किशनगढ़ के कांग्रेस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया का अपहरण होने के बाद हत्या कर दिए जाने पर राजस्थान विधानसभा में भाजपा ने जम कर हंगामा किया। भाजपा विधायकों ने पुलिस पर ढि़लाई का आरोप लगाते हुए गृहमंत्री शांति धारीवाल से इस्तीफे की मांग कर डाली। धारीवाल के जवाब से असंतुष्ट विपक्ष ने सदन का बहिष्कार भी कर दिया। विपक्ष की यह भूमिका यंू तो सहज ही लगती है, मगर गहराई से विचार किया जाए तो यह पूरी तरह से बेमानी ही है।
अव्वल तो ऐसे विवादों में होने वाली हत्याएं सुनियोजित होते हुए भी उसकी जानकारी पुलिस को नहीं होती, जब तक कि संबंधित पक्ष इस प्रकार की आशंका न जाहिर करें। भंवर सिनोदिया की हत्या को भी ऑर्गेनाइज क्राइम की श्रेणी नहीं गिना जा सकता, जिसके बारे में पुलिस को घटना से पहले पता लग जाए। यदि किसी के बीच किसी सौदेबाजी का विवाद हो गया है और उसको लेकर अचानक किसी की हत्या कर दी जाती है, तो पुलिस को सपना कैसे आ सकता है कि इस प्रकार की वारदात हो सकती है? ऐसी हत्या के लिए भी पुलिस को दोषी देने की प्रवृत्ति कत्तई उचित नहीं कही जा सकती। भला इसमें पुलिस की ढि़लाई कहां से आ गई? पुलिस भला इस हत्या को कैसे रोक सकती थी? रहा सवाल हत्या के बाद पुलिस की भूमिका का तो उसने त्वरित कार्यवाही करके लाश का पता लगा लिया और दो आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया। इतना ही नहीं उसने कानून-व्यवस्था के मद्देनजर तब हत्या के तथ्य को उजागर नहीं किया, जब तक कि लाश नहीं मिल गई। पुलिस को शाबाशी देना तो दूर, उसे गाली बकने की हमारी आदत सी बन गई है। इससे पुलिस अपना कर्तव्य निर्वहन करने को बाध्य हो न हो, हतोत्साहित जरूर होती है। माना कि विपक्ष को दबाव बनाने के लिए इस प्रकार विरोध जताना पड़ता है, मगर ऐसी हत्या, जिसके लिए न तो पुलिस जिम्मेदार है, न कानून-व्यवस्था और न ही गृहमंत्री, पुलिस को दोषी ठहाराना व गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग करना हमारी इस प्रवृत्ति को उजागर करता है कि हंगामा करना ही हमारा मकसद है, हालात से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। सवाल ये उठता है कि क्या भाजपा के राज में इस प्रकार ही हत्याएं नहीं हुईं? हालांकि तब कांग्रेस ने भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति का इजहार किया था, लेकिन न तो तब के गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया और न ही इस सरकार के गृहमंत्री इस्तीफा देने वाले हैं, मगर हमारी आदत है, इस्तीफा मांगने की सो मांगेगे। अकेले राजनीतिक लोग ही नहीं, हमारे मीडिया वाले भी कभी-कभी इस प्रकार की गैरजिम्मेदार हरकत कर बैठते हैं। गुरुवार को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिनोदिया गांव में भंवर सिनोदिया के पिता विधायक नाथूराम सिनोदिया व परिजन को सांत्वना देने पहुंचे तो एक मीडिया वाले यह सवाल दाग दिया कि पहले बीकानेर में युवक कांग्रेस नेता की हत्या और अब विधायक पुत्र की हत्या को आप किस रूप में लेते हैं? एक अन्य ने पूछा कि क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिगड़ गई है? जाहिर तौर पर गहलोत को यह कहना पड़ा कि क्राइम तो क्राइम है, इसका राजनीतिक अर्थ नहीं होता। सवाल ये उठता है कि हम सवाल पूछते वक्त ये ख्याल क्यों नहीं रखते कि ऐसे सवाल का क्या उत्तर आना है? अगर एक ही मामले में राजनीतिक रंजिश के कारण कांग्रेसियों की हत्या होती तो समझ में आ सकता था कि यह सवाल जायज है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि हम केवल कुछ पूछने मात्र के लिए ऐसे सवाल दागते हैं।
बहरहाल, अब जब कि जांच ओएसजी को दी जा चुकी है, उम्मीद की जानी चाहिए कि हत्या के पीछे अकेले व्यक्तिगत या व्यापारिक रंजिश थी, या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक द्वेषता थी, इसका पता लग जाएगा। वैसे पुलिस अब ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा, क्योंकि जिस प्रकार विधायक के जवान बेटे की हत्या की गई है, उससे प्रतिहिंसा की आशंका तो उत्पन्न होती ही है।
अव्वल तो ऐसे विवादों में होने वाली हत्याएं सुनियोजित होते हुए भी उसकी जानकारी पुलिस को नहीं होती, जब तक कि संबंधित पक्ष इस प्रकार की आशंका न जाहिर करें। भंवर सिनोदिया की हत्या को भी ऑर्गेनाइज क्राइम की श्रेणी नहीं गिना जा सकता, जिसके बारे में पुलिस को घटना से पहले पता लग जाए। यदि किसी के बीच किसी सौदेबाजी का विवाद हो गया है और उसको लेकर अचानक किसी की हत्या कर दी जाती है, तो पुलिस को सपना कैसे आ सकता है कि इस प्रकार की वारदात हो सकती है? ऐसी हत्या के लिए भी पुलिस को दोषी देने की प्रवृत्ति कत्तई उचित नहीं कही जा सकती। भला इसमें पुलिस की ढि़लाई कहां से आ गई? पुलिस भला इस हत्या को कैसे रोक सकती थी? रहा सवाल हत्या के बाद पुलिस की भूमिका का तो उसने त्वरित कार्यवाही करके लाश का पता लगा लिया और दो आरोपियों को गिरफ्तार भी कर लिया। इतना ही नहीं उसने कानून-व्यवस्था के मद्देनजर तब हत्या के तथ्य को उजागर नहीं किया, जब तक कि लाश नहीं मिल गई। पुलिस को शाबाशी देना तो दूर, उसे गाली बकने की हमारी आदत सी बन गई है। इससे पुलिस अपना कर्तव्य निर्वहन करने को बाध्य हो न हो, हतोत्साहित जरूर होती है। माना कि विपक्ष को दबाव बनाने के लिए इस प्रकार विरोध जताना पड़ता है, मगर ऐसी हत्या, जिसके लिए न तो पुलिस जिम्मेदार है, न कानून-व्यवस्था और न ही गृहमंत्री, पुलिस को दोषी ठहाराना व गृहमंत्री के इस्तीफे की मांग करना हमारी इस प्रवृत्ति को उजागर करता है कि हंगामा करना ही हमारा मकसद है, हालात से हमारा कोई लेना-देना नहीं है। सवाल ये उठता है कि क्या भाजपा के राज में इस प्रकार ही हत्याएं नहीं हुईं? हालांकि तब कांग्रेस ने भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति का इजहार किया था, लेकिन न तो तब के गृहमंत्री ने इस्तीफा दिया और न ही इस सरकार के गृहमंत्री इस्तीफा देने वाले हैं, मगर हमारी आदत है, इस्तीफा मांगने की सो मांगेगे। अकेले राजनीतिक लोग ही नहीं, हमारे मीडिया वाले भी कभी-कभी इस प्रकार की गैरजिम्मेदार हरकत कर बैठते हैं। गुरुवार को जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सिनोदिया गांव में भंवर सिनोदिया के पिता विधायक नाथूराम सिनोदिया व परिजन को सांत्वना देने पहुंचे तो एक मीडिया वाले यह सवाल दाग दिया कि पहले बीकानेर में युवक कांग्रेस नेता की हत्या और अब विधायक पुत्र की हत्या को आप किस रूप में लेते हैं? एक अन्य ने पूछा कि क्या इससे ऐसा नहीं लगता कि प्रदेश में कानून-व्यवस्था बिगड़ गई है? जाहिर तौर पर गहलोत को यह कहना पड़ा कि क्राइम तो क्राइम है, इसका राजनीतिक अर्थ नहीं होता। सवाल ये उठता है कि हम सवाल पूछते वक्त ये ख्याल क्यों नहीं रखते कि ऐसे सवाल का क्या उत्तर आना है? अगर एक ही मामले में राजनीतिक रंजिश के कारण कांग्रेसियों की हत्या होती तो समझ में आ सकता था कि यह सवाल जायज है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि हम केवल कुछ पूछने मात्र के लिए ऐसे सवाल दागते हैं।
बहरहाल, अब जब कि जांच ओएसजी को दी जा चुकी है, उम्मीद की जानी चाहिए कि हत्या के पीछे अकेले व्यक्तिगत या व्यापारिक रंजिश थी, या फिर इसके पीछे कोई राजनीतिक द्वेषता थी, इसका पता लग जाएगा। वैसे पुलिस अब ज्यादा सतर्क होना पड़ेगा, क्योंकि जिस प्रकार विधायक के जवान बेटे की हत्या की गई है, उससे प्रतिहिंसा की आशंका तो उत्पन्न होती ही है।
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