तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शनिवार, जुलाई 23, 2016

खुद भाजपाई ही खुश नहीं अपनी सरकार के कामकाज से

केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को मंत्रीमंडल से हटाने का गुस्सा तो अपनी जगह है ही, मगर जन समस्याओं को लेकर जिस प्रकार भाजपा कार्यकर्ताओं ने असंतोष जाहिर किया है, वह साफ इंगित करता है कि खुद भाजपाई ही अपनी सरकार के कामकाज से खुश नहीं हैं। सच तो ये है कि वे मन ही मन जान रहे हैं कि यदि यही हालात रहे तो आगामी विधानसभा चुनाव में सत्ता पर कब्जा बरकरार रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
भले ही पार्टी की अधिकृत विज्ञप्ति में यह कहा गया है कि संगठन व सरकार के कार्यों की समीक्षा सहित जिलों की बूथ समितियों के सम्मेलन सम्पन्न कराकर बूथ इकाइयों के सुदृढ़ीकरण के लिए अजमेर आये मंत्रियों व प्रदेष पदाधिकारियों के समूह के निर्धारित सभी कार्यक्रम सफल व उद्देश्यपूर्ण रहे, मगर सच्चाई ये है कि इस दौरान कार्यकर्ताओं का गुस्सा जिस तरह फूटा, वह स्वत: साबित करता है कि वे पूरी तरह से असंतुष्ट हैं। भले ही चिकित्सा मंत्री राजेंद्र सिंह राठौड़ कहें कि कार्यकर्ता सरकार से नाराज नहीं हैं, वे तो सहज भाव से अपनी बात रख रहे हैं, मगर भाजपा जैसी अनुशासित पार्टी में जिस तरीके से कार्यकर्ताओं ने अपनी बात रखी है, वह पार्टी हाईकमान के लिए चिंता का विषय है।
उन्होंने कहा कि अजमेर में कार्यकर्ताओं में भारी उत्साह देखा गया। दो दिन में दस हजार से अधिक कार्यकर्ता सम्मेलन में शामिल हुए। उन्हें सरकार की योजनाओं की जानकारी के बारे में बताया गया। साथ ही इन से संबंधित कमियों अन्य समस्याओं के बारे में सुना गया। बैठक के दौरान जो भी सुझाव आए हैं, उनसे मुख्यमंत्री राजे को अवगत कराएंगे। दो दिन के भीतर उन्हें स्थानीय स्तर पर व्यावहारिक कठिनाइयों की जानकारी मिली है, जिन्हें दूर किया जाएगा। सरकार का यह अभियान 13 अगस्त को समाप्त हो जाएगा।
कार्यकर्ताओं के गिले-शिकवे, समस्याओं और उनके मन की बात जानने के साथ भाजपा का दो दिवसीय बूथ स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन शुक्रवार को संपन्न हुआ। इसमें संदेश दिया गया कि कार्यकर्ता और पदाधिकारियों से हुए सीधे संवाद में समस्या और सुझाव समझ लिए गए हैं, अब यह सब मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को बताएंगे। मंत्रियों ने वैशाली नगर स्थित होटल में जनसंघ के पूर्व कार्यकर्ता, पूर्व विधायक, सांसद, पूर्व वर्तमान पदाधिकारियों की बैठक ली। जनसंघ के पूर्व पदाधिकारियों का सम्मान किया गया। संगठन पदाधिकारियों से फीडबैक लिया। बैठक में प्रदेश मंत्री अशोक लोहाटी, शहर जिलाध्यक्ष अरविंद यादव, देहात जिलाध्यक्ष बीपी सारस्वत, महामंत्री जयकिशन पारवानी, महामंत्री रमेश सोनी, उपाध्यक्ष सोमरत्न आर्य सतीश बंसल, रविंद्र जसोरिया, संजय खंडेलवाल सहित वरिष्ठ कार्यकर्ता उपस्थित थे।
लब्बोलुआब पार्टी नेताओं व कार्यकर्ताओं का एक कविता के माध्यम से ये कहना कि सरकार की अधिकारियों को परवाह नहीं, क्योंकि कार्यकर्ता की हिम्मत नहीं.., संगठन को फुर्सत नहीं, जनप्रतिनिधियों को जरूरत नहीं.., इसलिए अधिकारियों को सरकार की परवाह नहीं..., इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि सत्ता और संगठन में तालमेल का पूरी तरह से अभाव है। किसी सत्तारूढ़ पार्टी का कार्यकर्ता ही ये कहने लगे कि मंत्रियों और विधायकों के पास समय नहीं है, जनता को सरकार की योजनाओं का फायदा नहीं मिल पा रहा है और अधिकारी ही सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं को विफल करने में लगे हैं, तो समझा जा सकता है कि वे अंदर से कितने दुखी हैं। जाहिर सी बात है कि आम जनता के बीच तो इन्हीं कार्यकर्ताओं को वोट मांगने जाना होता है। भला वे जनता को क्या जवाब दें।
यह कम अफसोसनाक नहीं भाजपा नेता कार्यकर्ताओं से यह कह कर पल्लू झाड़ रहे हैं कि राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए, पहले राष्ट्र के बारे में, फिर संगठन और उसके बाद स्वयं के बारे में सोचना चाहिए। कार्यकर्ताओं ने तो अपना सिर ही धुन लिया होगा कि क्या हमने पार्टी के लिए इसलिए खून पसीना बहाया कि हमें खुद को भूल कर राष्ट्रहित की चिंता की सीख दी जाएगी।
बहरहाल, पार्टी की इस कवायद का क्या लाभ होगा, क्या कदम उठाए जाएंगे, मगर इतना तय है कि पार्टी के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है।
-तेजवानी गिरधर
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गुरुवार, जुलाई 14, 2016

कामयाबी मिलेगी या नहीं, मगर शीला का पत्ता चल कर कांग्रेस ने बाजी मारी

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले पहल करते हुए जिस प्रकार अपने मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को घोषित किया है और प्रदेश अध्यक्ष पद राज बब्बर को सौंपा है, वह दाव कामयाब होगा या नहीं, ये तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे, मगर इतना जरूर तय है कि ये कदम उठा कर उसने राजनीतिक चाल चलने में बाजी जरूर मार ली है। हालांकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार कितना रह गया है, वह सबको पता है, मगर ताजा कदम उठा कर उसने हार नहीं मानने व अपने आत्मविश्वास का इजहार कर दिया है। सत्ता से बाहर हो चुकी एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए यह आत्मविश्वास रखना व जताना जरूरी भी है। इसके अतिरिक्त चुनाव के काफी पहले अपना नेता घोषित करने का भी लाभ मिलेगा। स्वाभाविक रूप से उसी के अनुरूप चुनाव की चौसर बिछाई जाएगी। शीला के दिल्ली के विकास में अहम भूमिका निभा चुकने का भी कांग्रेस को फायदा मिल सकता है।
हालांकि दिल्ली में लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकी वयोवृद्ध शीला को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताना चौंकाने वाला जरूर है, मगर समझा जाता है कि कांग्रेस के पास मौजूदा हालात में इससे बेहतर विकल्प था भी नहीं। ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी  करीब दस प्रतिशत है, जो कि परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ ही रही है। हालांकि बाद में अन्य दलों ने भी उसमें सेंध मारी। विशेष रूप से बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद यह वर्ग कांग्रेस से दूर हो गया। ऐसे में कांग्रेस की ओर से ब्राह्मण चेहरे के रूप में एक स्थापित शख्सियत को मैदान में उतार कर फिर से ब्राह्मणों को जोडऩे की कोशिश की गई है।
जहां तक शीला की शख्सियत का सवाल है, बेशक वे एक अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। देश की राजधानी जैसे राज्य में लगातार पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री रहना अपने आप में एक उपलब्धि है। स्पष्ट है कि उन्हें राजनीति के सब दावपेच आते हैं। कांग्रेस हाईकमान से पारीवारिक नजदीकी भी किसी से छिपी हुई नहीं है। इसी वजह से वे कांग्रेस में एक प्रभावशाली नेता के रूप में स्थापित हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस में जबरदस्त गुटबाजी है, मगर शीला दीक्षित इतना बड़ा नाम है कि किसी को उन पर ऐतराज करना उतना आसान नहीं रहेगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उनके नाम पर सर्वसम्मति बनाना बहुत कठिन नहीं होगा।
शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश से पूर्व का कनैक्शन होना भी उन्हें दावेदार बनाने का एक कारण है। शीला का जन्म पंजाब के कपूरथला  में हुआ है, मगर उनकी शादी उत्तर प्रदेश में हुई। उन्होंने बंगाल के राज्यपाल रहे उमा शंकर दीक्षित के पुत्र आईएएस विनोद दीक्षित से शादी की। विनोद जब वे आगरा के कलेक्टर थे, तब शीला समाजसेवा में जुट गईं और बाद में  राजनीति में आ गईं। 1984-89 के दरम्यान कन्नौज से सांसद भी रही।
जहां तक राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का सवाल है, वह भी एक नया प्रयोग है। कांग्रेस उनके ग्लैमर का लाभ उठाना चाहती है। लाभ मिलेगा या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। अन्य दलों में बंटे जातीय समूहों के कारण उत्तर प्रदेश का जातीय समीकरण ऐसा है कि किसी चमत्कार की उम्मीद करना  ठीक नहीं होगा, मगर परफोरमेंस जरूर बेहतर हो सकती है।
-तेजवानी गिरधर
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रविवार, जून 26, 2016

क्या ये मोदी भक्तों की खिसियाहट है?

चीन के अड़ंगे की वजह से एनएसजी के मामले में भारत को मिली असफलता का मुद्दा इन दिनों गरमाया हुआ है। जाहिर तौर पर हर देशवासी को इसका मलाल है। मलाल क्या गुस्सा कहिये कि चीन की इस हरकत के विरोध में उसे सबक सिखाने के लिए चीन से आयातित सामान न खरीदने की अपीलें की जा रही हैं। इन सब के बीच कुछ भाजपा मानसिकता के लोग व्यर्थ ही खिसिया कर उन अज्ञात लोगों को लानत मलामत भेज रहे हैं, जो कि इस असफलता को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जोड़ कर कथित रूप से जश्न मना रहे हैं।
सवाल ये उठता है कि आखिर भारत की इस असफलता पर कौन जश्न मना रहा है। ऐसा तो अब तक एक भी समाचार नहीं आया। हां, इस असफलता को मोदी की कूटनीतिक कमजोरी के रूप में जरूर गिनाया जा रहा है, वो भी इक्का-दुक्का नेताओं द्वारा, जो कि सामान्यत: हर विरोधी दल सत्तारूढ़ दल पर हमला करते हुए किया ही करता है। इसमें जश्न जैसा कुछ भी नहीं। फिर भी सोशल मीडिया पर मोदी के अनुयायी बड़ा बवाल मचाए हुए हैं। स्वाभाविक रूप से भारत की असफलता का दु:ख सभी को है। होना भी चाहिए। जब हम अदद क्रिकेट मैच में हार पर दुखी होते हैं, तो इस अहम मसले पर दुख होना लाजिमी है। मोदी भक्तों को कदाचित अधिक हो सकता है, क्योंकि वे ही इसे मोदी के चमत्कारिक व्यक्तित्व से जोड़ कर सफलता की पक्की संभावना जाहिर कर रहे थे। कदाचित उनका अनुमान था कि भारत को कामयाबी मिल जाएगी, जिसकी कि थोड़ी संभावना थी भी, तो वे सफलता मिल जाने पर मोदी का गुणगान करते हुए बड़ा जश्न मनाते। अब जब कि अपेक्षा के अनुरूप नहीं हो पाया तो वे खिसिया कर गैर भाजपाइयों पर हमला बोल रहे हैं। उनका आरोप है कि गैर भाजपाइयों को देश की तो पड़ी नहीं है, केवल मोदी की असफलता से खुश हैं। साथ ही वे ये भी जताने की कोशिश कर रहे हैं कि गैर भाजपाई देशभक्त नहीं है। देशभक्ति तो केवल भाजपाइयों का ही जन्मसिद्ध अधिकार है।
समझा जा सकता है कि यह स्थिति क्यों आई। न मोदी भक्त और कुछ मीडिया समूह फैसला होने से पहले ज्यादा उछलते और न ही असफल होने पर इतना मलाल होता। राजनीतिक अर्थों में इसे मोदी की कूटनीतिक असफलता ही माना जाएगा, हालांकि अंतरराष्ट्रीय मसलों में कई बार हमारे हाथ में कुछ नहीं होता। सफलता असलफलता चलती रहती है, उसको लेकर इतनी हायतौबा क्यों। अव्वल तो इसे किसी एक व्यक्ति अथवा सरकार की असफलता मात्र से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। हां, इतना जरूर है कि अगर हमें सफलता हाथ लगती तो सोशल मीडिया पर मोदी को एक बार फिर भगवान बनाने की कोशिश की जाती।
बहरहाल, असफल होने पर पलट कर विरोधियों पर तंज कसना अतिप्रतिक्रियावादिता की निशानी है। मानो उन्होंने ही चीन को भडकाया हो। अब तक तो ये माना जाता रहा है कि भाजपा मानसिकता के लोग अन्य दलों के कार्यकर्ताओं की तुलना में अधिक प्रतिक्रियावादी होते हैं और उन्हें आलोचना कत्तई बर्दाश्त नहीं होती, अर्थात क्रिया होते ही तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं, मगर ताजा मामले में तो क्रिया हुई ही नहीं थी, किसी ने जश्न नहीं मनाया, फिर भी वे कड़ी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इसे क्या कहा जाए? इसके लिए क्या शब्द हो सकता है? पता नहीं। मगर इतना तय है कि ताजा मामले को केवल और केवल मोदी की प्रतिष्ठा से जोड़े जाने, जिसको कि बाद में भुनाया जाना था, असफल होने पर मोदी भक्तों को, सारे भाजपाइयों को शुमार करना गलत होगा, चुप बैठे गैर भाजपाइयों का मन ही मन जश्न मनाया जाना दिखाई दे रहा है।
रहा सवाल चीन की हरकत के विरोध में चीनी वस्तुओं को न खरीदने का तो यह विरोध का एक कारगर तरीका हो सकता है। बेशक अगर ऐसा किया जा सके तो वाकई चीन को सबक मिल सकता है, मगर ऐसा हो पाएगा, इसमें संदेह है। सच तो ये है कि हम भारतीयों के पास शाब्दिक देशभक्ति तो बहुत है, मगर धरातल पर वैसा जज्बा दिखाई नहीं देता। अगर यकीन न हो तो सोशल मीडिया पर चीनी सामान का विरोध करने वालों की निजी जिंदगी में तनिक झांक कर देख लेना, सच्चाई पता लग जाएगी कि क्या स्वयं उन्होंने चीनी सामान खरीदना बंद कर दिया है या फिर वे सोशल मीडिया पर केवल कॉपी पेस्ट का मजा लेते हुए देशभक्ति का इजहार कर रहे थे।
-तेजवानी गिरधर
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शुक्रवार, नवंबर 06, 2015

बिहार चुनाव की सरगरमी ने भटकाया मोदी के विकास एजेंडे को

बिहार में भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा का सारा जोर जंगल राज से मुक्त हो कर विकास की ओर अग्रसर होने पर है, मगर चाहे अनचाहे वह भटक कर बीफ और साहित्कारों के अकादमी पुरस्कार लौटाने पर केन्द्रित हो गया है। जाहिर तौर पर सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाले मोदी बिलकुल भी नहीं चाहते होंगे कि उनका एजेंडा भटके, मगर बिहार चुनाव की सरगरमी में निचले स्तर के नेताओं की बयानबाजी ने माहौल को ऐसा गरमा दिया कि कथित रूप से वामपंथ के इषारे पर साहित्यकारों ने अकादमी पुरस्कार लौटा कर परेषानी में डाल दिया। हालांकि यह सही है कि बिहार चुनाव के बाद माहौल फिर से सामान्य किया जा सकेगा, मगर फिलहाल तो मोदी सरकार ऐसी परेषानी में फंस गई है, जिसकी कल्पना उसने नहीं की होगी।
हुआ यूं कि जैसे ही मोदी सरकार अस्तित्व में आई थी, वैसे ही आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों ने अपना एजेंडा कुछ इस तरह चलाया कि मोदी के सबका साथ सबका विकास पर सवाल उठने लगे। इसमें मोदी की चुप्पी ने भी अहम भूमिका अदा की। अगर वे आरंभ में ही बयानवीरों पर अंकुष रखते तो कदाचित ऐसी नौबत नहीं आती।
असल में दादरी कांड के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लंबी चुप्पी ने भाजपा का बड़ा नुकसान किया है। मोदी की चुप्पी को अजब-गजब बयान देने वाले नेता अपने लिए मौन समर्थन समझ बैठे थे या वास्तव में मोदी ही उन्हें मूक समर्थन दे रहे थे, इस सवाल का जवाब नहीं दिया जा सकता, लेकिन इतना तय है कि दोनों ही सूरत में नुकसान भाजपा का ही हुआ है और दुनिया में देश की छवि पर असर पड रहा है।
वस्तुतः जब नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार चुना गया था, तब भी और उनके भारी बहुमत से जीतकर आने के बाद भी देश के बुद्धिजीवियों ने शंका जाहिर की थी कि देश में अतिवादी हिंदू संगठन मुखर होकर सामने आ सकते हैं। दुर्भाग्य से उनकी शंका सही साबित हुई। कन्नड़ लेखक एमएम कुलबर्गी की हत्या और दादरी कांड से देश सकते में आ गया। सबसे बुरी बात यह हुई कि भाजपा के कुछ नेताओं ने दादरी कांड को सही ठहराने की कोशिश की, जिसका खंडन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से इस तरह नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। हर छोटी-बड़ी और अच्छी-बुरी घटना पर ट्वीट करने वाले प्रधानमंत्री दादरी कांड पर चुप्पी लगा गए। दस दिन बाद जब प्रधानमंत्री की चुप्पी टूटी तो वह बेमायने थी। नतीजा यह हुआ हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने मुस्लिमों और बीफ के बारे में ऐसा बयान दिया कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भी उसे पचा नहीं सका और उसने बिना वक्त गंवाए उससे अपने को अलग कर लिया।
यहां तक आरएसएस के मुखपत्र कहे जाने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र पांचजन्य की उस कवर स्टोरी ने भी भाजपा नेतृत्व को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया, जिसमें बाकायदा वेदों का हवाला देकर अखलाक की हत्या को सही ठहराया गया था। आखिरकार भाजपा ने पांचजन्य्य और आर्गेनाइजर को अपना मुखपत्र मानने से ही इंकार कर दिया। भाजपा अध्यक्ष अमित षाह को भी लगा कि मामला गंभीर होता जा रहा है और उन्हें भाजपा सांसद साक्षी महाराज, केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा और भाजपा विधायक संगीत सोम को दिल्ली तलब करके बीफ मुद्दे पर उलटे-सीधे बयान न देने की सख्त ताकीद करना पडा।
कुछ लोगों का मानना है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने यह सब जानबूझ कर होने दिया। संभवतः वह समझ रहा था कि बीफ मुद्दे का बिहार चुनाव में फायदा मिल सकता है, लेकिन बिहार में इसके नकारात्मक प्रभाव सामने आने के बाद भाजपा आलाकमान को होश आया।  
बहरहाल, कन्नड लेखक एमएम कुलबर्गी और दादरी कांड पर प्रधानमंत्री की चुप्पी ने देश के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को इतना असहज कर दिया कि उन्होंने विरोधस्वरूप अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने शुरू किए तो उनका सिलसिला रुकने का नाम नहीं ले रहा है। साहित्यकारों के विरोध हवा में उड़ा देने वाली भाजपा को शायद अभी एहसास नहीं है कि इसका दुनिया के देशों में क्या प्रभाव पड़ रहा है। एक अमेरिकी संस्था ने अपनी रिपोर्ट में हाल में ही कहा है कि मोदी सरकार के आने के बाद भारत में धार्मिक असहिष्णुता बढ़ी है, जिससे वहां के अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। देश के मौजूदा हालात से प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों पर भी ग्रहण लग सकता है। विदेशी निवेश उसी देश में आ सकता है, जब वहां के हालात सही हों।
अजब विडंबना है कि जो देश अमेरिका की तरह अति विकसति बनना चाहता है, संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थाई सदस्यता के लिए दावेदारी पेश कर रहा है, वह उन मुद्दों पर उलझ गया है, जो देश को पीछे ही ले जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, सितंबर 14, 2015

गणवेष पर अब जा कर बोले मोहन भागवत

तेजवानी गिरधर
-तेजवानी गिरधर- ऐसा जानकारी में आया है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत ने कहा है कि संघ की गणवेश में बदलाव किया जा सकता है। यह सब परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 12 और 13 सितम्बर को जयपुर में हुई राष्ट्रीय संगोष्ठी में लेखकों के सवालों का जवाब देते हुए भागवत ने कहा कि संघ में पेंट पहन कर आने पर कोई पाबंदी नहीं है। कुछ लोग आरंभ में शाखाओं में पेंट पहन कर आते भी हैं, लेकिन जब उन्हें योग, व्यायाम आदि में असुविधा होती है, तो अपने आप ही नेकर पहनने लग जाते हैं। उन्होंने कहा कि बदलाव परिस्थितियों पर निर्भर करता है। यदि संघ की गणवेश में भी बदलाव की जरुरत हुई तो हम तैयार है। आज जो संघ की गणवेश और नीतियां हैं, इसी की वजह से युवाओं का आकर्षण बढ़ा है। आज सर्वाधिक युवा किसी संगठन के पास हैं, तो वह संघ ही है। उन्होंने कहा कि हिन्दूत्व एक दृष्टिकोण है, हिन्दू प्रगतिशील है। हम अपना मॉडल खड़ा कर रहे हैं और यही होना चाहिए। पश्चिम की संस्कृति नहीं। हमें आधुनिक तकनीक का उपयोग करना चाहिए, जो लोग नव बाजारवाद को हमारी संस्कृति पर खतरा मानते हैं, उन्हें घबराने की जरुरत नहीं है।
उनके इस आषय के बयान पर इस लेखक को यकायक अपना लिखा वह आलेख स्मरण हो आया, जो चंद साल पहले भागवत के अजमेर प्रवास के दौरान इसी कॉलम में पेष किया था। वह इस कारण प्रासंगिक प्रतीत होता है क्योंकि भागवत ने जिस गणवेष की बात अब उठाई है, उसे इस लेखक ने तभी उस ओर इषारा कर दिया था। इसके अतिरिक्त ये भी बताया था कि भले ही संघ के प्रति निष्ठा कथित रूप से बढी हो, मगर सच्चाई ये है कि संघ के स्वयंसेवकों की संख्या घटी ही है।
वस्तुत: संघ के प्रति युवकों के आकर्षण कम होने का सिलसिला हाल ही में शुरू नहीं हुआ है अथवा अचानक कोई कारण नहीं उत्पन्न हुआ है, जो कि आकर्षण कम होने के लिए उत्तरदायी हो। पिछले करीब 15 साल के दरम्यान संघ की शाखाओं में युवाओं की संख्या में गिरावट महसूस की गई है। यह गिरावट इस कारण भी संघ के नीति निर्धारकों को ज्यादा महसूस होती है, क्योंकि जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हुई है, उसी अनुपात में युवा जुड़ नहीं पाया है। भले ही यह सही हो कि जो स्वयंसेवक आज से 10-15 साल पहले अथवा उससे भी पहले जुड़ा, वह टूटा नहीं है, लेकिन नया युवा उतने उत्साह के साथ नहीं जुड़ रहा, जिस प्रकार पहले जुड़ा करता था। इसके अनेक कारण हैं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो इसकी मुख्य वजह है टीवी और संचार माध्यमों का विस्तार, जिसकी वजह से पाश्चात्य संस्कृति का हमला बढ़ता ही जा रहा है। यौवन की दहलीज पर पैर रखने वाली हमारी पीढ़ी उसके ग्लैमर से सर्वाधिक प्रभावित है। गांव कस्बे की ओर, कस्बे शहर की तरफ और शहर महानगर की दिशा में बढ़ रहे हैं। सच तो यह है कि भौतिकतावादी और उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण शहरी स्वच्छंदता गांवों में भी प्रवेश करने लगी है। युवा पीढ़ी का खाना-पीना व रहन-सहन तेजी से बदल रहा है। बदलाव की बयार में बह रहे युवाओं को किसी भी दृष्टि से संघ की संस्कृति अपने अनुकूल नहीं नजर आती। संघ के स्वयंसेवकों में आपस का जो लोक व्यवहार है, वह किसी भी युवा को आम जिंदगी में कहीं नजर नहीं आता। व्यवहार तो दूर की बात है, संघ का अकेला डे्रस कोड ही युवकों को दूर किए दे रहा है।
जब से संघ की स्थापना हुई है, तब से लेकर अब तक समय बदलने के साथ डे्रस कोड में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सच्चाई तो ये है कि चौड़े पांयचे वाली हाफ पैंट ही मजाक की कारक बन गई है। यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि अपने आप को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी मानने वालों के प्रति आम लोगों में श्रद्धा की बजाय उपहास का भाव है और वे स्वयंसेवकों को चड्ढा कह कर संबोधित करते हैं। स्वयं सेवकों को भले ही यह सिखाया जाता हो कि वे संघ की डे्रस पहन कर और हाथ में दंड लेकर गर्व के साथ गलियों से गुजरें, लेकिन स्वयं सेवक ही जानता है कि वह हंसी का पात्र बन कर कैसा महसूस करता है। हालत ये है कि संघ के ही सियासी चेहरे भाजपा से जुड़े नेता तक संघ के कार्यक्रम में हाफ पैंट पहन कर जाने में अटपटा महसूस करते हैं, लेकिन अपने नंबर बढ़ाने की गरज से मजबूरी में हाफ पैंट पहनते हैं। हालांकि कुछ वर्ष पहले संघ में ड्रेस कोड में कुछ बदलाव करने पर चर्चा हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोर गु्रप ने ऐसा करने का साहस नहीं जुटाया है। उसे डर है कि कहीं ऐसा करने से स्वयंसेवक की पहचान न खो जाए। ऐसा नहीं है कि डे्रस कोड की वजह से दूर होती युवा पीढ़ी की समस्या से केवल संघ ही जूझ रहा है, कांग्रेस का अग्रिम संगठन सेवादल तक परेशान है। वहां भी ड्रेस कोड बदलने पर चर्चा हो चुकी है।
जहां तक संघ पर सांप्रदायिक आरोप होने का सवाल है, उसकी वजह से भी युवा पीढ़ी को संघ में जाने में झिझक महसूस होती है, चूंकि व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता का माहौल ज्यादा बन गया है। भले ही भावनाओं के ज्वार में हिंदू-मुस्लिम दंगे होने के कारण ऐसा प्रतीत होता हो कि दोनों संप्रदाय एक दूसरे के विपरीत हैं, लेकिन व्यवहार में हर हिंदू व मुसलमान आपस में प्रेम से घुल-मिल कर ही रहना चाहता है। देश भले ही धार्मिक कट्टरवाद की घटनाओं से पीडि़त हो, मगर आम जनजीवन में कट्टरवाद पूरी तरह अप्रासंगिक है। युवकों को इस बात का भी डर रहता है कि यदि उन पर सांप्रदायिक संगठन से जुड़े होने का आरोप लगा तो उनका कैरियर प्रभावित होगा। आज बढ़ती बेरोजगारी के युग में युवकों को ज्यादा चिंता रोजगार की है, न कि हिंदू राष्ट के लक्ष्य को हासिल करने की और न ही राष्ट्रवाद और राष्ट्र की। असल में राष्ट्रीयता की भावना और जीवन मूल्य जितनी तेजी से गिरे हैं, वह भी एक बड़ा कारण हैं। युवा पीढ़ी को लगता है कि संघ में सिखाए जाने वाले जीवन मूल्य कहने मात्र को तो अच्छे नजर आते हैं, जब कि व्यवहार में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। सुखी वह नजर आता जो कि शिष्टाचार बन चुके भ्रष्टाचार पर चल रहा है, ईमानदार तो कष्ट ही कष्ट ही झेलता है।
जरा, राजनीति के पहलु को भी देख लें। जब तक संघ के राजनीतिक मुखौटे भाजपा से जुड़े लोगों ने सत्ता नहीं भोगी थी, तब तक उन्हें सत्ता के साथ आने वाले अवगुण छू तक नहीं पाए थे, लेकिन जैसे ही सत्ता का स्वाद चख लिया, उनके चरित्र में ही बदलाव आ गया है। इसकी वजह से संघ व भाजपा में ही दूरियां बनने लगी हैं। संघर्षपूर्ण व यायावर जिंदगी जीने वाले संघ के प्रचारकों को भाजपा के नेताओं से ईष्र्या होती है। हिंदूवादी मानसिकता वाले युवा, जो कि राजनीति में आना चाहते हैं, वे संघ से केवल इस कारण थोड़ी नजदीकी रखते हैं, ताकि उन्हें चुनाव के वक्त टिकट आसानी से मिल जाए। बाकी संघ की संस्कृति से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। अनेक भाजपा नेता अपना वजूद बनाए रखने के लिए संघ के प्रचारकों की सेवा-चाकरी करते हैं। कुछ भाजपा नेताओं की केवल इसी कारण चलती है, क्योंकि उन पर किसी संघ प्रचारक व महानगर प्रमुख का आशीर्वाद बना हुआ है। प्रचारकों की सेवा-चाकरी का परिणाम ये है कि प्रचारकों में ही भाजपा नेताओं के प्रति मतभेद हो गए हैं। संघ व पार्टी की आर्थिक बेगारियां झेलने वाले भाजपा नेता दिखाने भर को प्रचारक को सम्मान देते हैं, लेकिन टिकट व पद हासिल करते समय अपने योगदान को गिना देते हैं। भीतर ही भीतर यह माहौल संघ के नए-नए स्वयंसेवक को खिन्न कर देता है। जब स्वयं स्वयंसेवक ही कुंठित होगा तो वह और नए युवाओं को संघ में लाने में क्यों रुचि लेगा। ऐसा नहीं है कि संघ के कर्ताधर्ता इन हालात से वाकिफ न हों, मगर समस्या इतनी बढ़ गई है कि अब इससे निजात कठिन ही प्रतीत होता है।
एक और अदृश्य सी समस्या है, महिलाओं की आधी दुनिया से संघ की दूरी। भले ही संघ के अनेक प्रकल्पों से महिलाएं जुड़ी हुई हों, मगर मूल संगठन में उन्हें कोई स्थान नहीं है। इस लिहाज से संघ को यदि पुरुष प्रधान कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। संघ ने महिलाओं की भी शाखाएं गठित करने पर कभी विचार नहीं किया। आज जब कि महिला सशक्तिकरण पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है, महिलाएं हर क्षेत्र में आगे आ रही हैं, संघ का महिलाओं को न जोडऩे की वजह से संघ उतना मजबूत नहीं हो पा रहा, जितना कि होना चाहिए। 

बुधवार, सितंबर 02, 2015

छह दिन के सप्ताह पर चर्चा: अच्छी पहल

-तेजवानी गिरधर- राज्य सरकार अपने कार्यालयों में फिर से छह दिन का सप्ताह करने पर विचार कर रही है, यह एक अच्छी पहल है। हालांकि इसकी चर्चा पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के दौरान भी होती रही है, मगर वह सुगबुगाहट मात्र रही, हुआ कुछ नहीं। असल में बडे अफसर ये जानते हैं कि जब से पांच दिन का सप्ताह हुआ है, जनता की तकलीफें बढ गई हैं, मगर कर्मचारियों के नाराज होने के डर से बात आगे बढती ही नहीं। यहां आपको बता दें कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने पिछले कार्यकाल में जाते जाते छह की जगह पांच दिन का सप्ताह कर दिया था, यह सोच कर कि कर्मचारी वर्ग खुष होगा, मगर उसका लाभ विधानसभा चुनाव में भाजपा को नहीं मिल पाया। जब गहलोत सरकार आई तो यह महसूस किया गया कि इस बडे फैसले से कर्मचारियों के भले ही मजे हो गए, मगर आम जनता के रोजमर्रा के काम देरी से होने लगे, इस कारण विचार बना कि पिछली सरकार के निर्णय को पलट दिया जाए, मगर कर्मचारियों के डर की वजह से एक बार सत्ता खो चुके गहलोत की हिम्मत नहीं हुई।
अब एक बार फिर जनता की पीडा को समझते हुए छह दिन का सप्ताह करने की चर्चा आरंभ हो रही है। समझा जाता है कि अधिकारी वर्ग इससे सहमत है, मगर इसे लागू करने से पहले कर्मचारी वर्ग का मूड भांपा जा रहा है।
दरअसल यह पांच दिन के सप्ताह का फैसला न तो आम जन की राय ले कर किया गया और न ही इस तरह की मांग कर्मचारी कर रहे थे। बिना किसी मांग के निर्णय को लागू करने से ही स्पष्ट था कि यह एक राजनीतिक फैसला था, जिसका फायदा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे जल्द ही होने जा रहे विधानसभा चुनाव में उठाना चाहती थीं। उन्हें इल्म था कि कर्मचारियों की नाराजगी की वजह से ही पिछली गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद धराशायी हो गई थी, इस कारण कर्मचारियों को खुश करके भारी मतों से जीता जा सकता है। हालांकि दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया।
असल बात तो ये है कि जब वसुंधरा ने यह फैसला किया, तब खुद कर्मचारी वर्ग भी अचंभित था, क्योंकि उसकी मांग तो थी नहीं। वह समझ ही नहीं पाया कि यह फैसला अच्छा है या बुरा। हालांकि अधिकतर कर्मचारी सैद्धांतिक रूप से इस फैसले से कोई खास प्रसन्न नहीं हुए, मगर कोई भी कर्मचारी संगठन इसका विरोध नहीं कर पाया। रहा सवाल राजनीतिक दलों का तो भाजपाई इस कारण नहीं बोले क्योंकि उनकी ही सरकार थी और कांग्रेसी इसलिए नहीं बोले कि चलते रस्ते कर्मचारियों को नाराज क्यों किया जाए।
अब जब कि पांच दिन के सप्ताह की व्यवस्था को काफी साल हो गए हैं, यह स्पष्ट हो गया है कि इससे आम लोगों की परेशानी बढ़ी है। पांच दिन का हफ्ता करने की एवज में प्रतिदिन के काम के घंटे बढ़ाने का कोई लाभ नहीं हुआ है। कर्मचारी वही पुराने ढर्रे पर ही दफ्तर आते हैं और शाम को भी जल्द ही बस्ता बांध लेते हैं। कलेक्ट्रेट को छोड़ कर अधिकतर विभागों में वही पुराना ढर्रा चल रहा है। कलेक्ट्रेट में जरूर कुछ समय की पाबंदी नजर आती है, क्योंकि वहां पर राजनीतिज्ञों, सामाजिक संगठनों व मीडिया की नजर रहती है। आम जनता के मानस में भी आज तक सुबह दस से पांच बजे का समय ही अंकित है और वह दफ्तरों में इसी दौरान पहुंचती है। कोई इक्का-दुक्का ही होता है, जो कि सुबह साढ़े नौ बजे या शाम पांच के बाद छह बजे के दरम्यान पहुंचता है। यानि कि काम के जो घंटे बढ़ाए गए, उसका तो कोई मतलब ही नहीं निकला। बहुत जल्द ही उच्च अधिकारियों को यह समझ में आ गया कि छह दिन का हफ्ता ही ठीक था। इस बात को जानते हुए उच्च स्तर पर कवायद शुरू तो हुई और कर्मचारी नेताओं से भी चर्चा की गई, मगर यह सब अंदर ही अंदर चलता रहा। मगर हुआ कुछ नहीं।
यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो केन्द्र सरकार के दफ्तरों में बेहतर काम हो ही रहा है। पांच दिन डट कर काम होता है और दो दिन मौज-मस्ती। मगर केन्द्र व राज्य सरकार के दफ्तरों के कर्मचारियों का मिजाज अलग है। केन्द्रीय कर्मचारी लंबे अरसे से उसी हिसाब ढले हुए हैं, जबकि राज्य कर्मचारी अब भी अपने आपको उस हिसाब से ढाल नहीं पाए हैं। वे दो दिन तो पूरी मौज-मस्ती करते हैं, मगर बाकी पांच दिन डट कर काम नहीं करते। कई कर्मचारी तो ऐसे भी हैं कि लगातार दो दिन तक छुट्टी के कारण बोर हो जाते हैं। दूसरा अहम सवाल ये भी है कि राज्य सरकार के अधीन जो विभाग हैं, उनसे आम लोगों का सीधा वास्ता ज्यादा पड़ता है। इस कारण हफ्ते में दो दिन छुट्टी होने पर परेशानी होती है। यह परेशानी इस कारण भी बढ़ जाती है कि कई कर्मचारी छुट्टी के इन दो दिनों के साथ अन्य किसी सरकारी छुट्टी को मिला कर आगे-पीछे एक-दो दिन की छुट्टी ले लेते हैं और नतीजा ये रहता है कि उनके पास जिस सीट का चार्ज होता है, उसका काम ठप हो जाता है। अन्य कर्मचारी यह कह कर जनता को टरका देते हैं कि इस सीट का कर्मचारी जब आए तो उससे मिल लेना। यानि कि काम की रफ्तार काफी प्रभावित होती है।
ऐसा नहीं कि लोग परेशान नहीं हैं, बेहद परेशान हैं, मगर बोल कोई नहीं रहा। कर्मचारी संगठनों के तो बोलने का सवाल ही नहीं उठता। राजनीतिक संगठन ऐसे पचड़ों में पड़़ते नहीं हैं और सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों को क्या पड़ी है कि इस मामले में अपनी शक्ति जाया करें। ऐसे में जनता की आवाज दबी हुई पड़ी है। देखना ये है कि इस बार आरंभ होने जा रही चर्चा सिरे तक पहुंचती है या नहीं।
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बुधवार, अगस्त 05, 2015

मिसाइल मेन अब्दुल कलाम और आतंकी याकूब की तुलना दुर्भाग्यपूर्ण

यह एक संयोग ही था कि एक ओर मिसाइल मैन पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब का इंतकाल हो गया और दूसरी ओर मुंबई बम धमाके के षड्यंत्रकारी याकूब मेमन को फांसी दी जानी थी। सोशल मीडिया के जरिए मानो पूरा देश उबल रहा था। कहीं अश्रुपूरित भावातिरेक में तो कहीं उन्माद में। एक ओर जहां स्वाभाविक रूप से कलाम साहब की शान में गद्यात्मक व पद्यात्मक श्रद्धांजली का सैलाब था तो दूसरी ओर याकूब को फांसी दिए जाने पर राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण दिल को ठंडक पहुंचाने वाली शब्दावली। यह सब कुछ स्वाभाविक ही था। हालांकि कलाम साहब के प्रति अतिरिक्त से भी अतिरिक्त सम्मान जाहिर किए जाने पर कहीं कहीं ऐसा लगा कि कहीं ये उद्देश्य विशेष के लिए तो नहीं किया जा रहा। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक समुदाय विशेष के व्यक्ति को फांसी दिए जाने से जो क्षति होगी, उसकी पूर्ति वर्ग विशेष के कलाम साहब को अतिरिक्त सम्मान दे कर न्यूट्रलाइज किया जाए, ताकि यह संदेश जाए कि हम समुदाय विशेष के व्यक्ति को अतिरिक्त सम्मान भी देना जानते हैं, गर वह देश के लिए काम करता है तो। मगर इस मौके पर जिस तरह एक समुदाय विशेष को निशाना बना कर कलाम साहब व याकूब की तुलना की गई, वह साबित कर रही थी कि कुछ विचारधारा विशेष से जुड़े लोग दोनों के एक ही समुदाय का होने की आड़ में समुदाय विशेष के लोगों को संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं।
फेसबुक पर हुई एक पोस्ट का नमूना देखिए:-
जिनको ये लगता है कि हमें खास वर्ग का होने के कारण हर बार निशाना बनाया जाता है और हमारी देशभक्ति पर शक किया जाता है, उनको ये भी देखना चाहिए कि किस तरह पूरा देश अब्दुल कलाम साहब के निधन पर शोक में डूब गया है। देश का हर नागरिक आज शोकमग्न है और हर कोई कलाम साहब को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। इज्जत कमाई जाती है, मांगी नहीं जाती।
यह एक व्यक्ति की टिप्पणी मात्र नहीं है। बाकायदा एक मुहिम का हिस्सा है, जिसके चलते आज पूरा सोशल मीडिया बेहद तल्ख टिप्पणियों से अटा पड़ा है। देश भक्ति के बहाने सामुदायिक जहर उगला जा रहा है।
जहां तक टिप्पणी का सवाल है, प्रश्न ये उठता है कि कलाम साहब इसमें एक वर्ग विशेष के कैसे हो गए? जिस व्यक्ति ने पूरा जीवन देश की सेवा की, राष्ट्रपति के रूप में भी सेवाएं दीं, उसमें उनके एक वर्ग विशेष का होने की क्या भूमिका थी? क्या उनके एक वर्ग विशेष का होने के बावजूद राष्ट्रभक्त होने की हमें अपेक्षा नहीं थी? क्या कलाम साहब जिस मुकाम को हासिल किए, उसकी हमें अपेक्षा नहीं थी? यदि नहीं थी तो इसका अर्थ केवल ये निकलता है कि हम एक पूरे समुदाय को नजरिए विशेष से देखने की कोशिश कर रहे हैं। यदि कोई एक व्यक्ति देश के प्रति समर्पित रहा है तो उसमें उसके वर्ग विशेष को रेखांकित करने की जरूरत क्या है? क्या कलाम साहब अकेले ऐसे अनूठे व्यक्ति हैं? क्या हमारी गुप्तचर सेवाओं, सुरक्षा एजेंसियों में वर्ग विशेष के हजारों व्यक्ति देश के प्रति निष्ठा नहीं रखते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम कलाम साहब के एक वर्ग विशेष का होने के बहाने एक पूरे समुदाय पर तंज कस रहे हैं? ऐसा करके हमें क्या हासिल होने जा रहा है? क्या हम दोनों घटनाओं को अलग-अलग परिपेक्ष में नहीं देख सकते? क्या इससे जिस समुदाय को जो संदेश देने की कोशिश की जा रही है, वह इसे इसी रूप में लेगा या फिर भयभीत हो कर और अधिक संगठित व प्रतिक्रियावादी होगा।
बात कुल जमा ये है कि कलाम साहब ने देश के लिए काम किया तो उन्हें सम्मान मिलना ही चाहिए, चाहे वे किसी भी समुदाय से हों और याकूब ने आतंकी वारदात में हिस्सा लिया है तो उसे सजा मिलनी ही चाहिए, चाहे वह किसी भी समुदाय से हो। अपराधी को कानूनी प्रावधान के तहत कड़ा से कड़ा दंड मिलना ही चाहिए, उसमें यह नहीं देखा जा सकता कि वह किस समुदाय से है। इसमें कोई किंतु परंतु होने का सवाल ही नहीं है। यहां इस विषय पर चर्चा होने का कोई मतलब ही नहीं कि फांसी जायज थी या नाजायज। जायज ही थी, तभी देश की न्याय व्यवस्था ने उसे दी। दूसरे पक्ष की दलील अपनी जगह है। चूंकि अधिसंख्य लोग आतंकी को फांसी दिए जाने के पक्ष में रहे, इस कारण जाहिर तौर पर याकूब की पैरवी करने वालों पर गालियों की बौछार हुई। मगर कानून ने अपना काम किया। इसमें कोई अगर समुदाय विशेष को तुष्ट करने का कृत्य देखता है, यह उसकी अपनी सोच हो सकती है। मगर जिस तरह दोनों घटनाओं को जोड़ कर समुदाय विशेष को सबक देने की कोशिश की गई, वह कम से सदाशयता की श्रेणी में तो नहीं गिनी जा सकती।
-तेजवानी गिरधर
7742067000