तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, अगस्त 02, 2012

डॉ. शर्मा संभालेंगे पूरे देश में निशुल्क दवा योजना?


ऐसी चर्चा सुनने में आ रही है कि राजस्थान में मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना को लागू करने में अहम भूमिका निभाने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कारपोरेशन के प्रबंध निदेशक डॉ. समित शर्मा को यह योजना पूरे देश में लागू किए जाने की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। हालांकि राजस्थान में इस योजना को लागू करने के साथ कुछ विसंगतियां अब भी मौजूद हैं। साथ ही यह उतनी लोकप्रिय नहीं हो पाई, जितनी कि उम्मीद थी, मगर उसके लिए मूलत: योजना की कमी की बजाय अन्य कारकों को जिम्मेदार माना जा रहा है। अर्थात मोटे तौर पर योजना को सफल ही माना जा रहा है।
चूंकि योजना का खाका डॉ. शर्मा ने ही तैयार किया है और वे ही इसकी देखरेख कर रहे हैं, इस कारण केन्द्र सरकार पूरे देश में इसे लागू करवाने में उनकी मदद लेने की सोच रही है। इसी सिलसिले में केन्द्र सरकार के निर्देश पर पिछले दिनों उत्तरप्रदेश व महाराष्ट्र के मुख्य सचिवों के साथ हुई बैठक को इसे अमलीजामा पहनाने की दिशा में एक कदम माना जा रहा है।
शर्मा साहब, जरा इस पर भी गौर करिये-
बेशक यह योजना अपने आप में अनूठी है और किसी भी सरकार के लिए इससे बड़ी लोकहितकारी योजना नहीं हो सकती, मगर वर्षों से दवा माफियाओं के चंगुल में फंसा मेडिकल व्यवसाय अब भी इसमें बाधक बना हुआ है। इस महत्वाकांक्षी योजना का सबसे उल्लेखनीय पहलु ये है कि सरकार लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया के कुप्रचार से नहीं निपट पाई है। आपको याद होगा कि योजना से पहले जब सरकार ने डॉक्टरों को जेनेरिक दवाई ही लिखने के लिए बाध्य किया, तब भी माफिया के निहित स्वार्थों के कारण उस पर ठीक से अमल नहीं हो पाया था। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी चला रखी है। कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर अब भी इसी ढर्ऱे पर चल रहे हैं कि वे सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहे हैं और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी।
असल में शुरू से यह कुप्रचार किया जाता रहा कि जेनेरिक दवाई सस्ती भले ही हो, मगर वह ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले घटिया है और उससे मरीज ठीक नहीं हो पाता। यह धारणा आज भी कायम है। इसकी खास वजह ये है कि सरकार के नुमाइंदे ये तो कहते रहे कि जेनेरिक दवाई अच्छी होती है, मगर आम जनता में उसके प्रति विश्वास कायम करने के कोई उपाय नहीं किए गए। इसी कारण दवा माफिया का दुष्प्रचार अब भी असर डाल रहा है।
हालांकि योजना से लोगों को काफी राहत मिली है, लेकिन अब भी इसकी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पाई है। यह आशंका शुरू से थी कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? ये आशंकाएं सही ही निकलीं। सरकार यह सोच रही थी कि जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं, मगर जरूरत के मुताबिक दवाइयां उपलब्ध न करवा पाने के कारण वह सोच धरी रह गई है। हालत ये है कि मरीज अस्पताल में लंबी लाइन में लग कर पर्ची लिखवाने के बाद सरकारी स्टोर पर जाता है तो उसे छह में से चार दवाइयां मिलती ही नहीं। मजबूरी में उसे बाजार में जाना पड़ता है और वहां उसे ब्रांडेड दवाई ही खरीदनी पडती है।
एक छिपा हुआ तथ्य ये भी है कि जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने का दावा भले ही जोरशोर से किया जा रहा हो, मगर असल स्थिति ये है कि टेंडर के जरिए दवा कंपनियों को दिए गए आदेश को लेकर उठे सवालों पर सरकार चुप्पी साधे बैठी है। ऐसे में यह सवाल तो कायम ही है कि जो कंपनी राजनीतिक प्रभाव अथवा कुछ ले-दे कर आदेश लेने में कामयाब हुई है, वह दवाई बनाने के मामले में कितनी ईमानदारी बरत नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, जुलाई 29, 2012

टीम अन्ना : मीठा मीठा गप, कड़वा-कड़वा थू


मीडिया हकीकत दिखाए तो टीम अन्ना को बर्दाश्त नहीं
अब तक तो माना जाता था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा की घोर प्रतिक्रियावादी संगठन हैं और उन्हें अपने प्रतिकूल कोई प्रतिक्रिया बर्दाश्त नहीं होती, मगर टीम अन्ना उनसे एक कदम आगे निकल गई प्रतीत होती है। मीडिया और खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर उसकी तारीफ की जाए अथवा उसकी गतिविधियों को पूरा कवरेज दिया जाए तो वह खुश रहती है और जैसे ही कवरेज में संयोगवश अथवा घटना के अनुरूप कवरेज में कमी हो अथवा कवरेज में उनके प्रतिकूल दृश्य उभर कर आए तो उसे कत्तई बर्दाश्त नहीं होता।
विभिन्न विवादों की वजह से दिन-ब-दिन घट रही लोकप्रियता के चलते जब इन दिनों दिल्ली में चल रहे टीम अन्ना के धरने व अनशन में भीड़ कम आई और उसे इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने दिखाया तो अन्ना समर्थक बौखला गए। उन्हें तब मिर्ची और ज्यादा लगी, जब यह दिखाया गया कि बाबा रामदेव के आने पर भीड़ जुटी और उनके जाते ही भीड़ भी गायब हो गई। शनिवार को हालात ये थी कि जब खुद अन्ना संबोधित कर रहे थे तो मात्र तीस सौ लोग ही मौजूद थे। इतनी कम भीड़ को जब टीवी पर दिखाए जाने लगा तो अन्ना समर्थकों ने मीडिया वालों को कवरेज करने से रोकने की कोशिश तक की।
टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी तो इतनी बौखलाई कि उन्होंने यह आरोप लगाने में जरा भी देरी नहीं की कि यूपीए सरकार ने मीडिया को आंदोलन को अंडरप्ले करने को कहा है। उन्होंने कहा कि इसके लिए केंद्र सरकार ने बाकायदा चि_ी लिखी है। उसे आंदोलन से खतरा महसूस हो रहा है।  ऐसा कह कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि टीम अन्ना आंदोलन धरातल पर कम, जबकि टीवी और सोशल मीडिया पर ही ज्यादा चल रहा है। यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि टीवी और सोशल मीडिया के सहारे ही आंदोलन को बड़ा करके दिखाया जा रहा है। इससे भी गंभीर बात ये कि जैसे ही खुद के विवादों व कमजोरियों के चलते आंदोलन का बुखार कम होने लगा तो उसके लिए आत्मविश्लेषण करने की बजाया पूरा दोष ही मीडिया पर जड़ दिया। ऐसा कह कर उन्होंने सरकार को घेरा या नहीं, पर मीडिया को गाली जरूर दे दी। उसी मीडिया को, जिसकी बदौलत आंदोलन शिखर पर पहुंचा। यह दीगर बात है कि खुद अपनी घटिया हरकतों के चलते आंदोलन की हवा निकलती जा रही है। ऐसे में एक सवाल ये उठता है कि क्या वाकई मीडिया सरकार के कहने पर चलता है? यदि यह सही है तो क्या वजह थी कि अन्ना आंदोलन के पहले चरण में तमाम मीडिया अन्ना हजारे को दूसरा गांधी बताने को तुला था और सरकार की जम की बखिया उधेड़ रहा था? हकीकत तो ये है कि मीडिया पर तब ये आरोप तक लगने लगा था कि वह सुनियोजित तरीके से अन्ना आंदोलन को सौ गुणा बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है।
मीडिया ने जब अन्ना समर्थकों को उनका आइना दिखाया तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बौखलाते हुए मीडिया को जम कर गालियां दी गईं। एक कार्टून में कुत्तों की शक्ल में तमाम न्यूज चैनलों के लोगो लगा कर दर्शाया गया कि उनको कटोरों में सोनिया गांधी टुकड़े डाल रही है। मीडिया को इससे बड़ी कोई गाली नहीं हो सकती।
एक बानगी और देखिए। एक अन्ना समर्थक ने एक न्यूज पोर्टल पर इस तरह की प्रतिक्रिया दी है:-
क्या इसलिए हो प्रेस की आजादी? अरे ऐसी आजादी से तो प्रेस की आजादी पर प्रतिबन्ध ही सही होगा । ऐसी मीडिया से सडऩे की बू आने लगी है। सड़ चुकी है ये मीडिया। ये वही मीडिया थी, जब पिछली बार अन्ना के आन्दोलन को दिन-रात एक कर कवर किया था। आज ये वही मीडिया जिसे सांप सूंघ गया है। ये इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की कुछ लोग इस देश की भलाई के लिए अपना सब कुछ छोड़ कर लगे है, वही हमारी मीडिया पता नहीं क्यों सच्चाई को नजरंदाज कर रही है। इससे लोगों का भ्रम विश्वास में बदलने लगा है। कहीं हमारी मीडिया मैनेज तो नहीं हो गई है? अगर मीडिया आम लोगों से जुडी सच्चाई, इस देश की भलाई से जुड़ी खबरों को छापने के बजाय छुपाने लगे तो ऐसी मीडिया का कोई औचित्य नहीं। आज की मीडिया सिर्फ पैसे के ही बारे में ज्यादा सोचने लगी है। देश और देश के लोगों से इनका कोई लेना-देना नहीं। आज की मीडिया प्रायोजित समाचार को ज्यादा प्राथमिकता देने लगी है।
रविवार को जब छुट्टी के कारण भीड़ बढ़ी और उसे भी दिखाया तो एक महिला ने खुशी जाहिर करते हुए तमाम टीवी चैनलों से शिकायत की वह आंदोलन का लगातार लाइट प्रसारण क्यों नहीं करता? गनीमत है कि मीडिया ने संयम बरतते हुए दूसरे दिन भीड़ बढऩे पर उसे भी उल्लेखित किया। यदि वह भी प्रतिक्रिया में कवरेज दिखाना बंद कर देता तो आंदोलन का क्या हश्र होता, इसकी कल्पना की जा सकती है।
कुल मिला कर ऐसा प्रतीत होता है कि टीम अन्ना व उनके समर्थक घोर प्रतिक्रियावादी हैं। उन्हें अपनी बुराई सुनना कत्तई बर्दाश्त नहीं है। यदि यकीन न हो तो सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जरा टीम अन्ना की थोड़ी सी वास्तविक बुराई करके देखिए, पूरे दिन इसी काम के लिए लगे उनके समर्थक आपको फाड़ कर खा जाने तो उतारु हो जाएंगे।
वस्तुत: टीम अन्ना व उनके समर्थक हताश हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि जिस आंदोलन ने पूरे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था, आज उसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी कम क्यों हो रही है।

-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

गुटके पर पाबंदी : जम कर मची है लूट

एक आधुनिक कहावत है कि दूध के फटने पर वे ही दुखी होते हैं, जिन्हें फटे दूध से पनीर बनाना नहीं आता। अर्थात दुखी वे ही होते हैं, जिन्हें विपरीत परिस्थिति में भी अपने अनुकूल रास्ता निकालना नहीं आता। प्रदेशभर में गुटके पर एक झटके में लगाई गई पाबंदी के संदर्भ यह एकदम फिट बैठती है।
जैसे ही सरकार ने बिना किसी पूर्व सूचना के गुटके पर पाबंदी लगाई थी तो जहां इसका स्वागत हुआ, वहीं कच्चे माल व तैयार माल की खपत करने से पहले रोक एक तानाशाहीपूर्ण कदम प्रतीत हो रहा था। बात थी भी तर्क संगत। यदि सरकार को यह निर्णय करना था तो पहले गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियों को उत्पादन बंद करने का समय देती, स्टाकिस्टों को माल खत्म करने की मोहलत देती तो बात न्यायपूर्ण होती, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया। सवाल ये था कि तम्बाकू मिश्रित गुटका बनाने वाली फैक्ट्रियों में जमा सुपारी, कत्था व तंबाकू का क्या होगा? इन फैक्ट्रियों में काम करने वाल मजदूरों का क्या होगा? स्टाकिस्टों और होल सेलर्स के पास जमा माल का क्या होगा? रिटेलर्स के पास रखे माल को कहां छिपाया जाएगा?
यही वजह रही कि पाबंदी लगने पर जैसे ही छापामारी हुई तो व्यापारी तबका उद्वेलित हो उठा। उसने विरोध प्रदर्शन भी किया और सरकार से अपना माल निकालने की मोहलत भी मांगी। मगर दूसरे ही दिन व्यापारी शांत हो गया। संभावना ये थी कि इस निर्णय को चुनौती देने के लिए व्यापारी तबका कोर्ट में जाएगा, इसी कारण सरकार की ओर से हाईकोर्ट में केवीएट भी लगाई, ताकि स्थगनादेश से पहले उनके पक्ष को भी सुना जाए। मगर हुआ कुछ नहीं। व्यापारी चुप हो गया।
सवाल ये उठता है कि आखिर व्यापारी अचानक शांत क्यों हो गया? जो व्यापारी माल निकालने की मोहलत मांग रहा था, उसने माल का क्या किया? साफ है कि उसने अपने लिए हुए अभिशाप स्वरूप निर्णय को वरदान में तब्दील करने की युक्ति अपना ली। अपना माल निकालने की मोहलत उसने इस कारण मांगी थी कि वह इंस्पैक्टर राज को दिए जाने वाले हिस्से से बचना चाहता था। वह जानता था कि पाबंदी के चलते सरकारी अधिकारी उसे परेशान करेंगे। जहां सख्त अधिकारी माल नष्ट करेंगे, वहीं व्यावहारि अधिकारी माल नष्ट न करने की एवज में हिस्सा मांगेगे। जब उसे लगा कि सरकार मानने वाली नहीं है तो उसने तुरंत पैंतरा बदला। उसे अधिकारियों से समझौता करने में ही भलाई दिखाई दी। आज हालत ये है कि वह बेहद खुश है। खुशी का पैमाना गोदाम में रखे माल के अनुपात से जुड़ा है। जिसके पास जितना ज्यादा माल है, वह उतना ही खुश है। अधिकारियों से सैटिंग करने भर की परेशानी है, बाकी मजे ही मजे हैं। इस वक्त बाजार में गुटका कहीं नजर नहीं आ रहा, मगर वह धड़ल्ले से बिक भी रहा है। डेढ़ या दोगुने भाव से। यानि कि व्यापारी के तो मजे हो गए। जो व्यापारी पाबंदी लगते ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मुर्दाबाद के नारे लगा रहा था, वह अब मन ही मन गहलोत को दुआ दे रहा होगा। उस पर कुछ इसी तरह की खुशी चंद माह पहले तब भी बरसी थी, जब पोलीथिन पैक वाला गुटका बंद हुआ था। तब भी जम कर ब्लैक हुई। छोटे से बड़े हर व्यापारी ने अपनी अपनी हैसियत के हिसाब से कमाया। जाहिर सी बात है कि अधिकारियों ने भी जम कर लूटा। ताजा प्रकरण को एक अर्थ में देखा जाए तो खुद सरकार ने ही एक झटके में रोक लगा कर ब्लैक मार्केटिंग को बढ़ावा देने का कदम उठाया है। मजे की बात ये है कि व्यापारी के लिए दाम बढ़ाने के पीछे गले उतरने वाला तर्क भी है। उसका कहना है कि जब वह छापे की कार्यवाही के खतरे को मोल ले रहा है तो कमाने का मौका क्यों छोड़ेगा।
ताजा जानकारी ये है कि अब बाजार में सादा पान मसाला और उसके साथ तंबाकू के पाउच का इंतजार किया जा रहा है, चूंकि उस पर कोई रोक नहीं है। हालांकि सादा पान मसाला पर भी रोक की आवाज उठ रही है, जैसे झारखंड सरकार ने हाल ही निर्णय किया है। फैक्ट्री वाले पता लगा रहे हैं कि कहीं सरकार सादा पान मसाले पर भी तो रोक नहीं लगा देगी। जैसे ही उन्हें यकीन हो जाएगा कि सरकार रोक नहीं लगाएगी, वे सादा पान मसाला के साथ तंबाकू का पाउच बाजार में ले आएंगे। फिलहाल तो पुराने माल से ही ज्यादा से ज्यादा चांदी काटने में लगे हुए हैं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जुलाई 25, 2012

बैंसला की खिलाफत के चलते नहीं होगी एकजुटता


गुर्जर समाज को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर गुर्जर संयुक्त आरक्षण संचालन समिति के बैनर तले समाज को एकजुट करने का प्रयास यूं तो बड़ा साफ सुथरा प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति विशेष की बजाय सामूहिक नेतृत्व पर जोर दिया जा रहा है, मगर साथ ही अब तक आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की खिलाफत के चलते एकजुटता होती नजर नहीं आ रही है।
इसका नजारा हाल ही पुष्कर सरोवर के तट पर स्थित वीर गुर्जर घाट पर आयोजित जिला स्तरीय बैठक में ही नजर आ गया। एक तो इसमें पर्याप्त संख्या में समाज बंधु उपस्थित नहीं हुए, दूसरा बैंसला के खिलाफत किए जाने से बैठक में मौजूद आधे से अधिक बैंसला समर्थक समाज बंधु बैठक का बहिष्कार कर लौट गए।
ज्ञातव्य है कि गुर्जर समाज को आरक्षण दिलाने की मांग को लेकर गुर्जर संयुक्त आरक्षण संचालन समिति के बैनर पर किए जाने वाले आंदोलन से पूर्व समाज बंधुओं को संगठित करने के मुख्य उद्देश्य से प्रदेश के सभी जिलों में 21 जुलाई से 22 अगस्त तक जिलास्तरीय बैठक आयोजित की जा रही है। इसी क्रम में अजमेर जिले के समाज बंधुओं की दूसरी बैठक पूर्व विधायक अतर सिंह भड़ाना की अगुवाई में पुष्कर में आयोजित की गई। वक्ताओं ने आरक्षण की मांग को लेकर पूर्व में किए गए आंदोलन की विफलता के लिए सीधे तौर पर किरोड़ी सिंह बैंसला को जिम्मेदार ठहराया तथा उन पर जमकर बरसे। वक्ताओं ने बैंसला को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि बैंसला सिर्फ सरकार से समझौता करते आ रहे हैं। अब समझौता नहीं फैसला होगा। यही नहीं वक्ताओं ने कहा कि आंदोलन किसी एक नेता का नहीं है, बल्कि पूरे समाज का है। पूर्व विधायक भडाना का कहना रहा कि पूर्व में गुर्जरों के आरक्षण दिलाने के लिए बड़े आंदोलन हुए, लेकिन एक व्यक्ति विशेष के फैसले की वजह से हम हार गए। मगर अब पूरे देश में उग्र आंदोलन होगा। जिसका आगामी 5 सितंबर को सिकंदरा में होने वाली समाज की महापंचायत में आगाज किया जाएगा।
भडाना की बात कहने-सुनने में तो सही लगती है, मगर यदि ऐसा बैंसला को निशाने पर रख कर किया जाता है तो एकजुटता की उम्मीद उतनी ही कम हो जाती है। उलटा इससे फूट और बढ़ेगी। भले ही यह बात सही हो कि बैंसला के कुछ गलत निर्णयों के कारण समाज को सफलता हासिल नहीं हुई, मगर साथ ही यह भी सच है कि आंदोलन को परवान चढ़ाने में उनकी अहम भूमिका रही है और उसे एक झटके में नकारा नहीं जा सकता। आज भी बैंसला में यकीन करने वालों की बड़ी भारी तादात है। अगर बैंसला से बात करके उन्हें शामिल करते हुए सामूहिक नेतृत्व की बात की जाती है तो संभव है समाज अपने लक्ष्य को हासिल कर ले।
समाज के ताजा हालात पर गहरी नजर डालें तो बेशक इसके पीछे राजनीतिक महत्वाकांक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है, मगर कहीं न कहीं इसके लिए खुद बैंसला भी जिम्मेदार हैं। शुरू में वे एक सशक्त सामाजिक नेता के रूप में उभर कर आए थे, जिससे समाज को भारी उम्मीदें थीं। उनका अक्खड़ और अडियल रुख भी समाज को बहुत रास आ रहा था। समाज को लग रहा था कि वे कोई राजनीति नहीं कर रहे हैं, इस कारण समाज को आरक्षण का लाभ मिल जाएगा। मगर चूंकि वे राजनीतिक चालबाजियों से अनभिज्ञ थे, इस कारण जल्द ही राजनीति की दलदल में फंस गए। पहले पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने गुर्जरों को वोट बैंक हासिल करने के लिए उन्हें अपना मोहरा बनाया। वे भी चक्कर में आ गए। अपने जवानों को शहीद करवाया और ऐसा आरक्षण हासिल किया, जो प्रत्यक्षत: तो ऐसा दिखता था कि कोई बहुत बड़ा गढ़ जीत लिया हो, मगर उसमें अनेक प्रकार की कानूनी अड़चनें थीं। वहां तक भी बात ठीक थी, लेकिन जैसे ही उन्होंने जाट नेता ज्ञानप्रकाश पिलानिया का इतिहास दोहराते हुए भाजपा में शामिल होने का कदम उठाया, उनका कद छोटा हो गया। आमतौर पर कांग्रेस विचारधारा के साथ चलने वाले गुर्जर उनसे नजदीकी रखने से कतराने लगे।
पिछले दिनों जब बैंसला ने दुबारा आंदोलन शुरू किया तो उन पर पूर्व में किए गए आंदोलन को सिरे तक पहुंचाने का सामाजिक दबाव बना हुआ था। इधर सरकार की मजबूरी ये है थी कि वह हाईकोर्ट की ओर से सीमा से अधिक आरक्षण पर उठाए गए सवाल की वजह से किंकर्तव्यविमूढ़ थी, जबकि गुर्जर समाज को किसी भी हालत में आरक्षण चाहिए था। बैंसला इन दोनों स्थितियों के बीच फंसे हुए थे।
चूंकि बैंसला भाजपा में शामिल हो चुके थे, इस कारण कांग्रेसियों को भारी परेशानी थी, मगर सामाजिक दबाव की मजबूरी के चलते कांगे्रस विचारधारा के गुर्जरों को भी समर्थन देना पड़ा। इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति थी। वे जानते थे कि यदि कर्नल बैंसला को सफल होने से रोकते हैं तो समाज खिलाफ हो जाएगा, मगर दूसरी ओर बैंसला का साथ देकर अपनी राजनीति भी खत्म नहीं करना चाहते थे। उधर सरकार हाईकोर्ट की आड़ लेकर आंदोलन को लंबा खिंचवाने लगी। उसका आकलन था कि जैसे ही आंदोलन लंबा खिंचेगा, उसके कमजोर होने की संभावना बढ़ जाएगी। बैंसला को भी लग रहा था कि और अधिक समय गंवाया तो आंदोलन बिखर जाएगा। इस बीच गृह मंत्री शांति धारीवाल ने भी पैंतरा चला। कि सरकार की ओर से दिया जा रहा पैकेज मंजूर करने पर ही अन्य मांगें पूरी की जाएंगी। विशेष रूप से पूर्व में हुए आंदोलन के दौरान दर्ज मुकदमों को वापस लेने की मांग की आड़ में  सरकार दबाव बनाना चाह रही थी। जाहिर तौर पर कर्नल बैंसला पर यह दबाव रहा कि वे आरक्षण दिलवाने के साथ पूर्व के मुकदमों से भी मुक्ति दिलवाएं। यदि सरकारी पैकेज को मंजूर करते हैं तो आंदोलन का रुख सरकार के बताए तरीके की ओर मुड़ जाता है। हुआ भी यही। उन्हें एक प्रतिशत आरक्षण पर हां भरनी पड़ी। इसी के साथ उनका भाजपा से इस्तीफा देना भी चौंकाने वाला रहा। जाहिर तौर पर यह किसी गुप्त समझौते का ही प्रतिफल माना जा सकता है।
हालांकि बैंसला ने यह समझौता अपनी खाल बचाने के लिए किया और कानूनी बाध्यताओं में इससे ज्यादा मिल भी नहीं सकता था, मगर एक प्रतिशत आरक्षण से नाराज गुर्जर नेताओं ने बैंसला पर आरोप जड़ दिया है कि उन्होंने स्वार्थ की खातिर ऐसा किया है। उनका कहना है कि बैंसला ने दोनों सरकारों से किए तीन समझौतों में से एक में अपनी गरीबी दूर की, दूसरे में भाजपा में शामिल  हो कर लोकसभा चुनाव का टिकट लिया, समधी को देवनारायण बोर्ड में और एक रिश्तेदार ब्रह्मसिंह गुर्जर को राजस्थान लोक सेवा आयोग में नियुक्ति दिलवाई और तीसरे में अपनी बेटी सुनीता को कांग्रेस की ओर से राज्यसभा का टिकट दिलवाना तय किया है। बैंसला पर समाज का लाखों रुपया हजम करने का भी आरोप लगाया गया।  कुल मिला कर ताजा गुर्जर आंदोलन की परिणति ये रही है कि बैंसला ने अपनी साख पर बट्टा लगवा लिया है, भले ही कोई निजी लाभ हासिल कर लिया हो। दूसरा ये कि आंदोलन दो फाड़ हो गया है। समाज का दूसरा धड़ा आंदोलन को सामूहिक नेतृत्व में जारी रखने पर आमादा है। देखना ये है कि बैंसला का विरोध करने के चलते इस सामूहिक नेतृत्व के प्रति समाज अपना विश्वास जाहिर करता है अथवा नहीं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

ये वही संगमा हैं, जो सोनिया से माफी मांग चुके हैं


देश के इतिहास में कदाचित पहली बार राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद के चुनाव में इतनी छीछालेदर हुई है। हालांकि चुनाव की सीधी टक्कर में पी ए संगमा को स्वाभाविक रूप से चुनाव प्रचार के दौरान बयानबाजी करने का अधिकार था, मगर उन्होंने जिस तरह स्तर से नीचे जा कर प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी पर हमले किए, उससे दुनिया का यह सबसे बड़ा लोकतंत्र शर्मसार हुआ है। अफसोसनाक बात है कि लोकतंत्र के तहत मिले अधिकारों का उपयोग करते हुए वे अब भी इस चुनाव को लेकर सियापा जारी रखे हुए हैं। वे जानते हैं कि होना जाना कुछ नहीं है, मगर कम से कम मीडिया की हैड लाइंस में तो बने ही रहेंगे।
 असल में वे जानते थे कि नंबर गेम में वे कहीं नहीं ठहरते, बावजूद इसके मैदान में उतरे और वास्तविकता के धरातल को नजरअंदाज कर किसी चमत्कार से जीतने का दावा करते रहे। न वह चमत्कार होना था और न हुआ, मगर राष्ट्रपति पद जैसे अहम चुनाव को जिस तरह से नौटंकी करते हुए उन्होंने लड़ा, उससे न केवल इस पद की गरिमा पर आंच आई, संगमा का घटियापन भी उभर आया। कभी घटिया बयानबाजी तो कभी ढ़ोल बजाते हुए चुनाव प्रचार के लिए निकल कर उन्होंने इस चुनाव को पार्षद के चुनाव सरीखा कर दिया। माना कि भारत की राजनीति में जातिवाद का बोलबाला है और जाति समूह को संतुष्ट करने की कोशिशें की जाती रहीं हैं, मगर संगमा ने इसे एक आदिवासी को राष्ट्रपति पद पर पहुंचाने की मुहिम बना कर नए पैमाने बनाने की कुत्सित कोशिश की। और यही वजह रही कि विपक्षी गठबंधन एनडीए के कई घटकों तक ने उन्हें समर्थन देना मुनासिब नहीं समझा।
असल में संगमा इससे पहले भी अपनी स्वार्थपरक और घटिया सोच का प्रदर्शन कर चुके हैं। स्वार्थ की खातिर राजनीति में लोग किस कदर गिर जाते हैं, इसका नमूना वे पहले भी पेश कर चुके हैं। कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा बना कर लंबी-चौड़ी बहस करने वाले और फिर सिर्फ इसी मुद्दे पर कांग्रेस से अलग हो कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले संगमा ने सोनिया से बाद में जिस तरह से माफी मांगी, कदाचित उन्हीं जैसों के लिए थूक कर चाटने वाली कहावत बनी है। उन्होंने न केवल माफी मांगी, अपितु साथ में निर्लज्जता से यह और कह दिया कि विदेशी मूल का अब कोई मुद्दा ही नहीं है। संगमा के बदले हुए रवैये को सब समझ रहे थे कि यकायक उनका हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था। उन्हें अचानक माफी मांगने की क्या सूझी थी? जाहिर है वे अपनी बेटी अगाथा संगमा को केन्द्र सरकार में मंत्री बनाए जाने से बेहद अभिभूत थे। यानि जैसे ही आपका स्वार्थ पूरा हुआ और आपके सारे सिद्धांत हवा हो गए।
संगमा के बयान से सवाल उठता है कि क्या कभी इस तरह मुद्दे समाप्त होते हैं। मुद्दा समाप्त कैसे हो गया, वह तो मौजूद है ही न। चलो एक बार सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनीं, कल कोई और विदेशी मूल का व्यक्ति बन सकता है। तब भी तो आपकी विचारधारा वाले सवाल उठाएंगे। यानि कि मुद्दा समाप्त नहीं होगा। मुद्दा तो जारी ही है, तभी तो केवल सोनिया का विरोध करके कांग्रेस से अलग होने के बाद अब भी कांग्रेस से अलग ही बने हुए हैं। लौटे नहीं हैं। इस यूं भी समझा जा सकता है कि सोनिया के प्रधानमंत्री नहीं बनने के साथ यदि मुद्दा समाप्त हो गया है तो कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में अब कोई फर्क नहीं रह गया है। केवल सोनिया को प्रधानमंत्री न बनाने की मांग को लेकर ही तो आप अलग हुए थे। जब आपकी मंशा पूरी हो गई तो आपको कांग्रेस के चले जाना चाहिए। और यह मंशा तो तभी पूरी हो गई थी। क्या बेटी के मंत्री बनने पर अक्ल आई?
वैसे अकेले संगमा ने ही नहीं, टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल ने भी राष्ट्रपति चुनाव को लेकर मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ कर बयानबाजी जारी रखी है। भले ही टीम अन्ना से जुड़े लोग तर्क के आधार पर जायज ठहराएं, मगर इससे राष्ट्रपति के गरिमापूर्ण पद पर तो आंच आई ही है। केजरीवाल आज राजनीति की गंदगी की वजह से लोकतंत्र के स्वरूप को घटिया करार दे रहे हैं, मगर ये उसी लोकतंत्र की विशालता ही है कि आप सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को गाली बक कर रहे हैं और आपका कुछ नहीं बिगड़ रहा। उलटे इतने बड़े पद हमला करके अपने आप को महान समझ रहे होंगे। और कोई तंत्र होता तो आपको गोली से उड़ा दिया जाता। अफसोस, लोकतंत्र में अभिव्यक्ति का अधिकार हमें न जाने और क्या दिखाएगा?
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

सोमवार, जुलाई 23, 2012

बच कर रहिये, बड़े धोखे हैं इंटरनेट पर


सूचना प्राद्यौगिकी और बढ़ते संचार माध्यमों के बीच एक ओर जहां पूरा विश्व एक ग्लोबल विलेज की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है और इंटरनेट पर ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन हर शख्स के लिए उपलब्ध है, वहीं दुनियाभर की बुराइयां भी उसी के साथ हमारे जीवन में प्रवेश करती जा रही हैं। यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि मनुष्य बुराई की ओर ज्यादा आकर्षित होता। यही सत्य इंटरनेट पर भी लागू होता है। इंटरनेट पर जहां इक्कीसवीं सदी तक की हर फील्ड की अपडेट जानकारी मौजूद है, वहीं दुनियाभर में सैक्स और आर्थिक अपराध की पराकाष्टा इसी पर लुभा रही है। हमारे देश की ऊर्जा से लबरेज युवा पीढ़ी को जहां दुनिया से कदम से कदम मिला कर चलने की दरकार है, वह भ्रमित हो कर इंटरनेट पर हो रही चैटिंग और कुंठित सैक्स के मार्ग पर फिसल रही है। युवा ही नहीं अधेड़ तक पथभ्रष्ट हो कर अपना समय और पैसा बर्बाद कर रहे हैं।
असल में इंटरनेट के सर्वत्र उपलब्ध होने और बढ़ते नए प्रयोगों के कारण चालाक व अपराधी किस्म के लोगों को अपनी जालसाजी फैलाने और उसमें शिकार को फंसाना आसान हो गया है। यही वजह है कि इंटरनेट पर छल-कपट दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। यदि वक्त रहते हम सचेत नहीं हुए और इंटरनेट पर व्याप्त फरेब से बचने का इंतजाम नहीं किया तो बाद में हमें बहुत पछताना होगा।
इंटरनेट पर सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी साइट खोलिये, उसमें विज्ञापनों की शक्ल में चैटिंग, खुले सैक्स और कम समय में ज्यादा कमाने के आमंत्रण मिल ही जाएंगे। उनका प्रदर्शन भी ऐसा होता है कि कोई यूजर उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहता। ऐसे विज्ञापन पर उसने क्लिक किया नहीं कि वह उसमें फंसता ही चला जाता है। नेट पर धोखा देने वाले अनगिनत प्रोग्राम मौजूद हैं, जो कम्प्यूटर उपभोक्ताओं को बेवकूफ बना कर पैसा वसूलने का काम करते हैं। इन विज्ञापनों में कहा तो यही जाता है कि आप अपने बारे में, पासवर्ड और क्रेडिट कार्ड नंबर की जो जानकारी दे रहे हैं, वह सुरक्षित है, मगर वस्तुस्थिति ये है कि वे सब जानकारियां चालाक प्रोग्रामरों तक पहुंचा दी जाती हैं, जो कि बाद में आपको नुकसान पहुंचाते हैं।
धोखा देने वाले प्रोग्राम तैयार ही इस प्रकार किए जाते हैं कि सामान्य उपभोक्ता उसके चक्कर में आ ही जाता है। मान लीजिए आपने जिज्ञासा के चलते किसी साइट का लिंक खोला तो उसमें एक पॉप-अप विंडो प्रकट हो जाता है, जो आपके कम्प्यूटर को वायरस के लिए ऑनलाइन स्कैन करता है। वह आपको बताएगा कि आपके कम्प्यूटर में वायरस हैं और आपको उन्हें हटाने के लिए एंटी वायरस की जरूरत है। और तो और वह एनीमेटेड जिप फाइल के जरिए यह भी बता देगा कि आपके सिस्टम में कितने प्रकार के वायरस हैं। जबकि वस्तुस्थिति ये होती है कि आपके सिस्टम पर कोई वासरस नहीं है। धोखे में आ कर आप एंटी वायरस को के्रडिट कार्ड के जरिए खरीद लेंगे। बाद में पता लगेगा कि वह एंटी वायरस तो पूरी तरह से फर्जी है। कुछ चालाक प्रोग्रामर आपको फ्रीवेयर प्रोग्रामों की लोकप्रियता की आड़ में यूजर्स को फंसाते हैं।
 इसी प्रकार दुनियाभर में मित्रता बढ़ाने वाले नेट वर्किंग प्रोग्रामों पर भी सैक्स रेकेट ने कब्जा कर रखा है। एक बार केवल उनको आपके ईमेल का पता लग जाए तो वे बार-बार आपको मित्रता के लिए प्रेरित करेंगे और आपको फंसा कर ही रहेंगे। वे इसके लिए मानवीय संवेदनाओं को भुनाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से जाल बुनते हैं। वे खूबसूरत लड़कियों के फोटो दिखा कर उनकी किसी परेशानी का जिक्र कर मदद करने का आग्रह करते हैं। यहां तक कि लाइफ पार्टनर बनने तक पेशकश करते हैं। विशेष रूप से सेनगल के रिफ्यूजी कैंप के जरिए अनेक लड़कियों के नाम से गोरखधंधा खूब पनप रहा है। इसमें लड़कियों के नाम से बताया जाता है कि वे एक बड़े सैन्य अधिकारी की बेटी है और युद्ध अथवा आतंकवादियों से मुठभेड़ में उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है। उनके पिता के नाम पर अमुक बैंक में इतने करोड़ रुपए जमा हैं, जिसकी उत्तराधिकारी वे अकेली हैं। मगर जब तक कोई उनका लाइफ पार्टनर न हो वह पैसा बैंक से नहीं निकाला जा सकता। ऐसा करके वे ऑफर करती हैं कि यदि वे कहने भर को भी लाइफ पार्टनर बन जाएं तो उन्हें बैंक से पैसा निकलने के बाद इतना प्रतिशत का भुगतान कर देंगी। बाकायदा संबंधित बैंक से इंटरनेट पर ही उसका वेरिफिकेशन कराया जाता है। लड़की के प्रति सहज आकर्षण और पैसे की लालच में आ कर यूजर फंस जाता है। वह लाइफ पार्टनर बन कर बैंक से संपर्क करता है। बैंक उसे किसी वकील से संपर्क करने और उसकी फीस व बैंक से विड्रॉल की फीस पहले भेजने की ऑफर देता है। फीस की राशि कम से पांच-दस लाख रुपए तक होती है, मगर यूजर उसके एवज में एक-दो करोड़ रुपए कमाने की लालच में वह पैसा नेट के जरिए अपनी बैंक से भेज देता है। बाद में पता लगता है कि न तो लड़की असली थी, न उसका सर्टिफिकेट असली था और न ही बैंक असली था। बाद में पछतावे के सिवाय कुछ नहीं बचता।
इसी प्रकार कई कॉल गल्र्स ने इंटरनेट के जरिए अपना कारोबार फैला रखा है। वे अमूमन सभी फ्रेंड नेटवर्किंग साइट्स पर मौजूद हैं और पहले चैटिंग करती हैं और उसके बाद डेटिंग तय कर आपको लूट लेती हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय साइट फेसबुक पर भी यही हाल है। यदि आपका उसमें अकाउंट है तो खूबसूरत चेहरों वाली महिलाएं आपको फें्रड रिक्वेस्ट भेजेंगी और बाद में आपसे दोस्ती बढ़ा कर आपको लूटने की कोशिश करेंगी। इनमें कई तो फर्जी अकाउंट होते हैं, जो कि संचालित तो पुरुष करते हैं और नाम फोटो महिला का होता है। इनमें अधिकतर इंडोनेशिया व चीन के हैं। इसके अतिरिक्त कई साइट्स ऐसी हैं, जहां फ्री सैक्स से संबंधित वीडियो मौजूद हैं, जिन्हें देख कर युवा पीढ़ी बर्बाद हो रही है।
अहम सवाल ये है कि इंटरनेट पर इस प्रकार की गतिविधियों पर अंकुश के लिए क्या किया गया है। सच्चाई तो ये है कि धोखाधड़ी से निपटने के लिए अभी तक कोई पुख्ता कानून बना हुआ नहीं है। विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भिन्न देशों के बीच कानूनों की भिन्नता का चालाक प्रोग्रामर फायदा उठा रहे हैं। मान लीजिए कोई धोखेबाज भारत में बैठ कर अंग्रेजी में कोई साइट बना कर उससे इंग्लैंड के लोगों को फंसाए तो इंग्लैंड में उसके खिलाफ कार्यवाही करने में अनेक कानूनी अड़चनें आ जाएंगी। ऐसी ही दिक्कते वहां भी आती हैं, जहां प्रत्यर्पण संधि नहीं है। अत: बेहतर यही है कि हम स्वयं सचेत रहें और इंटरनेट पर मौजूद फरेब के जाल से अपने आपको बचा कर रखें।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, जुलाई 20, 2012

जब प्रणब पर हमला हो रहा था, तब वसुंधरा चुप क्यों थीं?


राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों के लिए चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को लेकर की जा रही टीका टिप्पणी के चलते एक बार फिर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच जुबानी युद्ध हो गया। असल में दोनों एक दूसरे पर जुबानी हमला करने का कोई मौका नहीं चूकते, ताकि प्रदेश का राजनीतक माहौल ठंडा न पड़ जाए।
हुआ यूं कि गहलोत ने मीडिया से कहा था कि भाजपा की ऐसी दुर्गति कभी नहीं हुई कि राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के लिए भी उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं, तो प्रधानमंत्री पद के लिए कहां से लाएंगे। राष्ट्रपति पद के लिए ऐसे व्यक्ति का साथ दे रही है जो जीवनभर कांग्रेस में रहा और उसे कांग्रेस से निकाला गया हो। इसी तरह जिन जसवंत सिंह को भाजपा ने 6 साल के लिए पार्टी से निष्कासित किया हो, उन्हें उप राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया है।
इस पर पलटवार करते हुए पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कड़ा ऐतराज किया। वसुंधराराजे ने कहा कि वे लोग अब उम्मीदवार बन चुके हैं। राजनीतिक पार्टियों से अब उनका कोई संबंध नहीं रहा है। अच्छा नहीं लगता कि हम उनके बारे में इस तरह की बातें करें। विशेषकर मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार लोगों को उनके बारे में बोलना ही नहीं चाहिए। नहीं तो हम लोग भी फाइनेंस मिनिस्टर के बारे में बोलने लगेंगे तो बात कहां तक जाएगी। जिन पदों के लिए वे लोग चुनाव लड़ रहे हैं, उनका हमें सम्मान करना चाहिए। इस तरह टीका-टिप्पणी करना ठीक नहीं है।
ऐसे में भला गहलोत कहां चुप रहने वाले थे। गहलोत ने इसके जवाब में कहा कि मैंने न तो किसी पर कोई आरोप लगाया और न ही किसी का चरित्र हनन किया है। अगर मैं कहूं कि उनकी पार्टी को उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। राष्ट्रीय पार्टी होकर भी राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद के लिए कोई मेटेरियल नहीं है कि खुद अपना उम्मीदवार खड़ा कर सके। जसवंत सिंह को भाजपा ने 6 साल के लिए निष्कासित किया था, तो उन लोगों ने सोच समझकर ही निष्कासित किया होगा। मैंने तो निष्कासित किया नहीं था। निष्कासन रद्द करना अलग बात है, लेकिन उन्हें सीधे ही उप राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया। तो क्या मेरा हक नहीं है कि मैं यह कह सकूं कि उनकी पार्टी को उम्मीदवार नहीं मिल रहा है।
बेशक, संवैधानिक पदों के लिए चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के बारे में टीका-टिप्पणी करते वक्त मर्यादा का ख्याल रखा जाना चाहिए, मगर यह आचार संहिता सभी पर लागू होती है। सवाल ये उठता है कि अगर वसुंधरा को मर्यादा का इतना ही ख्याल है तो जब राष्ट्रपति पद के यूपीए उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी पर एनडीए समर्थित उम्मीदवार पी ए संगमा और टीम अन्ना के सेनापति अरविंद केजरीवाल हमला कर रहे थे, तब वे चुप क्यों रहीं? उन्होंने संगमा से ये क्यों नहीं कहा कि आप इस तरह के आरोप मुखर्जी पर न लगाएं? अच्छा नहीं लगता? केजरीवाल तो चिल्ला-चिल्ला कर मुखर्जी पर ताबड़तोड़ हमले कर रहे थे, उन्हें वसुंधरा ने नसीहत क्यों नहीं दी? सीधी-सीधी बात है, वसुंधरा गहलोत पर हमला करने का कोई भी मौका नहीं चूकतीं। आखिर जिस शख्स ने उनकी छोटी सी राजनीतिक चूक की वजह से कुर्सी छीन ली, वह और उसका बयान कैसे बर्दाश्त हो सकता है।
गौरतलब है कि खासकर जिन जसवंत सिंह को लेकर यह वाक युद्ध हुआ है, वे वही हैं जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। बाद में जातीय राजनीति की मजबूरी के चलते उन्हें वापस लिया गया था।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com