि पाठक विचार कर सकते हैं।

सवाल है कि सुखी रहने के लिए हम देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। उनके चित्रों-मूर्तियों के आगे दिया-बत्ती, अगरबत्ती जलाते हैं, मगर जिन वैज्ञानिकों ने हमारी जिंदगी में भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए एक से बढ़ कर एक अविष्कार किए, उनकी पूजा तो दूर, याद तक नहीं करते। उनके सवाल में तनिक नास्तिकता झलकती है, वो इसलिए कि उन्होंने जिस ढ़ंग से सवाल किया, वह ऐसा आभास देता है। उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा कि पंक्चर ठीक करने वाला एक दुकानदार सुबह दुकान खोलने पर किसी न किसी देवता के आगे अगरबत्ती जलाता है, इस उम्मीद में कि उसकी रोजी-रोटी ठीक से चले। पता नहीं, अगरबत्ती करने से ऐसा होता भी है या नहीं, पता नहीं, क्योंकि बावजूद पूजा के उसके जीवन में कष्ट होते ही हैं। सुख के साथ सारे दुःख भी भोगता है। कोरोना महामारी में लॉक डाउन के दौरान सभी देवी-देवताओं के मंदिरों के पट बंद हो गए। वे पूजा-अर्चना से वंचित रह गए। वे महामारी के असर से अपने आपको नहीं बचा पाए। इसके आगे वे कहते हैं कि वह दुकानदार ऐसे ही देवी-देवता के आगे अगरबत्ती करता है, मगर जिन वैज्ञानिकों के अविष्कारों के बदोलत वह पंक्चर ठीक कर पाता है, उनका उसे ख्याल ही नहीं। जिन विज्ञान ऋषियों के सदके उसकी रोजी-रोटी चलती है, उनका उसे कोई स्मरण ही नहीं। जिस वैज्ञानिक ने बिजली की खोज की, जिस वैज्ञानिक ने प्रेशर पंप बनाया, क्या उसके चित्र के आगे उसे अगरबत्ती नहीं करनी चाहिए? उसके मन में ये विचार क्यों नहीं आता कि जिन वैज्ञानिकों के कारण उसकी आजीविका चल रही है, उनका चित्र लगा कर भी अगरबत्ती कर दे। सच तो ये है जिन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों का प्रतिपादन किया, उसी की बदोलत में हमारे जीवन में सारे भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन मौजूद हैं। जिस प्रकार ज्ञान के भंडार वेदों की ऋचाएं किसी एक ऋषि ने नहीं लिखी, एक लंबी शृंखला है ऋषियों की। उनकी वजह से ही हमें आध्यात्मिक समझ है। ठीक उसी प्रकार वैज्ञानिकों की भी एक लंबी शृंखला है, जिन्होंने उत्तरोत्तर नई नई खोजें कीं। सुख-सुविधाओं के साधनों के नाम पर आज क्या नहीं है हमारे पास।

बहरहाल, मेरे मित्र का सवाल सीधे-सीधे तो मेरे गले नहीं उतरा, क्योंकि देवी-देवता अपनी जगह हैं, वैज्ञानिक अपनी जगह। वस्तुतरू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना आस्था का सवाल है। हमें यकीन है कि हमारे शास्त्रों में जो कुछ भी बताया गया है, वह सही है। कई लोगों ने अनुभव भी किया होगा कि देवी-देवता आराधना, पूजा-अर्चना करने पर वे फल देते हैं। अतरू उस पर तो सवाल बनता ही नहीं। हां, ये ठीक है कि जिन वैज्ञानिकों ने वास्तव में प्रत्यक्षतरू हमारे जीवन में सुख के साधन जुटाएं हैं, वे भी सम्मान के पात्र हैं। जब हम अपने पूर्वजों, अपने नेताओं की मूर्तियों के आगे हर साल जयंती व पुण्य तिथी पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, तो वैज्ञानिकों को क्यों नहीं श्रद्धा के साथ याद करना चाहिए? क्या उनके नाम भी एक दिया नहीं बनता?


https://www.youtube.com/watch?v=7fXGG--x040&t=14s


शुक्रवार, अप्रैल 25, 2025

सांड लाल कपडा देख कर भडकता क्यों है?

दोस्तो, नमस्कार। आपको यह अनुभव होगा कि जब हम कहीं से गुजर रहे हों और लाल रंग का वस्त्र पहना हुआ व सामने से सांड आ रहा हो तो सलाह दी जाती है कि हम उससे नजर बचा कर चलें। अन्यथा वह हमला कर देगा। असल में यह एक बहुत ही आम धारणा है कि सांड लाल रंग देख कर भड़कता है। लेकिन यह दिलचस्प तथ्य है कि सांड कलर ब्लाइंड होते हैं। वे रंग अंधता से ग्रसित होते हैं। वे लाल और हरे रंग में अंतर नहीं कर पाते। सांड रंगों को इंसानों की तरह नहीं देख सकते। तो सवाल उठता है कि बुल फाइटिंग अर्थात सांड युद्ध में लाल कपडा देख कर वे भडकते क्यों हैं? असल में वे रंग की वजह से नहीं, बल्कि कपडे की हरकत के कारण प्रतिक्रिया देते हैं। सांड स्वाभाविक रूप से हिलती हुई वस्तुओं पर ध्यान देते हैं और उन्हें संभावित खतरे या चुनौती के रूप में देखते हैं। लहराता हुआ कपडा सांड का ध्यान आकर्षित करता है और उसे उत्तेजित करता है। बुल फाइटर जानबूझ कर कपड़े को इस तरह से हिलाता है कि सांड को उकसाया जा सके। जानकार लोग बताते हैं कि सांड स्वभाव से क्षेत्रीय होते हैं और किसी भी चीज को अपने क्षेत्र में घुसपैठ करते हुए देख कर आक्रामक हो सकते हैं। हिलता हुआ कपड़ा उनके क्षेत्र में एक चुनौती की तरह लगता है। सवाल यह भी उठता है कि सांड युद्ध में लाल रंग का ही कपडा क्यों लहराया जाता है, उसकी पक्की वजह का पता नहीं, वह परंरागत है। यह परंपरा क्यों पडी, पता नहीं, मगर समझा जाता है कि लाल रंग बहुत चमकीला होता है, खून का आभास देता है और देखने वालों को उत्तेजित करता है। इसी कारण लाल रंग का कपडा लहराया जाता है। और इसकी कारण यह धारणा बन गई कि लाल रंग से सांड भडकता है।


https://youtu.be/FGWMr_52EaY

गुरुवार, अप्रैल 24, 2025

गणेश चतुर्थी के दिन चांद को देखने पर लगता है झूठा आरोप

हालांकि आज के वैज्ञानिक चुग में जबकि मानव चंद्रमा की धरती पर पहुंच चुका है, ऐसे में इस प्रकार की अवधारणा खारिज सी होती है, मगर जैसा चलन में उसका जिक्र कर रहे हैं

यह एक बेहद रोचक मिथ है कि भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी अर्थात गणेश चतुर्थी के दिन चांद देखने पर आप पर झूठा आरोप लग जाता है। अर्थात जो अपराध आपने किया ही नहीं, वह आप पर मढ़ दिया जाता है। पुराणों के अनुसार ऐसा भगवान श्रीकृष्ण के साथ भी हो चुका है। एक प्रसंग में तो उन पर स्यमंतक मणि की चोरी झूठा आरोप लगा था।

सवाल उठता है कि आखिर गणेश चतुर्थी का चांद देखने पर झूठा आरोप लगता क्यों है? इस बारे में कथा है कि एक बार गणेश जी के लंबे पेट और हाथी के मुख को देख कर चंद्रमा को हंसी आ गई। गणेश जी इससे नाराज को गए और चंद्रमा से कहा कि तुम्हें अपने रूप का अहंकार हो गया है, अतरू अब तुम्हारा क्षय हो जाए। जो भी तुम्हें देखेगा, उसे झूठा कलंक लगेगा। गणेश जी के शाप से चन्द्रमा दुरूखी हो गए। उन्हें दुखी देख कर देवताओं ने राय दी कि गणेश जी की विधिवत पूजा करो। उनके प्रसन्न होने से शाप से मुक्ति मिल सकती है। चंद्रमा ने ऐसा ही किया। इस पर गणेश जी प्रसन्न तो हुए, मगर कहा कि शाप पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकता।ष्द्धड्डठ्ठस्र अपनी गलती चन्द्रमा को हमेशा याद रहे। तब से गणेश चतुर्थी के दिन जो भी चांद देखता है, उसे भगवान गणेश के प्रकोप का सामना करना पड़ता है। यदि भूल से चंद्र दर्शन हो जाये तो उसके निवारण के लिए श्रीमद्भागवत के 10 वें स्कंध के 56-57 वें अध्याय में उल्लेखित स्यमंतक मणि की चोरी कि कथा का श्रवण करना लाभकारक है। जिससे चंद्रमा के दर्शन से होने वाले मिथ्या कलंक का ज्यादा खतरा नहीं होगा।


https://www.youtube.com/watch?v=iaxBOFKtZKo


बुधवार, अप्रैल 23, 2025

क्या एक आत्मा की जगह दूसरी आत्मा को ले जाया जा सकता है?

हाल ही मेरे रिश्तेदारों के साथ एक ऐसा वाकया पेश आया, जिससे सवाल उठता है कि क्या यमदूत एक आत्मा की जगह दूसरी आत्मा को ले जा सकते हैं?

हुआ ये कि मेरे एक रिश्तेदार जयपुर से अहमदाबाद माइग्रेट हो रहे थे। सामान के साथ एक छोटे ट्रक में बैठ कर सफर कर रहे थे। रास्ते में उनकी छोटी बेटी अचानक अस्वस्थ हो गई। लगभग मरणासन्न हालत में आ जाने पर रास्ते में ही एक अस्पताल में भर्ती करवाया। मेरे रिश्तेदार की बुजुर्ग मां ने दुआ मांगी कि भगवान उसको तो उठा ले, लेकिन पोती को ठीक कर दे। अर्थात एक अर्थ में उन्होंने अपनी उम्र पोती को दान कर दी। इसे चमत्कार ही मानेंगे कि चंद घंटों में ही बुजुर्ग महिला की तो मौत हो गई, जबकि वह पूरी तरह स्वस्थ थी और उनकी पोती, जो कि मौत के करीब पहुंच चुकी थी, वह बिलकुल स्वस्थ हो गई।

इससे  सवाल उठता है कि क्या यह महज एक संयोग है यानि कि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है कि बुजुर्ग महिला की दुआ कबूल हो गई, जबकि वास्तविकता ये थी कि बच्ची की जिंदगी अभी बाकी थी और वह केवल बीमार हुई थी और बुजुर्ग की आयु समाप्त हो गई थी। सवाल ये भी है कि क्या दुआ वाकई कबूल हो गई? यानि कि किसी की उम्र किसी और के शरीर में शिफ्ट हो सकती है? अर्थात कोई अपनी सांसें किसी और को दान में दे सकता है। हमारे यहां ऐसा सुनने को मिलता है कि कई लोग अपनी उम्र किसी प्रियजन को लग जाने की दुआ मांगा करते हैं। समझा यही जाता है कि वह औपचारिक दुआ मात्र होती है। उसके फलित होने को सुनिश्चित नहीं माना जाता। वह मात्र प्रियजन के प्रति दुआगो के अनुराग का द्योतक है। लेकिन ताजा घटना, यदि संयोग नहीं है तो इस बात की पुष्टि करती है कि यदि दुआ सच्चे दिल से की जाए तो वह कबूल भी हो सकती है। इसका अर्थ ये भी हुआ कि उस बुजुर्ग महिला की जितनी उम्र बाकी थी, वह पोती में शिफ्ट हो गई तो वह अब उतने ही साल जीवित रहेगी, क्योंकि उसकी सांसें तो समाप्त होने वाली थीं।

आपने कई बार ये सुना होगा कि यमदूत कभी गलती से किसी की आत्मा ले जाते हैं, मगर जैसे ही उन्हें पता लगता है कि त्रुटि हो गई है तो वे वापस शरीर में आत्मा को प्रविष्ट कर देते हैं, अगर उसका अंतिम संस्कार न हुआ हो। ताजा प्रसंग में संभव है ऐसा हुआ हो कि लेने तो वे बुजुर्ग महिला की आत्मा आए हों और गलती से वे बच्ची की आत्मा लेने लगे हों और वह मरणासन्न अवस्था में आ गई हो, लेकिन जैसे ही उन्हें गलती का अहसास हुआ, तुरंत बच्ची को छोड़ कर बुजुर्ग की आत्मा को साथ ले गए हों। 

इस प्रसंग में एक बात ये भी गौर करने योग्य है कि बुजुर्ग महिला तनिक मंदबुद्धि थी। बेहद सहज व भोली-भाली अर्थात एकदम सच्ची इंसान। ऐसा संभव है कि भीतर से पवित्र इंसानों की इच्छा या दुआ शीघ्र मंजूर हो जाती हो।


https://www.youtube.com/watch?v=sqBxY9XZJcI


मंगलवार, अप्रैल 22, 2025

सिंधी समुदाय हर माह चांद उत्सव क्यों मनाता है?

सिंधी समुदाय नव हिंदू वर्श के आरंभ में चैत्र माह की प्रतिपदा यानि चेटीचंड को इस्ट देव झूलेलाल जी की जयंती बडे उत्साह के साथ मनाता है। इसके अतिरिक्त सिंधी समुदाय हर माह की अमावस्या के बाद पहली चांद रात यानि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा या द्वितीया को चांद उत्सव मनाता है। इसी दिन माह की षुरूआत मानी जाती है। यह उत्सव चंद्र दर्शन से जुड़ा होता है और इसका धार्मिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व होता है। आराध्य देव झूलेलाल जी को भी इस दिन विशेष पूजा अर्पित की जाती है। वस्तुतः सिंधी संस्कृति में चांद का विशेष महत्व है। सिंध प्रदेश, जो कि अब पाकिस्तान में है, में चांद की पूजा और चंद्र दर्शन को शुभ माना जाता था। यह परंपरा विभाजन के बाद भी भारत व दुनिया भर के सिंधी समुदायों में जीवित है। यह उत्सव एक प्रकार का धन्यवाद होता है। ईश्वर व प्रकृति को एक और माह की शुरुआत के लिए आभार प्रकट करने का तरीका। इस दिन सिंधी परिवार एकत्र होते हैं, चंद्रमा के दर्शन करते हैं, प्रार्थना करते हैं और फिर मिठाई या विशेष व्यंजन बना कर एक-दूसरे को बांटते हैं। सभी छोटे बडों का आषीर्वाद लेते हैं। इससे समाज में भाईचारा बढता है। एक गहरा रहस्य ये है कि चंद्रमा मन, शांति और संतुलन का प्रतीक है। चांद उत्सव में लोग ध्यान, प्रार्थना और सकारात्मक ऊर्जा के लिए चंद्रमा से जुड़ते हैं। 


https://youtu.be/l6bjUToIcGU


शनिवार, अप्रैल 19, 2025

जप करते समय माला को ढ़कते क्यों हैं?

आपने देखा होगा कि अनेक श्रद्धालु जप करते समय हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े अथवा गौमुखी से ढ़क कर रखते हैं। गौमुखी अर्थात गौमुख की आकृति में सिला हुआ कपड़ा, जिसमें माला सहित हाथ डाल कर जप किया जाता है। इसकी वजह क्या है?

वस्तुतः हमारे यहां मान्यता है कि योग व भोग एकांत में अर्थात छिप कर करना चाहिए। किसी की दृष्टि या उपस्थिति का व्यवधान नहीं होना चाहिए। योग के मायने योगाभ्यास व ईश्वर के साथ संबंध स्थापित करना अर्थात पूजा-अर्चना या स्वाध्याय है। असल में योग व प्रार्थना पूर्णतः वैयक्तिक मानी जाती है। उसमें खलल नहीं पडऩा चाहिए। हालांकि योगाभ्यास व प्रार्थना सामूहिक भी की जाती है, मगर उसका वास्तविक लाभ एकांत में करने पर ही मिलता है। वजह ये कि तभी एकाग्रता कायम हो पाती है। कई बार ऐसा संभव नहीं होता। अगर अपने घर पर अथवा सार्वजनिक स्थान पर माला फेरने का समय हो जाए तो बेहतर ये है कि माला को ढ़क कर रखा जाए। यदि आप जप करते समय माला को खुला रखते हैं तो उस पर अन्य लोगों की नजर पड़ती है। उससे दोष उत्पन्न होता है। 

इसी कारण विद्वान कहते हैं कि जप करते समय दाहिने हाथ में फेरी जा रही माला को कपड़े या गौमुखी से ढककर रखना चाहिए। आपने देखा होगा कि अनेक मुस्लिम भी तस्बीह फेरते समय उसे कपडे से ढक कर रखते हैं।

ऐसा प्रायः देखने में आता है कि कई लोग प्रवचन सुनते समय भी माला फेरते रहते हैं, मगर यह समझ से परे है कि वे प्रवचन व नाम स्मरण या मंत्रोच्चार के बीच कैसे सामंजस्य बैठा पाते होंगे। कभी प्रवचन पर ध्यान जाता होगा तो कभी जप पर। यानि कि दोनों ही अधूरे। किसी से बातचीत करते समय भी माला फेरने से कोई लाभ नहीं हो सकता। और अगर माला के मनकों को ही फेरा जा रहा है तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। 

तभी तो कबीरदास जी कहते हैं-

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

निहितार्थ यही है कि केवल माला के मनके फेरने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि उनके साथ मन का संबंध नहीं होगा।

इसी प्रकार भोग अर्थात भोजन व मैथुन भी एकांत में करने की सीख दी हुई है। आम तौर पर एकांत में भोजन करने की सुविधा नहीं होती, इस कारण नियम में पालना कम ही हो पाती है। आजकल तो डायनिंग टेबल का चलन है, जिसमें परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठ कर भोजन करते हैं, मगर पुरानी मान्यता ये है कि भोजन करते वक्त किसी की दृष्टि नहीं पडऩी चाहिए। एक साथ बैठ कर भोजन करने से स्वाभाविक रूप से आपस में बातचीत भी होती ही है, ऐसे में हम जो भोजन करते हैं, उससे ख्याल हट जाता है। हम उसका पूरा रस नहीं ले पाते। भोजन का वास्तविक आनंद उसका पूरा रस लेने में ही तो है। इसके लिए बेहतर ये है कि हम विभिन्न सांसारिक बातों का चिंतन करने की बजाय केवल भोजन पर ही ध्यान दें। भोजन करते समय बातचीत न की जाए, इस कारण हमारे यहां कहा जाता है कि भोजन के वक्त बात न करें, वरना वह भोजन दुष्टात्माओं को प्राप्त हो जाता है। आपने देखा होगा कि कई दुकानदार मुंह फेर कर भोजन करते हैं। प्रयोजन ये है कि एक तो ग्राहक आए तो उसे ख्याल रहे कि दुकानदार भोजन कर रहा है और वह कुछ देर इंतजार करे, दूसरा ये कि भोजन पर ग्राहक की नजर न पड़े। ऐसा मानते हैं कि भोजन पर किसी की नजर पडऩे पर उसमें दृष्टि दोष हो जाता है। इस दोष का अर्थ ये है कि अगर देखने वाला के मन में भोजन के प्रति क्षुधा का भाव आ जाए तो वह अशुद्ध हो जाता है। कई लोग दुकानों में सजाई मिठाई केवल इसी कारण नहीं खरीदते, क्योंकि उस पर न जाने कितने लोगों की ललचाई नजर पड़ी होगी। हमारे यहां तो यह तक चलन है कि भगवान के भोग लगाते समय या तो थाली को कपड़े से ढ़क कर रखते हैं या पर्दा लगा देते हैं। जब भगवान तक को एकांत में भोजन करवाते हैं तो हमें क्यों नहीं इस नियम की पालना करनी चाहिए। इसके पीछे एक भाव ये है कि मूर्ति के भोजन ग्रहण करने के चमत्कार को देखने की क्षमता हमारे में नहीं है।

https://www.youtube.com/watch?v=x4XwsP3n68s&t=18s


शुक्रवार, अप्रैल 18, 2025

क्या फ्रिज में आटे का लोया रखने पर उसे भूत खाने को आते हैं?

आजकल की व्यस्त जिंदगी में आमतौर पर गृहणियां आटे को गूंथ कर उसका लोया फ्रिज में रख देती हैं, ताकि जब खाने का वक्त हो तो उसे तुरंत निकाल कर गरम रोटी बनाई जा सके। यह आम बात है। इसको लेकर संस्कृति की दुहाई देते हुए सोशल मीडिया में यह जानकारी फैलाई रही है कि यह उचित नहीं है। वो इसलिए कि आटे का लोया पिंड का रूप ले लेता है, जिसे ग्रहण करने के लिए भूत-प्रेत आ जाते हैं और अनेक प्रकार के अनिष्ट कर देते हैं। 

शास्त्रों का हवाला देते हुए कहा जाता है कि आटे के ये पिंड भूतों-प्रेतों को निमंत्रण देते हैं। ये उन अतृप्त आत्माओं को आकर्षित करते हैं, जिनके पिंड दान नहीं किए गए हैं । इस आटे पर उनकी नकारात्मक ऊर्जा का वास हो जाता है। इस आटे को खाने से पूरे परिवार पर इसका असर पड़ता है। प्रसंगवश बता दें कि इस तथ्य को इस बात से जोड़ा जाता है कि हिंदुओं में पूर्वजों एवं मृत आत्माओं को संतुष्ट करने के लिए पिंड दान की विधि बताई गई है। पिंडदान के लिए आटे का लोया, जिसे पिंड कहते हैं, बनाया जाता है। 

इसी संदर्भ में कहा जाता है कि आटे का लोया गोल होता है, वही मृतात्माओं को आमंत्रित करता है। यदि उस पर कुछ अंकित कर दिया जाए तो प्रेतात्माएं उस ओर आकर्षित नहीं होतीं। इस कारण कई महिलाएं आटे का लोया बनाने के बाद उस पर अंगुलियों के निशान अंकित कर देती हैं। यह निशान इस बात का प्रतीक होता है कि रखा हुआ पिंड पूर्वजों के लिए नहीं, बल्कि आम इंसानों के लिए है। जानकारी में ऐसा भी है कि महिलाएं आटा गूंथने के बाद उस पर अगुलियों के निशान बना कर उसमें पानी भर देती हैं। कुछ देर ऐसा करके रख देने से रोटियां मुलायम बनती हैं।

सवाल ये है कि सच क्या है? क्या वाकई भूत-प्रेत की धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार है? या यूं ही प्रचलित मान्यता? 

जहां तक वैज्ञानिक तथ्य का सवाल है, ऐसा बताया जाता है कि आटा पानी के संपर्क में आने के बाद उसमें कई रासायनिक बदलाव आते हैं। ज्यादा समय तक रखने पर वे नुकसानदायक हो जाते हैं। अगर उसे फ्रिज में रख दिया जाए तो हानिकारक किरणों पर भी प्रभाव पड़ता है। उस आटे से बनी रोटी खाने से कई तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है।

दूसरी ओर जो लोग भूत-प्रेत का अस्तित्व ही नहीं मानते, वे उनके आकर्षित होने को सिरे से नकार देते हैं। जो भूत-प्रेत का अस्तित्व मानते भी हैं, तो उनका मानना है कि आटा गूंथ कर फ्रिज में रखने से भले ही बीमारी का खतरा हो, मगर उसका भूत-प्रेत के आकर्षण से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। किसी भी भौतिक वस्तु का सेवन करने के लिए इन्द्रियों की आवश्यकता होती है। बिना इन्द्रियों के भौतिक वस्तुओं का सेवन नहीं किया जाता सकता। मृत्यु के बाद मनुष्य का सूक्ष्म शरीर, जिसे अक्सर भूत-प्रेत समझ लिया जाता है, केवल महसूस कर सकता है, भोग करने के लिए उसे इन्द्रियों की आवश्यकता होती है, जो कि उसके पास नहीं होतीं।

असल में दिक्कत ये है कि आटे के लोये को खाने के लिए भूत-प्रेतों के आने जैसे सवालों का सवाल है, उसका प्रचार करने वाले उसे शास्त्रोक्त तो बता देते हैं, मगर कभी जिक्र नहीं करते कि किस शास्त्र में ऐसा लिखा हुआ है। वे इस बात का भी जिक्र नहीं करते कि अमुक ऋषि ने इतने हजार लोगों पर प्रयोग करके यह तथ्य सिद्ध किया है। इसी कारण ऐसी बातें अंध विश्वास की श्रेणी में गिनी जाती हैं। बावजूद इसके भय के कारण कई उसे मान भी लेते हैं कि मानने में हर्ज ही क्या है? दिलचस्प बात ये है कि पिंड को खाने के लिए मृतात्माओं के आने वाली बात को जानते हुए भी अधिसंख्य महिलाएं व्यस्त जिंदगी में समय को बचाने के लिए अथवा आलस्य के कारण आटे का लोया बना कर फ्रिज में रखती हैं। 

हो सकता है कि भूत-प्रेत वाली बातें सच हों, मगर ऐसी बातें करने वालों को बाकायदा उस शास्त्र का हवाला देना चाहिए, अन्यथा लोग उसे अंध विश्वास ही करार देंगे। उनका मकसद भले ही संस्कृति को बचाना हो, मगर उनके बिना आधार के, केवल शास्त्र शब्द का हवाला देते हुए ऐसी बातें करने से उलटा संस्कृति का नुकसान ही होने वाला है। वे संस्कृति का बचाव नहीं, बल्कि उसका नुकसान कर रहे हैं।


https://www.youtube.com/watch?v=oISPhoRYOL0&t=12s

गुरुवार, अप्रैल 17, 2025

क्या मोक्ष प्राप्त संत की समाधि फल दे सकती है?

हम संत-महात्माओं की समाधियां बनाते हैं। वहां अपना सिर झुकाते हैं। हर साल उन समाधियों पर मेले लगते हैं। उनकी महिमा गाई जाती है। अपनी किसी मनोकामना को लेकर हम भी अरदास करते हैं। बिना किसी स्वार्थ के केवल श्रद्धा भाव से किसी समाधि पर मत्था टेकने वाले भी होंगे, मगर अमूमन किसी इच्छा की पूर्ति के लिए ही लोग समाधि की पूजा करते हैं।

जो महान आत्माएं अच्छे कार्य करके स्वर्ग चली गईं, मैं उनकी बात नहीं करता, वे कदाचित हमारी मनोकामना पूरी करती ही होंगी, चूंकि वे देवताओं की श्रेणी में मानी जा सकती हैं। मैं उनकी बात कर रहा हूं, जिनके बारे में हमारी मान्यता है कि वे मोक्ष को प्राप्त हो गईं। मोक्ष का अर्थ ही है कि संसार से पूर्ण मुक्ति और परम सत्ता में विलीन हो जाना। उसके बाद भौतिक जगत से उनका कोई वास्ता ही नहीं रहता। यानि कि अगर हम ऐसी महान आत्मा की समाधि बनाते हैं तो वह वहां तो मौजूद नहीं हो सकती। उसका कोई अंश भी वहां नहीं है, चूंकि वे तो यहां से छूट कर परम धाम को चली गईं। तो फिर वहां किसी मनोरथ से सिर झुकाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। हां, समाधि स्थल उनकी याद के लिए तो ठीक है, उनके गुणों का स्मरण कर उन्हें आत्मसात करने के लिए उचित है, लेकिन यदि हम अगर ये सोचें कि वह हमारी मनोकामना भी पूरी करेंगी तो यह हमारा भ्रम मात्र है। चूंकि वह वहां है ही नहीं, हमारी बात सुनने के लिए। न ही हमारा उससे कोई कनैक्शन है, चूंकि वह तो मुक्त ही हो चुकी। उसका जगत से संबंध ही विच्छेद हो गया। बुलाएंगे कैसे, सुनने वाला ही नहीं रहा। परम सत्ता में भी उसका अलग से कोई अस्तित्व नहीं है, चूंकि वह तो उसमें विलीन ही हो गई। फिर भी यदि हम समाधि के आगे खड़े हो कर उनका आह्वान करते हैं तो यह न केवल बेवकूफी है, अपितु घोर स्वार्थपरता है। हम कितने मतलबी हैं। उनको मोक्ष मिल गया, इसके प्रति अहोभाव तो है नहीं, उलटे खींच कर इसी जगत में रखना चाहते हैं, ताकि वे हमारे काम आते रहें।

इस सिलसिले में मैने एक महंत से चर्चा की व मेरी शंका का समाधान करने का आग्रह किया तो वे कुछ सोच कर बोले कि मेरी सोच बौद्धिक स्तर पर तर्कपूर्ण ही है। उनका कहना था कि बेशक मोक्ष प्राप्त संत की समाधि इच्छा पूर्ति का स्थल नहीं हो सकता। वह हमारी श्रद्धा का केन्द्र जरूर हो सकता है। वहां मन की शांति भी मिल सकती है। वहां से अच्छे कार्य करने की प्रेरणा भी मिल सकती है। लेकिन अगर हम वहां जा कर इच्छाओं का इजहार करते हैं, तो वह बेमानी है। आम आदमी इस बात को समझ नहीं पाता। वह तो स्वार्थ लेकर ही वहां जाता है। और अगर उसकी मनोकामना पूरी नहीं हुई तो फिर उसे निराशा ही हाथ लगेगी। सिद्धांततः उन महंत के मन्तव्य से मेरी सोच मिलती है, वे मेरे नजरिये पर मुहर लगा रहे हैं, बावजूद इसके यही अंतिम सत्य है, ऐसा कहना इसलिए उचित नहीं क्योंकि हो सकता है कि मेरी समझ से भी परे कोई रहस्य हो, जो मुझे दिखाई न दे रहा हो। अगर आपको इस बारे में कोई जानकारी हो तो जरूर मेरा ज्ञानवर्द्धन कीजिएगा।

https://www.youtube.com/watch?v=C8-3ViWd4Ic


बुधवार, अप्रैल 16, 2025

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर क्यों बैठते हैं?

मंदिर में दर्शन के बाद बाहर सीढ़ी पर थोड़ी देर क्यों बैठा जाता है? यह सवाल मेरे जेहन में अरसे से है। इसका जवाब जानने की बहुत कोशिश की, मगर अब तक उसका ठीक ठीक कारण नहीं जान पाया हूं। भले ही आज वास्तविक कारण का हमें पता न हो, मगर यह परंपरा जरूर कोई न कोई राज लिए हुए है।

मुझे मोटे तौर यह समझ में आता है कि मंदिर के आध्यात्मिक माहौल को आत्मसात करने के बाद बाहर आने पर एक झटके में भौतिक जगत से जो सामना होता है, वह कहीं एक झटके में ही आध्यात्मिक भाव को नष्ट न कर दे। मंदिर के भीतर हमने जो ऊर्जा हासिल की है, वह बाहर आते ही भौतिक वातावरण में तिरोहित न हो जाए, इसलिए कुछ क्षण बैठ कर उसे भीतर गहरे बैठाने की कोशिश की जाती है।

हाल ही मेरे वरिष्ठ मित्र हाल दिल्ली निवासी श्री शिव शंकर गोयल, जो कि जाने-माने व्यंग्य लेखक हैं, ने इससे संबंधित पोस्ट वाट्स ऐप पर भेजी।  उसे हूबहू आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं, उसे पढऩे के बाद हम विचार करेंगे कि क्या वाकई हमें अपने सवाल का जवाब मिला या नहीं-

परम्परा है कि किसी भी मंदिर में दर्शन के बाद बाहर आकर मंदिर की पैड़ी या अटले पर थोड़ी देर बैठना। क्या आप जानते हैं इस परंपरा का क्या कारण है? आजकल तो लोग मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर अपने घर / व्यापार / राजनीति इत्यादि की चर्चा करते हैं, परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए बनाई गई है। वास्तव में मंदिर की पैड़ी पर बैठ कर एक श्लोक बोलना चाहिए। यह श्लोक आजकल के लोग भूल गए हैं। इस श्लोक को मनन करें और आने वाली पीढ़ी को भी बताएं। श्लोक इस प्रकार है-

अनायासेन मरण

बिना देन्येन जीवन

देहान्त तव सान्निध्य

देहि मे परमेश्वर

इस श्लोक का अर्थ है

अनायासेन मरणम् अर्थात् बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और कभी भी बीमार होकर बिस्तर पर न पड़ें, कष्ट उठा कर मृत्यु को प्राप्त न हो। चलते फिरते ही हमारे प्राण निकल जाएं।

बिना देन्येन जीवनम् अर्थात् परवशता का जीवन न हो। कभी किसी के सहारे न रहना पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस न हों। ठाकुर जी की कृपा से बिना भीख के ही जीवन बसर हो सकें।

देहांते तव सान्निध्यम् अर्थात् जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो। जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर (कृष्ण जी) उनके सम्मुख जाकर खड़े हो गए। उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।

देहि में परमेशवरम् अर्थात् हे परमेश्वर ऐसा वरदान हमें देना।

भगवान से प्रार्थना करते हुए उपरोक्त श्लोक का पाठ करें। 

गाडी, लाडी, लड़का, लड़की, पति, पत्नी, घर, धन इत्यादि (अर्थात् संसार) नहीं मांगना है, यह तो भगवान आप की पात्रता के हिसाब से खुद आपको देते हैं। इसीलिए दर्शन करने के बाद बैठ कर यह प्रार्थना अवश्य करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है। याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। जैसे कि घर, व्यापार,नौकरी, पुत्र, पुत्री, सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो मांग की जाती है, वह याचना है, वह भीख है।

प्रार्थना शब्द के प्र का अर्थ होता है विशेष अर्थात् विशिष्ट, श्रेष्ठ और अर्थना अर्थात् निवेदन। प्रार्थना का अर्थ हुआ विशेष निवेदन।

मंदिर में भगवान का दर्शन सदैव खुली आंखों से करना चाहिए, निहारना चाहिए। कुछ लोग वहां आंखें बंद करके खड़े रहते हैं। आंखें बंद क्यों करना, हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद का, शृंगार का, संपूर्ण आनंद लें, आंखों में भर ले निज-स्वरूप को।

दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठें, तब नेत्र बंद करके जो दर्शन किया है, उस स्वरूप का ध्यान करें। मंदिर से बाहर आने के बाद, पैड़ी पर बैठ कर स्वयं की आत्मा का ध्यान करें, तब नेत्र बंद करें और अगर निज आत्मस्वरूप ध्यान में भगवान नहीं आए तो दोबारा मंदिर में जाएं और पुनः दर्शन करें।

इस पोस्ट में मंदिर के बाहर सीढ़ी पर बैठने के बाद क्या करना है, ये तो बहुत अच्छे तरीके से बताया गया है। साथ ही ऐसा करने का प्रयोजन भी आखिर में बताया गया है। वो यह कि भीतर जो दर्शन किया है, उसे सीढ़ी पर बैठ कर एक बार आत्मसात कर लें, ताकि वह चिरस्थाई हो जाए। जैसे पढ़ाई करते वक्त पढ़े हुए पाठ को याद रखने के लिए रिवीजन किया जाता है। 

बेशक एक कारण ये हो सकता है, हालांकि लोग तो इस कारण को जाने बिना ही केवल औपचारिक रूप से ऐसा करते हैं। एक वजह सम्मान की भी हो सकती है। मंदिर से बाहर निकलते वक्त हमारी पीठ मूर्ति की ओर होती है, जो कि उचित नहीं। अतः मूर्ति के देवता के प्रति आदर व आभार प्रकट करने के लिए सीढ़ी पर कुछ क्षण बैठा जाता होगा। मेरी खोज जारी है, यदि कोई और कारण भी जानकारी में आया तो आपसे शेयर जरूर करूंगा।


https://www.youtube.com/watch?v=w7tqIryKpQM

मंगलवार, अप्रैल 15, 2025

चौराहे, तिराहे व मार्ग के भी देवता होते हैं?

हिंदू धर्म में तैंतीस कोटी अर्थात करोड़ देवी-देवता माने जाते हैं। हालांकि इसको लेकर मतभिन्नता भी है। कुछ जानकारों का कहना है कि कोटि का अर्थ करोड़ तो होता है, मगर कोटि का अर्थ प्रकार भी होता है। उनका कहना है कि देवता तैंतीस कोटि अथवा प्रकार के होते हैं। जो कुछ भी हो, मगर यह पक्का है कि देवी-देवता अनगिनत हैं। हम तो पेड़-पौधे यथा तुलसी, पीपल, कल्पवृक्ष, बड़, आंवले का पेड़ इत्यादि में देवता मान कर उनकी पूजा करते हैं। यहां तक कि चौराहे, तिराहे व मार्ग के भी देवता होते हैं।

हरियाली अमावस्या पर कल्पवृक्ष की विशेष पूजा की जाती है। आंवला नवमी के दिन आंवले के पेड़ को पूजा जाता है। खेजड़ी, रात की रानी के पेड़ व बेर के झाड़ी में भूत-प्रेत का वास माना जाता है। इसी प्रकार पशु-पक्षी यथा गाय में सभी देवताओं व कुत्ते में शनि और बंदर में हनुमान जी की धारणा करते हैं। पहली रोटी गाय व आखिरी रोटी कुत्ते के लिए निकाली जाती है। काली गाय व काले कुत्ते का तो और भी अधिक महत्व है। बंदरों को केला खिलाने की परंपरा है। आपकी जानकारी में होगा कि बंदर में हनुमान जी की मौजूदगी की मान्यता के कारण उसकी मृत्यु होने पर बाकायादा बैकुंठी निकाली जाती है। करंट से बंदर की मृत्यु हो जाने पर करंट वाले बालाजी के मंदिर कई शहरों में बनाए जा चुके हैं। इसी प्रकार सांड का अंतिम संस्कार करने से पहले बैकुंठी निकाली जाती है। कबूतर, चिडिय़ा इत्यादि को दाना डालने के पीछे भी देवताओं को तुष्ट करने का चलन है। ऐसी मान्यता है कि मकान की छत पर पूर्वजों की मौजूदगी है, इस कारण कई लोग वहां पक्षियो के लिए दाना बिखरते हैं। श्राद्ध पक्ष में कौए के लिए ग्रास निकाला जाता है। उल्लू को लक्ष्मी  का वाहन माना जाता है। चींटी के माध्यम से शनि देवता को प्रसन्न करने के लिए कीड़ी नगरे को सींचते हैं। कई लोग चूहे को इस कारण नहीं मारते कि वह गणेश जी का वाहन है। जलचरों में मछली को दाना डालने की परंपरा है। जल, धरती, वायु इत्यादि में भी देवताओं के दर्शन करते हैं। यहां तक कि पत्थर की मूर्ति बना कर उसमें विभिन्न प्रकार के देवताओं की प्राण-प्रतिष्ठा करके उसे पूजते हैं। निहायत तुच्छ सी झाड़ू में लक्ष्मी का वास होने की मान्यता है, इस कारण उसे गुप्त स्थान पर रखने व पैर न छुआने की सलाह दी जाती है। छिपकली में भी लक्ष्मी की मौजूदगी मानी जाती है। कहते हैं कि दीपावली के दिन अगर छिपकली दिखाई दे जाए तो समझिये कि लक्ष्मी माता ने दर्शन दे दिए हैं। वास्तु शास्त्र की बात करें तो हर रिहाहिशी मकान व व्यावसायिक स्थल और ऑफिस का अपना अलग वास्तु पुरुष है, जो कि विभिन्न देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता है। और तो और चौराहे, तिराहे व मार्ग तक में भी देवता की उपस्थिति होने की मान्यता है। 

मैंने देखा है कि चाय की दुकान करने वाले सुबह सबसे पहली चाय चौराहे, तिराहे या मार्ग को अर्पित करते हैं। इसी प्रकार नाश्ते की दुकान करने वाले भी भोग लगाते हैं। इस बारे में उनसे चर्चा करने पर यह निष्कर्ष निकला कि हालांकि उन्हें इसका ठीक से पता नहीं कि वे किस देवता को प्रसाद चढ़ा रहे हैं। वे तो परंपरा का पालन कर रहे हैं। फिर भी यह पूछने पर आपके भीतर ऐसा करते वक्त क्या भाव उत्पन्न होता है, तो वे बताते हैं कि चौराहे, तिराहे व मार्ग पर स्थानीय देवता की मौजूदगी है, चाहे उसका कोई नामकरण न हो। हम उनकी छत्रछाया में ही व्यवसाय करते हैं, इस कारण उनकी कृपा दृष्टि के लिए प्रसाद चढ़ाते हैं।

चौराहे, तिराहे या मार्ग का महत्व तंत्र में भी है। नजर उतारने सहित अनके प्रकार के टोने-टोटके के लिए इन स्थानों का उपयोग किया जाता है। आपने देखा होगा कि कई लोग किसी टोटके के तहत नीबू, कौड़ी, गेहूं, लाल-काला कपड़ा, दीपक, छोटी मटकी इत्यादि रखते हैं। यही सलाह दी जाती है कि उनको न छुएं। इसका मतलब ये हुआ कि तंत्र विद्या में भी इन जगहों पर शक्तियों का वास माना गया है।

है न हमारी सनातन संस्कृति सबसे अनूठी। शास्त्र तो कण-कण में भगवान की उपस्थिति मानता है। बताते हैं गीतांजलि काव्य के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले श्री रविन्द्र नाथ टैगोर का जब ईश्वर से साक्षात्कार हुआ तो उन्हें हर जगह उसके दर्शन होने लगे। भावातिरेक अवस्था में वे पेड़ों से लिपट कर रोया करते थे। लोग भले ही इसे पागलपन की हरकत मानते हों, मगर वे तो किसी और ही तल पर जीने लगे थे।


https://www.youtube.com/watch?v=r7pq9rOfUX0


रविवार, अप्रैल 13, 2025

रोना आए तो उसे रोकें नहीं

दोस्तो, नमस्कार। अमूमन कई ऐसे मौके आते हैं, जब हमारे भीतर संवदेना जाग जाती है। हम किसी के प्रति संवेदना से भर जाते हैं। कोई घटना देख कर, किसी की दर्दभरी दास्तान सुन कर, फिल्म में कोई दृष्य देख कर हमारा मन द्रवित होने लगता है, करूणा का झरना बहने लगता है, लेकिन हम हठात अपने आपको रोक लेते हैं। मन को कठोर कर लेते हैं। अपने आपको भावुक होने से बचाने की कोषिष करते हैं। रोने की इच्छा होती है, मगर हम जबरन कठोर होने की कोषिष करते हैं। अगर आंसू झलक भी आएं तो उन्हें पोंछ लेते हैं, ताकि कोई देख न ले। कदाचित उसे हम कमजोरी की निषानी मानते हैं। विषेश रूप से पुरूश। समाज में ऐसी व्यवस्था बन गई है कि पुरूश के रोने को ठीक नहीं माना जाता। रोने को महिलाओं के लिए छोड दिया गया है। 

मगर हम बडी भूल कर बैठते हैं। मन को पिघलने से रोकना, आंसुओं को आंखों में जब्ज करना हमारी सहज अवस्था से अपने आपको दूर करने के समान है। नतीजतन भीतर ग्रंथी उत्पन्न होती है। जब कि होना यह चाहिए कि जब भी भावुक होने की इच्छा हो, होने दें, मन को कडा न करें, आंसू बहने को हों, तो उनको रोकें नहीं। मेरा अनुभव यह है कि ऐसा करने पर भीतर की संवेदना हमें सरल, सहज कर देती है। जब भी किसी प्रसंग विषेश के कारण हम रोने लगते हैं तो मन निर्मल हो जाता है। कलुशता बह जाती है। भीतर पवित्रता का आभास होता है। जो कि बहुत आनंददायक है।


https://youtu.be/SoDx1wYUKGM

शनिवार, अप्रैल 12, 2025

सांस में छिपे हैं चमत्कारिक प्रयोग

भारतीय सनातन संस्कृति में शिव स्वरोदय एक ऐसा विज्ञान है, जिसका प्रयोग हर आम-ओ-खास कर सकता है, मगर अफसोसनाक पहलु ये है कि इसके बारे में चंद लोगों को ही जानकारी है। हालांकि विस्तार में जाने पर यह बहुत गूढ़ भी है, पूरे ब्रह्मांड का रहस्य इसमें छिपा है, जिसे योगाभ्यास करने वाला ही जान-समझ सकता है, लेकिन इसमें वर्णित अनेक तथ्य ऐसे हैं, जो न केवल आसानी से समझ में आते हैं, अपितु उनका प्रयोग भी बहुत सरल है। शास्त्रों के अनुसार यह विज्ञान मूलतः भगवान शिव व शक्ति के बीच का संवाद है, जिसमें जन कल्याण के लिए भगवान इसकी विस्तार से व्याख्या करते हैं। इस वीडियो में हम आम आदमी के हितार्थ कुछ टिप्स पर चर्चा करेंगे, ताकि वे उनका लाभ ले सके। 

टिप्स के वर्णन से पहले हम जरा इस विज्ञान के बारे में मोटी-मोटी जानकारी हासिल कर लें। यह तो आपके अनुभव में है ही हम अपनी नासिका छिद्रों से सांस लेते हैं और छोड़ते हैं। सांस हर पल चल रही है, खाते, पीते, चलते-फिरते, कुछ भी करते। स्वतः चल रही है। सोते समय भी यह स्वतः चलती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। हम सोच भी नहीं सकते कि इसके पीछे प्रकृति का एक अनूठा विज्ञान काम कर रहा है। जरा गौर करेंगे तो पाएंगे कि कभी तो हमारे नाक के बायें छिद्र से सांस आती-जाती है तो कभी दायें छिद्र से। हमें उसके महत्व का कोई भान नहीं, मगर इसके पीछे एक गहरा रहस्य छिपा है। 

बायें छिद्र से चलने वाली सांस को चंद्र स्वर कहते हैं और दायें छिद्र से चलने वाली सांस को सूर्य स्वर करते हैं। चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है, यह शक्ति अर्थात पार्वती का रूप है। सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है। इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है। इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर। सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले तो वह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा। मध्यमा स्वर क्रूर है। यह चलने पर हर काम के विघ्न आते हैं। 

चंद्र स्वर में ये कार्य किए किए जाने चाहिए-

विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि कार्य आदि चंद्र स्वर के चलते करने चाहिए। इसी प्रकार पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए।

सूर्य स्वर में किए जाने वाले कार्य ये हैं-

उत्तेजना, आवेश और जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनमें सूर्य स्वर उत्तम कहा जाता है। अर्थात यदि हम ऐसे कार्य के लिए जा रहे हैं, जिसमें वाद-विवाद होना है, तो सूर्य स्वर जीत दिलवाता है। सूर्य स्वर में स्नान, भोजन, शौच, औषधि सेवन, विद्या, संगीत अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं। घुड़सवारी अथवा वाहन पर चढ़ते समय सूर्य स्वर बेहतर होता है। 

सुषुम्ना स्वर साक्षात् काल स्वरूप है। इसमें ध्यान, समाधि, प्रभु स्मरण भजन-कीर्तन आदि सार्थक होते हैं। सुषुम्ना स्वर में अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें, अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। सुषुम्ना नाड़ी मोक्ष प्राप्त करवाती है।

कुछ उपयोगी टिप्स भी जान लेते हैं-

सुबह उठते वक्त जो भी स्वर चल रहा हो, उसी तरफ का पैर जमीन पर पहले रखें। इसके अतिरिक्त उसी तरफ के हाथ के दर्शन करें व हाथ को चूमें। उसके बाद दोनों हाथों को मिला कर दर्शन करें। स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, तो जिस तरफ स्वर चल रहा हो, उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें।

जब शरीर में अत्यधिक गर्मी महसूस करें, तब दाहिनी करवट लेट लें और बायां स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठंडक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा।

यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो जो स्वर नहीं चल रहा है, उस पैर को आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए तथा अचलित स्वर की ओर उस पुरुष या महिला को लेकर बातचीत करनी चाहिए। ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति को शांत हो जाएगा। गुरु, मित्र, अधिकारी, राजा, मंत्री आदि से वाम स्वर से ही वार्ता करनी चाहिए। 

सवाल ये उठता है कि यदि भोजन का समय हो गया हो और चंद्र स्वर चल रहा हो तो क्या करें? ऐसे में स्वर को बदलना ही होगा। यदि सूर्य स्वर चल रहा हो और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाना चाहिए। इसी प्रकार इसका विलोम भी किया जा सकता है। अनुलोम-विलोम के अतिरिक्त चल रहे स्वर नासिका को कुछ देर बंद करके भी स्वर बदल जा सकता है। जिस नथुने से श्वास नहीं आ रही हो, उससे दूसरे नथुने को दबाकर पहले नथुने से श्वास निकालें। इस तरह कुछ ही देर में स्वर परिवर्तित हो जाएगा। घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है।

इस विज्ञान में यात्रा के लिए कुछ उपयोगी जानकारी दी गई है। पूर्व तथा उत्तर दिशा में चन्द्र स्वर, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में सूर्य रहता है। दाहिना स्वर चलने पर पश्चिम या दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। बायें स्वर के चलते समय पूर्व तथा उत्तर दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिए। इससे यात्री को शत्रु का भय होता है और कभी-कभी तो यात्री घर वापस भी नहीं आता है। बायां या दाहिना कोई भी स्वर चल रहा हो और साथ ही सुषुम्ना भी चल रही हो तो मुख्य स्वर की तरफ वाला पांव आगे बढ़ा कर यात्रा करनी चाहिए। ऐसा करने से सफलता प्राप्त होती है।

आयु व मृत्यु के बारे में यह विज्ञान में विस्तार से जानकारी देता है। यदि किसी व्यक्ति का बायां स्वर लगातार चले और दाहिना स्वर बिलकुल न चले, तो समझना चाहिए कि उसकी मृत्यु एक माह में होगी। जिस व्यक्ति की आयु समाप्त हो गयी है उसे अरुन्धती, धु्रव, विष्णु के तीन चरण और मातृमंडल नहीं दिखायी पड़ते। जिह्वा को अरुन्धती, नाक के अग्र भाग को धु्रव, दोनों भौहें और उनके मध्य भाग को विष्णु के तीन चरण तथा आंखों के तारों को मातृमंडल कहते हैं। जिस व्यक्ति को अपनी भौहें न दिखें, उसकी मृत्यु नौ दिन में, सामान्य ध्वनि कानों से न सुनाई पड़े तो सात दिन में, आंखों का तारा न दिखे तो पांच दिन में, नासिका का अग्रभाग न दिखे तो तीन दिन में और जिह्वा न दिखे तो एक दिन में मृत्यु होती है। आंखों के कोनों को दबाने पर चमकते तेज बिन्दु यदि न दिखें, तो समझना चाहिए कि उस व्यक्ति की मृत्यु दस दिन में होगी।

ऐसा बताया गया है कि जो लोग चन्द्र नाड़ी से सांस अन्दर लेकर सूर्य नाड़ी से रेचन करते हैं और फिर सूर्य नाड़ी से सांस अन्दर लेकर चन्द्र नाड़ी से उसका रेचन करते हैं, वे दीर्घजीवी होते हैं। इसे ही अनुलोम-विलोम या नाड़ी-शोधक प्राणायाम कहा गया है।

ज्योतिषी भी इस विज्ञान का उपयोग करते हैं। प्रश्नकर्ता यदि अप्रवाहित स्वर की ओर से आकर प्रवाहित स्वर की ओर बैठ जाए और किसी रोग के सम्बन्ध में प्रश्न करे, तो मृत्यु शैया पर पड़ा व्यक्ति भी ठीक हो जाएगा। प्रश्नकर्ता सक्रिय स्वर की ओर से किसी रोग के विषय में प्रश्न करे, तो रोग किसी भी स्टेज पर क्यों न हो ठीक हो जाएगा। रोगी के बारे जानकारी चाहने वाला दूत प्रश्न करे तथा उस समय सूर्य स्वर प्रवाहित हो रहा हो, तो समझना चाहिए कि रोगी स्वस्थ हो जाएगा। परन्तु यदि उस समय चन्द्र स्वर प्रवाहित हो, तो समझना चाहिए कि रोगी अभी और बीमार रहेगा।

रजस्वला होने के पांचवें दिन यदि स्त्री का चन्द्र स्वर प्रवाहित हो और पुरुष का सूर्य स्वर प्रवाहित हो, तो समागम करने से पुत्र उत्पन्न होता है।

https://www.youtube.com/watch?v=DTdy8THzwfY&t=2s


सोमवार, अप्रैल 07, 2025

सत्य का विपरीत भी सत्य ही है

दोस्तों, सुप्रसिद्ध दार्शनिक कन्फ्यूशियस का यह कथन बहुत कीमती है कि द अपोसिट आफ truth इस आलसो true। अर्थात सत्य का विपरीत भी सत्य है। इसके बहुत गहरे अर्थ हैं। आइये, जानने की कोशिश करते हैंः-

वस्तुतः जिसे हम सत्य मानते हैं या जानते हैं, वह कभी पूर्ण नहीं होता। सदैव अपूर्ण ही होता है। वजह यह कि हमारी बौद्धिक क्षमता पूर्ण सत्य को देखने की है ही नहीं। होता तो उसका विपरीत भी सत्य ही है, मगर हमें दिखाई नहीं देता, इस कारण हमारे हिसाब से वह असत्य होता है। दोनों एक साथ केवल विषेश स्थिति में ही दिखाई दे सकते हैं। कन्फ्यूषिस का कथन संत कबीर इन वक्तव्यों जैसा है- मछली चढ गई रूख और दरिया लागी आग। इनका अर्थ है मछली पेड पर चढ गई और सागर में आग लग गई। ये कथन सरासर झूठे और गप्प लगते हैं। भला मछली पेड पर कैसे चढ सकती है। और सागर में आग कैसे लग सकती है। इन दोनों में विरोधाभास साफ नजर आता है, मगर संत कबीर उस स्थिति का जिक्र कर रहे हैं, जहां दोनों विरोधी तत्व एक साथ नजर आने लग जाते हैं। जैसे जब अंधेरा नजर आता है तो प्रकाष नजर नहीं आता। एक बार में दोनों में से केवल एक ही की उपस्थिति हो सकती है। दोनों एक साथ नजर नहीं आ सकते। मगर एक अवस्था ऐसी भी होती है, जहां अंधेरा व प्रकाष एक साथ नजर आते हैं। वस्तुतः यह जगत द्वैत है। द्वैत से ही बना है। दोनों तत्व विपरीत हैं, मगर दोनों आवष्यक हैं। दोनों से मिल कर ही जगत बना हुआ है। अतः दोनों ही सत्य हैं।

 

https://www.youtube.com/watch?v=UnzsJUSv_Y0


रविवार, अप्रैल 06, 2025

इसलिए कई लोग नहीं जलाते अगरबत्ती

 हमारे यहां धर्म स्थलों व घर के मंदिरों में अगरबत्ती जलाने का चलन है। यह आम बात है। मगर कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि ऐसा करना अनुचित है। आइये, जानते हैं कि उसकी क्या वजह है?

वे शास्त्रों के हवाले से सवाल खड़ा करते हैं कि जिस बांस की लकड़ी को चिता में भी जलाना वर्जित है, हम उस बांस से बनी अगरबत्ती को मंदिर में कैसे जला सकते हैं। वे कहते हैं कि शव को भले ही बांस व उसकी खपच्चियों से बनी सीढ़ी पर रख कर श्मशान पहुंचाते हैं, लेकिन जलाते वक्त उसे अलग कर देते हैं, क्यों कि बांस जलाने से पित्र दोष लगता है। उनका तर्क है कि शास्त्रों में पूजन विधान में कहीं पर भी अगरबत्ती का उल्लेख नहीं मिलता। सब जगह धूप करने का ही जिक्र है। ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार हिंदू अगर का धूप करते हैं, वैसे ही मुस्लिम लोबान का धूप जलाते हैं। इससे वातावरण शुद्ध होता है और सकारत्मकता आती है।

इस बारे में वैज्ञानिक तर्क ये है कि बांस में सीसा प्रचुर मात्रा में होता है और उसके जलने पर लेड आक्साइड बनता है, जो कि खतरनाक है। इसके अतिरिक्त अगरबत्ती में सुंगध के साथ फेथलेट केमिकल का इस्तेमाल किया जाता है, वह गंध के साथ सांस में प्रविष्ट होता है, जिससे फेफड़ों को नुकसान होता है। सीसे से केंसर व ब्रेन स्टॉक का खतरा होता है। लीवर भी इससे प्रभावित होता है। इसी कारण अनेक लोग अगरबत्ती की जगह धूप व विभिन्न प्रकार की धूप बत्तियां काम में लेते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=8vsE7JblBl8

गुरुवार, अप्रैल 03, 2025

हम ज्यादा क्यों जीना चाहते हैं?

एक शब्द है जिजीविषा। इसका अर्थ होता है जीने की इच्छा। हर आदमी अधिक से अधिक जीना चाहता है। आखिर क्या है इसकी वजह?

इसके पीछे मोटे तौर पर ये इच्छाएं हो सकती हैं कि बेटे-बेटियां पढ़-लिख कर कमाने योग्य हो जाएं, उनकी शादी हो जाए, वंश वृद्धि हो, पोते-पोती देखें। और अगर पड़ पोते-पड़ पोतियां देख लें तो कहने ही क्या, उसे बहुत सौभाग्यशाली माना जाता है। सोने की सीढ़ी पर चढ़ा कर स्वर्ग भेजने तक का टोटका किया जाता है। मगर सूक्ष्म इच्छा यही है कि आदमी और अधिक, और अधिक जीना चाहता है। यह उसका मौलिक स्वभाव है, उसका कुछ नहीं किया जा सकता।

जाहिर है कि अगर कोई हमें अधिक जीने की दुआ देगा तो हम खुश होंगे। तभी तो चिरायु, चिरंजीवी, शतायु होने के आशीर्वाद दिए जाते हैं। शतायु होने का आशीर्वाद इस कारण तर्कसंगत माना जा सकता है कि मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानी गई है। सौ वर्ष पूर्णता के साथ जीने के पश्चात मोक्ष की कामना के मकसद से सौ वर्षों को चार हिस्सों में बांटा गया। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम,  वानप्रस्थाश्रम व संन्यासाश्रम की व्यवस्था की गई ताकि मनुष्य काम, अर्थ, व धर्म के बाद मोक्ष को उपलब्ध हो जाए। लेकिन कम से कम इस काल में तो ऐसा है नहीं। आश्रम व्यवस्था को कोई नहीं मानता। अधिकतम औसत आयु पैंसठ से सत्तर वर्ष है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि अगर कुछ और साल जी भी लिया जाए तो क्या हो जाएगा? जीवन में इतनी रुचि क्यों? अरे, मरने पर शरीर के साथ सब कुछ छूटेगा ही, यहां तक कि संचित संस्कार व ज्ञान भी किसी के काम नहीं आएगा, वो भी साथ ही चला जाएगा।

सच तो ये है कि बुढ़ापे के साथ बीमारियां घेरने लगती हैं। पचास वर्ष के आसपास कोई न कोई बीमारी घेर लेती है। ब्लड प्रेशर व शुगर तो आम बात है। साठ साल का होने तक शरीर के अनेक अंग कमजोर पडऩे लगते हैं। दांत गिरते हैं, बहरापन आता है, कम दिखता है, घुटने जवाब देने लगते हैं। अगर बीमार न भी हों तो भी जरा अवस्था अपने आप में ही बड़ी कष्ठप्रद है। इसके अतिरिक्त जमाना ऐसा आ गया है, परिवार टूट कर छोटी इकाइयों में बंटने लगा है। बुजुर्गों की सेवा ही मुश्किल से होती है। बुजुर्गों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। वृद्धाश्रम उसी की देन हैं। मैने देखा है कि वृद्धाश्रमों में एकाकी जीवन जीने वाले लोग भी मरने की कामना नहीं करते। और अधिक जीना चाहते हैं। वहां भी जीने का रस तलाश ही लेते हैं। कई बार तो ये भी देखा गया है कि बुढ़ापे में भौतिक खाद्य पदार्थों की इच्छा और अधिक अधिक जागृत होने लगती है। 

खैर, जहां तक मुझे समझ आया है, अधिक जीने की इच्छा के पीछे एक गहरा राज है। वो यह कि हमारा शरीर जिन पांच तत्त्वों से मिल कर बना है, उनका गठन व तानाबाना इतना मजबूत है कि हमें लगता ही नहीं कि हम मरेंगे, भले रोज लोगों को मरते हुए देखते रहें। कदाचित श्मशान में कुछ पल के लिए यह ख्याल आ भी जाए, मगर बाहर निकलते ही वे श्मशानिया वैराग्य तिरोहित हो जाता है। वस्तुतरू शरीर में आत्मा इतनी गहरी कैद है, इतनी गहरी गुंथी हुई है कि अंत्येष्टि के दौरान पूरा शरीर जल कर राख होने के बाद भी आखिर में आत्मा को इस जगत से मुक्त करने के लिए कपाल क्रिया करनी पड़ती है। इससे हम समझ सकते हैं कि आदमी की जिजीविषा कितनी गहरी है। उससे भी बड़ी बात ये कि अगर कोई व्यक्ति किसी चिंता, परेशानी या बीमारी की वजह से मरने की इच्छा भी करता है, तो भी मौत तभी आती है जब शरीर और अधिक साथ नहीं दे पाता। तभी आत्मा शरीर की कैद से मुक्त होती है।

प्रसंगवश एक तथ्य और जान लें। वो ये कि जन्म के पश्चात तीन साल तक आत्मा का शरीर के साथ गहरा अटैचमेंट नहीं होता। तीन साल का होने के बाद ही आत्मा का शरीर से गहरा जुड़ाव होता है। जो संन्यासी हैं, या जिन्होंने जीते जी मरने की कीमिया जान ली है, उन्हें भी शरीर से मुक्त माना जाता है। हिंदू संस्कृति में इसी कारण तीन सल तक बच्चे व संन्यासी का दाह संस्कार नहीं किए जाने की परंपरा रही। दाह संस्कार की जरूरत ही नहीं मानी गई। दफनाने से ही काम चल जाता है। निष्कर्ष यही कि आम तौर पर आत्मा का शरीर के साथ इतना गहरा संबंध होता है कि वह मरने की कल्पना तक नहीं करता। 

https://www.youtube.com/watch?v=Lhx_nei7Kl0

बुधवार, अप्रैल 02, 2025

नशे का दुष्प्रभाव न पडने का उपाय

 दोस्तो, नमस्कार। षास्त्रों का अध्ययन करने वाले एक बुजुर्ग ने एक बार अनूठी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि अव्वल तो नषा करना ही नहीं चाहिए। वह नुकसान करता है। लेकिन नषे की आदत हो गई हो और न छूटती न हो तो नषे से होने वाले नुकसान से बचने के लिए एक उपाय करना चाहिए। उन्होंने बताया कि प्रतिदिन स्नान करने के दौरान आप अगर षिषन पर तीन चार मिनट ठंडे पानी की धार बहाएंगे तो नषे से होने वाले दुश्प्रभाव नश्ट हो जाएंगे। नषे से उत्पन्न गर्मी षीतल हो जाएगी। जाहिर है कि उन्होंने अनुभव व अध्ययन के आधार पर यह जानकारी दी होगी, लेकिन साथ ही उन्होंने एक तर्क भी दिया। उनका कहना था कि भगवान षिव भांग-धतूरे का सेवन करते थे, इसके अतिरिक्त एक बार उन्होंने गरल अर्थात विश का सेवन कर लिया था, जिसे उन्होंने कंठ पर रोक लिया था, कंठ नीला पड गया, जिसकी वजह से उनका नाम नील कंठ कहा जाने लगा। और नषे व विश का दुश्प्रभाव रोकने यानि निश्प्रभावी करने के लिए षिव लिंग पर निरंतर जलधारा बहाने की परंपरा है। उनकी यह बात कितनी सही है, पता नहीं, मगर अर्थपूर्ण तो लगती है। वैसे भी यह एक सामान्य कौतुहल तो है ही कि आखिर क्यों लिंग के आकार के पत्थर पर निरंतर पानी की धारा बहाई जाती है। इस मामले में एक सोच यह भी बताई जाती है कि शिव को संहारकर्ता माना जाता है और जलधारा से उनका क्रोध शांत होता है। यह भक्तों की आस्था है कि इससे शिव जी प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं।


https://youtu.be/IFeRSoZ0VX0