तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जनवरी 24, 2013

मोदी की राष्ट्रीय छवि बनना कत्तई नामुमकिन


यद्यपि नरेंद्र मोदी ने अपने बलबूते पर गुजरात में भाजपा की हैट्रिक बनाने का कीर्तिमान स्थापित कर अपना कद बढ़ा लिया है, मगर इसे उनकी राष्ट्रीय छवि कायम हो जाने का अर्थ निकालना एक अर्धसत्य है। भले ही गुजरात में मुस्लिम बहुल इलाकों में भाजपा की जीत होने को इस अर्थ में भुनाने की कोशिश की जा रही हो कि मुस्लिमों में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है, मगर धरातल का सच ये है कि गुजरात में उनके मुख्यमंत्रित्व काल में हुआ नरसंहार उनका कभी पीछा नहीं छोड़ेगा।
असल में भाजपा इन दिनों नेतृत्व के संकट से गुजर रही है। उसमें प्रधानमंत्री पद के एकाधिक दावेदार हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं को उनमें से सर्वाधिक दमदार चेहरा मोदी का ही नजर आता है, जो कि है भी। एक तो वे तगड़े जनाधार वाले नेता हैं, दूसरा अपनी बात को दमदार तरीके से कहने का उनमें माद्दा है। उनमें झलकती अटल बिहारी वाजपेयी जैसी भाषा शैली श्रोताओं को सहज ही आकर्षित करती है। इसके अतिरिक्त विकास पुरुष के रूप में उनका सफल प्रोजेक्शन यह संकेत देता है कि वे देश के लिए भी रोल मॉडल हो सकते हैं। इन सभी कारणों के चलते पूरे हिंदीभाषी राज्यों के कार्यकर्ताओं में वे एक सर्वाधिक सशक्त रूप में उभर कर आए हैं। आज भाजपा का छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी उनमें प्रधानमंत्री होने का सपना साकार होते हुए देख रहा है। इसी कड़ी में मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद विभिन्न पार्टियों के दिग्गज नेताओं को देख कर मीडिया को भी लगा कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू को छोड का पूरा एनडीए मोदी के साथ है और उसे मोदी के भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद की दावेदारी किए जाने पर ऐतराज नहीं करेगा। मगर धरातल का सच कुछ और है। एक तो प्रधानमंत्री पद के अन्य दावेदार उन्हें आगे नहीं आने देंगे। दूसरा बात जब एनडीए तक आएगी, तब नीतीश कुमार तो अलग होंगे ही अन्य दलों को भी असहजता हो सकती है। शपथ ग्रहण समारोह में औपचरिक रूप से उपस्थित होने और खुल कर समर्थन करने में काफी अंतर है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की बात करें तो वे कहने भर को मोदी के विरोध में नहीं हैं, मगर मोदी के साथ खड़े होने से पहले नफा-नुकसान आकलन कर लेना चाहेंगे। इसी प्रकार यूपीए अलग हुई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मुस्लिम वोटों के जनाधार को खोने का जोखिम  नहीं उठा सकतीं। ऐसे में यह कल्पना एक आधा सच ही है कि मोदी गुजरात की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी स्वीकार्य होंगे।
इस बीच चर्चा ये है कि गुजरात में जिस मंत्र की बदोलत वे जीते हैं, उसे आजमाने के लिए मोदी को इलेक्शन कैंपेन कमेटी का प्रभारी नियुक्त किया जा सकता है, मगर इसे प्रधानमंत्री पद का दावेदार होने के रूप में लेना एक भ्रम मात्र है।
बेशक मोदी का पक्ष लेने वाले लोगों का कहना है कि गुजरात की सत्ता में हैट्रिक लगाना अपने आप में ही किसी करिश्मे से कम नहीं है, मोदी ने ऐसा करके राष्ट्रीय राजनीति में मजबूती के साथ कदम रख दिया है और भाजपा की द्वितीय पीढ़ी में मोदी ही ऐसे एकमात्र नेता हैं जिनमें अपनी पार्टी के अलावा गठबंधन के सहयोगी दलों को भी नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता है, मगर इस सच को भी इंकार नहीं किया जा सकता कि मोदी की स्वीकार्यता अलबत्ता भाजपा तक ही हो सकती है लेकिन सहयोगी दलों में उनके खिलाफ काफी रोष का माहौल है। गुजरात दंगों के दाग से मोदी का मुक्त होना नितांत असंभव है और उन पर सांप्रदायिकता के आरोप पुख्ता तौर पर लगाए जा सकते हैं।
लब्बोलुआब मोदी भाजपा में भले ही दमदार ढंग़ से उभर आए हों, मगर भावी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के नाम को स्वीकार किया जाना बेहद मुश्किल होगा।
राहुल बनाम मोदी में कितना सच?
मोदी की गुजरात में जीत से पहले ही यह जुमला आम हो गया था कि आगामी लोकसभा चुनाव इन दोनों के बीच होगा। यहां तक कि विदेशी पत्रिकाओं का भी यही आकलन है कि टक्कर तो इन दोनों के बीच ही होगी। इस सिलसिले में दोनों की विभिन्न पहलुओं से तुलना करन से कदाचित कुछ निष्कर्ष निकल कर आए।
जहां तक राहुल का सवाल है उपाध्यक्ष घोषित किए जाने के बाद वे जो चाहेंगे कांग्रेस में वही होगा। उन्हें पार्टी में कोई चुनौती देने वाला नहीं है। इसके विपरीत मोदी से यह उम्मीद करना कि जो वे चाहेंगे वहीं होगा, बेमानी होगा। पार्टी के कई नेता ही उनके पक्ष में नहीं हैं। इसके अतिरिक्त राहुल अपनी युवा टीम के सहयोग से जहां युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकते हैं, वहीं मोदी का कट्टरवादी चेहरा हिंदूवादी वोटों को आसानी से अपनी ओर खींच सकता है। एक ओर जहां यूपीए में राहुल की स्वीकार्यता को लेकर कोई दिक्कत नहीं नजर आती, वहीं मोदी के मामले में एनडीए के घटक आपत्ति कर सकते हैं। इसी प्रकार धरातल पर जहां राहुल के साथ गांधी-नेहरू खानदान का वर्षों पुराना जनाधार है, वहीं चाहे विकास के नाम से चाहे हिंदुत्व के नाम से, एक बड़ा वर्ग उनके साथ है। व्यक्तित्व की बात करे तो राहुल मोदी के सामने काफी फीके पड़ते हैं। राहुल न तो राष्ट्रीय मुद्दों पर खुल कर बोलते हैं और न ही कुशल वक्ता, जबकि मोदी आक्रामक तेवर वाले नेता हैं। शब्दों के चयन से लेकर वेशभूषा और बोलने के स्टाइल से ही वह खुद को दबंग नेता के रूप में साबित कर चुके हैं। ऐसे में देखने वाली बात ये होगी कि क्या भाजपा कांग्रेस की ओर घोषित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल के सामने मोदी को दंगल में उतारती है या नहीं?
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, जनवरी 23, 2013

राजनाथ की ताजपोशी से वसुंधरा की मुश्किल बढ़ी


हालांकि यह लगभग तय है कि राजस्थान में भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को आगे रख कर ही चुनाव लडऩे को मजबूर है, मगर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर राजनाथ सिंह के काबिज होने के बाद समीकरणों में कुछ बदलाव आया है। लगता यही है कि वसुंधरा को संघ के साथ समझौते में जिनती आसानी नितिन गडकरी के रहते होती, उतनी राजनाथ सिंह के रहते नहीं होगी। यानि कि संघ लॉबी अब बंटवारे में पहले से कहीं अधिक सीटें हासिल कर सकती है।
वस्तुत: राजनाथ सिंह व वसुंधरा राजे के संबंध कुछ खास अच्छे नहीं रहे हैं। आपको याद होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी की पराजय होने की जिम्मेदारी लेते हुए तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर ने तो इस्तीफा दे दिया, लेकिन नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे की बात आई तो वसुंधरा ने इससे इंकार कर दिया था। तब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उन्होंने कड़ा रुख अख्तियार कर लिया था। आखिरकार वसुंधरा को पद छोडऩा पड़ा था। यह बात दीगर है कि उसके बाद तकरीबन एक साल तक यह पद खाली पड़ा रहा और उसे फिर से वसुंधरा को ही सौंपना पड़ा। लब्बोलुआब वसुंधरा के प्रति जितना सॉफ्टकोर्नर गडकरी का रहा, उतना राजनाथ सिंह का नहीं रहेगा। राजनाथ सिंह व वसुंधरा के संबंधों पर रामदास अग्रवाल का यह बयान काफी मायने रखता है कि सिंह में पार्टी हित में कठोर निर्णय लेने की क्षमता है। उन्होंने नेता प्रतिपक्ष से वसुंधरा राजे का इस्तीफा ले लिया था। गलती पर जसवंत सिंह तक को बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं हिचके।
राजनाथ सिंह के दरबार में वसुंधरा की कितनी अहमियत है, इसका अंदाजा इस बात से भी होता है कि एक ओर जहां वे औपचारिक रूप से उनसे मिलने और पदग्रहण समारोह में शामिल होने के बाद जल्द ही जयपुर लौट आईं, जबकि संघ लॉबी के रामदास अग्रवाल, घनश्याम तिवाड़ी और अरुण चतुर्वेदी दिल्ली में ही डटे रहे।
इसके अतिरिक्त राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने से प्रदेश में भाजपा संगठन और संघ से जुड़े नेता और मजबूत होंगे। राजनाथ सिंह के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी से कैसे संबंध हैं, इसका अंदाजा उनके इस बयान से लगाया जा सकता है कि उन्होंने ही उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाया। वे युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, तब कार्यकारिणी में उन्हें लिया था। ऐसे में प्रदेश अध्यक्ष संघनिष्ठ खेमे का बनना तय माना जा रहा है। हां, इतना जरूर संभव है कि सिंह के लिए यह मजबूरी हो कि सत्ता में आने के लिए वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने पर मजबूर होना पड़े।
भाजपा का सत्ता में आना कुछ आसान
राजनाथ सिंह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने एक असर ये भी होता दिखाई दे रहा है कि यहां भाजपा के लिए सत्ता की सीढ़ी चढऩा कुछ आसान हो सकता है। इसकी वजह ये है कि किरोड़ी लाल मीणा से सिंह के अच्छे संबंध रहे हैं। और इसी कारण माना ये जा रहा है कि वसुंधरा की गलती से भाजपा से दूर हुए मीणा विधानसभा चुनाव होने से पार्टी में वापस लाए जा सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यह भाजपा के लिए काफी सुखद होगा। यहां यह कहने की जरूरत नहीं है कि वसुंधरा की हार की वजूआत में एक प्रमुख वजह मीणा की नाराजगी भी थी।
-तेजवानी गिरधर

कल्याण सिंह को थूक कर फिर चाट लिया भाजपा ने


भाजपा ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को एक बार फिर थूक कर चाट लिया है। उनकी वापसी बड़े जोर-शोर से हुई है, तभी तो लखनऊ में आयोजित रैली में बीजेपी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह भी शामिल हुए।
ज्ञातव्य है कि कल्याण सिंह की भाजपा में वापसी तीसरी बार हुई है। बेशक 1990 के दशक में कल्याण सिंह का खासा दबदबा था। भाजपा भी काफी मजबूती से उभरी, मगर नेताओं की आपसी खींचतान के चक्कर में कल्याण बाहर हो गए और उसका फायदा समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने उठाया, क्योंकि पिछड़े वर्ग के लोधी वोटों में उन्होंने सेंध मार ली। अब हालत ये है कि लोधी वोट पार्टी से काफी दूर जा चुके हैं। हालत ये है कि कल्याण सिंह की जगह लोधी वोटों को खींचने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव में फायर ब्रांड नेता उमा भारती को कमान सौंपी गई, मगर वे भी कुछ नहीं कर पाईं। कहने की जरूरत नहीं है कि ये उमा भारती भी थूक कर चाटी हुई नेता हैं। अब जब कि कल्याण सिंह को फिर से गले लगाया गया है, यह सोचने का विषय है कि क्या अब भी वे कारगर हो सकते हैं? क्या अब भी उनकी लोधी वोटों पर उतनी ही पकड़ है, जितनी पहले हुआ करती थी? यह सवाल इसलिए वाजिब है क्योंकि कल्याण सिंह अपनी अलग पार्टी बनाने के बाद खारिज किए जा चुके हैं।
आइये, जरा समझें कि कल्याण सिंह का सियासी सफर कैसा रहा है।  कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उन्होंने साल 1962 में राजनीतिक चिंतक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से प्रेरित होकर राजनीति में प्रवेश किया। वे 1967, 1969, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996 और 2002 में यानी दस बार विधायक चुने गए। बीजेपी में रहते हुए वो दो बार 1991 और 1997 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। बीजेपी से नाराज होकर कल्याण सिंह ने 1999 में अपने 77वें जन्मदिन पर राष्ट्रीय क्रांति पार्टी नाम से एक नई पार्टी बनाई। साल 2002 का विधानसभा चुनाव बीजेपी और कल्याण ने अलग-अलग लड़ा था। यही वह चुनाव था जहां से उत्तर प्रदेश में बीजेपी का ग्राफ गिरना शुरू हुआ। बीजेपी की सीटों की संख्या 177 से गिरकर 88 हो गई। प्रदेश की 403 सीटों में से 72 सीटों पर कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी ने दावेदारी ठोकी थी और इन्हीं सीटों पर बीजेपी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचा। नतीजा कल्याण की घर वापसी की कोशिशें शुरू हुईं और 2004 में कल्याण बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद 2007 में विधानसभा चुनाव में कल्याण की मौजूदगी के बावजूद बीजेपी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। कल्याण के नेतृत्व में बीजेपी को सिर्फ 51 सीटें हासिल हुईं। 2009 में कल्याण का बीजेपी से फिर मोहभंग हुआ और उन्होंने मुलायम सिंह से दोस्ती कर ली। अपने बेटे राजवीर सिंह को उन्होंने सपा का राष्ट्रीय पदाधिकारी भी बनवा दिया, लेकिन ये दोस्ती भी ज्यादा नहीं टिकी। 2012 में कल्याण ने अपनी एक और पार्टी जन क्रांति पार्टी बना ली। लेकिन यूपी विधानसभा चुनाव 2012 में उनकी पार्टी के हाथ कुछ नहीं लगा। उधर, बीजेपी भी महज 47 सीटों पर सिमट गई।
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक कल्याण और बीजेपी की इसी मजबूरी ने इन्हें दोबारा दोस्त बनाया है। कल्याण सियासत की दुनिया में गुमनाम हो चले थे। बीजेपी भी लाख कोशिशों के बावजूद यूपी में तीसरे नंबर पर सरक गई है। ऐसे में उसे यूपी में एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी जो लोकसभा चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर सके। उधर कल्याण सिंह के पास भी विकल्प नहीं था। उनकी पार्टी यूपी में अपना आधार नहीं बना सकी। ऐसे में कल्याण सिंह और बीजेपी दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है। खास बात ये है कि कल्याण की बीजेपी में वापसी को लेकर फायर ब्रांड नेता उमा भारती काफी सक्रिय रहीं। दोनों नेताओं की जुगलबंदी बीजेपी को यूपी में पुरानी स्थिति में ना सही, एक सम्मानजनक स्थिति में भी ला सकी तो पार्टी का मकसद हल हो जाएगा।
असल में भाजपा जानती है कि उसे अगर लोकसभा चुनाव में सशक्त रूप से उभरना है तो उत्तर प्रदेश पर ध्यान देना ही होगा। हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में जरूर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी कुछ कर नहीं पाए, क्योंकि वोटों का धु्रवीकरण बसपा से सपा की ओर हो गया, मगर अब जब राहुल ने ही कांग्रेस की कमान संभाल ली है तो जाहिर सी बात वे उत्तरप्रदेश पर जरूर ध्यान देंगे और वह कारगर भी हो सकता है। उन्हीं का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने खारिज किए जा चुके कल्याण सिंह को गले लगाया है। समझा जाता है कि कांग्रेस व भाजपा की इस नई गतिविधि का कुछ तो असर होगा ही क्योंकि विधानसभा चुनाव के फैक्टर अलग होते हैं, जबकि लोकसभा चुनाव के अलग। लोकसभा चुनाव में मतदाता की सोच राष्ट्रीय हो जाती है। ऐसे में यह देखने वाली बात होगी कि दोनों दल मतदाताओं के अपनी-अपनी ओर कितना खींच पाते हैं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, जनवरी 20, 2013

कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को नुकसान पहुंचाएगी सपा

हालांकि समाजवादी पार्टी का अभी तक राजस्थान में कोई जनाधार नहीं रहा है, मगर पदोन्नति में आरक्षण समाप्त करने का नया पैंतरा चलने वाली समाजवादी पार्टी अब यहां भी अपनी जमीन तलाशने लगी है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खुद ही अपने राज्य के बाद राजस्थान का रुख करना चाहते थे कि पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करने वाल समता आंदोलन समिति ने उन्हें अकेले इसी मुद्दे पर जयपुर में सम्मानित करने का न्यौता दे दिया। अंधा क्या चाहे, दो आखें, वे तुरंत राजी हो गए। जयपुर आए तो उनका भव्य स्वागत किया गया।
अखिलेश की इस नई चाल से जहां राजस्थान का चुनावी समीकरण बदलने के आसार दिखाई दे रहे हैं, वहीं अखिलेश की भी कोशिश है कि इस बहाने अपने जातीय वोटों के अतिरिक्त समता आंदोलन का साथ दे रहे कांग्रेस व भाजपा के कार्यकर्ता उनके साथ जुड़ जाएं। जहां तक मुद्दे का सवाल है एक अनुमान के अनुसार पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था से प्रदेश के 72 फीसदी सवर्ण कर्मचारी यानी 5 लाख से अधिक परिवार प्रभावित होते हैं। वे अगर कांग्रेस व भाजपा से रूठ कर सपा के साथ जुड़ते हैं तो जाहिर तौर पर यहां का राजनीतिक समीकरण बदल जाएगा। इसमें भी बड़ा पेच यह है अधिसंख्य सवर्ण भाजपा मानसिकता के माने जाते हैं। यानि अगर वे सपा की ओर आकर्षित होते हैं तो ज्यादा नुकसान भाजपा का ही होगा। सच तो ये है आंदोलन के मुख्य कर्ताधर्ताओं में भाजपा मानसिकता के लोग ही ज्यादा है। इस लिहाज से सपा की राजस्थान में एंट्री भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। नुकसान कांग्रेस को भी होगा, मगर कुछ कम। पदोन्नति में आरक्षण की वह भी पक्षधर है, मगर चूंकि इससे उसका पहले से कायम अनुसूचित जाति का वोट बैंक मजबूत होता है तो उसक एवज में सवर्ण वोटों में सेंध पड़ती है तो वह उसे बर्दाश्त करने की स्थिति में है। रहा सवाल भाजपा का तो उसकी भी अनुसूचित जाति पर पकड़ मजबूत होगी, मगर एकाएक कांग्रेस का गढ़ वह तोड़ पाएगी, इसकी संभावना कम ही है।
नए समीकरण के बारे में भाजपा के थिंक टैंकरों का मानना है कि इससे भाजपा को कोई नुकसा नहीं होगा। उनका तर्क ये है कि सपा का जातिगत आधार अलग रूप में है। कांग्रेस और सपा के वोट बैंक में एक समानता है-अल्पसंख्यक, एससी-एसटी और ओबीसी। अगर सपा चुनाव में उतरती है तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस के इस वोट बैंक में सेंध लग सकती है। उनकी सोच भी सही है, मगर वे यह नहीं समझ पा रहे कि पदोन्नति में आरक्षण का समर्थन करने के कारण अनुसूचित जाति सपा के साथ कैसे जाएगी।
अब जरा ये भी देख लें कि सपा की राजस्थान में एंट्री कहां कहां पर होगी। यूं तो पूरे राजस्थान में ही वह अपने वोट पकाएगी, मगर ज्यादा असर मुंडावर, बहरोड़, बानसूर, तिजारा, अलवर शहर, अलवर ग्रामीण, किशनगढ़ बास, डीग, कुम्हेर, कामां, कोटपूतली, आमेर, विराटनगर, शाहपुरा, धौलपुर यादव बहुल इलाकों पर पड़ेगा। वहां का यादव सीधे तौर पर उसके साथ हो जाएगा। अर्थात केवल यादव बहुल इलाके में ही ज्यादा असर का माना जाए तो सपा कम से कम दस सीटों को सीधे तौर पर प्रभावित करेगी। कांग्रेस व भाजपा को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में वह ब्लैकमेलिंग की स्थिति में आ सकती है। इसका अर्थ होता है सीधे-सीधे सत्ता में भागीदारी।
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि प्रदेश में सरकारी भर्ती के साथ पदोन्नति में भी एससी को 16' और एसटी को 12' आरक्षण का प्रावधान है। इससे वरिष्ठता और अनारक्षित वर्ग की सीटों के भी प्रभावित होने पर राज्य कर्मियों ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक 17 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी। फिर भी पदोन्नति में 16 और 12' आरक्षण जारी रहा, क्योंकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सहित अन्य नेता आरक्षित वर्ग के पक्ष में खड़े हो गए थे।
जहां तक अखिलेश के अभिनंदन का सवाल है, इससे समता आंदोलन समिति को एक तरह से सरकार पर यह दबाव बढ़ाने का मौका मिल गया है। इस बहाने उसे एक रहनुमा भी हासिल हुआ है, जो उनकी हर तरह से मदद कर सकता है। अर्थात अब समता आंदोलन और मजबूत हो कर उभर सकता है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, जनवरी 14, 2013

संघ लॉबी से कहीं ज्यादा खौफ है वसुंधरा राजे का

भले ही वर्चस्व की लड़ाई को लेकर संघ पृष्ठभूमि के कुछ दिग्गजों ने पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को घेर रखा हो, मगर पूरे राजस्थान की बात करें तो वसुंधरा का खौफ ज्यादा ही नजर आता है। यही वजह है कि जब संघ लॉबी के नेताओं पूर्व प्रदेशाध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी, गुलाबचंद कटारिया, ओमप्रकाश माथुर, घनश्याम तिवाड़ी और रामदास अग्रवाल आदि ने राजस्थान प्रभारी कप्तान सिंह सोलंकी के सामने शक्ति प्रदर्शन के लिए प्रदेशभर के नेताओं को जयपुर बुलाया तो 38 में से केवल 4 जिलाध्यक्ष ही पहुंचे। वसुंधरा विरोधी लॉबी में माने जाने वाले कई जिला अध्यक्ष सहित अन्य नेता चुनावी साल में विवाद से बचने के लिए नहीं आए। यहां तक कि जयपुर जिलाध्यक्ष भी कन्नी काट गए। ऐसे में वसुंधरा लॉबी को यह कहने का मौका मिल गया है कि विरोधी लॉबी अपने आप को जितनी ताकतवर जता रही है, उतनी है नहीं। मात्र चार जिलाध्यक्षों सहित कुल डेढ़ दर्जन नेता ही वसुंधरा का विरोध कर रहे हैं।
असल में ताजा परिदृश्य ये है कि फिलवक्त वसुंधरा कुछ घिरी हुई हैं, मगर राजस्थान के सारे भाजपा नेता जानते हैं कि वसुंधरा को भले ही फ्री हैंड न मिले, लेकिन पलड़ा तो उनका ही भारी रहने वाला है। ऐसे में दिग्गज तो फिर भी टिकट हासिल कर लेंगे, मगर वे खुल कर वसुंधरा के विरोध में आ गए तो उन्हें टिकट मिलने में परेशानी आएगी। अधिसंख्य विधायक भी वसुंधरा के साथ इसी कारण हैं क्योंकि उन्हें फिर से टिकट चाहिए व टिकट वितरण में वसुंधरा की ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इसके अतिरिक्त वे नेता भी वसुंधरा के साथ खड़े हैं, जो उनके राज में उपकृत हो चुके हैं।
उधर संघ लॉबी के दिग्गजों को अनुमान हो गया है कि वे वसुंधरा को तो कत्तई नहीं निपटा सकते, लिहाजा उन्होंने अपना रुख कुछ नरम कर लिया है और ये नया राग अलाप रहे हैं कि उन्हें नेता प्रतिपक्ष वसुंधरा राजे से नहीं, उनकी मंडली से परेशानी है। राजे अगर इस मंडली से मुक्त होकर सबको साथ लें तो किसी को कोई आपत्ति नहीं है। यानि खेमेबाजी संघनिष्ठ बनाम वसुंधरा राजे नहीं, बल्कि नवभाजपाइयों के बीच है। ज्ञातव्य है कि जहां ललित किशोर चतुर्वेदी, गुलाबचंद कटारिया, रामदास अग्रवाल, घनश्याम तिवाड़ी, महावीर प्रसाद जैन, ओम प्रकाश माथुर, सतीश पूनियां, मदन दिलावर, ओंकार सिंह लखावत आदि एकजुट हैं तो दूसरी तरफ वसुंधरा राजे वाले खेमे में किरण माहेश्वरी, नंदलाल मीणा, राजेंद्र सिंह राठौड़, दिगंबर सिंह, भवानी सिंह राजावत, सांवर लाल जाट आदि प्रमुख हैं। दोनों धड़े जानते हैं कि विधानसभा चुनाव को कम समय बचा है। विवाद जारी रहा तो कांग्रेस सरकार के खिलाफ बने माहौल का फायदा उठाने का मौका भाजपा के हाथ से निकल जाएगा, ऐसे में उन्हें किसी न किसी तरह एकजुट होना ही होगा। अब देखना ये है कि इस नूरा कुश्ती के बाद ऊंट किस करवत बैठता है।
-तेजवानी गिरधर

निदा फाजली को समझने केलिए अक्ल चाहिए होती है

मशहूर शायर निदा फाजली को आखिर खुल कर आरोप लगाना पड़ा कि मीडिया ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है। यह विवाद हिन्दी की एक साहित्यिक पत्रिका को फाजली के भेजे पत्र के बाद शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने कहा था-अमिताभ को एंग्री यंग मैन की उपाधि से क्यों नवाजा गया। वह तो केवल अजमल कसाब की तरह गढ़ा हुआ खिलौना है। एक को हाफिज मोहम्मद सईद ने बनाया और दूसरे को सलीम जावेद ने गढ़ा। खिलौने को फांसी दे दी गई, लेकिन खिलौना बनाने वाले को पाकिस्तान में उसकी मौत की नमाज पढऩे खुला छोड़ दिया। जब बात का बतंगड़ बनाया गया तो निदा को सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने कभी अमिताभ बच्चन की तुलना आतंकवादी अजमल कसाब से नहीं की। उन्होंने कभी अमिताभ को आतंकवादी नहीं कहा। मीडिया ने बयान को सनसनी फैलाने के लिये तोड़ मरोड़कर पेश किया और नया विवाद पैदा कर दिया। उन्होंने एंग्री यंग मैन की छवि के बारे में बयान दिया था, अमिताभ के बारे में नहीं। अमिताभ बेहतरीन कलाकार हैं और बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। हर कलाकार की तरह हालांकि उनकी भी सीमायें हैं।
वस्तुत: फाजली की बात में जो बारीकी है, उसे समझने के लिए अक्ल की जरूरत होती है, बहुत ज्यादा नहीं, थोड़ी सी, मगर ऐसा लगता है कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े पत्रकार मैनेजमेंट के दबाव में अक्ल घर छोड़ कर आते हैं और महज सनसनी फैलाने के लिए बाल की खाल उधेड़ते हैं। निदा का चिंतन व कल्पना जिस स्तर की है, जब तक उस स्तर पर जा कर बात को नहीं समझा जाएगा, ऐसे ही विवाद पैदा होते रहेंगे। पत्रकारों का वह स्तर तो टीआपी बढ़ाने के दौर में कुंद कर दिया गया है। इस प्रकरण की तुलना अगर इत्र बेचने वाले गंधी और इत्र को चाटने के बाद उसे बेस्वाद बताने वाले गंवार से की जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जब जब सुनार के बना हुए गहने को लुहार को सौंपा जाएगा, ऐसा ही होगा। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। इतनी तो निदा फाजली में अक्ल होगी ही, है ही कि अमिताभ की तुलना आतंकी अजमल कसाब से कैसे करेंगे, यह समझने के लिए अक्ल की जरूरत है। वे दरअसल उस करेक्टर की बात कर रहे हैं, जिसकी वजह से अमिताभ को एंग्री यंग मैन की उपाधि से नवाजा गया। समझा जा सकता है सत्तर के दशक में ही व्यवस्था के खिलाफ एक एंग्री यंग मैन पैदा किया गया था, जो कानून को ताक पर रख कर खुद की कानून बनाता है, खुद ही फैसले सुनाता है और खुद ही सजा देता है। उसी का सुधरा हुआ रूप आज 74 साल के अन्ना हजारे हैं। सच तो ये है आज अन्ना हजारे के दौर में व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा उस जमाने से कहीं अधिक है। बेशक यह व्यवस्था के नाम पर फैली अव्यवस्था की ही उपज है। अन्ना हजारे अपने आप में कुछ नहीं, वे उसी अव्यवस्था की देन हैं। उसी अव्यवस्था से उपजे गुस्से को अन्ना ने महज दिशा भर दी है। आज अन्ना के दौर में भी सरकार पर जिस बेहतरी के दबाव बनाया गया, उसमें साफ इशारा था कि संसद में बैठे चोर-बेईमान सांसदों का बनाया कानून जनता को मंजूर नहीं, अब कानून सड़क पर आम जनता बनाएगी। निदा फाजली संभवत: इसी के इर्द गिर्द कोई बात कर रहे थे, मगर मीडिया ने तो सीधा अमिताभ व कसाब को खड़ा कर दिया। इसे सनसनी फैलाने की अतिरिक्त चतुराई माना जाए अथवा बुद्धि का दिवालियापन, इसका फैसला अब आम आदमी ही करे।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, जनवरी 13, 2013

देश को हांकने लगा है इलैक्ट्रॉनिक मीडिया

वे दिन लद गए, जब या तो आकाशवाणी पर देश की हलचल का पता लगता था या फिर दूसरे दिन अखबारों में। तब किसी विवादास्पद या संवेदनशील खबर के लिए लोग बीबीसी पर कान लगाते थे। देश के किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर राय कायम करने और समाज को उसका आइना दिखाने के साथ दिशा देने का काम अखबार किया करते थे, जिसमें वक्त लगता था। आजादी के आंदोलन में समाचार पत्रों की ही अहम भूमिका रही। मगर अब तो सोसासटी हो या सियासत, उसकी दशा और दिशा टीवी का छोटा पर्दा ही तय करने लगा है। और वह भी लाइव। देश में पिछले दिनों हुई प्रमुख घटनाओं ने तो जो हंगामेदार रुख अख्तियार किया, वह उसका जीता जागता सबूत है।
आपको ख्याल होगा कि टूजी व कोयला घोटाले की परत दर परत खोलने का मामला हो या भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर अन्ना हजारे व बाबा रामदेव के आंदोलन को हवा देना, नई पार्टी आप के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल को ईमानदारी का राष्ट्रीय प्रतीक बनाना हो या दिल्ली गेंग रेप की गूंज व आग को दिल्ली के बाद पूरे देश तक पहुंचाना, या फिर महिलाओं को लेकर राजनीतिक व धार्मिक नेताओं की बयानों का बारीक पोस्टमार्टम, हर गरमागरम मुद्दे का पूरा स्वाद चखाने को इलैक्ट्रॉनिक मीडिया तत्पर रहता है। देश के बड़े समाचार पत्र किसी विषय पर अपनी राय कायम कर पाएं, उससे पहले तो हर छोटे-मोटे मुद्दे पर टीवी पर गरमागरम बहस हो चुकती है। यहां तक कि जो बहस संसद में होनी चाहिए, वह भी टीवी पर ही निपट लेती है। उलटे ज्यादा गरमागरम और रोचक अंदाज में, क्योंकि वहां संसदीय सीमाओं के ख्याल की भी जरूरत नहीं है। अब तो संसद सत्र की जरूरत भी नहीं है। बिना उसके ही देश की वर्तमान व भविष्य टीवी चैनलों के न्यूज रूम में तय किया जाने लगा है। संसद से बाहर सड़क पर कानून बनाने की जिद भी टीवी के जरिए ही होती है। शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जब कि देश के किसी मुद्दे के बाल की खाल न उधेड़ी जाती हो। हर रोज कुछ न कुछ छीलने को चाहिए। अब किसी पार्टी या नेता को अपना मन्तव्य अलग से जाहिर करने की जरूरत ही नहीं होती, खुद न्यूज चैनल वाले ही उन्हें अपने स्टूडियो में बुलवा लेते हैं। हर चैनल पर राजनीतिक पार्टियों के नेताओं, वरिष्ठ पत्रकारों व विषय विशेषज्ञों का पैनल बना हुआ है। इसी के मद्देनजर पार्टियों ने भी अपने प्रवक्ताओं को अलग-अलग चैनल के लिए नियुक्त किया हुआ है, जो रोजाना हर नए विषय पर बोलने को आतुर होते हैं। अपनी बात को बेशर्मी के साथ सही ठहराने के लिए वे ऐसे बहस करते हैं, मानों तर्क-कुतर्क के बीच कोई रेखा ही नहीं है। यदि ये कहा जाए कि अब उन्हें फुल टाइम जॉब मिल गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। लोगों को भी बड़ा मजा आने लगा है, क्योंकि उन्हें सभी पक्षों की तू-तू मैं-मैं चटपटे अंदाज में लाइव देखने को मिलने लगी है। खुद ही विवादित करार दिए गए बयान विशेष पर बयान दर बयान का त्वरित सिलसिला चलाने की जिम्मेदारी भी इसी पर है। अफसोसनाक बात तो ये है कि मदारी की सी भूमिका अदा करने वाले बहस संयोजक एंकर भी लगातार आग में घी का डालने का काम करते हैं, ताकि तड़का जोर का लगे।
बेशक, इस नए दौर में टीवी की वजह से जनता में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है। अब आम आदमी अपने आस-पास से लेकर दिल्ली तक के विषयों को समझने लगा है। नतीजतन जिम्मेदार नेताओं और अधिकारियों की जवाबदेही भी कसौटी पर कसी रहती है। इस अर्थ में एक ओर जहां पारदर्शिता बढऩा लोकतंत्र के लिए सुखद प्रतीत होता है, तो दूसरी वहीं इसका दुखद पहलु ये है कि बयानों के नंगेपन का खुला तांडव मर्यादाओं को तार-तार किए दे रहा है। हालत ये हो गई है कि किसी सेलिब्रिटी के आधे-अधूरे बयान पर ही इतना हल्ला मचता है कि मानो उसके अतिरिक्त इस देश में दूसरा कोई जरूरी मुद्दा बाकी बचा ही न हो। पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन राव भागवत व आध्यात्मिक संत आशाराम बापू के महिलाओं के किसी अलग संदर्भ में दिए अदद बयान पर जो पलटवार हुए तो उनकी अब तक कमाई गई सारी प्रतिष्ठा को धूल चटा दी गई। एक मन्तव्य से ही उनके चरित्र को फ्रेम विशेष में फिट कर दिया गया। बेलाग बयानों की पराकाष्ठा यहां तक पहुंच गई कि आशाराम बापू ने टीवी चैनलों को कुत्तों की संज्ञा दे दी और खुद को हाथी बता कर उनकी परवाह न होने का ऐलान कर दिया। पारदर्शिता की ये कम पराकाष्ठा नहीं कि उसे भी उन्होंने बड़े शान से दिखाया।
विशेरू रूप से महिलाओं की मर्यादा और उनकी स्वतंत्रता, जो स्वच्छंदता चाहती है, का मुद्दा तो टीवी पर इतना छा गया कि विदेश में बैठे लोग तो यही सोचने लगे होंगे कि भारत के सारे पुरुष दकियानूसी और बलात्कार को आतुर रहने वाले हैं। तभी तो कुछ देशों के दूतावासों को अपने नागरिकों को दिल्ली में सावधान रहने की अपील जारी करनी पड़ी। आधी आबादी की पूरी नागरिकता स्थापित करने के लिए महिलाओं के विषयों पर इतनी जंग छेड़ी गई, मानो टीवी चैनलों ने महिलाओं को सारी मर्यादाएं लांघने को प्रेरित कर स्वतंत्र सत्ता स्थापित करवाने का ही ठेका ले लिया हो। इस जद्दोजहद में सांस्कृतिक मूल्यों को पुरातन व अप्रासंगिक बता कर जला कर राख किया जाने लगा। क्या मजाल जो किसी के मुंह से महिलाओं की मर्यादा व ढंग के कपड़े पहनने की बात निकल जाए, उसके कपड़े फाड़ दिए गए। जिन के भरोसे ये देश चल रहा है, उन भगवान को ही पता होगा कि इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए कैसा देश बनने जा रहा है। अपनी तो समझ से बाहर है। नेति नेति।
-तेजवानी गिरधर