तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

गुरुवार, सितंबर 08, 2011

विवादों से घिरते जा रहे हैं स्वामी अग्निवेश



हाल ही अन्ना हजारे की टीम से अलग हुए स्वामी अग्निवेश एक बार फिर विवादों से घिरने लगे हैं। वस्तुस्थिति तो ये है कि उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध हो गई है। अन्ना की टीम में रहने के दौरान भी कुछ लोग उनके बारे में अलग ही राय रखते थे। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर उनके बारे में अंटशंट टिप्पणियां आती रहती थीं, लेकिन जैसे ही वे अन्ना से अलग हुए हैं, उनके बारे में उनके बारे में सारी मर्यादाएं ताक पर रख कर टीका-टिप्पणियां होने लगी हैं। हालत ये है कि आजीवन सामाजिक क्षेत्र में काम करने का संकल्प लेने वाले अग्निवेश को अब कांगे्रस का एजेंट बन कर सियासी दावपेंच चलाने में मशगूल बताया जा रहा है।
असल में स्वामी अग्निवेश मूलत: अन्ना हजारे की टीम में शामिल नहीं थे। वैसे भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व रहा है, इस कारण अन्ना हजारे के आभामंडल को पूरी तरह से स्वीकार किए जाने की कोई संभावना नहीं थी। कम से कम अरविंद केजरीवाल व किरण बेदी की तरह अन्ना हजारे का हर आदेश मानने को तत्पर रहने की तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी। सामाजिक क्षेत्र में पहले से सक्रिय स्वामी अन्ना से जुड़े ही एक मध्यस्थ के रूप में थे। वे उनकी टीम का हिस्सा थे भी नहीं, मगर ऐसा मान लिया गया था कि वे उनकी टीम में शामिल हो गए हैं। और यही वजह रही कि उनसे भी वैसी ही उम्मीद की जा रही थी, जैसी कि केजरीवाल व किरण से की जा सकती है।
जहां तक मध्यस्थता का सवाल है, उसमें कोई बुराई नहीं है। मध्यस्थ का अर्थ ही ये है कि जो दो पक्षों में बीच-बचाव करे और वह दोनों ही पक्षों में विश्वनीय हो। तभी तो दोनों पक्ष उसके माध्यम से बात करने को राजी होते हैं। मगर समस्या तब उत्पन्न हुई, जब इस बात की जानकारी हुई कि वे पूरी तरह से कांग्रेस का साथ देते हुए मध्यस्थता कर रहे हैं तो अन्ना व उनकी टीम को ऐतराज होना स्वाभाविक था। जैसा कि आरोप है, वे तो अन्ना की टीम को ही निपटाने में जुट गए थे। जाहिर तौर पर उनकी यह हरकत अन्ना टीम सहित उनके सभी समर्थकों को नागवार गुजरी। बुद्धिजीवियों में मतभेद होना स्वाभाविक है, मगर यदि मनभेद की स्थिति आ जाए तो संबंध विच्छेद की नौबत ही आती है। कदाचित कुछ मुद्दों पर स्वामी अन्ना से सहमत न हों, मगर उन्हीं मुद्दों को लेकर अन्ना के खिलाफ काम करना कत्तई जायज नहीं ठहराया जा सकता। संतोष हेगड़े को ही लीजिए। उनके भी कुछ मतभेद थे, मगर उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था। उनको लेकर कोई राजनीति नहीं कर रहे थे।
जैसी कि जानकारी है, अन्ना टीम को पता तो पहले ही लग गया था कि स्वामी क्या कारस्तानी कर रहे हैं, मगर आंदोलन के सिरे तक पहुंचने से पहले वह चुप रहने में ही भलाई समझ रही थी। जानती थी कि अगर मतभेद और विवाद पहले ही उभर आए तो परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। और यही वजह रही कि जब अन्ना का आंदोलन एक मुकाम पर पहुंच गया और उसकी सफलता का जश्न मनाया जा रहा था तो दूसरी ओर इस बात की समीक्षा की जा रही थी कि कौन लंका ढ़हाने के लिए विभीषण की भूमिका अदा कर रहा है। उसमें सबसे पहले नाम आया स्वामी अग्निवेश का। इसी सिलसिले में उनका का एक कथित वीडियो यूट्यूब पर डाल दिया गया। जिससे यह साबित हो रहा था कि वे थे तो टीम अन्ना में, मगर कांग्रेस का एजेंट बन कर काम कर रहे थे। वीडियो में उन्हें कथित रूप से हजारे पक्ष को पागल हाथी की संज्ञा देते हुए दिखाया गया है। वीडियो में वह कपिल जी से यह भी कह रहे हैं कि सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए ताकि कोई संसद पर दबाव नहीं बना सके।
जहां तक वीडियो की विषय वस्तु का प्रश्न है, स्वयं अग्निवेश भी स्वीकार कर रहे हैं कि वह गलत नहीं है, मगर उनकी सफाई है कि इस वीडियो में वे जिस कपिल से बात कर रहे हैं, वे केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल नहीं हैं, बल्कि हरिद्वार के प्रसिद्ध कपिल मुनि महाराज हैं। बस यहीं उनका झूठ सामने आ गया। मौजूदा इंस्टंट जर्नलिज्म के दौर में मीडिया कर्मी कपिल मुनि महाराज तक पहुंच गए। उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने पिछले एक वर्ष से अग्निवेश से बात ही नहीं की। साथ ये भी बताया कि हरिद्वार में उनके अतिरिक्त कोई कपिल मुनि महाराज नहीं है। यानि कि यह स्पष्ट है कि स्वामी सरासर झूठ बोल रहे हैं। जाहिर तौर पर इस प्रकार की हरकत को धोखाधड़ी ही कहा जाएगा।
जहां तक अग्निवेश का अन्ना टीम छोडऩे का सवाल है, ऐसा वीडियो आने के बाद ऐसा होना ही था, मगर स्वयं अग्निवेश का कहना है कि वे केजरीवाल की शैली से नाइत्तफाकी रखते थे, इस कारण बाहर आना ही बेहतर समझा। इस बात में तनिक सच्चाई भी लगती है, क्यों कि अन्ना की टीम में दूसरे नंबर के लैफ्टिनेंट वे ही हैं। कुछ लोग तो यहां तक भी कहते हैं कि अन्ना की चाबी भी केजरवाल ही हैं। बहरहाल, दूसरी ओर केजरीवाल का कहना है कि स्वामी इस कारण नाराज हो कर चले गए क्योंकि आखिरी दौर की बातचीत में अन्ना की ओर से उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल नहीं किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्ना को उनके बारे में पुख्ता जानकारी मिल चुकी थी, इसी कारण उनसे थोड़ी दूरी बनाने का प्रयास किया गया होगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि हजारे पहली बार अनशन पर बैठे तो स्वामी ही मध्यस्थ के रूप में आगे आए थे, मगर उनकी भूमिका पर संदेह होने के कारण ही उन्हें लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट बना कर सरकार से बात करने वाली टीम में शामिल नहीं किया गया, जब कि स्वामी ने बहुत कोशिश की कि उन्हें जरूर शामिल किया जाए। बस तभी से स्वामी समझ गए कि अब उनकी दाल नहीं गलने वाली है। इसी कारण जब हजारे ने 16 अगस्त से अनशन पर बैठने का फैसला किया तो अग्निवेश ने आलोचना की थी। अनशन शुरू होने से लेकर तिहाड़ जेल से बाहर आने तक स्वामी गायब रहे, मगर फिर नजदीक आने की कोशिश की तो अन्ना की टीम ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
खैर, यह पहला मौका नहीं कि उनकी ऐसी जलालत झेलनी पड़ी हो। इससे पूर्व आर्य समाज, जो कि उनके व्यक्तित्व का आधार रहा है, उस तक ने उनसे दूरी बना ली थी। ताजा मामले में भी आर्य समाज के प्रतिनिधियों ने उन्हें धोखेबाज बताते हुए सावधान रहने की सलाह दी है। माओवादियों से बातचीत के मामले में भी उनकी कड़ी आलोचना हो चुकी है। अब देखना यह है कि आगे वे क्या करते हैं? सरकार की किसी पेशकश को स्वीकार करते हैं या फिर से सामाजिक क्षेत्र में जमीन तलाशते हैं?

गुरुवार, अगस्त 04, 2011

क्या दूसरी आजादी की मुहिम कामयाब होगी?

यह एक संयोग ही है कि एक ओर हम देश की आजादी का जश्न मनाने जा रहे हैं और दूसरी सिविल सोसायटी की ओर से अन्ना हजारे लोकपाल बिल के लिए दूसरी आजादी की मुहिम को परवान पर चढ़ा रहे हैं। उनका कहना है कि हमने एक आजादी तो गोरे अंग्रेजों से हासिल कर ली, लेकिन उनकी जगह काले अंग्रेजों ने ले ली। अब उनसे भी आजादी हासिल करनी होगी, तभी हम सुख से जी सकेंगे। हालांकि उनका आजादी के बाद की सरकारों को काले अंग्रेजों की संज्ञा देना बेहद आपत्तिजनक है, यह अराजकता फैलाने जैसा प्रतीत होता है, मगर हम अगर उनकी भावना पर ही ध्यान करें तो उनका कहना ठीक ही है कि हम आजाद होते हुए भी पूरी आजादी हासिल नहीं कर पाए हैं। कहने भर को हम आजाद हैं, हमारी खुद की चुनी हुई सरकार है, लेकिन आजादी के बाद जिस तेजी से भ्रष्टाचार बढ़ा है, उससे अमीर और अमीर एवं गरीब और गरीब होता जा रहा है। भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी पिसता जा रहा है। पूरे सिस्टम में भ्रष्टाचार व्याप्त है और इससे मुक्ति के लिए बड़े उपाय करने की जरूरत है। इसे वे दूसरी आजादी का नाम दे रहे हैं।
यह सच है कि जो काम फिरंगी करते थे, उससे भी कहींं आगे हमारा राजनीतिक तंत्र कर रहा है।  'फूट डालो, राज करोÓ की जगह 'फूट डालो और वोट पाओÓ की नीति चल रही है। राजनीतिक हित साधने के लिए सत्ताधीशों को दंगा-फसाद कराने से भी गुरेज नहीं है। सत्ता को भ्रष्टाचार की ऐसी दीमक लग चुकी है की पूरा देश इससे कराह रहा है। संविधान में जिस स्वतंत्रता और समानता की बात की जाती है, वह स्वतंत्रता और समानता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। पहले अंग्रेज देश को लूट रहे थे, आज वही काम नेता कर रहे हैं। आज ऐसे सत्ताधीशों की पूजा हो रही है, जिनका न कोई चरित्र है, न जिनमें नैतिकता है और न ईमानदारी। दरअसल, अब हम एक  ऐसी परंतत्रता में जी रहे हैं, जिसके खिलाफ अब दोबारा संघर्ष की जरूरत है। हमें अगर पूरी आजादी चाहिए, तो हमें एक और स्वाधीनता संग्राम के लिये तैयार हो जाना चाहिये। यह स्वाधीनता संग्राम जमाखोरों, कालाबाजारियों के खिलाफ होना चाहिए। यह संग्राम भ्रष्टाचारियों से लड़ा जाना चाहिए। यह संग्राम चोर, उचक्कों, लुटेरों और ठगों के खिलाफ छेड़ा जाना चाहिये। यह संग्राम देश को खोखला कर रहे सत्ता व स्वार्थलोलुप नेताओं के विरुद्ध लड़ा जाना चाहिए। यह संग्र्र्राम उन लोगों के खिलाफ किया जाना चाहिये, जो गरीबों, दलितों, मजलूमों और नारी का शोषण कर फल-फूल रहे हैं। अगर हम ऐसे लोगों को परास्त कर सके, अगर हम ऐसे लोगों से देश को मुक्त करा सके , तब हम कह सकेंगे कि हम वास्तविक रूप से आजाद हो चुके हैं।
अन्ना हजारे उसी आजादी की बात कर रहे हैं। मगर ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा सरकार और उनके बीच चल रही रस्साकसी संघर्ष को बढ़ाएगी। केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित लोकपाल बिल का जो मसौदा संसद में पेश करने को तैयार है, उससे अन्ना हजारे व उनकी टीम सहित अनेक बुद्धिजीवी सहमत नहीं हैं। सरकार नहीं चाहती कि सर्वोच्च पद पर बैठे प्रधानमंत्री व न्यायपालिका  इस बिल के माध्यम से लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएं। इसके पीछे सरकार की चाहे जो मंशा हो, और चाहे जो तर्क दिए जा रहे हों, मगर वे आम जन को गले नहीं उतर रहे। दूसरी ओर हालांकि अन्ना हजारे की जिद देश के भले के लिए ही है, मगर उनके कुछ बिंदु ऐसे हैं, जिनके बारे में पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनको देश की तमाम जनता का पूरा समर्थन है। जो समर्थन दिखाई दे रहा है, वह भी पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि सोच-समझ कर दिया जा रहा है, अथवा देश हित के जज्बे के कारण दिया जा रहा है। उचित क्या है, अनुचित क्या है, इसका फैसला वस्तुत: अन्ना की टीम को नहीं दिया जा सकता। यदि ऐसा किया जाता है तो फिर पूरे लोकतांत्रिक सिस्टम का कोई मतलब ही नहीं रहेगा। आखिरकार हमारे यहां एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है। मुहिम अपनी जगह है, उसकी महत्ता भी है, मगर निर्णय तो आखिरकार संसद को ही करना है। अन्ना हजारे को भी उसे मानना होगा, क्योंकि वे संसद से बड़े नहीं हैं।
बहरहाल, अन्ना की अनशन की जिद सरकार के लिए क्या संकट उत्पन्न करेगी, यह अभी पता नहीं लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत विपक्षी पार्टियों पर बड़ा दायित्व आ गया है। उन्हें चाहिए कि वे संविधान के दायरे में रचनात्मक रूप से उचित मुद्दों पर सरकार को झुकने को मजबूर करें। हालांकि सरकार की रणनीति यही है कि कारगर लोकपाल की स्थापना के लिए अन्ना हजारे जब अनशन पर बैठें तो उनके आंदोलन को संसद के खिलाफ चित्रित कर दिया जाए, लेकिन यही मौका है जब विपक्ष प्रस्तावित लोकपाल को अधिक से अधिक ताकतवर बनाने के लिए रचनात्मक सुझाव पेश करे और उसे मनवाए। कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए, जिससे अन्ना की मुहिम भी कामयाब हो जाए और टकराव भी न हो।
tejwanig@gmail.com

शनिवार, जुलाई 30, 2011

समलैंगिकता : कानूनी भले ही मिल गई, मगर सामाजिक मान्यता नहीं

यह सच है कि भारत में समलैंगिकता को एक अत्यंत निंदित, घृणित सामाजिक अपराध के रूप में देखा जाता रहा है, परंतु धरातल सच है कि  सामाजिक भय से भले ही छिप कर, लेकिन यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। विशेष रूप से इस सिलसिले में आए कोर्ट के फैसले के दौरान पिछले दिनों जब इस पर बड़ी भारी बहस छिड़ी तो पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोग खुल कर सामने आ गए। यहां तक कि कई गैर-सरकारी संगठन और कथित उदार वादी इसके पक्ष में खड़े हो गए।
यहां उल्लेखनीय है कि समलैंगिकों के हित केलिए काम करने वाली संस्था नाज फाउंडेशन ने तो समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करवाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और उसे कुछ सफलता भी मिली। पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उन अंशों को अवैध करार दिया, जो दो वयस्कों के बीच पारस्परिक सहमति पर आधारित यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी में रखते आए हैं। अदालत ने इसे भारतीय संविधान की धाराओं 21 (निजी स्वतंत्रता), 14 (समानता का अधिकार) और 15 (पक्षपात के विरुद्ध संरक्षण) का उल्लंघन माना। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर ठप्पा लगा दिया। हालांकि अब भी समलैंगिक विवाहों या विवाहेत्तर समलैंगिक संबंधों को विधिमान्यता पर निर्णय होना बाकी है। हालांकि यह सही है कि दंड संहिता की जिस धारा के अंशों को अदालत ने असंवैधानिक करार दिया है, उनमें पिछले डेढ़ सौ साल में डेढ़ सौ लोगों को भी सजा नहीं दी गई, फिर भी अदालती फैसले का गहरा सांकेतिक महत्व है। इससे सामाजिक भय के कारण छिप कर समलैंगिक संबंध कायम रखने वाले लोगों को उन्मुक्त होने का मौका दे दिया। इस मसले का सबसे घिनौना रूप ये रहा कि जैसे ही कोर्ट का ठप्पा लगा समलैंगिक बेशर्म हो कर सड़कों पर आ गए।
ऐसे में चिंता का विषय ये है कि क्या जिस कृत्य को सामाजिक मान्यता नहीं और जिसे समाज निंदनीय मानता है, उसे केवल कानून के दम पर इतना प्रचारित किया जाना चाहिए। दिल्ली में  गे, लेस्बियन, बाईसेक्सुअल एंड ट्रांसजेंडर (जीएलबीटी) लोगों ने रैली निकाली थी। उनमें से एक कार्यकर्ता के हाथ में ली हुई तख्ती पर लिखा था- हेट्रोसेक्सुअल रिलेशनशिप्स आर नॉट नैचुरल, दे आर ओन्ली कॉमन। यानी पुरुष-महिला संबंध प्राकृतिक नहीं हैं, अधिक प्रचलित भर है। एक अर्थ में देखा जाए तो यह महज नारा नहीं था, बल्कि सामाजिक प्रतिबंधों के कारण चुप बैठे लोगों का उस समाज के प्रति मौन प्रत्युत्तर था, जिसने उन्हें लंबे समय से उन्हें हाशिए पर डाला हुआ है। ऐसे में जाहिर तौर पर समाज आज समलैंगिक संबंधों को परोक्ष वैधता प्रदान करने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले से ठगा सा रह गया है।
मसले का एक पहलु ये है कि लैंगिक विभाजनों के संदर्भ में भारत में आए ये कुछ फैसले वास्तव में एक वैश्विक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। पिछले एक दशक में अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य विकसित देशों में महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में फिट न होने वाले लोगों के प्रति नजरिए में बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। चर्च के भारी विरोध के बावजूद अमेरिका के अनेक प्रांतों में समलैंगिक जोड़ों के विवाह को मान्यता दे दी गई है। लिंजी लोहान जैसे हॉलीवुड के कलाकारों, एल्टन जॉन जैसे संगीत के दिग्गजों और अन्य क्षेत्रों की समलैंगिक हस्तियों ने खुले आम अपने संबंधों को स्वीकार कर इस वर्ग के लोगों का खुल कर सामने आने को प्रेरित किया। विश्व के अनेक देशों में नियमित अंतराल पर गे परेड होने लगी हैं। कुछ देशों में तो हॉटेस्ट गे कपल और हॉटेस्ट लेस्बियन कपल जैसी प्रतियोगिताएं भी हो रही हैं। पश्चिमी दुनिया का यह संदेश धीरे-धीरे विकासमान देशों तक भी पहुंच रहा है। अब वह हमें चौंकाता नहीं। एक सौ पंद्रह देशों ने इन्हें मान्यता दे दी है और 80 देश अब भी इसके लिए तैयार नहीं हैं और सऊदी अरब, ईरान, यमन, सूडान तथा मॉरीतानिया में ऐसे संबंध बनाने वालों को फांसी पर चढ़ाने की व्यवस्था है।
सच्चाई तो ये है कि समलैंगिता तो दूर, भारत में अभी तक विरपरीत लिंगियों के प्रेम को ही पूर्ण मान्यता प्राप्त नहीं है। बहुत से इलाकों में प्रेमी-प्रेमिका को फांसी पर लटकाने जैसी वीभत्स घटनाएं होती रहती हैं। ऑनर किलिंग भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभर कर आ रही है। ऐसे लोगों का समान लिंगी व्यक्तियों के प्रेम को स्वीकार करना कम से कम भारतीय समाज के लिए तो बेहद कठिन है। भले ही इसे कानूनी मान्यता मिल जाए और समलैंगिता में रुचि रखने वाले निडर हो जाएं, मगर समाज तो उन्हें हेय दृष्टि से ही देखेगा।
वस्तुत: समलैंगिता मूल रूप से मानसिक विकृति है। जब प्राकृतिक और सहज तरीकों से किसी के काम की पूर्ति नहीं होती तो वह उसके विकृत रूप की ओर उन्मुख हो जाता है। अत: यह समाज का ही दायित्व है कि वह इस समस्या के समाधान की दिशा में काम करे। समलैंगिकता को बीमारी व मानसिक विकृति मान कर उपचारात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर
७७४२०६७०००

रविवार, जुलाई 17, 2011

मंत्रीमंडल विस्तार के अर्थ निकालना बहुत कठिन

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से हाल ही किए गए मंत्रीमंडल में एक ओर जहां गुरुदास कामत के इस्तीफे की पेशकश और वीरप्पा मोइली व श्रीकांत जेला की नाराजगी से कांग्रेस के अंदर अंतरविरोध उभर आया है, वहीं विपक्षी दल इस कवायद को बेमानी साबित करने पर तुले हुए हैं। एक ओर जहां सिंह का यह कहना कि यह यूपीए-दो का अंतिम मंत्रिमंडलीय फेरबदल है, यह संकेत दे रहा है कि उनकी कुर्सी को फिलहाल कोई खतरा नहीं है, लेकिन दूसरी ओर विस्तार में सोनिया गांधी व राहुल गांधी के वफादारों को तवज्जो मिलने से यह भी साफ है सिंह आज भी कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं। हालांकि इस विस्तार से इस तरह कि मीडियाई अटकलों से मुक्ति मिल गई है कि मनमोहन सिंह हटाए जा रहे हैं और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन रहे हैं, लेकिन इस पर यकीन करना कुछ कठिन ही प्रतीत हो रहा है। कुल मिला कर राजनीति के दिग्गज जानकार भी इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आखिर इस विस्तार के क्या-क्या ठीक अर्थ हैं।
यह सही है कि सिंह को हटाए जाने और राहुल की ताजपोशी की अटकलों पर विराम दे कर देश में राजनीतिक स्थिरता कायम करने की दिशा में यह विस्तार काफी महत्वपूर्ण है। चारों ओर से घिरी सरकार के लिए यह संदेश देना जरूरी हो गया था। मगर पीछे के एजेंडे को समझना कठिन हो गया है। वस्तुत: यूपीए-2 की परफोरमेंस कमजोर रहने और विपक्ष की ओर से एक बार फिर मनमोहन सिंह को कमजोर व कठपुतली प्रधानमंत्री करार दिए जाने के कारण यह तय माना जा रहा था कि राहुल के लिए रास्ता बनाने के लिए इस विस्तार में राहुल के काफी चहेतों को स्थान देने की कोशिश की जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। दूसरी ओर मनमोहन सिंह की भी व्यक्तिगत इच्छा चली हो, ऐसा भी नहीं दिखाई दे रहा है। केवल सोनिया दरबार की चली है। इसका परिणाम ये है कि विस्तार को सिंह के निस्तेज और अप्रभावी फेरबल के रूप में आंका जा रहा है।
इससे कम से कम ये तो साफ है कि सिंह के निस्तेज चेहरे और नवगठित मंत्रीमंडल के भरोसे तो कांग्रेस के लिए आगामी चुनाव लडऩा काफी कठिन हो जाएगा। ऐसे में यह कयास अनपेक्षित नहीं होगा कि भले ही सिंह कुछ भी कहें, कांग्रेस राहुल के लिए कोई न कोइ रास्ता तो निकालेगी ही। यह भी साफ है कि ऐसा लुंजपुंज विस्तार गठबंधन की मजबूरी की वजह से नहीं, बल्कि कांग्रेस की आंतरिक संरचना के चलते हुआ है। मनमोहन सिंह कितने मजबूर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यूपीए गठबंधन के घटक तृणमूल कांग्रेस से रेल राज्यमंत्री मुकुल राय ने रेल दुर्घटना के स्थल का दौरा करने से इंकार कर दिया। यह बात अलग है कि उनसे अब यह विभाग ले लिया गया है। विभाग बंटवारे से नाराज राज्यमंत्री गुरुदास कामत का इस्तीफा और श्रीकांत जैना का शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आना भी यही इशारा कर रहा है कि सिंह की लीडरशिप में दम नहीं है। वे विवादास्पद मंत्री जयराम रमेश को हटाने की बजाय उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने को मजबूर हुए, भले ही उन्हें पर्यावरण मंत्रालय से हटा दिया गया हो। अपनी कमजोरियों और असफलताओं को छिपाने के लिए जिस गठबंधन की मजबूरी का सिंह बार-बार हवाला देते रहे, वही मजबूरी अब भी कायम है।  तभी तो द्रमुक से संबंध बेहतर नहीं रह पाने के बावजूद उसके लिए दो सीटें खाली रखी हैं। गठबंधन की मजबूरी का एक और बड़ा सबूत ये कि तृणमूल अध्यक्ष ममता के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद रेल मंत्रालय तृणमूल के दिनेश त्रिवेदी का दर्जा बढ़ाकर उन्हें कैबिनेट में जगह दी गई।
हालांकि मंत्रिमंडल को व्यापक कहा जा रहा है, लेकिन इसे अभी अधूरा ही माना जाएगा। इससे सिंह के इस बयान पर यकीन करना कठिन हो गया है कि यह आखिरी विस्तार है। मंत्रिमंडल के बहुचर्चित पुनर्गठन में मनमोहन सिंह ने 'चार बड़ों' वित्त, गृह, रक्षा और विदेश मामले को नहीं छुआ और दूरसंचार तथा नागर विमानन सहित चार मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार भी यथावत रहा। मंत्रिमंडल का पुनर्गठन करने की कवायद अभी अधूरी इस कारण भी मानी गई है कि कपड़ा और जल संसाधन के अतिरिक्त प्रभार क्रमश: आनंद शर्मा और पीके बंसल को ही दिए गए हैं। शर्मा के पास वाणिज्य एवं उद्योग और बंसल के पास संसदीय मामले पहले से हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल दूरसंचार का अतिरिक्त प्रभार संभाले हुए हैं, जबकि प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री वयालार रवि के पास नागर विमानन विभाग का अतिरिक्त प्रभार है। डीएमके के किसी प्रतिनिधि को राजा और मारन के स्थान पर मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया है। कुछ विभागों को अतिरिक्त प्रभार के तौर पर रखा गया है ताकि अगर डीएमके अपने प्रतिनिधि भेजना चाहे तो उन्हें मंत्रिमंडल में मुनासिब जगह दी जा सके।
कुल मिला कर ताजा मंत्रिमंडल विस्तार से न तो सरकार कोई संदेश दे पाई है और न ही सिंह की छवि में कोई सुधार हो पाया है। अंतिम बताए जाने के बाद भी विस्तार अधूरा ही है। राहुल के बढ़ते कदमों पर कुछ रोक जरूर दिखाई देती है, मगर वे ठहर जाएंगे और कांग्रेस हाईकमान फिर आगामी चुनाव सिंह के नेतृत्व में ही लड़े जाने  का साहस दिखा पाएगा, इस पर सहसा यकीन नहीं होता। लब्बोलुआब  इस विस्तार के ठीक-ठीक अर्थ निकाल पाना कठिन ही है।
 -तेजवानी गिरधर
tejwanig@gmail.com

रविवार, जुलाई 03, 2011

राहुल की ताजपोशी पर विवाद : कितना सही, कितना गलत?

नेहरू-गांधी खानदान के युवराज राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर ताजपोशी की मांग करके कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर राजनीतिकों को विवाद और चर्चा करने का मौका दे दिया है। एक ओर जहां कांग्रेस के अंदरखाने में इस पर गंभीर चिंतन हो रहा है, वहीं विपक्षी दलों ने इसे परिवारवाद की संज्ञा देने साथ-साथ मजाक उड़ाना शुरू कर दिया है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर तो बाकायदा सुनियोजित तरीके से एक तबका इस विषय पर हंसी-ठिठोली कर रहा है।
आइये, जरा गौर करें दिग्विजय सिंह के बयान पर। उनका कहना है कि राहुल अब 40 वर्ष के हो गये हैं और उनमें प्रधानमंत्री बनने के सारे गुण और अनुभव आ गये हैं। सवाल ये उठता है कि क्या 40 साल का हो जाना कोई पैमाना है? क्या इतनी उम्र हो जाने मात्र से कोई प्रधानमंत्री पद के योग्य हो जाता है? जाहिर सी बात है उम्र कोई पैमाना नहीं है और सीधे-सीधे बहुमत में आई पार्टी अथवा गठबंधन को यह तय करना होता है कि वह किसे प्रधानमंत्री बनाए। तो फिर दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान क्यों दिया? ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा उन्होंने इस कारण कहा है कि पूर्व में जब उनका नाम उछाला गया था तो विपक्ष ने उन्हें बच्चा कह कर खिल्ली उड़ाई थी। तब अनुभव की कमी भी एक ठोस तर्क था। लेकिन अब जब कि वे संगठन में कुछ अरसे से काम कर रहे हैं, विपक्ष को यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि उन्हें अनुभव नहीं है। उम्र के लिहाज से अब वे उन्हें बच्चा भी नहीं कर पाएंगे। और सबसे बड़ा ये कि जिस प्रकार विपक्ष ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा कर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचने के बाद भी पीछे खींच लिया था, वैसा राहुल के साथ नहीं कर पाएंगे। ऐसे में हाल ही पूर्व उपप्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने एक नया पैंतरा खेला है। उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है कि कांग्रेस एक परिवार की जागीर हो गई है। ऐसा करके वे कांग्रेस में विरोध की सुगबुगाहट शुरू करना चाहते हैं। ऐसे प्रयास पूर्व में भी हो चुके हैं।
तार्किक रूप से आडवाणी की बात सौ फीसदी सही है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में इस प्रकार परिवारवाद कायम रहना निस्संदेह शर्मनाक है। अकेले प्रधानमंत्री पर ही क्यों, यह बात केन्द्रीय मंत्रियों व  मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होती है। राजनीति में परिवारवाद पर पूर्व में भी खूब बहस होती रही है। मगर सच्चाई ये है कि कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। खुद भारतीय जनता पार्टी भी नहीं। कांग्रेस तो खड़ी ही परिवारवाद पर है। यदि बीच में किसी और को भी मौका दिया गया तो उस पर नियंत्रण इसी परिवार का ही रहा है। जब पी. वी. नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने और सोनिया गांधी राजनीति में न आने की जिद करके बैठी थीं, तब भी बड़े फैसले वहीं से होते थे। मनमोहन सिंह को तो खुले आम कठपुतली ही करार दे दिया गया है। एक ओर यह कहा जाता है कि वे सर्वाधिक ईमानदार हैं तो दूसरी ओर सोनिया के इशारे पर काम करने के कारण सबसे कमजोर भी कहा जाता है। मगर तस्वीर का दूसरा रुख ये है कि उन्हें कमजोर और आडवाणी को लोह पुरुष बता कर भी भाजपा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में उन्हें खारिज नहीं करवा पाई थी। तब भाजपा की  बोलती बंद हो गई थी। अब जब कि मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में भ्रष्टाचार व महंगाई के मामले उफान पर हैं, उन्हें नकारा माना जा रहा है। इसी मौके का फायदा उठा कर दिग्विजय सिंह ने राहुल को प्रधानमंत्री के योग्य बताने का राग अलाप दिया है। समझा जाता है कि कांग्रेस हाईकमान भी यह समझता है कि दूसरी बार उनके नेतृत्व में चुनावी वैतरणी पार करना नितांत असंभव है, इस कारण पार्टी में गंभीर चिंतन चल रहा है कि आगामी चुनाव से पहले पाल कैसे बांधी जाए। यूं तो मनमोहन सिंह के अतिरिक्त कुछ और भी योग्य नेता हैं, जो प्रधानमंत्री पद के लायक हैं, मगर चूंकि डोर सोनिया गांधी के हाथ ही रहनी है तो उसकी भी हालत वही हो जाने वाली है, जो मनमोहन सिंह की हुई है। ऐसे में पार्टी के सामने आखिरी विकल्प यही बचता है कि राहुल को कमान सौंपी जाए। इसमें कोई दोराय नहीं कि परिवारवाद पर टिकी कांगे्रेस में अंतत: राहुल की ही ताजपोशी तय है, मगर पार्टी यह आकलन कर रही है कि इसका उचित अवसर अभी आया है या नहीं। इतना भी तय है कि आगामी चुनाव से पहले ही राहुल को कमान सौंप देना चाहती है, ताकि उनके नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाए। मगर अहम सवाल ये भी है कि क्या स्वयं राहुल अपने आपको इसके तैयार मानते हैं। देश में प्रधानमंत्री पद के अन्य उम्मीदवारों से राहुल की तुलना करें तो राहुल भले ही कांग्रेस जैसी सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का नेता होने और गांधी परिवार से ताल्लुक रखने के कारण सब पर भारी पड़ते हैं, लेकिन यदि अनुभव और वरिष्ठता की बात की जाए तो वह पिछड़ जाते हैं। यदि उन्हें अपनी समझ-बूझ जाहिर करनी है तो खुल कर सामने आना होगा। ताजा स्थिति तो ये है कि देश के ज्वलंत मुद्दों पर तो उन्होंने चुप्पी ही साध रखी है। अन्ना हजारे का लोकपाल विधेयक के लिए आंदोलन हो या फिर बाबा रामदेव का कालेधन के खिलाफ आंदोलन, इन दोनों पर राहुल खामोश रहे। इसके बावजूद यह पक्का है कि यदि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने चमत्कारिक परिणाम दिखाये तो फिर प्रधानमंत्री पद राहुल के लिए ज्यादा दूर नहीं रहेगा। रहा मौलिक सवाल परिवारवाद का तो यह आम मतदाता पर छोड़ देना चाहिए। अगर राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव लड़ती है तो जाहिर है कि विपक्ष परिवारवाद के मुद्दे को दमदार ढंग से उठाएगा। तब ही तय होगा कि लोकतंत्र में सैद्धांतिक रूप से गतल माने जाने वाले परिवारवाद की धरातल पर क्या स्थिति है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

बुधवार, जून 29, 2011

अन्ना हजारे की अक्ल आ गई ठिकाने

सारे राजनीतिज्ञों को पानी-पानी पी कर कोसने वाले, पूरे राजनीतिक तंत्र को भ्रष्ट बताने वाले और मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की सरकार बताने वाले गांधीवादी नेता अन्ना हजारे की अक्ल ठिकाने आ ही गई। वे समझ गए हैं कि यदि उन्हें अपनी पसंद का लोकपाल बिल पास करवाना है तो लोकतंत्र में एक ही रास्ता है कि राजनीतिकों का सहयोग लिया जाए। जंतर-मंतर पर अनशन करने से माहौल जरूर बनाया जा सकता है, लेकिन कानून जंतर-मंतर पर नहीं, बल्कि संसद में ही बनाया जा सकेगा। कल जब ये कहा जा रहा था कि कानून तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने हुए जनप्रतिनिधि ही बनाएंगे, खुद को जनता का असली प्रतिनिधि बताने वाले महज पांच लोग नहीं, तो उन्हें बड़ा बुरा लगता था, मगर अब उन्हें समझ में आ गया है कि अनशन और आंदोलन करके माहौल और दबाव तो बनाया जा सकता है, वह उचित भी है, मगर कानून तो वे ही बनाने का अधिकार रखते हैं, जिन्हें वे बड़े ही नफरत के भाव से देखते हैं। इस कारण अब वे उन्हीं राजनीतिज्ञों के देवरे ढोक रहे हैं, जिन्हें वे सिरे से खारिज कर चुके थे। आपको याद होगा कि अपने-आपको पाक साफ साबित करने के लिए उन्हें समर्थन देने को आए राजनेताओं को उनके समर्थकों ने धक्के देकर बाहर निकाल दिया था। मगर आज हालत ये हो गई है कि समर्थन हासिल करने के लिए राजनेताओं से अपाइंटमेंट लेकर उनको समझा रहे हैं कि उनका लोकपाल बिल कैसे बेहतर है?
इतना ही नहीं, जनता के इस सबसे बड़े हमदर्द की हालत देखिए कि कल तक वे जनता को मालिक और चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता का नौकर करार दे रहे थे, आज उन्हीं नौकरों की दहलीज पर मालिकों के सरदार सिर झुका रहे हैं। तभी तो कहते है कि राजनीति इतनी कुत्ती चीज है कि आदमी जिसका मुंह भी देखना पसंद करता, उसी का पिछवाड़ा देखना पड़ जाता है। ये कहावत भी सार्थक होती दिखाई दे रही है कि वक्त पडऩे पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।
आइये, अब तस्वीर का एक और रुख देख लें। जाहिर सी बात है कि विपक्षी नेताओं से मिलने के पीछे अन्ना का मकसद ये है कि यदि उनका सहयोग मिल गया संसद में उनकी आवाज और बुलंदी के साथ उठेगी। मगर अन्ना जी गलतफहमी में हैं। माना कि सरकार को अस्थिर करने के लिए, कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिए विपक्षी नेता अन्ना को चने के झाड़ पर चढ़ा रहे हैं, मगर जब बात सांसदों को लोकपाल के दायरे में लाने की आएगी तो भला कौन अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। यह तो गनीमत है कि अन्ना जी जिस मुहिम को चला रहे हैं, उसकी वजह से उनकी जनता में इज्जत है, वरना वे ही राजनीतिज्ञ बदले में उनको भी दुत्कार कर भगा सकते थे कि पहले सभी को गाली देते थे, अब हमारे पास क्यों आए हो?
जरा अन्ना की भाषा और शैली पर भी चर्चा कर लें। सभी सियासी लोगों को भ्रष्ट बताने वाले अन्ना हजारे खुद को ऐसे समझ रहे हैं कि वे तो जमीन से दो फीट ऊपर हैं। माना कि सरकार के मंत्री समूह से लोकपाल बिल के मसौदे पर मतभेद है, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि आप चाहे जिसे जिस तरह से दुत्कार दें। खुद को गांधीवादी मानने वाले और मौजूदा दौर का महात्मा गांधी बताए जाने पर फूल कर कुप्पा होने वाले अन्ना हजारे को क्या ये ख्याल है कि गांधीजी कभी घटिया भाषा का इस्तेमाल नहीं करते थे। उनके सत्य-आग्रह में भाषा का संयम भी था। यदि कभी संयम खोया भी होगा तो उनकी मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ थी, इस कारण उसे जायज ठहराया जाता सकता है। मगर अन्ना ने तो मौजूदा सरकार को काले अंग्रेजों की ही सरकार बता दिया। ऐसा कह के उन्होंने अनजाने में पूरी जनता को काले अंग्रेज करार दे दिया है। जब ये सरकार हमारी है और हमने ही बनाई है तो इसका मतलब ये हुआ कि हम सब भी काले अंग्रेज हैं। मौजूदा सरकार कोई ब्रिटेन से नहीं आई है, हमने ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी है। हम पर थोपी हुई नहीं है। कल हमें पसंद नहीं आएगी तो हम दूसरों को मौका दे देंगे। पहले भी दे ही चुके हैं। सरकार से मतभेद तो हो सकता है, मगर उसके चलते उसे अंगे्रज करार देना साबित करता है कि अन्ना दंभ में आ कर भाषा का संयम भी खो बैठे हैं। असल बात तो ये है कि वे दूसरी आजादी के नाम पर जाने-अनजाने देश में अराजकता का माहौल बना रहे हैं।
वे पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ईमानदार बता कर इज्जत दे रहे थे, मगर अब जब बात नहीं बनी तो उन्हें ही सोनिया की कठपुतली करार दे रहे हैं। हालांकि यह सर्वविदित है कि सरकार का रिमोट कंट्रोल सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी के हाथ में है, उसमें ऐतराज भी क्या है, फिर गठबंधन का अध्यक्ष होने का मतलब ही क्या है, मगर अन्ना को अब जा कर समझ में आया है। तभी तो कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तो सीधे और ईमानदार आदमी हैं लेकिन रिमोट कंट्रोल (सोनिया गांधी) समस्याएं पैदा कर रहा है। कल उन्हें आरएसएस का मुखौटा बताए जाने पर सोनिया से ही उम्मीद कर रहे थे कि वह कांग्रेसियों को ऐसा कहने से रोकें और आज उसी सोनिया से नाउम्मीद हो गए।
बहरहाल, मुद्दा ये है कि उन्हें अपना ड्राफ्ट किया हुआ लोकपाल बिल ज्यादा अच्छा लगता है, और हो भी सकता है कि वही अच्छा हो, मगर उसे तय तो संसद ही करेगी। कम से कम अन्ना एंड कंपनी तो नहीं। यदि संसद नहीं मानती तो उसका कोई चारा नहीं है। ऐसे में यदि वे 16 अगस्त से फिर अनशन करते हैं तो वह संसद के खिलाफ कहलाएगा। सरकार की ओर से तो इशारा भी कर दिया गया है। उनके अनशन के हश्र पर ही टिप्पणियां आने लगी हैं। खैर, आगे-आगे देखिए होता है क्या?
आखिर में एक बात और। जब भी इस प्रकार अन्ना अथवा बाबा के बारे में तर्कपूर्ण आलोचना की जाती है तो उनके समर्थकों को बहुत मिर्ची लगती है। उन्हें लगता है कि लिखने वाला या तो कांग्रेसी है या फिर भ्रष्टाचार का समर्थक या फिर देशद्रोही। जिस मीडिया के सहारे आज देश में हलचल पैदा करने की स्थिति में आए हैं, उसी मीडिया को वे बिका हुआ कहने से भी नहीं चूकते। ऐसा प्रतीता होता कि अब केवल अन्ना व बाबा के समर्थक ही देशभक्त रह गए हैं। उनसे वैचारिक नाइत्तफाक रखने वालों को देश से कोई लेना-देना नहीं है।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर

शनिवार, जून 18, 2011

राजनीति की भेंट चढ़ गया बाबा रामदेव का आंदोलन

गांधीवादी अन्ना हजारे के सफल अनशन के बाद योग गुरू बाबा रामदेव का आंदोलन सफलता का किनारा छूते-छूते राजनीति के गर्त में डूब गया। बाबा रामदेव के अनशन स्थल पर हुई पुलिस कार्यवाही को लेकर जाहिर तौर पर व्यापक विरोध प्रदर्शन अब भी देशभर में जारी है, मगर सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि बाबा की नब्बे फीसदी मांगों पर सहमति के बाद भी सरकार पुलिस कार्यवाही करने को मजबूर हो गई और बाद में जारी अनशन को तुड़वाने में सरकार ने कोई रुचि नहीं ली?
सक्रिय राजनीति में संतों की भागीदारी कितनी उचित?
वस्तुत: मौलिक सवाल ये उठा कि क्या किसी संन्यासी अथवा योग गुरू को सक्रिय राजनीति करनी चाहिए, लेकिन इसे यह तर्क दे कर नकार दिया गया कि एक पवित्र उद्देश्य के लिए हर नागरिक को आंदोलन करने का मौलिक अधिकार है, ऐसे में बाबा को टोकना-रोकना ठीक नहीं है। इस सिलसिले में कहावत का उल्लेख प्रासंगिक लगता है, और वह ये कि कौआ चला हंस की चाल, खुद की चाल भी भूल गया। कमोबेश इसी स्थिति से बाबा रामदेव को गुजरना पड़ गया। अगर इतिहास पर नजर डालें तो संतों का राजनीति में आना सैद्धांतिक रूप से सही होते हुए भी उनका राजनीति करना खास सफल नहीं हो पाया है। बाबा रामदेव से पहले करपात्रीजी महाराज और जयगुरुदेव ने भी अलख जगाने की पूरी कोशिश की, मगर उनका क्या हश्र हुआ, यह किसी ने छिपा हुआ नहीं है। इसी प्रकार राजनीति में आने से पहले स्वामी चिन्मयानंद, रामविलास वेदांती, योगी आदित्यनाथ, साध्वी ऋतंभरा और सतपाल महाराज के प्रति कितनी आस्था थी, मगर अब उनमें लोगों की कितनी श्रद्धा है, यह भी सब जानते हैं। ठीक इसी प्रकार न केवल बाबा का आंदोलन राजनीति का शिकार हो गया, अपितु वे खुद भी विवादास्पद हो गए। कहां तो पूर्व में राजनेता उनके यहां आशीर्वाद लेने को आतुर रहते थे और कहां अब आरोपों की बौछार हो रही है।
भाजपा व आरएसएस का समर्थन पड़ गया भारी
इसके कारणों पर नजर डालें तो कदाचित इसकी एक वजह ये समझ में आती है कि वे राजनीति की डगर पर कुछ ज्यादा ही आगे निकल पड़े। आंदोलन की शुरुआत में ही उनकी ओर से की गई यह घोषणा कि सारी राजनीतिक पार्टियां भ्रष्ट हैं और वे अपनी पार्टी बना कर उसे चुनाव मैदान में उतारेंगे। गुरू तुल्य कोई शख्स राजनीति का मार्गदर्शन करे तब तक तो उचित ही प्रतीत होता है, किंतु अगर वह स्वयं ही राजनीति में आना चाहता है तो फिर कितनी भी कोशिश करे, काजल की कोठरी में काला दाग लगना अवश्यम्भावी हो जाता है। व्यवस्था और सरकार की आलोचना करते-करते जब उनके प्रहार सीधे कांग्रेस पर ही होने लगे तो प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने भी उन पर निशाना साधना शुरू कर दिया। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बाबा रामदेव के ट्रस्ट, आश्रम और देशभर में फैली उनकी संपत्तियों पर सवाल उठाते हुए उन्हें ढोंगी ही करार दे दिया। जहां तक भाजपा का सवाल है, वह पहले तो देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध अभियान के तहत निकाली गई जनचेतना रैलियों से अपने आपको अलग की रखे रही, लेकिन जैसे ही वे अनशन पर उतारू हो गए तो भाजपा व आरएसएस को लगा कि वे उनकी जमीन ही खिसका देंगे, इस कारण मजबूरी में समर्थन दे दिया। बाबा भी सहर्ष उस समर्थन को लेने को तैयार हो गए। बस यहीं गड़बड़ हो गई। बाबा रामदेव से गलती ये हुई कि वे अन्ना हजारे की तरह अपने आंदोलन को राजनेताओं से बचा नहीं पाए और जमाने में देशभर में सांप्रदायिक जहर उगलने वाली साध्वी ऋतम्भरा को ही मंच पर बैठा दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि बाबा को भाजपा का मुखौटा होने का आरोप सहना पड़ा।
इसलिए बदल गई आंदोलन की दिशा
जहां तक उनके आंदोलन के कामयाब होते-होते बिखर जाने का सवाल है, बाबा सरकार से नब्बे प्रतिशत मांगों पर सहमति हासिल करने और अनशन समाप्त करने का लिखित आश्वासन देने के बाद भी अज्ञात कारणों से डटे रहे। खुद उन्होंने ही घोषणा कर दी कि दूसरे दिन बड़ी तादात में उनके समर्थक अनशन स्थल पर आएंगे। ऐसे में सरकार उनकी मंशा के प्रति आशंकित हो गई और मात्र योग कराने की अनुमति होने और समर्थकों की अधिकतम संख्या पांच हजार होने की शर्त का बहाना बना कर पुलिस कार्यवाही कर बैठी। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि सरकार ने आखिर किस वजह से जानते-बूझते हुए भी दमन का रास्ता अख्तियार कर लिया।
और इस प्रकार घटा ली अपनी प्रतिष्ठा
बाबा रामदेव के आंदोलन को कुचलने की सर्वत्र भत्सर्ना हो रही है, लेकिन साथ ही बाबा की कुछ त्रुटियां भी चर्चा में हैं। एक ओर वे पुलिसिया कार्यवाही में महिलाओं व बच्चों की पिटाई पर रोते दिखाई दिए तो दूसरी ओर खुद महिलाओं के कपड़े पहन कर दो घंटे तक अनशन परिसर में दुबके रहे। इतना ही नहीं वहां से भागने का प्रयास भी किया। इसमें भी चतुराईपूर्ण दंभ प्रकट किया। इस कृत्य के लिए वे अपनी तुलना शिवाजी से कर बैठे। एक ओर सरकार की तानाशाही के लिए सोनिया गांधी को कटघरे में खड़ा करते रहे तो दूसरी ओर तीन दिन बाद ही व्यक्तिगत रूप से सरकार को माफ भी कर दिया। कैसी विडंबना रही एक ओर तो अत्याचार को लेकर पूरा देश आक्रोश में रहा, दूसरी ओर वे खुद की ढ़ीले पड़ गए। बाबा को अन्ना हजारे से तुलना करके भी देखा जा रहा है कि वे कई बार बड़बोलापन कर जाते हैं, जबकि अन्ना संयत हो कर तर्कपूर्ण बात करते हैं। उनकी कुछ मांगों ने भी लोगों को यह चर्चा करने का मौका दे दिया कि उन्हें कानून, आर्थिक ढांचे और वैश्विक राजनीति की पूरी समझ नहीं है और बाल हठ करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा देने, बड़े नोट समाप्त करने, तकनीकी व डाक्टरी की लोक भाषा में शिक्षा जैसी मांगों पर अड़ रहे हैं।
कुल जमा एक पवित्र मकसद के लिए कामयाबी के निकट पहुंचा आंदोलन फिस्स हो गया। इसकी प्रमुख वजह की ओर अन्ना का ये इशारा कुछ समझ में आता है कि वे भले ही शीर्षस्थ योग गुरू हैं, मगर उनमें आंदोलन चलाने की राजनीतिक व कूटनीतिक समझ नहीं है।
-गिरधर तेजवानी