पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी भारत की यात्रा पर हैं। उनकी यह यात्रा पूरी तरह से निजी है और उनका असल मकसद महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में हाजिरी देना है। जाहिर सी बात है कि वे फिर कोई उम्मीद ले कर आ रहे हैं। बेहद परेशानी में हैं। उन पर लगे भ्रष्टाचार के मामलों को दोबारा खोलने के लिए पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट प्रधानमंत्री गिलानी पर दबाव बना रहा है। जरूर उससे राहत पाने की दुआ करने को वे ख्वाजा साहब के दर पर आ रहे हैं। इससे पहले भी उनकी उम्मीद पूरी हो चुकी है। जेल से रिहाई होने पर वे अपनी बेगम पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती बेनजीर भुट्टो के साथ मन्नत का धागा खोलने और शुक्राना अदा करने आ चुके हैं। जैसा कि सब जानते हैं कि ख्वाजा सबकी झोली भरते हैं, सो उम्मीद है कि इस बार भी वे जो उम्मीद ले कर आ रहे हैं, वह पूरी होगी, मगर उनसे भारत को उम्मीद करना बेमानी है।
हालांकि इस निजी यात्रा के दौरान वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिल रहे हैं, मगर वह औपचारिक ही है। बातचीत का कोई एजेंडा नहीं है। ज्ञातव्य है कि इन दिनों आतंकवादी हाफिज सईद के सिर पर इनाम रखा हुआ है, इस कारण वह मुद्दा बेहद गर्माया हुआ है, मगर इस मुलाकात में इस पर कोई चर्चा होने की कोई उम्मीद नहीं है। उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। खुद जरदारी ने भी लाहौर में रवाना होने से पहले उम्मीद जता दी है कि मनमोहन इस मुद्दे को नहीं उठाएंगे। उनके पास कुछ जवाब देने को है ही नहीं।
असल में जरदारी का भारत आना तय होते ही पाकिस्तान में रोना-धोना शुरू हो गया था। कई विरोधी दल और कट्टरपंथी संगठन छाती पीट रहे हैं कि एक ओर आतंकवादी हाफिज सईद के सिर पर इनाम रखा जा रहा है और दूसरी ओर हमारे राष्ट्रपति दुश्मन देश की यात्रा कर रहे हैं। वस्तुत: जरदारी पाकिस्तान के बेहद कमजोर राष्ट्रपति हैं, जो अपनी पत्नी बेनजीर भुट्टो की शहादत की वजह से इस कुर्सी तक पहुंच तो गए, लेकिन ख़ुद पाकिस्तान में कोई उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं देता। हालत तो ये है कि वहां तख्ता पलट तक की चर्चा होती रहती हैं। हकीकत ये है कि पाकिस्तान में सरकार जरदारी या गिलानी नहीं, बल्कि सेना, आईएसआई और आतंकवादी चलाते हैं। जाहिर सी बात है कि जिस मुल्क में अवाम ने भी आतंकवादियों को ही अपना रहनुमा मान लिया हो, उस मुल्क में बेचारा प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति क्या कर सकता है। आतंकवादियों के डर से जब उसने अपने आका अमेरिका को ओसामा बिन लादेन नहीं सौंपा, तो एक दुश्मन देश को हाफिज सईद को सौंपने की हिम्मत कैसे जुटा सकता है। ऐसे में भारत का उनसे सईद के मामले में उम्मीद करना पूरी तरह से बेमानी है, भले वे शहंशाहों के शहंशाह ख्वाजा गरीब नवाज से अपनी उम्मीद पूरी करवा कर लौटें।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com
हालांकि इस निजी यात्रा के दौरान वे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भी मिल रहे हैं, मगर वह औपचारिक ही है। बातचीत का कोई एजेंडा नहीं है। ज्ञातव्य है कि इन दिनों आतंकवादी हाफिज सईद के सिर पर इनाम रखा हुआ है, इस कारण वह मुद्दा बेहद गर्माया हुआ है, मगर इस मुलाकात में इस पर कोई चर्चा होने की कोई उम्मीद नहीं है। उम्मीद करनी भी नहीं चाहिए। खुद जरदारी ने भी लाहौर में रवाना होने से पहले उम्मीद जता दी है कि मनमोहन इस मुद्दे को नहीं उठाएंगे। उनके पास कुछ जवाब देने को है ही नहीं।
असल में जरदारी का भारत आना तय होते ही पाकिस्तान में रोना-धोना शुरू हो गया था। कई विरोधी दल और कट्टरपंथी संगठन छाती पीट रहे हैं कि एक ओर आतंकवादी हाफिज सईद के सिर पर इनाम रखा जा रहा है और दूसरी ओर हमारे राष्ट्रपति दुश्मन देश की यात्रा कर रहे हैं। वस्तुत: जरदारी पाकिस्तान के बेहद कमजोर राष्ट्रपति हैं, जो अपनी पत्नी बेनजीर भुट्टो की शहादत की वजह से इस कुर्सी तक पहुंच तो गए, लेकिन ख़ुद पाकिस्तान में कोई उन्हें कोई खास तवज्जो नहीं देता। हालत तो ये है कि वहां तख्ता पलट तक की चर्चा होती रहती हैं। हकीकत ये है कि पाकिस्तान में सरकार जरदारी या गिलानी नहीं, बल्कि सेना, आईएसआई और आतंकवादी चलाते हैं। जाहिर सी बात है कि जिस मुल्क में अवाम ने भी आतंकवादियों को ही अपना रहनुमा मान लिया हो, उस मुल्क में बेचारा प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति क्या कर सकता है। आतंकवादियों के डर से जब उसने अपने आका अमेरिका को ओसामा बिन लादेन नहीं सौंपा, तो एक दुश्मन देश को हाफिज सईद को सौंपने की हिम्मत कैसे जुटा सकता है। ऐसे में भारत का उनसे सईद के मामले में उम्मीद करना पूरी तरह से बेमानी है, भले वे शहंशाहों के शहंशाह ख्वाजा गरीब नवाज से अपनी उम्मीद पूरी करवा कर लौटें।
-तेजवानी गिरधर
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