तीसरी आंख

जिसे वह सब दिखाई देता है, जो सामान्य आंखों से नहीं दिखाई देता है

रविवार, फ़रवरी 24, 2013

असल में मेघवाल का मूड व माइंड बदला है

vasu-kailashकभी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुधंरा राजे के धुर विरोधी रहे वरिष्ठ भाजपा नेता कैलाश मेघवाल ने दैनिक भास्कर के वरिष्ठ संवाददाता त्रिभुवन को एक साक्षात्कार में कहा है कि वसुंधरा राजे का मूड और माइंड अब बदल गया है, उन्होंने अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है, जबकि असलियत ये है कि मूड व मांइड तो मेघवाल का बदला है, सुर भी बदला है, अपना वजूद बचाने की खातिर। आपको याद होगा, ये वही मेघवाल हैं, जिन्होंने सर्वाधिक मुखर हो कर श्रीमती राजे का विरोध किया और अगर ये कहा जाए कि वसुंधरा विरोधी मुहिम के सूत्रधार ही मेघवाल ही थे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अगर वसुंधरा पर हमले का मौका मिला तो असल में वह मेघवाल ने ही दिया था। उन्होंने उन्हीं के आरोपों को आधार बना कर वसुंधरा पर हमले किए थे और आज भी करते रहते हैं।
असल में मेघवाल उन चंद नेताओं में शुमार रहे हैं, जिनकी कोशिश थी कि वसुंधरा राजस्थान में पैर नहीं जमा पाएं। और इसके लिए उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर नागाई की। पूर्व उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने भी अपने दामाद नरपत सिंह राजवी की खातिर वसुंधरा विरोधी रुख अख्तियार किया था, यह बात अलग है कि उन्हें इसमें कामयाबी हासिल नहीं हो पाई। वसुंधरा का इतना खौफ हुआ करता था कि भाजपा के अधिसंख्य नेता उन दिनों शेखावत से मिलने तक से डरते थे। नतीजतन राजस्थान का एक ही सिंह अपने राज्य में ही बेगाना सा हो गया था। लगभग यही स्थिति मेघवाल की भी हुई। वे हाशिये पर चले गए। अपना अस्तित्व समाप्त होता देख शातिर दिमाग खांटी नेता मेघवाल ने अपना मूड, माइंड व सुर बदल लिया है। उन्होंने भी अनुभव से सीख लिया है कि वसुंधरा को नेता माने बिना कोई चारा नहीं है। कुछ समय पहले सीएम इन वेटिंग के सवाल पर न सूत, न कपास और जुलाहों में ल_म ल_ा कहने वाले मेघवाल के श्रीमुख से ही निकल रहा है कि आगामी चुनाव में वसुंधरा के चेहरे और नाम का भरपूर फायदा पार्टी को मिलेगा। बड़ी दिलचस्प बात ये है कि वे खुद ही कह रहे हैं कि वसुंधरा अपने विरोधियों को परास्त करने और अपने आपको मुख्यमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार बनाने में सबल और सक्षम साबित हुई हैं। वसुंधरा ही मुख्यमंत्री होंगी। यानि राजनीति में जिंदा रहने के लिए वे साफ तौर पर सरंडर कर चुके हैं। उन्हें कपासन से टिकट चाहिए, इसी कारण वसुंधरा के यहां धोक देने पहुंच गए।
रहा सवाल हाशिये पर जा चुके मेघवाल की वर्तमान में प्रासंगिकता का तो इसमें कोई दोराय नहीं कि पार्टी को आज भी उनकी जरूरत महसूस हो रही है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब वे वसुंधरा से मिले तो इस मुलाकात की बाकायदा विज्ञप्ति जारी की गई, जिसमें बताया गया कि आगामी विधानसभा चुनाव वसुन्धरा के नेतृत्व में लड़ेंगे। वसुन्धरा ही भाजपा की सरकार में मुख्यमंत्री होंगी। असल में मेघवाल को इतनी तवज्जो इस कारण दी गई क्योंकि वे अनुसूचित जाति के उन पुराने नेताओं में शुमार हैं, जिनकी कि आज भी जमीन पर पकड़ है। वैसे भी वे उस जमाने के भाजपा नेता हैं, जब अनुसूचित जाति पर भाजपा की कुछ खास पकड़ नहीं हुआ करती थी। अब तो भाजपा में अनुसूचित जाति के अनेक नेता पैदा हो चुके हैं।
समझा जाता है कि समीकरणों में आए बदलाव के बाद मेघवाल टिकट भी हासिल करने में कामयाब होंगे और अपना स्थान फिर बनाने में भी।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, फ़रवरी 23, 2013

भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ हुआ खंड-खंड

bmsप्रदेश की कथित अनुशासित पार्टी भाजपा समर्थित भारतीय मजदूर संघ अब तीन खंडों में विभाजित हो गया हैै। कहा जाता है कि यह वह संघ है, जो सरकारी कर्मचारियों को राष्ट्रीय विचारधारा से जोडऩे का काम करता है। धरातल का सच ये है कि राजनीतिक मायनों में यह भाजपा समर्थित है। यह सबसे पुराना एवं एक मात्र कर्मचारी संगठन है। प्रदेश के सरकारी विभाग, निगम और बोर्ड की कर्मचारी राजनीति में उक्त संगठन का रोल तो रहता ही है, वहीं विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भी उक्त संघ भाजपा की लाइफ लाइन का काम करता आया है। मौजूदा समय में यह शक्ति तीन खंडों में खंड -खंड हो रही है। इसके पीछे कुछ नए तो कुछ पुराने कारण उभर कर आए हैं।
वस्तुत: 2008 के चुनावों में भारतीय मजदूर संघ ने भाजपा राजनीति में अपना दखल देते हुए 25 टिकट मांगे। उस वक्त टिकट नहीं दिए गए। कहीं न कहीं भाजपा की हार में यह स्थिति भी कारण बनी। भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश उपाध्यक्ष एवं राजस्थान राज्य कर्मचारी महासंघ भामसं के प्रदेश अध्यक्ष महेश व्यास से इस्तीफा तक मांग लिया गया। व्यास भामसं के कद्दावर नेता तो थे ही साथ ही यह कर्मचारी हितों की मांगों के जरिए कांग्रेस सरकार पर हमला बोलने वाले अचूक बाण भी माने जाते थे। सचिवालय में पदस्थापित होने के कारण व्यास ने पूरे प्रदेश में अपना नेटवर्क पहले से ही जमा रखा था, इसी नेटवर्क के बूते पर उन्होंने जनवरी 2010 में अखिल राजस्थान कर्मचारी एवं मजदूर महासंघ का गठन कर लिया। यह संघ अब भामसं को प्रदेश के हर जिले में बराबर की टक्कर दे रहा है। इससे बीएमएस टूटने लगा है।
कुछ महीने पहले ही भाजपा ने एक और संगठन की नींव डाल दी। कर्मचारी राजनीति के जानकारों के मुताबिक यह संगठन जाने-अनजाने में भारतीय मजदूर संघ को ही क्षीण करने का काम कर रहा है। गैर सरकारी मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए भारतीय जनता मजदूर महासंघ की स्थापना की गई है, ताकि भाजपा के संस्कारों का प्रसार हो। अजमेर में इस संघ के अध्यक्ष सुरेंद्र गोयल है। सुरेंद्र गोयल यूआईटी ट्स्टी और भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष रह चुके हैं। अब तक भारतीय मजदूर संघ से कई प्राइवेट कर्मचारी और अन्य यूनियनें नाता बनाकर चलती थीं, मगर नए मजदूर महासंघ ने सभी को तोडऩा आरंभ कर दिया है। ऐसे में प्रदेश स्तर पर सरकारी विभागों से भामसं का वर्चस्व कमजोर होता जा रहा है। कर्मचारी भामसं और व्यास गुट में तो बंटे ही थे, अब मजदूर महासंघ के प्रवेश ने कर्मचारी और मजदूर वर्ग की शक्ति को बांट दिया है। भाजपा की यह शक्ति त्रिशंकु हो चली है। यदि इसे संतुलित नहीं किया गया तो, इसका परिणाम आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा पर पडऩा लगभग तय है।
-तेजवानी गिरधर

राज्यपाल की रस्म अदायगी पर इतनी परेशानी क्यों?

margret alvaराजस्थान विधानसभा में बजट सत्र शुरू होने पर राज्यपाल मारगे्रट अल्वा ने परंपरागत रूप से अभिभाषण प्रस्तुत किया और उसके चार पैरे पढ़ कर पढ़ा हुआ मानने का आदेश दिया तो बुद्धिजीवियों ने भी इसे अनुचित ठहराया। इस संदर्भ में राजस्थानियों के दिल की धड़कन बन चुके दैनिक भास्कर के अग्र लेख की ही चर्चा करें तो उसमें राज्यपाल को संबोधित करते हुए कहा गया कि राजस्थान के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं को रस्म अदायगी मत समझिए।
अव्वल तो यह पहला मौका नहीं है कि अभिभाषण का कुछ अंश पढ़ कर बाकी का पढ़ा हुआ मान लेने को कहा गया। ऐसा कई बार हो चुका है, विशेष रूप से व्यवघान होने पर। इसकी वजह ये है कि भले ही राज्यपाल ने अपने श्रीमुख से पूरा अभिभाषण पढ़ा हो या नहीं, मगर वह लिखित रूप में सभी विधायकों को उपलब्ध कराया जाता है, ताकि वे आराम से उसका अध्ययन कर सकें। बेशक अभिभाषण को पूरा नहीं पढऩा एक विवाद का विषय हो सकता है, मगर सवाल उठता है कि वैसे भी अभिभाषण में सरकार की ओर से अपनी बढ़ाई के अलावा होता क्या है? ऐसा कितनी बार हुआ है कि किसी राज्यपाल ने सरकार की ओर लिख दिया गया अभिभाषण छोड़ कर अपनी ओर से कुछ नई बात रखी हो? क्या अभिभाषण परंपरा मात्र का हिस्सा मात्र नहीं रह गया है? पढऩे को जरूर वह पढ़ा जाता है, मगर उसे वास्तव में कितने विधायक सुनते हैं? क्या उसमें सरकार की उपब्धियों व भावी योजनाओं का बखान के अलावा कुछ होता भी है, जिसे कि विधायकगण गौर से सुनते हों? क्या ऐसे ऊबाऊ अभिभाषण को सुनते-सुनते अमूमन विधायको को ऊंग नहीं आ जाती? भले ही अभिभाषण के बहाने राज्यपाल को विधानसभा में गरिमामय उपस्थिति दर्ज करवाने का मौका मिलता हो, इस कारण यह परंपरा ठीक लगती है, मगर अपना तो मानना है कि राज्यपाल की उपस्थिति में ही अभिभाषण सदन के पटल पर मात्र रख दिया जाना चाहिए। उसे पढऩे में जो वक्त जाया होता है, उसका बेहतर उपयोग किया जाना चाहिए।
भास्कर के अग्र लेख में कहा गया है कि आखिर करोड़ों राजस्थानियों के साथ इस तरह भावनात्मक मजाक क्यों किया जा रहा है? समझ में नहीं आता कि इससे आखिर किस प्रकार भावनात्मक मजाक हुआ है? आम आदमी की हालत तो ये है कि वह इसे सुनना ही पसंद नहीं करता। दूसरे दिन अखबारों में छप जाए तो भी उसे पढऩे में अपना वक्त जाया नहीं करता। वह सिर्फ महत्वपूर्ण हाईलाइट्स पर ही नजर डालता है। यदि अभिभाषण इतना ही भावनात्मक है तो उसे सभी अखबारों को पूरा का पूरा छापना चाहिए, ताकि राज्य के साढ़े छह करोड़ लोगों की भावनाओं का सम्मान हो सके।
बड़े मजे की बात है कि लेखक ने यह भी स्वीकार किया है कि सही है अभिभाषण में रुचि कम हो रही है। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? अगर अभिभाषण में मौलिकता बची होती। सवाल उठता है कि क्या अब तक कितने राज्यपालों ने खुद का लिखा हुआ अभिभाषण पढ़ा है।
लेख के आखिर में लिखा है कि इस पर बहस तो होनी ही चाहिए कि पढ़े हुए मान लिए जाने का मतलब क्या है? क्या यह होना चाहिए या नए सिरे से इस पर चर्चा होनी चाहिए-क्यों पढ़ा हुआ मान लिया जाए। अपन ने लेखक की ओर से बहस की अपेक्षा को पूरा करने का प्रयास किया है। आखिर में अपना मानना है कि यह इतना बड़ा मुद्दा था नहीं, जिस पर कि दैनिक भास्कर जैसे अखबार को अग्र लेख लिखने की जरूरत पड़ गई।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, फ़रवरी 22, 2013

तिवाड़ी ने खोली भाजपाई एकता की पोल

ghanshyam tiwariलंबी जद्दोजहद के बाद भले ही पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व संघ लॉबी के बीच सुलह हो गई हो और इस एकता से कथित अनुशासित पार्टी भाजपा के कार्यकर्ता उत्साहित हों, मगर वरिष्ठ भाजपा नेता घनश्याम तिवाड़ी इस एकता की पोल खोलने को उतारु हैं। वे अपनी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जताने की जिद पर अड़े हैं, भले ही इससे पार्टी एकता की छीछालेदर हो जाए। उन्होंने इसका इसका ताजा नमूना पेश किया राजस्थान विधानसभा सत्र के पहले दिन राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान। उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर राज्यपाल के अंग्रेजी में पढ़े जाने वाले अभिभाषण पर व्यवस्था का सवाल उठाते हुए ऐतराज किया। यह बात दीगर है कि राज्यपाल ने उनके विरोध को देखते हुए अभिभाषण के कुछ पैरे हिंदी में पढ़े, मगर इससे भाजपाई रणनीति की कमजोरी तो उजागर हो ही गई।
अव्वल तो वे भाजपा विधायक दल की बैठक में गए ही नहीं, जिसमें कि रणनीति तैयार की गई थी। इसी से अंदाजा लग जाता है कि उन्हें पार्टी गाइड लाइन की कोई परवाह ही नहीं है। इतना ही नहीं, उन्होंने जो कहा था वह करके दिखाया। ज्ञातव्य है कि जब यह बात सामने आई कि राज्यपाल मारग्रेट अल्वा अंग्रेजी में अभिभाषण पढ़ेंगी तो भाजपा का रुख स्पष्ट नहीं था कि वह इसका विरोध करेगी या नहीं, जबकि तिवाड़ी ने पहले ही कह दिया कि वे तो इसका विरोध करेंगे, चाहे कोई उनका साथ दे या नहीं। वे अकेले ही इस मुद्दे को उठाने का ऐलान कर चुके थे। और ठीक इसके अनुरूप किया। हालांकि भाजपा विधायक दल की बैठक में यह तय हुआ था कि राज्यपाल के अभिभाषण की भाषा को लेकर नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया विरोध दर्ज करवाएंगे, लेकिन तिवाड़ी ने इस फैसले की परवाह किए बिना ही विधानसभा में अभिभाषण शुरू होने से पहले ही हिंदी-अंग्रेजी का मुद्दा उठा लिया। बाद में कटारिया को यह कह सफाई देनी पड़ी कि उन्होंने विधायक दल की बैठक खत्म होने के बाद तिवाड़ी को बता दिया था कि क्या रणनीति तय हुई है। इस प्रकार भले ही कटारिया ने पार्टी में एकजुटता होने का संकेत दिया हो, मगर यह साफ है कि तिवाड़ी बेहद नाराज हैं। उनके तल्खी भले जवाब को दिखिए-मुझे विधायक दल की बैठक की सूचना नहीं थी। मैंने कोई मुद्दा हाईजेक नहीं किया। मैंने सदन में व्यवस्था का प्रश्न उठाया था कि राज्यपाल अंग्रेजी में अभिभाषण नहीं पढ़ सकतीं। ये बात जो जानता होगा वही तो बोलेगा! मैंने कोई पार्टी लाइन नहीं तोड़ी। ये विधानसभा के स्वाभिमान और राष्ट्रभाषा की रक्षा का मसला था। कुल मिला कर यह स्पष्ट है कि तिवाड़ी को अभी राजी नहीं किया जा सका है और वे आगे भी फटे में टांग फंसाते रहेंगे।
ज्ञातव्य है कि प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति उनकी असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनके मन में पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा इसी बयान से लगा जा सकता है कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा।
-तेजवानी गिरधर

हवाई है राजस्थानी बिन गूंगो राजस्थान अभियान

rajasthani 1न्यूयॉर्क में अखिल भारतीय राजस्थानी मान्यता संघर्ष समिति ने विश्व भाषा दिवस पर गत दिवस गोष्ठी कर राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग करते हुए कहा कि ऐसा नहीं होने तक समिति चुप नहीं बैठेगी। समिति के अंतरराष्ट्रीय संयोजक प्रेम भंडारी, न्यूयॉर्क में समिति के संयोजक सुशील गोयल तथा सह संयोजक चंद्र प्रकाश सुखवाल ने अपने मुंह पर राजस्थानी बिना गूंगो राजस्थान लिखी पट्टी बांधकर अपनी मांग रखी। इस मौके पर न्यूयॉर्क के काउंसिल जनरल ऑफ इंडिया प्रभु दयाल के सम्मान में भंडारी ने भोज भी दिया। इस कार्यक्रम से साफ नजर आ रहा था कि यह मात्र एक रस्म थी, जिसे हर साल भाषा दिवस अथवा अन्य मौकों पर गाहे-बगाहे निभाया जाता है, बाकी इस मांग को वाकई मनवाने के प्रति न तो जज्बा है और न ही समर्पण। आज जब किसी भी मांग के लिए लंबा और तेज आंदोलन देखे बिना उसे पूरा करने की सरकारों की प्रवृत्ति सी बन गई है, भला इस प्रकार के रस्मी आयोजनों से क्या होने वाला है?
rajasthani 2कुछ इसी तरह की रस्म अजमेर में राजस्थानी भाषा मोट्यार परिषद के बैनर तले निभाई गई, जिसमें राजस्थानी भाषा में उच्च योग्यता हासिल कर चुके छात्रों ने कलेक्टर को मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन दिया। इस मौके पर अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति अजमेर संभाग के संभागीय अध्यक्ष नवीन सोगानी के नेतृत्व में कलेक्ट्रेट कार्यालय पर रस्मी धरना दिया गया, जिस में चंद लोगों ने शिरकत की।
कुछ इसी तरह का प्रहसन राजस्थान लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में राजस्थानी भाषा का अलग प्रश्न पत्र रखने की मांग करने वाली अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति ने आरटेट में भी राजस्थानी भाषा को शामिल करने की अलख तो जगाने की कोशिश की थी, मगर उसका असर कहीं नजर नहीं आया। समिति ने परीक्षा वाले दिन को दिन काला दिवस के रूप में मनाया। इस मौके पर पदाधिकारियों ने आरटेट अभ्यर्थियों व शहरवासियों को पेम्फलेट्स वितरित कर अभ्यर्थियों से काली पट्टी बांध कर परीक्षा देने का आग्रह किया, मगर एक भी अभ्यर्थी ने काली पट्टी बांध कर परीक्षा नहीं दी। अनेक केंद्रों पर तो अभ्यर्थियों को यह भी नहीं पता था कि आज कोई काला दिवस मनाया गया है। अजमेर ही नहीं, राज्य स्तर पर यह मुहिम चलाई गई। यहां तक कि न्यूयॉर्क से अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के अंतरराष्ट्रीय संयोजक तथा राना के मीडिया चेयरमैन प्रेम भंडारी ने भी राज्य सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए काली पट्टी नत्थी कर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को पत्र प्रेषित किया।
rajasthaniसवाल ये उठता है कि आखिर क्या वजह है कि राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास पिछले दस साल से पड़ा है और उस पर कोई कार्यवाही नहीं हो रही? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम राजनेताओं में इस मांग को पूरा करवाने के लिए इच्छा शक्ति ही नहीं जगा पाए? राजनेताओं की छोडिय़े क्या वजह है किराजस्थानी संस्कृति की अस्मिता से जुड़ा यह विषय आम राजस्थानी को आंदोलित क्यों नहीं कर रहा? कहीं ऐसा तो नहीं कि समिति की ओर उठाई गई मांग केवल चंद राजस्थानी भाषा प्रेमियों की मांग है, आम राजस्थानी को उससे कोई सरोकार नहीं? या आम राजस्थानी को समझ में ही नहीं आ रहा कि उनके हित की बात की जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस मुहिम को चलाने वाले नेता हवाई हैं, उनकी आम लोगों में न तो कोई खास पकड़ है और न ही उनकी आवाज में दम है? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये नेता कहने भर को जाने-पहचाने चेहरे हैं, उनके पीछे आम आदमी नहीं जुड़ा हुआ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि समिति लाख कोशिश के बाद भी राजनीतिक नेताओं का समर्थन हासिल नहीं कर पाई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह पूरी मुहिम केवल मीडिया के सहयोग की देन है, इस कारण धरातल पर इसका कोई असर नहीं नजर आता? जरूर कहीं न कहीं गड़बड़ है। इस पर समिति के सभी पदाधिकारियों को गंभीर चिंतन करना होगा। उन्हें इस पर विचार करना होगा कि जनजागृति लाने के लिए कौन सा तरीका अपनाया जाए। आम राजस्थानी को भी समझना होगा कि ये मुहिम उसकी मातृभाषा की अस्मिता की खातिर है, अत: इसे सहयोग देना उसका परम कर्तव्य है।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, फ़रवरी 20, 2013

तिवाड़ी को हाशिये पर चले जाने का मलाल

ghanshyam tiwariराजस्थान भाजपा में लंबे समय चल रही खींचतान को भले ही श्रीमती वसुंधरा राजे को प्रदेश अध्यक्ष व गुलाब चंद कटारिया को नेता प्रतिपक्ष बना कर समाप्त मान लिया गया हो, मगर भाजपा के दिग्गज नेता घनश्याम तिवाड़ी अब भी नाराज हैं। उन्हें मनाने की लाख कोशिश की गई, उनकी नाराजगी अब भी खत्म नहीं हो पा रही। प्रदेश भाजपा में नए तालमेल के प्रति उनकी असहमति तभी पता लग गई थी, जबकि दिल्ली में सुलह वाले दिन वे तुरंत वहां से निजी काम के लिए चले गए। इसके बाद वसुंधरा के राजस्थान आगमन पर स्वागत करने भी नहीं गए। श्रीमती वसुंधरा के पद भार संभालने वाले दिन सहित कटारिया के नेता प्रतिपक्ष चुने जाने पर मौजूद तो रहे, मगर कटे-कटे से। कटारिया के स्वागत समारोह में उन्हें बार-बार मंच पर बुलाया गया लेकिन वे अपनी जगह से नहीं हिले और हाथ का इशारा कर इनकार कर दिया। बताते हैं कि इससे पहले तिवाड़ी बैठक में ही नहीं आ रहे थे, लेकिन कटारिया और भूपेंद्र यादव उन्हें घर मनाने गए। इसके बाद ही तिवाड़ी यहां आने के लिए राजी हुए। उन्होंने दुबारा उप नेता बनने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनके मन में पीड़ा कितनी गहरी है, इसका अंदाजा इसी बयान से लगा जा सकता है कि मैं ब्राह्मण के घर जन्मा हूं। ब्राह्मण का तो मास बेस हो ही नहीं सकता। मैं राजनीति में जरूर हूं, लेकिन स्वाभिमान से समझौता करना अपनी शान के खिलाफ समझता हूं। मैं उपनेता का पद स्वीकार नहीं करूंगा।
कानाफूसी है कि तिवाड़ी को अपने हाशिये पल चले जाने का मलाल है। अफसोसनाक बात ये है कि वर्षों तक पार्टी की सेवा करने के बाद आज इस मुकाम पर वे अकेले पड़ गए हैं। अन्य सभी वसुंधरा या कटारिया की छत्रछाया में अपना मुकाम बना रहे हैं। राजनीति के जानकार मानते हैं कि अगर खुद ही खुद को अकेला जाहिर करेंगे तो खंडहर हो जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, फ़रवरी 17, 2013

मदनी के बयान में मुस्लिमों के मोदी प्रेम की तलाश

mehamood madaniगुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव महमूद मदनी ने जैसे यह बयान दिया है कि मोदी को लेकर मुसलमानों के रुख में बदलाव आया है, एक ओर जहां अन्य मुस्लिम संगठनों ने ऐतराज जताया है, वहीं हिंदूवादी उसमें मुसलमानों के मोदी के प्रति उपजे नए प्रेम को तलाश रहे हैं। ज्ञातव्य है कि हाल ही न्यूज चैनल आज तक के एक कार्यक्रम में जब मदनी से पूछा गया कि मोदी को लेकर मुसलमानों के रुख में बदलाव आया है, तो उन्होंने कहा, गुजरात चुनाव में मोदी को मुसलमानों के वोट मिले हैं। हालात बदले हैं। जमाना बदला है। बहरहाल कुछ तो बात है उनमें, तभी वोट मिला है।
असल में मदनी के बयान में जो मर्म छिपा हुआ है वह गुजरात विधानसभा चुनाव के परिणाम में सामने आ चुका है। मुसलमानों को रिझाने का प्रहसन करने के बावजूद एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिए जाने और उसके बाद भी मुस्लिम बहुल इलाकों में मोदी को पर्याप्त वोट मिलने पर एक ओर जहां राजनीतिज्ञ चक्कर में पड़ गए, वहीं दूसरी ओर यह संदेश गया कि मुसलमानों में मोदी के प्रति स्वीकार्यता कायम हुई है।
n modi 5तभी से यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या देशभर के मुसलमानों को भी अब मोदी से कोई ऐतराज नहीं। ऐसे में जैसे ही मदनी का बयान आया तो बवाल होना ही था। हालांकि जैसे ही मदनी को लगा कि उनके बयान को राष्ट्रीय संदर्भ में लिया जा रहा है तो उन्होंने अपने बयान में संशोधन करते हुए कहा कि उन्होंने यह बात केवल गुजरात के संदर्भ में कही थी। उन्होंने कांग्रेस का नाम लिए बगैर कहा कि गुजरात में लोगों के सामने दो मेहरबान थे। वे भी इसी तरह के हैं, तो लोगों ने मोदी को ही चुन लिया। कोई दूध का धुला नहीं है। मदनी ने कहा कि मेरे बयान को विषय से हटकर पेश किया जा रहा है। मैंने सिर्फ गुजरात को लेकर यह बात कही है। राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों के रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। यह कभी नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में खुद भाजपा के ही राष्ट्रीय उपाध्यक्ष कलराज मिश्र ने यह कह कर सभी को चौंका दिया था कि गुजरात में मुसलमानों ने भी नरेंद्र मोदी को वोट दिया, क्योंकि इसके पीछे उनका डर व लालच था। डर इस बात का कि वे मोदी के खिलाफ जाकर उनकी आंखों की किरकिरी नहीं बनना चाहते थे और लालच था विकास का। इंडो-एशियन न्यूज सर्विस को दिए साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने मोदी को ही वोट दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी की ही सरकार बननी है तो फिर काहे को उनसे दुश्मनी मोल ली जाए। हालांकि मदनी ने यह बात साफ तौर पर तो नहीं कही, मगर यह कह इशारा जरूर किया कि कुछ तो बात है उनमें, तभी वोट मिला है। उन्होंने अपने बयान को राष्ट्रीय संदर्भ में न लिए जाने की जो बात कही है, वह पूरी तरह से इस बात पुष्ट करती है कि मुसलमानों ने कारण विशेष से मोदी को समर्थन दिया।
बहरहाल, भले ही हिंदूवादी मदनी के बयान से खुश हो रहे हों, मगर प्रतीत ये होता है कि मिश्र व मदनी दोनों एक ही बात कर रहे हैं। इसके पीछे एक तर्क भी समझ में आता है। वो यह कि मोदी के राज में गिनती के कट्टरपंथी मुसलमानों को उन्होंने कुचल दिया, इस कारण टकराव मोल लेने वाला कोई रहा ही नहीं। रहा सवाल शांतिप्रिय व व्यापार करने वाले अधिकतर मुसलमान का तो उसे तो अमन की जिंदगी चाहिए, फिर भले ही सरकार मोदी ही क्यों न हो। वह यह भी जानता है कि मोदी रहे तो कट्टरपंथी कभी उठ ही नहीं पाएगा, ऐसे में टकराव कौन मोल लेगा? यही सोच कर उन्होंने मोदी को वोट दिया। कदाचित वे यह समझते थे कि अगर कांग्रेस आई तो एक बार फिर तुष्टिकरण के चलते कट्टरपंथी ताकतवर होगा कि उनकी शांतिप्रिय जिंदगी के लिए परेशानी का सबब ही बनेगा। ऐसे में बेहतर यही है कि मोद को वोट दे दिया जाए, ताकि मोदी खुश भी हो जाएं ओर तंग नहीं करें। मुसलमानों के दमन का आरोप झेल रहे मोदी के लिए यह राहत की बात रही कि एक भी मुसलमान को टिकट नहीं देने के बाद भी मुसलमानों ने उनका समर्थन किया। शायद इसी वजह से उन्होंने अपनी जीत के बाद आयोजित सबसे पहली सभा में इशारों ही इशारों में मुसलमानों से उन्हें हुई किसी भी प्रकार की तकलीफ के लिए माफी मांग ली।
लब्बोलुआब, कम से कम आगामी लोकसभा चुनाव होने तक तो राजनीतिज्ञ मोदी बनाम मुसलमान पर पीएचडी करते रहेंगे। 
-तेजवानी गिरधर