तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, मार्च 23, 2014

जसवंत सिंह को थूक कर चाटा, फिर थूक दिया

राजनीति वाकई अजीब चीज है। इसमें कुछ भी संभव है। कैसा भी उतार और कैसा भी चढ़ाव। हाल ही बाड़मेर से भाजपा के टिकट से वंचित दिग्गज नेता जसवंत सिंह पर तो यह पूरी तरह से फिट है। ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। ज्ञातव्य है कि खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने जब जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगाया तो उसकी इस राजनीति मजबूरी को थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी।
असल में लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपनी हिंदूवादी पहचान को बरकरार रखने की खातिर अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने के लिए पार्टी को एक ऐसा कदम उठाना पड़ा, जिसे थूक कर चाटना ही नहीं अपितु निगलने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तब पार्टी को तकलीफ तो बहुत थी, लेकिन कोई चारा ही नहीं था। एक वजह ये भी थी कि दूसरी पंक्ति के नेता पुरानी पीढ़ी को धकेलने को आतुर थे ताकि उनकी जगह आरक्षित हो जाए। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा और उन्हें उपराष्ट्रपति पद तक का उम्मीदवार तक बनाना पड़ा। ज्ञातव्य है कि मतों की संख्या लिहाज से भाजपा नीत एनडीए कांग्रेस को वाक ओवर न देने के नाम पर उपराष्ट्रपति पद का चुनाव भी हारने के लिए ही लड़ी। तब सवाल ये उठा था कि आखिर क्या वजह रही कि खुद जसवंत सिंह शहीद होने को तैयार गए? सवाल यह भी कि जिन जसवंत सिंह को वोटों की राजनीति के चलते मजबूरी में निगलने की जलालत झेलनी पड़ी, उन्हें शहीद करवा कर राजनीति की मुख्य धारा से दूर करने का निर्णय क्यों करना पड़ा?
जहां तक भाजपा की थूक कर निगलने की प्रवृति का सवाल है, यह अकेला उदाहरण नहीं।
ताजा उदाहरण कर्नाटक के विवादित हिंदूवादी नेता प्रमोद मुतालिक का है, जिन्हें  पार्टी में शामिल करने के चंद घंटे बाद ही निकालना पड़ गया।  मोदी के 272 के आंकड़े की झोंक में मुतालिक को पार्टी तो ज्वाइन करवा दी गई, मगर जबरदस्त छीछालेदर हुई तो निगले को उगलना पड़ा। और केंद्रीय नेतृत्व को चेहरा बचाने के लिए यह मासूम बहाना बनाना पड़ा कि राज्य बीजेपी ने बिना उसे बताए यह फैसला ले लिया था।
थूक कर चाटने की आदत में वसुंधरा का मामला भी शामिल है। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के बाद भारी दबाव के चलते पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को फिर से विपक्ष का नेता बनाना पड़ा था। वरिष्ठ वकील व भाजपा सांसद राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही रहा। इसी प्रकार पार्टी के शीर्ष नेता आडवाणी को पितातुल्य बता चुकी मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को उनके बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करने और बाद में पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज कर फिर पार्टी में लेने और उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना भी थूक कर चाटना माना गया था।
बहरहाल, अब यह पहला मौका है, जबकि टिकट न दे कर जसवंत को फिर थूकने जैसा कदम उठाया गया है। समझा जा सकता है कि यह संघ के इशारे पर हुआ है, जिसके दबाव में उन्हें पूर्व में पार्टी से बाहर किया गया था।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, मार्च 08, 2014

मौका देख कर भाजपा के गुर्जर नेताओं ने बोला सचिन पर हमला

एक ओर नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट आगामी 10 मार्च को कांग्रेस की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी की देवली में होने वाली सभा की तैयारियों में जुटे हुए हैं, ऐसे में प्रदेश के कुछ भाजपाई गुर्जर नेताओं ने उन पर हमला बोल दिया है। उन्होंने साफ चेताया है कि गल चुकी डूबती कांग्रेस की नैया में नहीं बैठेंगे गुर्जर। वे नेता हैं सरकारी मुख्य सचेतक कालूलाल गुर्जर, भाजपा के पूर्व सांसद एवं पूर्व मंत्री नाथूसिंह गुर्जर, मंत्री हेमसिंह भड़ाना, विधायक अनिता गुर्जर, विधायक अलका सिंह गुर्जर तथा विधायक राजेन्द्र गुर्जर। दिलचस्प बात ये है कि उन्होंने जो संयुक्त बयान जारी किया है, वह प्रदेश भाजपा के लेटरहैड पर है, जबकि उसमें लिखा है कि उन्होंने ये बयान अजमेर से जारी किया है।
बयान में कहा है कि गुर्जर समाज किसी भी स्थिति में कांग्रेस की गल चुकी उस डूबती नाव में नहीं बैठेगा, जिसका खवैया सचिन पायलट जैसा कमजोर व्यक्ति हो। इन नेताओं ने सचिन को सलाह भी दी है कि वे व्यर्थ मेहनत न करें क्योंकि कांग्रेस ने तो उन्हें शहीद करने के लिए ही प्रदेशाध्यक्ष बनाया है। बयान में लिखा है कि देवली में 10 मार्च को होने वाली राहुल गांधी की रैली में गुर्जरों की भीड़ जुटाने के लिए कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट एड़ी से चोटी का जोर लगा रहे हैं, पर उन्हें इसमें सफलता नहीं मिलेगी, क्योंकि गुर्जर समाज जानता है कि न तो राहुल गांधी ने आरक्षण के मामले में गुर्जरों का साथ दिया और न ही पायलट ने कभी गुर्जरों के आरक्षण को लेकर रुचि दिखाई। पायलट केन्द्र मंत्री हैं और राहुल गांधी यूपीए सरकार ने सर्वेसर्वा, इसके बावजूद ये गुर्जर आरक्षण की पैरवी नहीं कर सके। ये चाहते तो वसुंधरा सरकार ने गुर्जरों के लिए जो 5 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला लिया था, उसे संविधान की नवीं अनुसूची में डलवा कर गुर्जरों को आरक्षण दिलवा सकते थे, क्योंकि राज्य और केन्द्र में इनके ही दल की सरकारें थीं। जब सचिन उनकी सरकार में ही गुर्जरों को आरक्षण नहीं दिलवा पाए, अब तो प्रदेश में जब भाजपा की सरकार बन गई और केन्द्र में भी भाजपा की सरकार बनने वाली है। ऐसे में पायलट उनके लिए क्या कर पायेंगे, ये गुर्जर समाज भलीभांति जानता है। इन सब नेताओं ने कहा कि कांग्रेस आरम्भ से ही गुर्जर समाज की विरोधी रही है। वसुंधरा सरकार के समय में गुर्जरों के उत्थान के लिए 283 करोड़ की देवनारायण योजना के बजट को कांग्रेस की गहलोत सरकार खर्च ही नहीं कर पाई थी और तो और कांग्रेस की गहलोत सरकार ने पूरे पांच साल निकाल दिए।
समझा जा सकता है कि इन गुर्जर नेताओं ने मौका देख कर ही सचिन पर हमला बोला है। उन्हें लगता है कि कहीं वे गुर्जरों को कांग्रेस के पक्ष में लामबंद नहीं कर लें, इस कारण उन्हें कमजोर बता रहे हैं। मगर सवाल ये उठता है कि यदि वे कमजोर हैं तो आखिर क्यों कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाए गए हैं। सवाल ये भी है कि किसी गुर्जर नेता को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर बैठाने के बावजूद गुर्जर समाज कांग्रेस से विमुख हो जाएगा? बयान से ये भी संदेह होता है कि कहीं इन गुर्जर नेताओं को ये डर तो नहीं सता रहा कि सचिन गुर्जरों को अपने पक्ष में करने में कामयाब न हो जाएं? जिस प्रकार संयुक्त बयान जारी किया गया है, उससे तो यही लगता है कि उन्होंने भाजपा हाईकमान के इशारे पर ही ऐसा किया है, क्योंकि नमो नमो जप रहे भाजपाई नहीं चाहते कि राहुल की सभा कामयाब हो। तभी तो जयपुर में होते हुए भी अजमेर से बयान जारी किया गया है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, मार्च 01, 2014

भाजपा मोदी लहर पर ही सवार हो तोरण मारना चाहती है

विधानसभा चुनाव में प्रचंड और ऐतिहासिक बहुमत से बौराई भाजपा  की सरकार लोकसभा चुनाव के लिए जहां अब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी की लहर के भरोसे है, वहीं कांग्रेस के पास डेमेज कंट्रोल के लिए पर्याप्त वक्त ही नहीं है, सो वह लगभग भगवान भरोसे रहने को मजबूर है।
असल में विपक्ष में रही भाजपा को अपने संगठनात्मक हालात के चलते ये कल्पना भी नहीं थी कि उसे जनता बेशुमार वोटों से नवाज देगी। अलबत्ता उसे यह उम्मीद जरूर थी कि कुछ केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस नीत सरकार के प्रति महंगाई व भ्रष्टाचार के मुद्दे से उपजी नाराजगी और कुछ मोदी लहर के सहारे बहुमत लायक आंकड़ा तो हासिल हो ही जाएगा। ज्ञातव्य है कि पूरे चार साल तक श्रीमती वसुंधरा राजे के राजस्थान में कुछ खास रुचि नहीं लेने के कारण भाजपा की अंदरूनी हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी। पूरी भाजपा वसुंधरा समर्थकों व संघ लॉबी के बीच बंटी हुई थी। चुनाव के मद्देनजर हाईकमान के दबाव में सुलह हुई और वसुंधरा ने सुराज संकल्प यात्रा निकाल कर अपनी चार साल की लापरवाही को धोने का प्रयास किया। भूूलने की बीमारी से ग्रसित जनता ने न केवल उन्हें माफ कर दिया, अपितु जनसभाओं में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर यह जता दिया कि वह उनके स्वागत को आतुर है। बावजूद इसके भाजपा को यह कल्पना तक नहीं थी उसे अपार जनसमर्थन हासिल हो जाएगा। इसके अपने कारण भी थे। एक तो अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार का परफोरमेंस बहुत खराब नहीं था। जनता को लुभाने वाली कुछ योजनाएं मध्यकाल में तो कुछ आखिरी दौर में शुरू किए जाने के कारण भाजपा को डर था कि कहीं इनसे प्रभावित हो कर जनता का रुख कांग्रेस की ओर न मुड़ जाए। कदाचित तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी आशा थी कि उनका जादू का पिटारा आखिरी वक्त में काम कर जाएगा। मगर हुआ एकदम उलटा। जनता ने जमानेभर के लाभ हासिल करने के बाद भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। कांग्रेस के लिए यह जबरदस्त झटका था तो भाजपा के लिए आश्चर्यजनक सुखद तोहफा। अच्छे अच्छे राजनीतिविद भी चकित थे कि ये क्या हुआ? कोई भी इसका ठीक से आकलन नहीं कर पा रहा था। कांग्रेस के चौखाने चित्त होने के बाद खुद जनता में भी यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि क्या गहलोत सरकार इतनी भ्रष्ट, नकारा और बेकार थी कि उसे इतनी बुरी तरह से निपटा दिया। सच तो ये है कि निष्पक्ष राजनीतिज्ञों के लिए भी यह एक गुत्थी हो गया कि आखिर जनता आखिर क्या चाहती है? वह क्या सोच कर वोट करती है? उसे कैसे रिझाया जा सकता है? असल में यह वह गुस्सा था जो केन्द्र सरकार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन की वजह से उपजा था। वह एक बार जम कर फटना चाहता था। हालांकि भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को और मजबूत करने के लिए इसे मोदी लहर के रूप में प्रोजेक्ट किया, मगर वाकई ऐसा था नहीं। मोदी का असर था, मगर उसे लहर कहना अतिशयोक्तिपूर्ण ही होगा। सवाल ये उठता है कि अगर वह लहर थी तो दिल्ली में क्यों नहीं चली, वहां भी मोदी ने सभाएं कर पूरी ताकत झोंकी थी।
खैर, एक बार और भी नजर आई। वो यह कि जनता ने इसे लोकसभा चुनाव समझ कर वोट डाल दिया और गहलोत सरकार बुरी तरह से निपट गई। हालांकि सीधे तौर पर इसके लिए केन्द्र सरकार को जिम्मेदार ठहराने का साहस किसी में नहीं था, मगर खुसरफुसर यही सुनाई दी कि कांग्रेस की हार की प्रमुख वजह केन्द्र के प्रति नाराजगी ही थी।
अब जब कि लोकसभा चुनाव नजदीक हैं, राजनीतिक पंडित इस बात पर माथापच्ची कर रहे हैं कि इस बार क्या होगा? स्वाभाविक रूप से विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत के कुछ माह बाद ही होने जा रहे लोकसभा चुनाव में भाजपा का ग्राफ ऊंचा ही रहने वाला है। हांलाकि भाजपा मोदी के नाम पर राज्य की पूरी पच्चीस सीटें हासिल करने के लिए जोर लगा रही है, मगर अंदाजा उसे भी है कि आंकड़ा बीस तक ही रहेगा। कांग्रेस को भी यही अनुमान है कि वह पांच-सात सीटें हासिल कर ले तो बहुत बड़ी बात होगी। वजह साफ है कि बुरी तरह से निपट चुकी कांग्रेस का हौसला पस्त है। हालांकि फिजां बदलने के लिए कांग्रेस हाईकमान ने युवा और ऊर्जावान नेता सचिन पायलट को प्रदेश की कमान सौंपी है, मगर वह जानता है कि मात्र दो माह में वे कोई जादू करके नहीं दिखा सकते। हाल ही संसद में प्रस्तुत अंतरिम बजट के जरिए कुछ लोकलुभावन कदम उठाए गए हैं, मगर उससे कोई बहुत बड़ा चमत्कार होने की उम्मीद नहीं है। ऐसे में सचिन से ज्यादा आशा करना बेमानी ही होगा। चंद दिनों में वे जर्जर हो चुके संगठन न तो पूरी तरह से बदल सकते हैं और न ही जनता पर जादू की छड़ी घुमा सकते हैं। इस कारण वे संगठन के बड़ा फेरबदल करने की बजाय प्रत्याशियों के उचित चयन पर ध्यान दे रहे हैं, ताकि अधिक से अधिक सीटें हासिल कर सकें। बाकी भगवान भरोसे है।
जहां तक भाजपा का सवाल है, प्रचंड बहुमत के दंभ और नमो-नमो  का जाप करते हुए उसने राज्य की सभी 25 सीटें आराम से अपने कब्जे में ले लेने का मिथ पाल रखा है और और इसीलिए मंहगाई व भ्रष्टाचार से त्रस्त आम आदमी को राहत देने के लिए अब तक उसने कोई ठोस व कारगर कदम नहीं उठाया है, केवल बातें ही हो रही हैं। करने को बहुत कुछ है, मगर फिलहाल इसमें उसकी कोई खास रुचि नहीं है। उसे जरूरत ही महसूस नहीं हो रही। वरना बिजली की दरें भी यहां आधी हो सकती हैं, यदि विद्युत निगमों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर पूरी तरह अंकुश लग जाए। केवल सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लालबत्ती हटा देना या आम आदमी पार्टी की तर्ज पर सादगी का दिखावा कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। मगर चूंकि आम आदमी पार्टी का यहां कुछ खास असर नहीं इस कारण केवल मोदी की लहर पर ही सवार हो कर तोरण मारना चाहती है। ऐसे में अगर ये कहा जाए कि भाजपा को मोदी का भरोसा है तो कांग्रेस को भगवान का तो कोई अतिरंजना नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, जनवरी 05, 2014

आप को कांग्रेस के समर्थन से भाजपा चिंतित

दिल्ली में आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के समर्थन देने से सरकार बन जाने के साथ ही भाजपा चिंता में पड़ गई है। उसे लगता है कि दिल्ली की सफलता के बाद आम आदमी पार्टी अब पूरे देश में भी पांव पसारेगी और इसका सीधा नुकसान उसे होगा। उसकी ज्यादा चिंता ये है कि बड़ी मुश्किल से नरेन्द्र मोदी को प्रोजेक्ट कर हीरो बनाया है, जिसके सहारे उसकी वैतरणी पार हो जाती, मगर अब केजरीवाल के एक नए हीरो के रूप में उभरने से कांग्रेस विरोधी वोटों में बंटवारा हो जाएगा। जैसा कि आम आदमी पार्टी घोषणा कर चुकी है कि वह लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर प्रत्याशी उतारेगी, भाजपा को चिंता है कि भाजपा के प्रभाव वाले शहरी क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी उसको नुकसान पहुंचाएगी, भले ही उसके प्रत्याशी जीतने में कामयाब न हो पाएं। भाजपा की इसी चिंता का परिणाम है कि सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी पर हमले वाले आइटमों की भरमार नजर आने लगी है। देखिए बानगी:-


दिल्ली में खुद काँग्रेस ने
करवाया अपना सुपडा साफ !
चार राज्यों के चुनाव में
कांग्रेस को करारी हार भले
ही मिली हो लेकिन
दिल्ली को लेकर भारत
कि राजनीति में काँग्रेस
रुपी विदेशी ताकतों ने बहोत
बडा गेम खेला हैं।
ये गेम
काँग्रेस ने अपनी पेदाईश "आप"
पार्टी को साथ लेकर खेला हैं।
बंदुक और निशाना काँग्रेस
(विदेशी ताकतों) का था,
कंधा कजरिवाल का वापरा गया और
लक्ष्य चुनाव 2014 ।
दिल्ली में "आप" पार्टी कि कोई
औकात नहीं थी कि वे इतनी सिटे
जित कर ले जाये जब तक
कि काँग्रेस अपनी लडाई से पिछे
ना हट पडे।
दिल्ली में काँग्रेस
हारी नहीं बल्कि काँग्रेस ने
खुद हार को गले लगाया और कजरीवाल
ने जित खुद के दम पर हाँसील
नहीं कि बल्कि काँग्रेस ने हर
तरह से "आप" को पैर पसारने
का मौका देकर जित दिलाई।
अब सवाल खडा होता हैं कि आखिर
इसके पिछे कि पुरी साजिश हैं
क्या....
ये एक बहोत बडा षडयंत्र
जो कि लंबी रणनिती के तहत
खेला गया हैं। इस षडयंत्र
को चुनाव के पहले सिर्फ
दिल्ली ही नहीं बल्कि देशभर में
किये गये तमाम सर्वेक्षणों के
नतिजों के बाद तयार
किया गया हैं।
हर तरह के चुनावी सर्वेक्षण में
हर राज्यों में काँग्रेस
की करारी हार सामने आ
ही रही हैं। लेकिन काँग्रेस
किसी भी तरह से अपनी इस "हार"
को बीजेपी के गले की "विजय"
माला बनने नहीं देना चाहती। और
जनता का मुड भी काँग्रेस
अच्छी तरह से भाँप चुकी हैं
कि किसी भी परिस्थिति में
जनता अब काँग्रेस को वोट
नहीं देने वाली।और नरेंद्र
मोदी के हाथ में देश कि कमान
काँग्रेस बर्दाश्त कर
ही नहीं सकती। लेकिन नरेंद्र
मोदी का तोड अब काँग्रेस के
जरीये निकलना असंभवसा हैं। इस
लिये काँग्रेस ने अब
अपनी रणनीती को बदलते हुवे
पैतरा ही बदल लिया।
दिल्ली में "आप" का कद बढवाकर
काँग्रेस ने कई निशाने साधे
हैं...
"आप" को जितवा कर काँग्रेस ने
कजरीवाल को हिरों बनाने
कि कोशिश कि हैं
सारे काँग्रेसी दलाल
मिडीया जिनको मजबुरी में
नरेंद्र मोदी का ही नाम
लेना पडता था वो अब कजरीवाल
को मोदी कि तुलना में
खडा करेंगे
विदेशी ताकतों ने पहले
ही कजरीवाल पर भारी भरकम
पैसा लगा रखा हैं अब
विदेशी पैसों पर ही पलने
वाला भांड मिडीया पुरी ताकत
लगाकर कजरीवाल को नरेंद्र
मोदी के टक्कर में खडा करने
कि कोशिश करेगा
इसका मतलब लोकसभा चुनाव में
जो वोट काँग्रेस से कट कर
बीजेपी को जा रहे थे अब उन्हे
कजरीवाल के खाते में
उतारा जायेगा
विदेशी ताकतों ने अपनी रखेल
काँग्रेस को अब नई खाल "आप"
पार्टी के रुप में उतार
दिया हैं
plz atention and high alert for। MISSION 2014 होशियार! होशियार! होशियार! यह
नरेंद्र मोदी कि बढती ताकत पर कठोर अंकुश लगाने का राष्ट्र विरोधी विदेशी ताकतों का बहोत
बडा गेम प्लान नजर आ रहा हैं। हमें हर किसी को होशियार करने कि सख्त आवश्यकता हैं।
जागो और जगाऔ, देश बचाऔ !!!
जय हिंद, जय भारत!
plz forward to all यह मेसेज सभी को भेजें
एक ही विकल्प मोदी लावो

गुरुवार, जनवरी 02, 2014

भाजपा का सिरदर्द बन गए केजरीवाल

कांग्रेस के लिए संकट पैदा करने के लिए अन्ना हजारे के आंदोलन को पीछे से समर्थन करने वाली भाजपा के लिए उसी आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी अब सिरदर्द बन गई है। बड़ी मेहनत से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने वाली भाजपा को दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद लगने लगा है कि कहीं वह आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी के प्रधानमंत्री बनने में बाधक न बन जाए। इसके स्पष्ट संकेत सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोदी व केजरीवाल की हो रही तुलनात्मक जंग से मिल  रहे हैं। यह एक खुला सत्य भी है कि चार राज्यों भाजपा की जीत का श्रेय जिस मोदी लहर को दिया जा रहा है, वह मोदी की अनेक सभाओं के बाद भी दिल्ली में कामयाब नहीं हो पाई।
असल में कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष की भूमिका ठीक से न निभा पाने के कारण ही अन्ना हजारे को उभरने का मौका मिला और उन्होंने इतना तगड़ा आंदोलन चलाया कि एक बारगी पूरा देश उबलने लगा। यह भी सच है कि कांग्रेस को घेरने के लिए उस आंदोलन को पीछे से भाजपा ही सपोर्ट कर रही थी। हालांकि बाद में कई कारणों से आंदोलन तो कमजोर पड़ गया, मगर अन्ना के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल ने अन्ना की असहमति के बावजूद एक नई राजनीतिक पार्टी बना ली। इस पार्टी को हल्के में ही लिया गया, मगर उसने दिल्ली विधानसभा चुनाव में ऐसा चमत्कार कर दिखाया कि सभी भौंचक्के रह गए। कांग्रेस का तो सूपड़ा साफ हो ही गया और भाजपा भी बहुमत से थोड़ा सा पीछे रह गई। किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण दुबारा चुनाव की नौबत आ गई, मगर कांग्रेस ने चतुराई से केजरीवाल को समर्थन दे कर उनकी सरकार बनने का रास्ता साफ कर दिया। जाहिर है इसके पीछे मोदी को आंधी को कमजोर करने की सोच है। हालांकि यह सरकार बैसाखियों पर ही टिकी हुई है, मगर उसे जितना भी समय मिलेगा, वह कुछ न कुछ नया करके अपना वर्चस्व बढ़ा लेगी।
दिल्ली में मिली सफलता के बाद अब आम आदमी पार्टी का अगला लक्ष्य लोकसभा चुनाव है। इसके लिए उसने जोरदार तैयारी शुरू कर दी है। ऐसे में भाजपा को यह डर सता रहा है कि अगर उसने चुनिंदा एक सौ सीटों पर भी अपने प्रत्याशी खड़े किए और उनमें से भले ही उसे कुछ पर ही जीत हासिल हो, मगर भाजपा का समीकरण जरूर बिगाड़ देगी। इसका सीधा सीधा अर्थ ये है कि केजरीवाल को जिस प्रकार मीडिया राजनीति के एक नए अवतार के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा है, उससे कथित रूप से आंधी का रूप ले चुके मोदी का असर कम हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि कोई एक साल पहले बनी आम आदमी पार्टी ने 22 राज्यों में अपना नेटवर्क खड़ा कर लिया है। उसने गुजरात और कर्नाटक जैसे राज्यों में सभी लोकसभा सीटों पर लडऩे का ऐलान कर दिया है। भाजपा की  सोच है कि मोदी के सामने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी तो नहीं टिक पाएंगे, मगर 12 करोड़ नए युवा मतदाताओं पर केजरीवाल की उतनी ही पकड़ है, जितनी कि मोदी की। सोशल मीडिया पर अब तक मोदी ही छाये हुए थे, मगर सोशल मीडिया के माध्यम से ही आंदोलन चलाने वाले आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता भी बराबर की टक्कर दे रहे हैं। माना जा रहा है कि 150 शहरी सीटों पर सोशल मीडिया का प्रभाव रहेगा, जहां अब तक मोदी की ही पकड़ थी, मगर अब केजरवाल भी खम ठोक कर मैदान में उतर सकते हैं। इस मसले एक पहलु पर मतभिन्नता है, वो यह कि केजरीवाल मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा के गढ़ में सेंध लगा कर कांग्रेस विरोधी मतों को बांटेंगे या फिर दिल्ली विधानसभा चुनाव की तरह कांग्रेस को ही ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी।
जानकार मानते हैं कि आम आदमी पार्टी को ज्यादा आशा दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और कनार्टक में है। भाजपा के प्रभाव वाले राजस्थान, मध्यप्रदेश गुजरात, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तराखंड, गोवा, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र में आम आदमी पार्टी को जोर आएगा।
राजस्थान में आप के तकरीबन 30 सदस्य हैं, मगर पार्टी का संगठित ढ़ांचा नहीं है। उधर छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अभी तक शुरुआत भी नहीं कर पाई है। जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, वह भाजपा का गढ़ तो नहीं, मगर भाजपा को मोदी लहर के दम पर सफलता की उम्मीद है। लेकिन समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के बाद अब आम आदमी पार्टी भी वोटों को बांटेगी। वहां आम आदमी पार्टी ने पांच जोनल ऑफिस खोल लिए हैं। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी ने हरियाणा के 21 में 18 जिलों में ऑफिस बना लिए हैं। ज्ञातव्य है कि केजरीवाल का पैतृक गांव हरियाणा के भिवानी में है और दूसरे वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव भी हरियाणा के रेवाड़ी से हैं। कर्नाटक की बात करें तो आम आदमी पार्टी ने 18 जिलों में अपनी इकाइयां गठित कर ली हैं। उत्तराखंड में राजधानी देहरादून सहित 13 जिलों में पार्टी की इकाइयां हैं। झारखंड के राजधानी रांची सहित 17 जिलों में पार्टी कार्यालय चल रहे हैं।
कुल मिला कर आम आदमी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर भाजपा को मिलने वाले कांग्रेस विरोधी वोटों में सेंध मार सकती है। अगर ऐसा हुआ तो मोदी के नाम पर सत्ता पर काबिज होने वाली भाजपा का सपना टूट सकता है।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, दिसंबर 20, 2013

राज्यमंत्री कैसे स्वीकार कर लिया अरुण चतुर्वेदी ने?

राजस्थान की सत्ता पर काबिज भाजपा के मंत्रीमंडल में पूर्व अध्यक्ष व मौजूदा उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने एक बार फिर राज्य मंत्री का पद स्वीकार कर सभी को चौंकाया है। इससे पूर्व उनके प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वसुंधरा राजे की कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष का पद स्वीकार करने पर भी सभी को अचरज हुआ था। पार्टी कार्यकर्ताओं व नेताओं को समझ में ही नहीं आ रहा है कि एक ही किस्म की गलती उन्होंने दुबारा कैसे की? क्या उन्हें अपने पूर्व पद की मर्यादा व गौरव का जरा भी भान नहीं रहा? अपनी पहले ही प्रतिष्ठा का जरा भी ख्याल नहीं किया? क्या वे इतने पदलोलुप हैं कि अध्यक्ष के बाद उपाध्यक्ष बनने और अब मात्र राज्य मंत्री बनने को उतारू थे? ये सारे सवाल भाजपाइयों के जेहन में रह-रह कर उभर रहे हैं।
स्वाभाविक सी बात है कि जो खुद अध्यक्ष पद पर रहा हो, वह राज्य मंत्री पद के लिए राजी होगा तो ये सवाल पैदा होंगे? जब वे पूर्व में उपाध्यक्ष बने थे तो अपुन ने लिखा था कि शायद वे अध्यक्ष पद के लायक थे ही नहीं। गलती से उन्हें अध्यक्ष बना दिया गया, जिसे उन्होंने संघ के दबाव में ढ़ोया, तब उन्होंने व्यक्तिगत रूप से फोन पर जानकारी दी थी कि वे तो पार्टी के एक सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान उन्हें जो भी जिम्मेदारी देता है, वह उनको शिरोधार्य है। कदाचित इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ है। 
वैसे आपको बता दें कि पूर्व में उन्हें अध्यक्ष बनाया ही नेता प्रतिपक्ष श्रीमती वसुंधरा को चैक एंड बैलेंस के लिए था, मगर उसमें वे कत्तई कामयाब नहीं हो पाए। वे कहने भर को पार्टी के अध्यक्ष थे, मगर प्रदेश में वसुंधरा की ही तूती बोलती रही। वह भी तब जब कि अधिकतर समय वसुंधरा ने जयपुर से बाहर ही बिताया। चाहे दिल्ली रहीं या लंदन में, पार्टी नेताओं का रिमोट वसुंधरा के हाथ में ही रहा। अधिसंख्य विधायक वसुंधरा के कब्जे में ही रहे। यहां तक कि संगठन के पदाधिकारी भी वसुंधरा से खौफ खाते रहे। परिणाम ये हुआ कि वसुंधरा ने जिस विधायक दल के पद से बमुश्किल इस्तीफा दिया, वह एक साल तक खाली ही रहा। आखिरकार अनुनय-विनय करने पर ही फिर से वसुंधरा ने पद ग्रहण करने को राजी हुई।
कुल मिला कर चतुर्वेदी का राज्य मंत्री बनना स्वीकार करना पार्टी कार्यकर्ताओं गले नहीं उतर रहा, चतुर्वेदी भले ही संतुष्ट हों और उनके पास से तर्क हो कि वे तो पार्टी के सिपाही हैं, पार्टी हाईकमान जहां चाहे उपयोग करे। उनकी इज्जत सिर्फ यह कह बची मानी जा सकती है कि उन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है। बहरहाल, जो कुछ भी हो मगर इससे देश की इस दूसरी सबसे बड़ी व पहली सबसे बड़ी कैडर बेस पार्टी में सत्ता की तुलना में संगठन की अहमियत कम होने पर तो सवाल उठते ही हैं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, नवंबर 15, 2013

वाट्स एप व फेसबुक पर आचार संहिता क्यों नहीं?






एक ओर चुनाव आयोग इस बार पेड न्यूज को लेकर कुछ ज्यादा ही सख्त है और इस कारण विभिन्न दलों के प्रत्याशी और प्रिंट व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं, वहीं वाट्स एप व फेसबुक पर प्रत्याशियों के विज्ञापन धड़ल्ले से चल रहे हैं, जिन पर आयोग का कोई जोर नजर नहीं आता।
आपको याद होगा कि जैसे ही आयोग ने विज्ञापनों पर खर्च की गई राशि को प्रत्याशी के चुनाव प्रचार खर्च में जोडऩे पर सख्ती दिखाई तो उन्होंने बीच का रास्ता निकाल लिया। मोटी रकम देने वाले प्रत्याशियों का प्रचार करने के लिए न्यूज आइटम दिए जाने लगे, जो कि थे तो प्रत्याशी विशेष का विज्ञापन, मगर न्यूज की शक्ल में। जैसे ही इस घालमेल पर आयोग ने प्रसंज्ञान लिया तो ऐसी पेड न्यूज पर भी सख्ती बरती जाने लगी। बड़े-बड़े समाचार पत्र समूहों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी पेड न्यूज न छापने की कसमें खाईं। प्रत्याशियों को भी विज्ञापन न देने का बहाना मिल गया। यह बात दीगर है कि बावजूद इसके संपादकों व संवाददाताओं को गुपचुप खुश करने की चर्चा आम है।
खैर, बात चल रही थी विज्ञापनों की। अखबारों व इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पर भले ही प्रत्याशियों के विज्ञापन नजर नहीं आ रहे, मगर वाट्स एप व फेसबुक पर विज्ञापनों और उनके दौरों की खबरों व फोटो की भरमार है। बानगी के तौर पर चंद प्रत्याशियों के ऐसे विज्ञापन यहां दिए जा रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या आयोग का इस न्यू सोशल मीडिया पर कोई जोर नहीं है? जोर की छोडिय़े, वहां पर तो एक-दूसरे की छीछालेदर धड़ल्ले से की जा रही है। पिछले दिनों अजमेर उत्तर के कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का पक्ष लेते हुए जब एक समाज विशेष पर किसी शरारती ने हमला किया तो अखबार संयमित रहे, मगर वाट्स एप पर वह परचा छाया रहा। अब भी छाया हुआ है। यहां तक कि उस पर बहुत ही घटिया टिप्पणियां भड़ास निकालने की जरिया बनी हुई हैं। सवाल ये उठता है कि एक ओर तो प्रशासन ने मार्केट में लगे वे परचे हटवाए और मुकदमा भी दर्ज किया, मगर वाट्स एप के जरिए चलाए जा रहे शब्द बाणों पर उसकी नजर क्यों नहीं है? ऐसा प्रतीत होता है कि इस बारे में आयोग की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। यही वजह है कि इस न्यू सोशल मीडिया का जम कर उपयोग किया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000