तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, मार्च 21, 2025

पति-पत्नी के बीच गहन अंतर्संबंध

दोस्तों, पति पत्नी लाइफ पार्टनर होते हैं। अर्थात जीवन भर की हर घटना, हर उतार चढाव में हिस्सेदार, भागीदार होते हैं। साथ ही उनके बीच गहन अंतर्संबंध भी होता है, यह तथ्य एक घटना से प्रमाणित होता है। 

हुआ यूं कि मेरे एक परिजन गंभीर बीमार हुए। एक ज्योतिशी को उनकी कुंडली दिखाई तो उन्होंने उसमें अनिश्ट का योग बताया, लेकिन कहा कि आप उनकी पत्नी की कुंडली लाइये, तभी सटीक भविश्यवाणी की जा सकेगी। हमने उनको वह कुंडली दिखाई तो यकायक उनके मुंह से निकल गया कि बीमार बंदे का कुछ नहीं बिगडेगा। उनका कहना था कि भले ही पति की कुंडली में अनिश्टकारक संकेत मिल रहे हैं, लेकिन पत्नी की कुंडली में वैधव्य के कोई संकेत नहीं हैं, साफ तौर पर सौभाग्यवती होने के इषारे हैं। इस आधार पर उन्हें यह भविश्यवाणी करने में जरा भी झिझक नहीं है कि पति बीमारी से उबर आएंगे और लंबी आयु तक जीवित रहेंगे। और हुआ भी वही। वह अस्वस्थ व्यक्ति थोडा कश्ट पा कर ठीक हो गया। इस प्रसंग से हट कर भी देखें तो हमारे यहां परंपरागत रूप से औरत को सौभाग्यवति का आषीर्वाद दिया जाता है। अर्थात पति ही उसका सौभाग्य होता है। आपने देखा होगा कि महिला को भागवान के संबोधन से भी पुकारा जाता है। पुरूश को चिरंजीवी होने का आर्षीवाद दिया जाता है, ताकि उसकी पत्नी का सौभाग्य कायम रहे।


https://www.youtube.com/watch?v=mU6sxPuCK84


गुरुवार, मार्च 20, 2025

गुरूवार को चने के व्यंजन क्यों खाते हैं?

दोस्तो, नमस्कार। एक मित्र ने पूछा कि गुरूवार को चने के व्यंजन क्यों खाते हैं? इस विशय पर विद्वानों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि यह परंपरा धार्मिक और ज्योतिषीय मान्यताओं से जुड़ी हुई है। वस्तुतः बृहस्पति देव को पीला रंग व भोज्य पदार्थ चना पसंद है। इस कारण गुरुवार के दिन चने की दाल और बेसन से बने व्यंजन बृहस्पति देव को अर्पित किए जाते हैं। ज्योतिशीय दृश्टि से देखा जाए तो बृहस्पति ग्रह को बलवान बनाने के लिए पीले रंग के खाद्य पदार्थ खाने की परंपरा है। गुरुवार का व्रत रखने वाले लोग अक्सर चने की दाल या बेसन के व्यंजन खाते हैं। कई लोग गुरूवार के दिन पहले पहर में, अर्थात सूर्योदय से डेढ घंटे तक की अवधि में पीला वस्त्र धारण करते हैं या पीले रंग का धागा बांधते हैं। मान्यता है कि इससे व्यक्ति की बुद्धि, धन, और समृद्धि में वृद्धि होती है। ऐसी मान्यता है कि एक समय गुरु बृहस्पति गरीब ब्राह्मण का रूप धारण कर एक घर में भिक्षा मांगने गए। गृहणी ने उन्हें चने की दाल और गुड़ का भोजन कराया, जिससे वे प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दे गए। तभी से चने की दाल और उससे बने व्यंजन गुरुवार को खाने और बांटने की परंपरा बन गई।


https://youtu.be/cHxrLo56N_A


बुधवार, मार्च 19, 2025

जब भी थके हुए हों तो करें यह प्रयोग

आमतौर पर जब भी हम काम की अधिकता के कारण थक जाते हैं तो कुछ वक्त आराम करते हैं अथवा सो जाते हैं। सोने से थकावट मिट जाती है। लेकिन अगर हमारे पास आराम करने का वक्त नहीं है और फिर से काम करना है तो बहुत दिक्कत हो जाती है। हम अंडर रेस्ट हो जाते हैं। ऐसे में त्वरित स्फूर्ति पाने के लिए क्या करें?

थकावट से उबरने के लिए वर्षों पहले मुझे एक जैन मुनि ने रोचक व उपयोगी जानकारी दी थी। वह आपसे साझा कर रहा हूं। नागौर जिले के लाडनूं स्थित जैन विश्व भारती में मेरा नियमित जाना होता था। वहां एक जैन मुनि श्री किशनलाल जी से निकटता हो गई। योग, ध्यान व सम्मोहन के बारे में उनकी गहरी जानकारी थी। उन्होंने मेरे सामने सम्मोहन के अनेक प्रयोग करके दिखाए थे। हां, उनका यह कहना था कि सम्मोहित उसे ही किया जा सकता है, जो उसके लिए सहयोग करे। उनसे कई विषयों पर चर्चा होती थी। एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि थकावट की स्थिति से आसानी से उबरा जा सकता है। इसके लिए करीब बीस मिनट लेट जाएं और तीन-चार बार अपनी गुदा अर्थात मलद्वार को संकुचित करें। जितना ज्यादा समय तक संकुचन करेंगे, उतना ही जल्दी थकावट मिट जाएगी और पूरे शरीर में ऊर्जा का संचार हो जाएगा। शरीर में स्फूर्ति आ जाएगी। उन्होंने बताया कि गुदा के पास ही मूलाधार चक्र है। गुदा को संकुचित करने से वह शक्ति केन्द्र जागृत हो जाता है और नई ऊर्जा उत्पन्न होती है। मैने उनके बताए इस प्रयोग को कई बार इस्तेमाल किया और पाया कि उन्होंने सही जानकारी दी है। आज इस जानकारी को साझा करते हुए मैं उनको तहेदिल से साधुवाद देता हूं।

आपने पाया होगा कि जब भी हम ज्यादा वजन उठाते हैं, तो उस वक्त भी स्वतः गुदा संकुचित हो जाती है, हालांकि हमें इसका भान नहीं होता। इससे भी सिद्ध होता है कि गुदा संकुचन से ऊर्जा उत्पन्न होती है। इस सिलसिले में मुझे यकायक एक कहावत का ख्याल आ गया। शब्दों में उसका प्रयोग इस प्रकार है- किसी को चुनौति देते वक्त यह कहते हैं न कि लगा ले अपनी गुदा का जोर। या उसने गुदा का पूरा जोर लगा लिया, मगर वह अमुक काम नहीं कर पाया। अर्थात गुदा के पास स्थित मूलाधार चक्र शक्ति का केन्द्र है, इसकी जानकारी हमारी संस्कृति में बहुत पहले से रही है। उसी वजह से यह कहावत बनी है।


https://www.youtube.com/watch?v=OgLuJna2-rU&t=18s


सोमवार, मार्च 17, 2025

शवदाह के बाद पीछे मुड़ कर क्यों नहीं देखते?

दोस्तों, आपको जानकारी होगी कि षव का अंतिम संस्कार करने के बाद पीछे मुड कर न देखने की सलाह दी जाती है। क्या आपने सोचा है कि इसकी वजह क्या है? 

इस बारे में गरूड पुराण में कहा गया है कि जब षव को अग्नि के हवाले करने के बाद नाते-रिष्तेदार लौट रहे होते हैं तो मृतक की आत्मा उनको देख रही होती है और मोहवष उनके साथ लौटना चाहती है, जब कि मृत्योपरांत अंत्येश्टि के बाद उसे आगे की यात्रा करनी होती है। यदि परिजन पीछे मुड कर देखते हैं तो मृतात्मा को मोह के बंधन से मुक्त होने में कठिनाई होती है। कुल जमा बात यह है कि मृत आत्मा के इस जगत से संबंध विच्छेद के वक्त किसी तरह का मोह उत्पन्न न हो इसके लिए परिजन को पीछे मुड कर न देखने को कहा जाता है।

आपको यह भी जानकारी होगी कि जब ज्योतिशी चौराहे, तिराहे अथवा वृक्ष इत्यादि पर कोई टोटका करने की सलाह देते हैं तो साथ हिदायत देते हैं कि टोटके के बाद पीछे मुड कर नहीं देखना है। कदाचित इसके पीछे भी वही दर्षन है कि आप जो भी टोटका कर रहे हैं, वह स्वतंत्र रूप से तभी काम करेगा, जबकि आप उससे संबंध विच्छेद कर लेंगे।

https://www.youtube.com/watch?v=cLcryvBHyZ8


बुधवार, मार्च 12, 2025

क्या कर्ण पिशाचिनी सिद्ध होती है?

इन दिनों छत्तीसगढ के छतरपुर स्थित बागेश्वर धाम सरकार के धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री व पंडोखर सरकार धाम खूब चर्चा में हैं। अंधविश्वास निर्मूलन समिति के श्यााम मानव ने उनको दिव्य शक्तियों को साबित करने की चुनौती दी है। चुनौती स्वीकार भी हो गई है। परीक्षण कब होगा पता नहीं, मगर इस प्रकरण से मुझे एक प्रसंग ख्याल में आ गया।

उससे तो यह संकेत मिलता है कि ऐसी षक्तियां हैं तो सही, जिनको भले ही वैज्ञानिक तरीके से सिद्ध न किया जा सके। हुआ यूं कि मैं एक ज्यातिर्विद के पास गया भविश्य जानने। गया क्या, सच तो यह है कि ले जाया गया। मेरे वरिश्ठ मित्र की इच्छा थी कि आपके भविश्य के बारे में जानकारी ली जाए। वहां जाने पर ज्योतिशी जी ने कहा कि आपकी कुंडली त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि इसमें दिया गया जन्म समय गलत है। पहले आप अमुक ज्योतिशी के पास जाइये। वे आपको आपका वास्तविक जन्म समय बता देंगे। उसी के आधार पर कुंडली बना कर सही फलित बनाया जा सकता है। हम उन के पास गए। उन्होंने पूछा कि क्या कुंडली लाए हो तो मैंने अपने बेग में कुंडली निकाल कर दे दी। उन्होंने कुंडली को देखे बिना ही साइड में रख दिया। फिर लगे केलकूलेट पर कोई गणना करने। उन्होंने जन्म समय तो बताया ही, साथ ही जैसे ही मेरे पिताजी व दादाजी का नाम बताया तो मैं हतप्रभ रह गया। जन्म समय तो संभव है, गलत भी हो, मगर उन्हें मेरे पिताजी व दादाजी का नाम कैसे पता लगा, यह वाकई सोचनीय रहा। बाद में मैने कुछ अन्य से राय ली तो उन्होंने बताया कि ज्योतिशी जी ने कर्ण पिषाचिनी सिद्ध कर रखी होगी, जो कि सामने बैठे व्यक्ति के भूतकाल के बारे में कान में सब कुछ बता सकती है। सच क्या है, मुझे नहीं पता, मगर जरूर को ऐसी विद्या है, जो भूतकाल का ज्ञान करवा सकती है। मेरी इस धारणा को अंधविष्वास इसलिए नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मैने जो देखा, उस पर अविष्वास करने का आधार है ही नहीं। यहां यह स्पश्ट कर दूं कि मै जिन वरिश्ठ मित्र के साथ गया था, उनको मेरे पिताजी व दादाजी के नाम के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, अन्यथा यह संदेह किया जा सकता था कि उन्होंने ज्योतिशी जी को पहले से बता दिया होगा। 


https://youtu.be/gU07osN9qf8

रामभक्त पवनपुत्र हनुमान जी देवता नहीं

आम तौर पर हम रामभक्त पवनपुत्र हनुमानजी को देवताओं में ही शामिल मानते हैं, लेकिन यह कम लोगों को जानकारी है कि वे देवता नहीं हैं। वे न नाग योनि से हैं न पितर योनि से, न किन्नर हैं, न यक्ष। उनकी अलग ही योनि है। और वह है किंपुरुष। हालांकि वे ब्रह्मा, विष्णु, महेश नहीं हैं, मगर उनके जितनी सामर्थ्य रखते हैं। वे अपनी इच्छा से अपने में किसी भी देवता को प्रकट कर सकते हैं।

कहते हैं कि श्रीराम के अपने निजधाम प्रस्थान करने के बाद हनुमानजी और अन्य वानर किंपुरुष नामक देश को प्रस्थान कर गए। वे मयासुर द्वारा निर्मित द्विविध नामक विमान में बैठ कर किंपुरुष नामक लोक में चले गए। किंपुरुष लोक स्वर्ग लोग के समकक्ष है। षास्त्रों के अनुसार यह किन्नर, वानर, यक्ष, यज्ञभुज् आदि जीवों का निवास स्थान है। योधेय, ईश्वास, अर्षि्टषेण, प्रहर्तू आदि वानरों के साथ हनुमानजी इस लोग में प्रभु रामकी भक्ति, कीर्तन और पूजा में लीन रहते हैं।

जम्बूद्वीप के नौ खंडों में से एक किंपुरुष भी था। नेपाल और तिब्बत के बीच हिमालयी क्षेत्र में कहीं पर किंपुरुष की स्थिति बताई गई है। हालांकि पुराणों अनुसार किंपुरुष हिमालय पर्वत के उत्तर भाग का नाम है। यहां किन्नर नामक मानव जाति निवास करती थी। बताते हैं कि इस स्थान पर मानव की आदिम जातियां निवास करती थीं। यहीं पर एक पर्वत है जिसका नाम गंधमादन कहा गया है। श्रीमद्भागवत के अनुसार हनुमानजी कलियुग में गंधमादन पर्वत पर निवास करते हैं। ज्ञातव्य है कि पांडव अपने अज्ञातवास के समय हिमवंत पार करके गंधमादन के पास पहुंचे थे। यह कथा भी प्रचलित है कि एक बार भीम सहस्रदल कमल लेने के लिए गंधमादन पर्वत के वन में पहुंच गए थे, जहां उनकी मुलाकात हनुमान जी से हुई। हनुमान जी लेटे हुए थे। भीम ने उनसे रास्ते से अपनी पूंछ हटाने को कहा, इस पर हनुमानजी ने भीम का घमंड चूर कर दिया था।

गंधमादन में ऋषि, सिद्ध, चारण, विद्याधर, देवता, गंधर्व, अप्सराएं और किन्नर निवास करते हैं। सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था। गंधमादन सुगंधित वनों के लिए प्रसिद्ध था।

https://www.youtube.com/watch?v=W14P9d-Hcfs&t=26s


मंगलवार, मार्च 11, 2025

हम क्यों रहना चाहते हैं अमर?

कोई भी मरना नहीं चाहता। हर व्यक्ति अमर रहना चाहता है। और दिलचस्प बात ये है कि हर आदमी ये भी जानता है कि अमर होना संभव नहीं है। जो आया है, उसे जाना ही होगा। मृत्यु अवश्यंभावी है। उसे टाला नहीं जा सकता है। हद से हद जीवन को दीर्घ किया जा सकता है। जिन भी ऋषि-मुनियों, सुरों-असुरों ने कठोर तप करके अमर होने का वरदान मांगा है, वह खाली गया है। अजेय होने के वरदान दिए हैं, अधिक से अधिक शक्ति संपन्न होने के वरदान दिए गए हैं, मगर यह कह कर अमरता के लिए इंकार किया गया है कि यह विधि के विरुद्ध है।

सवाल ये उठता है कि जब अमर हुआ ही नहीं जा सकता तो हमारे भीतर अमरता का भाव आता कहां से है? 

जब भी हम किसी की अंत्येष्टि में जाते हैं तो जीवन व संसार की नश्वरता से प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, फिर भी यह भाव रहता है कि मैं तो अभी नहीं मरूंगा। कुछ पल के लिए जरूर संसार से विरक्ति का भाव आता है, जिसे कि श्मशानिया वैराग्य कहा गया है, मगर श्मशान से बाहर आते ही वह तिरोहित हो जाता है। श्मशान में रहते अवश्य जीवन की आपाधापी निरर्थक लगती है, सोचते हैं कि जब एक दिन मरना ही तो क्यों बुरे कर्म करें, लेकिन बाहर आते ही हम जस के तस हो जाते हैं।  राग-द्वेष में प्रवृत्त हो जाते हैं। कल्पना कीजिए कि अगर श्मशान में जाने पर उत्पन्न होने वाला अनासक्ति का भाव स्थाई हो जाए तो हम बाहर निकलते ही बदले हुए इंसान हो जाएं। मगर ऐसा होता नहीं है। क्यों नहीं होता है ऐसा?

वस्तुतरू जिस चित्त में अमरता का अहसास पैठा हुआ है, वह हमारी जीवनी शक्ति की अमरता की वजह से ही है। वह तत्त्व, जिसे हम आत्मा कहते हैं, वह अमर है। शास्त्र भी यही समझाता है कि आत्मा अजर-अमर है। न उसे पानी में भिगोया जा सकता है, न उसे आग में जलाया जा सकता है, न उसे हवा में सुखाया जा सकता है, उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। पंच महाभूत से बना शरीर जरूर नष्ट हो जाता है, जो कि मृत्यु होने की निशानी है, मगर आत्मा कायम रहती है। इसे इस रूप में समझाया गया है कि शरीर एक चोला है। जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही आत्मा जन्म लेती है और फिर पुनरू जन्म लेती है। हमें शास्त्र की इस समझाइश से बड़ा सुकून मिलता है। बहुत संतुष्टि होती है। लगता है कि वह ठीक ही कह रहा है। वो इसलिए कि वह हमारे चित्त में बैठे अमरता के भाव पर ठप्पा लगाती है। उसकी पुष्टि करती है। हमारे मनानुकूल है। जब हमारा कोई निकटस्थ व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है तो यही समझाया जाता है चिंता न करें, मरना तो सुनिश्चित है, मगर मृत व्यक्ति की आत्मा अमर है। हमें इससे भी संतुष्टि होती है कि चलो शरीर नष्ट हो गया, मगर उसकी आत्मा का वजूद तो कायम है। इसी मिथ के आधार पर पुनर्जन्म की अवधारणा बनी हुई है। इसी आधार पर मान्यता बनी हुई है कि पिछले जन्मों के कर्म हमारी आत्मा के साथ आते हैं और उसी के अनुरूप हमें सुख-दुख मिलता है। 

अमरता का अहसास ही पति-पत्नी व प्रेमी-प्रेमिका को अगले जन्म में भी मिलने और जन्मों-जन्मों तक साथ निभाने की कसम दिलवाता है। 

कई लोग तो अपने बुजुर्ग के अगले जन्म में अपने ही परिवार में जन्म लेने की कामना करते हैं। सपने में हुई अनुभूति या लक्षणों के आधार पर हम यह भी यकीन कर लेते हैं हमारे अमुक संबंधी ने फिर हमारी संतान के रूप में जन्म लिया है।

यह जानते हैं कि हमारा अमुक संबंधी मर कर कहीं अन्य जन्म ले चुका है, लौट कर नहीं आएगा, फिर भी उससे नाता बनाए रखते हैं। यानि कि उसके भी अमर होने का विश्वास है। उसके लिए बाकायदा 15 तिथियों की श्राद्ध की व्यवस्था की हुई है। जिस तिथी पर संबंधी की मृत्यु हुई थी, उस पर ब्राह्मण को भोजन करवाते हैं। यह मान कर हमारे संबंधी की आत्मा उसके शरीर में आ कर भोजन कर रही है। 

कुल जमा यह धारणा यह है कि आत्मा अमर है। भीतर भी यही विश्वास है कि हम अमर हैं। अमरता की चाह भी वहीं से पैदा होती है। पर चूंकि भौतिक जगत में विधि का विधान इसकी अनुमति नहीं देता, इस कारण शरीर नष्ट हो जाने पर भी हम अमर रहेंगे, यह यकीन बहुत आत्मिक संतुष्टि देता है। 

अमरता की इस आस्था के कारण ही यह सीख दी जाती है कि अच्छे कर्म करें, ताकि अगले जन्म में सुख मिले। इसी विश्वास के कारण सद्कर्म करने का उपदेश दिया जाता है, ताकि उसे बाद की पीढिय़ां याद करें और हमारा नाम अमर बना रहे। बेशक, हमें याद किया जा रहा है या नहीं, इसे देखने को हम मौजूद नहीं रहने वाले हैं, मगर अमरता की चाह हमें सुकर्म करने को प्रेरित करती रहती है।

प्रसंगवश यहां उन आठ चिरंजीवियों का भी जिक्र कर लेते हैं, जिनके बारे में शास्त्रों में बताया गया है कि वे हजारों साल से जीवित हैं। 

इनमें से भगवान रुद्र के 11 वें अवतार व भगवान श्रीराम के परम सेवक श्रीहनुमान के चारों युगों में होने की महिमा को हनुमान चालीसा में चारों युग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा कह कर गाते हैं। बाकी 7 काल विजयी दिव्य आत्माओं का विवरण इस प्रकार हैरू- महामृत्युंजय सिद्धि प्राप्त शिव भक्त ऋषि मार्कण्डेय, चारों वेदों व 18 पुराणों के रचनाकार भगवान वेद व्यास, जगतपालक भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम, भक्त प्रह्लाद के वंशज व भगवान वामन को अपना सब कुछ दान करने वाले राजा बलि, 

लंकापति रावण के साथ युद्ध में भगवान राम का साथ देने वाले विभीषण, कौरवों और पाण्डवों के कुल गुरु परम तपस्वी ऋषि कृपाचार्य, कौरवों और पाण्डवों के ही गुरु द्रोणाचार्य के सुपुत्र अश्वत्थामा। 

आप देखिए, इन सभी आठों को चिरंजीवी तो कहा गया है लेकिन अमर नहीं कहा गया है बावजूद इसके लिए हमारे लिए वे अमर होने के ही समान हैं क्योंकि चिर काल तक जीवित रहने का अर्थ है अंनत काल तक वजूद में रहना।

इस संपूर्ण चर्चा का सार यही है कि आत्मा की अमरता की वजह से ही हमारे भीतर अमरता या अमर रहने की भाव कायम है।

https://www.youtube.com/watch?v=3mcwFwRLhsI