तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, अक्टूबर 07, 2012

मारवाड़ में तो शौचालय की बड़ी महिमा है


शौचालय को मंदिर से भी ज्यादा पवित्र बताने पर भले ही केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश विवादों में आ गए हों, मगर मारवाड़ में तो शौचालय की उतनी ही अहमियत है, जितनी रमेश ने बखान ही है। इस बात पर आप चौंक गए होंगे कि ऐसा कैसे हो सकता है। मगर ये सच है।
आपको बता दें कि मारवाड़ में एक कहावत है कि सौ ने खुवाया अर एक ने हंगाया को पुन बराबर है। अर्थात सौ भूखे लोगों को खिलाने से जो पुण्य हासिल होता है, उतना ही पुण्य एक आदमी को दीर्घ शंका की सुविधा उपलब्ध करवाने पर मिलता है। ऐसा इसलिए कि आदमी एक वक्त, दो वक्त बिना खाये तो रह सकता है, मगर दीर्घ शंका आने पर आधा घंटा भी नहीं रुक सकता। दीर्घ शंका के बाद मिलने वाली संतुष्टि खाने खाने के बाद की संतुष्टि से भी ज्यादा होती है। भूखे को तो फिर भी कहीं पर भी बैठा कर खिलाया जा सकता है, मगर जिसे दीर्घ शंका करनी हो, उसे तो उपयुक्त स्थान ही उपलब्ध करवाना ही होगा।
इस संदर्भ में अगर रमेश को बयान को लिया जाए तो वह ठीक ही प्रतीत होता है। मंदिर भी तो तभी स्वच्छ रहेंगे न कि जब उपयुक्त व पर्याप्त शौचालय होंगे, जो कि गंदगी को अपने में समेट लेंगे। कदाचित रमेश इसी तरह की बात कहना चाहते हों, मगर मुंह से ऐसा बयान निकल गया, जिसकी मजम्मत होनी ही थी। उनसे गलती ये हो गई कि उन्होंने सीधे सीधे मंदिर की तुलना शौचालय से कर दी, इस पर आपत्ति होना स्वाभाविक ही है। मंदिर के तथाकथित रक्षकों को ये बयान नागवार गुजरना ही था। भला आप मंदिर का अपमान कैसे कर सकते हैं, उसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है, यूं भले ही सैकड़ों मंदिर सूने पड़े हों, उनमें पुजारी न हों, तब थोड़े ही मंदिर का अपमान होता है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, सितंबर 29, 2012

केजरीवाल के हाथों ठगे गए अन्ना हजारे

टीम अन्ना के भंग होने के बाद जिस प्रकार अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने अलग-अलग राह पकड़ी है और दोनों के बीच बढ़ते मतभेद खुल कर सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि केजरीवाल ने अन्ना को अपनी ओर से तो उल्लू बनाया ही था। अपने ठगे जाने के बाद धीरे-धीरे अन्ना की पीड़ा बाहर आने लगी है। उन्हें लगता है कि पहले तो केजरीवाल ने उनके कंधों पर सवार हो कर खुद को राष्ट्रीय क्षितिज पर उभारा और अब टीम भग होने के बाद भी वे उनके नाम को भुनाने वाले हैं।
अपने ब्लॉग पर लिखे अन्ना के इस कथन में गहरी व्यथा साफ महसूस की जा सकती है कि सरकार के कई लोग सोचते थे कि टीम अन्ना को कैसे तोड़ें? सरकार के लगातार दो साल प्रयास करने के बावजूद भी टीम नहीं टूटी थी, लेकिन इस वक्त सरकार की कोशिश के बिना ही सिर्फ राजनीति का रास्ता अपनाने से टीम टूट गयी। यह इस देश की जनता के लिए दुर्भाग्य की बात है। शायद टीम टूटने के कारण सरकार के कई लोगों ने खुशी मनाई होगी।
अन्ना को लगता है कि केजरीवाल जो पार्टी बनाने जा रहे हैं, उसमें वे उनके नाम और चेहरे को भुना लेंगे, सो अभी से आगाह कर रहे हैं कि ऐसा न किया जाए। उधर केजरीवाल बड़ी चतुराई से अन्ना को अपने पिता तुल्य बता कर, दिल में बसे होने की बातें करके परोक्ष रूप से उनके नाम का लोगों की भावनाएं भुनाने की कोशिश लगातार जारी रखे हुए हैं। असल में अगर केजरीवाल की पार्टी के प्रत्याशी अन्ना के नाम व फोटो का इस्तेमाल न भी करें तब भी अन्ना की अगुवाई में जुटी कार्यकर्ताओं और समर्थकों की जमात को इस्तेमाल तो करेंगे ही। तस्वीर का एक पहलु ये भी है कि आज अन्ना को लगता है कि उनका चेहरा एक ब्रांड बन गया है तो इसे ब्रांड बनाने का काम टीम अन्ना ने ही किया है। अन्ना हों भले ही कितने ही भले और महान, मगर राष्ट्रीय स्तर पर पुजवाने का काम टीम ने ही किया था। अन्ना में खुद इतनी अक्ल कहां थी।
राजनीतिक दिशा के लिए जिम्मेदार कौन?
देश के उद्धार के लिए दूसरे गांधी के रूप में उभरे अन्ना के आंदोलन को राजनीतिक दिशा किसने दी, इस पर भी दोनों के बीच मतभेद हैं। केजरीवाल का कहना है कि पार्टी बनाने का निर्णय उनका नहीं बल्कि अन्ना हजारे का था। केजरीवाल का कहना है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी से बैठक के बाद अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का निर्णय ले लिया था। उन्होंने उसका नाम भी तय कर लिया था-भ्रष्टाचार मुक्त भारत। केजरीवाल का ये कहना है कि अन्ना ने राजनीतिक दल बनाने का मन बनाने के बाद मुझसे पूछा था कि मैं क्या सोचता हूं इस बारे में। यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी इसलिए मैंने अन्ना से सोचने के लिए थोड़ा समय मांगा था। बाद में मैं भी उनके विचार से सहमत हो गया। पार्टी बनाने पर राय लेने के लिए सर्वेक्षण करवाने का विचार अन्ना हजारे ने स्वयं ही दिया था। दूसरी ओर अन्ना कह रहे हैं कि राजनीति के रास्ते जाने वाला ग्रुप बार बार ये कहता था कि अन्ना कहें तो हम पक्ष और पार्टी नहीं बनायेंगे, लेकिन मेरे पार्टी नहीं बनाने के निर्णय के बावजूद उन्होंने पार्टी बनाने का फैसला लिया। उन्होंने इस बात का भी खंडन किया कि उन्होंने पार्टी बनाने को कहा था।
वस्तुत: अन्ना की मुहिम के राजनीति की ओर अग्रसर होने की वजह मुहिम के आखिरी अनशन के असफला रही। चूंकि टीम अन्ना के कई प्रमुख सदस्यों के आमरण अनशन पर बैठने के बावजूद सरकार ने कोई खैर खबर नहीं ली तो आंदोलन दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया। या तो आंदोलन को और लंबा खींच कर केजरीवाल सहित अन्य जानों को खतरे में डाला जाता या आंदोलन को अधर में छोड़ दिया जाता। ये दोनों की संभव नहीं थे, इस कारण स्वयं अन्ना को भी न चाहते हुए तीसरा विकल्प चुनना पड़ा और खुद को ही घोषणा भी करनी पड़ी। इसकी जहां बुद्धिजीवियों ने आलोचना की तो राजनीति की बारीकियों से अनभिज्ञ अंध अन्ना भक्तों ने सराहना। ऐसे में धरातल की सच्चाई समझते हुए अन्ना बिदक गए और केजरीवाल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते सर्वे के अनुकूल परिणाम का बहाना बना कर राजनीतिक पार्टी बनाने पर अड़ गए।
यहां दिलचस्प बात ये है कि आंदोलन से सच्चे मन से जुड़े कार्यकर्ता अपने आपको ठगा सा महसूस करते हुए भी मन को समझाने के लिए यह कह रहे हैं कि राजनीतिक पार्टी के मुद्दे को लेकर रास्ते भले ही अलग-अलग क्यों न चुन लिए हों परंतु इन दोनों का मकसद तो एक ही है। मगर सच्चाई ये है कि केवल आंदोलन के पक्षधर कार्यकर्ता भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते केजरीवाल की ओर खिंचे चले जा रहे हैं। उधर अन्ना भी अपना अस्तित्व बरकरार रखने के लिए नए सिरे से कवायद कर रहे हैं।
दोनों धाराओं की सफलता संदिग्ध
जहां तक इन दोनों धाराओं के सफल होने का सवाल है, यह साफ नजर आता है कि अलग अलग होना दोनों के लिए ही घातक रहेगा। अन्ना हजारे केलिए अपना आंदोलन फिर से उरोज पर लाना बेहद मुश्किल काम होगा। कम से कम पहले जैसा ज्वार तो उठने की संभावना कम ही है। रहा सवाल केजरीवाल का तो उनका मार्ग भी बेहद कठिन है। जिस प्रकार की आदर्शवादी बातें कर रहे हैं, उनके चलते उनकी मुहिम धूल में ल_ चलाने जैसी ही होती प्रतीत होती है। वे तब तक कुछ सफलता हासिल नहीं कर पाएंगे, जबकि राजनीतिक हथकंडे नहीं अपनाते, जिनका कि वे शुरू से विरोध करते रहे हैं।
कुल मिला कर कल तक देश की राजनीतिक दशा-दिशा बदलने का दावा करने वाले आज खुद दिशाहीन नजर आ रहे हैं। भोले भाले अन्ना केजरीवल के हाथों ठगे जा चुके हैं। अन्ना को अगर थोड़ा चतुर मान भी लिया जाए तो इस अर्थ में कि जैसे ही उन्हें अपने ठगे जाने का अहसास हुआ, अपने आप को अलग कर लिया। मगर वे उस गन्ने की तरह हो गए हैं, जो कि चूसा जा चुका है।
-तेजवानी गिरधर

आडवाणी ने दिखा दिया भाजपा को आइना


भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सूरजकुंड (फरीदाबाद) में भाजपा कार्यसमिति व कार्यपरिषद की तीन दिवसीय बैठक के समापन समारोह में पार्टी नेताओं को पार्टी की मौजूदा हालत का आइना दिखा दिया। उन्होंने कहा कि लोग भाजपा को कांग्रेस का स्वभाविक विकल्प नहीं मान रहे। हालांकि राजनीतिक माहौल कांग्रेस के खिलाफ है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का विकल्प बनने के लिए भाजपा में ईमानदारी और एकजुटता की जरूरत है। तभी लोगों का भरोसा हासिल होगा। उन्होंने कहा कि भाजपा को अपनी यूनीक सेलिंग प्वाइंट के मुताबिक खुद को ईमानदार, देशभक्त और अनुशासित पार्टी के रूप में स्थापित करना होगा। लोगों के बीच चर्चा होती है कि कांग्रेस भ्रष्टाचार में लिप्त है। पर यह बात भी होती है कि बाकी दल भी तो ऐसे ही हैं। संभव है कि भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं को उनकी यह साफगोई पसंद नहीं आई हो, मगर हकीकत यही है।
वस्तुत: भाजपा तभी तक साफ सुथरी थी, जबकि वह विपक्ष में थी। जब तक उसे भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिला था। पार्टी विथ द डिफ्रेंस का उसका स्लोगन तभी तक सार्थक था। मगर जैसे ही वह सत्ता में आई तो  उसमें भी वही दुर्गुण प्रवेश कर गए, जो स्वाभाविक रूप से लंबे समय तक सत्ता में रही कांग्रेस में थे। उस वक्त पार्टी के नीति निर्धारकों ने दूरदृष्टि रखते हुए इस पर ध्यान नहीं दिया। उन्हीं दुर्गुणों के कारण वह सदैव कांगे्रस को निशाने पर रखती थी। उसकी बात लोगों को गले भी उतरती थी। मगर सत्ता के साथ दहेज में आने वाली बुराइयों से भाजपा बच नहीं पाई। कांग्रेसी तो चलो लंबे समय से भ्रष्टाचार कर रहे थे, इस कारण उसमें उतावलापन नहीं था, मगर भाजपा नेता तो ऐसे टूट पड़े, जैसे लंबे समय से भूखा-प्यासा खाने -पीने पर टूट पड़ता है। कांग्रेस पर चूंकि भ्रष्टाचार का लेबल लगा हुआ था, इस कारण जब भी कोई कांग्रेस की आलोचना करता तो कोई चौंकता नहीं था, मगर चूंकि भाजपाई साफ-सुथरे रहे, इस कारण उनकी सफेद कमीज पर थोड़ा सा भी दाग उभर कर साफ नजर आ रहा था। कांग्रेस कभी अपने आप को बेहद ईमानदार होने का दावा नहीं करती थी, मगर चूंकि भाजपा एक मात्र इसी दावे के आधार पर जनता का दिल जीत कर सत्ता में आई तो उसकी थोड़ी सी बेईमानी भी लोगों को बेहद बुरी लगी। इस के अतिरिक्त किसी समय में भाजपा को सर्वाधिक अनुशासित पार्टी के रूप में सम्मान दिया जाता था, मगर अनुशासनहीनता के एकाधिक मामले सामने आने के बाद अब वह कांग्रेस जैसी ही नजर आती है। सच तो ये है कि कांग्रेस चूंकि परिवारवाद पर टिकी है और उसका हाईकमान वास्तविक सुप्रीमो है और उसे चैलेंज नहीं किया जा सकता, मगर भाजपा में आतंरिक लोकतंत्र के कारण अनुशासन बड़े पैमाने पर तार-तार हुआ है। वसुंधरा राजे, येदियुरप्पा जैसों का आचरण सबके सामने हैं। कुल मिला कर आडवाणी ने इसी सच को अपने शब्दों में कहा है। वे अमूमन अपने ब्लॉग पर इस प्रकार की खरी बातें लिखते रहे हैं। कई भाजपाइयों को उनका इस प्रकार लिखना नागवार गुजरता है। अब तो उन्होंने कार्यसमिति में ही इस सच से पार्टी नेताओं का साक्षात्कार करवा दिया है।
आज अगर वे इस बात पर जोर दे रहे हैं तो उसकी एक मात्र वजह ये है कि अब आम मतदाता में कांग्रेस व भाजपा में कोई खास अंतर करके नहीं देखता। अलबत्ता हिंदूवाद जरूर वह आधार है, जिस पर पार्टी टिकी हुई है। मगर आज जिस तरह से हिंदू बुरी तरह जातिवाद में बंट चुका है, वह आधार भी खिसकता जा रहा है। सच तो ये है कि वह हिंदूवाद के मामले में भी अंतरद्र्वंद्व में जी रही है। उसे समझ ही नहीं आ रहा कि वह कट्टर हिंदूवाद का झंडा लेकर चले या कुछ नरम पड़े। पार्टी साफ तौर पर दो धाराओं में बंटी हुई है। इसी कारण पर उसके ऊपर दोहरे चरित्र के आरोप लगते हैं। ऐसे में यदि वाकई उसे सर्वश्रेष्ठ साबित होना है तो उसे ईमानदार, देशभक्त और अनुशासित हो कर दिखाना ही होगा। तभी वह कांग्रेस का स्वाभाविक विकल्प बन पाएगी।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, सितंबर 28, 2012

वसुंधरा को विधानसभा चुनाव में नहीं मिलेगा फ्री हैंड


फरीदाबाद स्थित सूरजकुंड में हो रही भाजपा कार्यसमिति की बैठक में जिस प्रकार दो दिन तक राजस्थान की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की अनुपस्थिति रही और उस पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की प्रतिक्रिया यह थी कि उन्हें पता नहीं कि वे कहां हैं, साफ जाहिर है कि राजस्थान में वसुंधरा व संघ के बीच अब भी तलवारें खिंची हुई हैं। इस बीच यह भी खबर आई है कि चतुर्वेदी को आगामी विधानसभा चुनाव तक अध्यक्ष पद पर बनाए रखा जाएगा, यह भी स्पष्ट हो गया है कि भले ही वसुंधरा राजे के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए, मगर टिकट वितरण में उन्हें उतना फ्री हैंड नहीं मिलेगा, जितना कि वे चाहती हैं।
वसुंधरा व संघ के बीच खाई कितनी गहरी है, इसका अंदाजा चतुर्वेदी के बयान से ही जाहिर हो जाता है कि वे कहां हैं और कब आएंगी, कुछ पता नहीं, संवादहीनता चरम पर है। भले ही संघ के नेता यह मानते हों कि वसुंधरा के नेतृत्व में चुनाव लडऩे को राजी होना पड़ेगा, मगर वे अपनी टांग भी ऊंची ही रखना चाहते हैं। उनका एकछत्र राज उन्हें मंजूर नहीं। अर्थात अपने हिस्से की टिकटें वे ले कर ही रहेंगे। असल में यह स्थिति इस वजह से भी बनी क्योंकि वसुंधरा लंबे समय तक राजस्थान से बाहर लंदन में जा कर बैठ गईं। पीछे से संघ लॉबी को और लामबंद होने का मौका मिल गया और वसुंधरा खेमे के नेता चुप्पी साधे बैठे रहे। हालत ये हो गई कि इस दरम्यान चतुर्वेदी ने अनेक नियुक्तियां कीं और उसमें वसुंधरा खेमे को नजरअंदाज भी किया।
इससे भी महत्वपूर्ण जानकारी ये आ रही है कि भाजपा हाईकमान फिलहाल संगठन में कोई फेरबदल करने की बजाय उसे यथावत रखना चाहता है, वसुंधरा के लिए परेशानी का सबब बन जाएगा। भले ही चुनाव वसुंधरा को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके लड़ा जाए, मगर टिकट बंटवारे में संघ लॉबी पूरा दखल रखेगी। दोनों धड़ों के बीच टिकटों का अनुपात तय होने के बाद भी खींचतान की नौबत तो आने ही वाली है।
ज्ञातव्य है कि इन दिनों राजस्थान के सभी भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं की नजर इसी बात पर है कि वसुंधरा व संघ लॉबी के बीच सुलह किन शर्तों पर होती है। ताजा जानकारियों से तो वसुंधरा लॉबी को थोड़ी हताशा हो रही है, जबकि संघ लॉबी इस बात से खुश है कि वह अपनी बात मनवाने में लगभग कामयाब हो गई है। अब देखना ये है कि वसुंधरा के जयपुर आने पर कैसा माहौल रहता है? क्या ताजा समीकरणों में कोई बदलाव तो नहीं आता?
-तेजवानी गिरधर

संघनिष्ठ कर्मचारियों पर शिकंजे की खबर में किसका हाथ?


जैसे ही यह खबर छपी कि सरकार ने भाजपा, आरएसएस और इससे जुड़े संगठनों के किसी भी कार्यक्रम में भाग लेने वाले कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई की तैयारी कर ली है, भाजपा व हिंदूवादी संगठन उबल पड़े। उनका उबलना स्वाभाविक भी है। इस प्रकार की हरकतें पूर्व में कांग्रेस की सरकारें करती रही हैं, इस कारण इस प्रकार की खबर पर यकीन भी पूरा था।
जहां तक आदेश की विषय वस्तु का सवाल है, राजस्थान अधिवक्ता परिषद महामंत्री बसंत छाबा ने तो खबर छपते ही कह दिया कि सरकार के इस आदेश की कोई वैधानिकता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट और कई हाईकोर्ट ये आदेश दे चुके हैं कि आरएसएस जैसे सामाजिक संगठन की गतिविधियों में शामिल होने के आधार पर किसी कर्मचारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। जाहिर सी बात है कि इसकी जानकारी सरकारी अफसरों को भी रही होगी। अगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी इस प्रकार का सर्कूलर जारी करने को कहते तो अफसर उन्हें ऐसा न करने की ही सलाह देते। कांग्रेस पहले भी इस प्रकार की बंदिशें लागू कर झटके खा चुकी है।
दिलचस्प बात ये है कि यह खबर ही झूठी थी। इस प्रकार का कोई सर्कूलर सरकार की ओर से जारी ही नहीं किया गया था। खबर छपने के बाद सरकार ने ही इसका खुलासा कर दिया। राजस्थान पत्रिका ने तो इस आशय की खबर न छापने की क्रेडिट तक ली कि यह सर्कूलर एक सामान्य विज्ञप्ति की तरह आया था, जिसकी पुष्टि न होने के कारण उन्होंने इसे छापना मुनासिब नहीं समझा। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी ही है कि सभी विभागाध्यक्षों और कलेक्टरों को आरएसएस और भाजपा के कार्यक्रमों में शामिल होने वाले सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ तत्काल अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू करने के आदेश वाला कार्मिक विभाग का सर्कुलर किसने अखबारों के दफ्तरों तक पहुंचाया? चर्चा ये है कि यह कारस्तानी किसी संघनिष्ठ ने ही की होगी, ताकि खबर छपते ही बवाल हो और संघनिष्ठ कर्मचारी जोश में आ कर जयपुर में हो रहे संघ के राष्ट्रीय स्तर के चैतन्य शिविर में बढ़ चढ़ कर भाग लें। फर्जी आदेश छपवाने वाला यह तो जानता रहा होगा कि ऐसी खबर की पोल दूसरे दिन ही खुल जाएगी, मगर उसका मकसद यह भी हो सकता है कि कम से कम इस बहाने हिंदूवादी मुद्दा जागृत होगा। ऐसा करके यह चेतना भी नापने की कोशिश की गई कि देखें कितनी व्यापक प्रतिक्रिया होती है। प्रतिक्रिया हुई भी। हर कोई भाजपा नेता बोल उठे। संघ के प्रांत कार्यवाह डॉ. रमेश अग्रवाल ने तो छूटते ही कहा कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक जैसे जीवंत सामाजिक संगठन को सरकार के ऐसे घिसे-पिटे और पुराने आदेशों पर प्रतिक्रिया देने की आवश्यकता नहीं है। संघ के मुखपत्र पाथेय कण के संपादक कन्हैयालाल चतुर्वेदी को तो लगा कि चुनाव नजदीक देखते हुए कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम वोटों को रिझाने के लिए इस तरह का आदेश निकाला है।
हालांकि कुछ लोग यह मानते हैं कि सरकार ने ही इस प्रकार की हरकत करवाई ताकि यह जांच सके कि उसका कितना विरोध होता है, मगर यह बात आसानी से पचती नहीं है। वह बैठे ठाले हिंदूवादियों को एक होने का मौका काहे को देने वाली है।
बहरहाल, राजनीति के जानकार समझते हैं कि जैसे जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, इस प्रकार की हरकतें होती रहेंगी। कभी गणेश जी दूध पीयेंगे तो कभी कोई शगूफा छूटेगा।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, सितंबर 22, 2012

बैंसला को तवज्जो सचिन को रोकने की कवायद तो नहीं?


हाल ही दैनिक भास्कर के तेजतर्रार पॉलिटिकल रिपोर्टर त्रिभुवन ने एक खबर उजागर की है कि भाजपा के टिकट पर केंद्रीय मंत्री नमोनारायण मीना के खिलाफ चुनाव लड़ चुके गुर्जर नेता किरोड़ी सिंह बैंसला को अशोक गहलोत सरकार कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे रही है। उनके मुताबिक बैंसला को गुर्जरों से संबंधित योजनाओं में रिव्यू का अधिकार दे रखा है। इस लिहाज से गुर्जर आंदोलन के संयोजक कर्नल किरोड़ी सिंह बैसला सरकार का हिस्सा बन गए हैं। उनकी बैठकों में आने के लिए छह जिला परिषदों के सीईओ, सीएमएचओ, जिला शिक्षा अधिकारी और सामाजिक न्याय विभाग के जिला अधिकारी पाबंद किए गए हैं। सामाजिक न्याय विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव अदिति मेहता ने एक आदेश जारी कर बैंसला की नई हैसियत से कलेक्टरों और कई मंत्रियों को अवगत कराया है।
जाहिर सी बात है गहलोत सरकार का इस प्रकार बैंसला को सिर पर बैठाना गुर्जर समाज के कांग्रेसी नेताओं को नागवार गुजर रहा होगा, क्योंकि इससे सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के गुर्जर समुदाय से आने वाले मंत्रियों, संसदीय सचिव और विधायकों की हैसियत कर्नल किरोड़ीसिंह बैसला के सामने गौण हो गई है। समझा जाता है कि सियासी तौर पर गहलोत हाईकमान को यह संदेश देना चाह रहे हैं कि बैंसला को सेट करने के कारण गुर्जर पूरी तरह शांत हैं। मगर उनकी यह हरकत अन्य गुर्जर नेताओं के गले नहीं उतर रही। विशेष रूप से केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के लिए यह खबर चौंकाने वाली है। एक ओर जहां कांग्रेस हाईकमान विशेष रूप से राहुल गांधी की कोशिश है कि सचिन को सर्वमान्य गुर्जर नेता के रूप में राजस्थान में लॉंच किया जाए, वहीं दूसरी ओर अपनी कुर्सी के पाये मजबूत करने के लिए गहलोत बैंसला को इस प्रकार तवज्जो रहे हैं। आपको याद होगा कि हाल ही सचिन के नेतृत्व में गुर्जर नेताओं को एक दल राहुल गांधी से मिल कर गुर्जर आंदोलन का समाधान निकालने के लिए राज्य सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश कर चुके हैं। उसे इस रूप में लिया गया था कि राहुल गुर्जर आंदोलन के समाधान का श्रेय सचिन को देना चाहते हैं। ऐसे में गुर्जर आंदोलन को लेकर उभर रहे ताजा तथ्य कहीं न कहीं विरोधाभास का संकेत दे रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सचिन के राजस्थान आगमन से घबरा कर गहलोत कोई चाल चल रहे हैं? इसमें तनिक सच्चाई इस कारण भी नजर आ रही है कि पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से राजस्थान में बदलाव की बयार चल रही है, कुछ दिग्गज लामबंद होने लगे हैं। बहरहाल, राज क्या है, ये तो गहलोत ही जानें, मगर इतना तय है कि अगर राहुल बाबा ने चाहा कि सचिन को ही तवज्जो देनी है तो गहलोत लाख चाह कर भी अपने मन की नही कर पाएंगे।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, सितंबर 11, 2012

घटिया कार्टून बना कर भगत सिंह हो गया असीम त्रिवेदी?


कैसी विडंबना है कि देशभक्ति की मौजूदा लहर में एक कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के साथ अपमानजनक छेड़छाड़ करता है और इस कृत्य की बिना पर महान क्रांतिकारी व देशभक्त भगत सिंह से अपनी तुलना करता है। और उससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि टीम अन्ना के प्रमुख सिपहसालारों का सब कुछ समझते हुए भी सारे टीवी चैनलों पर असीम की तरफदारी में बेशर्मी से चिल्लाना। इतना नहीं इन्हीं टीवी चैनलों में बैठे अधकचरे पत्रकारों का मूल विषय को भटका कर यह सवाल खड़ा करना भी अफसोसनाक है कि क्या कार्टून बनाना देशद्रोह है?
सीधी सी बात है कि एक मंद बुद्धि भी इस बात को समझता है कि कार्टून बनाना कदाचित किसी के लिए आपत्तिजनक तो हो सकता है, मगर देशद्रोह नहीं हो सकता। बावजूद इसके टीवी चैनलों ने सनसनी पैदा करने के लिए पूरे दिन यह मुद्दा बनाए रखा कि क्या काटूर्न बनाना देशद्रोह है, क्या यह अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रहार नहीं है? क्या यह आपातकाल का संकेत तो नहीं है? स्पष्ट है कि अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में उन्होंने जानबूझ कर यह विषय उठाया और अन्ना वालों ने जम कर उसका उपयोग किया। रहा सवाल किसी कार्टून विशेष की विषय वस्तु का तो इसे कोई अंध अन्ना भक्त माने या न माने, भारत मां की तस्वीर के साथ राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों व कार्पोरेट्स द्वारा रेप करते हुए दिखाना और अशोक स्तम्भ के शेरों को भेडिय़ों के रूप में प्रदर्शित करना निहायत घटिया सोच का परिचायक है। माना कि हमारे राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और कार्पोरेट्स ने देश को जिस हालात में पहुंचाया है, उसकी वजह से आज पूरे देश में विशेष रूप से राजनेताओं के प्रति नफरत का भाव पैदा हुआ है। व्यवस्था पर सवाल खड़े हुए हैं। उसी प्लेटफार्म पर टीम अन्ना ने आंदोलन को दिशा दी है। बेशक वह देश के हित में ही ही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या इन सबसे बड़े देशभक्तों और महान बुद्धिजीवियों को इतना भी शऊर नहीं कि वे राष्ट्रीय प्रतीकों व राजनेताओं के बीच अंतर नहीं कर सकते? उलटे उसे जिद की हदें पार करते हुए सही ठहरा रहे हैं। सरकार पर हमले के जन्मजात अधिकार की दुहाई दे कर, अभिव्यक्ति की आजादी का हवाला दे कर विषयांतर करते हुए राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान को भी सही ठहराना क्या कुटिलता नहीं है? असीम के कृत्य की तुलना राजनेताओं द्वारा अशोक चिन्ह युक्त लेटरहैड का इस्तेमाल करते हुए घोटालों को अंजाम देने से करने का सिर्फ इतना सा ही मतलब है कि वे जानबूझ कर असीम की करतूत को डाइल्यूट करना चाहते हैं। क्या इसका यह अर्थ निकाला जाए कि यदि राजनेता अशोक चिह्न युक्त लेटरहैड के जरिए घोटाले करेंगे तो असीम अथवा किसी और भी ये अधिकार दे दिया जाए कि वह राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ सीधे-सीधे भद्दा मजाक करे? जिस विवादित कार्टून के आधार पर असीम के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है, वह कितना आपत्तिजनक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संबंधित समाचार जारी व प्रकाशित करते वक्त इलैक्ट्रॉनिक व पिं्रट मीडिया ने भी उसे जारी नहीं किया है। दैनिक भास्कर ने तो बाकायदा उल्लेख किया है कि वह कार्टून विशेष प्रकाशित नहीं किया जा रहा है।
जहां तक त्रिवेदी का सवाल है, उस पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ है तो वह कोई कार्टून बनाने पर दर्ज नहीं हुआ है, अपितु राष्ट्रीय प्रतीक के साथ छेड़छाड़ करने पर एक व्यक्ति की शिकायत पर दर्ज हुआ है। पुलिस ने भी वर्तमान में मौजूद कानून के मुताबिक उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया और कोर्ट ने भी उसी आधार पर उसे पहले पुलिस रिमांड पर भेजा और बाद में न्यायिक हिरासत में। इसमें यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि देशद्रोह का कानून काफी पुराना और अप्रासंगिक हो गया है तो बेशक उसमें बदलाव किया जाना चाहिए, संशोधन किया जाना चाहिए, मगर जब तक बदलाव नहीं किया जाता, उसका उल्लंघन करने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है? क्या कानून में बदलाव के पक्षधरों को नेताओं को गाली देने के बहाने संविधान की खिल्ली उड़ाने की छूट दे दी जाए, क्योंकि वे देशभक्त हैं? क्योंकि असीम उन्नाव के एक स्वाधीनता सेनानी का पोता है, इस कारण क्या उसे संविधान को छिन्न-भिन्न करने का हक दे दिया जाए?
 माना कि ऊर्जा से भरा असीम देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत है, मगर इसी देशभक्ति की आड़ में कार्टून के बहाने उसे राष्ट्रीय प्रतीकों के साथ छेड़छाड़ कैसे करने दी जा सकती है? उससे भी शर्मनाक बात ये है कि एक निहायत घटिया कार्टून बनाने वाला पुलिस कस्टडी में पलट-पलट कर ऐसे उछल रहा था, मानो उसने बहादुरी का कोई महान काम कर दिया हो। जिस पीढ़ी को स्वाधीनता आंदोलन की पीड़ा का तनिक भी अहसास नहीं, उसका प्रतिनिधि यह कार्टूनिस्ट अपने कृत्य पर गर्व जताते हुए अपने आप की महान स्वाधीनता सेनानी भगत सिंह से तुलना कर रहा है। यानि की फोकट में शहीद व हीरो बनना चाहता है। इसे मानसिक दिवालियापन कहा जाए या अन्नावाद की फूंक में उछल रहा गुब्बारा, समझ में नहीं आता। असल बात तो ये है कि भगत सिंह के रास्ते पर चलने का दम भरना और उन्हीं के अनुरूप वैचारिक संपन्नता, सहनशीलता व गंभीरता रखना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। घोर आपत्तिजनक कार्टून बना कर भगत सिंह के नाम पर नौटंकी करने से भगत सिंह का नाम का नाम ऊंचा नहीं होने वाला है।
समझ में नहीं आता कि देश कैसे दौर से गुजर रहा है कि असीम की घटिया हरकत का हजारों तथाकथित देशभक्त सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की मिली छूट का इस्तेमाल इससे भी ज्यादा घटिया  तरीके से कर रहे हैं। और गलती से कोई उनके प्रतिकूल टिप्पणी कर दे तो उसकी अभिव्यक्ति की आजादी छीन कर भद्दी गालियों पर उतर आते हैं।
-तेजवानी गिरधर
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