तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, जनवरी 27, 2019

वसुंधरा के हटते ही भाजपा में बिखराव?

tejwani girdhar
राजस्थान विधानसभा चुनाव में भाजपा की पराजय के बाद पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना कर राजस्थान की राजनीति से साइड करने से भाजपा में बिखराव की नौबत आ गई दिखती है। हालांकि बिना किसी हील हुज्जत के जब वे उपाध्यक्ष बनने व धुर विरोधी गुलाब चंद कटारिया को विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने देने को राजी हुईं तो यही लगा कि उनकी खुद की भी अब राजस्थान में रुचि नहीं रही है, मगर हाल ही जब उन्होंने कहा कि वे राजस्थान की बहू हैं और से यहां से उनकी अर्थी ही जाएगी तो ऐसे संकेत मिले कि वे यकायक अपनी दिलचस्पी कम करने वाली नहीं हैं। तो क्या एक ओर उनका राजस्थान के प्रति मोह और दूसरी ओर जयपुर नगर निगम के मेयर के चुनाव में भाजपा की पराजय व जिला परिषद में पेश भाजपा का अविश्वास प्रस्ताव खारिज होने को आपस में जोड़ देखा जाना चाहिए?
बेशक जिस प्रकार इन दोनों मामलों में भाजपा की किरकिरी हुई है, उसका वसुंधरा से सीधा कोई लेना-देना नहीं है, मगर इस मौके पर उनकी अनुपस्थिति भाजपा को खल रही होगी। अगर कमान उनके हाथ होती तो वे इतना आसानी से नहीं होने नहीं देतीं। यह नाकमयाबी साफ तौर पर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मदनलाल सैनी के खाते में ही गिनी जाएगी। इसका अर्थ ये भी निकलता है कि जैसे ही वसुंधरा राज्य की राजनीति से अलग की गई हैं, सैनी कमजोर हो गए हैं। उनका नियंत्रण नहीं रहा है, जैसा कि वसुंधरा के रहते होता था। सिक्के का एक पहलु ये भी है कि भले ही वसुंधरा राज्य की राजनीति से पृथक दी गई हों, मगर संगठन में अधिसंख्य पदाधिकारी उनकी ही पसंद के हैं। तो सवाल उठता है कि क्या वसुंधरा की तरह उन्होंने भी रुचि लेना कम कर दिया है। इसे आसानी से समझा जा सकता है कि अकेले वसुंधरा को दिल्ली भेज दिए जाने से उनका गुट तो समाप्त तो नहीं हो गया होगा। दिल्ली जाने के बाद भी इस गुट के जरिए अपनी अंडरग्राउंड पकड़ बनाए रखना चाहेंगी।
जो कुछ भी है, यह स्पष्ट है कि ताजा हालात ये ही बयां कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव की तैयारियों के बीच भाजपा बिखराव की स्थिति में आ गई है। हो सकता है कि भाजपा हाईकमान ने वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत किए जाने के बाद उत्पन्न होने वाले हालात का अनुमान लगा रखा हो, मगर फिलवक्त लगता है कि हाईकमान को स्थितियों का नए सिरे से आकलन करना होगा। इतना ही नहीं, उसे वसुंधरा के मजबूत गुट के साथ संतुलन बनाने के लिए वसुंधरा को महत्व देना ही होगा। अन्यथा आगामी लोकसभा चुनाव में उसे भारी परेशानी का सामना करना होगा। होना तो यह चाहिए था कि वसुंधरा को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाए जाने के साथ यहां की संगठनात्मक चादर को नए सिरे से बिछाना चाहिए था, मगर लोकसभा चुनाव सिर पर ही आ जाने के कारण इतना बड़ा फेरबदल करना आसान भी नहीं था।
यह ठीक है कि स्थानीय इक्का-दुक्का हार की हाईकमान को चिंता नहीं है, मगर देखने वाली बात ये होगी कि वह उसके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण लोकसभा चुनाव में क्या रणनीति अपनाती है।

बुधवार, जनवरी 02, 2019

मोदी की वजह से निपटी वसुंधरा

तेजवानी गिरधर
हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में हालांकि मोटे तौर पर यही माना जा रहा है कि वसुंधरा राजे की सरकार नाकामियों के कारण हार गई या फिर एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर ने काम किया, मगर बारिकी से देखा जाए तो इसकी वजह रही नरेन्द मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां और जनता से की गई वादा खिलाफी। ठेठ आम मतदाता को इतनी समझ नहीं होती है कि सरकार कैसे काम रही है, उसे तो केवल महंगाई से वास्ता होता है या फिर बदलाव की प्रवृत्ति। स्वाभाविक रूप से जो भी सरकार काम करती है तो जनता की सारी अपेक्षाएं पूरी हो नहीं पाती, नतीजतन असंतुष्ट मतदाता एंटी इंन्कंबेंंसी का हिस्सा बन जाता है। उसे ही विपक्षी दल भुनाता है।
ऐसा नहीं कि अकेले मोदी फैक्टर की वजह से ही वसुंधरा हारीं। उनकी सरकार की भी कमजोरियां थीं। कई मोर्चों पर नाकामियां रहीं। राजपूत वोट बैंक खिलाफ हो गया। आखिर में तो कर्मचारी भी नाराज हो गए। मगर आम मतदाता मूल रूप से मोदी की आर्थिक अराजकता के कारण गुस्से में थी। राजस्थान में भी निष्प्राण प्राय: हो चुकी कांग्रेस को प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट ने जीवित करने का प्रयास किया तो उन्होंने स्वाभाविक रूप से वसुंधरा सरकार पर ही हमले बोले। उधर संघ निष्ट भाजपाइयों ने भी सुनियोजित तरीके से यह नारा चला दिया कि मोदी से तेरे से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं। अर्थात वसुंधरा के प्रति नाराजगी दिखाते हुए भी वे मोदी के नाम पर वोट मांग रहे थे। वे यह जानते थे कि जनता में असल में मोदी की नोटबंदी, जीएसटी व महंगाई की वजह से रोष है, लेकिन अगर यही मुद्दे उभर कर आए तो आगामी लोकसभा चुनाव के लिए सुरक्षित मोदी ब्रांड को खतरा उत्पन्न हो जाएगा, इस कारण गुस्से को वसुंधरा की ओर डाइवर्ट कर दिया गया। एक बारगी तो ऐसा माहौल बना दिया गया कि अगर वसुंधरा को नहीं हटाया गया तो भाजपा बुरी तरह से पराजित हो जाएगी। इसके लिए लोकसभा उपचुनाव में जानबूझ कर संघ ने असहयोग किया, ताकि सारा दोष वसुंधरा पर मढ़ा जाए। वसुंधरा को हटाने व कमजोर करने की कोशिशें भी कम नहीं हुईं, मगर चूंकि वे मजबूत थीं, इस कारण हाईकमान चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाया। अगर जबरन हटाने की कोशिश होती तो पार्टी दो फाड़ भी हो सकती थी। प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने के दौरान जो कुछ हुआ, वह सर्वविदित ही है। हालत ये हो गई कि उसे वसुंधरा को ही आगे रख कर चुनाव लडऩा पड़ा। हालांकि यह सही है कि अगर भाजपा अपना चेहरा बदलती तो उसका उसे कुछ फायदा होता। उसी ने लगभग साल भर पहले वसुंधरा के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया था। उसे उम्मीद थी कि ऐसा करने से वसुंधरा की जगह किसी और चेहरे पर चुनाव लड़ा जा सकेगा। यदि चेहरा नहीं भी मिला तो मोदी के नाम पर वोट मांगे जाएंगे।
भाजपा हाईकमान जानता था कि महंगाई कम करने का वादा तो पूरा हुआ नहीं, उलटे बढ़ गई, जिससे आम जनता त्रस्त थी। कहां तो बड़े पैमाने पर रोजगार देने का सपना दिखाया गया था और कहां नोटबंदी के चलते बाजार में मंदी आ गई व बेरोजगारी और अधिक बढ़ गई। रही सही कसर जीएसटी ने की। आमतौर पर भाजपा के साथ रहने वाला व्यापारी तबका भी बेहद त्रस्त रहा। गुस्सा इतना अधिक था कि आखिर में मोदी व अमित शाह की ताबड़तोड़ सभाएं भी कुछ नहीं कर पायीं। जमीनी हकीकत यही है। जनता को ये कत्तई भान नहींं था कि वसुंधरा ने अच्छा काम किया या नहीं। अब चूंकि चुनाव राज्य सरकार का था तो स्वाभाविक रूप से मतदाता का रोष वसुंधरा के खिलाफ गिना गया। गिना क्या गया, जानबूझ कर भाजपा खेमे से ऐसा ही गिनवाया गया। भाजपा के नीति निर्धारकों को वसुंधरा के शहीद होने की चिंता नहीं थी, एक राज्य चला भी जाए तो कोई बात नहीं, उन्हें तो फिक्र थी मोदी ब्रांड की, जो यदि डाउन हुआ तो लोकसभा चुनाव में सत्ता में वापस लौटना मुश्किल हो जाएगा।
खैर, अब जबकि यह मान ही लिया गया है कि वसुंधरा राजे की ही वजह से भाजपा पराजित हुई है, समझा जाता है कि उन्हें लोकसभा चुनाव लड़वा कर राजस्थान से रुखसत किया जाएगा। हालांकि यह भी तभी होगा, जबकि वसुंधरा खुद इसके लिए राजी होंगी। वैसे यह पक्का है कि लोकसभा चुनाव में मोदी का चेहरा ही अहम भूमिका में होगा, मगर राजस्थान में वसुंधरा की मौजूदगी समाप्त करने पर विचार किया जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000, 8094767000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, अक्टूबर 17, 2018

राजस्थान में बहुत जोर आएगा मोदी व शाह को

-तेजवानी गिरधर-
राजस्थान अब चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। दोनों दलों में प्रत्याशियों के चयन की कवायद भी कमोबेश आरंभ हो गई है। माना यही जा रहा है कि राज्य में हर पांच साल में सत्ता बदलने का ट्रेंड ही कायम रहेगा। ऐसे में जहां कांग्रेस उत्साहित है तो वहीं मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को यही यकीन है कि वे ट्रेंड को बदल कर दुबारा सत्ता पर काबिज हो जाएंगी। अब तक जो सर्वे हुए हैं, उससे तो यही लगता है कि भाजपा का फिर सत्ता में आना कठिन है। इसी से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह चिंतित हैं, क्यों कि अगर यहां भाजपा सत्ता से बेदखल हुई तो उसका असर आगामी लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा। मोदी-शाह यही चाहते थे कि एंटी इन्कंबेंसी से बचने के लिए वसुंधरा राजे को साइड लाइन किया जाए, मगर बहुत प्रयासों के बाद भी वे ऐसा नहीं कर पाए। न केवल वसुंधरा राजे की सहमति से ही मदनलाल सेनी को प्रदेश अध्यक्ष घोषित करना पड़ा, अपितु यह भी ऐलान करना पड़ा कि आगामी चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। उसके बाद आई ग्राउंड रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर आया है कि भाजपा का ग्राफ काफी नीचे गिर रहा है। उसे ऊंचा करने के लिए खुद मोदी व शाह को बहुत मशक्कत करनी होगी।
ज्ञातव्य है कि एक बड़े सर्वे का निष्कर्ष था कि कांग्रेस को 143 और भाजपा को मात्र 57 सीटें मिल पाएंगी। सट्टा बाजार भी कांग्रेस को लगभग 140-150 और भाजपा को मात्र 50-60 सीटें दे रहा है। धरातल कर सच भी ये है कि लोकसभा व विधानसभा उपचुनाव में भाजपा की करारी हार हुई। इससे वसुंधरा सरकार की चूलें हिल गईं। अगर उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भी बड़ी हार नहीं हुई होती, तो राजस्थान में नेतृत्व परिवर्तन तय था। राजस्थान के नए मुख्यमंत्री के नाम भी बाजार में आ गए थे, लेकिन उत्तर प्रदेश की हार वसुंधरा के लिए अभयदान साबित हुई। उस हार के आगे राजस्थान की अभूतपूर्व हार को, भाजपा आलाकमान को नजरअंदाज करना पड़ा और वसुंधरा राजे के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी।
असल में भाजपा का ग्राफ गिरने के कई कारण हैं। बड़ी वजह तो ये है कि जो सपने दिखा कर वसुंधरा सत्ता में आई, वे धरातल पर नहीं उतर पाए।  इसके अतिरिक्त नोट बंदी व जीएसटी ने भी भाजपा के खिलाफ माहौल बनाया है। दो बड़े मामलों में तो वसुंधरा सरकार को यूटर्न लेना पड़ा। प्रेस के खिलाफ वसुंधरा राजे एक साल पहले काला कानून लाई थीं, तब पत्रकारों ने उस काले कानून के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया था। राजस्थान पत्रिका ने तो सरकार की खबरों का बायकाट किया। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा तथा कानून वापस लेना पड़ा। दूसरे मामला था बाबा रामदेव का। उन्हें करोली में जमीन देने का फैसला इस कारण बदलना पड़ा क्योंकि कोर्ट ने साफ कर दिया कि मंदिर माफी की जमीन नहीं दी जा सकती।
वसुंधरा राजे पर सीधे हमले करने वाले वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी ने सबसे ज्यादा मुसीबत खड़ी की। वे विधानसभा के अंदर व बाहर लगातार वसुंधरा को घेरते रहे। मगर भाजपा हाईकमान की हिम्मत ही नहीं हुई कि उन पर कार्यवाही करे। आखिरकार तिवाड़ी ने खुद ही पार्टी छोड़ी और नई पार्टी बना कर सभी दो सौ सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया है। बात अगर गौरव यात्रा की करें तो बेशक इसके जरिए वसुंधरा ने हालात पर काबू करने की भरसक कोशिश की है, मगर यह यात्रा भी कुछ विवादों में आ गई। यात्रा में किए जा रहे सरकारी खर्च को लेकर हाईकोर्ट के दखल से सरकार की किरकिरी हुई।
हालांकि कुछ लोगों का आकलन है कि जिस चुनावी सर्वे में भाजपा की हालत पतली बताई गई है, वह कुछ पुराना हो चुका है। तब तक न तो मोदी की रैली हुई थी और न ही शाह के दौरे आरंभ हुए थे। वसुंधरा की गौरव यात्रा भी शुरू नहीं हुई थी। अब वह स्थिति नहीं रही होगी। जरूर भाजपा का जनाधार कुछ संभला होगा। लेकिन अब भी भाजपा सरकार दुबारा बनेगी, इसमें संशय है। इतना तो पक्का है कि स्थितियां उसके अनुकूल नहीं हैं। उन्हें ठीक करने के लिए मोदी-शाह को अतिरिक्त मेहनत करनी होगी।
चुनाव भले ही वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाए, मगर बड़े पैमाने पर मौजूदा विधायकों के टिकट काटने का कड़ा निर्णय लेना पड़ेगा। कुछ मंत्री भी चपेट में आ सकते हैं। कुल मिला कर मोदी व शाह को चुनावी रणनीति में बड़ा फेरबदल करना होगा। अकेले वसुंधरा के दम पर चुनाव जीतना कत्तई नामुमकिन लग रहा है, इस कारण दोनों स्वयं भी धरातल पर आ कर ज्यादा से ज्यादा जोर लगाना होगा। संभव है संघ के सहयोग से तिवाड़ी को कुछ सीटें दे कर राजी करने की कोशिश की जाए। वरिष्ठ नेता ओम प्रकाश माथुर की एंट्री हो सकती है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे, भाजपा हाईकमान अपने पत्ते खोलेगी। वे क्या होंगे, इसका अनुमान लगाना कठिन है।

शुक्रवार, सितंबर 07, 2018

नोटबंदी की नाकामयाबी पर रिजर्व बैंक का ठप्पा

-तेजवानी गिरधर-
राजनीति में शुचिता व भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टोलरेंस का आदर्श स्थापित करने का लुभावना वादा कर कांग्रेस का तख्ता पलट करने वाली भाजपा कालाधन खत्म करने के लिए नोटबंदी लागू करने का उद्घोष करने वाली भाजपा सरकार के मुंह पर रिजर्व बैंक ने ताला जड़ दिया है। रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से अब यह पूरी तरह साफ हो गया है कि जिस मकसद से नोटबंदी लागू की गई, वह पूरी तरह से नाकामयाब हो गया। अफसोसनाक बात ये कि इसकी वजह से चौपट हुई अर्थव्यवस्था ने आम आदमी का जीवन इतना दूभर कर दिया है, जिससे वह आज तक नहीं उबर पाया है। रही सही कसर जीएसटी ने पूरी कर दी।
आपको याद होगा कि काला धन व भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने इतनी बड़ी मुहिम चलाई कि तत्कालीन कांग्रेस नीत सरकार बुरी तरह से घिर गई। चूंकि अन्ना के पास कोई राजनीतिक विकल्प नहीं था, इस कारण तब भाजपा ने इस मुद्दे को तत्काल लपक लिया और नरेन्द्र मोदी की ब्रांडिंग के साथ सत्ता पर कब्जा कर लिया। सत्ता हासिल करने के लिए मोदी ने अब तक का सबसे बड़ा व लुभावना सपना दिखाया कि यदि काला धन समाप्त किया जाए तो हर भारतीय के बैंक खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा कराए जा सकते हैं। उसी काले धन को नष्ट करने के लिए मोदी ने यकायक बिना किसी कार्ययोजना के नोटबंदी लागू कर दी। पूरा देश हिल गया। करोड़ों लोग बैंकों के आगे भिखारियों की तरह लाइन में लग गए। कितनों की जान गई। हालात इतने बेकाबू हो गए कि सरकार नित नए आदेश जारी करने लगी, मगर समस्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही गई।  नकद राशि के अभाव में कई युवाओं की शादियां टल गईं। तरल धन की कमी के चलते निर्माण कार्य करने वाले मजदूरों को उनका भुगतान तक नहीं कर पाए। हजारों लोग बेरोजगार हो गए। लघु उद्योग तो पूरी तरह से चौपट हो गए। सच तो ये है कि देश की पूरी अर्थव्यवस्था पंगु हो गई थी। मौका देख कर बैंक कर्मियों ने भी जम कर लूट मचाई। समझा जाता है कि बैंकों इतिहास में पहली बार इस प्रकार कर खुला भ्रष्टाचार हुआ। बदतर हालात देख कर मोदी समर्थकों ने कहना शुरू कर दिया कि अगर बैंक वाले बेईमानी पर नहीं उतरते तो नोटबंदी कामयाब हो जाती।
नोटबंदी लागू होते ही आम जनता की दुश्वारियां बढ़ीं तो हालात सामान्य होने के लिए पचास दिन की मोहलत मांगी। लोगों ने यह सोच कर सब्र रखा कि मोदी को एक बार काम करने का मौका दिया जाना चाहिए। आम आदमी परेशान तो था, मगर उसे खुशी थी कि मोदी पैसे वालों की आंतडिय़ां फाड़ कर काला धन लाने वाले हैं। मगर चंद दिन में ही यह अंदेशा हो गया था कि नोटबंदी बेकार होने वाली है।
ताजा रिपोर्ट के अनुसार सरकार ने कहा था कि ढाई साल में 1.2 लाख करोड़ रु. कालाधन बाहर आया। 3-4 लाख करोड़ और आएगा। मगर हुआ ये कि 99.3 प्रतिशत पुराने नोट वापस आ चुके हैं। जो 10,720 करोड़ रु. नहीं आए, उन्हें भी सरकार पूरी तरह कालाधन नहीं मान रही।
इसी प्रकार मोदी का दावा था कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए नोटबंदी लागू की जा रही है, मगर हुआ ये कि पहले भ्रष्ट देशों में भारत 2016 में 79 नंबर पर था। अब 2017 में 81 पर पहुंच गया।
सरकार ने नोटबंदी की वजह से हो रही परेशानी से ध्यान बंटाने के लिए यह पैंतरा चला कि नोटबंदी से आतंकवाद की कमर टूट जाएगी। यह बात लोगों के गले भी उतरी। मगर सच्चाई ये है कि यह जुमला मात्र ही रहा। तथ्य ये है कि 8 नवंबर 2015 से नवंबर 2016 तक 155 आतंकी घटनाएं हुईं। इसके बाद 2017 तक 184 व 31 जुलाई 2018 तक 191 घटनाएं हुईं।
यदि सरकार को कोई सफलता हासिल भी हुई तो ये कि 2016 के मुकाबले 2017 में डिजिटल पेमेंट की राशि 40 प्रतिशत तक बढ़ी है। जुलाई 2018 तक 5 गुणा बढ़ोतरी।
कुल मिला कर यह साबित हो चुका है कि नोटबंदी लागू करने की एवज में जो फायदे गिनाए गए थे, वे पूरी तरह से फ्लाप साबित हुए हैं। न तो  आतंकवाद में कमी आई है और न ही भ्रष्टाचार कम हुआ है।
सवाल ये उठता है कि क्या रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के बाद सरकार आम जन से माफी मांगेगी?

बुधवार, अगस्त 29, 2018

एक देश, एक चुनाव : सत्ता पर दुबारा काबिज होने की कवायद

-तेजवानी गिरधर-
भाजपा की एक देश एक चुनाव की कवायद भले ही चुनाव सुधार की दिशा में बढ़ती नजर आती है, मगर राजनीतिक जानकारों की दृष्टि में उसका साइलेंट एजेंडा एक बार फिर सत्ता पर काबिज होने की मंशा है। ज्ञातव्य है कि हाल ही यह खबर सुर्खियों में रही कि भाजपा लोकसभा चुनाव के साथ 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव भी करवा लेना चाहती है। इस आशय की खबरें पूर्व में आती रहीं, मगर उस पर मंथन मात्र ही हुआ। हालांकि इस पर अभी सर्वसम्मति नहीं हो पाई है और न ही कोई ठोस प्रस्ताव तैयार हो पाया है, मगर भाजपा की कोशिश है कि किसी न किसी तरह इसे अमल में लाया जाए।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि कम से कम सैद्धांतिक रूप से अगले साल लोकसभा चुनावों के साथ 11 राज्यों के विधानसभा चुनाव कराने का प्रयास किया जा सकता है। लोकसभा चुनावों के साथ 11 राज्यों के चुनाव कराने पर भाजपा शासित तीन राज्यों के चुनाव देर से कराया जा सकते हैं और 2019 में बाद में होने वाले कुछ राज्यों के चुनाव पहले कराए जा सकते हैं। ऐसे 11 राज्यों की पहचान की गई है। रहा सवाल ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और सिक्किम का तो वहां मतदान सामान्य तौर पर लोकसभा चुनावों के साथ होते हैं। झारखंड़, हरियाणा और महाराष्ट्र में भी चुनाव 2019 में अक्टूबर में होने हैं, ऐसे में वहां कुछ महीने पहले चुनाव कराए जा सकते हैं। जम्मू-कश्मीर में पहले से ही राज्यपाल शासन लगा हुआ है। ऐसे में वहां भी चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ हो सकते हैं। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ विधानसभाओं का कार्यकाल जनवरी 2019 में समाप्त हो रहा है। भाजपा की सोच है कि वहां कुछ समय के लिए राज्यपाल शासन लगाया जा सकता है ताकि वहां विधानसभा चुनाव अगले साल लोकसभा चुनाव के साथ हों। कांग्रेस शासित मिजोरम विधानसभा का कार्यकाल भी इस साल दिसंबर में समाप्त हो रहा है। ऐसे में इन 11 राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, हरियाणा, सिक्किम और अरुणाचल में एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं।
जहां तक चुनाव आयोग का सवाल है वह स्पष्ट कर चुका है कि वह दिसम्बर में लोकसभा चुनाव के साथ चार राज्यों में एक साथ चुनाव कराने में सक्षम है। यह बात उन्होंने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और राजस्थान में एक साथ चुनाव कराने के सवाल पर कही। आयोग के अनुसार लोकसभा चुनाव अप्रैल-मई 2019 में होने हैं, लेकिन स्थिति बन रही है कि इन्हें नवम्बर-दिसम्बर 2018 में कराया जा सकता है। ऐसे में ये चुनाव मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, मिजोरम और राजस्थान के विधानसभा चुनाव के साथ हो सकते हैं। फिलहाल, मिजोरम विधानसभा का कार्यकाल 15 दिसंबर को पूरा हो रहा है। वहीं, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान विधानसभा क्रमश: 5 जनवरी, 7 जनवरी और 20 जनवरी को अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगी।
जानकारों का मानना है कि भाजपा की कोशिश है कि केन्द्र में उसकी सत्ता बरकरार रहे। उधर राजस्थान, मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के हालात ऐसे हैं कि अगर वहां नवंबर में चुनाव होते हैं तो एंटी इन्कंबेंसी फैक्टर के चलते भाजपा सत्ता से दूर रह सकती है। अगर ऐसा हुआ तो आगामी लोकसभा चुनाव में उसे दिक्कत आ सकती है। ये ऐसे राज्य हैं, जहां योजनाबद्ध कोशिश की जाए तो परिणाम भाजपा के अनुकूल आने की संभावना बनती है। भाजपा सोचती है कि अगर इन विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ कराए जा सके तो राज्य स्तरीय फैक्टर कम हो जाएगा और मोदी की ब्रांडिंग काम आ जाएगी। हालांकि यह सही है कि केन्द्र सरकार की परफोरमेंस अच्छी नहीं रही है, इस कारण दुबारा सत्ता में आना आसान नहीं रहा, कम से कम पहले जैसी मोदी लहर तो नहीं चलने वाली, मगर अब भी मोदी का ब्रांड तो चल ही रहा है। भाजपा उसका लाभ लेना चाहती है।
जानकार सूत्रों के अनुसार मोदी एक-दो ऐसी जनकल्याणकारी योजनाएं लागू करने में मूड में हैं, जिनका बड़े पैमाने पर सीधे आम जनता को लाभ मिलेगा और उनकी नॉन परफोरमेंस की स्मृति धुंधली पड़ जाएगी। आशंका इस बात की भी है कि वोटों के धु्रवीकरण के लिए पाकिस्तान के साथ छेडख़ानी की भी जा सकती है।
स्वाधीनता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से दिए गए संबोधन में यदि केंद्र सरकार की ओर से अब तक किए गए काम विस्तार से रेखांकित हुए तो इसीलिए, क्योंकि यह लाल किले के प्राचीर से उनके वर्तमान कार्यकाल का आखिरी भाषण था। ऐसे भाषण में आम चुनाव निगाह में होना स्वाभाविक है और शायद इसीलिए उन्होंने अपनी सरकार की अब तक की उपलब्धियों का जिक्र करने के साथ ही खुद को देश को आगे ले जाने के लिए व्यग्र बताया। उन्होंने अपनी सरकार की भावी योजनाओं पर भी प्रकाश डाला। इनमें सबसे महत्वाकांक्षी योजना आयुष्मान भारत है। प्रधानमंत्री ने 25 सितंबर से इस योजना को लागू करने की करने की घोषणा करते हुए यह भी स्पष्ट किया कि प्रारंभ में तो यह योजना निम्न वर्ग के दस करोड़ परिवारों के लिए होगी, लेकिन बाद में निम्न-मध्यम, मध्यम और उच्च वर्ग भी इसके दायरे में आएंगे।
कुल मिला कर यही संकेत मिला कि प्रधानमंत्री खास तौर पर गरीबों, महिलाओं और किसानों यानी एक बड़े वोट बैंक को यह भरोसा दिलाना चाह रहे हैं कि वे सब उनकी सरकार की विशेष प्राथमिकता में हैं। साफ है कि एक तरह से प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से यह आग्रह भी कर गए कि उन्हें इस ऐतिहासिक स्थल पर तिरंगा फहराने का अवसर फिर से मिलना चाहिए।

सोमवार, जुलाई 23, 2018

राजस्थान में तो वसुंधरा ही भाजपा है

महारानी के आगे घुटने टेके मोदी व शाह ने

-तेजवानी गिरधर-
प्रदेश भाजपा अध्यक्ष पद से अशोक परनामी को हटाने और मदनलाल सैनी को कमान सौंपे जाने के बीच चली लंबी रस्साकशी की निष्पत्ति मात्र यही है कि राजस्थान में वसुंधरा ही भाजपा है और भाजपा ही वसुंधरा है। ज्ञातव्य है कि इंडिया इस इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया की तर्ज पर पंचायती राज मंत्री राजेन्द्र सिंह राठौड़ एक बार इस आशय का बयान दे चुके हैं।
सर्वविदित है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व पार्टी अध्यक्ष अमित शाह केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को प्रदेशाध्यक्ष बनाना चाहते थे, लेकिन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस नाम पर सहमत नहीं थीं। इस चक्कर में प्रदेश अध्यक्ष पद ढ़ाई महीने से खाली पड़ा था। ऐसा नहीं कि हाईकमान ने वसुंधरा को राजी करने की कोशिश नहीं की, मगर महारानी राज हठ पर अड़ी रहीं। आखिरकार मोदी-शाह की पसंद पर वसुंधरा का वीटो भारी पड़ गया। यूं तो वसुंधरा पूर्व में भी मोदी से नाइत्तफाकी जाहिर कर चुकी हैं, मगर यह पहला मौका है, जबकि मोदी के प्रधानमंत्री व शाह के अध्यक्ष बनने के बाद किसी क्षत्रप ने उनको चुनौती दे डाली। न केवल चुनौती दी, अपितु उन्हें घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। जिस पार्टी पर मोदी व शाह का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा हो, उनके वजूद को एक राज्य स्तरीय नेता का इस प्रकार नकारना अपने आप में उल्लेखनीय है।
दरअसल मोदी के साथ वसुंधरा की ट्यूनिंग शुरुआती दौर में ही बिगड़ गई थी। हालांकि स्वयंसिद्ध तथ्य है कि मोदी लहर के कारण भाजपा को राजस्थान में बंपर बहुमत मिला, मगर वसुंधरा उसका पूरा श्रेय मोदी को देने के पक्ष में नहीं थीं। यह मोदी जैसे एकछत्र राज की महत्वाकांक्षा वाले नेता को नागवार गुजरा। उन्होंने कई बार वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत करने की सोची, मगर कर कुछ नहीं पाए। इस आशय की खबरें कई बार मीडिया में आईं। आखिर विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। पार्टी को एक तो यह परेशानी थी कि प्रदेश भाजपा पर वसुंधरा ने कब्जा कर रखा है, दूसरा ये कि उसकी रिपोर्ट के अनुसार इस बार वसुंधरा के चेहरे पर चुनाव जीतना कठिन था। इसी ख्याल से प्रदेश अध्यक्ष परनामी पर गाज गिरी। मोदी व शाह वसुंधरा पर शिकंजा कसने के लिए गजेंद्र सिंह शेखावत को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, मगर वसुंधरा ने उन्हें सिरे से नकार दिया। उनका तर्क था कि शेखावत को अध्यक्ष बनाने से भाजपा का जीत का जातीय समीकरण बिगड़ जाएगा। असल में उन्हें ऐसा करने पर जाटों के नाराज होने का खतरा था।
खैर, जैसे ही वसुंधरा ने विरोध का सुर उठाया तो मोदी व शाह और सख्त हो गए। उन्होंने इसके लिए सारे हथकंडे अपनाए, मगर राजनीति की धुरंधर व अधिसंख्य विधायकों पर वर्चस्व रखने वाली वसुंधरा भी अड़ ही गईं। पार्टी हाईकमान जानता था कि अगर वसुंधरा को नजरअंदाज कर अपनी पसंद के नेता को अध्यक्ष बना दिया तो पार्टी में दोफाड़ हो जाएगी। वसुंधरा के मिजाज से सब वाकिफ हैं। इस प्रकार की खबरें प्रकाश में आ चुकी हैं कि राजनाथ सिंह के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए एक बार वसुंधरा जिद ही जिद में नई पार्टी बनाने का मानस बना चुकी थीं। आखिर उन्हें ही चुनाव की पूरी कमान सौंपनी पड़ी थी।
बहरहाल, अब जबकि वसुंधरा अपना वर्चस्व साबित कर चुकी हैं, यह साफ हो गया है कि अगला चुनाव उनके नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। इतना ही नहीं टिकट वितरण में भी उनकी ही ज्यादा चलने वाली है। संघ को तो उसका निर्धारित कोटा दे दिया जाएगा। साफ है कि अगर भाजपा जीती तो वसुंधरा ही फिर मुख्यमंत्री बनेंगी। जहां तक मदन लाल सैनी की भूमिका का सवाल है तो हैं भले ही वे संघ पृष्ठभूमि से, मगर वसुंधरा के आगे वे ज्यादा खम ठोक कर टिक नहीं पाएंगे। यानि कि अध्यक्ष पद पर चेहरे का बदलाव मात्र हुआ है, स्थिति जस की तस है। अर्थात मोदी-शाह की सारी कवायद ढ़ाक के तीन पात साबित हुई है।
रहा सवाल वसुंधरा के नेतृत्व में भाजपा के चुनाव लडऩे और परिणाम का तो यह स्पष्ट है कि उन्हें एंटी इन्कंबेंसी का सामना तो करना ही होगा। कांग्रेस भी अब मजबूत हो कर चुनाव मैदान में आने वाली है। वे किस दम पर पार्टी सुप्रीमो से टशल ले कर फिर सत्ता में आने का विश्वास जता रही हैं, ये तो वे ही जानें कि उनके पास आखिर कौन सा जादूई पासा है कि बाजी वे ही जीतेंगी।

सोमवार, जुलाई 09, 2018

ऐन चुनाव से पहले तिवाड़ी ने दिया भाजपा को झटका

-तेजवानी गिरधर-
यूं तो भाजपा के वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी पिछले काफी समय से पार्टी के अंदर व बाहर, विधानसभा के भीतर भी और जनता के समक्ष भी राज्य की मौजूदा भाजपा सरकार, विशेष रूप से मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे पर हमले बोलते रहे हैं, मगर अब ऐन चुनाव से ठीक पांच माह पहले ने पार्टी को तिलांजलि दे कर उन्होंने बड़ा झटका दिया है। इस पूरे प्रकरण में सर्वाधिक गौरतलब बात ये है कि तिवाड़ी लगातार सरकार की रीति-नीति पर प्रहार करते रहे, मगर भाजपा हाईकमान उनके खिलाफ कार्यवाही करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मात्र अनुशासन समिति में जवाब-तलब होते रहे, मगर वह वसुंधरा के धुर विरोधी नेता के खिलाफ कदम उठाने से बचता रहा। अब जब कि तिवाड़ी पार्टी छोड़ कर नई पार्टी भारत वाहिनी का गठन कर सभी दो सौ विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने की घोषणा कर चुके हैं, भले ही भाजपा की ओर से यह कहा जा रहा हो कि उसको कोई नुकसान नहीं होगा, मगर इसके साथ सवाल ये भी उठता है कि अगर तिवाड़ी इतने ही अप्रभावी नेता हैं तो लगातार अनुशासन तोडऩे के बाद भी उनके विरुद्ध कार्यवाही करने से क्यों बचा गया?
असल में तिवाड़ी भाजपा के भीतर ही उस वर्ग के प्रतिनिधि थे, जो मूलत: संघ पोषित रहा है और जिसके कई नेताओं को वसुंधरा राजे बर्फ में दफ्न कर चुकी हैं। सच तो ये है कि संघ पृष्ठभूमि के कई प्रभावशाली नेता या तो काल कलवित हो गए या फिर महारानी शरणम् गच्छामी हो गए। कुछ ऐसे भी हैं, जो विरोधी तो हैं, मगर उनमें तिवाड़ी जैसा माद्दा नहीं और चुपचाप टाइम पास कर रहे हैं। तिवाड़ी उस सांचे या कहिये कि उस मिट्टी के आखिरी बड़े नेता बचे थे, जिन्होंने पार्टी के भीतर रह कर भी लगातार वसुंधरा का विरोध जारी रखा। वसुंधरा का आभा मंडल इतना प्रखर है कि उनका विरोध नक्कार खाने में तूती की सी आवाज बन कर रह गया। वे चाहते थे कि वसुंधरा उन्हें बाहर निकालें ताकि वे अपनी शहादत को भुना सकें, मगर वसुंधरा ने उन्हें ये मौका नहीं दिया। आखिर तिवाड़ी को खुद को ही पार्टी छोडऩे को मजबूर होना पड़ा। जाहिर तौर पर यह शह और मात का खेल है। इसमें कौन जीता व कौन हारा, यह तय करना अभी संभव नहीं, विशेष रूप से विधानसभा चुनाव से पहले, मगर इतना तय है कि उनके लगातार विरोध प्रदर्शन के चलते न केवल वसुंधरा की कलई उतरी, अपितु उनकी पूरी लॉबी, जो कि सरकार चला रही है, उसके नकारा होने को रेखांकित हुई है। जातीय समीकरण अथवा अन्य जोड़-बाकी-गुणा-भाग के लिहाज से तिवाड़ी का ताजा कदम क्या गुल खिलाएगा, ये तो वक्त ही बताएगा, मगर उन्होंने जिस आवाज की दुंदुभी बजाई है, वह सरकार के खिलाफ काम कर रही एंटी इन्कंबेंसी को और हवा देगी। तिवाड़ी ने जो मुहिम चलाई, उसका लाभ उनको अथवा उनकी पार्टी को कितना मिलेगा, कहा नहीं जा सकता, मगर इतना तय है कि उन्होंने कांग्रेस का काम और आसान कर दिया है। कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन को राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता कहा जा सकता है, मगर चूंकि भाजपा के अंदर का ही खांटी नेता भी अगर वे ही मुद्दे उठा रहा है, तो इससे कांग्रेस के तर्कों पर ठप्पा लग गया है।
प्रसंगवश, यह चर्चा करना प्रासंगिक ही रहेगा कि भाजपा मूलत: दो किस्म की धाराओं की संयुक्त पार्टी है। विशेष रूप से राजस्थान में। इसमें एक धारा सीधे संघ की तथाकथित मर्यादित आचरण वाली है तो दूसरी वसुंधरा के शक्ति केन्द्र के साथ चल रही है, जहां साम-दाम-दंड-भेद जायज हैं। हालांकि पार्टी का मातृ संगठन संघ ही है, जिसकी भीतरी ताकत हिंदूवाद से पोषित होती है, मगर वसुंधरा के इर्द-गिर्द ऐसा जमावड़ा है, जिसका संघ से सीधा नाता नहीं है, या कहिये कि उस जमात ने पेंट के नीचे चड्डी नहीं पहन रखी है। संघ निष्ठों को यही तकलीफ है कि पार्टी उनके दम पर ही सत्ता में है, मगर उसमें सत्ता का मजा अधिसंख्य वे ही ले रहे हैं, जिन्होंने लालच में आ कर बाद में चड्डी पहनना शुरू किया है। कुल मिला कर पार्टी की कमान भले ही संघ के हाथ में है, जो कहने भर को है, मगर खुद संघ को भी वसुंधरा के साथ तालमेल करके चलना पड़ रहा है। जब से देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह बने हैं, तब से वसुंधरा नामक शक्ति केन्द्र को ध्वस्त करने की ख्वाहिश तो रही है, मगर उसमें अब तक कामयाबी नहीं मिल पाई है।
हालांकि यह कहना अभी जल्दबाजी होगा कि तिवाड़ी को ताकत सीधे संघ से ही मिल रही है या फिर संघ ही इस साजिश का सूत्रधार है, मगर इतना तय है कि तिवाड़ी उसी जनमानस को अपने साथ जोडऩे की कोशिश कर रहे हैं, जो संघ के नजदीक है। ऐसे में जो विश्लेषक उन्हें मात्र ब्राह्मण नेता मान कर राजनीतिक समीकरणों का आकलन कर रहे हैं, वे जरूर त्रुटि कर रहे हैं। वे सिर्फ ये देेख रहे हैं कि प्रदेश में 9 विधानसभा सीटें ब्राह्मण बाहुल्य वाली हैं और 18 से ज्यादा विधानसभा सीटों पर सर्वाधिक वोटरों की संख्या में ब्राह्मण वोटर नंबर 2 या 3 पर है, इन पर तिवाड़ी कितना असर डालेंगे? कुछ अंश में यह फैक्टर काम करेगा, मगर एक फैक्टर और भी दमदार काम करेगा। वो यह कि एंटी इन्कंबेंसी देखते हुए बड़ी संख्या में मौजूदा भाजपा विधायकों के टिकट काटे जाएंगे। ऐसे में पार्टी में भितरघात की स्थिति का फायदा तिवाड़ी की नई पार्टी को मिल सकता है। निश्चित रूप से वे जो भी वोट तोड़ेंगे, वे भाजपा के खाते से छिटकेंगे। भले ही तिवाड़ी की पार्टी का एक भी विधायक न जीत पाए, मगर भाजपा को तकरीबन 25 सीटों पर बड़ा नुकसान दे जाएंगे।