तीसरी आंख

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सोमवार, फ़रवरी 06, 2012

उमा की बदजुबानी : कभी अभिशाप तो कभी वरदान


राजनीति के भी अजीबोगरीब रंग हैं। नेताओं का जो गुण-अवगुण कभी संकट उत्पन्न करता है, वहीं कभी सुविधा भी बन जाता है। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री उमा भारती को ही लीजिए। उनके लिए जो बदजुबानी कभी अभिशाप बन गई थी, वही आज उनके लिए वरदान साबित हो रही है। सर्वविदित है कि बदजुबान मिजाज के चलते अनुशासन की सीमा लांघने पर उन्हें भाजपा से बाहर होना पड़ रहा था, मगर उसी बदजुबानी को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हुए भाजपा ने उन्हें उत्तरप्रदेश में सुश्री मायावती से भिडऩे के लिए भेज दिया है। जब उन्हें पार्टी ने वापस लिया था तो थूक कर काटने की संज्ञा दी गई थी, मगर आज वही बेहद उपयोगी लग रही हैं। पार्टी को उम्मीद है कि उसका यह प्रयोग कामयाब होगा।
ऐसा नहीं है कि पार्टी के पास उत्तरप्रदेश में नेताओं की कमी रही है या कमी है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का राजनीतिक कार्यक्षेत्र उत्तरप्रदेश ही रहा है। हालांकि अब वे वृद्धावस्था के कारण अस्वस्थ हैं। इसी प्रकार पूर्व भाजपा अध्यक्ष व पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी भी उत्तरप्रदेश से ही हैं। इसी राज्य से सांसद पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह कोई कमजोर नेता नहीं हैं। इसी प्रकार लाल जी टंडन तथा कलराज मिश्र का नाम भी कोई छोटा नहीं है। फेहरिश्त और भी लंबी है। केसरी नाथ त्रिपाठी, महंत अवैधनाथ, स्वामी चिन्मयानंद, आदित्यनाथ योगी, विनय कटियार जैसे नेताओं का भी दबदबा रहा है। यहां तक कि भाजपा के धुर विरोधी नेहरु खानदान के एक वश्ंाज वरुण गांधी भी वहीं फुफकारते हैं। इतना ही नहीं, पार्टी के मातृ संगठन आरएसएस से जुड़े रज्जू भैया व अशोक सिंघल भी यहीं से निकल कर आए हैं। इतने सारे नेताओं के बावजूद आखिर क्या वजह है कि पार्टी को उमा भारती को बाहर से मैदान में लाना पड़ा।
ये वही उमा भारती हैं, जिन्होंने अपने पिता तुल्य लालकृष्ण आडवाणी के बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया और पार्टी से बाहर हो गर्इं। मजे की बात है कि उन्हीं आडवाणी ने उनको पार्टी में लाने की पैरवी की। उमा वही बागी नेता है, जिसने भारतीय जन शक्ति पार्टी बनाई और मध्यप्रदेश में सभी सीटों पर टक्कर देने की कोशिश की, मगर खुद ही धराशायी हो गईं। उमा के लिए भी राजनीति में जिंदा रहने का कोई रास्ता नहीं बचा था और भाजपा को भी उनके जातीय आधार का उपयोग करने की जरूरत महसूस हुई। ऐसे में उनकी वापसी हो गई। जब उन्हें उत्तरप्रदेश भेजे जाने का निर्णय हुआ तो किसी के समझ में नहीं आया कि ऐसा क्यों किया गया। सभी यही सोच रहे थे कि यह एक सजा है। पार्टी अपना मध्यप्रदेश का सेटअप खराब करना नहीं चाहती। साथ ही लोधी जाति से होने के कारण कदाचित कुछ काम भी आ गईं तो ठीक, वरना वहीं खप जाएंगी। मगर आज स्थिति ये है कि वे भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की दावेदार मानी जा रही हैं।
सवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि बदमिजाज, अनुशासनहीन, बेकाबू और बगावत कर चुकी नेता को मध्यप्रदेश से ला कर यहां तैनात किय गया। उसकी एक वजह भले ही जातीय आधार हो मगर कुछ विश्लेषकों का मानना है कि उन्हें मुंहफट मायावती से मुकाबला करने के लिहाज से ही वहां लगाया गया है। भाजपा के पास इकलौती वे ही नेता हैं जो मायावती को उन्हीं के अंदाज में जवाब देने की सामथ्र्य रखती हैं। बाकी के सब नेता आजमाए जा चुके हैं और लगभग पिटे हुए से हैं। उनसे सानी रखने वाला फायर ब्रांड नेता कोई नहीं है। उनका घोर भगवा स्वरूप हिंदू वोटों को लामबंद रखने में उपयोगी है। भाजपा का प्रयोग तनिक सफल भी होता नजर आ रहा है। माना जाता है कि उनका उपयोग कल्याण सिंह का मुकाबला करने के लिए भी किया गया है।
कुल मिला कर स्थिति अब ये है कि धीरे-धीरे उन्होंने अच्छी पकड़ बना ली है। उन्हें मुख्यमंत्री पद की दावेदार तक माना जाने लगा है। समझा जा सकता है मुख्यमंत्री पद की लालसा लिए अन्य नेताओं पर क्या गुजर रही होगी, मगर उमा अब काफी आगे निकल चुकी हैं। भारी उतार-चढ़ाव देख चुकीं उमा को देख कर तो यही समझ में आता है कि राजनीति में कब क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। और साथ ही वही अवगुण जो कि परेशानी पैदा करता है, कभी काम में भी आ जाता है। पार्टी के लिहाज से देखा जाए तो सभी किस्म के नेता उपयोगी होते हैं। इसका दूसरा उदाहरण हैं मध्यप्रदेश के ही पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, जो मुंहफट होने के कारण कई बार कांग्रेस हाईकमान के लिए परेशानी पैदा करते हैं, तो वही बड़बोलापन संघ, अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के खिलाफ अभियान में काम में लिया जाता है।

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