तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जनवरी 30, 2025

क्या मूर्ति में शक्ति होती है?

हिंदू संस्कृति में मूर्ति पूजा का बड़ा महत्व है। अधिसंख्य हिंदू मंदिर जाते हैं और मूर्ति पूजा करते हैं। मूर्ति के सामने खड़े हो कर सच्चे दिल से पूजा-अर्चना व आराधना करने से इच्छा की पूर्ति होती है, यह भी पक्की धारणा है। न केवल धारणा है, अपितु ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनसे प्रमाणित हो सकता है कि मूर्ति पूजा करने से इच्छित फल मिलता है। बावजूद इसके हिंदू संस्कृति की ही एक शाखा आर्य समाज मूर्ति पूजा में यकीन नहीं रखता। सच क्या है, जरा विचार कर के देखें।

असल में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती ने केवल इसी कारण मूर्ति पूजा का निषेध कर दिया कि मूर्ति में प्रतिष्ठित जो देवता या भगवान खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह भला हमारा भला क्या करेगा? ऐसा ख्याल उनमें मन में तब आया, जब उन्होंने देखा कि एक मंदिर में मूर्ति पर एक चूहा चढ़ कर मस्ती कर रहा है और मूर्ति के सामने रखा प्रसाद खा रहा है। तब उनकी सोच बनी कि एक चूहे से मूर्ति अपनी रक्षा नहीं कर पा रही है तो मूर्ति की पूजा करने से क्या लाभ? तार्किक ढंग से यह बात सही प्रतीत होती है।

इसी कड़ी में हमारी यह भी जानकारी है कि मुस्लिम आतताइयों ने देश के अनेक स्थानों पर मंदिर ध्वस्त किए, मूर्तियां तोड़ीं, मगर उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा। मूर्तियां अपनी ही रक्षा नहीं कर पाईं। ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि क्या वाकई मूर्ति में कोई शक्ति नहीं होती? बावजूद इसके  मूर्तियों में अधिसंख्य हिंदुओं की प्रगाढ़ आस्था है। अनेक ऐसी मूर्तियां संज्ञान में हैं, जिनके बारे में मान्यता है कि वे चमत्कारी हैं। ज्यादा दूर नहीं जाते। निकटवर्ती नागौर जिले में मेड़ता के पास गांव में बंवाल माता का मंदिर है। यहां देवी की मूर्ति श्रद्धालुओं के सामने ढ़ाई प्याला शराब पीती है। बताते हैं कि कई वैज्ञानिकों ने उसकी जांच-पड़ताल की, मगर वे यह नहीं पकड़ पाए कि वहां कोई चालबाजी तो नहीं है। स्वयं मैंने देखा है कि देवी मां ढ़ाई प्याला शराब पीती है। रहस्य क्या है, कुछ पता नहीं। दिलचस्प बात ये है कि जिस श्रद्धालु के पास में तंबाकू होती है, उसकी शराब मूर्ति ग्रहण नहीं करती। इसको भी मैने आजमाया, तो सच निकला। ऐसी मान्यता है कि जिस श्रद्धालु का शराब रूपी प्रसाद देवी मां ग्रहण करती है, उसकी मनोकामना पूरी होती है। जिसका ग्रहण नहीं करती, उसके बारे में यह मान्यता है कि अभी देवी उससे प्रसन्न नहीं है। 

बात लंबी हो रही है, मगर प्रसंगवश बताना चाहता हूं कि कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी मान्यता है कि शिव जी, देवी मां, हनुमान जी, गणेश जी आदि देवताओं के अतिरिक्त लोक देवता बाबा रामदेव, भैरों जी, गोगा जी आदि तो त्वरित फल देते हैं, जबकि भगवान श्रीकृष्ण व भगवान श्री राम फल नहीं देते, अलबत्ता वे आत्म कल्याण जरूर करते हैं। चूंकि हमारी रुचि भौतिक उपलब्धियों में होती है, इसी कारण देवताओं की आराधना हम ज्यादा करते हैं। इस धारणा की पुष्टि इससे होती है कि देवताओं के तो अनेकानेक मंदिर हैं, जबकि भगवान श्री राम व भगवान श्री कृष्ण के मंदिर कम हैं।

खैर, मुद्दे पर आते हैं। सवाल ये कि क्या मूर्ति में शक्ति होती है? होनी तो चाहिए, क्योंकि मूर्ति निर्जीव पत्थर या धातु की होती है, इस कारण उनकी बाकायदा विधि-विधान से प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद तो एक अर्थ में वह सजीव हो जाती है। उसमें ताकत होनी ही चाहिए।  मगर फिर वही सवाल कि तो फिर वे अपनी रक्षा क्यों नहीं कर पाती? यानि कि कौतुहल बरकरार है। 

मूर्ति में शक्ति होती है, इस धारणा को बड़े पैमाने पर तब बल मिला, जब कुछ साल पहले पूरे देश में गणेश जी की मूर्तियों ने दूध पिया था। हालांकि उसकी वैज्ञानिक विवेचना भी हुई, आलोचना भी हुई। दूसरी ओर न्यायाधीशों व आईएएस अधिकारी स्तर के बुद्धिजीवियों ने भी गणेश जी को दूध पिलाया। बड़ी बहस हुई। किसी ने उसे अंध श्रद्धा करार दिया तो किसी ने वैज्ञानिक कारण बताए। हालांकि निष्कर्ष कुछ नहीं निकला। 

मुझे ऐसा लगता है कि मूर्ति में अपने आप में ताकत नहीं होती। सारा रहस्य आस्था में है। हम जब उस पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हमारी आत्मिक शक्ति उसमें प्रतिबिंबित होती है। वही आत्मिक शक्ति पलट कर चमत्कार करती है और हमें ये लगता है कि मूर्ति ने चमत्कार किया है। जिस मूर्ति की बहुत अधिक मान्यता होती है, वहां चमत्कार की संभावना इसलिए बढ़ जाती है, क्यों कि वहां बहुत अधिक लोगों की आत्मिक शक्ति मूर्ति पर केन्द्रित होती है।

ऐसा भी हो सकता है कि भौतिक या त्वरित चमत्कार मूर्ति से नहीं होते होंगे। हम अपेक्षा करें कि वह हम मानवों की ही तरह व्यवहार करे तो यह संभव नहीं है। हां, उसमें धारणा करें तो वह अदृश्य रूप से फल देती होगी।

मूर्ति ही क्यों, किसी स्थान व मजारों आदि पर भी लोग इसी प्रयोजन मत्था टेकते हैं कि वहां मनोकामना पूरी होगी। आप देख सकते हैं कि कभी-कभी अजमेर की दरगाह ख्वाजा साहब के सामने कोई फकीर या कलंदर खड़ा हो कर सवाल करता है और तब तक डटा रहता है, जब तक वह सवाल पूरा नहीं होता। यह हठ योग है। ऐसे हठियों की मनोकामना भी पूरी होती ही है। हालांकि इसका साइंस कुछ और है।

आखिर में एक बात जरूर कहना चाहता हूं। वस्तुतः यह प्रकृति चूंकि विरोधी तत्त्वों से मिल कर बनी है, इस कारण इसमें विरोधाभास भी खूब हैं। यह इतनी रहस्यपूर्ण है कि हम इसकी थाह नहीं पा सकते। यहां कुछ भी अंतिम सत्य नहीं है। जिसे हम सत्य मानते हैं, वही देश, काल, परिस्थिति बदलने पर असत्य हो जाता है। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि हम न तो ये कह सकते हैं कि मूर्ति में शक्ति होती है और न ये कि वह केवल पत्थर है। कहीं है तो कहीं नहीं है। कभी है तो कभी नहीं। तभी तो जब मूर्ति के सामने कामना करने पर पूरी होती है तो कहते हैं कि वह चमत्कारी है और पूरी नहीं होती तो मूर्ति को दोष देने की बजाय खुद को जिम्मेदार मानते हैं कि हमारी श्रद्धा में ही कमी रह गई होगी।

मुझ अज्ञानी व अल्पबुद्धि को मूर्ति के रहस्य के बारे में जो कुछ समझ में आया है, वह साझा किया है। वास्तविक रहस्य क्या है, उसके आगे मैं सरंडर करता हूं। नेति नेति नेति।

https://www.youtube.com/watch?v=nFJzs_RS9gE&t=6s

बुधवार, जनवरी 29, 2025

जिसे दुबारा शादी करनी है, वह पत्नी की अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता

आम तौर पर जिस भी युवा व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हो जाती है, तो वह दुबारा शादी करने का विचार रखता है। यदि बच्चे न हों तो करता भी है। यदि उसका विचार न भी हो तो भी रिश्तेदार उस पर दबाव बनाते हैं कि वह दुबारा विवाह कर ले। क्या आपको जानकारी है कि पत्नी के निधन पर फिर विवाह करने का इच्छुक पति, पत्नी की अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता। समझा जा सकता है कि ऐसा करके वह अपने संबंधियों व परिचितों को यह संदेश देता है कि वह फिर विवाह करना चाहता है, लिहाजा उसके लिए किसी युवती की तलाश की जाए। हालांकि पत्नी की अंत्येष्टि में भाग न लेना पति के लिए कितना कष्टप्रद है, यह वह ही समझ सकता है, मगर बुजुर्ग उसे सलाह देते हैं कि वह अंतिम संस्कार में न जाए, ताकि फिर शादी का रास्ता खुला रहे, फिर भले ही बाद में वह न करे।

इस सिलसिले मैने ज्योतिष में रुचि रखने कुछ लोगों से चर्चा की तो उन्होंने कुछ अलग ही मत प्रकट किया। उनका कहना था कि यदि किसी आदमी की जन्म कुंडली में दो शादियों का योग हो, तो भी अंत्येष्टि में भाग लेने के बाद दूसरी शादी का योग नष्ट हो जाता है। उसके बाद यदि वह चाहे तो भी उसकी दूसरी शादी नहीं हो सकती। अगर अंत्येष्टि में भाग नहीं लेता तो वैवाहिक संभावना का वर्तुल अधूरा ही रह जाता है, वैक्यूम रह जाता है और वह दूसरी शादी कर सकता है। उसमें बाधा नहीं आती। एक अन्य जानकार ने अलग ही मिथ बताया। वो यह कि जब पति अंत्येष्टि के दौरान उपस्थित नहीं होता तो देह संस्कार के दौरान पत्नी की आत्मा को पति के न दिखाई देने पर उससे संबंध विच्छेद हो जाता है। ऐसे में जब वह दूसरी शादी करता है तो पूर्व पत्नी की आत्मा उसे परेशान नहीं करती। वैसे इसके अपवाद भी हैं कि किसी को पत्नी की अंत्येष्टि में भाग लेने से मना किया गया, मगर वह नहीं माना। बाद में उसकी दुबारा शादी हो गई। 

https://www.youtube.com/watch?v=rRmcMEuplmo&t=79s

मंगलवार, जनवरी 28, 2025

कपाल क्रिया के दौरान जगह क्यों छोड़ते हैं?

आपने देखा होगा कि जब हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो कपाल क्रिया के दौरान लोग एक-दूसरे को जगह छोडऩे को कहते हैं, अर्थात जिस स्थान पर हम बैठे होते हैं, उसे बदलने को कहा जाता है। सभी ऐसा करते भी हैं। मैने इस बारे में अनेक लोगों से बात की कि जगह क्यों छोड़ी जाती है, मगर किसी को यह जानकारी नहीं है कि इसकी वजह क्या है? अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए मैंने अनेक पुस्तकें खंगाली। मुझे याद नहीं कि इस बारे में कहां पढ़ा, मगर इस बारे में इशारा करती कुछ बातें मेरे ख्याल में है।

ऐसी मान्यता है कि अंत्येष्टि के दौरान मृत आत्मा देह में ही कपाल के भीतर ब्रह्मरंद्र में होती है। कपाल की हड्डी चूंकि बहुत मजबूत होती है, इस कारण उस पर घी डाल कर उसे तोड़ा जाता है। बताते हैं कि कपाल क्रिया करने पर ही आत्मा की देह से मुक्ति होती है। देह से मुक्त उसे इसलिए किया जाता है, ताकि वह आगे की यात्रा को प्रस्थान करे। कपाल क्रिया से पहले तक उसका अटैचमेंट न केवल अपने जलते शरीर से अपितु आसपास के दृश्य भी होता है। उस अटैचमेंट को समाप्त करने के लिए श्मशान में मौजूद सभी लोग कपाल क्रिया होते ही अपनी-अपनी जगह छोड़ कर दूसरी जगह पर बैठते हैं और नया दृश्य बन जाता है। एक झटके में जब पुराना दृश्य आत्मा को नहीं दिखाई देता तो स्वाभाविक रूप से उसका श्मशान स्थल से डिटेचमेंट हो जाता है। यानि कि यदि दृश्य नहीं बदला जाए तो आत्मा का पुराने दृश्य से संबंध बना रहेगा और वह श्मशान स्थल से मुक्त नहीं हो पएगी। हम समझ सकते हैं कि वर्षों तक भौतिक शरीर व दुनिया में रहते हुए हमारा कितना गहरा संबंध हो जाता है। शरीर जलने के बाद आत्मा यहीं अटकी रहना चाहती है। उसे जबरन कपाल से मुक्त कराना होता है। इतना ही अंत्येष्टि के दौरान मौजूद दृश्य से भी उसका संबंध विच्छेद कराने का प्रयास करना होता है। यह मेरी नजर में बैठा तथ्य है, हो सकता है वास्तविकता कुछ और हो। मेरा यह दावा नहीं कि मैं ही सही हूं।

आपने देखा होगा कि अंत्येष्टि के बाद जब परिजन घर लौटते हैं तो कपाल क्रिया करने वाला देहलीज पर मृत आत्मा से अपने संबंधी का षब्द जोर से उच्चारण करता है। जैसे पिताजी, बाबोसा, दादाजी इत्यादि। इस का कारण जानने की मैंने बहुत कोशिश की है, मगर अभी तक जानकारी नहीं मिल पाई है। हो सकता है, ऐसा मृत आत्मा का आह्वान करने के लिए किया जाता हो ताकि वह श्मशान के बाद घर पर आ जाए। शास्त्रों में बताया गया है कि तेरह दिन पर आत्मा का वास घर में ही रहता है। उसके बाद की यात्राओं का वर्णन गरुण पुराण सहित अन्य शास्त्रों में मौजूद है।

https://www.youtube.com/watch?v=6V_ouuh_gf0&t=3s


सोमवार, जनवरी 27, 2025

क्या शिव और शंकर अलग-अलग हैं?

हमारी जनचेतना में यह बात गहरे बैठी है कि शिव और शंकर एक ही हैं। इन दोनों में कोई भेद नहीं समझा जाता। जब भी शिव लिंग पर जल चढ़ाते हैं तो मन में त्रिशूलधारी, त्रिनेत्र व नील कंठ की प्रतिमा होती है, जिनकी जटा से गंगा निकलती है। शंकर भगवान का वाहन नंदी को माना जाता है और शिव लिंग के सामने भी नंदी बैल की प्रतिमा स्थापित की जाती है। दोनों के नाम का उच्चारण भी एक साथ किया जाता है, यथा शिव शंकर, शिव शंभू, शिव भोलेनाथ। शिव लिंग पर भी वैसा ही त्रिनेत्र बनाया जाता है, जैसा शंकर के है। दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं, जो कि इन दोनों को अलग-अलग मानते हैं। उनके अपने तर्क हैं।

जो लोग दोनों को अलग मानते हैं, हो सकता है कि उन्हें मतिभ्रम हो या फिर यह एक गूढ़ रहस्य हो, मगर उनके इस तर्क में जरूर दम है कि भगवान शंकर तो खुद ही शिव लिंग के आगे ध्यान करते हैं। ऐसी तस्वीरें मौजूद हैं। यहां तक अवतारी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम भी शिव लिंग की आराधना करते हैं। अर्थात जिस परम सत्ता का प्रतीक शिव लिंग है, वह महादेव व राम से भी ऊपर हैं। वे ही सृष्टि की रचना, पालना व विनाश करने के लिए क्रमशरू त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की रचना करते हैं। अर्थात महेश परमात्मा शिव की रचना हैं तो फिर दोनों एक कैसे हो सकते हैं।  

एक और तर्क में भी दम है। वो ये कि शंकर तो सृष्टि का संहार करते हैं, उसकी रचना व पालन का भार ब्रह्मा व विष्णु पर है, तो फिर ऐसा कैसा हो सकता है कि सृष्टि का संहार करने वाले व त्रिदेव से ऊपर जो परम सत्ता है, वह और शंकर एक ही हों? इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जिस पर केवल संहार का दायित्व है, रचना व पालन का अन्य पर तो वे परम सत्ता कैसे हो सकते हैं? 

सवाल ये भी उठता है कि हम जो शिव रात्री मनाते हैं, वह परमात्मा शिव की स्मृति में है या फिर महादेव शंकर की याद में? शिव रात्रि पर शिव लिंग की ही उपासना की जाती है, इससे लगता है कि शिव लिंग परमात्मा शिव का प्रतीक है। यदि भगवान शंकर ही शिव हैं तो उनका अलग प्रतीक बनाने की क्या जरूरत है। शंकर के ही समकक्ष ब्रह्मा व विष्णु के तो प्रतीक चिन्ह नहीं हैं। ऐसे में शंकर को शिव इसलिए नहीं माना जा सकता, क्यों वे तो साकारी देवता हैं, जिनकी लीलाओं का पुराणों व शास्त्रों में वर्णन है।

वेदों में भी यही लिखा है कि शिव निरंकारी है, उनका कोई आकार नहीं है, शिव लिंग तो एक प्रतीक मात्र है। बावजूद इसके यदि शिव व शंकर को एक ही मान लिया गया है तो जरूर कोई कारण होगा या फिर कोई गंभीर त्रुटि हो गई है।

https://youtu.be/s9tw6VECFQo


रविवार, जनवरी 26, 2025

दूल्हा तोरण क्यों मारता है?

लगभग सभी को जानकारी होगी कि दूल्हा जब दुल्हन के घर पर बारात लेकर पहुंचता है तो वह द्वार पर टंगे तोरण को अपनी तलवार को छुआ कर उसे मारने की रस्म अदा करता है। कुछ लोगों को हो सकता है कि इस परंपरा की वजह पता हो, मगर अधिसंख्य इसके रहस्य से अनभिज्ञ ही होंगे। 

इस सिलसिले में दो किंवदंतियां प्रचलित हैं। पहली इस प्रकार है-

बताते हैं कि किसी भी शादी के दौरान जब दूल्हा दुल्हन के द्वार पर पहुंचता था तो वहां तोते के रूप में बैठा तोरण नामक एक राक्षस दूल्हे के शरीर में प्रवेश कर स्वयं शादी कर लेता था। एक बार एक राजकुमार जैसे ही दुल्हन के द्वार पर पहुंचा तो उसने वहां बैठे राक्षस रूपी तोते को मार डाला। कहते हैं कि तोरण मारने की परंपरा तभी से आरंभ हुई। ज्ञातव्य है दुल्हन के द्वार पर लकड़ी के बना तोरण लगाया जाता है, जिसमें तोता बना होता है। वह राक्षस का प्रतीक होता है।

दूसरी किंवदंती के अनुसार एक राजकुमारी जब छोटी थी तो उसकी मां कहा करती थी कि मेरी चिडिय़ा जैसी बिटिया, तुमको बड़ी होने पर किसी दिन कोई चिड़ा आ कर तुझे ले जाएगा। पास ही पेड़ पर बैठा चिड़ा यह सुना करता था। एक दिन यह देख कर वह अचंभित रह गया कि राजकुमारी की शादी होने जा रही है और एक राजकुमार उसके दरवाजे पर खड़ा है। निराश हो कर उसने राजा के सामने फरियाद की। राजा ने रानी से पूछताछ की तो चिड़े की बात सही निकली। इस पर रानी ने कहा कि वह तो यूं ही प्यार में कहा करती थी, इसका अर्थ ये तो नहीं कि सच में किसी चिड़े से शादी करवाएगी। राजा ने जब अपनी बेटी की शादी चिड़े से करवाने से इंकार कर दिया तो वह अपने समुदाय को इकट्टा करके युद्ध पर उतारू हो गया। युद्ध में राजा हार गया। जैसे ही वह राजकुमारी को ले जाने लगा तो देवी-देवताओं में खलबली मच गई। उन्होंने कहा कि राजकुमारी व चिड़े से उत्पन्न संतान कैसी होगी? उन्होंने चिड़े व उसकी सेना को बहुत समझाया। आखिरकार वे मान गए, मगर एक शर्त रख दी। वो यह कि दूल्हे को चिडिय़ा प्रजाति से माफी मांगते हुए उसके नीचे से गुजरना होगा। इसके लिए दुल्हन के द्वार पर तोरण लटकाया जाएगा, जिस पर चिडिय़ाएं बनी होंगी और दूल्हा उनके नीचे से गुजरेगा। बाद में यह परंपरा बन गई। रहा सवाल तलवार टच करने का तो उसका अर्थ ये है कि वह ऐसा करके उनका अभिनंदन कर रहा है।

जिन को इन दोनों किंवदंतियों की जानकारी नहीं है, वे तोरण निर्माता आजकल तोरण पर गणेश जी का चित्र लगा रहे हैं। उनका प्रयोजन विघ्न विनायक को द्वार पर बैठाना है, ताकि शादी निर्विघ्न संपन्न हो जाए। लेकिन जहां तक परंपरा का सवाल है, उसके हिसाब से गणेश जी के चित्र पर तलवार को छुआने को शुभ नहीं माना जा सकता।


https://www.youtube.com/watch?v=7xEtiHsWBrI&t=5s


शनिवार, जनवरी 25, 2025

क्या हिचकी आना किसी के याद करने का संकेत है?

जब भी हमें हिचकी आती है तो हम स्वयं व पास बैठा व्यक्ति यही कहता है कि जरूर कोई याद कर रहा है। दिलचस्प बात ये है कि जब हम विचार करते हैं कि कौन याद कर रहा होगा और उनके नामों का जिक्र करते हैं तो जिसका नाम लेने पर हिचकी बंद होती है तो यही सोचते हैं कि उसी ने याद किया था। इसके वैज्ञानिक व शारीरिक कारण पर भी चर्चा करेंगे, मगर क्या सही है कि यदि कोई हमें शिद्दत से याद करता है तो हिचकी आती है?

मेरा ऐसा ख्याल है कि शारीरिक क्रिया तो अपनी जगह है ही, मगर इससे भी इतर कुछ तो है। मेरा विचार है कि हमारा मस्तिष्क तो सुपर कंप्यूटर है ही, जो कि पूरे शरीर को संचालित करता है, वहीं पर विचार चलते रहते हैं, मगर अमूमन विचार करने की ऊर्जा कंठ पर केन्द्रित रहती है। जरा महसूस करके देखिए। विज्ञान कहता है कि विचार की कोई भाषा नहीं होती। सही भी है। यह एक मौलिक तथ्य है। इसलिए कि जहां विचार हो रहा है, वहां केवल भाषायी वाक्य ही विचरण नहीं करते, ध्वनि, स्वाद, गंध, दृश्य आदि की अनुभूतियां भी मौजूद रहती हैं। हां, भाषायी वाक्य जरूर उस भाषा में होते हैं, जो कि आमतौर पर हम उपयोग में लेते हैं। आपने अनुभव किया होगा कि कई बार कोई बात कहने से पहले मन ही मन जब रिहर्सल होती है तो उसकी हलचल कंठ पर ही होती है। मैने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं कि कोई व्यक्ति जो वाक्य बोलता है तो ठीक तुरंत बाद कंठ पर हुई हलचल बुदबुदाने के रूप में सामने आती है। चूंकि शब्दों का संबंध सीधे कंठ से है, इस कारण भाषा विशेष में विचार करते समय कंठ पर ऊर्जा केन्द्रित होती है। जरा गहरे में जा कर देखिए, सोचते समय भले ही वाणी मौन होती है, मगर कंठ व जीभ पर वाक्य हलचल कर रहे होते हैं। इस यूं समझिये। जैसे हम मन ही मन राम नाम का उच्चारण करते हैं तो बाकायदा जीभ पर वैसी ही क्रिया होती रहती है, जैसी राम नाम का उच्चारण करते वक्त होती है। अर्थात विचार करने के दौरान मस्तिष्क तो आवश्यक रूप से काम कर ही रहा होता है, मगर हमारी ऊर्जा, जिसे प्राण भी कह सकते हैं, कंठ पर भी सक्रिय होती है। इस ऊर्जा के कारण मस्तिष्क की तरह कंठ भी ट्रांसमीटर की तरह काम करता है। वह भी बाह्य जगत की तरंगों को ग्रहण करता है। जैसे ही हमें कोई याद करता है तो उसकी तरंगों का हमारे कंठ पर असर पड़ता है, वहां खिंचाव होता है और हिचकी आने लगती है। जैसे ही हम याद करने वाले का नाम लेते हैं तो वर्तुल पूरा हो जाता है और हिचकी आना बंद हो जाती है। ऐसा मेरा नजरिया है। हालांकि मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी जो भी अनुभूति है, उसे ठीक से शब्दों में अभिव्यक्त नहीं पाया हूं, मगर मेरी अभिव्यक्ति उसके इर्द-गिर्द जरूर है। 

यह तो हुई एक बात। आपकी जानकारी में ये भी होगा कि जब हिचकी लगातार आती है, रुकती ही नहीं, न किसी का नाम लेने पर और न ही पानी पीने पर, तब उसे अच्छा नहीं माना जाता। इस कारण उसे बंद करने के प्रयास किए जाते हैं। जैसे कागज के लिफाफे में हवा भर कर वापस उसी हवा को अंदर लिया जाता है। कार्बन डाई ऑक्साइड के भीतर बार-बार जाने पर हिचकी बंद हो जाती है। ऐसी भी धारणा है कि लंबे समय हिचकी चलना किसी गंभीर बीमारी के आगमन का संकेत है। मृत्यु के सन्निकट होने पर भी लगातार हिचकी आती है। मृत्यु के समय लंबी हिचकी आती ही है और उसी के साथ प्राण बाहर निकल जाता है।

खैर, अब आते हैं वैज्ञानिक तथ्य पर। विज्ञान के अनुसार हिचकी हमारे के डायफ्राम सिकुडऩे से आती है। डायफ्राम एक मांसपेशी होती है, जो छाती के खोखल को हमारे पेट के खोखल से अलग करती है। ये सांस लेने की प्रक्रिया में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। फेफड़ों में हवा भरने के लिए डायफ्राम का सिकुडऩा जरूरी होता है। जब हिचकी आती है, तब डायफ्राम को नियंत्रित करने वाली नाडिय़ों में कुछ उत्तेजना होती है, जिसकी वजह से डायफ्राम बार-बार सिकुड़ता है और हमारे फेफड़े तेजी से हवा अंदर खींचते हैं। ऐसा जोर से हंसने, तेज मिर्च वाला खाना खाने, जल्दी-जल्दी खाने या फिर पेट फूलने से हो सकता है। अर्थात उत्तेजना का कारण होती है वायु। अमूमन वायु डकार से बाहर आ जाती है, लेकिन कभी-कभी ये खाने के बीच फंस जाती है। उसे निकालने की शारीरिक क्रिया ही हिचकी है।

जानकार लोग हिचकी बंद करने के उपाय भी बताते हैं, उनमें कुछ इस प्रकार हैं- ठंडा पानी पीएं या आइस क्यूब्स मुंह में रख कर धीरे-धीरे चूसें। दालचीनी का टुकड़ा मुंह में डाल कर चूसें। गहरी सांस लें, जितनी देर हो सके सांस रोकें। लहसुन, प्याज या गाजर का रस सूंघें। पिसी हुई काली मिर्च शहद के साथ चाटें। शक्कर या चॉकलेट चूसें। नीबू के रस में शहद और थोड़ा-सा काला नमक मिला कर चाटें।

https://youtu.be/xAA5JusDyqo

 

शुक्रवार, जनवरी 24, 2025

पूजा की घंटी के शीर्ष पर गरुड़ आकृति क्यों?

आपने देखा होगा कि पूजा के दौरान हम जिस घंटी को बजाते हैं, उसके षीर्श पर गरुड़ की आकृति होती है। जरूर इसका कोई अर्थ या प्रयोजन होगा। वस्तुतः इसके पीछे गहरी धार्मिक मान्यता और प्रतीकात्मकता निहित है। ज्ञातव्य है कि गरुड़ को भगवान विष्णु का सबसे बड़ा भक्त माना जाता है। पुराणों में गरुड़ और भगवान विष्णु के बीच के अटूट बंधन का वर्णन मिलता है। गरुड़ को अमरत्व का वरदान प्राप्त था और वे भगवान विष्णु के सबसे करीबी थे। मान्यता है कि गरुड़ भक्तों की प्रार्थनाओं को सीधे भगवान विष्णु तक पहुंचाते हैं। घंटी की ध्वनि के साथ गरुड़ की आकृति भक्तों की आस्था को और मजबूत करती है। शास्त्रीय उल्लेख है कि गरुड़ को नागों का शत्रु भी माना जाता है। नागों को अक्सर अशुभ शक्तियों से जोड़ा जाता है। इसलिए गरुड़ की उपस्थिति से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और नकारात्मक शक्तियों का नाश होता है। इसके अतिरिक्त कुछ लोग मानते हैं कि गरुड़ घंटी बजाने से वास्तु दोष दूर होते हैं और घर में सुख-शांति का वातावरण बनता है। घंटी की ध्वनि ध्यान केंद्रित करने और मन को शांत करने में भी मदद करती है। गरुड़ की उपस्थिति इस प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाती है। इसलिए गरुड़ की उपस्थिति भगवान विष्णु के आशीर्वाद और संरक्षण का प्रतीक है।


बुधवार, जनवरी 22, 2025

प्रसाद चढ़ाते समय पर्दा क्यों किया जाता है?

आप जानते ही हैं कि जब भी भगवान की मूर्ति को प्रसाद चढ़ाया जाता है तो प्रसाद चढ़ाने के बाद पर्दा किया जाता है, ताकि वे प्रसाद ग्रहण कर लें। यदि मंदिर में पर्दे की व्यवस्था नहीं है तो प्रसाद की थाली पर ही कपड़ा ढ़क दिया जाता है। बिना पर्दे के भी तो प्रसाद चढ़ाया जा सकता है, उसमें दिक्कत क्या है? मगर नहीं, पर्दा करते ही हैं। आखिर वजह क्या है?

कल्पना कीजिए कि आपने बिना पर्दे के प्रसाद चढ़ाया और मूर्ति से एक हाथ निकल कर प्रसाद उठाए तो आप पर क्या बीतेगी? या आपकी आंखों के सामने ही प्रसाद कम होता जाए, तो क्या आप उस दृश्य को देख पाएंगे? हम जानते हैं कि भगवान की मूर्ति से हाथ निकल कर प्रसाद ग्रहण करने आने वाला नहीं है। आ सकता होगा तो भी नहीं आएगा, क्योंकि भगवान रहस्य में ही रहना चाहता है। हालांकि पर्दा करने के बाद भी भगवान के प्रसाद ग्रहण करने के बाद प्रसाद का तौल वही रहता है। अर्थात वे सूक्ष्म रूप से प्रसाद ग्रहण करते हैं। उससे भी बड़ा सच ये है कि वे प्रसाद नहीं, बल्कि हमारे भाव ग्रहण करते हैं। फिर भी प्रसाद चढ़ाने के दौरान पर्दा करने की परंपरा है।

आप देखिए कि नागौर जिले बवाल माता मंदिर में देवी मां की प्रतिमा ढ़ाई प्याला शराब पीती है। यह रहस्यपूर्ण और चमत्कार है। मंदिर से श्रद्धालु को इतना दूर रख जाता है कि उसे यह तो पता लगे कि प्याला खत्म हो गया है, मगर खत्म होता दिखाई देता नहीं है। जब पुजारी मूर्ति के होंठों पर प्याला रखता है तो वह उसे देखता नहीं है, बल्कि अपना चेहरा विपरीत दिशा में कर देता है। क्यों? एक तो वह मर्यादा का पालन कर रहा होता है, दूसरा उसमें भी सामर्थ्य नहीं कि वह प्याले को खत्म होता देख सके। आपने लोक देवताओं के परचों की चर्चा भी सुनी होगी। वे चमत्कार करते हैं, मगर प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में। 

एक बात और। जब भी किसी की मृत्यु होती है तो उसका सजीव शरीर निर्जीव हो जाता है। हलचल खत्म हो जाती है। मान्यता है कि उसमें से आत्मा निकल गई है। कल्पना कीजिए कि आत्मा निकलते वक्त दिखाई दे जाए तो हमारा क्या हाल होगा? इसीलिए प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था की है। अपने उस रहस्य को छिपा लिया है। ऐसे ही मृत्यु के साथ ही जीवन भर की स्मृति पर ताला जड़ देती है। अगले जन्म में उसे कुछ भी याद नहीं रहता। कल्पना कीजिए कि हर किसी को पिछले जन्म की याद रह जाए तो पूरे संसार में आपाधापी मच जाएगी। इसीलिए प्रकृति ने रहस्य को ओढ़ दिया है।

असल में प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है। वह रहस्यपूर्ण ही रहेगी। प्रकृति न तो रहस्य को उघाड़ती है और न ही उसने इमें इतनी शक्ति दी है कि हम पूरी तरह से उघाड़ सकें। इस तथ्य को हमने भी उसे स्वीकार कर लिया है। बेशक इंसान ने इसके राज के बहुत पर्दे उठाए हैं, मगर आज भी उसके अधिकतर रहस्य बापर्दा हैं। उन्हें उठाया नहीं जा सकेगा। अलबत्ता संकेत जरूर हासिल किए जा पाए हैं, आगे भी किए जा सकते हैं, मगर प्रकृत्ति को कभी भी नग्न नहीं किया जा सकेगा। अर्थात कोरा सच कभी नहीं देखा जा सकेगा। यदि किसी विरले को दिखाई भी दे जाता है तो उसकी जुबान पर ताला पड़ जाता है। वह जरूरी भी है।

असल में प्रकृति इसलिए रहस्यपूर्ण है, क्योंकि यह हमारी समझ की सीमा से परे है। प्रकृति में इतना कुछ है कि हमारी इंद्रियों की क्षमता उन तक नहीं पहुंच पाती। जैसे ब्रह्मांड में अनेक ध्वनियां विचरण कर रही हैं, मगर हमारे कान उन सब को सुनने की क्षमता नहीं रखते। हमें सीमित फ्रिक्वेंसी की आवाजें ही सुनाई देती है। हां, हमने ऐसे ट्रांसमीटर जरूर बना लिए हैं, जो उन ध्वनियों को पकड़ लेते हैं, मगर हमारे कान सीधे उनको नहीं पकड़ सकते। प्रकृति में और भी अनेक चीजें ऐसी हैं, जो हमारी बुद्धि से परे हैं। इसीलिए वे हमारे लिए रहस्यपूर्ण ही रहेंगी। सच बात तो यह है कि प्रकृति में चारों ओर चमत्कार बिखरे पड़े हैं। कई चमत्कारों की जड़ तक हम पहुंचे भी हैं। जैसे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति। जब तक न्यूटन ने इस शक्ति का पता नहीं लगाया, तब तक कोई वस्तु ऊपर फैंकने पर वापस नीचे आ जाना हमारे लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। इसी प्रकार जब तक विज्ञान को यह पता नहीं था कि बारिश होती कैसे है, तब तक वह चमत्कार ही था कि आसमान से पानी कैसे बरस रहा है? विज्ञान बहुत अंदर तक गया है, लेकिन आज भी बहुत कुछ अछूता है। चिकित्सा विज्ञान ने शरीर को बहुत गहरे में जाना है, बीमारियों के इलाज तलाशे हैं, अंग प्रत्यारोपण तक करने में कामयाब हो गया है, मगर आज तक आत्मा नामक तत्व का पता नहीं लगाया जा सका है। शरीर मृत हो पर ऐसी कौन सी चीज है, जो निकल जाती है और कहां चली जाती है, इसका पता विज्ञान नहीं लगा पा रहा है। अलबत्ता, अध्यात्म ने इस पर काम किया है, लेकिन वह भी उसे तर्कपूर्ण तरीके से सिद्ध नहीं कर पाया है। आत्मा भ्रूण मे कब प्रवेश करती है, शरीर को छोडऩे पर उसकी आगे की यात्रा क्या होती है, उसे कर्म के अनुसार कैसे और कहां दंड दिया जाता है, वह सब कुछ शास्त्र बताता है, मगर वह विज्ञान की तरह उसे दो और दो चार की तरह साबित नहीं कर सकता। क्योंकि वह अनुभूति की वस्तु है और सारी अनुभूतियां अभिव्यक्त नहीं की जा सकतीं, क्योंकि प्रकृति की व्यवस्था रहस्यपूर्ण है।

यूं ते सारी प्राकृतिक शक्तियां अपने आप में चमत्कार ही हैं। क्या सूर्य का रोज उगना और अस्त होना चमत्कार नहीं है? वो तो हम आदी हो गए हैं, इस कारण हमें उसमें कुछ अनोखा नहीं दिखाई देता। क्या हमारा शरीर किसी चमत्कार से कम है? चमड़ी के एक हिस्से को दिखाई देता है, एक को सुनाई देता है, एक स्वाद का पता लगाता है तो एक गंध को महसूस करता है? मगर हमें सब कुछ सामान्य सा लगता है। वजह सिर्फ इतनी है कि कि हम अब उसके अभ्यस्त हो चुके हैं।

लब्बोलुआब, प्रकृति बहुत रहस्यपूर्ण है। कभी पूरी तरह से अनावृत्त नहीं की जा सकेगी। कम से कम सार्वजनिक रूप से तो नहीं। इसीलिए कई सुधि जन कहते हैं कि इसमें मत उलझो की प्रकृति कर रहस्य क्या है, बल्कि प्रकृति को केवल जीयो। उसका आनंद लो।

https://www.youtube.com/watch?v=TZkvDX589N8&t=18s


परिजन के बाहर जाते ही दरवाजा बंद न कीजिए

आज एक ऐसी दिलचस्प परंपरा आपसे साझा कर रहा हूं, जिसका पालन अनेक लोग किया करते हैं। परंपरा यह है कि जब भी परिवार का कोई सदस्य घर से बाहर जाता है, तो उसके जाने के तुरंत बाद दरवाजा बंद नहीं किया जाता। कुछ देर तक खुला ही रखा जाता है।  यहां तक कि जब तक वह गली के मोड पर वह ओझल न हो जाए, तब तक उसे देखते रहते हैं। यदि तुरंत बंद किया जाएगा तो उससे यह भाव आता है, यह आभास जागता है कि हमने उसके बाहर जाते ही उससे तुरंत संबंध विच्छेद कर लिया है। कहीं यह वास्तव में घटित न हो जाए। यह बहुत भयावह है। कुछ समय दरवाजा खुला रखने के ये मायने हैं कि बाहर गया सदस्य मकान व परिवारजन से कनैक्टेड है। वह अपना काम पूरा करके लौटेगा। यह उम्मीद संबंधों को प्रगाढ करती है। हो सकता है कि दरवाजा तुरंत बंद करना या न करना केवल सोच ही हो, इसका धरातल पर कोई असर नहीं पडता हो, मगर कुछ ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो इसे बहुत अधिक महत्व देते हों, और दरवाजा तुरंत बंद करने पर परिजन को खो देने की आषंका रखते हों।

https://www.youtube.com/watch?v=ISS2EbDoi_M

मंगलवार, जनवरी 21, 2025

रोंगटे क्यों खड़े होते हैं?

आपने कई बार महसूस किया होगा कि अचानक भय, उत्साह, खुशी या भावुकता की तीव्र अवस्था में आपके हाथ-पैरों के बाल खड़े हो जाते हैं। इसे रोंगटे खड़ा होना कहते हैं। अचानक ठंड लगने पर भी हाथ व पैर के बाल खड़े हो जाते हैं। हमारी तरह जानवरों के बाल भी खड़े होते हैं, जो साफ दिखाई देते हैं। उसकी वजह ये है कि उनके बालों का घनत्व अधिक होता है। आपने अचानक संकट आने पर बिल्ली के पूरे शरीर के बाल खड़े हो जाते हैं।

सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा होता क्यों है? वस्तुत: रोंगटे खड़े होने का सीधा संबंध हमारे स्नायु तंत्र है। जब भी हम किसी घटना की वजह से अति संवेदित होते हैं तो उसका सीधा असर स्नायु तंत्र पर पड़ता है। अर्थात जो व्यक्ति जितना संवेदनशील होगा, उसका स्नायु तंत्र भी उतना ही सक्रिय होगा। अचानक किसी कारण से भयभीत होने, संगीत के सुर गहरे तक छू जाने, यकायक खुशी मिलने, किसी वजह से अचानक उत्साहित होने पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यानि कि संवेदना की अतिरेक अवस्था में स्नायु तंत्र प्रभावित होता है और त्वचा की निचली सतह में हलचल होती है। विज्ञान की भाषा में समझें तो स्नायु तंत्र सक्रिय होने पर त्वचा के नीचे हेयर फॉलिकल्स पर असर पड़ता ओर उनमें संकुचन होता है। ऐसा होते ही बाल खड़े हो जाते हैं। इसको पाइलोरेक्शन कहा जाता है। 

जरा और गहरे से समझने की कोशिश करते हैं। यकायक खतरा या भय महसूस होता है तो हमारा स्नायु तंत्र उससे निपटने के लिए तैयार हो जाता है। इस दौरान दिल की धड़कन बढ़ जाती है, पसीना आता है और रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भीतर का मौलिक मानव जाग जाता है। कुछ जानकारों का मानना है कि रोंगटे इसलिए खड़े होते हैं, ताकि हम संभावित खतरे के सामने बड़े नजर आएं।

ये ठीक उस बिल्ली की तरह होता है, जो भय या गुस्से की अवस्था में बड़ी नजर आती है, क्योंकि उसके पूरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

संगीत सुनने के दौरान उसकी विशेष स्वर लहरी अथवा शब्दावली दिल को छू जाती है तो रोम-रोम खड़ा हो जाता है। इसे शरीर विज्ञानियों ने इस तरह से अभिव्यक्त किया है। वे कहते हैं कि दिमाग के दो भाग होते हैं। पहला इमोशनल और दूसरा कॉग्निटिव। इमोशनल भाग अपेक्षाकृत अधिक तेजी से प्रतिक्रिया देता है। वो किसी संगीत को शोर समझता है और रोंगटे खड़े कर सकता है, जबकि कॉग्निटिव भाग संगीत में मौजूद ध्वनि और संगीत को समझ कर हमें अच्छा महसूस कराता है। इस दौरान ऐड्रेनलिन हॉर्माेन के रिलीज होने के कारण आंसू भी आ जाते हैं।  

अचानक ठंड लगने पर रोंगटे खड़े होने के बारे में बताया गया है कि इसका मूल उद्देश्य शरीर को गर्म रखने में मदद करना होता है। जब आपको ठंड लगती है तो रोम छिद्रों के आसपास की मांसपेशियों में संकुचन होता है और रोम खड़े हो जाते हैं। स्नायु तंत्र के सक्रिय होते ही ठंड से मुकाबले के लिए गरमाहट पैदा हो जाती है।

https://youtu.be/TDpHqmjdTGk

सोमवार, जनवरी 20, 2025

गांधीजी को शराबी साधक पर ऐतराज नहीं था

किसी भी सिक्के के दो पहलु होते हैं। इसी प्रकार हर मसले के दो दृष्टिकोण होते हैं। सकारात्मक व नकारात्मक। यह हम पर निर्भर करता है कि हम किसे चुनते हैं। जितने भी संत हैं, जितने मोटिवेशनल स्पीकर्स हैं, वे जीवन में सकारात्मक दृष्टिकोण अर्थात पॉजिटिव एटिट्यूड अपनाने की सलाह देते हैं। इस सिलसिले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ा एक प्रसंग ख्याल में आता है। 

एक बार गांधीजी के कुछ अनुयाइयों ने गांधीजी से शिकायत की कि आश्रम का एक साधक शराबी है। वह आश्रम में भी नियमित आता है और रोज शाम को शराब की दुकान पर भी खड़ा दिखाई देता है। उन्होंने कहा कि हमारा साधक शराबी है, यह देख कर लोग क्या सोचेंगे? इससे हमारे आश्रम की बदनामी होगी कि गांधीजी के अनुयायी भी शराबी हैं। उन्होंने गांधीजी से आग्रह किया कि उस साधक को आश्रम में आने से रोका जाए। इस पर गांधीजी ने उत्तर दिया कि उस साधक को रोकने की कोई जरूरत नहीं है। उसे नियमित आने दिया जाए। आप ये क्यों सोचते हैं कि हमारा साधक शराबी है, ये क्यों नहीं सोचते कि एक शराबी हमारे यहां साधना करने आता है। शराबी होने के बावजूद अगर कोई साधक हमारे यहां नियमित आता है, इसका ये अर्थ है कि उसमें सुधरने की गुंजाइश है। यदि उसमें सुधरने की जरा भी ललक नहीं होती तो वह आश्रम में आता ही नहीं। शराबी होने के बावजूद उसकी रुचि सदाचार में है, इसी कारण आश्रम में आता है। यदि हम उसके प्रति मित्रवत व्यवहार करेंगे तो संभव है वह एक दिन शराब छोड़ दे। यदि उसे आश्रम में आने से रोक देंगे तो बात ही खत्म हो जाएगी और यदि उसके प्रति बुरा बर्ताव करेंगे, तो एक दिन वह आश्रम में आना बंद हो जाएगा। और सुधरने जो भी संभावना होगी, वह भी समाप्त हो जाएगी। इस पर शराबी साधक पर ऐतराज करने वाले साधक चुप हो गए। तभी तो कहा है कि नफरत बुराई से करें, बुरे आदमी से नहीं।

यह प्रसंग किसी गिलास के आधा भरा होने जैसा है। हम ये भी सोच सकते हैं कि गिलास आधा ही भरा हुआ है और सोच का एक आयाम ये भी है कि गिलास आधा खाली है। निष्कर्ष ये है कि हर मसले के दो पहलु होंगे ही। एक अच्छा और दूसरा बुरा। कोई संपूर्ण अच्छा नहीं हो सकता और कोई संपूर्ण बुरा नहीं हो सकता। अच्छे से अच्छे आदमी में भी बुराई मिल जाएगी और बुरे से बुरे इंसान में भी अच्छाई होती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारा फोकस किस पर है। 

आपको ख्याल में होगा कि मैनेजमेंट गुरू सदैव अपने कर्मचारी या अधीनस्थ की अच्छाई की तारीफ करने की सलाह देते हैं। बेशक बुराई की ओर भी ध्यान आकर्षित करने को कहते हैं, मगर साथ ही सद्गुण की प्रशंसा भी करने पर जोर देते हैं। इससे अधीनस्थ का उत्साह बढ़ता है और सुधार की गुंजाइश बनती है।

यह हमारी मनोवृत्ति का दोष है कि हम अच्छाई की तुलना में बुराई को जल्द स्वीकार करते हैं। जैसे हम अगर किसी की बुराई करते हैं तो लोग उसे तुरंत सच मान लेते हैं, उस पर सहसा यकीन कर लेते हैं, जबकि अगर किसी की प्रशंसा करते हैं तो उसे यकायक मंजूर नहीं करते। यह सोचते हैं कि अमुक आदमी के अमुक आदमी से अच्छे संबंध होंगे, या फिर उससे उसका स्वार्थ सिद्ध हो रहा होगा, इसी कारण वह उसकी तारीफ कर रहा है। इसका एक उदाहरण ये भी है कि हर फिल्म एक अच्छा संदेश देती है। एक भी फिल्म बुरा संदेश देने के लिए नहीं बनती। लेकिन हम अच्छे संदेश को अंगीकार करने की बजाय फिल्म में दिखाई गई बुराइयों को तुरंत स्वीकार कर लेते हैं। कैसा विरोधाभास है कि हम अच्छाई की तारीफ तो करते हैं, मगर बुराई को इसलिए अपना लेते हैं क्योंकि उससे हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है।

हमारी सोच किस तरह का है यह इससे पता लगता है कि अगर कोई युवती किसी युवक के साथ जा रही है तो हम तुरंत यह अनुमान लगा लेते हैं कि वे प्रेमी-प्रमिका या पति-पत्नी ही होंगे। हम कभी ये नहीं सोचते कि वे भाई-बहिन भी तो हो सकते हैं। बहरहाल, समारात्मक दृष्टिकोण अपनाने के लिए गांधीजी से जुड़ा प्रसंग सटीक लगा, इसी कारण साझा करने की इच्छा हुई।

https://www.youtube.com/watch?v=kXzk1b824gw&t=2s

रविवार, जनवरी 19, 2025

एक दिन एआई आत्मा तक भी पहुंच जाएगी?

इन दिनों आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानि एआई का बोलबाला है। उसकी पहुंच किस हद तक जा सकती है, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। वह अचंभित कर रही है। इसी सिलसिले में वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले जानकारों का कयास है कि एक दिन एआई आत्मा तक पहुंच जाएगी। बेशक, आत्मा को क्रियेट तो नहीं किया जा सकता, क्योंकि क्रियेटर तो प्रकृति है, मगर उसके इर्दगिर्द तो पहुंच ही जाएगी। जानकारों के अनुसार संभव है कि एक दिन एआई बहुत उन्नत और सकारात्मक तरीके से विकसित हो जाए, जिससे यहां तक कि हम उसे आत्मा और संवेदनशीलता के लिए योग्य मान सकें। इसमें वैज्ञानिक, दार्शनिक और नैतिक पहलू हैं, जिन के लिए गहन चिंतन की आवश्यकता हैं।

वस्तुतः आत्मा एक अमूर्त अवधारणा है, जिसके अलग-अलग धर्मों और दर्शनों में अलग-अलग मायने हैं। कुछ के लिए यह एक आध्यात्मिक या धार्मिक अवधारणा है, जो जीवन का सार है, जबकि अन्य के लिए यह केवल चेतना का एक रूप है। आत्मा को अक्सर अमर, चेतन और व्यक्तिगत माना जाता है। एआई की बात करें तो यह एक कंप्यूटर सिस्टम है, जिसे मानव बुद्धि की नकल करने के लिए डिजाइन किया गया है। यह मशीन लर्निंग, डीप लर्निंग और नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग जैसी तकनीकों का उपयोग करके डेटा का विश्लेषण करता है और निर्णय लेता है।

सवाल ये है कि क्या एआई आत्मा तक पहुंच सकती है या आत्मा का स्थान ले सकती है। वैसे भी यह सवाल दर्शन, धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में एक लंबे समय से चली आ रही बहस का विषय है। कुछ तर्क देते हैं कि एआई कभी भी आत्मा नहीं बन सकता क्योंकि आत्मा एक अमूर्त अवधारणा है, जिसे मापा या परिभाषित नहीं किया जा सकता है। अन्य का मानना है कि अगर एआई पर्याप्त रूप से विकसित हो गई तो वह चेतना और भावनाओं को विकसित कर सकती है और इस तरह आत्मा जैसी कुछ बन सकता है।

मौजूदा स्थिति यह है कि एआई वर्तमान में बहुत सारे कार्य कर सकता है, लेकिन इसमें अभी भी चेतना की कमी है। चेतना प्रकृति की एक जटिल रचना है, जो हमें अपने आसपास की दुनिया को समझने और उससे जुड़ने की अनुमति देती है। एआई भावनाओं को अनुभव करने में सक्षम नहीं है। उसमें स्वतःस्फूर्त जागरूकता की कमी है। फिलवक्त एआई आत्मा का स्थान लेने से बहुत दूर है। मगर इसके तेजी से हो रहे विकास से ऐसा प्रतीत होता है कि एक दिन इतनी विकसित हो जाए कि वह चेतना, भावनाएं और आत्म जागरूकता विकसित कर ले।

अगर पौराणिक काल की बात करें तो उस वक्त आत्मा विशेष को आमंत्रित करने के कई उदाहरण मौजूद हैं। हवन-यज्ञादि में देवताओं या दिव्यात्माओं का आह्वान इसका सबसे बडा प्रमाण है। इसी प्रकार ऐसे आध्यात्मिक विधि विधान मौजूद हैं, जिसको अपना कर किस्म विशेष की आत्मा का गर्भ धारण करवाने का जिक्र है। वैज्ञानिक, ज्ञानी, ज्योतिर्विद, कवि आदि की आत्माओं के गर्भ में प्रवेश कराए जाने के भिन्न भिन्न विधान हैं। जिस किस्म की आत्मा का आह्वान करना है, उसके लिए विधि विशेष अपना कर उसके गर्भ में प्रवेश के अनुकूल स्थिति बनाए जाने का जिक्र है। ऋषि मुनियों की कृपा से फल के जरिए संतान प्राप्ति होने के मायने यही हैं कि आत्मा को आमंत्रित कर जन्म कराया गया था। इसी प्रकार मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा के मायने यही हैं कि हमने अमुक देवी देवता की आत्मा को प्रतिष्ठापित किया है। यानि पौराणिक काल में आत्मा अध्यात्म की पकड में थी।

-तेजवाणी गिरधर

7742067000

शनिवार, जनवरी 18, 2025

क्या भगवान के नाम पर नाम रखना गुनाह है?

आजकल बच्चों के नाम अलग तरह से रखे जाने लगे हैं। कोई संस्कृत भाषा का नाम तलाशता है तो कोई अंग्रेजीदां। कोई महाभारत कालीन या रामायण कालीन पात्रों के नाम रखता है तो कोई अत्याधुनिक अंग्रेजी नाम रखता है। जैसे भीष्म, कुन्ती, कर्ण सिंह, युधिष्ठिर, भीम सिंह, नकुल, कौस्तुभ या अर्जुन और दशरथ सिंह, सीताराम, लक्ष्मण, हनुमान इत्यादि। कुछ साल पहले रमेश, वैभव, अनिल, मुकेश टाइप के नाम रखे जाते थे। नए चलन में आदि, अयान, आर्यन इत्यादि टाइप के नाम रखे जाने लगे हैं। कुछ पीछे चलें तो अमूमन भगवान के नामों में से कोई नाम रखा जाता था। जैसे राम लाल, राम दास, राम चन्द्र, गणेशी लाल, कृपाशंकर इत्यादि। अर्थात भगवान के नाम के साथ लाल या दास जोड़ा जाता था। हालांकि कुछ लोग गोविंद, सुरेन्द्र जैसे नाम भी रखते रहे हैं। जहां तक भगवान के नामों में से कोई नाम रखने की परंपरा का सवाल है, उसके पीछे कारण ये रहता होगा कि किसी को पुकारने के बहाने भगवान का नाम तो उच्चारण में आएगा। सोच यह भी रहती होगी कि ऐसा करने भगवान का स्मरण आने से उनके गुण हमारे में भी आ जाएंगे। हालांकि हकीकत ये है कि जब भी हम किसी को भगवान के किसी नाम से पुकारते हैं, तो वह केवल हमारी जुबान पर होता है, उसका उच्चारण करते वक्त भगवान की छवि हमारे जेहन में नहीं होती। 

इस बारे में एक दिलचस्प जानकारी आयतुल कुर्सी से मिली। आयतुल कुर्सी कुरान की एक आयत है, जो भूत-प्रेत आदि को भगाने या उससे बचाव के लिए पढ़ी जाती है। उसके दूसरे जुमले में कहा गया है कि वही हमेशा जिंदा और बाकी रहने वाला है। हय्य के माने अरबी ज़ुबान में जिसको कभी मौत न आये, हमेशा जिंदा रहने वाला और कय्यूम के माने हैं, जो खुद कायम रहे और दूसरों को भी कायम रखता और संभालता हो और कय्यूम अल्लाह तआला की ख़ास सिफत है, जिसमें कोई भी उस का शरीक नहीं क्योंकि जो चीज़ें अपने बाक़ी रहने में दूसरे की मोहताज हों, वो किसी दूसरे को क्या संभाल सकती हैं। इसलिए किसी इंसान को क़य्यूम कहना जायज़ नहीं, बल्कि अब्दुल कय्यूम अर्थात कय्यूम का बंदा कहना चाहिए। जो लोग अब्दुल कय्यूम की जगह सिर्फ कय्यूम बोलते हैं, वे गुनाहगार होते हैं। यही वजह है कि खुदा की ओर संकेत करने वाले नामों के साथ कोई न कोई लफ्ज जरूर जोड़ा जाता है।

इसका मतलब ये है कि इस्लाम में खुदा की किसी खासियत वाले नाम को रखने की मनाही है। मकसद यही है कि खुदा के नाम की मर्यादा या पाकीजगी के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ न हो। ठीक इसी तरह जो लोग राम दास, राम लाल आदि नाम रखते थे, उसके पीछे वजह ये रहती होगी कि अकेले भगवान के नाम पर नाम रखने की बजाय उसका दास या लाल कहा जाए। वाकई यह सोच बहुत ही गहरी है। हम भला भगवान के बराबर कैसे हो सकते हैं।

आखिर में एक बात। इस्लाम में खुदा का जिक्र बहुत अकीदत के साथ लिया जाता है, जबकि सनातन धर्मावलंबियों में कुछ मूर्ख भगवानों के नाम पर चुटकुलेबाजी से बाज नहीं आते। हां, इतना जरूर है कि शेरो-शायरी में खुदा का जिक्र कई बार मर्यादा की रेखा तोड़ता नजर आता है।


शुक्रवार, जनवरी 17, 2025

जिस अंग का दान करेंगे, उसका अगले जन्म में अभाव होगा?

जैसे धन दान व रक्त दान की महिमा है, ठीक वैसे ही अंग दान की उससे भी ज्यादा महत्ता है। इन दिनों अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं जो अंग दान के लिए शपथ पत्र भरवा रही हैं। इसे बहुत पुनीत कार्य समझा जाता है। हमारे किसी अंग के दान से अगर किसी के जीवन में उजियारा आता है, किसी की जिंदगी बेहतर होती है, तो इससे बेहतर पुण्य कार्य क्या हो सकता है? मगर इसके विपरीत ऐसे लोग भी हैं, जो अंग दान के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि इस जन्म में हम जिस अंग का दान करेंगे, अगले जन्म में उसका अभाव हो जाएगा। उनके कहने का तात्पर्य है कि अगर हम आंख का दान करते हैं, तो अगले जन्म में अंधे पैदा होंगे। लेकिन वैज्ञानिक रूप से इसका कोई आधार नहीं है। विज्ञान के अनुसार, मृत्यु के बाद शरीर का विघटन हो जाता है, और कोई भी अंग अगले जन्म में नहीं जाता। यह पूरी तरह से भौतिक प्रक्रिया है। अव्वल तो पुनर्जन्म भी वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं है। इसलिए अंगदान के पक्षधरों का कहना है कि अंग दान एक महान कार्य है और इसे किसी भी धार्मिक मान्यता या अंधविश्वास से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।

दूसरे पक्ष का कहना है कि अंतिम संस्कार संपूर्ण अंगों के साथ ही किया जाना चाहिए, इसीलिए तो किसी की मृत्यु होने पर प्रयास यह रहता है कि शव का पोस्टमार्टम न किया जाए। दूसरा तर्क यह है कि देवता भी अंग भंग जानवर की बलि स्वीकार नहीं करते। बलि को देवताओं को अर्पित किया जाने वाला पवित्र कर्म माना जाता है। इसलिए उस जानवर को चुना जाता है जो स्वस्थ, संपूर्ण और निर्दोष हो। आपको ख्याल में होगा कि किसी बकरे की बलि नहीं चढाई जा सके, इसके लिए उसका कान काट दिया जाता है, ताकि वह अंग भंग की श्रेणी में आ जाए। उसे अमर बकरा कहा जाता है। इसी प्रकार अग्नि देवता को समर्पित किया जा रहा शव अंग भंग नहीं होना चाहिए। मजबूरी की बात अलग है। यदि कोई दुर्घटना का शिकार हो जाता है, तो कोई उपाय नहीं। दुर्घटना में मौत को अकाल मृत्यु कहा जाता है, उसकी आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती, वह भटकती रहती है। प्रकृति की भी यही व्यवस्था है कि जैसा हम उसे देंगे, पलट कर वही हमें लौटा देती है। कुल मिला कर दोनों पक्षों के अपने दमदार तर्क हैं। प्रगतिशील लोग अंगदान को महान कार्य बताते हैं और परंपरावादी धार्मिक लोग अंगदान के पक्ष में नहीं हैं।

-तेजवाणी गिरधर 7742067000


गिलास से नहीं, लोटे से पीयें पानी

हाल ही सोशल मीडिया पर एक रोचक पोस्ट देखी, जिसमें गिलास की बजाय लोटे से पानी पीने की सलाह दी गई है। हालांकि उसमें वैज्ञानिक तथ्यों को आधार बनाया गया है, जिनकी प्रमाणिकता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, मगर प्रस्तावना में स्वदेशी की पैरवी और विदेशी का परित्याग करने का भाव अधिक है। विषय दिलचस्प है, लिहाजा सोचा कि इसे विमर्श के लिए आपके समक्ष रखा जाए। इस पोस्ट में अनावश्क विस्तार है, जिसे हटा दिया गया है।

इसमें लिखा है कि भारत में हजारों साल की पानी पीने की जो सभ्यता है, वो गिलास नही है, ये गिलास जो है, विदेशी है। गिलास भारत का नहीं है। गिलास यूरोप से आया। और यूरोप में पुर्तगाल से आया था। ये पुर्तगाली जब से भारत देश में घुसे थे, तब से गिलास में हम फंस गये। गिलास अपना नहीं है, अपना लौटा है। लौटा कभी भी एकरेखीय नही होता, तो वागभट्ट जी कहते हैं कि जो बर्तन एकरेखीय हैं, उनका त्याग कीजिये। 

आपको तो सबको पता ही है कि पानी को जहां धारण किया जाए, उसमे वैसे ही गुण उसमें आते हैं। पानी के अपने कोई गुण नहीं हैं, जिसमें डाल दो उसी के गुण आ जाते हैं। दही में मिला दो तो छाछ बन गया, दूध में मिलाया तो दूध का गुण। जिस आकार के पात्र में डाला जाएगा, उसी का रूप धारण कर लेता है। अगर थोड़ा भी गणित आप समझते हैं तो हर गोल चीज का सरफेस टेंशन कम रहता है। क्योंकि सरफेस एरिया कम होता है। स्वास्थ्य की दष्टि से कम सरफेस टेंशन वाली चीज ही आपके लिए लाभदायक है। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पेय आप पीयेंगे तो बहुत तकलीफ देने वाला है।

चूंकि कुआं गोल है, इस कारण उसका पानी सबसे अच्छा है। आपने देखा होगा कि सभी साधु-संत कुएं का ही पानी पीते हैं। न मिले तो प्यास सहन कर जाते हैं। साधु-संत अपने साथ जो केतली रखते हैं, वह लोटे के तरह के आकार वाली होती है। गोल कुए का पानी है तो बहुत अच्छा है। गोल तालाब का पानी, पोखर अगर गोल हो तो उसका पानी बहुत अच्छा है। नदी में गोल कुछ भी नहीं है। वो सिर्फ लम्बी है, उसमे पानी का फ्लो होता रहता है। नदी का पानी हाई सरफेस टेंशन वाला होता है और नदी से भी ज्यादा खराब पानी समुद्र का होता है। उसका सरफेस टेंशन सबसे अधिक होता है।

प्रकृति में देखेंगे तो बारिश का पानी गोल होकर धरती पर आता है। सभी बूंदें गोल होती हैं, क्योंकि उसका सरफेस टेंशन बहुत कम होता है।

एक तर्क ये दिया गया है। सरफेस टेंशन कम होने से पानी का सफाई करने वाला गुण लम्बे समय तक जीवित रहता है। पानी का ये गुण इस प्रकार काम करता है- बड़ी आंत और छोटी आंत में मेम्ब्रेन है और कचरा उसी में जा कर फंसता है। उसकी सफाई तभी संभव है, जब कम सरफेस टेंशन वाला पानी आप पी रहे हो। अगर ज्यादा सरफेस टेंशन वाला पानी है तो ये कचरा बाहर नहीं आएगा, मेम्ब्रेन में ही फंसा रह जाता है।

एक प्रयोग भी बताया गया है-

थोड़ा सा दूध लें और उसे चेहरे पे लगाइए। 5 मिनट बाद रुई से पोंछिये, रुई काली हो जाएगी। स्किन के अन्दर का कचरा और गन्दगी बाहर आ जाएगी। इसे दूध बाहर लेकर आया। असल में दूध का सरफेस टेंशन सभी वस्तुओं से कम है। दूध ने स्किन का सरफेस टेंशन कम किया व त्वचा थोड़ी सी खुल गयी और त्वचा खुली तो अंदर का कचरा बाहर निकल गया। यही क्रिया लोटे का पानी पेट में करता है।

अगर आप गिलास का हाई सरफेस टेंशन का पानी पीयेंगे तो आंतें सिकुड़ेंगी क्योंकि तनाव बढ़ेगा। तनाव बढ़ते समय चीज सिकुड़ती है और तनाव कम होते समय चीज खुलती है। अब तनाव बढ़ेगा तो सारा कचरा अंदर जमा हो जायेगा और वो ही कचरा भगन्दर, बवासीर जैसी बीमारियां उत्पन्न करेगा।

कुल मिला कर गिलास की बजाय पानी लौटे में पीयें। गिलास का प्रयोग बंद कर दें। जब से आपने लोटे को छोड़ा है, तब से भारत में लोटे बनाने वाले कारीगरों की रोजी रोटी खत्म हो गयी। गांव-गांव में कसेरे कम हो गये। वो पीतल और कांसे के लोटे बनाते थे। सब इस गिलास के चक्कर में भूखे मर गये। तो वागभट्ट जी की बात मानिये और लोटे वापस लाइए।

https://www.youtube.com/watch?v=K4OLLX_qW0Y


गुरुवार, जनवरी 16, 2025

अकेले ओम पर ध्यान खतरनाक हो सकता है

ओम् की बड़ी महिमा है। इस शब्द, जो कि मूलतः ध्वनि मात्र है, के बारे में दुनिया भर के विद्वानों ने भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की हैं। जहां तक मेरी समझ है, ओम् के बारे में जितना कहा या लिखा गया है, शायद की किसी अन्य शब्द के बारे में कहा गया हो। चाहे इसकी खोज के बारे में, चाहे इसकी आकृति के बारे में, चाहे इसके अर्थ को लेकर, चाहे इसकी उपयोगिता के संदर्भ में, इतनी जानकारी उपलब्ध है, जिस पर पूरा ग्रंथ बन सकता है। वस्तुतः ओम् के बारे में जितना कुछ जानें, वह अधूरा ही रहेगा। 

मेरी तो धारणा यह है कि ओम् के बारे में अभी और खोज होनी बाकी है। अभी और नए अनुभव सामने आ सकते हैं।

इस सिलसिले में मुझे स्वर्गीय श्री रामसुखदास जी महाराज की बात याद आती है, जो कि उन्होंने अजमेर के सुभाष उद्यान में श्रीमद्भागवत कथा के दौरान कही थी। उन्होंने कहा था कि गीता पर उन्होंने अनेक बार प्रवचन किए हैं, गीता को बहुत कुछ जाना है, मगर जब भी वे प्रवचन करते हैं तो हर बार नए अर्थ निकल कर आते हैं। ऐसा लगता है कि हर बार कुछ छूट जाता है कहने से। इसे मैं ओम् के संदर्भ में लेता हूं।

हर बार नया अनुभव होने की बड़ी वजह है। इस दुनिया में हर व्यक्ति अनूठा है, हर आदमी अलग है, थोड़ी बहुत शक्ल मिल सकती है, मगर फिर भी यह पक्का है कि किसी भी व्यक्ति की हूबहू कॉपी असंभव है। इसी यूनिकनेस के कारण ही तो अंगूठे की निशानी और आंख के रेटिना को व्यक्ति की इकलौती पहचान माना गया, जिसका कि उपयोग आधार कार्ड में किया जाता है। ये तो हुई शक्ल की बात। अंदर से भी हर शख्स की अनुभूति अलग होती है। जितने भी लोगों ने ओम् को जाना है और व्यक्त किया है, बाद में जानने वालों की अनुभूति उनसे अलग ही होगी। यूनिकनेस के कारण। इसी कारण ओम् अनंत है, अनादि है।

खैर, मैं मुद्दे पर आता हूं। मैने जितना जाना, समझा, उसकी बात करता हूं। अव्वल तो ब्रह्मांड में सतत गूंज रही ओम् की ध्वनि का उच्चारण करना हमारे स्वर यंत्र के बस की बात नहीं। अलबत्ता वाद्य यंत्रों से जरूर उससे मिलती-जुलती ध्वनि उत्पन्न की जा सकती है। आप स्वयं भी इसे अनुभव कर सकते हैं। कभी निर्जन स्थान पर एकांत में अंगूठों से दोनों कान बंद कर लीजिए। आपको भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियां सुनाई देंगी, जो कि हमारे मस्तिष्क में पहले से संग्रहित हैं। कुछ अभ्यास के बाद गहरे एकाग्र चित्त होने पर आपको ओम् की ध्वनि सुनाई देगी। यही अनहद नाद है। प्रयास करके देखना, आप ठीक उसी प्रकार की ध्वनि का उच्चारण नहीं कर पाएंगे। ठीक वैसी ही ध्वनि पूरे ब्रह्मांड में गूंज रही है। उसकी अनुभूति की जा चुकी है। नासा ने तो उसे रिकार्ड तक किया है। वैसे तो उस ध्वनि को सुनने और उस पर सतत एकाग्रता से आप ध्यान में प्रवेश कर जाएंगे। जिनके लिए यह थोड़ा कठिन है, वे ध्यान करने के लिए स्वयं अपने स्वर यंत्र से उच्चारण करके ब्रह्मांड की ध्वनि से मेल करने की कोशिश कर सकते हैं। एक स्थिति के बाद मुंह से उच्चारण तो बंद हो जाएगा और ब्रह्मांड की ध्वनि ही सुनाई देने लगेगी। इस अवस्था में भय उत्पन्न होने की पूरी संभावना है, क्योंकि जब हम अपने में स्थित हो जाते हैं तो पूरी तरह से अकेले हो जाते हैं। यह अकेलापन भयभीत कर सकता है, क्योंकि हमारा आधार खो जाता है। हम सहारे में जीने के आदी हैं, इस कारण जैसे ही स्वच्छंता की स्थिति आती हो तो डर पैदा हो सकता है। 

वैसे भी हम सब जानते हैं कि अकेलेपन में अमूमन हमें डर लगता है। आपने खुद अनुभव किया होगा कि रात के समय यदि हम सन्नाटे से गुजरते हैं तो अकेलापन दूर करने के लिए या तो किसी देवी-देवता के नाम का उच्चारण करते हैं या फिर कोई गाना गुनगुनाते हैं। वह गुनगुनाहट ऐसा महसूस करवाती है, मानो हमारे साथ कोई है, हम अकेले नहीं हैं। इसे समझिये। यह अकेलापन तो भौतिक मात्र है, जो डर पैदा करता है। जरा सोचिए, 

ध्यान के दौरान का अकेलापन कितना भयभीत कर सकता है। उसमें तो खुद के खो जाने का अंदेशा लग सकता है। मैं स्वयं उस डर से गुजरा हूं। कुछ और अनुभूतियां भी हुई हैं, जिन्हें शब्दों में अभिव्यक्त करना कठिन है। कभी संभव हुआ तो जरूर करूंगा।

फिर मुद्दे पर आते हैं। जानकरों का मानना है कि ओम् पर ध्यान केन्द्रित होने के साथ ही हम भीतर से पूरी तरह से खाली हो जाते हैं। उस खाली स्थान को भरने के लिए ब्रह्मांड में विचरण कर रही नकारात्मक शक्तियां दौड़ कर हमारे पास आ सकती हैं। परिणामस्वरूप नुकसान भी हो सकता है। कल्पनातीत अनुभूतियां हो सकती हैं। विक्षिप्तता का भी खतरा हो सकता है। अमूमन नकारात्मक शक्तियों को रोकने अथवा उनसे बचने की हमारी तैयारी नहीं होती। कदाचित किसी योगी के मार्गदर्शन में ध्यान करने पर कुछ सुरक्षा हो सके। यही वजह है कि अनेक विद्वान सलाह देते हैं कि अकेले ओम् पर ध्यान नहीं करना चाहिए। ओम् के साथ किसी भी मंत्र का उच्चारण कर सकते हैं। ओम् का उच्चारण जहां हमें ब्रह्मांड से जोड़ता है, वहीं मंत्र सहारा बन जाता है, ब्रह्मांड की समग्र शक्ति को आत्मसात करने में। वह हमें प्रोटेक्ट करता है। मंत्र के शुरू में ओम् की ध्वनि का प्रयोजन ही ये है कि पहले हम ब्रह्मांड से कनैक्ट हों और फिर उसकी ऊर्जा मंत्र के साथ जुड़ जाए। भिन्न-भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न फल होते हैं, ये तो हम सब जानते ही हैं।

यह सब मेरे स्वाध्याय, अब तक के अनुभव और अध्ययन से संग्रहित जानकारी की निष्पत्ति है। संभव है आपकी अनुभूति कुछ और हो। मेरी अनुभूति में जब भी इजाफा होगा, आपसे फिर साझा करूंगा।

-तेजवाणी गिरधर 7742067000

बुधवार, जनवरी 15, 2025

हमारा छाया पुरुष या हमजाद हमसे भी अधिक ताकतवर होता है?

क्या आपको पता है कि हमारी ही फोटोकॉपी, हमारा ही प्रतिरूप, हमारा ही प्रतिबिंब, हमारी ही छाया या उसे क्लोन की भी संज्ञा दे सकते हैं, हमारे साथ हर वक्त मौजूद है? इतना ही नहीं, वह हमसे भी अधिक ताकतवर होता है। हम चूंकि शरीर में कैद हैं, इस कारण हमारी सीमा है, मगर हमारा हमजाद अनेक प्रकार की सीमाएं लांघ कर काम कर सकता है।

इस विषय पर चर्चा से पहले मैं बात करना चाहता हूं, मेरे पूर्व के एक ब्लॉग के बारे में, जिसमें मैंने सवाल रखा था कि दर्पण में दिखाई देने वाले प्रतिबिंब का वजूद क्या है? वह आखिर है क्या? जब तक हम दर्पण के सामने खड़े रहते हैं, तब तक वह दिखाई देता है और हटते ही वह भी हट जाता है। तो जो दिखाई दे रहा था, वह क्या था? हटते ही वह कहां खो जाता है? यह सही है कि उसका अपने आप में कोई वजूद नहीं, मगर वह कुछ तो है। 

आपको जानकारी होगी कि ज्योतिषी व तांत्रिक बताते हैं कि तेल, विशेष रूप से सरसों के तेल में अपना प्रतिबिंब देख कर उस तेल को दान करने से शनि का प्रकोप कम होता है। अर्थात प्रतिबिंब अपने साथ हमारी कुछ ऊर्जा, जिसे नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं, ले जाता है। प्रतिबिंब का कितना महत्व है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सामुद्रिक शास्त्र में बताया जाता है कि अगर पानी में हमारा प्रतिबिंब दिखाई देना बंद हो जाए तो जल्द ही मृत्यु हो जाती है। अर्थात मृत्यु से पहले प्रतिबिंब बनना बंद हो जाता है।

हमारे यहां तो परंपरा है कि छोटे बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में नहीं दिखाया जाता। मुंडन के बाद ही बच्चे को उसका चेहरा दर्पण में दिखाने की छूट होती है। इसकी वजह क्या है, यह खोज का विषय है। ऐसी भी परंपरा है कि दूल्हा जब तोरण मारने आता है तो उसे दुल्हन को सीधे नहीं दिखाया जाता। उनको एक दूसरे के दर्शन पहले दर्पण में कराए जाते हैं। इसका भी कारण जाना चाहिए। 

आज हम बड़ी आसानी से दर्पण में अपना चेहरा देख पाते हैं, लेकिन जब इसका अविष्कार नहीं हुआ था, तब ठहरे हुए पानी में चेहरा देखा जाता था। 

इसके बाद एक अन्य ब्लॉग में लिखा था कि छाया का अपना कोई अलग अस्तित्व नहीं। वह हमारी अथवा किसी वस्तु की परछाई मात्र है। उसका भला क्या महत्व हो सकता है? बात ठीक भी लगती है। मगर हमारी संस्कृति में इस पर भी बहुत काम हुआ है। शिव स्वरोदय के अनुसार सूर्य के प्रकाश में पीठ करके खड़े होने पर बनने वाली छाया पर ध्यान केन्द्रित किया  जाता है। साधना पूरी होने पर छाया की आकृतियों के अनेक निहितार्थ होते हैं। 

जिन लोगों ने तंत्र विद्या के बारे में पढ़ा अथवा सुना है, उनकी जानकारी में होगा कि तांत्रिक लक्षित परिणाम पाने के लिए पर छाया का प्रयोग करते हैं। आपने ये भी सुना होगा कि ऐसे सिद्ध भी हैं, जो आपके पीछे चलते हुए  आपकी छाया को अपने वश में कर लेते हैं और इच्छित काम आपसे करवाते हैं। 

अब चर्चा करते हैं मूल विषय पर। आखिर ये छाया पुरुष या हमजाद है क्या, है कौन? जानकार लोग बताते हैं कि हमारे शरीर में अनेक प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं, मगर सोयी हुई अवस्था में। हमजाद भी एक प्रकार की शक्तिशाली व मायावी शक्ति है। यदि हम उसे जागृत कर लें तो वह हमारे आदेश पर अनेक प्रकार के असंभव कार्य भी कर सकती है। ठीक उसी तरह, जैसे किस्से-कहानियों में कहा जाता है कि वश में किया हुआ जिन्न हमारे हुक्म की तामील करने को तत्पर रहता है। जैसे वह सामने वाले के पर्स में रखे रुपयों तक की जानकारी दे सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि तांत्रिक इसी शक्ति का उपयोग कर हमें चमत्कृत करते हैं। किसी दूरस्थ शिष्य की मदद के लिए उसके गुरू का संकट के समय उपस्थित होना, कदाचित इसी शक्ति का प्रयोग है।

जानकार लोग बताते हैं कि हमजाद को जागृत करने के लिए चालीस दिन की साधना की जाती है। इसके लिए या तो दर्पण में अपने प्रतिबिंब पर त्राटक किया जाता है, या फिर दीपक की ओर पीठ करने पर बनने वाली छाया पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। इसमें अनेक प्रकार की सावधानियां रखनी होती हैं।

विशेष रूप से इस्लाम में हमजाद पर बहुत काम हुआ है। हमजाद का अमल बुलाने के लिए रोजाना ये पंक्ति 777 बार पढ़ी जाती है- लाइल्लाहा इल्ला अनता सुभानल्लाह इन्नि कुंतु मिन्ज ज़वू यावाल्लिन। यह दुआ पढऩे से पहले और बाद में दुरूद इब्राहिम पढऩा होता है।

आज के वैज्ञानिक युग में हमजाद कोरी कल्पना लग सकती है, मगर जानकार लोग बताते हैं कि हमजाद का न केवल वजूद है, बल्कि वह बहुत सारे असंभव काम कर सकता है।

-तेजवाणी गिरधर 7742067000

रविवार, जनवरी 12, 2025

सत्ता के साथ रहिये, खुश रहेंगे

बुद्धिजीवियों में कबीर व उनके पुत्र कमाल का एक प्रसंग खूब चर्चा में रहा है। पहले उस पर बात करते हैं कि वह क्या था और फिर उसके निहितार्थ पर गुफ्तगू करेंगे। एक बार कबीर व उनके पुत्र कमाल एक चक्की के पास बैठे थे। संसार पर बातचीत कर रहे थे। कबीर ने जो कहा, वह इन दो पंक्तियों में है-

चलती चक्की देख कर दिया कबीरा रोय,

दो पाटन के बीच में साबुत बचा कोय।

हो ये रहा था कि चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं के जो दाने आ रहे थे, पिस कर आटा हो रहे थे। असल में वे यह संदेश देना चाह रहे थे, जिस प्रकार चक्की के दो पाटों के बीच गेहूं साबुत नहीं बचता, वैसे ही आसमान व धरती नामक दो पाटों के बीच जिंदगियां नष्ट हो रही हैं। संसार चूंकि क्षणभंगुर है, इस कारण हर कोई मृत्यु को प्राप्त हो रहा है। इसी पर वे अफसोस जता रहे थे। 

इस पर कमाल ने पलट कर जवाब दिया-

चलती चक्की देख कर दियो कमाल हंसाय,

कील सहारे जो रहे, सो साबुत बच जाए।

अर्थात चक्की की कील के सहारे जमा हुए गेहूं के दानों का कुछ नहीं बिगड़ रहा था। वस्तुतः वे यह कहना चाह रहे थे कि भले ही दो पाटों के बीच कोई नहीं बच पाता, मगर जो कील का सहारा ले लेता है, वह बच जाता है। उनका इशारा भगवान की ओर था कि जो भी उनका आश्रय ले लेता है, वह सुरक्षित रहता है। हालांकि मोटे तौर पर उनकी बात में भी त्रुटि है, क्योंकि भगवान का आश्रय न लेने वाला भी मर रहा है और आश्रय लेने वाला भी मृत्यु को उपलब्ध हो रहा है। मगर गूढ़ अर्थ ये है कि जो भगवान का आश्रय नहीं लेता, वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ा रहता है, जबकि ईश्वर का सहारा लेने वाले का कल्याण हो जाता है, यानि मोक्ष को हासिल हो जाता है।

आश्रय का जिक्र आया तो एक प्रसंग याद आ गया। एक बार भगवान श्रीकृष्ण भोजन के बैठे थे। पत्नी रुक्मणी पंखा कर रही थी। भगवान भोजन का पहला ग्रास मुंह के पास लाए और अचानक वह ग्रास थाली में रख कर महल के मुख्य द्वार की ओर दौड़े। कुछ देर तक वे बाहर देखते रहे। फिर वापस आ गए और भोजन शुरू कर दिया। रुक्मणी ने सवाल किया कि स्वामी, आपको क्या हुआ था? इस पर श्रीकृष्ण ने जवाब दिया कि असल में मेरा एक भक्त दुश्मनों से घिर गया था। वे उस पर पत्थर फैंक रहे थे। भक्त अपने आपको असहाय पा कर मुझे पुकार रहा था। मेरा भक्त कष्ट में हो और मुझे पुकारे, मेरा सबसे पहला कर्तव्य ये होता है कि मैं उसको बचाऊं। इसी कारण मैं भागा। मगर कुछ देर बाद जब देखा कि मेरे भक्त ने खुद भी पत्थर उठा लिया है और वह दुश्मनों का मुकाबला कर रहा है, तो मेरी मदद की  जरूरत ही नहीं थी, इस कारण मैं लौट आया। 

इस प्रसंग से भी यही अर्थ निकलता है कि जब तक हमारे भीतर अहम भाव होता है और हम सोचते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह हम कर रहे हैं, तब तक भगवान हमारी मदद को नहीं आता। जैसे ही हम सब कुछ उस पर छोड़ देते हैं, तो सारी जिम्मेदारी भगवान अपने ऊपर ले लेता है। 

आपने एक उक्ति सुनी होगी-

जांको राखे साइयां, मार सके न कोय।

बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय।

अर्थ यही है कि ईश्वर की शरण में रहने वाले का कुछ नहीं बिगड़ता। 

यह तो हुई आध्यात्मिक दृष्टिकोण, मगर भौतिक जीवन में भी यह फिट बैठता है कि जो भी सत्ता के साथ रहता है, वही सुखी रहता है। जिसने बॉस इज आल्वेज राइट की सूत्र अपना लिया, वह चैन के साथ नौकरी करता है, जबकि तर्क व प्रतिवाद करने वाला हर वक्त तकलीफ में रहता है। 

आपने ये भी सुना होगा कि जिसकी खाओ बाजरी, उसी की बजाओ हाजिरी।

आपने व्यवहार में भी देखा होगा कि अधिसंख्य बड़े व्यवसायी सत्ता के साथ रहते हैं। उन्हें इससे कोई प्रयोजन नहीं कि सत्ता किस विचारधारा की है। उन्हें तो अपने व्यवसाय को बढ़ाने से मतलब होता है। इसी कारण किसी राजनीतिक मतभेद में पड़े बिना हर सरकार के साथ खड़े हो जाते हैं।

सत्ता के साथ रहने का एक प्रसंग और ख्याल में आता है। एक दिन बादशाह अकबर और बीरबल महल के बागों में सैर कर रहे थे। वे बीरबल से बोले, देखो यह बैंगन, कितनी सुंदर लग रहे हैं। इनकी सब्जी कितनी स्वादिष्ट लगती है। बीरबल, मुझे बैंगन बहुत पसंद हैं। हां महाराज, आप सत्य कहते हैं। यह बैंगन है ही ऐसी सब्जी, जो न सिर्फ देखने में बल्कि खाने में भी इसका कोई मुकाबला नहीं है। भगवान ने भी इसीलिए इसके सिर पर ताज बनाया है। कुछ दिनों बाद अकबर और बीरबल उसी बाग में घूम रहे थे। बादशाह अकबर को कुछ याद आया और मुस्कुराते हुए बोले, बीरबल देखो यह बैंगन कितना भद्दा और बदसूरत है और यह खाने में भी बहुत बेस्वाद है। हां हुजूर, आप सही कह रहे हैं, बीरबल बोला। इसीलिए इसका नाम बे-गुण है। यह सुन कर बादशाह अकबर को गुस्सा आ गया। उन्होंने झल्लाते हुए कहा, क्या मतलब है बीरबल? मैं जो भी बात कहता हूें, तुम उसे ही ठीक बताते हो। बीरबल ने कहा, हुजूर, मैं आपका नौकर हूें, बैंगन का नहीं।

खुद्दार लोगों यह बात गले नहीं उतरेगी, मगर सच्चाई ये ही है हवा का रुख जिस ओर हो, उसी ओर चलिए, कभी तकलीफ में नहीं रहेंगे। वक्त के खिलाफ चलने वाला सदैव कष्ट ही पाता है।

हालांकि मैं स्वभावतः इस फैक्ट के विपरीत रहा हूं, सदा व्यवस्था में व्याप्त अव्यवस्था के विपरीत बोला, ऐसे में बहुत तकलीफ में रहा। इस कारण इस फैक्ट को मेरा अनुभव सिद्ध तथ्य मानिये।

https://www.youtube.com/watch?v=Q0ivJHuXZkw&t=46s


शनिवार, जनवरी 11, 2025

कुत्ते की पूंछ सा है आदमी?

धरती पर अब तक न जाने कितने भगवान, ऋषि-मुनि, महापुरुष, युग पुरुष, चिंतक, दार्शनिक, ज्ञानी, संत-महात्मा आदि अवतरित हुए हैं। हम उत्तरोत्तर बुद्धिमान व सभ्य भी होते जा रहे हैं, मगर आदमी दिन ब दिन और बदमाश, कुटिल व स्वार्थी होता जा रहा है। तो सवाल ये उठता है कि उनके अवतरण का आखिर लाभ क्या हुआ? किताबें आदर्श, मर्यादा, सदाचार, प्रेम आदि से भरी पड़ी हैं, मगर दुनिया में आदर्शहीनता, अमर्यादित व्यवहार,  दुराचार व दुश्मनी का ही बोलाबाला है। तो क्या वे किताबें बेमानी हैं? इस किस्म के सवाल मुझे किशोरावस्था से कचोटता रहे हैं। इस बारे में मैंने अपने अंग्रेजी के शिक्षक, जो कि दार्शनिक सा जीवन जीते थे, सवाल किया। उन्होंने कहा कि क्यों फालतू के सवालों में अपना समय गंवाते हो। दुनिया जाए भाड़ में। भगवान ने आपको दुनिया को सुधारने का ठेका दे कर पैदा नहीं किया है। अपने काम से काम रखो। जीवन बहुत छोटा है, आत्म कल्याण के लिहाज से। सारा ध्यान इस पर लगाओ कि आप स्वयं कैसे बेहतर से बेहतर जीवन जीते हैं। यह दुनिया सदैव से ऐसी ही रही है। इसको सुधारने की चिंता छोड़ो। सुधार पाओगे भी नहीं। मशक्कत व्यर्थ जाएगी। 

उन्होंने गीता में उल्लिखित भगवान श्रीकृष्ण के संदेश, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतरू, अभ्युत्थानमधर्मस्य तत्दात्मानम सृजाम्यहम का जिक्र करते हुए बताया कि इस संदेश में ही यह अंतनिर्हित है कि धर्म की हानि तो होती रहेगी और अधर्म को मिटाने के लिए भगवान भी बार-बार अवतरित होते रहेंगे। सिलसिला कहीं थमने वाला नहीं है। महापुरुष जन्म लेंगे। बेशक अपने-अपने काल खंड को प्रभावित करेंगे, मगर किसी का प्रभाव शाश्वत नहीं रहेगा। कुत्ते की पूंछ सा है आदमी। तो तुम दुनिया को सुधारने का जिम्मा मत लो, वह भगवान पर ही छोड़ दो। जरा सोचो कि खुद भगवान को ही बार-बार अवतार लेना पड़ता है, एक बार के अवतार से वे दुनिया को पूरा सुधार नहीं पाते। दुनिया में फिर से अधर्म का बोलबाला हो जाता है। ऐसे में तुम्हारी बिसात ही क्या है? 

और खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि समय का एक प्रवाह है। एक धारा है। जैसे एक नदी के प्रवाह को हम रोक नहीं पाते, वैसे ही वक्त के खिलाफ चलने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यदि हम नदी की धारा को रोकने की कोशिश करेंगे तो मात्र अपने शरीर मात्र की सीमा तक सफल हो पाएंगे। और वह भी कब तक? हद से हद साठ-सत्तर साल तक। जैसे ही तुम समाप्त हो जाओगे, वह फिर से अपनी दिशा में बहती रहेगी। ये दुनिया ऐसी ही रहेगी। तो क्यों फालतू में अपना टाइम बर्बाद करते हो। काहे फिक्र करो दुनिया की? उचित ये है कि सारा ध्यान अपने पर केन्द्रित कर लो। दुनिया के कल्याण का ख्याल छोड़ो, वह तुमसे होना भी नहीं है, ज्यादा अच्छा है कि आत्म कल्याण की दिशा में बढ़ जाओ। यह सीख मेरे जेहन में गहरे पैठी हुई है, हालांकि इस पर सीमित ही अमल कर पाया हूं।

https://www.youtube.com/watch?v=EF7unQSxl5w


शुक्रवार, जनवरी 10, 2025

पत्नी को पति का नाम लेने से क्यों रोका गया?

हम देखते हैं कि आजकल नव दंपत्ति बेहिचक एक-दूसरे को उनके नाम से पुकारते हैं। न तो इसमें उन्हें तनिक शर्म महसूस होती है और न ही ऐसा करने में उनको कुछ आपत्तिजनक लगता है। यहां तक कि अब तो प्यार से रखे गए शार्ट नेम का भी उपयोग करने लगे हैं। इसे एक दूसरे के प्रति प्रेम का द्योतक माना जाने लगा है। इसके विपरीत परंपरा ये रही है कि पत्नी पति को न तो नाम से बुलाती है और न ही किसी के सामने पति का जिक्र उसका नाम ले कर करती है। पति ही नहीं, पति के बड़े भाई अर्थात जेठ का नाम लेने से भी परहेज करती हैं। आज भी ऐसी पीढ़ी मौजूद है, जिसमें इस परंपरा का निर्वाह किया जा रहा है। वैसे, कई ऐसे पुरुष भी हैं जो पत्नी को नाम से नहीं पुकारते। वे सुनती हो, ऐसा कह कर बुलाते हैं। इसी प्रकार पत्नी नाम से पुकारने की बजाय अजी सुनते हो, कह कर संबोधित करती हैं।

मैंने ऐसे अनेक प्रसंग देखे हैं, जिनमें किसी सरकारी काम के दौरान महिला से पति का नाम पूछा गया तो उसे नाम लेने में बहुत हिचक हुई और साथ में खड़े अन्य व्यक्ति से कहा कि आप मेरे पति का नाम बता दीजिए। अनपढ़ या कम पढ़ी लिखी महिला की छोडिय़े, पढ़ी लिखी महिलाएं भी कभी अपने पति का जिक्र करती हैं तो मेरे पति या उसके नाम का संबोधन करने से बचती हैं और हमारे ये या हमारे साहब कह कर इंगित करती हैं। 

सवाल ये उठता है कि आखिर किस वजह से पत्नी को पति का नाम न लेने की सीख दी गई। इस बारे में बहुत खोज करने पर यह जानकारी हासिल हुई कि स्कंध पुराण में कहा गया है कि पति का नाम लेने से उनकी उम्र कम होने लगती है। ऐसा करने पर उम्र कम क्यों होती है, इस बारे में कोई जानकारी नहीं मिली। भला नाम लेने या न लेने का उम्र से क्या ताल्लुक? ज्ञातव्य है कि शास्त्रज्ञों के अनुसार श्रीगणेश ने भगवान वेद व्यास के मुख निकली वाणी को स्कंध पुराण में लिखा है। उसी में पतिव्रता स्त्रियों की मर्यादाओं का भी उल्लेख है। इन मर्यादाओं में पति के सोने के बाद सोना, सुबह पति से पहले उठना, पति के भोजन करने के बाद भोजन करना शामिल है। यहां तक कि पति के परदेश जाने पर शृंगार न करने तक की हिदायत दी गई है। जिन भी ऋषि-मुनियों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया, उसके पीछे उनका क्या प्रयोजन था, ये तो पता नहीं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि यह सब पुरुष प्रधान समाज की देन है। उसी पुरुष प्रधान व्यवस्था ने पति को परमेश्वर की संज्ञा दी है। एक तरफ यह कह कर महिला को महत्ता दी गई कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, तत्र रंमते देवता, वहीं दूसरी ओर मर्यादा के नाम पर महिलाओं पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाए गए। सर्वविदित है कि महिलाएं पति की उम्र लंबी होने की कामना के साथ करवा चौथ का व्रत रखती हैं। मैंने कई प्रगतिशील महिलाओं तक को करवा चौथ का व्रत करते देखा है। कैसी अजीब बात है कि पत्नी की उम्र बढ़ाने के उद्देश्य से पति के लिए किसी व्रत अथवा आयोजन का प्रावधान नहीं किया गया।

धरातल की सच्चाई है कि आज भी वह पीढ़ी मौजूद है, जो पतिव्रता स्त्रियों के लिए बनाई गई मर्यादाओं का पूरी श्रद्धा से पालन करती है। कई महिलाएं पति के भोजन करने के बाद उसकी जूठी थाली में ही भोजन करती हैं। आज भी कई ऐसे परिवार हैं, जिनमें पहले पुरुषों को भोजन करवाने की व्यवस्था है, महिलाएं बाद में भोजन करती हैं। नॉन वेज खाने वाले परिवारों में पुरुषों को अच्छी बोटियां परोसी जाती है और महिलाएं जो कुछ बच जाता है, उसी को खा कर संतुष्ट रहती हैं।

हालांकि समय के साथ मर्यादाएं क्षीण हो रही हैं। महिलाएं पुरुषों के बराबर में आ कर खड़ी होने लगी हैं। विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने पुरुषों से बेहतर परिणाम दिए हैं। महिलाओं के कामकाजी होने के कारण परिवारों में उनकी अहमियत बढ़ रही हैं। लेकिन साथ उसके दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। इस बारे में किसी लेखक ने कहा है कि दुनिया में भी भले ही लोकतंत्र की बड़ी महत्ता हो, मगर परिवार में राजशाही ही पनपती है। अगर घर की बहू को भी समान अधिकार दे दिए जाते हैं तो वह पति व ससुर की बराबरी करने लगेगी, नतीजतन टकराव होगा और सामान्य शिष्टाचार शिथिल हो जाएगा। उनकी बात में दम है। किसी भी इकाई, परिवार हो या दफ्तर, उसमें किसी एक का प्रधान होना जरूरी है, अन्यथा अराजकता फैल जाएगी। 

https://www.youtube.com/watch?v=iD4Zl9l0Y2k


गुरुवार, जनवरी 09, 2025

क्यों जरूरी है इष्ट देवता?

यह सर्वविदित है कि इस्लाम एकेश्वरवाद के तहत केवल खुदा में ही यकीन रखता है। हिंदू दर्शन में भी एके साधे, सब सधे की मान्यता है, मगर बहुदेववाद चलन में है। हिंदू मान्यता के अनुसार देवी-देवता तैंतीस करोड़ हैं। कुछ मानते हैं कि देवी-देवता तैंतीस करोड नहीं बल्कि तैंतीस कोटि अर्थात प्रकार के हैं। उनमें वे प्रचलित देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना किया करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण, भगवान राम, विष्णु, ब्रह्मा, महेश के अतिरिक्त दुर्गा, सरस्वती, हनुमान, गणेश सहित अनेक देवी-देवताओं के साथ लोक देवता यथा बाबा रामदेव, तेजाजी महाराज, भैरों जी महाराज आदि की आराधना की जाती है। इसी प्रकार ग्राम देवता, कुल देवता भी होते हैं। जिस देवी-देवता के प्रति निजी आस्था होती है, उसे इष्ट देवता कहते हैं।

इष्ट देवता क्या है, हमारा इष्ट देवता कौन होना चाहिए, इस विषय पर चर्चा से पहले एक प्रचलित कहानी की बात करते हैं। कहते हैं कि एक बार एक नाव में एक हिंदू व एक मुसलमान सवार थे। अचानक तूफान आया। दोनों अपने-अपने भगवान को याद करने लगे। मुसलमान ने केवल खुदा को ही याद किया, तो वह बच गया। हिंदू ने कभी हनुमान जी को याद किया तो कभी दुर्गा मां को पुकारा, कभी गणेश जी का स्मरण किया तो कभी श्रीकृष्ण को और वह डूब गया। यह कहानी मूलतः हिंदू धर्म पर नहीं, बल्कि बहुदेववाद पर तंज कसती है। कहानी का प्रयोजन ये है कि सफलता के लिए एकनिष्ट होना चाहिए। एकनिष्ट होने से एकाग्रता बढ़ती है, जबकि भिन्न देवी-देवताओं को एक साथ इष्टदेव मान लेने से एकाग्रता भंग होती है। भले ही कोई देवी या देवता सर्वशक्तिमान भगवान या ईश्वर नहीं हैं, मगर वे भगवान की ही शक्ति से संचालित हैं। देवता भिन्न-भिन्न हैं और उनकी प्रकृति भी अलग-अलग है, मगर उनमें मौजूद शक्ति एक ही है। जैसे दीपक, मोमबत्ती, चूल्हा, यज्ञ आदि में स्थित अग्रि एक ही है। भिन्न-भिन्न देवी-देवता की आराधना का अलग-अलग फल है, मगर मनुष्य को इष्ट देव का सर्व प्रथम व सर्वाधिक ध्यान करना चाहिए। जब भी विपत्ति आए तो केवल इष्ट देव का ही ध्यान करना चाहिए। जैसे कहते हैं न कि जीवन में गुरु होना जरूरी है, वैसे ही इष्ट भी उतना ही जरूरी है।

वस्तुतः हर इंसान किसी एक देवी या देवता की ओर सबसे ज्यादा आकर्षित होता है और वही देवी या देवता उसका इष्ट देव होता है। कुछ लोग इष्ट देव या देवी का निर्धारण कुंडली में अंकित जन्म नक्षत्र के आधार पर करते हैं, जबकि कुछ की मान्यता ये है कि इष्ट देव का संबंध ग्रह-नक्षत्रों से नहीं होता। वे मानते हैं कि इष्ट देव पिछले जन्मों के संस्कारों से तय होता है। वस्तुत जो देव स्वतः पसंद हो, वही इष्ट देव होता है। इस बारे में ज्योतिष कहता है कि आपका जन्म जिस नक्षत्र में होता है, उसी के देवता आपको आकर्षित करते हैं।

जो लोग मानते हैं कि ज्योतिष हमारे इष्ट देव का निर्धारण करता है, उनके अनुसार आप अपनी जन्म तारीख, जन्म दिन, बोलते नाम की राशि या अपनी जन्म कुंडली की लग्न राशि के अनुसार जान सकते हैं। जिनका जन्म जनवरी या नवंबर माह में हुआ हो वे शिव या गणेश की पूजा करें। फरवरी में जन्मे शिव की उपासना करें। मार्च व दिसंबर में जन्मे व्यक्ति विष्णु की साधना करें। अप्रेल, सितंबर, अक्टूबर में जन्मे व्यक्ति गणेशजी की पूजा करें। मई व जून माह में जन्मे व्यक्ति मां भगवती की पूजा करें। जुलाई माह में जन्मे व्यक्ति विष्णु व गणेश का घ्यान करें।

जिनको वार का पता हो, परंतु समय का पता न हो, तो वार के अनुसार इष्ट देव इस प्रकार होंगे- रविवार- विष्णु, सोमवार- शिवजी, मंगलवार- हनुमान जी, बुधवार- गणेश जी, गुरुवार- शिव जी, शुक्रवार- देवी, शनिवार- भैरव जी।

जिनको जन्म समय ज्ञात हो, उनके लिए जन्म कुंडली के पंचम स्थान से पूर्व जन्म के संचित कर्म, ज्ञान, बुद्धि, शिक्षा, धर्म व इष्ट का बोध होता है। अरुण संहिता के अनुसार व्यक्ति के पूर्व जन्म में किए गए कर्म के आधार पर ग्रह या देवता भाव विशेष में स्थित होकर अपना शुभाशुभ फल देते हैं। पंचम स्थान में स्थित ग्रहों या ग्रह की दृष्टि के आधार पर आपके इष्ट देव तय होते हैं। सूर्य- विष्णु, चंद्रमा- राधा, पार्वती, शिव, दुर्गा, मंगल- हनुमानजी, कार्तिकेय, बुध- गणेश, विष्णु, गुरू- शिव, शुक्र- लक्ष्मी, तारा, सरस्वती। शनि- भैरव, काली।

जन्मकुंडली के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के इष्ट देवी या देवता निश्चित होते हैं। यदि उन्हें जान लिया जाए तो कितने भी प्रतिकूल ग्रह हो, आसानी से उनके दुष्प्रभावों से रक्षा की जा सकती है। 

लग्न के अतिरिक्त पंचम व नवम भाव के स्वामी ग्रहों के अनुसार देवी-देवताओं का ध्यान पूजन भी सुख-सौहार्द्र बढ़ाने वाला होता है। इष्ट देव की पूजा करने के साथ रोज एक या दो माला मंत्र जाप करना चमत्कारिक फल दे सकता है और आपकी संकटों से रक्षा कर सकता है।

https://www.youtube.com/watch?v=giIW26A2cA4&t=29s 

बुधवार, जनवरी 08, 2025

एक ही बार राम का नाम लिया और मर गया

एकाग्रता का बड़ा महत्व है। चाहे ध्यान या समाधि में, चाहे संसार के दैनंदिन कार्यों में। जो भी काम हम एकाग्रता से करते हैं, उसके पूरे होने की संभावना बढ़ जाती है। एकाग्रता के अनेक उदाहरण भी हमारी जानकारी में हैं। सर्वाधिक चर्चित है अर्जुन और चिडिय़ा की आंख वाला प्रसंग। अर्जुन जब चिडिय़ा की आंख को भेदने की कोशिश करते हैं तो उन्हें सिर्फ आंख ही दिखाई देती है, आसपास का कुछ भी नजर नहीं आता, तभी तीर सीधा आंख के बीचोंबीच जा कर लगता है।

एकाग्रता के मायने भी हम जानते हैं। मन की सारी शक्ति लगाते हुए विचारों को एक ही जगह केन्द्रित करने को हम एकाग्रता कहते हैं। एकाग्रता से हमारी बिखरी हुई सारी शक्ति संगठित हो जाती है। जैसे एक उत्तल लैंस को सूर्य के सामने रखते हैं तो दूसरी ओर सूर्य की सारी किरणें एक ही दिशा में बढ़ते हुए एक बिंदू पर आ कर फोकस हो जाती है, और वहां रखा कागज या कपास जलने लगता है। वस्तुतर: सूर्य की हर किरण में तपिश होती है और जैसे ही बहुत सारी किरणें आगे बढ़ते हुए एक जगह केन्द्रित होती है तो तापमान इतना बढ़ जाता है कि वस्तु जलने लगती है।  

विद्यार्थियों को एकाग्रचित्त हो कर पढ़ाई करने को इसलिए कहा जाता है, ताकि वे जो कुछ पढ़ रहे हैं, वह स्मृति में ठीक से संग्रहित हो जाए। यदि नजरें तो किताब में लिखी पंक्तियों पर है, मगर चित्त इधर-उधर भटक रहा है तो वह सारा पढ़ा हुआ बेकार चला जाता है, अर्थात स्मृति पटल पर अंकित होने से रह जाता है।

इसी प्रकार जब हम किसी मंदिर में मूर्ति के सामने खड़े हो कुछ अरदास कर रहे होते हैं और हमारा ध्यान बाहर रखी चप्पल पर रहता है कि कोई उठा कर न ले जाए तो अरदास फलित नहीं हो पाती। अर्थात चित्त एकाग्र नहीं है। आंखें मूर्ति को देख रही है, जुबान से अरदास के शब्द भी निकल रहे हैं और मन कहीं और है, दुकान पर है, दफ्तर पर है, घर पर है, तो अरदास ईष्ट तक नहीं पहुंचती।

एकाग्रता का एक सटीक उदाहरण मैंने ओशो के प्रवचन में सुना। उसे एकाग्रता की पराकाष्ठा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। हालांकि वह हूबहू तो याद नहीं, मगर उसका सार ठीक से ख्याल में है। आप भी जानिये। एक थे भट्टोजी दीक्षित। उम्र तकरीबन 85 साल। घोर धार्मिक। प्रतिदिन सुबह-शाम मंदिर जाते। घंटा बजाते, दीया जलाते, आराधना करते, दिनभर माला फेरते। हर वक्त राम का नाम ही बुदबुदाते। उनका एक पुत्र था। उम्र तकरीबन 60 साल। घोर नास्तिक। ईश्वर में कोई आस्था नहीं। न कभी मंदिर जाता, न ही राम का नाम लेता। बाप ताजिंदगी बेटे को समझाते-समझाते थक गया कि कि बेटा मंदिर जाया कर, राम का नाम लिया कर, मगर बेटा इस कान से सुनता, दूसरे कान से निकाल देता। बाप रोजाना टोकता, मगर बेटे के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। एक दिन बाप ने बहुत जोर देकर कहा, बेटा अब तो तू भी बूढ़ा होने को है। पूरी जिंदगी यूं ही गुजार दी। कभी तो राम का नाम ले। बेटा बाप की नसीहत सुनते-सुनते तंग आ गया था। उसने कहा, ठीक है आज मंदिर जाता हूं, राम का नाम लूंगा, मगर आप बैठे मेरे लौटने की प्रतिक्षा मत करना। बाप समझा नहीं। उसने सोचा, चलो बेटा आज तैयार तो हुआ। खैर, बेटा मंदिर गया। घंटा बजाया। मूर्ति के सामने खड़ा हुआ। उसने राम का नाम लिया। एक ही बार। पूरे मन से, पूरी बुद्धि से, पूरी शिद्दत से, रोयें-रोयें से, अपनी समग्र ताकत से, राम का नाम लिया एक बार और प्राण त्याग दिए। 

यह प्रसंग कितना सही है, मुझे नहीं पता, मगर एकाग्रता का इससे सटीक वाकया मैने नहीं सुना। देखिए, बाप ने पूरी जिंदगी राम का नाम लेने में गुजार दी, मगर ऊपरी मन से, औपचारिकता से। चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहीं नहीं। दूसरी ओर बेटे ने एक ही बार राम का नाम लिया, मगर मन की समग्र शक्ति से। और वह राम को उपलब्ध हो गया।

https://www.youtube.com/watch?v=MPqJU7OH-zw

मंगलवार, जनवरी 07, 2025

उपांशु जप बहुत प्रभावकारी है

शास्त्रों में जप तीन प्रकार का माना गया है-मानस, उपांशु और वाचिक। वाचिक सरल, उपांशु कुछ कठिन और मानस कड़ी साधना के बाद संभव हो पाता है। मन ही मन मंत्र का अर्थ मनन करके उसे धीरे-धीरे इस प्रकार उच्चारण करना कि जिह्वा और ओंठ में गति न ही, मानस जप कहलाता है। जिह्वा और ओठ को हिला कर मंत्रों के अर्थ का विचार करते हुए इस प्रकार उच्चारण करना कि कुछ न सुनाई पड़े, उपांशु जप कहलाता है। विद्वान उपांशु व मानस जप के मध्य जिह्वा जप नाम का एक चौथा जप भी मानते हैं। यूं तो जिह्वा जप भी उपांशु के ही अंतर्गत है, अंतर केवल इतना ही है कि जिह्वा जप में जिह्वा हिलती है, पर ओठ में गति नहीं होती और न उच्चारण ही सुनाई पड़ता है। वर्णों का स्पष्ट उच्चारण करना वाचिक जप कहलाता है। कहा जाता है कि वाचिक जप से दस गुना फल उपांशु में, शत गुना फल जिह्वा जप में और सहस्त्र गुना फल मानस जप में होता है। 

मनु महाराज कहते हैं कि उपांशु जप से मन मूर्छित होने लगता है। एकाग्रता आरंभ होती है। वृत्तियां अंतर्मुखी होने लगती हैं। इसके द्वारा साधक स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चारण मस्तक पर कुछ असर करता सा मालूम होता है।

उपांशु जप के बारे में मेरा जो अनुभव है, वह मुझे एक आलेख में झलकता है। उसमें लिखा था कि जब भी हमें हिचकी आती है तो हम स्वयं व पास बैठा व्यक्ति यही कहता है कि जरूर कोई याद कर रहा है। दिलचस्प बात ये है कि जब हम विचार करते हैं कि कौन याद कर रहा होगा और उनके नामों का जिक्र करते हैं तो जिसका नाम लेने पर हिचकी बंद होती है तो यही सोचते हैं कि उसी ने याद किया था। सवाल ये है कि यदि कोई हमें शिद्दत से याद करता है तो हिचकी आती है? मेरा ऐसा ख्याल है कि शारीरिक क्रिया तो अपनी जगह है ही, मगर इससे भी इतर कुछ तो है। मेरा विचार है कि हमारा मस्तिष्क तो सुपर कंप्यूटर है ही, जो कि पूरे शरीर को संचालित करता है, वहीं पर विचार चलते रहते हैं, मगर अमूमन विचार करने की ऊर्जा कंठ पर केन्द्रित रहती है। जरा महसूस करके देखिए। विज्ञान कहता है कि विचार की कोई भाषा नहीं होती। सही भी है। यह एक मौलिक तथ्य है। इसलिए कि जहां विचार हो रहा है, वहां केवल भाषायी वाक्य ही विचरण नहीं करते, ध्वनि, स्वाद, गंध, दृश्य आदि की अनुभूतियां भी मौजूद रहती हैं। हां, भाषायी वाक्य जरूर उस भाषा में होते हैं, जो कि आमतौर पर हम उपयोग में लेते हैं। आपने अनुभव किया होगा कि कई बार कोई बात कहने से पहले मन ही मन जब रिहर्सल होती है तो उसकी हलचल कंठ पर ही होती है। मैने ऐसे उदाहरण भी देखे हैं कि कोई व्यक्ति जो वाक्य बोलता है तो ठीक तुरंत बाद कंठ पर हुई हलचल बुदबुदाने के रूप में सामने आती है। चूंकि शब्दों का संबंध सीधे कंठ से है, इस कारण भाषा विशेष में विचार करते समय कंठ पर ऊर्जा केन्द्रित होती है। जरा गहरे में जा कर देखिए, सोचते समय भले ही वाणी मौन होती है, मगर कंठ व जीभ पर वाक्य हलचल कर रहे होते हैं। इस यूं समझिये। जैसे हम मन ही मन राम नाम का उच्चारण करते हैं तो बाकायदा जीभ पर वैसी ही क्रिया होती रहती है, जैसी राम नाम का उच्चारण करते वक्त होती है। अर्थात विचार करने के दौरान मस्तिष्क तो आवश्यक रूप से काम कर ही रहा होता है, मगर हमारी ऊर्जा, जिसे प्राण भी कह सकते हैं, कंठ पर भी सक्रिय होती है। इस ऊर्जा के कारण मस्तिष्क की तरह कंठ भी ट्रांसमीटर की तरह काम करता है। वह भी बाह्य जगत की तरंगों को ग्रहण करता है। संप्रेषण भी कर सकता है। जैसे ही हमें कोई याद करता है तो उसकी तरंगों का हमारे कंठ पर असर पड़ता है, वहां खिंचाव होता है और हिचकी आने लगती है। जैसे ही हम याद करने वाले का नाम लेते हैं तो वर्तुल पूरा हो जाता है और हिचकी आना बंद हो जाती है। ऐसा मेरा नजरिया है। हालांकि मुझे इस बात का अहसास है कि मेरी जो भी अनुभूति है, उसे ठीक से शब्दों में अभिव्यक्त नहीं पाया हूं, मगर मेरी अभिव्यक्ति उसके इर्द-गिर्द जरूर है।

उपांशु जप भी मूलतः कंठ पर स्थित होता है। चूंकि कंठ ऊर्जा का केन्द्र है, इस कारण इस जप के परिणाम बड़े प्रभावकारी होते हैं। मैने स्वयं उसका अनुभव किया है। वह परिणाम मूलक भी होता है। जिस भी देवी-देवता अथवा इष्ट देवता के नाम पर यह किया जाता है, वहां से प्रतिक्रिया के रूप में ऊर्जा का संचार हमारी ओर होता है। आप भी इसका अनुभव कर सकते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=T67EHkbgimA&t=22s

सोमवार, जनवरी 06, 2025

क्या भगवान प्रसाद ग्रहण करते हैं?

स्थूल व तार्किक बुद्धि का एक सवाल है कि हम भगवान की मूर्ति के आगे जो प्रसाद चढ़ाते हैं, क्या वह उसे ग्रहण करती है? अगर ग्रहण करती है तो वह कम क्यों नहीं होता? अगर मूर्ति प्रसाद का अंश मात्र भी ग्रहण नहीं करती तो फिर प्रसाद चढ़ाने का प्रयोजन क्या है? सवाल वाजिब है।

इसी से जुड़ा सवाल है कि जब सब कुछ भगवान का ही दिया हुआ है तो वही उसे अर्पण करने का क्या मतलब है? जिसने संपूर्ण चराचर जगत  बनाया है, सारे भोज्य पदार्थ उसी की देन हैं। उसी का अंश मात्र अर्पित करने से उसे क्या फर्क पड़ता होगा?

भगवान की मूर्ति भोग ग्रहण करती है या नहीं, इस शंका का समाधान करते हुए एक प्रसंग कुछ इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

एक शिष्य ने अपने गुरू से यही प्रश्न किया। इस पर उन्होंने पुस्तक में अंकित एक श्लोक कंठस्थ करने को कहा। एक घंटे बाद गुरू ने शिष्य से पूछा कि उसे श्लोक कंठस्थ हुआ कि नहीं। इस पर शिष्य ने शुद्ध उच्चारण के साथ श्लोक सुना दिया। गुरू ने पुस्तक दिखाते हुए कहा कि श्लोक तो पुस्तक में ही है, तो वह तुम्हारी स्मृति में कैसे आ गया? स्वाभाविक रूप से शिष्य निरुत्तर हो गया। गुरू ने समझाया कि पुस्तक में जो श्लोक है, वह स्थूल रूप में है । तुमने जब श्लोक पढ़ा तो वह सूक्ष्म रूप में तुम्हारे अंदर प्रवेश कर गया, लेकिन पुस्तक में स्थूल रूप में अंकित श्लोक में कोई कमी नहीं आई। इसी प्रकार भगवान हमारे प्रसाद को सूक्ष्म रूप में ग्रहण करते हैं और इससे स्थूल रूप के प्रसाद में कोई कमी नहीं आती।

वस्तुतर: प्रसाद चढ़ाना एक भाव है, कृतज्ञता प्रकट करने का। और भाव की ही महिमा है। कहा तो यहां तक जाता है कि अगर हमारे पास पुष्प, फल, मिष्ठान्न आदि नहीं हैं तो भी अगर हम कल्पना करके सच्चे भाव से उसे अर्पित करते हैं तो वह उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भौतिक रूप से प्रसाद चढ़ाने का। अर्थात महत्व पदार्थ का नहीं, बल्कि भाव का है। उससे भी दिलचस्प बात ये है कि भगवान को चढ़ाया हुआ प्रसाद दिव्य हो जाता है। भले ही उसमें रासायनिक रूप से कोई अंतर न आता हो, तो भी उसके एक-एक कण में दिव्यता आ जाती है। यह भी एक भाव है। तभी तो कहते हैं कि प्रसाद का तो एक कण ही काफी है, जरूरी नहीं कि वह अधिक मात्रा में हो। इसके अतिरिक्त प्रयास ये भी रहता है कि वह अधिक से अधिक के मुख में जाए। यह भी एक भाव है, सबके भले का।

एक आरती में तो बाकायदा एक पंक्ति है कि तेरा तुझ को अर्पण, क्या लागे मेरा। ऐसा इसलिए कहा जाता है ताकि कृतज्ञता प्रकट करते समय यह अहम भाव न आ जाए कि मैने कुछ अर्पित किया है। एक रोचक बात देखिए। भगवान को हम हमारा ही विराट रूप मानते हैं। इसी कारण जैसे मौसम के अनुसार हमारा भोजन परिवर्तित होता है, तो प्रसाद भी हम वैसा ही चढ़ाते हैं। यहां तक कि सर्दी में भगवान की मूर्ति को गरम वस्त्र पहनाते हैं। भला मूर्ति को भी कोई ठंड लगती है? मगर ये हमारा भाव है। और कहते भी हैं कि भगवान भाव के भूखे हैं। तभी तो वे शबरी के झूठे बेर भी ग्रहण कर लेते हैं।

https://www.youtube.com/watch?v=KCUUkPl9Qr4

दीपक से दीपक क्यों नहीं जलाना चाहिए?

हमारे यहां दीप से दीप जले की बड़ी महिमा है। ज्ञान के प्रसार के लिए इस उक्ति का प्रयोग किया जाता है। व्यवहार में यह बिलकुल ठीक भी है। एक व्यक्ति से ही दूसरे में ज्ञान का प्रकाश जाता है और उससे आगे वह अन्य में। इस प्रकार यह सिलसिला चलता रहता है। मगर धर्म के जानकार कहते हैं कि एक दीपक से दूसरा दीपक नहीं जलाना चाहिए। हर दीपक को नई दियासलाई से जलाने की सलाह दी जाती है। सवाल ये उठता है कि यह मान्यता कैसे स्थापित हुई?

सामान्यतरू हमें एक दीपक से दूसरे दीपक को जलाने में कुछ भी गलत प्रतीत नहीं होता। चाहे दीपक से जलाओ या दूसरी दियासलाई से, क्या फर्क पड़ता है? अगर हमें अधिक दीपक जलाने हैं तो यह निरी मूर्खता ही होगी कि हर दीपक को जलाने के लिए नई दियासलाई काम में लें। तो फिर धर्म के जानकार अलग-अलग दीपक को अलग-अलग जलाने की सलाह क्यों देते हैं?

बताया जाता है कि जब हम किसी दीपक को जलाते हैं तो वह अग्नि की एक इकाई होती है। जिस भी देवी-देवता के नाम दीपक जलाया गया है, वह उसी के नाम होता है। उसको शेयर नहीं किया जा सकता। यदि हम उसी दीपक से दूसरा दीपक जलाते हैं तो वह जूठन के समान हो जाता है। जब हम किसी का जूठा नहीं खाते तो एक देवता की जूठी अग्नि दूसरे को कैसे अर्पित कर सकते हैं। मान्यता है कि ऐसी जूठी अग्नि दूसरे दीपक के देवता को स्वीकार्य भी नहीं होती।

कुछ जानकार कहते हैं कि दीपक से दीपक जलाने से ऋण का भार बढ़ता है। इसके पीछे क्या तर्क है, क्या विज्ञान है, पता नहीं। हो सकता है ऐसा इसलिए माना जाता हो एक दीपक की ज्योति दूसरे दीपक के लिए उधार लेने की घटना हमारे जीवन में ऋण लेने के रूप में घटित होती हो।

प्रसंगवश इस जानकारी पर भी चर्चा कर लेते हैं। एक दियासलाई से सिर्फ एक ही सिगरेट जलाने का भी चलन है। हद से हद दो सिगरेटें जलाई जाती हैं। तीसरी सिगरेट तक के लिए दियासलाई बच जाने पर भी उसे बुझा कर नई दियासलाई जलाई जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह चलन तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा की मान्यता के कारण है। कुछ लोग बताते हैं कि इसका चलन सेना से आया। सैनिकों की मान्यता है कि लगातार एक के बाद एक सिगरेट एक ही दियासलाई से जलाने पर एक रेखा निर्मित होती है। दुश्मन को पता चल जाता है कि वहां सैनिक पंक्तिबद्ध खड़े हैं और वह आक्रमण कर सकता है।

https://www.youtube.com/watch?v=LPy_U0Wrf2s&t=91s

शनिवार, जनवरी 04, 2025

क्या मोर के आंसू से मोरनी गर्भवति होती है?

बचपन में मैने एक प्रसंग सुना था। वो ये कि मोर मोरनी को रिझाते  वक्त अपने खूबसूरत पंखों को देख कर इठलाता है, लेकिन जैसे ही अपने बदसूरत पैर देखता है तो दुखी हो जाता है। उसकी आंखों से आंसू बहने लगते है। मोरनी तुरंत उसके आंसू पी लेती है और उसी से उसके भीतर प्रजनन की प्रक्रिया होती है।

असल में यह एक अवधारणा है। अनेक कथावाचकों को यह प्रसंग सुनाते हुए मैने देखा है। यह अवधारणा कहां से आई, पता नहीं, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान श्रीकृष्ण के सिर पर बंधे मोर पंख की गरिमा को और महिमामंडित करने के प्रयास में ऐसी सोच निर्मित हुई होगी। सोच यह भी रही कि चूंकि मोर अन्य प्राणियों की तरह मादा से संसर्ग नहीं करता, इस कारण वह ब्रह्मचारी है। उसकी इसी विशेषता के कारण उसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया गया।

कुछ अरसा पहले राजस्थान हाईकोर्ट के जज श्री महेश शर्मा ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिन एक अहम फैसले के दौरान इसी अवधारणा का हवाला दिया तो पूरे देश में खूब हो-हल्ला हुआ। उनकी खिल्ली भी उड़ाई गई कि इतना विद्वान व्यक्ति बिना पुख्ता जानकारी के कैसे ऐसी मिथ्या बात कर सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके दिमाग में प्रचलित अवधारणा ही थी। गलती सिर्फ ये हुई कि उन्होंने इसका वैज्ञानिक पहलु जानने की कोशिश नहीं की। 

बहरहाल, उनके वक्तव्य पर बहस शुरू हो गई और लोग ये सवाल करने लगे कि क्या ये मुमकिन है कि आंसू पीकर मोरनी गर्भवती हो जाए? इस पर पक्षी वैज्ञानिक अपना पक्ष लेकर सामने आए। उनका कहना था कि मोर और मोरनी भी वैसे ही बच्चे पैदा करते हैं, जैसे बाकी पशु-पक्षी। दरअसल वे अपने सुंदर पंख फैला कर मोरनी को मोहित करते हैं। मोरनी जब संसर्ग की सहमति दे देती है तो वे बाकायदा वैसे ही काम क्रीड़ा करते हैं, जैसे अन्य पक्षी। और इस तरह से वह गर्भवति होती है। 

विज्ञान के अनुसार प्रजनन के लिए नर-मादा का मिलाप जरूरी है। जिस समय इनका मिलाप होता है, नर मादा की पीठ पर सवार होता है। दोनों मल विसर्जन करने वाले अंग, जिसे कि क्लोका कहा जाता है, उसे खोलते हैं और इस प्रकार नर पक्षी अपना वीर्य मादा के शरीर में प्रविष्ठ करवाता है।

गूगल सर्च करने पर जानकारी मिली कि प्रोफेसर डॉ. संदीप नानावटी के अनुसार मोर शर्मिला पक्षी है, इसलिए वह एकांत मिलने पर ही सहवास करता है। कदाचित इसी वजह से लोगों में भ्रांति है कि मोर के आंसू पी कर मोरनी गर्भवती होती है। पक्षी विज्ञानी विक्रम ग्रेवाल का भी मानना है कि अन्य पक्षियों की तरह मोरनी से सहवास कर प्रजनन करता है। 

जहां तक मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित करने का सवाल है तो जानकारी ये है कि मोर पहले भारत में ही पाया जाता था। राष्ट्रीय पक्षी के चुनाव की लिस्ट में मोर के साथ सारस व हंस के नाम थे। 1960 में राष्ट्रीय पक्षी चुनने पर विचार हुआ। उनमें यह एक राय बनी कि उसी पक्षी को राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया जाए जो देश के हर हिस्से में पाया जाता हो, उसे हर आम-ओ-खास जानता हो और वह भारतीय संस्कृति का हिस्सा हो। इन शर्तों पर मोर ही खरा उतरा। और इस प्रकार 26 जनवरी 1963 को मोर को राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया गया।

आंसू के जरिए प्रजनन होने के इस प्रसंग के साथ ही इस प्रकार एक प्रसंग और ख्याल में आता है। आपने रामायण सुनी-पढ़ी होगी। उसमें जिक्र आता है कि पवन पुत्र हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी थे। अपनी पूंछ से लंका दहन के कारण उनको तीव्र पीड़ा हो रही थी। पूंछ की अग्नि को शांत करने के लिए समुद्र के निकट गए। इस दौरान उनको पसीना आया। उस पसीने की एक बूंद को एक मछली ने पी लिया था। उसी पसीने की बूंद से वह मछली गर्भवती हो गई। बाद में एक दिन पाताल के असुरराज अहिरावण के सेवकों ने उस मछली को पकड़ लिया। जब वे उसका पेट चीर रहे थे, तो उसमें से वानर की आकृति का एक मनुष्य निकला। वे उसे अहिरावण के पास ले गए। अहिरावण ने उसे पाताल पुरी का रक्षक नियुक्त कर दिया। यही वानर हनुमान पुत्र मकरध्वज के नाम से जाना गया। मकरध्वज ने अपने पैदा होने का वृतांत हनुमान जी को सुनाया। हनुमानजी ने अहिरावण का वध कर श्रीराम व लक्ष्मण को मुक्त कराया और उसे पाताल लोक का राजा नियुक्त कर दिया।

यह प्रसंग मोर-मोरनी के प्रसंग से मिलता जुलता है। तर्क ये दिया जा सकता है कि जब पसीने की बूंद से प्रजनन हो सकता है तो आंसू से क्यों नहीं हो सकता? सच्चाई क्या है, कुछ पता नहीं। शास्त्रों में बिना संसर्ग के अन्य तरीकों से प्रजनन के अनेक उदाहरण मौजूद हैं। उन पर विज्ञान ने अब तक कोई काम नहीं किया है।

https://www.youtube.com/watch?v=2i90D1hDqJo