तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, फ़रवरी 24, 2012

वसुंधरा जी, आप ही बता दीजिए वे दिग्गज कांग्रेसी कौन हैं?


प्रतिपक्ष की नेता श्रीमती वसुन्धरा राजे ने बाड़मेर जिले के कोलू (बायतू) में जसनाथ महाराज के भव्य मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए फिर हुंकार भरी कि भंवरी मामले में सीबीआई छोटे नेताओं की तो जांच कर रही है, मगर कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों पर हाथ नहीं डाल रही। सीबीआई का इस्तेमाल कांग्रेस लोगों को डराने, धमकाने और परेशान करने में कर रही है, ताकि वे सहम कर कांग्रेस के नेताओं का आधिपत्य स्वीकार कर लें, लेकिन उनका ये सपना कभी साकार नहीं होगा। उन्होंने यहां तक पूछा कि भंवरी मामले में सीबीआई की जांच मारवाड़ के इर्द-गिर्द ही क्यों हो रही है, बाकी के कांग्रेसी दिग्गजों को क्यों जांच से बाहर रखा गया है, जबकि उनके नाम चर्चाओं में हैं। सवाल ये उठता है कि अगर सीबीआई को दिग्गजों के नाम पता नहीं हैं या फिर वह जानबूझ कर उन पर हाथ नहीं डाल रही तो खुद वसुंधरा दिग्गजों नाम क्यों नहीं उजागर कर देतीं। जब से यह मामला उजागर हुआ है, वे लगातार पिटा हुआ रिकार्ड प्लेयर चला रही हैं। बीच-बीच में गायब हो जाती हैं और जब भी आती हैं तो वही राग अलापने लगती हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि सीबीआई तो कांग्रेस सरकार के हाथों में खेल रही है, मगर वसुंधरा जी पर तो किसी का दबाव नहीं है। वे तो पूरी तरह से स्वतंत्र हैं। माना कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की है, मगर नेता प्रतिपक्ष होने के नाते उनकी भी आखिरकार बड़ी जिम्मेदारी है। वह भी तब जब कि वे आगामी संभावित भाजपा सरकार की मुख्यमंत्री बनने जा रही हैं। असल में नेता प्रतिपक्ष होने के नाते उनकी जिम्मेदारी ज्यादा की बनती है कि यदि सरकार किसी मामले को दबा रही है तो वे उसे उजागर करें। मात्र कुछ अज्ञात दिग्गजों का जिक्र कर सरकार पर हमला करने की बजाय उन्हें बाकायदा नाम लेकर बताना चाहिए कि भंवरी मामले में और कौन शामिल हैं। केवल शोशेबाजी करने से क्या लाभ? ऐसी शोशेबाजी कर जनता को उद्वेलित करना जन भावनाओं से खेलने की संज्ञा में आता है। यदि उन्हें पता है और उनके पास सबूत हैं तो एक अर्थ में जानकारी छिपाने का कानूनी अपराध वे भी कर रही हैं। इस मामले में एक दिलचस्प बात ये भी है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी कह चुके हैं कि वे तो नियमानुसार कार्यवाही कर रहे हैं, मगर वसुंधरा ज्यादा नहीं बोलें, उनकी पार्टी के लोगों पर भी आंच आ सकती है। इसका मतलब ये निकलता है कि उन्हें पता है कि कौन-कौन से भाजपा नेता इस मामले में लिप्त हैं। यह दीगर बात है कि पुख्ता सबूत के अभाव में सरकार उन पर हाथ नहीं डाल पा रही। वैसे बताते ये हैं कि सीबीआई को जो सीडियां मिली हैं, उनमें अनेक नेता व बड़े अधिकारी भी संदिग्ध अवस्था में दिखाई दे रहे हैं। इसके बावजूद आरोप कुछ ही नेताओं पर मढ़े गए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि मुख्यमंत्री गहलोत व वसुंधरा नूरा कुश्ती खेल रहे हैं। अपने गिरेबां में भी झांकें श्रीमती वसुंधरा ने मन्दिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में यह भी कहा कि सरकार 3 साल तो जनता के बीच से गायब रही, अब जब उसे पता चला कि चुनाव आने वाले हैं और हमारा लोगों के दु:ख-दर्द सुनने का सिलसिला जारी है तो सरकार की नींद खुल गई और उसने फरमान जारी कर दिया कि सभी मंत्री 3 दिन दौरा करें। तीनों दिन मुख्यमंत्री का विरोध हुआ। जनता ने पूछ लिया 3 साल गायब थे, अचानक जनता की कैसे याद आ गई। सवाल ये उठता है क्या वे खुद पूरे तीन साल जनता के बीच रहीं। पूरा प्रदेश जानता है कि वे यदा-कदा अचानक गायब हो जाती हैं। कई बार तो उनके निजी समर्थकों तक को पता नहीं लग पाता कि वे कहां हैं। राजनीति पर नजर रखने वाले दिग्गज पत्रकार तक ये कहते हैं कि पिछले तीन साल में राज्य की राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं रही हैं। विधानसभा में भी वे सिर्फ उपस्थिति दर्ज करवाती हैं। ऐसे में उन्हें सरकार से तीन साल गायब रहने पर सवाल करने का अधिकार है या नहीं, यह जनता पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अगली मुख्यमंत्री बनने की खुशफहमी में जी रही हैं। खुद उनके पार्टी संगठन व संघ से संबंध कुछ खास अच्छे नहीं हैं फिर भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष चंद्रभान के हवाले से मान रही हैं कि कांग्रेस 50 सीटों पर ही सिमट जायेगी। यानि कि भाजपा अपने दम पर सरकार में नहीं आ रही, वे तो कांग्रेस का रायता ढुलने का इंतजार कर रही हैं। हो सकता है बिल्ली के भाग्य का छींका टूट ही जाए।

बुधवार, फ़रवरी 15, 2012

अन्ना के जमाने में भी यूपी चुनाव पर हावी है जातिवाद


चंद रोज पहले पूरा देश अन्ना हजारे के साथ ऐसा खड़ा था, मानों वह अब देश की तस्वीर बदल कर ही दम लेगा। युवा बाहुओं में बड़ा जोश-खरोश था। पिज्जा-बर्गर संस्कृति में डूबी युवा पीढ़ी की मु_ियां देश को एक नई आजादी के लिए तनी हुई थीं। मगर जैसे ही चुनावी बुखार आया, अन्ना का बुखार उतर गया। चाहे चौपाल पर हो या टीवी पर, जातिवाद व तुष्टिकरण जैसे मुद्दे ही हावी हो गए हैं।
इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले दिनों अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को इतना उभार दिया था कि कुछ और दिखाई ही नहीं दे रहा था। अन्ना को भी लग रहा था कि वे राजनीतिक दलों विशेष रूप से कांग्रेस को उत्तरप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य के विधानसभा चुनाव में प्रचार की चेतावनी दे कर अपनी पसंद का लोकपाल बिल पारित करवा लेंगे। इसी कारण उन्होंने बार-बार धमकी भरे लहजे में हुंकार भरी। मगर हुआ ये कि दिल्ली के जंतर-मंतर की तुलना में मुंबई का धरना टांय-टांय फिस्स हो गया और उन्हें स्वास्थ्य कारणों अथवा अथवा अन्य वजहों से अपना आंदोलन वापस लेना पड़ा। ऐसा नहीं है कि आमजन में मन में भ्रष्टाचार के खिलाफ आग नहीं है अथवा बुझ गई है या धीमी पड़ गई है, मगर अन्ना आंदोलन के तुरंत बाद आए उत्तर प्रदेश के चुनाव में अन्ना फैक्टर कहीं नजर नहीं आ रहा है। राजनीतिक दलों की ओर से भ्रष्टाचार एक हथियार के रूप में जरूर इस्तेमाल किया जा रहा है। विकास का मुद्दा भी जुबानी जमा-खर्च में खूब काम आ रहा है, मगर धरातल का सच ये है कि वहां संप्रदायवाद व जातिवाद पूरी तरह से हावी है। मीडिया के लाख चिल्लाने के बाद भी माफिया व बाहुबलियों का आत्मविश्वास डगमगाया नहीं है। प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर यह बात आती तो है कि जब बिहार जैसा पिछड़ा राज्य विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ सकता है तो राजनीति में सबसे अग्रणी राज्य उत्तरप्रदेश क्यों नहीं, मगर सच्चाई ये है कि आज भी पूरी राजनीति केवल जातिवाद पर केन्द्रित हो गई है। हालत ये है कि जातिवाद में भी अनुसूचित जातियों के बीच वर्ग भेद खुल कर सामने आने लगा है। हर दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने के लिए साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना रहा है। सभी दलों ने प्रत्याशियों का चयन जातिवाद के आधार पर ही किया है और खींचतान भी हिंदू-मुस्लिम व अगड़े-पिछड़े पर हो रही है। तुष्टिकरण की नीति के आरोप अपने कांधे पर लेकर चल रही कांग्रेस तो मुस्लिमों के वोट खींचने के लिए एडी चोटी का जोर लगा ही रही है, राष्ट्रवाद का तमगा लिए घूमती भाजपा भी जातीय समीकरणों के खेल में उमा भारती पर दाव खेल रही है। वे उनके उग्र हिंदूवादी चेहरे का भी जम कर इस्तेमाल कर रही है। सपा-बसपा के अपने-अपने वोट बैंक हैं और मूल प्रतिस्पद्र्धा भी उन दोनों में ही है, मगर कांग्रेस व भाजपा में दोनों से आगे निकलने की छटपटाहट कुछ ज्यादा ही है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर भले ही विकास करवाने व उत्तरप्रदेश की तस्वीर बदलने के नाम पर वोट मांग रहे हैं, मगर कानून मंत्री सलमान खुर्शीद का उदाहरण सबसे ज्वलंत है, जो यह साबित करता है कि चुनाव में लोकपाल, काला धन, सुशासन और विकास से कहीं अधिक महत्व रखता है धर्म व जाति का वोट बैंक। कांग्रेस के परंपरागत अनुसूचित जाति वोट पर सपा व बसपा का कब्जा होने के कारण कांग्रेस को ज्यादा उम्मीद मुस्लिम वोट बैंक से है। यदि विकास की बात हो भी रही तो राज्य के समग्र विकास की बजाय विभिन्न पिछड़ी जातियों व मुसलमानों के उत्थान पर केन्द्रित है।
लब्बोलुआब, सवाल ये है कि आज का दौर जब अन्ना का दौर कहला रहा है और उन्हें दूसरी आजादी के लिए महात्मा गांधी के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जा रही है तो आखिर वजह क्या है कि चुनाव आते ही हम हम सब कुछ भूल कर जातिवाद पर आ गए हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि विकास, भ्रष्टाचार व सुशासन जैसे हमारे दिमाग में आंदोलन जरूर पैदा कर रहे हैं, मगर हमारे दिलों में अब भी जातिवाद का ही बोलबाला है। और हम जज्बाती हिंदुस्तानी अपनी फितरत के मुताबिक दिमाग की बजाय दिल की ज्यादा सुनते हैं। अन्ना जैसे आंदोलन हमें प्रभावित तो करते हैं, मगर उनकी पैठ दिल तक नहीं हो पाती।
इसके विपरीत अन्ना की आग में अब भी तपिश महसूस करने वालों का तर्क है कि उन्हीं की वजह से आज राजनीतिक वर्ग में भय की भावना उत्पन्न हुई है। वे कहते हैं कि ये अन्ना के आंदोलन का ही असर था कि मायावती को अपनी छवि सुधारने की खातिर अनेक मंत्रियों को रुखसत करना पड़ा। कुछ इसी तरह मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के डॉन डी पी यादव को समाजवादी पार्टी में शामिल करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने भी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों से कुछ बचने की कोशिश की है। कुछ इसी प्रकार भाजपा को भी बाबूसिंह कुशवाहा को निगलने के बाद फिर उगलना पड़ा। अन्ना वादियों का मानना है कि अन्ना फैक्टर के कारण ही छह माह पूर्व भाजपा को उत्तराखंड में चुनाव से पहले अपना मुख्यमंत्री बदलने को बाध्य होना पड़ा।
कुल मिला कर उत्तरप्रदेश का चुनाव पूरी तरह से असमंजस से भरा है। सारे मुद्दे गड्ड मड्ड हो चुके हैं। ऊपर कुछ और नजर आता है और अंडर करंट कुछ और माना जा रहा है। ऐसे में इतना तय है कि भले ही अन्ना फैक्टर को गिनाने के लिए आंका जाए, मगर प्रभावित करने वाले मुद्दे जातिवाद, धन बल व बाहुबल साबित होंगे।

सोमवार, फ़रवरी 06, 2012

उमा की बदजुबानी : कभी अभिशाप तो कभी वरदान


राजनीति के भी अजीबोगरीब रंग हैं। नेताओं का जो गुण-अवगुण कभी संकट उत्पन्न करता है, वहीं कभी सुविधा भी बन जाता है। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती को ही लीजिए। उनके लिए जो बदजुबानी कभी अभिशाप बन गई थी, वही आज उनके लिए वरदान साबित हो रही है। सर्वविदित है कि बदजुबान मिजाज के चलते अनुशासन की सीमा लांघने पर उन्हें भाजपा से बाहर होना पड़ रहा था, मगर उसी बदजुबानी को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हुए भाजपा ने उन्हें उत्तरप्रदेश में सुश्री मायावती से भिडऩे के लिए भेज दिया है। जब उन्हें पार्टी ने वापस लिया था तो थूक कर काटने की संज्ञा दी गई थी, मगर आज वही बेहद उपयोगी लग रही हैं। पार्टी को उम्मीद है कि उसका यह प्रयोग कामयाब होगा।
ऐसा नहीं है कि पार्टी के पास उत्तरप्रदेश में नेताओं की कमी रही है या कमी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक कार्यक्षेत्र उत्तरप्रदेश ही रहा है। हालांकि अब वे वृद्धावस्था के कारण अस्वस्थ हैं। इसी प्रकार पूर्व भाजपा अध्यक्ष व पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी भी उत्तरप्रदेश से ही हैं। इसी राज्य से सांसद पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह कोई कमजोर नेता नहीं हैं। इसी प्रकार लाल जी टंडन तथा कलराज मिश्र का नाम भी कोई छोटा नहीं है। फेहरिश्त और भी लंबी है। केसरी नाथ त्रिपाठी, महंत अवैधनाथ, स्वामी चिन्मयानंद, आदित्यनाथ योगी, विनय कटियार जैसे नेताओं का भी दबदबा रहा है। यहां तक कि भाजपा के धुर विरोधी नेहरु खानदान के एक वश्ंाज वरुण गांधी भी वहीं फुफकारते हैं। इतना ही नहीं, पार्टी के मातृ संगठन आरएसएस से जुड़े रज्जू भैया व अशोक सिंघल भी यहीं से निकल कर आए हैं। इतने सारे नेताओं के बावजूद आखिर क्या वजह है कि पार्टी को उमा भारती को बाहर से मैदान में लाना पड़ा।
ये वही उमा भारती हैं, जिन्होंने अपने पिता तुल्य लालकृष्ण आडवाणी के बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया और पार्टी से बाहर हो गर्इं। मजे की बात है कि उन्हीं आडवाणी ने उनको पार्टी में लाने की पैरवी की। उमा वही बागी नेता है, जिसने भारतीय जन शक्ति पार्टी बनाई और मध्यप्रदेश में सभी सीटों पर टक्कर देने की कोशिश की, मगर खुद ही धराशायी हो गईं। उमा के लिए भी राजनीति में जिंदा रहने का कोई रास्ता नहीं बचा था और भाजपा को भी उनके जातीय आधार का उपयोग करने की जरूरत महसूस हुई। ऐसे में उनकी वापसी हो गई। जब उन्हें उत्तरप्रदेश भेजे जाने का निर्णय हुआ तो किसी के समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों किया गया। सभी यही सोच रहे थे कि यह एक सजा है। पार्टी अपना मध्यप्रदेश का सेटअप खराब करना नहीं चाहती। साथ ही लोधी जाति से होने के कारण कदाचित कुछ काम भी आ गईं तो ठीक, वरना वहीं खप जाएंगी। मगर आज स्थिति ये है कि वे भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की दावेदार मानी जा रही हैं।
सवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि बदमिजाज, अनुशासनहीन, बेकाबू और बगावत कर चुकी नेता को मध्यप्रदेश से ला कर यहां तैनात किय गया। उसकी एक वजह भले ही जातीय आधार हो मगर कुछ विश्लेषकों का मानना है कि उन्हें मुंहफट मायावती से मुकाबला करने के लिहाज से ही वहां लगाया गया है। भाजपा के पास इकलौती वे ही नेता हैं जो मायावती को उन्हीं के अंदाज में जवाब देने की सामथ्र्य रखती हैं। बाकी के सब नेता आजमाए जा चुके हैं और लगभग पिटे हुए से हैं। उनसे सानी रखने वाला फायर ब्रांड नेता कोई नहीं है। उनका घोर भगवा स्वरूप हिंदू वोटों को लामबंद रखने में उपयोगी है। भाजपा का प्रयोग तनिक सफल भी होता नजर आ रहा है। माना जाता है कि उनका उपयोग कल्याण सिंह का मुकाबला करने के लिए भी किया गया है।
कुल मिला कर स्थिति अब ये है कि धीरे-धीरे उन्होंने अच्छी पकड़ बना ली है। उन्हें मुख्यमंत्री पद की दावेदार तक माना जाने लगा है। समझा जा सकता है मुख्यमंत्री पद की लालसा लिए अन्य नेताओं पर क्या गुजर रही होगी, मगर उमा अब काफी आगे निकल चुकी हैं। भारी उतार-चढ़ाव देख चुकीं उमा को देख कर तो यही समझ में आता है कि राजनीति में कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। और साथ ही वही अवगुण जो कि परेशानी पैदा करता है, कभी काम में भी आ जाता है। पार्टी के लिहाज से देखा जाए तो सभी किस्म के नेता उपयोगी होते हैं। इसका दूसरा उदाहरण हैं मध्यप्रदेश के ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, जो मुंहफट होने के कारण कई बार कांग्रेस हाईकमान के लिए परेशानी पैदा करते हैं, तो वही बड़बोलापन संघ, अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के खिलाफ अभियान में काम में लिया जाता है।

शनिवार, फ़रवरी 04, 2012

चलते रस्ते पंगा ले लिया अमीन खां ने


राजस्थान के वक्फ एवं अल्पसंख्यक मामलात के मंत्री अमीन खां ने गत दिवस अजमेर में चलते रस्ते पंगा मोल ले लिया। उनका मकसद और मंशा जो भी रही हो, जिसकी कि वे दुहाई देते नहीं थक रहे, मगर वह आम मुसलमान को तो नागवार गुजर रहा है। एक के बाद एक मुस्लिम संगठन उनके पीछे हाथ धो कर खड़े हो गए हैं।
असल में उन्होंने बयान दिया था कि जहां नमाज नहीं, वो मस्जिद नहीं। यह बयान देते ही तुरंत विरोध शुरू हो गया। कुछ लोग इस्लाम विरोधी एवं विवादित बयान पर अमीन खां के खिलाफ आलीमे दीन से शरिअत की रोशनी में फतवा मंगवाने की तैयारी कर रहे हैं। उनके बारे में राय बन रही है कि ऐसे नेता लोग मुसलमान तो होते हैं और उसी हैसियत से सियासत भी करते हैं, लैकिन मजहबी मालूमात की तंगदस्ती की वजह से इस तरह के बयान देकर मजहबी जज्बात को ठेस पहुंचा कर सियासत करते हैं। कांग्रेस विचारधारा के मुसलमानों ने इसे इस रूप में लिया है कि कांग्रेस से मुसलमानों के भटकने की वजह है, अमीन खां जैसे मुस्लिमों को तरजीह, जो मजहबी मामलात में जो मुहं में आता है बक देते हैं। महज चुनाव जीत लेना इस बात की जमानत नहीं है कि वे समाज में सर्वोपरि हैं।
इस मसले पर इस्लाम को जानने वाले मानते हैं कि मुसलमानों का मजहबी निजाम कानूने शरिअत, हदीसे नबवी, और मुकद्दस कुरआन के मुताबिक चलता है और इन मुकद्दस किताबों के हवाले से यह स्पष्ट है कि जो इमारत एक बार मस्जिद बन गई वो कयामत तक मस्जिद ही रहेगी, उसकी हैसियत कोई नही मिटा सकता। अल्लाह कुरआन में फरमाता है कि कुरआन और इबादतगाहों की हिफाजत ताकयामत हम करेंगे।
आम मुसलमान की तकलीफ ये है भी कि मस्जिदों के बारे में इस तरह की बयानबाजी से उन साम्प्रदायिक लोगों को बल मिलेगा, जिनका वजूद मस्जिद और मंदिर की राजनीति पर टिका हुआ है, जो हर लम्हा इसी जद्दोजहद में रहते हैं कि कैसे इन विवादित मुद्दों को छेड़ कर माहौल गर्माया जाए। वे इस तरह के बयानों को वह अन्य स्थानों पर नजीर के रूप में पेश करते हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व अमीन खां राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटील के बारे में ऊलजलूल टिप्पणी के कारण मंत्री पद गंवा चुके हैं। तब उनकी कुर्सी जाने का मुस्लिम जमात को काफी मलाल था। उसी को खुश करने के लिए उन्हें फिर से मंत्री बनाया गया। आज वही मुस्मिम जमात उनसे खफा नजर आती है।
बहरहाल, अमीन खां की भले ही जुबान फिसली हो और उनका असल मकसद वो न हो, जो कि उनके बयान में दिखा रहा है, मगर अजमेर जैसे सांप्रदायिक सद्भाव वाले स्थल के साथ-साथ अति संवेदनशील शहर में ऐसी बयानबाजी करके उन्होंने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह और तीर्थराज पुष्कर की बदौलत दुनियाभर में सांप्रदायिक सौहाद्र्र की मिसाल के रूप में जानी जानी वाली यह ऐतिहासिक नगरी विचलित नहीं होगी।

रविवार, जनवरी 29, 2012

वसुंधरा के विरोध में कटारिया से एक कदम आगे हैं चतुर्वेदी


प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से पीडि़त भाजपा के दिग्गजों को पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी व पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी का श्रीमती राजे को अगला मुख्यमंत्री कहना रास नहीं आ रहा है। पहले संघ लॉबी से जुड़े पूर्व मंत्री गुलाब चंद कटारिया ने वसुंधरा के खिलाफ मुंह खोला तो अब एक ओर दिग्गज पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी भी खुल कर आगे आ गए हैं। कटारिया ने तो सिर्फ यही कहा कि पार्टी ने अब तक तय नहीं किया है कि अगला मुख्यमंत्री कौन होगा, लेकिन चतुर्वेदी तो एक कदम और आगे निकल गए। उन्होंने यहां तक कह दिया कि आडवाणी ने राजस्थान दौरे के दौरान ऐसा कहा ही नहीं कि अगला चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उन्होंने भी यही कहा कि चुनाव में विजयी भाजपा विधायक ही तय करेंगे कि मुख्यमंत्री कौन होगा। एक के बाद एक दिग्गजों के वसुंधरा के खिलाफ उभरने से जहां हाईकमान चिंतित हैं, वहीं भाजपा कार्यकर्ता भी भ्रमित हो रहे हैं। ज्ञातव्य है कि ये वे ही दिग्गज नेता हैं, जिन्हें वसुंधरा ने अपने राज के दौरान खंडहर की उपमा दी थी। उस शब्द बाण का दर्द आज भी इन दिग्गजों को साल रहा है।
यहां उल्लेखनीय है कि पूर्व उप प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने अजमेर की सभा में बिलकुल खुले शब्दों में कहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव में पार्टी वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ेगी। ऐसा लगता है कि चतुर्वेदी को या तो अजमेर में आडवाणी की ओर से की गई घोषणा की या तो जानकारी नहीं है या फिर वे जानबूझ कर वसुंधरा विरोधी बयान दे कर विवाद को जिंदा रखना चाहते हैं। इससे यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि गडकरी व आडवाणी तो वसुंधरा के पक्ष में हैं, मगर राज्य स्तर पर अब भी वसुंधरा के प्रति एक राय नहीं है। विशेष रूप से संघ लॉबी के नेता वसुंधरा को नहीं चाहते, हालांकि उनकी संख्या कम ही है।
भाजपा में ही क्यों, कांगे्रस में भी मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद है। प्रदेश अध्यक्ष चंद्रभान अनेक बार कह चुके हैं कि कांग्रेस में भाजपा की तरह पहले से मुख्यमंत्री पद के दावेदार की घोषणा करने की परंपरा नहीं है। जो विधायक जीत कर आएंगे, उनकी राय और आलाकमान के निर्देशानुसार ही मुख्यमंत्री का निर्णय होगा। जाहिर तौर पर उनका कहना ये है कि अगला चुनाव मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्व में नहीं लड़ा जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वे जानबूझ कर ऐसा बयान दे रहे हैं, ताकि महिपाल मदेरणा प्रकरण के बाद नाराज चल रही जाट लॉबी के उफान पर कुछ ठंडे छींटे डाले जा सकें। वैसे भी गहलोत का इस बार का कार्यकाल काफी विवादग्रस्त रहा है। पिछले कार्यकाल में उन्होंने खासी लोकप्रियता हासिल की, मगर अकेले कर्मचारियों की नाराजगी ले बैठी। इस बार स्थिति और भी गंभीर है। कभी कार्यकर्ताओं चहेते रहे गहलोत ने इस बार कार्यकर्ताओं को ही नाखुश कर दिया है। लंबे समय बाद और वह भी आधी अधूरी राजनीतिक नियुक्तियों के कारण कार्यकर्ता बेहद खफा है। ऐसे में चंद्रभान को लगता है कि यदि अगला चुनाव गहलोत के नेतृत्व में लड़े जाने की गलतफहमी फैली तो पार्टी को नुकसान होगा, सो जानबूझ कर ऐसा बयान जारी कर रहे हैं। लेकिन उनकी इस बयानबाजी से यह तो संदेश जा रहा है कि सत्ता और संगठन में तालमेल का पूरी तरह से अभाव है। ये सच्चाई भी है। संगठन के जुड़े नेता कई बार गहलोत की कार्यप्रणाली को लेकर नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। हालत ये है कि पिछले दिनों जब पूर्व प्रदेश अध्यक्ष व केन्द्रीय मंत्री सी. पी. जोशी ने जब वन मंत्री रामलाल जाट के इस्तीफे के बारे में षड्यंत्र के खुले संकेत दे कर मामला हाईकमान के सामने उठाने की बात कही तो गहलोत के खिलाफ बगावत होने की आशंका के चलते चंद्रभान को पार्टी नेताओं को सार्वजनिक बयानबाजी न करने के निर्देश देने पड़े।
कुल मिला कर कांग्रेस व भाजपा, दोनों में आग सुलग रही है। देखते हैं चुनाव आने तक यह क्या रूप लेती है।
-tejwanig@gmail.com

गडकरी के बयानों से और बढ़ेगा घमासान


अब तक की सर्वाधिक बदनाम कांग्रेस सरकार की विदाई की उम्मीद में भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो चुका है। बड़े मजे की बात ये है कि उस घमासान समाप्त करने अथवा छुपाने की जिम्मेदारी जिस शख्स पर है, खुद वही नित नए विवाद की स्थिति पैदा कर रहा है। इशारा आप समझ ही गए होंगे।
बात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी की चल रही है। हाल ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त बता कर अन्य दावेदारों को सतर्क कर दिया था। अभी इस पर चर्चा हो कर थमी ही नहीं थी उन्होंने एक बयान में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को भी प्रधानमंत्री के योग्य करार दे दिया। हालांकि यह सही है कि उन्होंने जैसा सवाल वैसा जवाब दिया होगा और उनका मकसद किसी को अभी से स्थापित करने का नहीं होगा, बावजूद इसके उनके बयानों से पार्टी कार्यकर्ताओं में तो असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो ही रही है। होता अमूमन ये है कि पत्रकार ऐसे पेचीदा सवाल पूछते हैं कि उसमें नेता को हां और ना का जवाब देना ही पड़ता है और जो भी जवाब दिया जाता है, जाहिर तौर पर उसके अर्थ निकल कर आ जाते हैं। जवाब देने वाला खुद भी यह समझ नहीं पाता कि ऐसा कैसे हो गया। उसका मकसद वह तो नहीं था, जो कि प्रतीत हो रहा होता है। कमोबेश स्थिति ऐसी ही लगती है। पता नहीं किस हालात में गडकरी ने मोदी को प्रधानमंत्री के पद के योग्य बताया और पता नहीं किस संदर्भ में उन्होंने सुषमा व जेटली को भी उस पंक्ति में खड़ा कर दिया। मगर जब इन सभी जवाबों को एक जगह ला कर तुलनात्मक समीक्षा की जाती है तो गुत्थी उलझ जाती है कि आखिर वे कहना क्या चाहते हैं। संभव है कि उन्होंने कोई विवाद उत्पन्न करने के लिए ऐसा नहीं किया हो, मगर उनके बयानों से पार्टी में असमंजस तो पैदा होता ही है।
जरा पीछे झांक कर देखें। आडवाणी के रथयात्रा निकालने के निजी फैसले पर जब पार्टी ने मोहर लगाई और उनका पूरा सहयोग किया, तब ये मुद्दा उठा कि आडवाणी अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं अथवा पार्टी उन्हें फिर से प्रोजेक्ट करने की कोशिश कर रही है। तब खुद गडकरी को ही यह सफाई देनी पड़ गई कि आडवाणी की यात्रा प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के रूप में नहीं है। उस वक्त आडवाणी की दावेदारी को नकारने वाले गडकरी के ताजा बयान इस कारण रेखांकित हो रहे हैं कि वे क्यों मोदी, सुषमा व जेटली को दावेदार बता कर विवाद पैदा कर रहे हैं। स्वाभाविक सी बात है कि उनके मौजूदा बयानों से लाल कृष्ण आडवाणी और उनके करीबी लोगों को तनिक असहज लगा होगा कि गडकरी जी ये क्या कर रहे हैं। इससे तो आडवाणी का दावा कमजोर हो जाएगा। संभावना इस बात की भी है कि उन्होंने ऐसा जानबूझ कर किया हो, ताकि कोई एक नेता अपने आप को ही दावेदार न मान बैठे, लेकिन उनकी इस कोशिश से मीडिया वालों को अर्थ के अर्थ निकालने का मौका मिल रहा है। विशेष रूप से तब जब कि जिस गरिमापूर्ण पद वे बैठे हैं, उसके अनुरूप व्यवहार नहीं करते। उनकी जुबान फिसलने के एकाधिक मौके पेश आ चुके हैं। उनके कुछ जुमलों को लेकर भी मीडिया ने गंभीर अर्थ निकाले हैं। जैसे एक अर्थ ये भी निकाला जा चुका है कि भाजपा के इतिहास में वे पहले अध्यक्ष हैं, जिन्होंने अपनी बयानबाजी से पार्टी को एक अगंभीर पार्टी की श्रेणी पेश कर दिया है। इसे भले ही वे अपनी साफगोई या बेबाकी कहें, मगर उनकी इस दरियादिली से पार्टी में तंगदिली पैदा हो रही है। इससे पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को लेकर चल रही जंग को नया आयाम मिला है।
उल्लेखनीय है कि लोकसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही इस पद को लेकर प्रतिस्पद्र्धा चल रही थी। बाद में गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायायल के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर तीन दिवसीय उपवास कर की, जो कि साफ तौर पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी बनाने के रूप में ली गई। यूं पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी दावेदारी की जुगत में हैं। कहने वाले तो यहां तक कह रहे हैं कि पार्टी अध्यक्ष गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुल कर दावा पेश कर देंगे। कुल मिला कर भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए चल रहे घमासान को गडकरी के बयानों से हवा मिल रही है।