तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

शुक्रवार, सितंबर 13, 2024

सोये हुए व्यक्ति के पैर क्यों नहीं छुए जाते?

हमारे यहां मान्यता है कि सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं किए जाने चाहिए। अगर इस मान्यता से अनभिज्ञ कोई व्यक्ति सोये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श करता है तो उसे ऐसा करने से रोका जाता है। मान्यता तो यह तक है कि लेटे हुए व्यक्ति के भी चरण स्पर्श नहीं किए जाते। अगर कोई चरण स्पर्श करना चाहता है तो लेटा हुआ व्यक्ति बैठ जाता है। सवाल ये है कि आखिर इस मान्यता के पीछे क्या साइंस है, क्या कारण है?

अव्वल तो अगर सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श करेंगे तो उसका प्रयोजन पूरा ही नहीं होगा। आप आशीर्वाद या सम्मान की खातिर किसी के चरण स्पर्श करते हैं, मगर यदि वह सोया हुआ है तो उसे पता ही नहीं लगेगा कि आप उसके चरण स्पर्श कर रहे हैं। अर्थात वह आशीर्वाद देने की स्थिति में ही नहीं है और न ही उसको ये पता लगेगा कि आप उसके प्रति सम्मान का इजहार कर रहे हैं।

वैसे इसका मूल कारण दूसरा बताया जाता है। हालांकि सोते समय सांस चल रही होती है और आदमी जिंदा होता है, मगर सोना भी एक प्रकार की मृत्यु मानी गई है। अगर कोई आदमी गहरी नींद में हो तो उसकी ज्ञानेन्द्रियां-कर्मेन्द्रियां भी सुप्त हो जाती हैं। चूंकि उसकी आंखें बंद हैं, इस कारण दिखाई नहीं देता है, उसका मुख बंद है, इस कारण उसका स्वर यंत्र व जीभ की स्वाद तंत्रिका सुप्त होती है, उसे सुनाई भी नहीं देता। स्पर्श का भी अनुभव नहीं होता। यानि कि वह लगभग मृतक समान है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मृतक के शव के चरण स्पर्श करने कर चलन है। जिस मान्यता की हम चर्चा कर रहे हैं, उसे इसी से जोड़ कर देखा जाता है। अर्थात हम यदि सोये हुए किसी व्यक्ति के चरण स्पर्श कर रहे हैं, इसका मतलब ये कि हम मृत व्यक्ति के चरण छू रहे हैं। इसे अपशकुन माना जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि हमारे चरण स्पर्श करने से वह मर ही जाएगा, मगर यह कृत्य उसी के तुल्य माना जाता है। 

लेटे हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं करने के पीछे तर्क ये है कि ऐसा करने से चरण स्पर्श करने वाले के प्रति उपेक्षा का भाव महसूस होता है। यह सामान्य शिष्टाचार के विपरीत है। वाकई यह कितनी अभद्रता है कि कोई आपके प्रति सम्मान दर्शा रहा है और हम उसके सम्मान को स्वीकार करने के लिए उठ कर बैठ तक नहीं सकते।  

स्थितियों अथवा दृश्य के प्रति हम कितने सतर्क हैं, इसको लेकर एक आलेख में पहले भी चर्चा कर चुके हैं। इन उदाहरणों से उसे समझ सकते हैं। आपने देखा होगा कि हमारे यहां भोजन परोसते समय पहले जल पेश किया जाता है। उसके बाद भोजन की थाली। या फिर आगे-पीछे। अज्ञानतावश कोई यदि भोजन की थाली एक हाथ में व दूसरे हाथ में पानी का गिलास ले कर आए या पानी का गिलास भोजन की थाली में लाए तो इसे अपशगुन माना जाता है। ज्ञातव्य है कि हमारे यहां मान्यता है कि श्राद्ध के दौरान ऐसा मृतक के लिए किया जाता है। यदि हम जिंदा व्यक्ति के साथ ऐसा कर रहे हैं, तो इसका अर्थ ये हुआ कि हम मृतक के साथ ऐसा कर रहे हैं। इसी प्रकार अगर कोई मकान की चौखट पर बैठे तो उसे वहां न बैठने को कहा जाता है, क्यों कि मान्यता ये है कि चौखट पर बैठने से दरिद्रता आती है। इसके विपरीत तथ्य है कि जो दरिद्र हो जाता है, जिसके पास खाने को भी नहीं होता, वह चौखट पर आ कर बैठता है। ऐसे ही अनेक और उदाहरण हो सकते हैं। यथा दुकान बंद करने को दुकान मंगल करना कहते हैं। दीया बुझाने को दीया बढ़ाना कहते हैं। किसी अपने को अपशब्द कहने की जरूरत पड़ जाए तो उसका विलोमार्थ उपयोग में लेते हैं। जैसे यदि कोई लापरवाही करते हुए कुछ नुकसान कर दे तो यकायक मुंह से ये निकलता है कि अंधा है क्या, मगर सिंधी में कहते हैं कि सजा है क्या अर्थात आंख से पूरा दिखता है क्या? 

कुल जमा बात ये है कि हमारी संस्कृति में नकारात्मकता को भी सकारात्मक दृष्टि से देखते हैं।

शुक्रवार, सितंबर 06, 2024

इंशा अल्लाह एक रहस्यमय सूत्र

पूर्व में भी इस बिंदु पर हम चर्चा कर चुके हैं। एक बार फिर तनिक संषोधन के साथ फिर प्रस्तुत है। आम तौर पर जब भी हम कोई काम करने का इरादा करते हैं तो उसका जिक्र करते वक्त साथ ही कहते हैं कि अगर भगवान ने चाहा तो। मुस्लिम बंधु इंषा अल्लाह कह कर ही काम करने षुरूआत  करते हैं। इसके मायने ये हैं कि हम ने तो इरादा किया है, मगर वह तभी संभव होगा, जब भगवान की, प्रकृति की या अल्लाह की सहमति होगी। यह इस जुमले की स्वीकारोक्ति से जुडा हुआ तथ्य है कि वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है। अब सवाल ये उठता है कि क्या कोई भी काम करने का निर्णय करने पर इंषा अल्लाह कहना जरूरी है। इस बारे में पाकिस्तान के जाने माने मुफ्ती तारीक मसूद बताते हैं कि यह बहुत जरूरी है, वरना काम बिगड जाता है या बिगड सकता है। उन्होंने एक वाकया बयान किया है कि एक बार किसी कौम के कुछ लोगों ने एक बाग की परवरिष की। जब फल पक गए तो इतराने लगे और उन्होंने कहा कि अब कल हम इसकी फसल काटेंगे और फायदा उठाएंगे। उन्होंने ऐसा कहते वक्त इंषा अल्लाह नहीं कहा। नतीजा ये हुआ के दूसरे ही दिन बाग पर आसमानी आफत व मुसीबत आई और बाग तबाह हो गया, चौपट हो गया। सनातन धर्म को मानने वाले भी आवष्यक रूप से भगवान को ही श्रेय देते हुए काम आरंभ करते हैं। इतना ही नहीं, हर षुभ काम की षुरूआत में विघ्न विनायक गणेष जी की स्तुति भी करते हैं, ताकि उसमें कोई बाधा न आए। इसके प्रति इतनी गहरी आस्था है कि काम के आरंभ को ही श्रीगणेष कहा जाने लगा है। विवाह के कार्ड में सबसे उपर श्री गणेष का चित्र अथवा स्वस्तिक का चिन्ह लगाते है और न्यौते का आरंभ करते हुए सबसे पहले कार्ड गणेष जी को समर्पित करते हैं। इंषा अल्लाह कहने को दार्षनिक दृश्टिकोण से देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति में यह व्यवस्था है कि जहां भी अहम भाव जागता है, प्रकृति उसे तिरोहित करने में लग जाती है। यही जान कर हम अपने आगे भगवान या अल्लाह को कर देते हैं, उसकी मर्जी होगी तो ही काम पूरा होगा, वरना जय राम जी की।


सोमवार, अगस्त 26, 2024

चक्की उलटी घुमाने पर लौट आता है खोया आदमी?


हमारे यहां दैनिक जीवन में कई प्रकार के टोटके प्रचलन में हैं। उनमें से एक दिलचस्प और उपयोगी टोटका आपकी नजर पेश है। यदि परिवार का कोई सदस्य खो जाए अथवा नाराज हो कर घर छोड़ कर चला जाए और उसका कोई पता न लग रहा हो तो उसे वापस बुलाने के लिए एक टोटका किया जाता है। किया ये जाता है कि घर में रखी आटे की चक्की, जिसे मारवाड़ी में घटूला व सिंधी में झंड कहा जाता है, उसे उलटा घुमाया जाता है। सलाह दी जाती है कि परिवार के जिस भी व्यक्ति को समय मिले, वह चक्की को कुछ समय तक उलटा घुमाता रहे। ऐसा बार-बार किया जाए। ऐसा करने पर घर से गया हुआ व्यक्ति लौट कर आ जाता है। इस टोटके का भेद समझने की कोशिश की जाए तो यही प्रतीत होता है, जैसे ही चक्की को उलटा घुमाते हैं तो वहां निर्मित विपरीत शक्ति घर से गए हुए व्यक्ति को अपनी ओर खींचती है। उसके मन में घर लौटने की भावना उत्पन्न करती है। खिंचाव अधिक होने पर वह लौट ही आता है। असल में चक्की चक्र का ही एक रूप है। चक्र को बायें से दांये घुमाया जाता है, जो कि प्रगति का द्योतक है। घड़ी की सुइयां भी दाहिनी ओर घूमती हैं। दाहिनी ओर घूमने को अंग्रेजी में क्लॉक वाइज कहा जाता है। प्रसंगवष बता दें कि मंदिर में स्थापित मूर्ति अथवा किसी पेड़ की परिक्रमा क्लॉक वाइज की जाती है। आपको जानकारी होगी कि स्वस्तिक का निशान भी क्लॉक वाइज बनाया जाता है। यहां तक कि घर की सीढिय़ां भी क्लॉक वाइज बनाई जाती हैं। ऐसा पाया गया है कि जिन घरों में सीढिय़ां एंटी क्लॉक वाइज बनी होती हैं, वहां कई तरह की परेशानियां होती हैं। 

बुधवार, अगस्त 21, 2024

सुकून संन्यास में भी नहीं है?

कुछ विद्वानों को आपने यह कहते सुना होगा कि वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में जितनी तपस्या है, उससे कहीं अधिक तपस्या गृहस्थ में है। असल तपस्या गृहस्थ में ही है। वह इसलिए कि संसार में बहुत संघर्श है, समस्याएं हैं, अहम का टकराव है, वर्चस्व की होडा होडी है। तलवार की धार पर चलने के समान है गृहस्थ। अर्थात यहां संतुलन के साथ सफल होने में बहुत तप करना होता है। इस धारणा से ऐसा प्रतीत होता है कि वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम में बहुत आनंद है, बहुत सुकून है, अध्यात्मिक दुनिया चिंता से रहित है। वस्तुतः ऐसा है नहीं। रूहानी दुनिया में भौतिक सुख सुविधाओं के अभाव की वजह से जो कष्ट हैं, जो तप है, उससे कहीं अधिक तप है, विभिन्न षक्तियों के बीच सामंजस्य बैठाना। वहां भी तथाकथित दिव्य षक्तियां एक दूसरे को दबाने की कोषिष करती हैं। आसुरी षक्तियों से तो मुकाबला करना होता ही है, दैवीय षक्तियों के बीच भी कडी प्रतिस्पर्धा है। संन्यासी का भी एक तरह का साम्राज्य होता है। जिसके जितने अधिक षिश्य, अनुयायी, वह उतना ही बडा संन्यासी। वहां बस नाते रिष्तेदार नहीं, मगर उससे अधिक भीड होती है षिश्यों की, अनुयाइयों की। अहम और भी घनीभूत हो जाता है। गृहस्थ की तरह ही अहम की एशणा है। तभी तो कभी कोई ऋशि घोर तपस्या करता है तो इंद्र को अपना आसन हिलता नजर आता है और वे उसकी तपस्या को भंग करने की कोषिष करते हैं।


सोमवार, अगस्त 19, 2024

श्रीकृष्ण भी तो अपने क्लोन बनाते थे


आजकल ह्यूमन क्लोनिंग अर्थात मानव प्रतिरूपण की बहुत चर्चा है। यानि किसी भी मानव का प्रतिरूप बनाया जा सकता है। इसकी उपयोगिता और दुरूपयोग पर बहस छिडी हुई है। नैतिकता-अनैतिकता पर सवाल उठ रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि वर्तमान विज्ञान ने ही इसका अविश्कार किया है। हमारी सनातन संस्कृति में भी इसका स्पश्ट उल्लेख है। हिन्दू पौराणिक कथाओं में रक्तबीज एक असुर था, जिसने शुम्भ-निशुम्भ के साथ मिल कर देवी दुर्गा और काली देवी के साथ युद्ध किया। वह एक ऐसा दैत्य था, जिसे भगवान शिव से वरदान प्राप्त था कि जब जब उसके रक्त की बूंद धरती पर गिरेगी तब तब हर बूंद से एक नया रक्तबीज जन्म ले लेगा, जो बल, शरीर और रूप से मुख्य रक्तबीज के समान ही होगा। यानि रक्त बीज एक तरह का क्लोन था। बस फर्क ये है कि उसके निर्माण की विधा वर्तमान विज्ञान से भिन्न थी। आपने यह भी सुना पढा होगा कि भगवान श्रीकृश्ण एक साथ अनेक गोपियों के साथ रासलीला करते थे तो प्रत्येक गोपी के साथ होते थे। हर गोपी को लगता था कि श्रीकृश्ण उसके साथ हैं। वह क्या था? कहीं वह प्रतिरूपण की विधा तो नहीं? यानि श्रीकृश्ण एक साथ अपने अनेक क्लोन बनाने में समर्थ थे। भगवान श्रीकश्ण का अनेक गोपियों के साथ एक ही समय में अलग अलग रास करना उनकी क्लोनिंग ही तो रही होगी।