तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जनवरी 15, 2011

सवाल पूछे बिना भला कैसे पता लगेगा कि कौन पिछड़ा है?

हाल ही अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वे फार्म को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य वर्ग में आर्थिक रूप से पिछड़ों का पता लगाने के लिए भेजे गए सर्वे फार्म में पूछे गए सवालों को ही पिछड़ा करार देते हुए आपत्ति दर्ज कराई गई है कि वे अपमानजनक हैं। प्रताप फाउंडेशन के प्रवक्ता महावीर सिंह ने तो यह तक आरोप लगाया है कि ऐसे सवाल पूछ कर सरकार गरीब राजपूतों को आरक्षण का लाभ देने से वंचित करना चाहती है। इसी प्रकार एक समाजशास्त्री प्रो. राजीव गुप्ता ने  अपनी विद्वता का परिचय देते हुए कहा है कि सरकार भले ही किसी को उसका अधिकार दे या न दे, मगर उसके सम्मान व स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ न करे। दूसरी ओर राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्य सचिव ए. के. हेमकार का कहना है कि सर्वे फार्म के सवाल आपत्तिजनक नहीं हैं और ओबीसी में शामिल किए जाने के मापदंड हैं, जो कि पहले से ही निर्धारित हैं।
सर्वप्रथम अगर हेमकार के तर्क को आधार मानें तो जब यह स्पष्ट ही है कि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने का मापदंड ही वह सर्वे फार्म है तो उस पर किसी को आपत्ति करने का अधिकार ही नहीं बनता। जब पूर्व में उसी आधार पर ही कुछ जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ दिया गया है, तो इस वर्ग में शामिल करने के लिए ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य के लिए अलग तरह का सर्वे फार्म कैसे बनाया जा सकता है? उनके लिए अलग मापदंड कैसे बनाए जा सकते हैं? अगर उन्हें इस वर्ग का लाभ हासिल करना है तो इस सर्वे फार्म से तो गुजरना ही होगा। रहा सवाल गरीब राजपूतों अथवा गरीब ब्राह्मण-बनियों को आरक्षण से वंचित करने का तो इसमें दो बिंदू विचारणीय लगते हैं। एक तो यदि राजपूत जाति का कोई व्यक्ति गरीब है तो उसे अन्य गरीबों की तरह बीपीएल के तहत लाभ मिल सकता है। उसके लिए अलग से आरक्षण की जरूरत ही क्या है। और यदि पूरे समूह को ही आर्थिक रूप से पिछड़ा होने के नाते अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ हासिल करना है तो जाहिर तौर पर उनके पिछड़ेपन की मूल वजह के आधार पर ही तय किया जाएगा कि वे पिछड़ हुए हैं। सर्वे फार्म में जो मापदंड दिए गए हैं, भले ही वे कहने और बताने में अपमानजनक लगें, मगर असल में उन्हीं मापदंडों से ही तो पता लगता है कि अमुक जाति वर्ग पिछड़ा हुआ है। जैसे सर्वे फार्म के कुछ सवाल, जिन पर आपत्ति की जा रही है, उनमें पूछा गया है कि क्या उस जाति वर्ग को अन्य जातियां नीच व शूद्र समझती हैं, क्या इस जाति वर्ग को आपराधिक प्रवृत्ति का माना जाता है, क्या इस जाति वर्ग के लोग जीविकोपार्जन के लिए भिक्षा वृत्ति, पूजा-पाठ, संगीत, व नृत्य पर निर्भर हैं? ये सारे वे सवाल हैं, जो इस बात का उत्तर देने के लिए पर्याप्त हैं कि कोई जाति वर्ग उन कथित अपमानजनक कारणों से आर्थिक रूप से पिछड़ा रहा या फिर उसके पिछडऩे की वजह वे कारण रहे। कैसी विडंबना है कि एक ओर तो आर्थिक रूप से पिछड़े होने के नाते अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ लेना भी चाहते हैं, मगर सर्वे फार्म में दिए गए सवालों की परिभाषा में आना भी नहीं चाहते। असल बात है ही ये कि कोई जाति सम्मानजनक स्थिति में हो ही तभी सकती है, जबकि वह शुरू से आर्थिक रूप से संपन्न रही हो। यदि अपमानजनक स्थिति में रही है तो उसके लिए भले ही समाज के संपन्न और उच्च जातियों के लोग जिम्मेदार रहे हों, मगर इसे तो स्वीकार करना ही होगा न कि वे अपमानजनक कारणों की वजह से आर्थिक रूप से पिछड़ गए थे। क्या यह सही नहीं है कि कोई जाति वर्ग आर्थिक रूप से पिछड़ी रही ही इसलिए होगी कि उसे सम्मानजनक तरीके से कमाने नहीं दिया जाता होगा और उसे गा, बजा व नाच कर आजीविका चलाने अथवा आपराधिक तरीकों से पेट पालने को मजबूर होना पड़ा होगा? जब यह स्पष्ट है कि अनेक जातियां आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण ही अन्य जातियों से हेय मानी जाती रहीं तो इस हेय शब्द पर आपत्ति करने को कोई मतलब ही नहीं रहता।
सर्वे फार्म में पूछे गए इस सवाल पर कि क्या उसे नीच या शूद्र समझा जाता रहा है, पर अगर ब्राह्मण, राजपूत व वैश्य को आपत्ति है तो इसका अर्थ ये है कि वह अपने आपको उच्च जाति का मानते हैं, जो कि प्रत्यक्षत: दिखाई भी दे रहा है। क्या यह सही नहीं है कि आम धारणा में ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों को उच्च वर्ग का माना जाता है? उच्च वर्ग का माना ही इसलिए जाता है कि वे सामाजिक व आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत अधिक संपन्न रहे हैं। रहा सवाल इस बात का कि ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों में से कुछ जाति वर्ग सर्वे फार्म में पूछे गए कारणों की बजाय अन्य कारणों से आर्थिक रूप से पिछड़ गए तो उन्हें प्रारंभ में ही यह दर्ज करवाना चाहिए था। आज जब ये जाति वर्ग अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ हासिल करना चाहते हैं तो उन्हें उस मापदंड को भी मानना चाहिए, जिसके तहत अन्य जातियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का लाभ मिला है। ऐसा नहीं हो सकता कि उन्हें उच्च वर्ग का भी माना जााए और आर्थिक रूप से पिछड़ा भी माना जाए। अगर यह मान भी लिया जाए कि कुछ लोग थे तो उच्च वर्ग के, लेकिन किन्हीं कारणों से विपन्न हो गए तो उसे स्पष्ट करते हुए आरक्षण की मांग की जानी चाहिए थी।
बहरहाल, बहस की शुरुआत हो गई है और इसी प्रकार नुक्ताचीनी और राजनीति की जाती रही तो ब्राह्मण-बनियों व राजपूतों में जो लोग वाकई जरूरतमंद हैं, वे आरक्षण का लाभ लेने से वंचित हो जाएंगे। और अगर आरक्षण का लाभ लेना है तो सामाजिक रूप से पिछड़ेपन को स्वीकार करने को मूूंछ का सवाल नहीं बनाना चाहिए।

बुधवार, जनवरी 12, 2011

क्या विस्फोट से हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोका जा सकता है?

सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में सन् 2007 में हुए बम विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार असीमानंद ने खुलासा किया है कि बम विस्फोट किया ही इस मकसद से गया था कि दरगाह में हिंदुओं को जाने से रोका जाए। इकबालिया बयान में दी गई इस जानकारी को अगर सच मान लिया जाए तो यह वाकई एक बचकाना हरकत है। कदाचित वे यह बयान देते कि हिंदू धर्म स्थलों पर बम विस्फोट की प्रतिक्रिया में विस्फोट किया गया था तो बात गले उतर सकती थी, मगर विस्फोट करके हिंदुओं को दरगाह में जाने से रोकने का प्रयास किया गया था, यह नितांत असंभव है। असंभव इसलिए कि उसकी एक खास वजह है, जिसका किसी भी कट्टरपंथी के पास कोई उपाय नहीं है।
अव्वल तो अगर हिंदुओं को डराने के लिए विस्फोट किया था तो विस्फोट करने से पहले या उसके तुरंत बाद हिंदुओं को चेतावनी क्यों नहीं दी गई? इतनी ही हिम्मत थी तो विस्फोट करके उसकी जिम्मेदारी लेते। उनके मकसद का आज जा कर खुलासा हो रहा है। भला हिंदुओं को सपना थोड़े ही आएगा कि असीमानंद जी महाराज ने उन्हें दरगाह में न जाने की हिदायत में तोप दागी है। और अगर हिदायत दी भी है तो कौन सा हिंदू उसको मानने वाला है? दरगाह बम विस्फोट की बात छोड़ भी दें तो आज तक किसी भी कट्टरपंथी हिंदू संगठन ने ऐसे कोई निर्देश जारी करने की हिमाकत नहीं की है कि हिंदू दरगाह में नहीं जाएं। वे जानते हैं कि उनके कहने को कोई हिंदू मानने वाला नहीं है। इसकी एक महत्वपूर्ण वजह भी है। हालांकि यह सच है कि कट्टवादी हिंदुओं की सोच है कि हिंदुओं को दरगाह अथवा मुस्लिम धर्म स्थलों में नहीं जाना चाहिए। कट्टरपंथी तर्क ये देते हैं कि जब मुसलमान हिंदुओं के मंदिरों में नहीं जाते तो हिंदू क्यों मुस्लिम धर्मस्थलों पर मत्था टेकें। हिंदूवादी विचारधारा की पोषक भाजपा से जुड़े कट्टरपंथियों को भी यही तकलीफ है कि हिंदू दरगाह में क्यों जाते हैं, मगर स्वयं को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष साबित करने अथवा स्वयं को कट्टरपंथ से दूर रखने और मुस्लिमों के भी वोट चाहने की मजबूरी में भाजपा के नेता दरगाह जियारत करते हैं। वे दरगाह में जाने से परहेज करके अपने आपको कोरा हिंदूवादी कहलाने से बचते हैं। कट्टरपंथी जब भाजपा नेताओं को ही दरगाह में जाने से नहीं रोक पाए तो भला आम हिंदू को दरगाह में जाने से कैसे रोक सकते हैं।
वस्तुत: धर्म और अध्यात्म निजी आस्था का मामला है। किसी को किसी धर्म का पालन करने के लिए जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती। यदि किसी हिंदू की अपने देवी-देवताओं के साथ पीर-फकीरों में भी आस्था है तो इसका कोई इलाज नहीं है। इसकी वजह ये है कि चाहे हिंदू ये कहें कि ईश्वर एक ही है, मगर उनकी आस्था छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं में भी है। बहुईश्वरवाद के कारण ही हिंदू धर्म लचीला है। और इसी वजह से हिंदू धर्मावलम्बी कट्टरवादी नहीं हैं। उन्हें शिवजी, हनुमानजी और देवीमाता के आगे सिर झुकाने के साथ पीर-फकीरों की मजरों पर भी मत्था टेकने में कुछ गलत नजर नहीं आता। गलत नजर आने का सवाल भी नहीं है। किसी भी हिंदू धर्म ग्रंथ में भी यह कहीं नहीं लिखा है कि दरगाह, चर्च आदि पर जाना धर्म विरुद्ध है। इस बारे में एक लघु कथा बहुत पुरानी है कि नदी में डूबती नाव में मुस्लिम केवल इसी कारण बच गया कि क्यों कि उसने केवल अल्लाह को याद किया और हिंदू इसलिए डूब गया क्यों कि उसने एक के बाद एक देवी-देवता को पुकारा और सभी देवी-देवता एक दूसरे के भरोसे रहे। यानि ज्यादा मामा वाला भानजा भूखा ही रह गया।
जहां तक हिंदुओं की अपने धर्म के अतिरिक्त इस्लाम के प्रति भी श्रद्धा का सवाल है तो सच्चाई ये है कि अधिसंख्य हिंदू टोने-टोटकों के मामले में हिंदू तांत्रिकों की बजाय मुस्लिम तांत्रिकों के पास ज्यादा जाते हैं। वजह क्या है, ठीक पता नहीं, मगर कदाचित उनकी ये सोच हो सकती है कि मुस्लिम तंत्र विज्ञान ज्यादा प्रभावशाली है।
रहा सवाल मुस्लिमों को तो इस्लाम जिस मूल अवधारणा पर खड़ा है, उसमें जरूर मंदिर में मूर्ति के सामने सिर झुकाने को गलत माना जाता है। वह तो खड़ा ही बुत परस्ती के खिलाफ है। जिस प्रकार हिंदू धर्म का ही एक समुदाय आर्य समाज मूर्ति प्रथा के खिलाफ खड़ा हुआ है। जैसे आर्यसमाजी को मूर्ति के आगे झुकने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता, वैसे ही मुस्लिम को भी बुतपरस्ती की प्रेरणा नहीं दी जा सकती। ये बात अलग है कि चुनाव में वोट पाने के लिए अजमेर के पांच बार सांसद रहे प्रमुख आर्यसमाजी प्रो. रासासिंह रावत अपने सामज के वोट पाने के लिए जातिसूचक लगाते रहे और राम मंदिर आंदोलन में भी खुल कर भाग लिया। एकेश्वरवाद की नींव पर विकसित हुए इस्लाम में अकेले खुदा को ही सर्वोच्च सत्ता माना गया है। एक जमाना था जब अलग कबीलों के लोग अपने बुजुर्गों को ही अपना खुदा मानते थे, मगर इस्लाम के पैगंबर ने यह अवधारणा स्थापित की कि अल्लाह एक है, उसी को सर्वोच्च मानना चाहिए। सम्मान में भले किसी के आगे झुकने की छूट है, मगर सजदा केवल खुदा के सामने ही करने का विधान है। ऐसे में भला हिंदू कट्टरपंथियों का यह तर्क कहां ठहरता है कि अगर हिंदू मजारों पर हाजिरी देता है तो मुस्लिमों को भी मंदिर में दर्शन करने को जाना चाहिए। सीधी-सीधी बात है मुस्लिम अपने धर्म का पालन करते हुए हिंदू धर्मस्थलों पर नहीं जाता, जब कि हिंदू इसी कारण मुस्लिम धर्म स्थलों पर चला जाता है, क्यों कि उसके धर्म विधान में देवी-देवता अथवा पीर-फकीर को नहीं मानने की कोई हिदायत नहीं है। और यही वजह है कि दरगाह में मुस्लिमों से ज्यादा हिंदू हाजिरी देते हैं। इसका ये मतलब नहीं कि हिंदुओं की आस्था मुस्लिमों से ज्यादा है, अपितु इसलिए कि हिंदू बहुसंख्यक हैं। स्वाभाविक रूप से जियारत करने वालों में हिंदू ज्यादा होते हैं। यह बात दीगर है कि उनमें से कई इस कारण दरगाह जाते हैं कि उनका मकसद सिर झुकाना अथवा आस्था नहीं, बल्कि दरगाह को एक पर्यटन स्थल मानना है।

शुक्रवार, जनवरी 07, 2011

...तो फिर मुख्यमंत्री पद छोड़ क्यों नहीं देते उमर अब्दुल्ला?

जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर स्थित लाल चौक पर तिरंगा फहराने के भाजयुमो के निर्णय और उस पर मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बयान पर बवाल शुरू हो गया है। बवाल होना ही है। जब अपने ही देश में तिरंगा फहराने पर दंगा होने की चेतावनी दी जाएगी तो आग लगेगी ही। होना तो यह चाहिए था कि उमर अब्दुल्ला ये कहते कि भले ही कैसे भी हालात हों, मगर वे झंडा फहराने के लिए पूरी सुरक्षा मुहैया करवाएंगे। मगर उन्होंने यह कह कर कि भाजयुमो के झंडा फहराने पर दंगा हुआ तो उसकी जिम्मेदारी उसी की होगी, एक तरह से साफ मान लिया है कि वहां सरकार आतंवादियों के दबाव में ही काम कर रही है और सरकार का हालात पर कोई नियंत्रण नहीं है। और यदि नियंत्रण नहीं है तो फिर उनको पद बने रहने का कोई अधिकार भी नहीं है। असल बात तो ये है कि उन्हें एक कमजोर मुख्यमंत्री होने के कारण पहले ही हटाने की नौबत आ गई थी, मगर तब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने यह कह कर बचा लिया कि उन्हें हालात से निपटने के लिए और समय दिया जाना चाहिए। लेकिन उमर अब्दुल्ला के ताजा बयान देने से यह साफ हो गया है कि उनका राज्य के जमीनी हालात पर नियंत्रण बिलकुल नहीं है। वे एक अनुभवहीन राजनेता हैं, जिनके लिए कश्मीर जैैसे जटिलताओं से भरे राज्य का नेतृत्व संभालना कत्तई संभव नहीं है। उनको और समय देने का कोई फायदा ही नहीं है।
हालांकि यह सही है आतंकवादियों ने यह चुनौती दी है कि भाजयुमो झंडा फहरा कर तो देखे अर्थात वे टकराव करने की चेतावनी दे रहे हैं, मगर एक मुख्यमंत्री का झंडा न फहराने की नसीहत देना साबित करता है कि वे आतंकवादियों से घबराये हुए हैं। भले ही उन्होंने कानून-व्यवस्था के लिहाज से ऐसा वक्तत्व दिया होगा, मगर क्या उन्होंने यह नहीं सोचा कि ऐसा कहने पर आतंकवादियों के हौसले और बुलंद होंगे। ऐसा करके न केवल उन्होंने हर राष्ट्रवादी को चुनौती दी है, अपितु आतंकवादियों को भी शह दे दी है।
यहां उल्लेखनीय है कि भाजयुमो के मूल संगठन भाजपा शुरू से कहती रही है कि कश्मीर के हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। भाजपा का आरोप स्पष्ट आरोप है कि पाकिस्तान कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी को आसान और प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। इसके लिए अलगाववाद प्रभावित जिलों में बाकायदा ट्रकों में भर-भरकर पत्थर लाए जाते हैं। प्रति ट्रक एक हजार से बारह सौ रुपए की दर से पत्थरों की सप्लाई होती है और पथराव करने वाले युवकों को पांच सौ रुपए प्रति दिन के हिसाब से भुगतान किया जाता है। केंद्र और राज्य सरकार ने भाजपा के आरोप को गंभीरता से नहीं लिया था। बाद में केंद्र और राज्य को इस बात का अहसास हुआ है कि पत्थरबाजी कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है, बल्कि बाकायदा फिलस्तीन की तर्ज पर रणनीति के बतौर इस्तेमाल की जा रही है। कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर किए जा रहे हमले भी इसी रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। जरूरत तो इस बात की थी कि अपनी जान जोखिम में डालकर घाटी में आतंकवादियों का सामना कर रहे सुरक्षा बलों के हाथ मजबूत किए जाते और उन्हें जमीनी हालात को ध्यान में रखते हुए जवाबी कार्रवाई करने की छूट दी जाती। उलटे सीआरपीएफ  को तथाकथित असंयमित प्रतिक्रिया के लिए कटघरे में खड़ा कर दिया गया। केंद्र सरकार शायद पाकिस्तान के साथ जारी बातचीत की ताजा प्रक्रिया के मद्देनजर इस दिशा में चुप्पी साधे हुए है, लेकिन गौर करने की बात यह है कि क्या दूसरा पक्ष पाकिस्तान भी ऐसा ही नजरिया अपना रहा है? राष्ट्रीय एकता, अखंडता और सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर जरूरत से ज्यादा संयम दिखाकर हम भारत विरोधी तत्वों और कश्मीर की जनता को सही संकेत नहीं दे रहे। एक ओर पूरा देश कश्मीर की घटनाओं से चिंतित है और दूसरी तरफ  राज्य सरकार की निष्क्रियता और अदूरदर्शिता ने हालात को और नाजुक बना दिया है।
जम्मू कश्मीर की ताजा गुत्थी को सुलझाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा फौरन कदम उठाए जाने की जरूरत है। वहां पाकिस्तान, अलगाववादियों, आतंकवादियों, विपक्षी दलों और लापरवाह प्रशासन जैसे सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावी रणनीति बनाने की जरूरत है।

बुधवार, जनवरी 05, 2011

बेदाग होते ही डॉ. बाहेती को ललकारा धर्मेश जैन ने

सीडी के लंका दहन कांड से निकल कर सुंदरकांड में पहुंचते ही नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन ने उन्हें शहीद करवाने में अहम भूमिका अदा करने वाले पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को ललकार दिया है। इतना ही नहीं उन्होंने खुद के कार्यकाल के साथ डॉ. बाहेती और पिछले दो साल के कार्यकाल की जांच करवाने की चुनौती दे दी है। समझा जाता है कि आने वाले दिनों वे न्यास को लेकर अन्य अनेक मामलों में ताबड़तोड़ हमले कर सकते हैं।
नए साल में बदली ग्रह दशा से उत्साहित जैन ने यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि यहा पता लगाया जाए कि आखिर सीडी आई कहां से थी। एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि जिस ऑडियो सीडी की वजह से उन्होंने नैतिकता के आधार पर अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, उस सीडी को सीआईडी सीबी ने जांच में संदिग्ध करार दे दिया है, जिससे यह स्पष्ट हो गया है कि वह सीडी उनके खिलाफ एक बड़ा षड्यंत्र था। सीडी बनाने वालों ने न केवल उन्हें अपितु प्रदेश की श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार को भी बदनाम करने की साजिश रची थी। उन्होंने कहा कि कदाचित भाजपा शासन काल में जांच रिपोर्ट पेश होती तो उस पर संदेह की गुंजाइश होती, मगर कांग्रेस शासन काल में ही जांच रिपोर्ट रखे जाने से साफ हो गया है कि उनके खिलाफ कितना बड़ा षड्यंत्र किया गया था।
जैन ने कहा कि सीआईडी सीबी ने साफ तौर पर माना है कि एफएसएल रिपोर्ट के अनुसार रिकार्डिंग की आवाज में कई अवरोध व जोड़ हैं, जिससे आवाज का प्रवाह जोड़-जोड़ कर बनाया गया है, अत: सीडी संदिग्ध प्रतीत होती है। हालांकि सीआईडी सीबी ने सीडी बनाने वाले का पता लगाना असंभव माना है, लेकिन यह सवाल आज भी मुंह बाये खड़ा है कि विधानसभा के पटल पर रखी गई सीडी आखिर आई कहां से? सरकार ने इसकी जांच क्यों नहीं की? सरकार से आग्रह है कि वह यह जांच कराए कि विधानसभा के में पेश की गई सीडी का मूल स्रोत क्या है? सरकार कांग्रेस के तत्कालीन पुष्कर विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती से भी जवाब-तलब करे कि वे सीडी कहां से ले कर आए? कहीं इसमें वे स्वयं तो संलिप्त नहीं हैं? आज जब कि वह सीडी संदिग्ध करार दे दी गई है, वह कहां से आई, इसका जवाब देने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं कांग्रेस के तत्कालीन पुष्कर विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व अन्य विधायक, जिन्होंने बिना किसी ठोस आधार के विधानसभा की कार्यवाही को तुरंत रोक कर चर्चा करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने न केवल झूठ का सहारा लेकर स्थगन प्रस्ताव के जरिए विधानसभा की कार्यवाही बाधित की, अपितु तत्कालीन भाजपा सरकार और उन्हें बदनाम करने की साजिश भी रची। हालांकि सीआईडी सीबी ने सीडी बनाने वाले का पता लगाना असंभव माना है, लेकिन जब तक सीडी के मूल स्रोत का पता नहीं लग जाता, तब तक यह खुलासा होना कठिन है कि उस षड्यंत्र में शामिल कौन था?
जैने ने कहा कि जैसे ही सीडी उजागर हुई, उन्होंने स्वयं पहल कर नैतिकता के आधार पर पद त्याग दिया और उनके कार्यकाल की जांच कराने का आग्रह किया। अब मौजूदा कांग्रेस सरकार को खुली चुनौती है कि वह न केवल उनके कार्यकाल, अपितु सीडी प्रकरण को उछालने वाले तत्कालीन विधायक डॉ.श्रीगोपाल बाहेती के न्यास के अध्यक्षीय कार्यकाल के साथ पिछले दो साल के कार्यकाल की भी जांच कराए, ताकि यह खुलासा हो सके कि न्यास में किस हद तक भ्रष्टाचार किया जा रहा है और आम जनता कितनी पीडि़त है।
उन्होंने कहा कि बिना किसी ठोस आधार पर सीडी प्रकरण को उछालने का परिणाम ये हुआ कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया और उनके द्वारा शुरू किए गए सारे विकास कार्य ठप हो गए, जिसके लिए अजमेर की जनता डॉ. बाहेती को कोस रही है। कांग्रेस के सत्ता में आने बाद तो विकास कार्य पूरी तरह से बंद ही कर दिए गए हैं। अर्थात अकेले डॉ. बाहेती की वजह से अजमेर के तकरीबन तीन साल खराब हो गए हैं और कितना बड़ा नुकसान हुआ है। क्या बाहेती यह जवाब देंगे कि उनकी पार्टी की सरकार के बनने के बाद विकास कार्य क्यों बंद कर दिए और प्रशासन को भ्रष्टाचार करने की खुली छूट क्यों दी हुई है, जिससे आम जनता त्रस्त है? हालात ये है कि कांग्रेस सरकार दो साल बाद तक भी न्यास में जनता के प्रतिनिधित्व वाला बोर्ड गठित नहीं कर पाई है। इन दो सालों में न्यास में किस प्रकार भ्रष्टाचार का नग्न तांडव हो रहा है, इसका खुलासा खुद कांग्रेस के ही जिम्मेदार पदाधिकारी ही कर रहे हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि सरकारी संरक्षण में ही प्रशासनिक अधिकारियों को भ्रष्टाचार करने की छूट दे रखी गई है?
जैन ने कहा कि अकेले एक मामले से ही स्पष्ट हो रहा है कि कांग्रेस केवल झूठ पर ही टिकी हुई है। कांग्रेस ने आम जनता को बरगला कर पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगाए। वे बार-बार खुली चुनौती दे रही हैं कि आरोपों को साबित करके दिखाएं, मगर आज दो साल बाद तक एक भी आरोप को वह सच साबित नहीं कर पाई है। आम जनता अच्छी तरह से जान गई है कि कांग्रेस को आम जनता के हित और विकास से कोई लेना-देना नहीं है और वह खुद भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है।
न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अब भाजपा भी करेगी हमला
अजमेर नगर सुधार न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार को लेकर सत्तारूढ़ दल ने तो आसमान सिर पर उठा ही रखा है, अब भाजपा भी इस मामले में न्यास को घेरने जा रही है। हालांकि पूर्व में बुधवार को ही प्रदर्शन कर ज्ञापन देने की योजना थी, मगर उस दिन पूर्व राज्यपाल बलिराम भगत के निधन की वजह से अवकाश घोषित होने के कारण उसे टाल दिया गया। अब समझा जाता है कि नई जिला कलेक्टर मंजू राजपाल के कार्यभार संभालने के बाद ही भाजपा हल्ला बोलेगी। लंबे समय की चुप्पी के बाद भाजपा भी चाहती है कि सक्रियता दिखाई जाए, वरना आम जनता में गलत संदेश जाएगा कि कांग्रेस सत्ता में होते हुए भी जनहित के मुद्दे को उठा रही है, जबकि भाजपा चुप बैठी है। समझा जाता है कि न्यास पर हमले की जिम्मेदारी मौटे तौर पर न्यास के पूर्व सदर धर्मेश जैन को सौंपी जा सकती है, क्यों कि उनकी न्यास के मामलों में अच्छी जानकारी है।
जानकारी के अनुसार भाजपा ने भी न्यास में हो रहे करोड़ों रुपए के भ्रष्टाचार के तथ्य जुटा लिए हैं और साथ ही उन कामों को भी सूचीबद्ध किया जा रहा है, जिनको भाजपा शासनकाल में शुरू किया गया, लेकिन कांग्रेस ने सत्ता में आते ही उन्हें बंद कर दिया।
मामले का दिलचस्प पहलु ये है कि कांग्रेस ने भले ही केवल न्यास सचिव अश्फाक हुसैन व विशेषाधिकारी अनुराग भार्गव को निशाना बनाया है, मगर न्यास के पदेन अध्यक्ष होने के नाते जिला कलेक्टर राजेश यादव पर भी इसकी जिम्मेदारी है। उनका तबादला कर मुख्यमंत्री कार्यालय में लगाए जाने पर भी कई तरह की चर्चाएं हैं। कुछ लोग कह रहे हंै कि यादव को बचाने के लिए सरकार ने ऐसा किया है, जबकि कुछ लोग मानते हैं कि उन्हें इसी कारण हटाया गया है, क्यों कि यादव तक भी आंच वाली थी। सच क्या है यह सरकार ही जाने, मगर चर्चा है कि कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन के बाद भी कोई कार्यवाही न होने के कारण अब भ्रष्टाचार के मामलों की सूची बना कर तथ्यों के साथ एसीबी को देने की रणनीति भी बनाई जा रही है। इसके अतिरिक्त सीबीआई जांच भी कराने पर जोर डाला जाएगा। समझा जाता है कि जिस प्रकार के प्रमाण हैं, न केवल जिम्मेदार अधिकारी अपितु कुछ प्रमुख भूमि दलाल शिकंजे में आ सकते हैं।

गुरुवार, दिसंबर 16, 2010

अब उमा को थूक कर चाटने की तैयारी


पार्टी विथ दि डिफ्रेंसज् का तमगा लगाए हुए भाजपा समझौता दर समझौता करने को मजबूर है। पहले उसने पार्टी की विचारधारा को धत्ता बताने वाले जसवंत सिंह व राम जेठमलानी को छिटक कर गले लगाया, कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा व राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की बगावत के आगे घुटने टेके और अब उमा भारती को थूक कर चाटने को तैयार है। हालांकि फिलवक्त उन्होंने अपनी राजनीतिक दिशा तय करने के लिए कुछ दिन की मोहलत मांगी है, मगर पक्की जानकारी यही है कि पार्टी के शीर्षस्थ नेता लाल कृष्ण आडवानी उन्हें पार्टी में वापस लाने की पूरी तैयार कर चुके हैं।
राजनीति में समझौते तो करने ही होते हैं, मगर जब से भाजपा की कमान नितिन गडकरी को सौंपी गई है, उसे ऐसे-ऐसे समझौते करने पड़े हैं, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। असल में जब से अटल बिहारी वाजपेयी व लाल कृष्ण आडवाणी कुछ कमजोर हुए हैं, पार्टी में अनेक क्षत्रप उभर कर आ गए हैं, दूसरी पंक्ति के कई नेता भावी प्रधानमंत्री के रूप में दावेदारी करने लगे हैं। और सभी के बीच तालमेल बैठाना गडकरी के लिए मुश्किल हो गया है। हालत ये हो गई कि उन्हें ऐसे नेताओं के आगे भी घुटने टेकने पड़ रहे हैं, जिनके कृत्य पार्टी की नीति व मर्यादा के सर्वथा विपरीत रहे हैं।
ज्यादा दिन नहीं बीते हैं। पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को बाहर का रास्ता दिखाने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। कितने अफसोस की बात है कि अपने आपको सर्वाधिक राष्ट्रवादी पार्टी बताने वाली भाजपा को ही हिंदुस्तान को मजहब के नाम पर दो फाड़ करने वाले जिन्ना के मुरीद जसवंत सिंह को फिर से अपने पाले में लेना पड़ा।
वरिष्ठ एडवोकेट राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने के समान है। भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
पार्टी में क्षेत्रीय क्षत्रपों के उभर आने के कारण पार्टी को लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के आदेश की अवहेलना करने पर पार्टी वसुंधरा के खिलाफ कठोर निर्णय करने से कतराती रही। वजह साफ थी वे राजस्थान में नई पार्टी बनाने का मूड बना चुकी थीं, जो कि भाजपा के लिए बेहद कष्टप्रद हो सकता था। संघ लॉबी चाह कर भी वसुंधरा के कद को नहीं घटा पाई। उन्हें केन्द्रीय कार्यकारिणी में सम्मानजनक पद देना पड़ा। पार्टी ने सोचा कि ऐसा करने से वसुंधरा को राजस्थान से कट जाएंगी, मगर वह मंशा पूरी नहीं हो पाई। प्रदेश अध्यक्ष भले ही उसकी पसंद का है, मगर आज भी राज्य में पार्टी की धुरी वसुंधरा ही हैं। इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। वसुंधरा के मामले में पार्टी की स्थिति कितनी किंकर्तव्यविमूढ़ है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब से उन्होंने विपक्ष के नेता का पद छोड़ा है, आज तक दूसरे किसी को उस पद पर आसीन नहीं किया जा सका है।
हाल ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के मामले में भी पार्टी को दक्षिण में जनाधार खोने के खौफ में उन्हें पद से हटाने का निर्णय वापस लेना पड़ा। असल में उन्होंने तो साफ तौर पर मुख्यमंत्री पद छोडऩे से ही इंकार कर दिया था। उसके आगे गडकरी को सिर झुकाना पड़ गया।
उमा भारती के मामले में भी पार्टी की मजबूरी साफ दिखाई दे रही है। जिन आडवाणी को पहले पितातुल्य मानने वाली मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने उनके ही बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल किया, वे ही उसे वापस लाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज करने की नौबत यह साफ जाहिर करती है कि भाजपा अंतद्र्वंद में जी रही है।
थोड़ा पीछे मुड़ कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा का ढांचा चरमराया हुआ है। कांग्रेसनीत सरकार लाख बुराइयों के बावजूद सत्ता पर फिर काबिज हो गई। मूलत: हिंदुत्व की पक्षधर, मगर राजनीतिक मजबूरी के चलते मुसलमानों को भी गले लगाने का नाटक करते हुए दोहरी मानसिकता में जी रही भाजपा की तो चूलें ही हिल गईं। पार्टी में इतना घमासान हुआ कि एक बारगी तो नाव के खिवैया बन कर डूबने से बचाने वाले शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ही पार्टी के भीतर अप्रांसगिक महसूस होने लगे। यहां तक कि कट्टर हिंदुत्व के पक्षधरों को ही हार की मूल वजह माना जाने लगा। पार्टी के दिग्गजों को अपनी मौलिक विचारधारा की दुबारा समीक्षा करने नौबत आ गई। उन्हें यही समझ में नहीं आ रहा था कि पार्टी को प्रतिबद्ध हिंदुत्व की राह पर चलाया जाए अथवा लचीले हिंदुत्व का रास्ता चुना जाए। आखिरकार सभी संघ की ओर ही मुंह ताकने लगे। संघ ने कमान संभाली और नए सिरे से शतरंज की बिसात बिछा दी। उसी का ही परिणाम था कि पार्टी को लोकसभा में विपक्ष का नेता बदलना पड़ा। बदले समीकरणों में गडकरी अध्यक्ष पद तो काबिज हो गए, मगर उन्हें लगातार समझौते करने पड़ रहे हैं।

गुरुवार, दिसंबर 02, 2010

जीत हुई आखिर बगावत और ब्लैकमेलिंग की

पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद कर वोट हासिल करने वाली भाजपा और अन्य राजनीतिक पार्टियों में कोई डिफ्रेंस नहीं रह गया है। भाजपा में अब न केवल बगावत का जमाना आ गया है, अपितु सत्ता की खातिर वह ब्लैकमेल होने को भी तैयार है। अफसोसनाक पहलु देखिए कि जिस भ्रष्टाचार को लेकर वह दिल्ली में हुल्लड़ मचाए हुए है, कर्नाटक में उसी मुद्दे के आगे नतमस्तक हो गई है। इससे तो वर्षों तक सत्ता का मजा ले चुकी और भ्रष्ट मानी जाने वाली कांग्रेस ही बेहतर रही, जिसने ना-नुकुर के बाद ही सही, मगर भ्रष्टाचार का आरोप लगने पर दूरसंचार मंत्री राजा को हटा दिया।
असल सवाल ये नहीं है कि राजा ने तो इस्तीफा दे दिया और कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा अड़ गए, असल सवाल ये है कि दूसरी पार्टी के होते हुए भी राजा ने कांग्रेस के दबाव पर पद छोड़ दिया, जबकि येदियुरप्पा इस्तीफा देने के पार्टी हाईकमान के फरमान के बाद भी कुर्सी से चिपके रहे। चिपके क्या रहे, पार्टी हाईकमान पर यह लेबल चिपका दिया कि वह इतना कमजोर हो गया है कि क्षेत्रीय क्षत्रप उसके कब्जे में नहीं रहे हैं।
धरातल का सच तो यह है कि येदियुरप्पा न केवल बगावत की, अपितु पार्टी हाईकमान को ब्लैकमेल तक किया। उन्होंने जब ये चेतावनी दी कि अगर उनसे जबरन इस्तीफा मांगा गया तो कर्नाटक में भाजपा का सफाया हो जाएगा, पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी को झुकना ही पड़ा। दरअसल येदियुरप्पा के पास ब्लैकमेल करने की ताकत थी ही इस कारण कि उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। इसके अतिरिक्त उन्होंने दो बार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करके भी दिखा दिया। यदि पार्टी उन्हें पद से हटने को मजबूर करती तो पार्टी का जनाधार ही समाप्त हो जाता। इसके अतिरिक्त निकट भविष्य में होने जा रहे पंचायती राज चुनाव में भारी घाटा उठाना पड़ता। जाहिर सी बात है कि उत्तर भारत की पार्टी कहलाने वाली भाजपा को कर्नाटक के बहाने दक्षिण में बमुश्किल पांव जमाने का मौका मिला था, भला वहां उखडऩे को कैसे तैयार होती। कदाचित अब भाजपा को भी समझ में आ गया होगा कि आदर्श की बातें करना और उन पर अमल करना कितना कठिन है। उसे यह भी अहसास हो गया होगा कि जिन मुद्दों पर वह कांग्रेस को घेरते हुए अपने आपको पाक साफ बताती थी, उनको लेकर सत्ता की खातिर कांग्रेस कैसे कई बार ढ़ीठ हो जाती थी।
भाजपा की इस ताजा हरकत से यकायक यह एसएमएस याद आ गया, जो पिछले दिनों काफी चर्चित रहा था-

How strange is the logic of our mind, we look for compromise, when we are wrong and we look for justice when others are wrong.

ऐसा नहीं कि भाजपा में यह पहला मामला हो। इससे पहले राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे बगावती तेवर दिखा चुकी हैं। उन्होंने भी पार्टी हाईकमान के इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया था कि वे नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़ दें। संगठन में राष्ट्रीय महामंत्री बनाए जाने के बाद भी बड़ी मुश्किल से पद छोड़ा, पर नहीं छोडऩे जैसा। उनके छोडऩे के बाद दूसरा आज तक पदारूढ़ नहीं किया जा सका है। प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास की पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर भाजपा की दुकान की असली मालिक अब भी श्रीमती वसुंधरा ही नजर आती हैं। बीच में तो हालत ये हो गई थी कि यदि हाईकमान  ज्यादा ही सख्ती दिखाता तो वसुंधरा नई पार्टी गठित कर देती। ऐसे में हाईकमान यहां समझौता करके ही चल रही है। राजनीतिक गरज की खातिर इससे पूर्व भी हाईकमान ब्लैकमेल हो चुका है। खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगा लिया था। उसकी इस राजनीतिक मजबूरी तो तब इसे थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी। विशेष रूप से इस कारण कि लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने पार्टी को एक के बाद एक ऐसे कदम उठाने पड़े। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा। इससे पहले आडवाणी से किनारा करने का पक्का मानस बना चुकी भाजपा को अपने भीतर उन्हीं के कद के अनुरूप जगह बनानी पड़ी है।
वसुंधरा इतनी ताकतवर हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाई, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही है। भाजपाईयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम है।
बहरहाल, पार्टी आज जिस रास्ते पर चल रही है, उससे उसका पार्टी विद द डिफ्रेंस का तमगा छिन चुका है। माने भले ही खुद को सर्वाधित पाक साफ, मगर राजनीतिक लिहाज से कांग्रेस से अलग या ऊपर होने का गौरव खो चुकी है।

शनिवार, नवंबर 27, 2010

आखिर कब होगा छह दिन का हफ्ता?

एक चर्चा बार-बार उठती है कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार अपने दफ्तरों में फिर से छह दिन का हफ्ता करने पर विचार कर रही है। पिछले दिनों भी इस प्रकार की सुगबुगाहट सुनाई दी थी, लेकिन हुआ कुछ नहीं। असल में जब से अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने हैं, वे और उनके सिपहसालार ये महसूस कर रहे हैं पांच दिन का हफ्ता होने से आम जनता बेहद त्रस्त है, मगर चर्चा होती है और सिरे तक नहीं पहुंच पाती।
ज्ञातव्य है कि पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सरकार के जाते-जाते कर्मचारियों के वोट हासिल करने के लिए पांच दिन का हफ्ता कर गई थीं। चंद दिन बाद ही आम लोगों को अहसास हो गया कि यह निर्णय काफी तकलीफदेह है। लोगों को उम्मीद थी कि कांगे्रस सरकार इस फैसले को बदलेगी। उच्च स्तर पर बैठे अफसरों का भी यह अनुभव था कि पांच दिन का हफ्ता भले ही कर्मचारियों के लिए कुछ सुखद प्रतीत होता हो, मगर आम जनता के लिए यह असुविधाजन व कष्टकारक ही है। हालांकि अधिकारी वर्ग छह दिन का हफ्ता करने पर सहमत है, लेकिन इसे लागू करने से पहले कर्मचारी वर्ग का मूड भांपा जा रहा है।
वस्तुत: यह फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
अब जब कि वसुंधरा की ओर से की गई व्यवस्था को दो साल से भी ज्यादा का समय हो गया है, यह स्पष्ट हो गया है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ी है। पांच दिन का हफ्ता करने की एवज में प्रतिदिन के काम के घंटे बढ़ाने का कोई लाभ नहीं हुआ है। कर्मचारी वही पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में वही पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। चर्चा कब अंजाम तक पहुंचेगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो केन्द्र सरकार के दफ्तरों में बेहतर काम हो ही रहा है। पांच दिन डट कर काम होता है और दो दिन मौज-मस्ती। मगर केन्द्र व राज्य सरकार के दफ्तरों के कर्मचारियों का मिजाज अलग है। केन्द्रीय कर्मचारी लंबे अरसे से उसी हिसाब ढले हुए हैं, जबकि राज्य कर्मचारी अब भी अपने आपको उस हिसाब से ढाल नहीं पाए हैं। वे दो दिन तो पूरी मौज-मस्ती करते हैं, मगर बाकी पांच दिन डट कर काम नहीं करते। कई कर्मचारी तो ऐसे भी हैं कि लगातार दो दिन तक छुट्टी के कारण बोर हो जाते हैं। दूसरा अहम सवाल ये भी है कि राज्य सरकार के अधीन जो विभाग हैं, उनसे आम लोगों का सीधा वास्ता ज्यादा पड़ता है। इस कारण हफ्ते में दो दिन छुट्टी होने पर परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हंै कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
ऐसा नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं, बेहद परेशान हैं, मगर बोल कोई नहीं रहा। कर्मचारी संगठनों के तो बोलने का सवाल ही नहीं उठता। राजनीतिक संगठन ऐसे पचड़ों में पड़़ते नहीं हैं और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों को क्या पड़ी है कि इस मामले में अपनी शक्ति जाया करें। ऐसे में जनता की आवाज दबी हुई पड़ी है। देखना ये है कि गहलोत आम लोगों के हित में फैसले को पलट पाते हैं या नहीं।