तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, जुलाई 19, 2012

गुटखे पर पाबंदी : सरकार का तुगलकी आदेश


राज्य सरकार ने गुटखे पर रोक लगा कर यूं तो साधुवाद का काम किया है, जिसकी जितनी सराहना की जाए, कम है, मगर जिस तरीके से एक झटके में रोक लगाई, उसे यदि तुगलकी आदेश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
सीधी सीधी बात है, यदि सरकार को यह निर्णय करना था तो पहले गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियों को उत्पादन बंद करने का समय देती, स्टाकिस्टों को माल खत्म करने की मोहलत देती तो बात न्यायपूर्ण होती, मगर सरकार ने ऐसा नहीं किया। अब सवाल ये है कि तम्बाकू मिश्रित गुटका बनाने वाली फैक्ट्रियों में जमा सुपारी, कत्था व तंबाकू का क्या होगा? इन फैक्ट्रियों में काम करने वाल मजदूरों का क्या होगा? स्टाकिस्टों और होल सेलर्स के पास जमा माल का क्या होगा? रिटेलर्स के पास रखे माल को कहां छिपाया जाएगा? इनका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। यानि की यह तुगलकी फरमान ही है। मजे की बात देखिए कि सरकार जानती थी कि गुटखा बनाने वाले कोर्ट में जा कर स्थगनादेश लगाने की कोशिश करेंगे, लिहाजा केवियेट लगाने की बात भी कह दी।
अब बात जरा इस यकायक लागू किए गए आदेश के परिणाम की। माना कि तम्बाकू मिश्रित गुटखा बनाने वाली फैक्ट्रियां अब आगे और उत्पादन नहीं करेंगी, मगर वह उनके पास मौजूद माल को दबा लेंगी। मांग बढऩे के चलते स्टाकिस्ट व होलसेलर्स को अधिक दाम मांगेंगी। होलसेलर्स भी इस मौके का फायदा उठाएंगे और बढ़ी दरों पर रिटेलर्स को माल देंगे। कुल मिला कर गुटके की जम कर ब्लैक होगी। एक अर्थ में देखा जाए तो खुद सरकार ने ही एक झटके में रोक लगा कर ब्लैक मार्केटिंग को बढ़ावा देने का कदम उठाया है। सरकार को निर्णय लागू करने की इतनी जल्दी क्या थी, यह समझ से परे है। यदि दैनिक भास्कर की मानें तो यह उसके दबाव की वजह से हुआ है, मगर ऐसा लगता नहीं है। पाबंदी लागू करने की तैयारी पहले से चल रही होगी। या तो उसे एक्सरसाइज की भनक भास्कर को लग गई होगी अथवा सरकार ने उसे क्रेडिट देने के लिए यह जानकारी लीक की होगी। सरकार ने ऐसा इस लिए किया होगा ताकि वह कह सके कि प्रदेश की जनता यही चाहती थी।
अब सवाल ये भी कि क्या यह पाबंदी असरकारक होगी? अव्वल तो गुटका चोरी-छुपे बनेगा और बिकेगा भी। जो टैक्स बढ़ाए जाने पर अथवा पोली पैक बंद होने पर महंगा होने के बाद भी खाते थे, वे ऊंचे दाम में भी खरीदने को तैयार रहेंगे। उलटा तस्करी और चालू हो जाएगी। खुद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का कहना है कि अभी आधा काम हुआ है, आधा करने की जिम्मेदारी आम लोगों की है। मगर लगता ये है कि न तो यह आधा काम हुआ है और न इसके पूरा होने की संभावना है। असल में पाबंदी तंबाकू मिश्रित गुटखे पर लगी है। अब भी पान मसाला अलग से मिलेगा और तंबाकू भी। लोग दोनों को खरीद कर उसका गुटका बना कर खाएंगे। यदि सादा मसाले वाले गुटके पर भी रोक लगाई गई तो लोग वापस उसी गुटके पर आ जाएंगे, जहां से यह कहानी शुरू हुई थी। पहले पान की दुकान वाले सुपारी, कत्था, चूना व तम्बाकू रगड़ कर गुटका बनाया करते थे। अब भी वह गुटका चलता है। कुल मिला कर सरकार का जो मकसद है कि तम्बाकू के सेवन अंकुश लगे, वह पूरा होना नहीं है।
रहा सवाल कानूनी पाबंदी का तो वह कितनी कारगर होगी, इसकी कल्पना गुजरात में शराब पर लगी रोक से की जा सकती है। वहां भले ही दुकानों पर शराब नहीं मिलती, मगर होम डिलीवरी तो चालू है ही। कहने वाले तो कहते हैं कि गुजरात में शराब उलटे आसानी से उपलब्ध हो जाती है। ये शराबबंदी छद्म है और शराब पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है। ठीक इसी प्रकार राजस्थान में भी होगा। गुटका चोरी छिपे मिला करेगा। अलबत्ता ज्यादा दामों पर। हकीकत तो ये है कि मार सिर्फ आम आदमी पर पड़ेगी। सस्ता गुटका मिलना बंद हो जाएगा। अमीर को तो कोई फर्क नहीं पडऩा। वह तो वैसे भी सस्ता गुटका नहीं खाता। वह तो रजनीगंधा और डबल जीरो मिला कर ही खा रहा है।
कुल मिला कर गहलोत का बयान इस अर्थ में जरूर सही है कि अगर लोगों ने गुटके की आदत नहीं छोड़ी तो उनके आदेश का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। जब तक गुटके खिलाफ माहौल नहीं बनेगा, तब तक नतीजा सिफर ही रहने वाला है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

बुधवार, जुलाई 18, 2012

ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें भाजपा ने थूक पर चाटा था


राजनीति भी अजीब चीज है। इसमें कुछ भी संभव है। कैसा भी उतार और कैसा भी चढ़ाव। हाल ही उपराष्ट्रपति पद के लिए भाजपा व एनडीए के उम्मीदवार जसवंत सिंह पर तो यह पूरी तरह से फिट है। ये वही जसवंत सिंह हैं, जिन्हें कभी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने पर भाजपा ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। ज्ञातव्य है कि खुद को सर्वाधिक राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा ने जब जसवंत सिंह को छिटकने के चंद माह बाद ही फिर से गले लगाया तो उसकी इस राजनीति मजबूरी को थूक कर चाटने की संज्ञा दी गई थी।
विशेष रूप से इस कारण कि लोकसभा चुनाव में पराजित होने के बाद अपनी हिंदूवादी पहचान को बरकरार रखने की खातिर अपने रूपांतरण और परिमार्जन का संदेश देने पार्टी को एक ऐसा कदम उठाना पड़ा, जिसे थूक कर चाटना ही नहीं अपितु निगलने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। तब पार्टी को तकलीफ तो बहुत थी, लेकिन कोई चारा ही नहीं था। एक वजह ये भी थी कि दूसरी पंक्ति के नेता पुरानी पीढ़ी को धकेलने को आतुर थे ताकि उनकी जगह आरक्षित हो जाए। जिस नितिन गडकरी को पार्टी को नयी राह दिखाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्हें ही चंद माह बाद जसवंत की छुट्टी का तात्कालिक निर्णय पलटने को मजबूर होना पड़ा। और अब उन्हें उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तक बनाना पड़ा।
हकीकत ये है कि मतों की संख्या लिहाज से भाजपा नीत एनडीए कांग्रेस को वाक ओवर न देने के नाम पर उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव भी हारने के लिए ही लड़ रही है। हालांकि नाम तो एनडीए के संयोजक और जनता दल एकीकृत के अध्यक्ष शरद यादव का नाम भी चला, मगर वे शहीद होने को तैयार नहीं हुए। आखिरकार जसवंत सिंह के नाम पर ठप्पा लगा दिया गया। ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि आखिर क्या वजह है कि खुद जसवंत सिंह शहीद होने को तैयार गए? सवाल यह भी कि जिन जसवंत सिंह को वोटों की राजनीति के चलते मजबूरी में निगलने की जलालत झेलनी पड़ी, उन्हें शहीद करवा कर राजनीति की मुख्य धारा से दूर करने का निर्णय क्यों करना पड़ा? हालांकि यह सही है कि उपराष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ कर हारने के बाद वापस मुख्य धारा में न आने की कोई परंपरा नहीं है, मगर फिर भी फिलवक्त तो हारने का ठप्पा लगवाना पड़ेगा। जहां तक जानकारी है, इस निर्णय के पीछे लाल कृष्ण आडवाणी का हाथ है। वे लगभग हाशिये पर हैं। हो सकता है यह कोई चाल हो।
जहां तक भाजपा की थूक कर निगलने की प्रवृति का सवाल है, यह अकेला उदाहरण नहीं है। इससे पहले आडवाणी से किनारा करने का पक्का मानस बना चुकी भाजपा को अपने भीतर उन्हीं के कद के अनुरूप जगह बनानी पड़ी है। कुछ ऐसा ही वसुंधरा के मामले में हुआ। विधायकों का बहुमत साथ होने के बावजूद  विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाए जाने के बाद भारी दबाव के चलते पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे को फिर से विपक्ष का नेता बनाना पड़ा। वरिष्ठ वकील व भाजपा सांसद राम जेठमलानी का मामला भी थूक कर चाटने वाला ही है। भाजपाईयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को पार्टी का प्रत्याशी बनाना क्या थूक कर चाटने से कम था। इसी प्रकार पार्टी के शीर्ष नेता आडवाणी को पितातुल्य बता चुकी मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को उनके बारे में अशिष्ट भाषा का इस्तेमाल करने और बाद में पार्टी से बगावत कर नई पार्टी बनाने को भी नजरअंदाज कर फिर पार्टी में लेने और उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव की कमान सौंपना भी थूक कर चाटना कहलाएगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

अन्ना हजारे से तो बेहतर निकले बाबा रामदेव


योग गुरु बाबा रामदेव ने इशारा किया कि वे 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। अर्थात उनका संगठन भारत स्वाभिमान चुनाव मैदान में उतर सकता है। वे पूर्व में भी इस आशय का इशारा कर चुके हैं। बाबा रामदेव अगर ऐसा करते हैं तो यह उन अन्ना हजारे व उनकी से बेहतर होगा, जो कि सक्रिय राजनीति में आने से घबराते हैं, मगर बाहर रह कर उसका मजा भी लेना चाहते हैं।
ज्ञातव्य है कि जब भी अन्ना हजारे से यह पूछा गया कि अगर देश की एक सौ करोड़ जनता आपके साथ है और वाकई आपका मकसद व्यवस्था परिवर्तन करना है तो क्यों नहीं चुनाव जीत कर ऐसा करते हैं, तो वे उसका कोई गंभीर उत्तर देने की बजाय मजाक में यह कह कर पल्लू झाड़ते रहे हैं कि वे अगर चुनाव लड़े तो उनकी जमानत जब्त हो जाएगी। मगर अफसोस की उनसे आज तक किसी पत्रकार ने यह नहीं पूछा कि यदि आप वाकई जनता के प्रतिनिधि हैं और चुने हुए प्रतिनिधि फर्जी हैं तो जमानत आपकी क्यों सामने वाले ही जब्त होनी चाहिए।
इस सिलसिले में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक सभा में कहा गया एक कथन याद आता है। उन दिनों अभी जनता पार्टी का राज नहीं आया था। नागौर शहर की एक सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस उन पर आरोप लगा रही है कि वे सत्ता हासिल करना चाहते हैं। हम कहते हैं कि इसमें बुराई भी क्या है? क्या केवल कांग्रेस ही राज करेगी, हम नहीं करेंगे? हम भी राजनीति में सत्ता के लिए आए हैं, कोई कपास कातने या कीर्तन थोड़े ही करने आए हैं। वाजपेयी जी ने तो जो सच था कह दिया, मगर अन्ना एंड कंपनी में शायद ये साहस नहीं है। वे जनता के प्रतिनिधि होने के नाते राजनीति और सत्ता को अपने हाथ में रखना भी चाहते हैं और उसमें सक्रिय रूप से शामिल भी नहीं होना चाहते। हरियाण के हिसार उपचुनाव के दौरान जब उनका आंदोलन उरोज पर था, तब भी वे चुनाव मैदान में उतरने का साहस नहीं जुटा पाए। तब अकेले कांग्रेस का विरोध करने की वजह से आंदोलन विवादित भी हुआ था। अन्ना और उनकी टीम ने सफाई में भले ही शब्दों के कितने ही जाल फैलाए, मगर खुद उनकी ही टीम के प्रमुख सहयोगी जस्टिस संतोष हेगडे एक पार्टी विशेष की खिलाफत को लेकर मतभिन्ना जाहिर की थी। खुद अन्ना ने भी स्वीकार किया कि एक का विरोध करने पर दूसरे को फायदा होता है, मगर आश्चर्य है कि वे इसे दूसरे का समर्थन करार दिए जाने को गलत करार देते रहे। क्या यह आला दर्जे की चतुराई नहीं है कि वे राजनीति के मैदान को गंदा बताते हुए उसमें आ भी नहीं रहे और उसमें टांग भी अड़ा रहे हैं? यानि राजनीति से दूर रह कर अपने आपको महान भी कहला रहे हैं और उसके मजे भी ले रहे हैं। गुड़ से परहेज दिखा रहे हैं और गुलगुले बड़े चाव से खा रहे हैं। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे कोई शादी को झंझट बता कर गृहस्थी न बसाए व उसकी परेशानियों से दूर भी बना रहे और शादी से मिलने वाले सुखों को भी भोगने की कामना भी करे। आपको याद होगा कि तब अन्ना ने कहा था कि वे ऐसे स्वच्छ लोगों की तलाश में हैं जो आगामी लोकसभा चुनाव में उतारे जा सकें। वे ऐसे लोगों को पूरा समर्थन देंगे। अर्थात खुद की टीम को तो परे ही रखना चाहते हैं और दूसरों को समर्थन देकर चुनाव लड़वाना चाहते हैं। इसे कहते है कि सांप की बांबी में हाथ तू डाल, मंत्री मैं पढ़ता हूं। दुर्भाग्य से ऐसे स्वच्छ प्रत्याशी वे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान भी नहीं तलाश पाए थे।
 खैर, अब बाबा रामदेव ने चुनाव लडऩे पर विचार करने की बात कह कर यह जता दिया है कि वे वाकई सिस्टम बदलना चाहते हैं और उसके लिए सिस्टम से परहेज न रख कर उसमें प्रवेश भी कर सकते हैं। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि इस समय मैं काले धन को देश में वापस लाने और लोकपाल कानून बनने पर जोर दे रहा हूं। समाज, तंत्र और सत्ता में बदलाव लाना जरूरी है। यह कैसे होगा, इसके बारे में फैसला हमारे प्रदर्शन के दौरान लिया जाएगा। अभी मैं सिर्फ संकेतों में बात करना चाहूंगा। हालांकि, भारत स्वाभिमान संगठन के लिए समर्थन जुटा तो मैं मुख्य धारा की राजनीति में आने पर विचार कर सकता हूं। इतना ही नहीं जब उनसे पूछा गया कि अन्ना हजारे हमेशा कहते हैं कि अच्छे लोग चुनाव इसलिए नहीं जीत सकते हैं क्योंकि उनके पास पैसे नहीं होते हैं। इस पर योग गुरु ने कहा कि हमने बड़े बदलाव देखे हैं। हम ऐसा कर सकते हैं। मतलब सीधा सा है कि चुनाव में होने वाले जरूरी खर्च के लिए वे तैयार हैं। चुनाव लडऩे पर क्या परिणाम होगा, ये तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, मगर बाबा इस मामले में अन्ना से बेहतर ही हैं कि वे चुनाव लडऩे की साहस दिखाने की तो सोच तो रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, जुलाई 10, 2012

आखिर वसुंधरा का तोड़ नहीं निकाल पाया भाजपा हाईकमान


विधानसभा चुनाव में प्रदेश अध्यक्ष बना कर फीहैंड देने की तैयारी
अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने और व्यक्ति से बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया प्रतीत होता है। जैसी की पूरी संभावना है उन्हें न केवल राजस्थान में पार्टी की कमान सौंपे जाने की तैयारी चल रही है, अपितु आगामी विधानसभा चुनाव भी उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा जाना तय है। पिछले दिनों जिस तरह उन्होंने कोटा में दिग्गज नेताओं से मंत्रणा की उससे भी इस बात के संकेत मिले हैं कि पार्टी हाईकमान ने उन्हें चुनावी जाजम बिछाने का संकेत दे दिया है।
दरअसल राजस्थान में पार्टी दो धड़ों में बंटी हुई है। एक बड़ा धड़ा वसुंधरा के साथ है, जिनमें कि अधिंसख्य विधायक हैं तो दूसरा धड़ा संघ पृष्ठभूमि का है, जिसमें प्रमुख रूप से प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी, पूर्व मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया शामिल हैं। पिछले दिनों जब पूर्व प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने घोषणा की कि राजस्थान में अगल चुनाव वसुंधरा के नेतृत्व में लड़ा जाएगा तो ललित किशोर चतुर्वेदी व गुलाब चंद कटारिया ने उसे सिरे से नकार दिया। इसके बाद जब कटारिया ने मेवाड़ में रथ यात्रा निकालने ऐलान किया तो वसुंधरा ने इसे चुनौती समझते हुए विधायक किरण माहेश्वरी के जरिए रोड़ा अटकाया। नतीजे में विवाद इतना बढ़ा कि वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे एकत्रित कर हाईकमान पर भारी दबाव बनाया। वह अस्त्र काम आ गया और आखिरकार अब हाईकमान उन्हें राजस्थान में पार्टी का नेतृत्व सौंपने की तैयारी कर रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि अगर कोई और अध्यक्ष होगा तो वह रोड़े अटकाएगा। कुल मिला कर टिकट वितरण में वसुंधरा को फ्री हैंड देने की योजना है, हालांकि कुछ सीटें संघ लाबी के लिए भी छोड़ी जाएंगी।
वसुंधरा को कमान सौंपने के संकेत इस बात से भी मिले कि उन्होंने पिछले दिनों भाजपा व कांग्रेस के पुराने नेताओं की खैर खबर ली। कुशलक्षेम पूछने के बहाने कोटा में उन्होंने भाजपा के वरिष्ठ नेता पूर्व मंत्री के के गोयल और पूर्व सांसद रघुवीरसिंह कौशल समेत कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी, जुझारसिंह और रामकिशन वर्मा के घर पहुंच कर मंत्रणा की। साहित्यकार व वयोवृद्ध भाजपा नेता गजेंद्रसिंह सोलंकी से भी उन्होंने मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने जयपुर में वरिष्ठ नेता हरिशंकर भाभड़ा की भी खैर खबर ली। यह सारी कवायद रूठों को मनाने और शतरंज की बिसात बिछाने के रूप में देखी जा रही है।
राजस्थान में वसुंधरा राजे पार्टी से कितनी बड़ी हैं और उनका कोई विकल्प ही नहीं है, इसका अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि हाईकमान को पूर्व में भी उन्हें विधानसभा में विपक्ष के नेता पद से हटाने में एडी चोटी का जोर लगाना पड़ गया था। सच तो ये है कि उन्होंने पद छोडऩे से यह कह कर साफ इंकार कर था दिया कि जब सारे विधायक उनके साथ हैं तो उन्हें कैसे हटाया जा सकता है। हालात यहां तक आ गए थे कि उनके नई पार्टी का गठन तक की चर्चाएं होने लगीं थीं। बाद में बमुश्किल पद छोड़ा भी तो ऐसा कि उस पर करीब साल भर तक किसी को नहीं बैठाने दिया। आखिर पार्टी को मजबूर हो कर दुबारा उन्हें पद संभालने को कहना पड़ा, पर वे साफ मुकर गईं। हालांकि बाद में वे मान गईं, मगर आखिर तक यही कहती रहीं कि यदि विपक्ष का नेता बनाना ही था तो फिर हटाया क्यों? असल में उन्हें फिर बनाने की नौबत इसलिए आई कि अंकुश लगाने के जिन अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनाया गया, वे ही फिसड्डी साबित हो गए। पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि वे न केवल संगठन के समानांतर खड़ी हैं, अपितु संगठन पर पूरी तरह से हावी हो गई हैं। उसी के दम पर राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया।
प्रसंगवश बता दें कि ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए।
खैर जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, जुलाई 07, 2012

येदियुरप्पा से एक बार फिर ब्लैकमेल हुई भाजपा

बेंगलुरु व दिल्ली में हुई लम्बी जद्दोजहद के आखिरकार भाजपा एक बार फिर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा से ब्लैकमेल हो गई। येदियुरप्पा की जिद के आगे भाजपा आलाकमान को सदानंद गौड़ा के स्थान पर पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री जगदीश शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला करना पड़ा। इससे पहले भी पार्टी को ब्लैकेमेल करते हुए उन्होंने सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनवाया था। ज्ञातव्य है कि येदियुरप्पा ने केंद्रीय नेतृत्व को पांच जुलाई तक का समय दिया था। दबाव बढ़ाने के लिए नौ करीबी मंत्रियों ने पिछले दिनों इस्तीफा भी दे दिया था। कर्नाटक में पार्टी के हालात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चार साल की सरकार में शेट्टार राज्य के तीसरे मुख्यमंत्री होंगे। पिछले 11 महीने में यह दूसरा बदलाव है।
हालांकि सदानंद गौड़ा को भी येदियुरप्पा ने ही मुख्यमंत्री बनवाया था, मगर जब उन्हें लगा कि वे कुर्सी पर जमना चाहते हैं तो उन्होंने उन्हें उखाड़ फैंकने का निर्णय किया और जिद करके उनकी जगह शेट्टार को मुख्यमंत्री बनवाने का फैसल करवा लिया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि कर्नाटक भाजपा में वे कितने ताकतवर हैं। इतने कि पार्टी आलाकमान भी उनके आगे नतमस्तक है। जहां तक येदियुरप्पा के ताकतवर होने का सवाल है, असल में उन्हें कर्नाटक के सर्वाधिक प्रभावी लिंगायत समाज और ब्राह्मणों का समर्थन हासिल है। ऐसे में भाजपा की यह मजबूरी है कि वे उनको नाराज न करे। कई सालों की कड़ी मेहनत के बाद दक्षिण में कर्नाटक के बहाने पांव जमाने का मौका मिला है। पार्टी नीतियों की खातिर आखिर कैसे उन्हें उखडऩे दिया जा सकता है।
असल में येदियुरप्पा के समर्थक मंत्रियों की तो इच्छा यही थी कि येदियुरप्पा को ही फिर से मुख्यमंत्री बनाया जाए, मगर उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते पार्टी उन्हें फिर पद सौंप कर परेशानी में नहीं पडऩा चाहती थी। इससे बचने के लिए उन्हें येदियुरप्पा की जिद माननी पड़ी। ऐसा करके भले ही वह भ्रष्टाचारी को सत्ता पर काबिज न करने का श्रेय लेने की कोशिश करे, मगर एक भ्रष्टाचारी से ब्लैकमेल होने के दाग से तो नहीं बच पाएगी। जानकारी के मुताबिक वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी तो सदानंद गौड़ा को हटा कर शेट्टार को मुख्यमंत्री बनाने की बजाय मध्यावधि चुनाव के पक्ष में थे, मगर पार्टी यह रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थी, क्योंकि भाजपा को दक्षिण भारत में अपना इकलौता राज्य गंवाने की आशंका सता रही है।
कुल मिला कर सर्वाधिक अनुशासित और पार्टी विद द डिफ्रेंस का नारा बुलंद करने वाली भाजपा में येदियुरप्पा ने न केवल बगावत की, अपितु राजनीति में सुचिता की झंडाबरदार पार्टी को ब्लैकमेल भी किया। और सियासत के मौजूदा दौर में वक्त के साथ कदम दर कदम मिला कर चलने की गरज से भाजपा ने भी सिद्धांतों से समझौता कर कड़वा घूंट पी ही लिया। ताजा प्रकरण ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि कीचड़ में कमल की तरह निर्मल रहने का दावा करने वाली भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों में कोई भेद नहीं रह गया है। भाजपा को भी अब समझ में आ गया होगा कि आर्दशपूर्ण बातें करना और उन पर अमल करना वाकई कठिन है।
इससे यह भी साबित हो गया है कि भाजपा हाईकमान अब कमजोर हो चुका है और क्षेत्रीय क्षत्रप उसकी पकड़ से बाहर होने लगे हैं। इसी सिलसिले में राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने विधायकों पर पकड़ की आड़ में पार्टी हाईकमान को इस बात के लिए लगभग राजी कर लिया है कि आगामी चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। बस घोषणा की औपचारिकता बाकी है।
असल में पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र के ढांचे पर खड़ी भाजपा में इस किस्म की बगावत की संभावनाएं पहले कम ही हुआ करती थीं। केडर बेस होने के कारण हर नेता का वजूद खुद की लोकप्रियता की बजाय पार्टी कार्यकर्ताओं की ताकत से जुड़ा होता था। केवल अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की लोकप्रियता ही ऐसी रही कि उन पर पार्टी का शिंकजा कसना कठिन हुआ करता था। वे भी आखिरकार पार्टी की आत्मा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आदेश के आगे नतमस्तक हो गए। मगर वक्त बदलने के साथ हालात भी बदले हैं। अब क्षेत्रीय स्तर पर क्षत्रप पनपने लगे हैं। हालांकि वे टिके तो पार्टी की ताकत पर ही हैं, मगर उन्होंने अपनी खुद की ताकत भी पैदा कर ली है।
भाजपा के राजनीतिक इतिहास में जरा पीछे मुड़ कर देखे तो बगावत का सिलसिला पहले ही शुरू हो चुका है। पार्टी में इतिहास का नई इबारत लिखने की शुरुआत करने वाले खुद ताजा अध्यक्ष नितिन गडकरी के सामने ही कई ऐसी समस्याएं आईं, जिनके सामने उन्हें समझौता करना ही पड़ा।
क्या यह सच नहीं है कि खुद को राष्ट्रवादी बताने वाली भाजपा को अपने वजूद की खातिर ही सही, पाक संस्थापक जिन्ना की तारीफ में पुस्तक लिखने वाले जसवंत सिंह को हटाने के कुछ दिन बाद फिर से शामिल करना पड़ा? क्या यह सच नहीं है कि भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से करने, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार देने, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लडऩे, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत करने और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने वाले जेठमलानी को इसी कारण राज्यसभा चुनाव में पार्टी का प्रत्याशी बनाना पड़ा, क्यों उसे एक सीट की दरकार थी?
कुल मिला कर अब भाजपा को पार्टी विथ द डिफ्रेंस का तमगा लगा कर घूमने से पहले दस बार सोचना होगा। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, जुलाई 01, 2012

कलाम को स्वामी के सवाल का जवाब देना ही होगा


पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री न बनने के सिलसिले में अपनी पुस्तक में जो रहस्योद्घाटन किया है, उससे एक नई बहस की शुरुआत हो गई है। विशेष रूप से सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा सर्वाधिक उठाने वाले सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कलाम को जो चुनौती दी है, वह कलाम के सामने एक ऐसा सवाल बन कर खड़ी हो गई है, जिसका जवाब उन्हें देना ही होगा, देना ही चाहिए।
ज्ञातव्य है कि कलाम ने अपनी नई किताब टर्निंग पाइंट्स में सोनिया के प्रधानमंत्री न बनने बाबत जो तथ्या उजागर किया है, उससे अब तक की उन सभी धारणाओं को भंग कर दिया है कि जिनके अनुसार कलाम ने 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने पर ऐतराज जताया था। कलाम तो राजनीतिक पार्टियों के भारी दबाव के बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए पूरी तरह तैयार थे। कलाम के मुताबिक सोनिया ही उनके सामने संवैधानिक रूप से मान्य एकमात्र विकल्प थीं। उन्होंने किताब में लिखा है कि मई 2004 में हुए चुनाव के नतीजों के बाद सोनिया गांधी उनसे मिलने आई थीं। राष्ट्रपति भवन की ओर से उन्हें प्रधानमंत्री बनाए जाने को लेकर चि_ी तैयार कर ली गई थी। उन्होंने कहा है कि यदि सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश किया होता, तो उनके पास उन्हें नियुक्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने किताब में आगे लिखा है, 18 मई 2004 को जब सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लेकर आईं, तो उन्हे आश्चर्य हुआ। राष्ट्रपति भवन के सचिवालय को चि_ियां फिर से तैयार करनी पड़ीं।
जाहिर सी बात है कि कलाम के इस खुलासे से भाजपा सहित अन्य सभी विरोधी पार्टियों के उस दावे की हवा निकल गई है, जिसमें कहा जाता था कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री तो बनना चाहतीं थीं, लेकिन राष्ट्रपति कलाम ने उनके विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर कह दिया था कि उन्हें संवैधानिक मशविरा करना होगा, इसके बाद सोनिया गांधी ने संवैधानिक बाधा को महसूस करते हुए मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया था।
जहां तक इस विषय में सर्वाधिक मुखर रहे स्वामी का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया आनी ही थी, क्यों कि इससे उनकी अब तक की सभी दलीलों की पोल खुल रही है। स्वामी का कहना है कि कलाम इतिहास के साथ अन्याय कर रहे हैं। उन्होंने यह चुनौती भी दी है कि वे वह चिट्ठी भी सार्वजनिक करें, जो उन्होंने 17 मई को शाम 3.30 बजे सोनिया गांधी को लिखी थी। अब जब कि कलाम की पुस्तक प्रकाशित होने से पहले ही उनकी बात को स्वामी ने चुनौती दे दी है, कलाम को जवाब देना ही होगा कि वे क्यों तथ्य को छिपा रहे हैं? उस कथित चिट्ठी में क्या लिखा था?
आपको याद होगा कि जब 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा तो स्वाभाविक रूप से उसे ही सरकार बनाने के लिए सबसे पहला मौका मिलना था। चूंकि सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थीं इस कारण उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश कर दिया था। शाइनिंग इंडिया का नारा देकर चुनाव में पस्त हो चुकी भाजपा के लिए यह बड़ा झटका था। विशेष रूप से कथित राष्ट्रवादियों के लिए यह डूब मरने जैसा था कि विदेशी मूल की एक महिला देश की प्रधानमंत्री बनने जा रही थीं। उनके सबसे पहले आगे आए गोविन्दाचार्य, जिन्होंने स्वाभिमान आंदोलन खड़ा करने की चेतावनी दे दी थी। यकायक माहौल ऐसा बन गया कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन जातीं तो देश में गृह युद्ध जैसे हालात पैदा कर दिए जाते। ऐसे में स्वाभाविक रूप से तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम ने सोनिया को सरकार बनाने का न्यौता देने से पहले कानूनविदों से सलाह मशविरा किया होगा। मशविरा देने वालों में सुब्रह्मण्यम स्वामी भी थे। स्वामी ने कलाम से कहा था कि सोनिया गांधी को राष्ट्रपति बनाने में कानूनी बाधा है। स्वामी के मुताबिक उनकी दलीलों के बाद कलाम ने शाम को पांच बजे सोनिया गांधी से मिलने कार्यक्रम बदल दिया और जो चिट्ठी तैयार की गई थी, उसे रोक दिया। इसके बाद 3.30 बजे सोनिया गांधी को एक पत्र लिखा गया, जिसमें उन्हें यह सूचित किया गया कि उनके प्रधानमंत्री बनने में कानूनी अड़चने हैं।
जाहिर सी बात है कि कलाम कोई संविधान विशेषज्ञ तो हैं नहीं। वे तो राजनीतिक व्यक्ति तक नहीं हैं। उन्होंने संविधान के जानकारों से राय ली ही होगी। उसके बाद भी यदि वे कहते हैं कि सोनिया के प्रधानमंत्री बनने में कोई अड़चन नहीं थी तो उसमें कुछ तो दम होगा ही। रहा सवाल उस चिट्ठी का, जिसे कि स्वामी आन रिकार्ड बता रहे हैं, तो सवाल ये उठता है कि उन्हें यह कैसे पता कि उस चिट्ठी में क्या लिखा था? क्या वह चिट्ठी उन्होंने डिटेक्ट करवाई थी? क्या उसकी कापी उन्हें भी दी गई थी। हालांकि सच तो चिट्ठी के सामने पर ही आ पाएगा, लेकिन यह भी तो हो सकता है कि उसमें यह लिखा गया हो कि हालांकि संविधान के मुताबिक शपथ दिलवाने में कोई अड़चन नहीं है, मगर उनके प्रधानमंत्री बनने पर देश में बड़ा जनआंदोलन हो सकता है। अत: बेहतर ये होगा कि वे किसी और को प्रधानमंत्री बनवा दें। इस चिट्ठी के अतिरिक्त भी अब तक गुप्त जो भी सच्चाई है, उसी की बिना पर एक पक्ष जहां ये मान रहा है कि कलाम ने संविधान का हवाला देते हुए सोनिया को प्रधानमंत्री बनने से रोका था तो दूसरा पक्ष यह कह कर सोनिया को बहुत बड़ी बलिदानी बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने अंतरात्मा की आवाज पर प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। स्वाभाविक रूप से सोनिया को त्याग की देवी बनाए जाने की कांग्रेसी कोशिश विरोधियों को नागवार गुजरती है।
कुल मिला कर आठ साल बाद विदेशी मूल के व्यक्ति के प्रधानमंत्री नहीं बन सकने का मुद्दा एक बार फिर उठा खड़ा हुआ है। ऐसे में कलाम पर यह दायित्व आ गया है कि वे अपनी बात को सही साबित करने के लिए सबूत पेश करें। स्वामी के मुताबिक वह चिट्ठी ही सबसे बड़ा सबूत है, जिसकी वजह से सोनिया ने शपथ नहीं ली। यदि वह चिट्ठी आन रिकार्ड है तो वह सोनिया गांधी के पास तो है ही और उसकी कापी राष्ट्रपति कार्यालय में भी होगी। कलाम अब तो उसे सार्वजनिक कर नहीं सकते। हां, जरूर कर सकते हैं कि उस चिट्ठी का मजमून उजागर कर कर दें। अब देखना ये है कि कलाम क्या करते हैं? एक हिसाब से तो उस चिट्ठी को उजागर करने की जिम्मेदारी सोनिया पर भी आ गई है, क्योंकि अगर वे वाकई त्याग की मूर्ति के रूप में स्थापित हो गई हैं तो साफ करें कि वे वाकई त्याग की मूर्ति हैं। उनके प्रधानमंत्री बनने में कोई बाधा नहीं थी।

-तेजवानी गिरधर
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tejwanig@gmail.com

शनिवार, जून 23, 2012

भागवत ने दिया भाजपा को फिर जड़ों से जोडऩे का इशारा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से धर्मनिपरपेक्ष चेहरे को राजग की ओर प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाए जाने की मांग पर भाजपा अभी कुछ बोलती, इससे पहले ही भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन राव भागवत ने यह कह कर कि हिंदूवादी चेहरे का प्रधानमंत्री बनाने में क्या ऐतराज है, एक बार फिर उस पुरानी बहस को जन्म दे दिया है, जिसके चलते भाजपा को दोहरे चरित्र से जुड़ी कठिनाई आती रहती है।
हालांकि राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया के बीच यकायक प्रधानमंत्री पद का मुद्दा उठाने के पीछे नीतिश कुमार की जो भी राजनीति है, उसके अपने अर्थ हैं, मगर उसके जवाब में तुरंत भागवत का जवाब आना गहरे मायने रखता है। ऐसा लगता है कि नीतिश ने उपयुक्त समय समझ कर ही सवाल उठाया और भागवत को भी लगा कि इससे बेहतर मौका नहीं होगा, जबकि भाजपा को उसकी जड़ों से जोड़ा जाए।
इस प्रसंग में जरा पीछे मुड़ कर देखें। अखंड भारत और हिंदू राष्ट्र का सपना पाले हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राजनीतिक चेहरे जनसंघ को जब अकेले हिंदूवादी दम पर सत्ता पर काबिज होना कठिन लगा तो अन्य विचारधारा वाले संगठनों अथवा यूं कहें कि कांग्रेस विरोधी व कुछ उदारवादी संगठनों का सहयोग लेकर जनता पार्टी का गठन करना पड़ा। वह प्रयोग सफल रहा और नई पार्टी इमरजेंसी से आक्रोशित जनता के समर्थन से केन्द्र पर काबिज भी हुई। मगर यह प्रयोग इस कारण विफल हो गया क्योंकि उसमें फिर कट्टर हिंदूवादी और उदारपंथी का झगड़ा बढ़ गया। ऐसे में हिंदूवादी विचारधारा वाले अलग हो गए व भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। भाजपा यह जानती थी कि वह अकेले अपने दम पर फिर सत्ता पर काबिज नहीं हो सकती, इस कारण उसने फिर गैर कांग्रेसी दलों के साथ गठबंधन किया और फिर से सत्ता पर आरूढ़ हो गई।
जाहिर सी बात है कि ऐसे गठबंधन की सरकार को अनेक दलों के दबाव की वजह से अपना हिंदूवादी एजेंडा साइड में रखना पड़ा। उस वक्त संघ और हिंदूवादी संगठनों को तकलीफ तो बहुत हुई, मगर किया कुछ जा नहीं सकता था। इसी दौर में भाजपा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे को भुनाते हुए अपने बाहरी स्वरूप में बदलाव किया। भाजपा ने हिंदूवाद की परिभाषा को इस रूप में व्यक्त किया कि हिंदू यानि केवल सनातन धर्म को मानने वाले नहीं, बल्कि हिंदुस्तान में रहने वाले सभी लोग हिंदू हैं। इसी दौर में तथाकथित राष्ट्रवादी मुसलमानों को भाजपा से परहेज छोड़ कर साथ आने में कोई बुराई नजर नहीं आई। संगठन को सर्व धर्म स्वीकार्य बनाने और अपना जनाधार बढ़ाने के लिए गैर संघ पृष्ठभूमि के लोगों को शामिल करना पड़ा। यहां तक कि कांग्रेस समेत किसी भी पार्टी से आने वाले किसी भी उपयोगी व्यक्ति को पार्टी में प्रवेश देने या टिकिट देने में कोई संकोच नहीं किया, भले ही वह गैर कानूनी, आपराधिक कार्यों में लिप्त रहने के कारण निकाला गया हो। इस नीति के लाभ भी हुए। कहीं सीधे सत्ता मिली तो कहीं पर प्रमुख विपक्षी दल बन कर उभरी और कांग्रेस विरोधियों अथवा अवसरवादियों का सहयोग लेकर सत्ता पर काबिज भी हुई। उसकी यह सफलता कम करके नहीं आंकी जा सकती कि जोड़ तोड़ के दम पर ही सही, मगर भाजपा न केवल राज्यों में सफल भी हुई अपितु 1998 से 2004 के बीच उसने देश के केन्द्र में गठबन्धन सरकार भी चलायी। मगर इन सब के बीच एक समस्या फिर उठ खड़ी हुई है। वो यह कि भाजपा एक बार फिर जनता पार्टी जैसी पार्टी बन गई है, जिससे पिंड छुड़ा कर वह भाजपा के रूप में आई थी। इसमें कट्टर व उदारवादी दोनों अपना अपना महत्व रखते हैं। ऊपर से एक दिखने वाली भाजपा के अंदर दो धाराएं बह रही हैं। एक वह जो सीधे संघ से जुड़ी हुई है और दूसरी जो है तो बहुसंख्यक हिंदूवाद के साथ, मगर संघ से उसका कोई नाता नहीं और उदारवादी भी है। आज पार्टी में उदारवादी केवल महत्व ही नहीं रखते, अपितु कई जगह तो वे हावी हो गए हैं। जाहिर सी बात है ऐसे में संघ पृष्ठभूमि वालों को भारी तकलीफ हो रही है और वे फिर से छटपटाने लगे हैं। वे पार्टी की मौलिक पहचान खोते जाने और पार्टी विथ द डिफ्रेंस की उपाधि छिनने की वजह से बेहद दुखी हैं। अर्थात एक बार फिर मंथन का दौर चल रहा है। इसी मंथन के बीच जब नीतीश ने धर्मनिरपेक्षता का दाव चला तो भाजपा तिलमिला गई। तिलमिलाना स्वाभाविक भी है। पार्टी ने अपनी चाल भी बदली और उसके बाद भी यदि उसे अथवा उसके कुछ चेहरों को सांप्रदायिक करार दिया जाएगा तो बुरा लगना ही है। ऐसे में भागवत ने पहल करके अपना वार चल दिया है। उन्होंने न केवल हिंदूवाद की परिभाषा पर नए सिरे से बहस छेड़ दी है, अपितु भाजपा में भी किंतु-परंतु में जी रहे नेताओं को इशारा कर दिया है कि हिंदूवाद किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ा जाएगा। विशेष रूप से यह कि संघ की पसंद ही पार्टी की प्राथमिकता होगी। असल में संघ अपनी पसंद पिछले दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अहमियत भाजपा राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के दौरान अहमियत बढ़ा कर जता चुका है, मगर जैसे ही नीतीश ने उसकी दुखती रग पर हाथ रखा तो भागवत को खुल कर सामने आना पड़ा। हालांकि उन्होंने मोदी का नाम तो नहीं लिया, मगर उनके बयान से साफ है कि वे मोदी की ही पैरवी कर रहे हैं। और इसी पैरवी के बहाने अपनी मौलिक नीति पर फिर से धार देने का इशारा भी कर रहे हैं। 

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com